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________________ वीर सेवा मन्दिर प्रन्थमाला = 1 भव्य पद्माकरानन्दी] सहस्रांशुरिवापरः । aat गुणाकरः कीर्ति सहस्रोब पदोऽजनि ॥ १६ ॥ कपूर- पूरोज्ज्वल- चारुकीर्तिः सर्वोपकारोयत चितवृत्त । शिप्यः समाराराधित वीरचन्द्रस्तस्य प्रसिद्धो भुवि वीर्य चन्द्रः १७ सूरेश्चारित्र - सूर्यस्य तस्य तत्त्वार्थयेदिनः । विवेक वसति विद्वासोऽस्य श्री चन्द्रोऽभवत् ॥ १८ ॥ भव्य प्रार्थनया ज्ञात्वा पूर्वाचार्यकृतां कृतिः । पत्ता - सो सिरिश्चंद सुरिंद फणि रिंद बंदिव अक्खय सुक्ख णिवासु होइ देव परमप्पड ॥३० इय पंडिय सिरिचंदकए पयडियकोडहलसर सोहनमान पव्वत्तए परितोसिय-बुह चित्राए दं. एकहर यह दंड मिच्छत्त-पउहिं तिरंडिए कोहाइ- कसाब- विहंडए सत्थम्मि महागुण- मंडए देव-गुरु-धम्मायण- गुणदाम-पबासयो ग्राम पढमपरिच्छेच समत्तो ॥ संधि १ ॥ अन्तिम भाग: T परमार वंस-मह गुण उदयई । कुंदकुंदाइरियहो भाई । देसीगण पहाणु गुण गणहरु, अबद्दण्णउ गात्रइ सइ गणहरु | तव पहा वि भाविथ वासउ, धम्मभाव विहिय पावासउ । भव्वमणो खलियाय दिसरु, सिरिकित्ति तिसु चित्त मुखासरु ॥ तासु सीस पंडिय- चूडामणि, सिरि-गंगेय- पमुह पउरावणि । पोलत मिय सुइया सरोरु कुमुखि, उंहुलिया मब गयण सहासकुसल ॥ वरस पसरय - साहिय महियलु, गियमहत्त-परिणिज्जिय- वाहयलु । चडविह-संघ महाधुर-धारण, दुसह - काम-सर-घोर - शिवारण ॥ धम्मु व रिसिवें जल रूवड, सिरि-सुकिन्तिणाम संभूयउ । तासु वि परवाइय-मय-भंजणु, गाणा बुहयणर्माया अनुरंज ॥ चारु-गुणोहर-मण-रयशायरु, चाउरंग-गण- वच्छलय यरु । इंदिय चंचल मयहं मयाहिड, चउकसायसारं गमिगाहिउ ॥ सिरिचंदुज्जल-जस संजायड, शामें सहसकिन्ति विक्खायड । घन्ता-तहो देव इंदुगुरु सीसु हुड, बीयर वासव मुणि बीरिंदु ॥ उदय कितीवितहा तुरिय, सुहइंदु वि पंचम भाव उ । तेनायं रचितः सम्यक् कथाकोशोऽति सुन्दरः ॥१३ यत्र स्खलितं किंचित् प्रमाद वशतो मम । तत्क्षमंतु क्षमाशीलाः सुधियः सोधयंतु च ॥२०॥ यावन्मही मरन्मयी मरुतो मंदरोरगाः । परमेष्ठी पावनो धर्मः परमार्थ- परमागमः २१॥ यावत्सुराः सुराधीश: स्वर्गचन्द्रार्क - तारकाः । तात्काव्यमिदं स्याद्रीचन्द्रोज्जल - कीर्तिमत् ॥२२॥ ८ - रयण करंडसाव्यायार (राम कर रहश्रावकाचार ) पण्डित श्रीचन्द्र, रचना काल सं० १९२३ श्रादिभाग: सो जयड जम्मि जिणो पढमो पढमं पयासिउं जेण । कुईसु पढंतायां दिवयांकर - लंबणा धम्मो ॥१॥ सो जय संतिणाहो विग्धं सहस्साइं णाममिया । जस्सा वहत्थिऊणं पाविज्जह ईहिया सिद्धी ॥२॥ जयउ सिरि वीरइंदो अकलंको अक्खनो णिरावरणो । म्मिल केवलणाणो उज्जोइय सयल- भुवणयलो ॥३॥ सिद्धिवि विजय बुद्धि तुट्ठि पुट्ठि पीयंकर । सिद्ध सरूव जयंतु दिंतु चउवीस वि तित्थंकर ॥४॥ धत्ता - प्रवरवि जे जिणइंदा सिद्ध-सूरि पाठय वर । संजय साहु जयंतु दिंतु बुद्धि महु सुंदर ॥१॥ पण वेष्पिणु जिण वयसुग्ायाहें विमलई पयाई सुयदेवया । दंसण-कह-रयरणकरंडुणामु श्राहासमि कन्बु मोहिरामु । एक्केक पहाणु महा मइल्ल इत्थस्थि अणेय कई बहल्ल । हरिगंदि मुदु समंतभद्द, अकलंक पयो परमय-विम । मुम्बइ कुलभूस पायपुज्ज, तहा विज्जाणंदुधरांत विज्ज वध ? रसेणु महामह वीरसेगु जिरणसेगु कुबोहि - विहंजसेणु गुणभद्दवणंकुह उच्छमल्लु सिरि सोमराउ परमय-स- सल्लु च उमुह चउमुहु व पसिद्ध भाई कहराइ संयंभु सर्वभुणाई । तह पुष्यंतु गिम्मुक्कदो वरिगज्जइ किं सुयएवि कोसु । सिरिहरिस का लिया साई सार, अवरुवि को गणइ कहाकार । ही हिं मह संपइ आरिसेहिं किं कीरह तर्हि अम्हारिसेहिं ।
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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