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महावीर स्मृतिग्रन्थ
भगवान महावीर
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HILLARIES
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श्री महावीर निर्वाण समिति उत्तर प्रदेश
For Private & Personal use only
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UPIDOG
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तीर्थंकर महावीर
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भगवान महावीर स्मृति ग्रन्थ
प्रधान सम्पादक :
डा० ज्योति प्रसाद जैन
लखनऊ
संपादक मण्डल :
पं० कैलाश चन्द्र शास्त्री 'सिद्धान्ताचार्य', वाराणसी अधिष्ठाता स्याद्वाद महाविद्यालय, संपादक 'जैनसन्देश' श्री जवाहर लाल लोढा, संपादक 'श्वेताम्बर जैन', आगरा श्री शरदकुमार 'साधक', संपादक 'चौराहा', वाराणसी डा० मोहनलाल मेहता, संपादक 'श्रमण', वाराणसी
प्रकाशक :
श्री शशिभूषण शरण सचिव,
श्री महावीर निर्वाण समिति, उत्तर प्रदेश
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* भगवान महावीर स्मृति ग्रन्थ
Bhagwan Mahavira Smriti Granth
★ प्रधान सम्पादक :
डा० ज्योति प्रसाद जैन
*
प्रथम प्रवेश : दीपावली म०नि० सं० २५०१ ३ नवम्बर, १९७५
* मूल्य :
पचास रुपये
* प्रकाशक : श्री महावीर निर्वाण समिति,
उत्तर प्रदेश, लखनऊ
★ प्राप्ति-स्थान :
श्री अजित प्रसाद जैन उप सचिव, श्री म०नि० समिति, उ० प्र०,
पारस सदन, आर्यनगर, लखनऊ-२२६००४
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मुद्रक : जय मां प्रिंटिंग प्रेस, जन प्रिंटिंग प्रेस एवं साहु आर्ट प्रिंटर्स, लखनऊ
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सर्वोदय-तीर्थ-का महावीर सर्वांपदामन्तकरं निरन्तं 'सर्वोदयं' तीर्थमिदं तवैव
-समन्तभद्राचार्यः
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प्रकाशकीय वक्तव्य
श्री महावीर निर्वाण समिति, उत्तर प्रदेश की यह आकांक्षा रही कि अहिंसा के महान प्रणेता भगवान महावीर को श्रद्धा के ऐसे सुमन अर्पित किये जाँय जो उपयोगी एवं स्थायी हो सकें । उसी के फलस्वरूप प्रस्तुत 'भगवान महावीर स्मृति ग्रन्थ' का प्रकाशन सुलभ हुआ । इस ग्रन्थ के निर्माण में जिन मनीषी विद्वानों का सहयोग रहा है, उनके प्रति समिति आभारी है । इस ग्रन्थ की रूपरेखा और व्यवस्था एवं सम्पादक के समस्त दायित्व का जैन संस्कृति के प्रतिष्ठित विद्वान विद्यावारिधि डा० ज्योति प्रसाद जैन ने जिस योग्यता एवं कुशलता से निर्वाह किया है और इसके लिए जो अथक परिश्रम उन्होंने किया है उसके लिए समिति उनकी हृदय से आभारी है ।
ग्रन्थ में सात खण्ड हैं । प्रथम खण्ड में भगवान महावीर की सूक्तियाँ एवं उपदेश सरल अनुवाद सहित संकलित हैं, जिससे कि जिज्ञासु उनका अर्थ सरलता से हृदयंगम कर सकें । द्वितीय खण्ड में भगवान महावीर की स्तुति में रचित स्तोत्र एवं स्तवन कालक्रमानुसार दिये गये हैं । तृतीय खण्ड में भगवान महावीर का जीवन परिचय दिया गया है, उनकी उपलब्धियों पर प्रकाश डाला गया है, और उनकी धर्म व्यवस्था की प्रमुख विशेषताओं की चर्चा की गई है । चतुर्थ खण्ड में जैन दर्शन, साहित्य एवं संस्कृति पर विविध सारगर्भित लेख दिये गये हैं । भगवान महावीर अहिंसा के महान प्रणेता थे और उनके अनुयायियां के लिए आज भी मांसाहार सर्वथा वर्जित एवं अग्राह्य है, अतः पंचम खण्ड में शाकाहार का वैज्ञानिक विवेचन किया गया है । षष्ठम खण्ड में उत्तर प्रदेश में जैन धर्म के विकास क्रम, पुरातत्व, कलावैभव, साहित्य एवं समाज के विषय में उपयोगी सामग्री इस प्रकार संकलित की गई है कि जिज्ञासु एक ही स्थान पर इस प्रदेश में जैन धर्म की अवस्था और जैन समाज के कृतित्व का परिचय प्राप्त कर सके । अन्तिम खण्ड में श्री महावीर निर्वाण समिति, उत्तर प्रदेश, के कार्यकलापों का विवरण प्रस्तुत किया गया है ।
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सम्पूर्ण ग्रन्थ का नियोजन इस प्रकार किया है कि वह जिज्ञासु के लिए उपयोगी, पाठक के लिए सहज, एवं शोधकर्ता के लिए लाभदायक सामग्री का कार्य कर सके । समिति को सन्तोष है कि यह वृहत्कार्य अर्ध-द्विसहस्राब्दि समारोह के समापन के अवसर पर पूर्ण हो सका है । मुझे आशा है कि पाठकवृन्द को हमारा यह प्रयास रुचिकर होगा।
दीपावली, महावीराब्द २५०१
३ नवम्बर, १९७५ ई०
-शशि भूषण शरण सचिव, श्री महावीर निर्वाण समिति,
उत्तर प्रदेश
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संपादकीय
तीर्थंकर महावीर के २५००वें निर्वाण महोत्सव को पूरे एक वर्ष (१९७४-७५) पर्यन्त समुचित रूप से मनाने हेतु अन्तर्राष्ट्रीय, राष्ट्रीय, राजकीय, संभागीय एवं स्थानीय स्तरों पर अनेक संगठन बने, नाना योजनाएं बनीं और अल्पाधिक अंशों में कार्यान्वित भी हुईं।
उत्तर प्रदेश में भी राज्य स्तर पर एक 'श्री महावीर निर्वाण समिति का गठन हुआ। उक्त समिति की एक योजना निर्वाण वर्ष के समापन पर एक उपयुक्त ग्रन्थ प्रकाशित करने की थी, जिसका दायित्व मुझे सौंपा गया। मेरे सहयोग के लिए चार वरिष्ठ विद्वान साहित्यकारों एवं अनुभवी पत्रकारों का एक संपादक मंडल भी गठित किया गया।
मेरा प्रयत्न रहा है कि स्मृति ग्रन्थ में ठोस एवं स्थायी महत्त्व की सामग्री यथासंभव पर्याप्त रहे, जिससे कि वह एक सामयिक प्रकाशन मात्र न रह जाय, अपितु प्रबुद्ध पाठकों के लिए पठनीय, उपादेय एवं संग्रहणीय हो। इस उद्देश्य की पूर्ति में यह 'भगवान महावीर स्मृति ग्रन्थ' कहां तक सफल रहा है, इसका निर्णय तो विज्ञ पाठक एवं समीक्षकसमालोचक ही करेंगे। इतना ही कहा जा सकता है कि उसके लिए समय, श्रम और सावधानी में अपने जानते कोई कोताही नहीं की गयी है। तथापि, ग्रन्थ में अनेक प्रकार की त्रुटियाँ रही हो सकती हैं, उनके लिए में सहृदय पाठकों एवं समीक्षकों से सविनय क्षमाप्रार्थी हूँ।
'भगवान महावीर स्मृति ग्रन्थ' के प्रधान संपादक के रूप में मेरा यह सुखद कर्तव्य है कि मैं उन सभी महानुभावों के प्रति अपनी हादिक कृतज्ञता प्रकट करू जिन्होंने प्रत्यक्ष या परोक्ष, किसी भी रूप मैं उसके आयोजन, निर्माण, मुद्रण, प्रकाशन आदि में योग दिया है।
समिति के संरक्षक महामहिम राज्यपाल डा० एम० चेन्ना रेड्डी और अध्यक्ष, राज्य के यशस्वी मुख्यमंत्री माननीय श्री हेमवती नन्दन बहुगुणा का संरक्षकत्व एवं कृपादृष्टि समिति तथा उसकी योजनाओं पर निरन्तर बनी रही है। समिति के कार्याध्यक्ष एवं राज्य के उच्चशिक्षा मन्त्री माननीय डा० रामजी लाल सहायक से ग्रन्थ के कार्य के लिए प्रेरणा, प्रोत्साहन एवं मार्गदर्शन भी समय-समय पर मिलता रहा है। समिति के उपाध्यक्ष श्री लक्ष्मीरमण आचार्य एवं समिति के सभी सदस्यों से प्रोत्साहन एवं सहयोग मिला है । समिति के सचिव,
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जो उत्तर प्रदेश राज्य के शिक्षा विभाग के भी आयुक्त एवं सचिव हैं, और इस ग्रन्थ के प्रकाशक हैं, सतत् प्रेरणास्त्रोत एवं पथप्रदर्शक रहे हैं। जब जो कठिनाई सामने आई, उन्होंने उसे सरल किया। उनके प्रौढ़ अनुभव, सुरुचि एवं दिलचस्पी का लाभ प्राप्त होने से ग्रन्थ का प्रकाशन इस रूप में संभव हुआ है । समिति के परम उत्साही उपसचिव, श्री अजित प्रसाद जैन से तो सभी प्रकार की सहायता एवं सक्रिय सहयोग पग-पग पर प्राप्त हुए हैं।
जिन पूज्य संतों एवं नेता महानुभावों के आशीर्वाद, सन्देश और श्रद्धांजलियाँ प्राप्त हई हैं, जिन विद्वान लेखकों की अमूल्य रचनाएं स्मृति ग्रन्थ के लिए प्राप्त हुई हैं, अथवा जिनके लेखों या लेखांशों का इसमें चयन किया गया है, उन सबका तथा उन पुस्तकों एवं पत्र-पत्रिकाओं आदि के लेखकों, संपादकों व प्रकाशकों का भी, जिनसे उक्त चयन किये गये हैं, मैं हृदय से आभारी हूँ। लखनऊ तथा मथुरा के राज्य संग्रहालयों के निदेशकों से तथा अन्य संस्थाओं या सज्जनों से इस ग्रन्थ में प्रकाशनार्थ जो चित्र आदि प्राप्त हुए हैं, उनका भी मैं कृतज्ञ हूँ। जिन संस्थाओं एवं संस्थानों ने शुभकामना संदेश भेजने की कृपा की है, वे भी धन्यवादाह हैं।
अन्त में, मैं अपने सहयोगी, संपादक मंडल के सम्माननीय सदस्यों का आभारी हूँ, जिनसे मुझे समय-समय पर परामर्श, मार्गदर्शन एवं सहयोग मिला है। ग्रन्थ जैसा भी कुछ बन पड़ा है, वह उपरोक्त सभी महानुभावों के सहयोग का फल है, उसकी त्रुटियों का दायित्व संपादक पर है, किन्तु विभिन्न लेखों में व्यक्त विचारों के लिए संपादक उत्तरदायी नहीं है।
-ज्योति प्रसाद जैन
ज्योति निकुञ्ज, चारबाग, लखनऊ-२२६००१ महावीर निर्वाणोत्सव २५०१ (३-११-१९७५)
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विषय-क्रम
प्रकाशकीय वक्तव्य सम्पादकीय सन्देश-शुभकामनाएं-श्रद्धांजलियाँ
खण्ड-१
पृष्ठ
महावीर वचनामृत
१-२०
१-४८
खण्ड-२
महावीर स्तवन [अ] प्राकृत पाठ :
१-अज्ञात २-गुणधराचार्य ३-यजुर्वेद ४-मज्झिम निकाय ५-कुन्दकुन्दाचार्य ६-निर्वाण भक्ति ७-मूलाचार ८-अनुयोग द्वार ६-नन्दीसूत्र १०-सूत्रकृतांग ११-भगवतीसूत्र १२-यतिवृषभाचार्य १३-जयधवल
१४-कल्पसूत्र १५-नेमिचन्द्र । [ब] अपभ्रंश पाठ:
१-पुष्पदन्त २-यश:कीति ३-श्रीधर ४-रईधु ५-जयमित्र हल्ल ६-कल्याण विजय
[स] संस्कृत पाठ :
१-स्वामी समन्तभद्र २-सिद्धसेनाचार्य ३-पूज्यपादाचार्य ४-अल्तेम शिलालेख ५-सूत्रकृतांग टीका ६-धनंजय ७-सुप्रभात स्तोत्र ८-रविषेणाचार्य ६-जिनसेनाचार्य १०-हरिभद्र सूरि ११-विद्यानन्द स्वामी १२-गुणभद्रोचार्य १३-असग १४-देवनन्दि १५-प्रभाचन्द्र १६-वादीभसिंह १६-हेमचन्द्राचार्य १८-दामनन्दि १६-माघनन्दि २०-आशाधर २१-सकलकीति २२-भागेन्दु २३-ज्ञानसागर
२४-ज्ञानमती माताजी २५-अज्ञात [६] भाषा स्तुतियां :
१-शुभचन्द्र भट्टारक २-भूधरदास ३-द्यानतराय ४-नवल शाह ५-मनरंगलाल ६-वृन्दावनदास ७-दौलतराम ८-नयनानन्द ६-मानिकचन्द्र १०-महाचन्द ११-चम्पादेवी १२-जिनचन्द यति १३-कुमुद १४-न्यामत सिंह 'दास'
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पृष्ठ
१५-नाथूराम 'प्रेमी' १६-जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर' १७-उपाध्याय अमर मुनि १८-श्रीलाल पंडित १६-मक्खनलाल न्यायाचार्य २०-आचार्य तुलसी गणि २१-अज्ञात २२-रामचरित उपाध्याय २३-शिवसिंह चौहान 'गुंजन' २४-मुकुल २५-प्रभाकर माचवे २६-रामकृष्ण 'मुज्तर' काकोरवी २७-विश्वदेव शर्मा २८-रामकरन शुक्ला २६-अनूप शर्मा ३०-निर्भय हाथरसी ३१-शोभनाथ पाठक ३२-रमेश रंजक' ३३-पुष्पेन्दु ३४-धन्यकुमार 'सुधेश' ३५-स्वरूपचन्द्र 'सरोज' ३६-कल्याण कुमार 'शशि' ३७-राजेन्द्र कुमार 'कुमरेश' ३८-कमल कुमार गोयल ३६-हीरालाल 'कौशल' ४०-घासीराम 'चन्द्र' ४१-प्रकाश चन्द्र ४२-सुरेन्द्र सागर प्रचंडिया ४३-'तन्मय' बुखारिया ४४-ताराचन्द्र 'प्रेमी' ४५-चन्द्रकान्त ४६-वीरेन्द्र प्रसाद जैन ४७-नेमिचन्द्र पाटोदिया ४५-प्रसन्न कुमार सेठी ४६-हजारी लाल जैन 'काका' ५०-इन्द्रचन्द्र शास्त्री ५१-वीरेन्द्र कुमार जैन ५२-रमेश रायजादा ५३-'ज्योति'
खण्ड-३ महावीरः युग, जीवन और देन
विषय
लेखक
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तीर्थंकर महावीर
महावीर की विशेषता __ महावीर युग में समाज और धर्म की स्थिति ...
भगवान महावीर मानव उत्कर्ष की ऊर्जा के संवाहक महावीर भव-भव की साधना यदि महावीर तीर्थंकर नहीं होते
चिन्तन के झरोखे से क महावीर कितने ज्ञात, कितने अज्ञात १० अहिंसा के मूर्त स्वरूप ११ महापुरुष महावीर १२ महावीर की निष्पक्षता का एक प्रसंग १३ ज्ञातपुत्र की अज्ञात साधना १४ महावीर और मूक जगत १५ भगवान महावीर-जीवन और दर्शन १६ भगवान महावीर का दुःख बोध १७ श्रमण भगवान महावीर १८ समता धर्म के प्ररूपक-महावीर
उपाध्याय मुनि विद्यानन्द सन्त विनोबा भावे डा० ज्योति प्रसाद जैन डा. वासुदेव शरण अग्रवाल श्री लक्ष्मी चन्द्र जैन डा० कामता प्रसाद जैन आचार्य तुलसी उपाध्याय अमर मुनि श्री जमनालाल जैन श्री राम नारायण उपाध्याय डा० सर्वपल्ली राधाकृष्णन श्री अगरचन्द्र नाहटा, बीकानेर श्री धनराज शामसुखा आचार्य रजनीश मुनि श्री राकेश कुमार डा० हरेन्द्र प्रसाद वर्मा पं० बेचर दास दोशी प्रो० दलसुख मालवणिया
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विषय
लेखक साध्वी अणिमा श्री डा० धर्म चन्द्र श्री शरद कुमार 'साधक' डा० प्रद्युम्न कुमार जैन
१६ समत्वस्रष्टा भगवान महावीर २० महावीर जीवन दर्शनः एक मूल्यांकन २१ समग्र क्रान्ति के दृष्टा २२ महावीर के जीवन-दर्शन का आधार विन्दु २३ दुःख और सुख के कारण २४ भगवान महावीर के जीवन पर एक दृष्टि २५ महावीर की भाषा क्रान्ति २६ महावीर निर्वाण-काल २७ महावीर ने कहा
पं० हीरालाल सिद्धान्ताचार्य ब्यावर डा० नेमिचन्द्र जैन डा० ज्योति प्रसाद जैन मुनि महेन्द्र कुमार 'प्रथम'
...
१-६८
१
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खण्ड-४
जैन धर्म, दर्शन और संस्कृति १ भगवान महावीर का दर्शन और धर्म
सिद्धान्ताचार्य पं. कैलाश चन्द्र शास्त्री २ जैन न्याय : संक्षिप्त विवेचन
डा. दरबारीलाल कोठिया न्यायाचार्य ३ गृहस्थ जीवन का जैन आदर्श
डा० ज्योति प्रसाद जैन ४ श्रावक के इक्कीस गुण ।
कविवर पं० बनारसीदास ५ भगवान महावीर की मांगलिक विरासत
पं० सुखलाल जो असाम्प्रदायिकता का मूलमंत्र अनेकान्त ... मुनि नथमल ७ महावीर और अहिंसा--आज के परिप्रेक्ष्य में ... पदम विभूषण डा० दौलतसिंह कोठारी ८ वर्तमान युग में महावीर के उपदेशों की सार्थकता
डा० प्रभाकर माचवे ६ राष्ट्रीय एकता के विकास में जैनधर्म का योग ... डा० (श्रीमती) कुसुमलता जैन १० महावीर का धर्म-जनधर्म
श्री रिषभदास रांका ११ जैन दर्शन की व्यापकता
डा० गोकुलचन्द्र जैन १२ अच्छा हिन्दू बनने के लिए अच्छा जैनी बनना आवश्यक है
श्री परिपूर्णानन्द वर्मा १३ भगवान महावीर की अहिंसा
आर्यिकारत्न ज्ञानमती माताजी १४ महावीर का नैतिकता बोध
डा० कमलचन्द्र सोगानी १५ जैनधर्म, महावीर और नारी
सुश्री सुशीला कुमारी वैद, एम.ए. १६ सर्वोदयी जैनधर्म और जातिवाद
पं० परमेष्ठी दास जैन न्या० ती० १७ बदलते सामाजिक मूल्यों में महावीर की भूमिका
डा० उम्मेदमल मुनौत __ क्या महावीर का युग कभी लौटेगा
डा० देवेन्द्रकुमार शास्त्री १६ भारतीय वास्तुकला के विकास में जैनधर्म का योगदान
प्रो० कृष्णदत्त बाजपेयी
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१८
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विषय
१ शाकाहार बनाम मांसाहार
२ शाकाहार-तन्त्र
३ प्राकृतिक भोजन शाकाहार
४
वास्तविक दया और अहिंसा ही शाकाहार का
१३ अण्डे कितने घातक, कितने भयानक १४ मांसाहार निषेधक विश्व-मनीषा
सही आधार
५ शाकाहारी सिद्धान्त के विभिन्न पक्ष
६ मैं शाकाहारी क्यों हुआ ?
७ मांसाहार अनिवार्यता जैसी कोई बात नहीं
८
वैज्ञानिक दृष्टि से हमारा आहार
६ मांसाहार त्याग का सामाजिक मूल्य
१० मांसाहार का दुष्परिणाम
११
मछली व मांस में विष
१२ मांस भक्षण से हड्डियाँ कमजोर होती हैं।
१५ शाकाहारी सिद्धान्त का इतिहास
१६ पश्चिमी देशों में शाकाहार प्रचार करने
खण्ड - ५
शाकाहार
वाली प्रमुख संस्थाएं
१७ संसार के विभिन्न देशों में शाकाहार प्रचार १८ तालिकाएं :
३ संतुलित भोजन
१ - शाकाहार एवं मांसाहार के पौष्टिक तत्वों की तुलनात्मक तालिका
(अ) शाकाहारी खाद्य
(ब) मांसाहारी खाद्य
२- भारतवासियों के लिए विभिन्न पौष्टिक
तत्वों की दैनिक आवश्यकता
(अ) वयस्क पुरुष का संतुलित भोजन
(ब) वयस्क स्त्री का संतुलित भोजन (स) किशोरावस्था वाले लड़के व लड़कियों का संतुलित भोजन
(द) बच्चों के लिए संतुलित भोजन
४- संतुलित भोजन, खाद्य पदार्थों का प्रति औंस संविभाग
:::
लेखक
डा० ज्योति प्रसाद जैन
डा० इन्दुभूषण जिंदल, एम. बी. बी. एस.
श्री प्रताप चन्द्र जैन
कविराज पं. शिव शर्मा डा. जे. एम. जस्सावाला महामहिम दलाई लामा श्री रामेश्वर दयाल दुबे
श्री जवाहर लाल लोढा
मिस कैथरीन हिलमैन डा. मोहन बोरा
डा. एलेग्जेंडर हेग
ज्योफ्री एल. रूड
11
पृष्ठ
१-५२
१
५
१०
Tex W N N N GI
११
१३
१५
१८
२१
२५
२६
२८
२८
३१
३८
३८ ४०
४७
४६
५०
५.१
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________________
पृष्ठ
२८१-१
खण्ड-६
उत्तर प्रदेश और जैनधर्म विषय
लेखक १ उत्तर प्रदेश में जैनधर्म का उदय और विकास ... डा. ज्योति प्रसाद जैन २ उत्तर प्रदेश के जैन तीर्थ एवं सांस्कृतिक
केन्द्र (क) तीर्थंकर जन्मभूमियां (ख) अन्य कल्याणक क्षेत्र (ग) तपोभूमियां एवं सिद्धभूमियां (घ) भ० महावीर के विहार स्थल (च) अतिशय क्षेत्र एवं कलाधाम
(छ) अर्वाचीन प्रसिद्ध जैन मन्दिर ३ उत्तर प्रदेश के जैन सन्त ४ उत्तर प्रदेश के जैन साहित्यकार ५ उत्तर प्रदेश के जैन पत्र और पत्रकार ६ उत्तर प्रदेश के जैन स्वतन्त्रता-सेनानी ७ उत्तर प्रदेश की जैन संस्थाएँ ८ उत्तर प्रदेश में जैनों की वर्तमान स्थिति
श्री रमाकान्त जैन ६ उत्तर प्रदेश में तीर्थकर महावीर
डा० शशिकान्त उत्तर प्रदेश के उत्कीर्ण लेख और उनका महत्व
श्री शैलेन्द्र रस्तोगी राज्य संग्रहालय लखनऊ की महावीर प्रतिमाएँ
डा० नीलकण्ठ पुरुषोत्तम जोशी १२ नीलांजना-नृत्य पट
श्री वी०एन० श्रीवास्तव १३ मथुरा संग्रहालय की कुषाणकालीन जैन मूर्तियाँ
श्री रमेश चन्द्र शर्मा १४ उत्तर भारत के तीन प्राचीन जैनतीर्थ
मुनि जयानन्द विजय स्वतन्त्रता संग्राम में उत्तर प्रदेश के जैनों का योगदान
... बा० रतनलाल जैन वकील
१०
११२
११७ ११८
११६ १२६
खण्ड-७ श्री महावीर निर्वाण समिति, उत्तर प्रदेश
समिति का गठन, कार्यकलाप एवं उपलब्धियां
१-३२
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चित्रावलि
१ आवरण एवं मुखपृष्ठ-लवणशोभिका का स्तूपांकित आयागपट (प्रथम शती ई०), कंकाली टीला.
मथुरा २ तीर्थंकर महावीर ३ सर्वोदय-तीर्थ-कर्ता महावीर ४ भगवान महावीर (गर्भावतरण की रात्रि में माता द्वारा देखे गये सोलह स्वप्नों के अंकन सहित। ५ तीर्थकर का त्रिरत्नाधारित शोडष-आरक धर्मचक्र
अर्हत् महावीर (७ वीं-८ वीं शती ई०), देवगढ़ ७ योगीश्वर वर्द्धमान महावीर ८ भगवान महावीर (गुप्तकालीन प्रतिमा), कंकाली टीला, मथुरा
मानस्तम्भ (१७६ जिन-प्रतिमाओं के अकन से युक्त), देवगढ़ ६-अ 'पूर्णभद्र' शैली का जिनमन्दिर (नं० २८), गुर्जरप्रतिहार कालीन, देवगढ़ १० आदितीर्थकर भ. ऋषभदेव की विशालकाय प्रतिमा, रायगंज मंदिर, अयोध्या ११ तीर्थंकर सम्भवनाथ का प्राचीन मन्दिर, श्रावस्ती १२ नवीन सम्भव-जिनालय, श्रावस्ती १३ सिंहद्वार, दिगम्बर बड़ा मन्दिर हस्तिनापुर १४ चौबीस तीर्थंकरों की टोंके, हस्तिनापूर १५ जल-मन्दिर, हस्तिनापुर । १६ मानस्तंभयुत दि. जैन मन्दिर, हस्तिनापूर १७ भगवान पार्श्वनाथ-मन्दिर, अहिच्छत्रा १८ 'तिखाल वाले बाबा', अहिच्छवा १६ दि० जैन धर्मशाला, अहिच्छना २० कलापूर्ण शिखरयुत बड़ा शान्तिनाथ जिनालय, देवगढ़ २१ मन्दिर नं० १२ का भव्य अर्धमण्डप, देवगढ़ २२ प्रेमालिंगित युग्म, नवधा भक्ति (आहार ग्रहण करते मुनि), आदि द्रश्यों के अंकनों से युक्त मन्दिर
नं० १२ के प्रदक्षिणापथ के प्रवेशद्वार का दांया पक्ष, देवगढ़ २३ सहस्रकूट चैत्य. देवगढ़ २४ कलापूर्ण मानस्तम्भ-शीर्ष, देवगढ़ २५ मानस्तम्भ नं० ११ का अलंकृत शीर्ष भाग, देवगढ़ २६ कल्पवृक्ष के नीचे युगलिया, देवगढ़ २७ धरणेन्द्र-पद्मावती, देवगढ़ २८ बीस-भुजा चक्रेश्वरीदेवी, देवगढ़ २६ शुचिस्मिता, देवगढ़ ३० कायोत्सर्ग तीर्थकर, देवगढ़
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३१ भगवान बाहुबलि, देवगढ़ ३२ भ० चन्द्रनाथ-पंचतीर्थी, देवगढ़ ३३ भगवान ऋषभनाथ-त्रितीर्थी, देवगढ़ ३४ चौमुखा सहस्त्रकट कलापूर्ण मन्दिर, बानपुर (जि. ललितपुर) ३५ धातुमयी पंचतीर्थी, राज्य संग्रहालय, लखनऊ ३६ दिग० जैन मन्दिर, श्रीनगर (गढ़वाल) ३७ लेखांकित 'चिन्तामणि' पार्श्व:प्रतिमा, रा० सं० लखनऊ ३८ लेखयुक्त महावीर प्रतिमा, महोबा, रा० संग्र० लखनऊ ३६ 'वीरनाथ'-पंचजिनेन्द्र पट्ट, श्रावस्ती, रा० संग्र० लखनऊ ४० उपाध्याय परमेष्टि, देवगढ़ ४१ भारतवर्ष की सर्वप्राचीन सरस्वती-प्रतिमा, कंकाली टीला मथुरा, राज्य संग्रहालय लखनऊ ४२ "देवनिर्मित स्तूप" लेखयुत मुनिसुव्रत-प्रतिमा की चरणचौकी, कंकाली टीला मथुरा, (रा० सं०
लखनऊ) ४३ वर्द्धमान चतुर्बिम्ब, कंकाली टीला मथुरा ४४ "नमो वर्द्धमान" लेखयुत आर्यावती (भगवान की माता) की प्रतिमा, कंकाली टीला मथुरा,
(रा० संग्र० लखनऊ) ४५ मनोज्ञ प्रतिमा सर्वतोभद्रिका, रा० संग्र० लखनऊ (प्राप्ति स्थान एटा) ४६ कलापूर्ण भामंडल से युक्त तीर्थंकर प्रतिमा, गुप्तकाल, मथुरा, रा० संग्र० लखनऊ ४७ विश्वविश्रुत महावीर-प्रतिमा, कंकाली टीला मथुरा, रा० संग्र० लखनऊ ४८ नीलांजना-नृत्यपट (अपूर्ण), कंकाली टीला मथुरा, रा० संग्र० लखनऊ ४६ नीलांजना नृत्य एवं ऋषभ वैराग्य पट (पूर्ण), कंकाली टीका मथुरा, रा० संग्र० लखनऊ ५० जिनमूर्ति युक्त कुषाणकालीन आयागपट, मथुरा, रा० सं० लखनऊ ५१ "नमो महावीरस्य" लेखयुत धर्मचक्रांकित कुषाणकालीन आयागपट, राज्य संग्रहालय लखनऊ ५२ अष्ट-जिनेन्द्र-स्तम्भ, इलाहाबाद, रा० संग्र० लखनऊ ५३ कृष्ण-बलराम सहित नेमिनाथ, कंकाली टीला मथुरा, राज्य संग्रहालय लखनऊ ५४ तीर्थकर नेमिनाथ के पार्श्व में कृष्ण एवं बलराम, कंकाली टीला मथुरा, (रा० संग्र० लखनऊ) ५५ दि० १३-११-७४ को बाल-रवीन्द्रालय लखनऊ में भगवान महावीर के निर्वाण महोत्सव के अवसर
विशेष डाक टिकट का प्रसारण करते हुए केन्द्रीय डाक उपमन्त्री श्री जगन्नाथ पहाड़िया तथा मंच पर डा० ज्योति प्रसाद जैन, श्री छेदीलाल साथी, श्री लक्ष्मी रमण आचार्य, श्री शशि भाषण
शरण तथा श्री राजन, पोस्टमास्टर जनरल, उ० प्र० ५६ डाक टिकट प्रसारण समारोह में भाषण देते हुए श्री लक्ष्मी रमण आचार्य, उपाध्यक्ष श्री महावीर
निर्वाण समिति, उ० प्र० ५७ डाक टिकट प्रसारण समारोह में श्री अजित प्रसाद जैन (उप सचिव) समिति के कार्यकलाप पर
प्रकाश डालते हुए ५८ डाक टिकट प्रसारण समारोह में उपस्थित श्रोताओं का एक दृश्य ५६ दि० १६-११-१६७५ को लखनऊ रवीन्द्रालय में अहिंसा सम्मेलन का उद्घाटन करते हुए उ० प्र० के
राज्यपाल डा० एम० चेन्ना रेडडी। मंच पर श्री अजित प्रसाद जैन, श्री शशिभषण शरण (सचिव).
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उच्च शिक्षा मन्त्री डा० रामजी लाल सहायक तथा विधान सभा के अध्यक्ष श्री बासुदेव सिंह ६० अहिंसा सम्मेलन में अध्यक्षीय भाषण देते हुए डा० रामजी लाल सहायक, उच्च शिक्षा मन्त्री एवं
कार्याध्यक्ष-श्री महावीर निर्वाण समिति, उ० प्र० दि० २६-२६ अक्टूबर, १६७५ को रवीन्द्रालय लखनऊ में हुई 'भारतीय संस्कृति में जैन विचारधारा का प्रभाव' संगोष्ठी का एक दृश्य । मंच पर संगोष्ठी के संयोजक डा. शशि कान्त, चतुर्थ सत्र के अध्यक्ष डा० जे० डी० शुक्ल आई० सी० एस० तथा संगोष्ठी-समापनकर्ता विद्यावारिधि डा. ज्योति
प्रसाद जैन । कान्त बाल केन्द्र की अध्यापिकाएं भावनागान द्वारा मंगलाचरण कर रही हैं। ६२ 'भारतीय संस्कृति में जैन विचारधारा का प्रभाव' संगोष्ठी, लखनऊ के श्रोताओं का एक दृश्य ६३ 'हिन्दी सन्त साहित्य में जैन साहित्यकारों का योगदान' संगोष्ठी, नजीबाबाद (२१-२३ अक्टूबर
१६७५)-मंच पर हैं आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी (अध्यक्ष), डा० प्रेमचन्द्र जैन (संयोजक), डा०
कस्तूरचन्द कासलीवाल, डा. विजयेन्द्र स्नातक, पं० नर्मदेश्वर चतुर्वेदी, आदि । ६४ भगवान महावीर २५००वाँ निर्वाण महोत्सव समिति लखनऊ की ओर से दिनांक १४-११-१६७४ को
आयोजित जनसभा में भगवान महावीर को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए प्रदेश के सामुदायिक विकास मन्त्री श्री बलदेव सिंह आर्य । मंच पर हैं समिति के मन्त्री श्री जिनेन्द्र चन्द्र जैन, सभा के अध्यक्ष श्री महावीर प्रसाद श्रीवास्तव, समिति के कार्याध्यक्ष डा. ज्योति प्रसाद जैन और उपाध्यक्ष श्री अमोलक चन्द नाहर ।
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হিনুলুলু সন্তান মীর
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श्री महावीर निर्वाण समिति के स्वान्त में जो भगवान महावीर स्मृति ग्रन्थ की उत्कण्ठा अंकुरित हुई है, वह अभिनन्दनीय है।
भगवान श्री महावीर स्वामी की महत्ता को पुनः पुनः उपयोगी सिद्ध करने के लिए वर्तमान में जो यह आयोजन आयोजित किया है वह आयोजन विश्व के प्रत्येक जन मानस को स्पर्श करता हुआ सम्बोधदायी बने, यही शुभेच्छा रखता हुआ मैं पुनः पुनः आपके प्रयासों का आदर करता हूँ और विश्व के दिग्-दिगन्त में अपरिग्रह, अनेकान्त और अहिंसा का आलोक उज्ज्वल होता रहे, ऐसी मेरी हार्दिक आकांक्षा है।
- आचार्य विजय समुद्र सूरि
भगवान महावीर का धर्म अहिंसा, संयम और तप-रूप है। उन्होंने धर्म को उत्कृष्ट मंगल की मान्यता दी। उनकी मान्यता किसी परम्परा के आधार पर नहीं, अपनी अनुभूति के आधार पर स्थापित है। जो व्यक्ति इस मंगल को स्वीकृत कर लेता है, उसके लिए दूसरे सब मंगलाचरण गौण हो जाते हैं। इस मंगल की सर्वोत्कृष्ट उपासना के बाद व्यक्ति के जीवन में किसी अमंगल की सम्भावना ही नहीं रह पाती ।
लुधियाना २२-९-७५
यह धर्म मंगल जब तक पुस्तकों में लिखित है, मंजूषाओं में निहित है और वाणी में समुच्चारित है, तब तक द्रव्य मंगल है । द्रव्य मंगल, मंगल होने पर भी भाव मंगल, वास्तविक मंगल की तुलना में नहीं आ सकता। इसीलिए भगवान महावीर ने उपासना और क्रियाकाण्डों को अधिक महत्व न देकर आचरण पर विशेष बल दिया। भगवान महावीर द्वारा निर्दाशत धर्म का आचरण ही उनकी पूजा, उपासना और स्तवना है। उनके द्वारा दिखाए गए मार्ग पर चलने वाले व्यक्ति ही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि समर्पित कर सकते हैं ।
- आचार्य तुलसी
ग्रीन हाउस, सी-स्कीम, जयपुर (राजस्थान )
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जैन नगर, जगाधरी दि० १७.९-७५
भगवान महावीर २५०० वें निर्वाण महोत्सव वर्ष में उत्तर प्रदेश समिति भगवान महावीर स्मृति-ग्रन्थ का प्रकाशन कर रही है, यह सन्तोष एवं प्रसन्नता की बात है।
अन्य में प्रकाशित सामग्री पठनीय हो एवं प्रकाशन सफल हो ऐसा शुभाशीर्वाद है।
-उपाध्याय मुनि विद्यानन्द
वीरायतन राजगृह (बिहार) दिनांक १५.९-७५
उसर प्रदेश आदि काल से ही जैन संस्कृति का महान केन्द्र रहा है। जैन परम्परा के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव, जो मानव-सभ्यता के आदि स्रष्टा एवं उपदेष्टा हैं, अयोध्या क्षेत्र में जन्म लेते हैं। श्री शान्ति, कुन्थु, अर--तीन चक्रवर्ती तीर्थंकरों को जन्मभूमि हस्तिनापुर है। यादव-कुल सूर्य तीर्थकर नेमिनाथ के जन्म से शौरीपुर क्षेत्र पावन हुआ है। अर्हन्त पार्श्वनाथ की जन्मभूमि होने का गौरव वाराणसी को प्राप्त है । दो चार उदाहरण क्या, उत्तर प्रदेश के मथुरा, कौशाम्बी, वाराणसी, अयोध्या, श्रावस्ती आदि अनेक महानगरों के अतीत में जैन इतिहास के अनेकानेक उदबोधक घटनाचित्र दीप्तिमान हैं। इतिहास-दष्टि के अनेक महान मनीषियों के चिन्तन में, उत्तर प्रदेश (गोरखपुर) को पावा ही भगवान महावीर की वास्तविक निर्वाण भूमि प्रमाणित होती है । आचार्य रकंदिल के नेतृत्व में द्वितीय आगम-वाचना का मथुरा में होना, प्रमाणित करता है कि लम्बे समय तक उत्तर प्रदेश जैन वाङमय का भी लीलाक्षेत्र रहा है।
अस्तु श्री महावीर निर्वाण समिति उ० प्र० द्वारा प्रस्तावित भगवान महावीर स्मृतिग्रन्थ का मैं हृदय से स्वागत करता है। आशा है, ग्रन्थ द्वारा भगवान महावीर के लोकमंगलकारी संदेशों के प्रचार-प्रसार के साथ उत्तर प्रदेश से सम्बन्धित जैन इतिहास की अनेक ज्ञात-अज्ञात गाथाओं को भी प्रमाण पुरःसर व्यापक रूप में उजागर किया जायगा। फलतः उत्तर प्रदेश की ओर से उक्त अन्य के द्वारा जैन-अजैन विद्वानों एवं * जिज्ञासुओं को एक चिरस्थितिशील चिन्तन सामग्री उपलब्ध होगी।
-उपाध्याय अमर मुनि
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यह जानकर अत्यन्त प्रसन्नता है कि उत्तर प्रदेश राजकीय समिति द्वारा 'भगवान महावीर स्मृतिग्रन्थ' का प्रकाशन हो रहा है। भगवान महावीर का संदेश प्रत्येक जाति के
मानव के लिए कल्याणकारी है। उत्तर प्रदेश भारत राज्य का सबसे विस्तृत एवं भाग्यशाली प्रदेश है क्योंकि अनेक महापुरुषों का जन्म उत्तर प्रदेश में हुआ है और उनकी कीर्ति में उत्तर प्रदेश का रग-रग पवित्र है । मैं चाहती हूँ कि प्रदेश की राजधानी लखनऊ भगवान महावीर के पावन संदेशों को दिग्दिगन्त में प्रसारित करने के लिए आदर्श स्वरूप सिद्ध हो-यही मेरा शुभ आशीर्वाद है।
-आर्यिकारत्न ज्ञानमती माताजी
उत्तर प्रदेश के विशाल भू-भाग को प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव से लेकर अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर तक के अनेक तीर्थंकरों की पद-रज से पावन होने का समय-समय पर सौभाग्य प्राप्त होता रहा है। इस भू-भाग के पूर्वी अंचल से पश्चिमी अंचल तक के अनेक नगर तथा देहात अपने में जैन परम्परा के गौरव-पूर्ण इतिहास को अन्तर्भावित किये हुए हैं। पूर्वी तथा उत्तरी अंचल के साथ भगवान महावीर की अनेक जीवन-गाथाएं अनुबद्ध हैं, अतएव राज्य प्रशासन द्वारा संचालित श्री महावीर निर्वाण समिति ने २५०० वें निर्वाण महोत्सव के अवसर पर अनेक महत्त्वपूर्ण कार्य किये हैं। यह स्मृति-ग्रन्थ उसकी रचनात्मक श्रद्धांजलि है ।
भगवान महावीर ज्योति-पुरुष थे। उन्होंने साधकों को वह सम्बल प्रदान किये, जिससे वे स्वयं ज्योति बने । साधकों की उस श्रृंखला में अर्जुनमाली, दृढ़प्रहारी तथा रोहिणेय जैसे आततायी व ख्यातनामा तस्कर भी थे, तो पूणिये जैसे गरीब, चन्दना जैसी दासी एवं हरिकेशबल जैसे अन्त्यज भी थे। उनके उपदेश राजाओं एवं श्रीमन्तों तक ही सीमित नहीं थे, उनकी समदर्शिता में सब को समान स्थान था। ऐसे ज्योतिपुरुष का निर्वाण महोत्सव अवश्य ही जनजन में समता का उत्प्रेरक बनेगा।
-मुनि महेन्द्र कुमार 'प्रथम' * १५ अक्टूबर १९७५
कलकत्ता।
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X
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Press Secretary to the President
Rashtrapati Bhavan, New Delhi-110004 October 15, 1975
सत्यमेव जयते
___The President is glad to know from your letter of 6th October, 1975, that Shri Mahavir Nirvan Samiti, Uttar Pradesh, will bring out a Souvenir, 'Bhagwan Mahavir Smriti Granth', in Novenber, 1975. He Sends his best wishes for the success of your endeavour and hopes that the teachings of Mahavir will further inculcate the feelings of tolerance and good-will among the young generation.
-A. M. Abdul Hamid
उपराष्ट्रपति, भारत
नई देहली अक्टूबर १०, १९७५
RAMERA सत्यमेव जयते
मुझे प्रसन्नता है कि श्री भगवान महावीर निर्वाण समिति, उत्तर प्रदेश, भगवान महावीर निर्वाण महोत्सव के एक वर्षीय कार्यक्रम के समापन पर 'भगवान महावीर स्मृति ग्रन्थ' का प्रकाशन कर रही है, जिसमें जैन तत्व दर्शन तथा संस्कृति, कला सम्बन्धी विद्वानों के लेखों को संग्रहीत करके भगवान महावीर के उपदेशों को जन-जन तक पहुँचाने का सार्थक प्रयास किया जायेगा।
भगवान महावीर एक महान मानवतावादी महापुरुष थे, जिनकी वाणी में समष्टिगत प्रेम की प्रतिष्ठा-साकार होकर भारत के जन-मानस तक पहुंची है । अहिंसा, सत्य तथा अपरिग्रह के मूल्यवान आदर्श व्यक्ति, समाज, राष्ट्र तथा समूची मानव जाति के लिये लाभदायक एवं मंगलकारी हैं। भगवान महावीर की पच्चीसवीं निर्वाण शताब्दी के अवसर पर उनके उपदेशों को मानव समाज तक पहुंचाना, एक सुन्दर प्रयास है। मुझे आशा है कि आपका यह ग्रन्थ इस दिशा में एक महत्वपूर्ण भूमिका के निर्वाह में सफल होगा। इसकी सफलता के लिये मेरी शुभ कामनायें !
-ब० दा० जत्ती
known.*
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The Prime Minister thanks you for your letter and sends her good wishes for the Souvenir entitled 'Bhagwan Mahavir Smriti Granth' which you are planning to bring out on the 2500th Nirvan Anniversary of Bhagwan Mahavir on Diwali day this year.
GOVERNOR
UTTAR PRADESH
Prime Minister's Secretariat
New Delhi-110011 October 9/16, 1975
-M. S. Menon Additional P. S. to the Prime Minister of India.
यह बड़ी प्रसन्नता की बात है कि श्री महावीर निर्वाण समिति, उत्तर प्रवेश, तीर्थकर वर्धमान महावीर की पुण्य स्मृति में 'भगवान महावीर स्मृतिग्रन्थ' का प्रकाशन इस अवसर पर कर रही है।
राज भवन
लखनऊ अक्टूबर, १८, १९७५
भगवान महावीर हमारे देश की ऐसी विभूति थे, जिनके सिद्धान्त और उपदेश सार्वकालीन और सार्वजनीन हैं। मैं अहिंसा के इस महान प्रणेता को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ और आपके इस साहित्यिक प्रयास का अभिनन्दन करता हूँ ।
-म० चेन्ना रेड्डी
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प्रदेश
उत्तर म
सरकार
*
मुझे यह जानकर प्रसन्नता हुई कि अहिंसा-धर्म के महान प्रणेता भगवान महावीर का २५०० निर्वाण महोत्सव मनाये जाने के लिये महामहिम राज्यपाल महोदय की संरक्षता तथा माननीय मुख्य मंत्रीजी की अध्यक्षता में श्री महावीर निर्वाण समिति, उत्तर प्रदेश, का गठन किया गया है और निर्वाण महोत्सव के एक वर्षीय कार्यक्रमों की समाप्ति के उपलक्ष में दीपावली के अवसर पर राज्य समिति एक बृहद् स्मृतिग्रन्थ प्रकाशित करने जा रही है। यह एक शुभ प्रयास है और इसकी मैं सराहना करता हूँ ।
'भगवान महावीर स्मृति प्रभ्थ' की सफलता के लिये मैं शुभकामनाएं भेजता हूं ।
लखनऊ
दिनांक २१ अक्टूबर, १९७५
- वासुदेव सिंह अध्यक्ष- विधान सभा, उत्तर प्रदेश
मुझे यह जानकर बड़ी प्रसन्नता है कि श्री महावीर निर्वाण समिति, उत्तर प्रदेश, अहिंसा के महान प्रणेता भगवान महावीर के २५०० वें निर्वाण महोत्सव के समापन पर एक बृहद् 'भगवान महावीर स्मृति ग्रन्थ' का प्रकाशन कर रही है। भगवान महावीर का व्यक्तित्व हमारे देश की एक शाश्वत विभूति है । उनको करुणा प्राणी मात्र के लिए असीम थी । उनका लोकोपकारी संदेश जन-जन में फैले और सभी लोग उनके अहिंसा एवं शान्ति के मार्ग को अपनावें, यही मेरी कामना है ।
आपके इस गुरु-गम्भीर साहित्यिक प्रयास के लिये मेरा साधुवाद है।
लखनऊ
अक्टूबर १९, १९७५
- हेमवती नन्दन बहुगुणा मुख्यमन्त्री, उत्तर प्रदेश औ
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सिर
विधान भवन
लखनऊ २० अक्टूबर, १९६५
भगवान महावीर की पुनीत स्मृति में श्री महावीर निर्वाण समिति, उत्तर प्रदेश, द्वारा एक बृहद् 'भगवान महावीर स्मृति ग्रन्थ' का प्रकाशन एक अभिनन्दनीय कार्य है । इस ग्रन्थ में विविध प्रकार को उपयोगी सामग्री का संकलन किया गया है, जिसके लिये इसके विद्वान सम्पादक साधुवाद के पात्र हैं । ग्रन्थ की खण्ड व्यवस्था समीचीन है । महावीर बचनामृत में जो उद्धरण संकलित किये गये हैं वे सारभूत हैं और गम्भीर चिन्तन को प्रेरित करने में सक्षम हैं।
उत्तर प्रदेश में जैनधर्म एक प्रभावशाली स्थान रखता है । हम श्री महावीर निर्वाण समिति की ओर से एक ऐसा ठोस कार्य करने की चिन्ता में थे जिसका स्थायी महत्व हो सके । मुझे हर्ष है कि इस ग्रन्थ के प्रकाशन द्वारा हम एक स्थायी महत्व का साहित्यिक कार्य करने में समर्थ हुए हैं।
-रामजी लाल सहायक उच्च शिक्षा मंत्री, उत्तर प्रदेश, तथा कार्याध्यक्ष,
श्री महावीर निर्वाण समिति, उ०प्र०
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I offer my sincere felicitations to the Uttar Pradesh Shree Mahavir Nirvana Samiti on the auspicious occasion of the publication of 'Bhagwan Mahavir Smriti Grantha.' The publication would be of great value and very wide interest, and we are indebted to the renowned scholar Dr. Jyoti Prasad Jain for his dedicated work in this connection.
Today few things are more relevant and crucial to human progress than the path of AHIMSA illumined, practised and taught by Lord Mahavira. AHIMSA is a dynamic concept. New aspects and new applications are continually unfolding with man's earnest, ceaseless quest. The incomparable example of Mahatma Gandhi has added a dimension. His life was synonimous with pursuit of and 'experiments' in, non-violence and truth. It has reinforced to a degree unimaginable today mankind's strength and faith to follow the path of AHIMSA as a way of life. And every step, how so small or humble, by each one of us counts.
Delhi October 2, 1975
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-D. S. Kothari
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सेठ अचलसिंह, एम. पी.
आगरा
प्रिय श्री ज्योति प्रसाद जी,
आपका पत्र दिनांक ८ सितम्बर का मिला, धन्यवाद । मुझे यह जानकर प्रसन्नता हुई कि उत्तर प्रदेश महावीर निर्वाण समिति शीघ्र ही एक 'भगवान महावीर स्मृति ग्रन्थ' प्रकाशित करने जा रही है। मेरी इस शुभकार्य के लिए शुभकामनाएं स्वीकार करें। ग्रन्थ के माध्यम से आप भगवान महावीर स्वामी के जीवन और सिद्धान्तों का अधिक से अधिक प्रचार एवं प्रसार कर सकेंगे। आशा है, आपके नेतृत्व में उसे उपयोगी बनाने में कोई कमी न रहेगी ।
स्वस्थ एवं सानन्द की कामना है ।
दिनांक १२-९-१९७५
आपका
- अचलसिंह
प्रिय श्री ज्योति प्रसाद जैन जो,
आपका दिनांक ७-१०-७५ का पत्र मिला। आपने श्री महावीर निर्वाण समिति उत्तर प्रदेश द्वारा प्रकाशित किये जाने वाले 'भगवान महवीर स्मृति ग्रन्थ' के सम्बन्ध में जो संदेश मांगा है, उसके लिए धन्यवाद ।
भगवान महावीर ने आज से २५०० वर्ष पूर्व तत्कालीन समाज एवं राष्ट्र के नवनिर्माण के लिए जो मार्ग इंगित किया था वह आज की परिस्थितियों में भी उतना ही हितकर हो सकता है जितना कि तब था। उनकी शिक्षा शाश्वत सिद्धान्तों के ऊपर आधारित थी जिसका मूल स्तम्भ सत्य और अहिंसा थे । यही शिक्षा बाद में महात्मा गान्धी ने अपने जीवन में ग्रहण कर देश की आजादी की लड़ाई जीती थी। आज के समाज एवं राष्ट्र में भी सत्य और अहिंसा की परमावश्यकता है ।
सेवा कुटीर पानदरीबा, लखनऊ
दिनांक २९ अक्टूबर १९७५
संसार अभी भी पीड़ित है । उसके निर्वाणार्थ सत्य और अहिंसा का शस्त्र ऐसा है जो बाधाओं से समाज को मुक्त कर सकता है अतः महावीर जी के प्रति श्रद्धांजलि इसी के द्वारा अर्पित की जा सकती है कि हम उनके विचारों को अपने जीवन में बराबर ढालने का प्रयास करते रहें ।
शुभकामनाओं सहित,
आपका
- चन्द्रभानु गुप्त
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भगवान महावीर से सम्बन्धित स्मृति ग्रन्थ स्वयं एक बड़ी चीज है । मेरी दृष्टि में भगवान महावीर का संदेश हमारी सांस्कृतिक एकता का प्रतीक है ।
मुझे कभी-कभी आश्चर्य होता है हमारे देश के जन जीवन से सम्बन्धित तथाकथित जन्म-जाति संस्कारों के सम्बन्ध में इस देश की जनता प्रायः जीव मात्र के प्रति दया का बर्ताव करती है । हिंसा, घणा, ईष्या, द्व ेष एवं अन्य प्रकार की कुत्सित भावनाओं के प्रति सहिष्णु भी नहीं है । इन दुष्ट प्रवृत्तियों को न जीवन का अंग मानकर चलती है और न उनको जीवन के लिए आवश्यक एवं स्वाभाविक दुर्गुणों के रूप में स्वीकर करना चाहती है । कभी-कभी ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे मानो सद्गुणों के प्रति मानव मात्र यात्रा में हम लोगों से कुछ आगे बढ़े हुए हैं। धीरे-धीरे मेरा यह विश्वास दृढ़ होता जा रहा है कि तथाकथित मानसिक संस्कार भी जीवन की ऐतिहासिक भित्ति पर आधारित हैं। हमारे इतिहास में एक और बड़ी विचित्र और विस्मय में डाल देने वाली प्रवृत्ति सामने आती है। हमने कभी भी अपने देश के बाहर के किसी भी देश पर आक्रमण नहीं किया। हमारे यहां महानतम सम्राट हुए । दिग्विजयी नृपों की शृंखला हमारे इतिहास में पौराणिक गाथा के रूप में चित्रित है। लेकिन किसी के सम्बन्ध में यह नहीं कहा गया कि हमारे अमुक नृप ने अपनी दिग्विजय की आकांक्षा से प्रेरित होकर आक्रमक के रूप में किसी दूसरे देश पर कभी आक्रमण किया हो । अपने सम्बन्ध में चर्चा करते समय प्रायः हम सभी लोग अपने प्रति अपेक्षाकृत अपने को अच्छा समझकर चलते हैं और मानव स्वभाव है कि वह अपने को औरों से अच्छा समझता है। लेकिन फिर भी कुछ मूलभूत प्रवृतियां जन जीवन में स्थान-स्थान पर देखने को मिलती हैं। कदाचित यह दंभ की बात हो, कुछ लोगों की दृष्टि में परन्तु इसे स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं है कि हम लोग प्रायः सभी धर्मो के प्रति सहिष्णु हैं। हमारे धर्म ग्रन्थों में स्थान-स्थान पर इस सहिष्णुता का पाठ अंकित है। भगवान महावीर का स्याद्वाद और गीता की शाश्वत वाणी है ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् मम वर्त्मानुवर्तन्त मनुष्याः पार्थ सर्वशः " अर्थात् 'जो जिस प्रकार से मेरी पूजा करते हैं उनको मैं उसी प्रकार से स्वीकर कर लेता हूँ। सभी मार्गों से अंत में मनुष्य मुझ में ही आकर मिल जाता है बहुत कुछ एक सी बातें हैं। भगवान महावीर ने स्यादवाद के सिद्धान्त के अनुसार यह स्वीकार
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किया कि उनका मत ठीक हो सकता है और दूसरे सिद्धान्तों में कहीं भी कोई अंतर नहीं मालूम होता है। भगवान महावीर एवं भगवान बुद्ध, कृष्ण और राम के संयुक्त प्रयासों का ही फल है।
व्यक्ति का मत भी ठीक हो सकता है। मुझे दोनों ऐसा प्रतीत होता है कि यह हमारा शाश्वत सिद्धान्त
कुछ कारण होने चाहिये कि आखिर हमारे ही देश में महात्मा गांधी का जन्म क्यों किस प्रकार से अहिंसा के सिद्धान्त का व्यवहारिक रूप संसार को पुनः देने की चेष्टा की । महावीर, बुद्ध, कृष्ण और राम के द्वारा निर्मित जीवन के सक्षम प्रतीक ही हैं।
मथुरा : १७-१०-१९७५
इन्हीं सब महान संतों की वाणी ने हमारे जीवन को एक सांस्कृतिक रूप प्रदान किया है और उसी के द्वारा हमारा जीवन सम्पूर्ण रूप से विकसित और पल्लवित हो पाया है। हम में जो भी यह क्षमता है, जैसा कि अभी कुछ दिन पूर्व इंदिरा जी ने कहा था, कि हम संसार को कुछ दे सकें, और वह है आज के वैज्ञानिक युग में अध्यात्मिकता का नया सन्देश इस देन के लिये हम सदा सदा ही भगवान महावीर के भी ऋणी रहेंगे ।
मेरा शत् शत् अभिनन्दन भगवान महावीर के चरणों में ।
और उन्होंने वह भी भगवान
हुआ
- लक्ष्मी रमण आचार्य
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खण्ड-१
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महावीर वचनामृत
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५-तोर्थङ्कर का त्रिरत्नाधारित शोडश-आरक धर्मचक्र
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महावीर वचनामत
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धम्मो मंगलमुक्किट्ठे धर्म सर्वोत्कृष्ट मंगल है-सबका कल्याणकर्ता है।
लोगस्ससारं धम्मो लोक का-मनुष्य-जीवन का सार धर्म है ।
धम्मो वत्थु-सहावो वस्तु-स्वभाव का नाम धर्म है-जो जिस पदार्थ का स्वभाव है, वही उसका धर्म है।
___ समियाए धम्मे आरिएहिं पवेइए
श्रेष्ठ महापुरुषों ने समभाव में धर्म बताया है । मोहक्खोह विहीणो परिणामो अप्पणो धम्मो मोह एवं क्षोभ से रहित आत्मा का परिणाम ही धर्म है ।
दुविहे धम्मे-सुयधम्मे चेव चरित्तधम्मे चेव धर्म के दो रूप हैं-श्रुत अर्थात ज्ञान या तत्वज्ञान और चारित्र अर्थात् आचरण ।
रयणत्तय च धम्मो . और, धर्म रत्नत्रय (समीचीन श्रद्धान, ज्ञान एवं आचरण)-रूप है।
चत्तारि धम्मदारा-खंती मुत्ती अज्ज्वेमद्दवे धर्म के चार द्वार हैं-क्षमा, शौच (संतोष), सरलता और मृदुता ।
दसणमूलो धम्मो धर्म का मूल दर्शन (समीचीनः दृष्टि या सम्यक्त्व) है ।
तच्चरइ सम्मत्तं तत्व में रुचि होने का नाम सम्यक्त्व है।
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*:-AVMYAVAN
भावेण सदहंतस्स सम्मत्तंतु वियाहियं ज्ञान (भाव) पूर्वक तत्त्वों का श्रद्धान करने पर सम्यक्त्व प्रकट होता है।
णाणस्स सव्वस्स पगासणाए ... ज्ञान समस्त पदार्थों को प्रकाशित (प्रत्यक्ष) करता है।
णाणं णरस्स सारं, सारो वि णरस्स होइ सम्मत्तं ज्ञान मनुष्य का सार है, और सम्यक्त्व भी मनुष्य का सार है। चारित्तं खलु धम्मो, जो सो समोत्ति णिद्दिट्ठो।
मोहक्खोह विहीणो परिणामो अप्पणो हु समो॥ परमार्थ से चारित्र ही धर्म है, और वह समत्व रूप बताया गया है । आत्मा का मोह-क्षोभ विहीन परिणाम ही समत्व या समता भाव है।
चरणं हवइ सधम्मो, धम्मो सो हवइ समभावो चारित्र स्वधर्म (आत्मधर्म) है । आत्मा का समभाव ही चारित्र कहलाता है।
नत्थिचरितं सम्मतविरुणं सम्यक्त्व के बिना चारित्र नहीं होता।
समवण्णा होइ चारित्तं ज्ञान और दर्शन (सम्यक्त्व) के समायोग से चारित्र होता है ।
जो पुण चरित्तहीणो किं तस्स सुदेण बहुएण जो चारित्र से हीन है, उसके बहुत शास्त्रों के जानने से भी क्या लाभ है।
पाणिवह-मुसावाद-अदत्त-मेहुण-परिग्गहा विरदो ।
एस चरित्ताचारो पंचविहो होदि णादवो॥ प्राणीवध (हिंसा), मृषावाद (झूठ), अदत्तग्रहण (चोरी), मैथुन और परिग्रह, इन पांचों से विरक्त होना पाँच प्रकार का चारित्र है।
पाणे य नाइवाएज्जा, अदिन्नं पि य नायए।
साइयं न मुसंव्या, एस धम्मे वसीमओ॥ किसी भी प्राणी की हिंसा न करे, किसी की भी बिना दी हुई वस्तु न ले, विश्वासघातक असत्य न बोले- यह आत्मनिग्रही जनों का धर्म है।
खमादि भावो य दहविहो धम्मो क्षमादि भावरूप दश प्रकार का धर्म है।
MAMATTATE
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*MYAVEKYAVA
खंतीमदवअज्जवलाघव तवसंजमो अकिंचणदा ।
तह होइ बम्हचेरं सच्चं चागो य दस धम्मा ॥ क्षमा, माईव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य, ये दस धर्म हैं।
अहिंसाहिलक्खणो धम्मो, जीवाणं रक्खणो धम्मो धर्म का लक्षण अहिंसा है, जीवों की रक्षा करना धर्म है।
धम्मो दयाविसुद्धो धर्म दया से विशुद्ध होता है ।
विणओ धम्मस्स मूलं
धर्म का मूल विनय (मानरहित होना) है। जइ जर-मरण-करालियउ, तो जिय धम्म करेहि ।
धम्म रसायणु पियहि तुहुँ, जिमि अजरामर होहि ॥ हे जीव ! यदि तू जरा-मरण स भयभीत है तो धर्म कर, धर्म-रसायन का पान कर, जिससे तू अजर-अमर हो सके।
धम्मु ण पढियइँ होइ, धम्मु ण पोत्था-पिच्छियइं ।
धम्मु ण मढिय पएसि, धम्मु ण मत्था-लुचियइं ॥ बहुत पढ़लेने से ही धर्म नहीं होता, पोथियों और पिच्छिी से भी धर्म नहीं होता, मठ में रहने से भी धर्म नहीं होता, और शिर का केशलौंच करने से भी धर्म नहीं होता।
रायरोस वे परिहरिवि, जो अप्पाणि वसेइ । ___ सो धम्मु वि जिण-उत्तियउ, जो पंचम-गइ इ ॥ राग और द्वेष को छोड़ कर अपनी आत्मा में ही निवास करने को जिनदेव ने 'धर्म' कहा है, और यही धर्म निर्वाण प्राप्त कराता है।
धम्मो सुद्धस्स चिट्ठई शुद्ध-पवित्र आत्मा में धर्म निवास करता है ।
विवेग्गे धम्म माहियं मनुष्य का धर्म उसका सद्असद् विवेक है। जरामरणवेगणं बुज्झमाणाण पाणिणं ।
धम्मो दीवो पइट्ठाय गई सरणमुत्तमं ॥ जरा और मृत्यु के वेगवान प्रवाह में बहते हुए जीवों को धर्म ही एक मात्र द्वीप है, प्रतिष्ठा है, गति है और उत्तम शरण है।
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कुसग्गे जह ओस बिन्दुए थौवं चिट्ठइ लम्बमाणए । ___ एवं मणुयाण जीवियं, समयं गोयम ! मा पमायए ॥ मानव जीवन कुशा की नोक पर स्थित ओस की बूंद की तरह क्षणस्थायी है, अतएव हे गौतम ! क्षणमात्र भी प्रमाद मत कर ।
असंक्खयं जीविय, मा पमायए
यह जीवन असंस्कृत है, अत: प्रमाद मत कर । सव्वतो पमत्तस्स भयं, सव्वतो अपमत्तस्स नत्थि भयं प्रमत्त (प्रमादी) व्यक्ति को सर्वत्र भय है, अप्रमादी को कहीं भी कोई भय नहीं होता।
उठ्ठिए, णो पमायए
___ उठो ! प्रमाद मत करो। धम्मेण होदि पुज्जो, धम्मत्थस्स वि णमंति देवावि धर्माचरण करने से ही व्यक्ति पूज्य होता है, धर्मात्मा व्यक्ति को देव भी नमस्कार करते हैं।
एओचेव सुभो णवरि सव्वसोक्खायरो धम्मो एक धर्म ही शुभ है, पवित्र है, और वही सब सुखों का देने वाला है।
तूरह धम्म काउं (अतएव) शीघ्र ही धर्म करो, धर्म को अपनाओ-धर्माचरण करो। तथिमं पढमं ठाणंमहावीरेण देसियं ।
अहिंसा निउणं दिट्ठा सव्वभूएसु संजमो । तीर्थंकर महावीर ने अहिंसा को समस्त धर्मस्थानों में प्रथम स्थान देकर उसका उपदेश दिया। सब जीवों के प्रति संयम रखना अहिंसा है।
धम्ममहिंसा समं नत्थि अहिंसा के समान अन्य धर्म नहीं है । असुभो जो परिणामो सा हिंसा
अशुभ परिणाम ही हिंसा है। रागादीणमणुप्पा अहिंसकत्तं त्ति देसियं समए ।
तेसिं च उप्पत्ती हिंसेत्ति जिहि णिदिदहा ॥ रागद्वेष आदि का उत्पन्न न होना अहिंसा बताया है, रागादिक की उत्पत्ति होना हिंसा है, ऐसा जिनदेवों ने निर्देश किया है।
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___णत्थिदु अहिंसगो णाम होदि वायादिवधहेतु हिंसा से विरत न होना, अथवा मैं प्राणिघात करूंगा, ऐसे विचार रखना हिंसा है ।
मरदु व जियदु व जीवो अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा कोई जीव परे या जीवे, यह हिंसा या अहिंसा नहीं, जो यत्नाचारपूर्वक नहीं बर्तता उसके निश्चय हिंसा है-अयत्नाचार का नाम ही हिंसा है।
पादोसिय अधिकरणिय कायिय परिदावणादिवादाए ।
एदे पंचपओगा किरियाओं होंति हिंसाओ । द्वेष करना, हिंसा के उपकरणों को ग्रहण करना, दुष्टभाव से शरीर की चेष्टाएँ करना, अन्य को दुःख पहुँचाने वाली क्रिया करना, और किसी के प्राणों का घात करना, इन पांच प्रकार के प्रयोगों को हिंसा की क्रिया कहते हैं।
हिंसाविरइ अहिंसा
हिंसा से विरत होना अहिंसा है। जह ते ण पियं दुक्खं तहेव तेंसिपि जाण जीवाणं जिस प्रकार तुम्हें दु:ख प्रिय नहीं है, वैसे ही अन्य जीवों के बारे में जानो । जहमम न पियं दुक्खं, जाणिय एमेव सव्वजीवाणं ।
न हणइ न हणावेइ अ, समणइ तेण सो समणो॥ जसे मुझे दुःख अच्छा नहीं लगता, वैसे ही कोई भी अन्य प्राणी दु:ख नहीं चाहता, यह जानकर जो किसी की भी हत्या न करता है, और न कराता है, ऐसा समदष्टि व्यक्ति ही श्रमण है।
हत्थिस्स य कंथुस्स य समेजीवे हाथी और चींटी समानरूप से जीव हैं।
आय तुले पयासु सभी प्राणियों को अपने समान समझो।
सव्वेसि जीवियं पियं
सभी को अपना जीवन प्रिय है । सव्वे जीवावि इच्छंति जीविउ, न मरिज्जिउं ।
तम्हा पाणिवहं घोरं, निग्गंथा वज्जयंति णं ॥ सभी जीव जीवित रहने की इच्छा रखते हैं, मरना कोई नहीं चाहता, इसीलिए निर्ग्रन्थ गुरुओं ने प्राणिवध को घोर पाप कहा और उसका निषेध किया।
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तुमंसि नाम, सच्चेवं जं हंतव्वंति मनसि, तुमंसिनामसच्चेवं जं अज्जावेयव्वंति मनसि, तुमंसि नाम सच्चेवं जं परियावेयव्वंति मन्नसि, एवं जं परिधितव्वंति मनसि, जं उद्दवेयव्वंति मनसि, अंजू चेय पडिबुद्धजीवी तम्हा न हंता न विघायए,
अणुंसवेयणमप्पाणणं णं हन्तव्वं नाभिपत्थए । जिसे तुम मारना चाहते हो, वह भी तुम्हारे जैसा सुख-दुःख का अनुभव करने वाला प्राणी है। जिस पर शासन करना चाहते हो, वह भी तुम्हारे जैसा प्राणी है। जिसे दुःख पहुँचाना चाहते हो, वह भी तुम्हारे जैसा प्राणी है। जिसे अपने वश में करने की इच्छा करते हो, वह भी तुम्हारे जैसा प्राणी है । जो सज्जन ऐसा जान कर विवेक पूर्वक जीवन बिताते हैं, वे न तो किसी का घात स्वयं करते हैं और न दूसरों से कराते हैं । जो हिसा करता है, उसका फल उसे भोगना पड़ता है । अतएव किसी भी प्राणी की हिंसा की कामना मत करो।
सयं तिवायए पाण, अदुबडन्नहिं घायए।
हणन्तं वाणुजाणाइ, वेरं वड्ढइ अप्पणो ॥ जो स्वयं प्राणिहिंसा करता है, दूसरों से कराता है, अथवा करने वालों की अनुमोदना करता है, वह संसार में अपने लिए वैर ही बढ़ाता है।
से हु पन्नाणमंते बुद्ध आरंभोवरए जो हिंसक प्रवृत्ति से विरत रहता है वही ज्ञानी है, वही बुद्ध है।
को धम्मो, जीवदया धर्म क्या है.? जीवों पर दया करना ।
सव्वेहि भूएहिं दयाणुकंपी
सभी प्राणियों पर दया करनी चाहिये । दयासमो न य धम्मो, अन्नसमं नत्थि उत्तमंदाणं ।
सच्चसमा न य कित्ती, सीलसमो नत्थि सिंगारो॥ दया समान धर्म नहीं है, अन्नदान से उत्तम दान नहीं है, सत्य समान कीत्ति नहीं, और शील से अधिक श्रेष्ठ कोई श्रंगार नहीं है।
जीववहो अप्पवहो, जीवदया होइ अप्पणोहुदया किसी भी प्राणी का घात करना स्वयं अपना ही घात करना है । दूसरों पर दया करना स्वयं अपने ऊपर दया करना है।
__ असंगिहीय परिजणस्स संगिण्हणयाए अब्भुट्ट्यव्वंभवइ । अनाश्रित और असहाय व्यक्तियों को आश्रय एवं सहयोग-सहायता देने के लिए सदा तत्पर रहना चाहिये।
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गिलाणस्स अगिलाए वेयावच्चकरणयाए अब्भुट्ट्यव्वंभवइ रोगी जनों को निरोग करने के लिए उनको सेवा सुश्रुषा परिचर्या उत्साह एवं तत्परता के साथ करनी चाहिये।
समाहिकारएणं तमेव समाहिं पडिलब्भई जो दूसरों को सुख देने का प्रयत्न करता है, वह स्वयं भी सुख पाता है । वेयावच्चेण तित्थयरनामगोयं कम्मं निबंधेइ सेवाधर्म का पालन करने से तीर्थकर पद प्राप्त होता है ।
जो करेइ सो पसंसिज्जइ
जो जनसवा करता है, वह प्रशंसित होता है । भमइ जए जसकित्ती सज्जणसुइ-हियय-णयण-सुहजणणी ।
अण्णेविय होंतिगुणा विज्जावच्चेण इहलोए ॥ सेवा करने से सज्जनों के कानों, नेत्रों और हृदय को सुख देने वाली कीत्ति जग में फैल जाती है तथा अन्य अनेक गुण इस लोक में प्राप्त होते हैं ।
सव्वं जगं तु समयाणुपेही जगत के सभी प्राणियों को समभाव से देखो ।
मेत्ति भूएसुकप्पए सभी जीवों के प्रति मित्रता भाव रखो। सव्वपाणा न हीलियम्वा न निदियव्वा किसी भी प्राणी का न तिरस्कार करो, न निंदा करो।
जीवोकसायबहुलोसंतो जीवाण घायणं कुणइ अधिकतर लोग क्रोध-मान-माया-लोभ:आदि कषायों से युक्त होते हैं । कषाय से ही हिंसा उत्पन्न होती है।
कोहोपोइ पणासइ, माणोविणय णासई।
माया मित्ताणि णासइ, लोभो सव्व विणासणे ॥ क्रोध प्रीति का नाश करता है, मान विनय समाप्त कर देता है, माया (छलकपट) मैत्री की नाशक है और लोभ सर्व विनाशक
अहेवयन्ति कोहेण, मानेण अहमागई।
__ मायागइ पुडिवग्घाओ, लोहाओ दुहओभयं ॥ क्रोध मनुष्य का पतन करता है, मान उसे अधमगति में पहुंचाता है, माया सद्गति का नाश करती है, और लोभ इसलोक एवं परलोक में महान भय का कारण होता है।
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अकसायतु चरितं कसायवसगदो असंजदो होदि । उवसह जम्हि काले, तज काले संजदो होदि ॥
कषायरूप विकारों का अभाव ही चारित्र है । जो कषायों के दशीभूत होता है, वह असंयमी होता है । जिस समय कषाय विकार उपाशान्त हो जाते हैं, तभी संयमभाव: प्रकट होता है ।
तं वत्थं मुव्यं जं पडिउपज्जये कसथिग्गी । तं वत्युं मल्लिरज्जो जत्थुवसम्म कसायाणं ||
जिस वस्तु या स्थिति से कषाय उत्पन्न हो उसे छोड़ना चाहिए, और जिससे कषाय शान्त हों, उसका सम्बन्ध मिलाना चाहिये ।
for अणूदो अप्पं आयासादो अणूणयं णत्थि ।
जह तह जाण महल्लं ण वयमहिंसासमं अस्थि ॥
इस संसार में जिस प्रकार परमाणु से छोटी कोई वस्तु नहीं है और आकाश से बड़ा कोई द्रव्य नहीं है, उसी प्रकार अहिंसा से बड़ा कोई व्रत नहीं है ।
सव्वेसिमासमाणं हिदयं गब्भो व सव्वसत्थाणं ।
सव्वेसि वदगुणाणं पिंडोसारो अहिंसादु ||
अहिंसा (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ आदि) सब आश्रमों का हृदय है, समस्त शास्त्रों का गर्भ है, और समस्त व्रतों एवं गुणों का एकत्र सार है ।
उच्चायं सोलेसुवदेसु य अहिंसा
यह अहिंसा अखिल शीलों (सदाचारों) और व्रतों में सर्वोच्च है ।
जीवसितस्स सव्वेवि णिरत्थया होंति
हिंसक व्यक्ति के समस्त धर्म-कर्म निरर्थक होते हैं ।
अहिंसाए विणा ण सीलाणि ठंति सव्वाणि
अहिंसा के बिना कोई भी शील ( धर्म, सदाचार) स्थित नहीं रह सकता |
अत्ताचेव अहिंसा शुद्ध आत्मा ही अहिंसा है।
एसा सा भगवइ
ऐसी यह भगवती अहिंसा है ।
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परिहर असंतवयणं
असत्य भाषण का त्याग करना सत्य है। हिंसा-वयणं ण वयदि, कक्कस-वयणं पि जो ण भासेदि । णिठ्ठरवयणं पि तहा ण भासदे गुज्झ-वयणं पि॥ हिदमिदवयणं भासदि संतोसकरं तु सव्व-जीवाणं ।
धम्मपयासणवयणं अणुव्वदी होदि सो बिदिओ ॥ जो सत्याणुव्रत का पालन करने वाला है, वह हिंसा के वचन नहीं कहता, कठोर वचन नहीं बोलता, निष्ठर वचन नहीं कहता, दूसरे की गुप्त बात को प्रकट नहीं करता, हित-मित-सन्तोषप्रद और धर्म-प्रकाशक वचन बोलता है।
भासियव्वं हियं सच्चं सदा हितकारी सत्य वचन बोलना चाहिये । नापुट्ठोवागरेकिंचिपुट्ठो वा नलियं वए बिना पूछे बोले नहीं, और पूछने पर असत्य न बोले ।
__नाइवेल वएज्जा आवश्यकता से अधिक न बोले ।
सच्चेण जगे होदि पमाणं इस जगत में सत्य से ही मनुष्य प्रामाणिक होता है ।
पापस्सागमदारं असच्चवयणं
असत्य वचन पाप के आगमन के द्वार हैं। जलचंदणससिमुत्ताचंदमणी तह णरस्स णिच्वाणं ।
ण करंति कुणइ जह अत्थज्जुयं हिदमधुरमिदवयणं ॥ मनुष्य को जितना आनन्द सार्थक, हितकर, मित और मधुर वचन प्रदान करते हैं, उतना शीतल जल, चन्दन, चन्द्रमा, मुक्ता,चन्द्रकान्त मणि आदि पदार्थ भी नहीं पहुँचाते ।
सच्चं लोगम्मि सारभूयं संसार में सत्य ही सारभूत पदार्थ है।
तं सच्चं खु भगवं सत्य ही निश्चय से भगवान है।
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अप्पणा सच्चमेसिज्जा (अत:) आत्मा से सत्य की खोज करो।
अदिन्नमन्त्र सु य णो गहेज्जा किसी की किसी भी वस्तु को बिना उसके दिये हुए ग्रहण नहीं करना चाहिये ।
___ लोभाविले आययई अदत्तं
लोभ के वश चोरी की प्रवृत्ति होती है । चोरस्स णत्थि हियए दया च लज्जादमो व विस्सासो चोर के हृदय में दया, लज्जा, दम (इच्छादमन) और विश्वास नहीं होते।
जो बहुमुल्लं वत्, अप्पय मुल्लेण णव गिण्हेदि । वीसरियं पि ण गिण्हदि, लाहे थोवे पि तूसेदि ॥ जो परदव्वं ण हरदि माया-लोहेण कोह-माणेण ।
दिढचित्तो सुद्धमई अणुव्वई सो हवे तिदिओ ॥ जो बहुमूल्य वस्तु को अल्पमूल्य में नहीं खरीदता, दूसरे की भूली हुई वस्तु को नहीं उठाता, थोड़े लाभ में ही सन्तुष्ट रहता है और छलकपट, लोभ, क्रोध एवं मान के वश दूसरे के द्रव्य का हरण नहीं करता, वह दृढ़ चित्तवाला शुद्धमति अचौर्याणुव्रत का पालन करने वाला होता है।
तं अप्पणा न गिण्हंति नो वि गिण्हावए परं।
अन्नं वा गिण्हमाण पि नाणुजाणति संजया ॥ वह (इस प्रकार अन्याय का धन) न स्वयं ग्रहण करता है, न दूसरों को उसे ग्रहण करने की प्रेरणा देता है, और न उसे ग्रहण करने वालों की अनुमोदना करता है।
तवेसु वा उत्तमं बंभचेरं तपो में ब्रह्मचर्य श्रेष्ठ तप है ।
अणेगागुणा अहीणा भवंति एक्कंमि बंभचेरे ब्रह्मचर्य का पालन करने से अनेक गुण मनुष्य के अधीन हो जाते हैं ।
कामुम्मत्तो संतो डन्झदि य कामचिताए काम से उन्मत्त व्यक्ति का चित्त काम-चिन्ता से जलता रहता है।
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KAVINVAK
कामपिसायग्गहिदो हिदमहिदं वा ण अप्पणो मुणदि काम पिशाच के वश में हुआ व्यक्ति अपने हित-अहित को नहीं देखता, वह अपनी आत्मा को नहीं पहचानता।
दक्खो वि होई मंदो विसयपिसाओवहद चित्तो अत्यन्त दक्ष व्यक्ति भी इन्द्रियों के विषय रूपी पिशाच से ग्रस्त हो कर मंदबुद्धि हो जाता है।
सीलं जेसु सुसीलं सुजीविदं माणुसं तेसि उन व्यक्तियों का जीवन ही जीवन है जिनका शील (आचरण) सुशील है ।
सीलं मोक्खस्स सोवाणं शील (ब्रह्मचर्य) मोक्ष का सोपान है ।
जीवो बंभा जीवम्मि जीव शब्द का अर्थ ही ब्रह्म है-बाह्य विषयों को छोड़कर आत्मा में चर्या करना ही ब्रह्मचर्य है।
न सो परिग्गह वुत्तो नायपुत्तेण ताइणा ।
मुच्छा परिग्गहो वुत्तो इव वुत्तं महेसिणा ॥ महामुनि ज्ञातृपुत्र महावीर ने आसक्ति को परिग्रह कहा है, पदार्थों को परिग्रह नहीं बताया।
अब्भंतर बाहिरए सव्वे गंथे तुमं विवज्जेहि भीतर और बाहर समस्त ग्रंथियों के उन्मोचन का नाम अपरिग्रह है।
अपरिग्गहो अणिच्छो इच्छा रहित होना अपरिग्रह है । इच्छाह आगास समा अणंतिया
मनुष्य की इच्छाएँ आकाश के समान अनन्त हैं। दुक्खं हयं जस्स न होइ मोहो, मोहो हयो जस्स न होइ तण्हा ।
तण्हा हया जस्स न होइ लोहो, लोहो हयो जस्स न किंचणाइं॥ जिसे मोह नहीं, उसका दुःख दूर हो गया । जिसे तृष्णा नहीं, उसका मोह नष्ट हो गया। जिसके लोभ नहीं. उसकी तष्णा मिटगई। और जिसके पास परिग्रह (धन सम्पत्ति) नहीं, उस अकिंचन का लोभ समाप्त हो गया।
कामा दुरतिकम्मा कामनाएँ दुर्लध्य हैं।
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१२ ] ★M-AVMAVAN
खणमेत्त सोक्खा बहुकाल दुक्खा ।
पणाम दुक्खा अणिगाम सोक्खा ॥ कामनाओं की पूत्ति क्षणभर के लिए सुखदेने वाली और चिरकाल दु:ख देने वाली है-प्रारम्भ में सुखद लगती है, उसका परिणाम दु:खपूर्ण होता है ।
नत्थि एरिसो पासो पडिबंधो अत्थि
परिग्रह के समान कोई जाल नहीं है । वियाणिया दुक्खविवद्धणं धणं धन दुःख बढ़ाने वाला है।
अत्थो अणत्थमूलं अर्थ अनर्थ का मूल है। लाहा लोहो पवड्ढा
लाभ से लोभ बढ़ता है।
गंथंणिमित्तं घोरं परितावं परिग्रह मनुष्य के लिए घोर परिताप का कारण है।
गंथो भयं णराणं परिग्रह के कारण मनुष्य में भय उत्पन्न होता है। णठे गंथे य पुणो तिव्वं पुरिसो लहदि दुक्खं परिग्रह (धन सम्पत्ति) के नाश से मनुष्य अत्यन्त दु:खी होता है।
जीवस्स ण तित्ती अत्थि तिलोगे वि लद्धम्मि (और) तीनों लोक का वैभव प्राप्त हो जाने पर भी मनुष्य की तृप्ति नहीं होती।
ममाइ लुपइ बाले मकत्व बुद्धि के कारण नासमझ लोग भटकते हैं। परिग्गहनिविट्ठाणं वेरं तेसिं पवढई
जो परिग्रह में फंसे हुए हैं, वे वैर ही बढ़ाते हैं। माणी वि सहइ गंथणिमित्तं वयं वि अवमाणं अभिमानी व्यक्ति भी धन के लिए घोर अपमान सहता है।
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[ १३
PATRO
गंथणिमित्तं कम्मं कुणइ अकादव्वयंपि णरो धन के लिए मनुष्य न करने योग्य कार्य भी करता है ।
संगो महाभयं परिग्रह महान भय है।
विणीय तण्हो विहरे (अतः) तृष्णा से मुक्त होकर विचरो।
धणेण कि धम्मधुराहिगारे धन से क्या धर्म की गाड़ी चलती है ? सव्वत्थ भगवया अनियाणया पसत्था भगवान ने सर्वत्र निष्कामता को ही प्रशस्त-श्रेष्ठ कहा है।
अप्पाणमप्पणो परिग्गहं वास्तव में तो अपना आत्मा ही अपना एकमात्र परिग्रह है ।
अप्पा नई वेयरणी अप्पामे कूडसामली।
अप्पा कामदुहाधेणु अप्पा मे नंदनणं ॥ मेरी आत्मा ही नरक की वैतरणी नदी और कूटशाल्मली वृक्ष है। और मेरी आत्मा ही स्वर्ग की कामदुग्धा धेनु तथा नंदनवन है।
___ अप्पा कत्ता विकत्ताय दुहाण य सुहाण य ।
अप्पा मित्तममित्तं च दुप्पट्ठिय सुपट्ठिओ ॥ आत्मा स्वयं अपने दुःख और सुख का कर्त्ता एवं भोक्ता है । वही सुमार्ग पर चलाने वाला अपना मित्र है, और कुमार्ग पर ले जाने वाला अपना शत्रु है।
अप्पा चेव दमेयव्वो, अप्पा हु खलु दुद्दमो ।
अप्पा दन्तो सुही होइ अस्सिं लोए परत्थ य ॥ वास्तव में अपने आप को दमन करना अत्यन्त कठिन है, उसी का दमन करना चाहिए। अपने आप को दमन करने वाला व्यक्ति इसलोक और परलोक दोनों में सुखी रहता है।
वरं मे अप्पा दंतो संजमेण तवेण य ।
माऽहं परेहिं दम्मतो बन्धणेहिं वहेहि य ॥ दूसरे लोग मेरा वध-बन्धनादि से दमन करें, इसकी अपेक्षा मैं संयम एवं तप द्वारा स्वयं अपना दमन करूं, यह अच्छा है।
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१४]
जे सहस्सं सहस्साण संगामे एगं जिणेज्ज अप्पाणं, एष से
दुज्जये जिणे । परमो जओ ॥
जो वीर दुर्जय संग्राम में लाखों योद्धाओं को जीतता है, यदि उसके स्थान में वह एक अपनी आत्मा को जीतले तो उसकी वह विजय सर्वश्रेष्ठ विजय होगी ।
अप्पाणमेव जुज्झाहि, कि ते जुज्झेण बज्झओ । अप्पाणमेव अप्पाणं जइत्ता सुहमेहए ॥
अपनी आत्मा के साथ युद्ध करो। बाहरी शत्रु के साथ युद्ध करने से क्या लाभ ? आत्मा द्वारा आत्मा को जीतने वाला - आत्मजयी ही पूर्ण सुखी होता है ।
पंचिन्दियाणि कोहं माणं मायं तहेव लोहं च । दुज्जयं चेव अप्पाणं, सव्वमप्पे जिए जियं ॥
पाँचों इन्द्रियों को, क्रोध-मान- माया लोभ को, और सबसे अधिक दुर्जय अपनी आत्मा को जीतना चाहिए। एक आत्मा के जीतने पर सबकुछ जीत लिया जाता है 1
न तं अरी कंठछेत्ता करेइ, जं से करेइ अप्पणिया दुरप्पा | सारो वि णरस्स होइ सम्मत्तं ॥
गाणं णरस्स सारं
गला काटने वाला शत्रु भी उतना अपकार नहीं करता, जितना कि 'दुराचरण आसक्त अपनी आत्मा करती है । मनुष्य के लिए ज्ञान ही सार है, किन्तु ज्ञान से भी अधिक सार पदार्थ सम्यक्त्व - सच्ची आत्मश्रद्धा है ।
अहपुण अप्पाणिच्छदि धम्माइ करेदि निरवसेसाइ । तहवि ण पावदि सिद्धि संसारच्छा पुणो भणिदो ॥
जो व्यक्ति आत्मा को नहीं पहचानता, वह यद्यपि समस्त धार्मिक क्रियाएँ करता है, तथापि उसे सिद्धि नहीं मिलती और वह ससारी ही कहलाता है ।
पाण त अन्तओ पासइ सन्दलोए । महन्तं बुद्धो पसत्तेसु परिव्वज्जा |
मोहनिद्रा में मग्न मनुष्यों के बीच रहते हुए जो विश्व के समस्त प्राणियों को आत्मवत् देखता है, संसारी जीवन को अशाश्वत ( क्षणभंगुर ) समझता है, और अप्रमादी होकर संयम में रत रहता है, वहीं मुक्ति का सच्चा अधिकारी है ।
उहरे य पाणे बुड्ढे उव्वेहई लोगमिणं
लाभालाभे सुहे- दुक्खे जीविए मरणे वहा । समो निंदा पसंसासु तहा माणा अवमाणवो ॥
लाभ-हानि, सुख-दु:ख, जीवन-मरण, प्रशंसा-निंदा, मान-अपमान में समत्व भाव रखना चाहिए ।
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संपिक्खए अपगमप्पएण स्वयं को जानो, स्वयं को पहचानो । अत्ताणमेव समभिजाणाहि आत्मा को ही भले प्रकार जानो । जो एगं जाणई सो सव्वं जाणई
जो एक (आत्मा) को जानता है, वह सबको जानना है ।
न दंसणिस्स नाणं, नाणेणविणा हुंति न चरणगुणाः । अगुणिस्स नत्थि मोक्खो, नात्थितमोक्खस्स निव्वाणं ॥
जहाँ श्रद्धान ( दर्शन ) नहीं वहाँ ज्ञान नहीं होता, बिना ज्ञान के चारित्रगुण प्रकट नहीं होता, बिना चारित्र गुण के मोक्ष की सिद्धि नहीं होती, और अमुक्त का निर्वाण नहीं होता ।
सम्माइट्ठी सावयधम्मं जिणदेवदेसिगं कुणदि । विवरीयं कुतो मिच्छादिट्ठी मुणेयव्वो ॥
सम्यग्दृष्टि श्रावक जिनोपदेशित धर्म का पालन करता है। जो उसके विपरीत करता है, उसे मिथ्यादृष्टि जानो ।
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दाण- पूजा-सीलोपवास चउव्विहो सावयधम्मो
दानशीलता, गुणीजनों का पूजा सत्कार, शील-सदाचरण और उपवास आदि तप श्रावक का चतुर्विध धर्म है ।
जूयं मज्जां मंसं वेसा, पारद्धि-चोर-परयारं । दुग्गइगमणस्सेदाणि हेउभूदाणि पावाणि ||
द्यूत (जुआ), शराब, मांस, वेश्या, शिकार, चोरी और परस्त्री ( या परपुरुष) का सेवन दुर्गति के कारण हैं, इसलिए श्रावक इन सात पाप व्यसनों को छोड़ देता है ।
पंचेणुव्वयाई गुणव्वयाई हवंति तह तिष्णि ।
सिक्खावय चत्तारि य संजमचरणं च सायारं ॥
पांच अणुव्रतों, तीन गुणव्रतों और चार शिक्षाव्रतों का पालन करना ही गृहस्थ का संयमाचरण है ।
एहु धम्मु जो आयरइ गंभणु सुदुवि कोइ । fi सावयहं अण्णु कि सिरिमणि होइ ॥
सो साव,
इस धर्म का पालन करने वाला चाहे ब्राह्मण हो या शूद्र, वह ही श्रावक है, अन्यथा श्रावक के सिर पर क्या कोई मणि जड़ी रहती है ।
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★MNTNAM
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वि देहो वंदिज्जइ णवि य कुलो को वंदइ गुणहीणो ण हु सवणो देह की वन्दना नहीं की जाती, कुल और जाति के कारण भी कोई वन्दन योग्य नहीं होता । गुणहीन की कौन वन्दना करता है ? चाहे वह श्रमण (साधु) हो या श्रावक ।
गवि य जाइसंजुत्तो । णेय सावओ होइ ॥
कम्मुणा बंभणोहोइ, कम्मुणा होइ खत्तिओ । वईसो कम्मुणा होइ, सुद्दो हवइ कम्मुणा ॥
कर्म (अपने आचरण कार्यों) से ही मनुष्य ब्राह्मण होता है, कर्म से क्षत्रिय, कर्म से ही वैश्य और कर्म शूद्र होता है (जन्म से नहीं ) ।
न वि मुंडएण समणो, न ओंकारेण न मुणी रण्णवासेण, कुसचीरेण न
बंभणो । तावसो ||
सिर मुंडालेने मात्र से कोई श्रमण नहीं हो जाता, मात्र ओंकार का जप करने से कोई ब्राह्मण नहीं हो जाता, वन में रहने मात्र से कोई मुनि नहीं होता, और कुश - चीवर धारण करने से कोई तापसी नहीं बन जाता ।
समयाए समणो होइ, बंभचेरेण बंभणो ।
नाणेय य मुणी होइ, तवेण होइ तावसो ॥
व्यक्ति समता से श्रमण होता है, ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण होता है, ज्ञान से मुनि होता है, और तप करने से तापस होता है ।
ह वरु बंभणु ण वि वइसु णउ खत्तिउ णवि सेसु । पुरिसु णउंसउ इत्थि ण वि एहउ जाणि विसेसु ॥
यह अच्छी तरह जान समझ ले कि न मैं श्रेष्ठ ब्राह्मण हूँ, न क्षत्रिय, वैश्य और न शूद्र आदि अन्य कुछ । मैं पुरुष, स्त्री या नपुंसक भी नहीं हूँ । आत्मा एक मात्र आत्मा है -- उसमें ये कोई भेद प्रभेद नहीं होते । अप्पा मिल्लिवि णाणमउ अवरु परायउ भाउ ।
सो छंडेविणु जीव तुहुं झायहि सुद्धसहाउ |
ज्ञानमयी आत्मा को छोड़कर अन्य सब भाव पर भाव हैं। इसलिए हे जीव ! ( उपरोक्त ) समस्त विकल्पों को छोड़कर मात्र शुद्ध आत्मस्वभाव का ध्यान कर ।
णय कोवि देदि लच्छी, ण कोवि जीवस्स कुर्णादि उवयारं ।
वारं अवयारं कम्मंपि सुहासुहं कुणदि ॥
इस जीवात्मा को न कोई लक्ष्मी आदि देता है, न उसका उपकार करता है। उसके अपने कर्म ही उसके उपकार अपकार और सुख-दुःख के कारण होते हैं।
*MANAN
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[ १७
*MINV-MAVAN
वत्थं पडुच्च जं पुण अज्झवसाणं तु होदि जीवाणं ।
णहि वत्थुदो बंधो, अज्झवसाणेण बंधोदु ॥ कोई भी वस्तु जीव का भला-बुरा नहीं करती, उसके अपने विकार भाव (अध्यबसान) ही करते हैं, उन्हीं के कारण कर्मबंध होता है, किसी वस्तु से नहीं।
अप्पा कत्ता विकत्ता य सुहाणय दुहाणय आत्मा स्वयं अपने दुःख-सुख का कर्ता और हर्ता है । रागो दोसो मोहो ए ए एत्थ तिय दूसण दोसा।
रायो य दोसो य कम्मवीयं ॥ राग, द्वेष और मोह ही इस आत्मा के महान दूषण और दोष हैं, और राग एवं द्वेष ही कर्म के बीज हैं ।
जहाकडं कम्मं तहासि मारे जैसा कर्म किया जाता है, उसका वैसा ही फल भोगना होता है ।
कत्तारमेव अणुजाइ कम्म कर्म सदैव करने वाले के पीछे-पीछे चलते हैं।
णाणं अंकुसभूदं मत्तस्स हु चित्त-हत्थिस्स चित्तरूपी उन्मत्त हाथी को वश में करने के लिए ज्ञान अंकुश के समान है ।
णाणपदीओ पज्जलइ जस्स हियए विसुद्धलेस्सस्स विशुद्ध परिणाम वाले हृदय (शुद्धचित्त) में ज्ञान-दीप सतत प्रकाशमान रहता है ।
जावइया वयणपहा तावइया चेव हंति नयवाया।
जेण विणावि लोगस्स ववहारो सव्वहान निव्वडई॥ जितने भी वचनपथ हैं, उतने ही नयवाद हैं-जो कुछ भी कहा जाता है, वह किसी न किसी दृष्टि (नय) से कहा जाता है । इन नयविवक्षा के द्वारा ही अखिल जगत के समस्त व्यवहार चलते हैं ।
जावंतो वयणपहा, तावंतो वा नया विसद्दाओ।
ते चेव य परसमया, सम्मत्तं समुदया सव्वे ॥ जो कुछ भी बोलने में आता है वह किसी न किसी नय (वृष्टि) से कहा जाता है। अलग-अलग रहने पर ये सभी मिथ्यादृष्टियाँ हैं, और परस्पर में समुदित (समन्वित) हो जाने पर वे ही सम्यक् दृष्टियां बन जाती हैं।
MATTOMATO
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१८ ] *MAVNAVIK
जमणेग धम्मणो वत्थुणो, तदंसे च सव्व पडिवत्ती।
अन्धव्व गयावयवे, तो मिच्छदिठिणो वीसु॥ जैसे हाथी को टटोलकर देखने वाले जन्मान्ध व्यक्ति उसके एक-एक अंग को ही पूरा हाथी मान बैठते हैं, उसी प्रकार अनेक धर्मात्मक वस्तु के विषय में अपनी-अपनी अटकल, उसके किसी एक पक्ष को ही लेकर, दौड़ाने वाले व्यक्ति उस एक अंश को ही सम्पूर्ण वस्तु मान बैठते हैं । वस्तु-स्वरूप अनेकान्त दृष्टि से ही सिद्ध होता है।
__तस्स भुवणेकगुरुणो णमो अणेगंतवायस्स लोक के उस एक मात्र (अप्रतिम) गुरु अनेकांतवाद को नमस्कार हो।
णाणा जीवा णाणाकम्मं णाणाविहं हवे लद्धी।
तम्हा वयणविवादं सगपर समएहि वज्जिज्जो ॥ लोक में अनेक जीव हैं, कर्म भी अनेक प्रकार के हैं, और प्रत्येक व्यक्ति की नाना प्रकार की उपलब्धियां होती हैं। अतएव अपने मत अथवा दूसरे मत के माननेवाले किसी भी व्यक्ति के साथ वचन-विवाद (वाद-विवाद) करना उचित नहीं है।
विवत्ती अविणीयस्स संपत्ती विणीयस्स य ।
जस्सेयं दुहओ नायं सिक्खं से अभिगच्छइ ॥ अविनीत (विनय रहित) को विपत्ति प्राप्त होती है और विनीत को सम्पत्ति-जिसने यह जान लिया, वही शिक्षा ग्रहण कर सकता है।
जे य कंते पिए भोए लद्धेवि पिट्ठी कुव्वई।
साहीणे चयइ भोए से हु चाइत्ति बुच्चई ॥ जो व्यक्ति सुन्दर और प्रिय भोगों को प्राप्त करके भी उनकी ओर से पीठ फेर लेता है, सब प्रकार के स्वाधीन भोगों का परित्याग कर देता है. वही सच्चा त्यागी है।
समिक्ख पंडिए तम्हा पास जाइ पहे बहू ।
अप्पणा सच्चमे सेज्जा मेत्ति भूयेसु कप्पए ॥ बुद्धिमान पुरुष को चाहिए कि दुष्कर्म-पाशों को भली भांति समझकर स्वतन्त्ररूप से स्वयं सत्य की खोज करे और सब प्राणियों पर मैत्रीभाव रखे।
न हि वेरेन वेरानि सम्मन्तीध कदाचनं ।
अवेरेन च सम्मन्ति, एस धम्मो सनन्तनो॥ वैर से वैर कभी शान्त नहीं होता, अवर से ही वर शान्त होता है-यही सनातन नियम है।
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*MDHAVKAVM
TOTROADI
दूरे सन्तो पकासेन्ति हिमवन्तो व पब्बता ।
असन्तेत्थ न दिस्सन्ति रत्तिखित्ता यथा सरा ॥ सत्पुरुष हिमालय पर्वत की तरह दूर से ही प्रकाशित रहते हैं । असत्पुरुष रात में फेंके गये बाण की नाई दिखाई नहीं देते।
कयिरज्जे कयिराथेनं दल्लहमेनं परक्कमे ।
सिथिलो हि परिब्बाजो मिय्यो आकिरते रजं ॥ जिस काम को करना है, तो उसके करने में दृढ़ पराक्रम के साथ जुट जाय । ढीला-ढाला सन्यासी अधिक धूल उड़ाता है, सिद्ध कुछ नहीं करता।
न चाह न च भविस्सति न चेतरहि विज्जति ।
एकन्तं निन्दितो पोसो एकन्तं वा पसंसितो ॥ ऐसा व्यक्ति कि जिसकी या तो सर्वथा प्रशंसा ही प्रशंसा होती हो, अथवा निन्दा ही निन्दा होती हो, न कोई हुआ है, न है, और न कभी होगा।
यो च पुव्वे पमज्जित्वा, पच्छा तो नप्पमज्जति ।
सो मं लोकं पभासेति, पब्भा मुत्तो व चन्दिमा ॥ जो व्यक्ति एक बार भूल करके फिर भूल नहीं करता, वह मेघ से मुक्त चन्द्रमा की भांति लोक को प्रकाशित करता है।
तस्सेस मग्गो गुरुविद्धसेवा विवज्जणा बालजणस्स दूरा।
सज्झाय एकंत निषेवणाय सुत्तत्थ संचिन्तणया धिईय ॥ गुरुजनों एव वृद्धों की सेवा, मूखों से दूर रहना, एकाग्रचित्त से सत्साहित्य का अभ्यास एवं चिन्तनमनन करना और अपने चित्त को धीर बनाना ही निश्रेयस-कल्याण का मार्ग है।
आरोग परमालामा संतुट्ठी परमं धनं ।
विस्सास परमा जाती निब्बाणं परमं सुखं । नीरोगता सबसे बड़ा लाभ है, सन्तुष्ट रहना परम धन है, विश्वास सर्वश्रेष्ठ बन्धु है, और निर्वाण सर्वोपरि सुख है।
लवणसमो नत्थि रसो, बिन्नाणसमो बंधवो नत्थि ।
धम्मसमो नत्थि निही, कोहसमो वईरिओ नत्थि ॥ संसार में नमक के समान कोई अन्य रस नहीं है, विज्ञान (विशिष्ट ज्ञान) के समान कोई बन्धु नहीं है, धर्म के समान अन्य कोई निधि नहीं है, और क्रोध के समान अपना कोई शत्र नहीं है।
MANORAN
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२० ]
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fafia कोहं अविकंपमाणे
क्रोध पर विजय पाने के लिए अकंपान वृत्ति का अवलंबन लो । खमासूरा अरहन्ता
जो क्षमाशूर होते हैं वे ही अहंत होते हैं ।
खम्मामि सव्वजीवाणं, सव्वे जीवा खमंतु मे । मित्तिमे सव्वभूएसु, वैरं मज्झं ण केणवि ॥
मेरा सब जीवों के प्रति क्षमाभाव है, सब प्राणी मुझे क्षमा करें, प्राणीमात्र से मेरी मैत्री है, वैर किसी से भी नहीं है - ऐसी भावना रखो ।
मा नो द्विक्षत कश्चन् हम किसी से भी द्वेष न करें ।
नामस्स दुक्खमिच्छेय
कोई भी किसी दूसरे के लिए दुःख की इच्छा न करें ।
सव्वे सत्ता अवेरिनो होन्तु मा वेरिनो
सभी व्यक्ति अवर बनें, कोई भी किसी के साथ वैर न रखे ।
सव्वे सत्ता भवन्तु सुखवत्ता जगत के सभी प्राणी सुखी हों, सुखी रहें ।
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महावीर स्तवन
पृष्ठ १-६
प्राकृत पाठः अपभ्रंश पाठः संस्कृत पाठः भाषा स्तुतियां
, ८-२० , २१-४८
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६-अर्हत् महावीर (देवगढ़)
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* महावीर स्तवन है
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प्राकृत पाठ
णमो जिणाणं वड्ढमाणं, जिय भयाणं । महावीरा मंगलम्, महावीरा लोगुत्तुमा, महावीरे सरणं गच्छामि ॥
णिस्संसयकरो महावीरो जिणुत्तमो।
रागदोस-भयादोदो धम्म-तीत्थस्स-कारओ ॥ इक्कोवि णमुक्कारो जिणवर वसहस्स वध्धमाणस्स । संसार सागराओ तारेइ नरं वा नारि वा॥ सव्वण्णु सोमदंसण अपुणभव भवियजण-मणाणन्द । जय चिन्तामणि जगयगुरू जय जय जिण वीर अकलंक ॥
-अज्ञात
* अर्थ
भयादिक समस्त विकार भावों के विजेता वर्द्धमान जनेन्द्र को नमस्कार हो; भगवान महावीर मंगल स्वरूपी है, लोकोत्तम हैं, उन्हीं की शरण मुझे प्राप्त हो। संशयों के निर्मूल करने में वीर, जिनोत्तम भगवान महावीर राग द्वेष भय आदि विकारों से रहित हैंअतीत है ; वह धर्मतीर्थ के कर्ता या संस्थापक हैं। जिनेन्द्र भगवान ऋषभदेव (प्रथम तीर्थकर) अथवा वर्द्धमान महावीर (अंतिम तीर्थकर) को एक बार भी (भाव पूर्वक) नमस्कार करने से नर हो या नारी, संसार सागर से तिर जाते हैं-पार हो जाते हैं । सर्वज्ञ, सोमदर्शन, अपुनर्भव, भव्य जन-मनान्द, चिन्तामणि, जगद्गुरु, अकलंक वीर जिनेन्द्र की जय हो। जय हो, जय हो !
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सो जयइ जस्स केवलणाणुज्जलदप्पणम्मि लोयालोयं । पुढ पदिबिबं दीसई वियसिय, सयवत्त गम्भगउरो वीरो ॥
-गुणधराचार्य
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.
.
आतिथ्य - रूपमासरं महावीरस्य नग्नहु । रूप मुपसदामेतत्तिस्रो रात्रीः सुरासुता ॥
-यजुर्वेद, अ. १९, मं. १४ निगंठो आवुसो नातपुत्तो सव्वजु सव्वदरस्सी। अपरिसेसे गाण दस्संण परिजानाति ॥
-मज्झिमनिकाय, भा-१ एस सुरासुरमणुसिंदवंदिदं धोइ घाइ कम्ममलं। पणमामि वड्ढमाणं तित्थं-धम्मस्सकत्तारं ॥ वीरं विसाल णयणं रत्तुप्पल कोमलस्समप्पायं । तिविहेण पणमिऊण सील गुणाणं णिसामेह ॥ तिलोए सव्वजीवाणंहिदं धम्मोवदेसिणं । वड्ढमाणं महावीरं वंदित्ता सव्ववेदिणं ॥
जिनके केवल ज्ञान रूपी उज्जवल दर्पण में लोकालोक स्पष्ट प्रतिबिंबित हुए दीखते है और जो स्वयं विकसित कमल-गर्भ के समान:तप्त वर्णाभ हैं, वे वीर भगवान जयवन्त हों।
अतिथि स्वरूप पूज्य मासोपवासी नग्न (दिगम्बर) महावीर की उपासना करो, जिसमें (संशय-विपर्ययअनध्यवसाय रूप) तीन अज्ञान, अथवा (धन-शरीर-विद्या रूप) मदत्रय की उत्पत्ति नहीं होती।
अयुष्मान निर्ग्रन्थ ज्ञातपुत्र (भगवान महावीर) सर्वज्ञ ओर सर्वदर्शी हैं। अपने अपरिशेष (अनन्त) ज्ञानदर्शन द्वारा वह सब कुछ जानते-देखते हैं। सुर, असुर और मनुष्यों के इन्द्रों (राजाओं) से वन्दनीय, धातिया कर्म रूपी मल को धोकर नष्ट कर दिया जिनने और जो धर्म रूपी तोर्थ के कर्ता हैं, उन श्री वर्द्धमान स्वामी को नमस्कार करता हूँ। (बाह्य में) जिनके विशाल नेत्र हैं और चरण लाल कमल जैसे कोमल हैं, (अन्तरंग में) जो केवल ज्ञान रूपी विशाल नेत्रों के धारक हैं और जिनकी रागद्वेष रहित कोमल वाणी रागद्वेष को दूर करने वाली है, शील गुणों की प्राप्त्यर्थ उन श्री वीर प्रभु को मन-वच-काय से प्रणाम करता हूँ। तीनों लोकों के समस्त जीवों का हित करने वाले धर्मोपदेशक सर्वज्ञ वर्द्धमान महावीर की वन्दना करता हूँ।
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णमिऊण जिणंवीरं अणंत वर णाणदंसण सहावं
-कुन्दकुन्दाचार्य इमम्मि अवसप्पिणीए चउत्थ समयस्स पच्छिमे भाए, आहुट्ठ मासहीणे वास चउक्कमिसेसकम्मि, पावाए णयरीए, कत्तियमासस्स किण्हचउद्दसिए रत्तीए, सादीए नक्खते, पच्चूसे, भयवदो महदिमहावीरो वड्ढमाणो सिद्धिगदो, तिसुविलोएसु भवणवासिय वाण वितर जोयिसिय कप्पवासियत्ति चउव्विहा देवा सपरिवारा दिव्वेण गंधेण, दिव्वेण पुप्फेण, दिव्वेण धूवेण, दिव्वेण चुण्णण, दिव्वेण वासेण, दिव्वेण पहाणेण, णिच्चकालं अच्चंति, पूजंति, वंदति, णमंसंति, परिणिव्वाण महाकल्लाणपुज्जं अंचेमि पूजेमि वंदामि गंमंसामि, दुक्खखओ, कम्मखओ, बोहिलाहो, सुगइगमणं, समाहिमरणं, जिणगुण संपत्ति होउ मज्झं ॥
-निर्वाण भक्ति णाणं सरणं मे दंसणं च सरणं च चरियं सरणंच । तवसंजमं च सरणं भगवं सरणं महावीरो॥
-मूलाचार सो णाम महावीरो जो रज्जं पयहिऊण पब्बइयो । काम-कोह-महासत्तुपक्ख निग्घायणं कुणइ ॥
-अनुयोगद्वार सूत्र
अनन्त और उत्कृष्ट ज्ञान-दर्शन स्वभाव से युक्त महावीर जिनेन्द्र को नमस्कार हो। वर्तमान अवसर्पिणी के चौथेकाल के अंतिम भाग में-उसके अन्त में साढ़े तीन मास कम चार वर्ष-शेष रह जाने पर-पावानगरी में कार्तिक मास की कृष्ण चतुर्दशी की रात्रि के प्रत्यूषकाल (पिछले पहर) में, स्वाति नक्षत्र में भगवत महति-महावीर वर्द्धमान ने सिद्धि (निर्वाण) प्राप्त किया था। उस उपलक्ष्य में त्रिलोक में निवास करने वाले भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और कल्पवासी, चतुनिकाय के देवों ने सपरिवार दिव्य गंध, दिव्य पुष्प, दिव्य धूप, दिव्य चर्ण, दिव्य न्हवन-प्रक्षालन (अंगोक्षना) द्वारा निरंतर अर्चा की, पूजा की, वंदना की, नमस्कार किया और परिनिर्वाण महाकल्याण पूजा की थी। मैं भी नित्यकाल वही अर्चा-पूजा-वन्दना-नमस्कार करता हूँ। इसके फलस्वरूप मेरे दु:खों का क्षय हो, कर्मो का क्षय हो, मुझे बोधि (रत्नत्रय) की प्राप्ति हो, सुगति में गमन हो, समाधिमरण हो, और मुझे जिनेन्द्र भगवान के गुणों की प्राप्ति हो। (हमारे लिए) ज्ञान शरण है, दर्शन शरण है, चारित्र शरण है, तप और संयम शरण हैं तथा (सर्वोपरि) भगवान महावीर शरण हैं। उन्हीं का नाम महावीर है जिन्होंने समस्त राज्य वैभव का परित्याग करके प्रव्रज्या (दीक्षा) ली और काम-क्रोध आदि महान शत्रुओं के पक्ष का निग्रह किया।
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४]
जयइ जगजीव जोणी वियाणओ जगगुरु जगाणन्दो । जगणाहो जगबन्धू जयइ जगप्पियामहोऽभयवं ॥ जयइ सुयाणयभवो, तित्थयराणं अपच्छिमो जयइ । जय गुरुलोयाणं, जयइ महप्पा महावीरो ॥ भद्द सव्वजगुज्जोयगस्स, भद्द जिणस्स भद्द सुरासुर नमसियस्स, भद्द
वीरस्स ।
धुयरयस्स ॥ - नन्दी सूत्र
से सव्वदसी अभिभूयनाणी निरामगंधे धिइयं ठिया । अणुत्तरे सव्वजगंति विज्जं, गंथातीते अभए अणाऊ ॥ से भूपणे अणि अचारी, ओहंतरे धीरे अनंत चक्खू । अणुत्तरे तपइ सुरिए वा, वइरोर्याणदे व तमं पगासे ॥ थणियं व सद्दाण अणुत्तरे उ, चन्दोव्व ताराण महाणुभावे । गन्धेसु वा चन्दणमाह सेट्ठ, एवं मुणीणं अपडिन्तमाहु || जोहेसु णाए जह वीससेण, पुष्फेसु वा जह अरविंद माहु । खत्तीण सेट्ठे जह दंतवक्के, इसीण सेट्ठे तह वद्धमाणे ॥ - सूयगडांग
चराचर जगत (समस्त जीव योनियों) के ज्ञाता, जगत्गुरु, जगत् को आनन्द देने वाले, जगन्नाथ, जगत् बन्धु, जगत्-पितामह, अभयरूप, द्वादशाङ्ग श्रुत के जनक, अपश्चिम [अंतिम] तीर्थंकर, लोकगुरु, महात्मा भगवान महावीर की जय हो ।
समस्त विश्व को ( अपने ज्ञानालोक से ) प्रकाशित करने वाले, रागद्वेष के विजेता, महान वीर, देवों और असुरों द्वारा अभिवन्दित, कर्ममल से रहित, भगवान महावीर हमारा ( समस्त लोक ) का भद्र या कल्याण करने वाले हैं ।
दृष्टा थे, काम, क्रोधादि अन्तरंग : शत्रुओं को जीतकर पालन करते थे, अटल वीर पुरुष थे, अपने आत्म अध्यात्मविद्या के पारगामी थे, समस्त परिग्रहों के
भगवान महावीर सब पदार्थों के ज्ञाता एवं वे केवलज्ञानी बने थे, वे निर्दोष चरित्र का स्वरूप में स्थिर थे, सारे जगत में सर्वोत्कृष्ट त्यागी, निर्भय, मृत्युञ्जयी एवं अजर अमर थे । उनकी प्रज्ञा विश्वमंगलकारी थी, वे अप्रतिबद्ध विहारी थे, संसार सागर को पार करने वाले थे, उपसर्ग परिषहों को सहने में धीर, अनन्त पदार्थों के साक्षात् दृष्टा, ज्ञाता, सूर्यसम उत्कृष्ट तेजस्वी, वैरोचन अग्नि के समान अज्ञानान्धकार नष्ट कर ज्ञान के प्रकाशक थे 1 जिस प्रकार शब्दों में मेघगर्जना का शब्द अनुपम है, तारामण्डल में चन्द्र महाप्रभावशाली है, सुगन्धित पदार्थों में बावना चंदन श्रेष्ठ है, उसी प्रकार भूमण्डल के समस्त मुनियों में इहलोक - परलोक की वासना से सर्वथा मुक्त यह महावीर श्रेष्ठ थे जिस प्रकार वीर योद्धाओं में वासुदेव महान हैं, फूलों में अरविन्द कमल महान है, क्षत्रियों में चक्र - वर्ती महान है, उसी प्रकार ऋषियों में श्री वर्द्धमान भगवान महावीर सबसे महान थे ।
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तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे आइगरे तित्थयरे सहसंबुद्ध परिसुत्तमे पुरिससीहे पुरिसवर पुंडरीए पुरिसवर गंधहत्थी लोगुत्तमे लोगणाहे लोगहिए लोगपईवे लोगपज्जोयगरे अभयदए चक्खुदए मग्गदए सरणदए बोहिदए धम्मदए धम्मदेसए धम्मणायगे धम्मसारही धम्मवरचउरंत चक्कवट्टी अप्पडिहयवरणाणदंसणधरे वियदृछउमे जिणे जाणए बुद्ध बोहए गुत्ते मोयए सव्वण्णू सव्वदरिसी सिवमयलमरुगणंतमक्खयमव्वा बाहमप्पुणरावित्तियं सिद्धिगइनामधेयं ठाणं ।
-भगवती सूत्र सिद्धत्थराय पियेकारिणीहि कुंडले वीरे। उत्तर फाग्गुणि रिक्खे चित्तप्सिया तेरसीए उप्पण्णो ॥
-यतिवृषभाचार्य वासाणूणत्तीसं पंचयमासे य वीस दिवसे य, चउविह अणगारेहिं बारहहि गणेहि विहरतो । पच्छा पावाणयरे कत्तियमासे य किण्ह चोद्दसिए, सादीए रत्तीए सेसरयं छेत्तुंणिव्वाओ ॥ अमावसीए परिणिव्वाण पूजा सयल देविदेहि कयाति ॥
-जयधवल
उस काल उस समय में श्रमण भगवान महावीर स्वामी वहां पधारे। वे भगवान कैसे थे? इसके लिए कहा है कि वे आदिकर, तीर्थकर, स्वयं संबुद्ध, पुरुषोत्तम, पुरुषसिंह, पुरुषवर, पुण्डरीक, पुरुषवर गन्धहस्ती, लोकोत्तम, लोकनाथ, लोकहितकर, लोकप्रदीप, लोकप्रद्योतकर अभयदाता, चक्षुदाता, मार्गदाता, शरणदाता, बोधिदाता, धर्मदाता, धर्मोपदेशक, धर्मनायक, धर्मसारथि, धर्मवर-चातुरन्तचक्रवर्ती, अप्रतिहत ज्ञान-दर्शन के धारक, छद्मस्थता से निवृत्त जिन, ज्ञायक, बुद्ध, बोधक, मुक्त, मोचक, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी थे । वे शिव, अचल, रोग रहित, अनन्त, अक्षय, अव्याबाध, पुनरागमन रहित, सिद्ध गति को प्राप्त करने की इच्छा वाले थे। कुण्डलपुर में महाराज सिर्द्धार्थ और महारानी प्रियकारिणी त्रिशला के घर चैत्र शुक्ल त्रयोदशी के शुभ दिन उत्तरा फाल्गुणि नक्षत्र में उन वीर प्रभु का जन्म हुआ। और (केवल ज्ञान के उपरान्त) उन्तीस वर्ष पांच मास तथा बीस दिन तक बारह गणों में संगठित चतुर्विध संघ के साथ विहार करते हुए अन्त में पावानगरी में कात्तिक मास की कृष्ण चतुर्दशी की रात्रि के अन्तिम भाग में स्वाति नक्षत्र के रहते शेष (अघातिया) कर्मों का छेदन करके निर्वाण प्राप्त किया। उस उपलक्ष्य में अमावस्या के दिन समस्त देवेन्द्रों ने मिलकर परिनिर्वाण पूजा की।
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६ ]
जं रर्याणि च समणे भयवं महावीरे कालगए जाव सव्व दुक्खप्पहीणे तंरर्याणि च णं नव मल्लइ नव लेच्छइ कासी - कोसलगा अट्ठारसवि गणरायाणो अमावसीए पाराभोयं पोसहोववासं पट्ठवसु गए से भावज्जोए दव्वुज्जोअं करिस्सामो ॥
अपभ्रंश पाठ
—कल्पसूत्र
दुक्कर तवचरणारओ खंति खमो उग्गबंभचेरोय । अप्प पर तुल्ल चित्तो मोणव्यय पाणाभोई य ॥ — नेमिचन्द्र
विद्ध सिय- रइवइ पणवेपणु सम्म ण पेमे
सुरवइ- णरवइ-फणिवइ-पयडिय सासणु । निदिय दुम्मइ णिम्मल-मग्ग- पयासणु ॥ णिसण्णो महावीर - सण्णो । जईणं जए संजणं ॥ खमा संजमाणं ।
तमीसं दमाणं जमाणं
उहाणं रमाणं दया-वड्ढमाणं
सिरेणं
पबुद्धत्थ-माणं ॥ जिणे वड्ढमाणं । णमामो ॥
- पुष्पदन्त
जिस रात्रि में श्रमण भगवान महावीर ने आत्मा को समस्त दुःखों से छुड़ा कर निर्वाण प्राप्त किया उस रात्रि को नवमल्ल, नवलिच्छवि और कासी - कोसलादि प्रदेशों के अठारह गणराजाओं ने एकत्र होकर प्रोषधोपवासपूर्वक अमावस्या को निर्वाण पूजन की, और भावज्योति का अवसान हुआ हम उसके स्थान में द्रव्य ज्योति करें, ऐसा कहकर दोपमाला प्रज्वलित की ।
( दीक्षा के उपरान्त) वह उस दुष्कर तपश्चरण में रत हो गये, जिसकी विशेषताएँ क्षांति, क्षमा (उपशम) और उम्र ब्रह्मचर्य थे । उस पाणितलभोजी, मौनी योगिराज का हृदय आत्म-अनाम (आपा-पर) के प्रति समता से पूर्ण था ।
मैं उन सन्मति भगवान को प्रणाम करता हूँ जिन्होंने कामदेव का पराभव किया, जिनका शासन सुरपति, नरपति तथा नागपति द्वारा प्रकटित हुआ, जिन्होंने कुज्ञान की निंदा की और निर्मल मोक्षमार्ग का प्रकाशन किया ।
वह महावीर भौतिक प्रेम में अनासक्त रहे, समस्त यतियों एवं आर्यिकाओं के ईश थे, दम, यम, क्षमा, संयम एवं अभ्युदय और निःश्रेयस रूप उभय लक्ष्मी तथा सम्पूर्ण तत्त्वार्थ के ज्ञाता थे, वृद्धि - शील दया के साक्षात् रूप ऐसे उन वर्धमान जिनको मैं मस्तक झुकाकर नमन करता हूँ 1
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जियवंदिवि तह गोयमु गणेसु, णिय णयरु पत्तु सेणिउ गरेसु । दहति उणवरिसि विहरिवि जिणेंदु, पयडेवि धम्मु महियलु अणेंदु ॥ पावापुर मज्झिहिं जिणेसु, वेदिणसह उज्झिवि मुत्ति ईसु। चउसेह कम्मह करि विणासु, संपत्तउ सिद्ध णिवासु वासु ॥ देवाली अम्मावस अलेउ, महोदेउ वोहि देवाहि देउ । चउदेवणिकायहं अइमणुज्ज, अइवि विरइय णिव्वाणपुज्ज ॥
__ -यशःकोति
जिण जन्महो अणुदिण सोहमाण, णिय कुल सिरि देक्षेवि वड्ढमाण । सिय भाणुकलाइ सहुँ सुरेहि, सिरि सेहर-रयणहि भासुरेहिं ॥ दहमे दिणि तहो भव बहु निवेण, किउ वड्ढमाण इउ णामु तेण ॥
-श्रीधर पय-सत्तु महीयलि चलियउ जाम, इंदे पणवेप्पिणु देउ ताम् । ससिपह सिविहिं मंडिवि जिणिंदु, आरोविवि उच्चयिउअणिंदु ॥
-रईधु जय जय जय वीर वीरिय-णाण अणंत सुहा। महु खमहि भडारा तिहुअणसारा कवणु परमाणु तुहा ॥
-जयमित्र हल्ल
श्रेणिक राजा की राजधानी (राजगृह के विपुलाचल पर) गौतम गणेश द्वारा वंदित होकर तीस वर्ष तक जिनेन्द्र महावीर ने विहार करके पृथ्वी पर सुखदायी धर्म का उपदेश दिया। अन्त में मध्यमा पावापुरी में पहुंच कर उन मुक्तीश जिनेश्वर ने योगों का निरोध किया। उन देवाधिदेव महादेव की निर्वाण प्राप्ति के उपलक्ष्य में अमावस्या को दिवाली मनी, चारों निकाय के देवों और मनुष्यों ने वहाँ एकत्र होकर निर्वाण पूजा की। भगवान के जन्म के उपरान्त नित्यप्रति उनके कुल की श्री-लक्ष्मी वर्द्धमान हुई, जिस प्रकार दिन में सूर्य की कलाएँ और रात्रि में चन्द्रमा की कलाएं बढ़ती हैं । अतएव जन्म से दसवें दिन उन भवावलिनाशक भगवान का 'वर्द्धमान' नाम रक्खा गया । (जब भगवान ने जिन दीक्षा ली तो) सात पग तो भूमिगोचरी मनुष्य तथा तदनन्तर देवलोक के इन्द्र जिनेन्द्र भगवान को शशिप्रभा नामक पालकी में बैठाकर उक्त पालकी को अपने कंधों पर दीक्षा-वन में ले गये। अनन्तज्ञान एवं अनन्त सुख के धनी, हे वीर भट्टारक मुझे शरण में लो, तीन लोक में तुम्हारे समान दूसरा कौन है ? तुम्हारी जय हो, जय हो, जय हो !
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कसोवले अभव्व संगमस्सु भाविसामले, सुपत्तु जस्सु धीरदा सुवण्णु जाउ उज्जलु। सुरिंद चक्कवागवासराहिणाधु सो जिणु,
सभत्तिहं मणुस्सहं सुहाय णादनंदणु ॥१॥ सकम्मरोगहिं पपीडिया पवड्ढवेयणा, मलीणवासणागुला अपत्थ सेवणायरा । कहं नु हुंत माणवा न हुंत भूतले जई, परोवगारलद्ध जम्म धम्म विज्जगा जिणा ॥२॥
विमुत्तिमग्गदसणग्गबारु विग्घवज्जिउ, दुरन्त दुग्गदिप्पवेसरोहलोह अग्गलु। जयप्पयासु सामि जोग खेमकारगुत्तमु, करेउ नट्ठ दुक्खजालु सो मई जिणागमु ॥३॥
-कल्याणविजय संस्कृत पाठ
नमः श्री वर्धमानाय निद्धत कलिलात्मने।
सालोकानां त्रिलोकानां यद्विद्या दर्पणायते॥ कोल्महत्या भुवि वर्द्धमानं त्वां वर्द्धमानं स्तुति गोचरत्वम् । निनीषवः स्मोवयमद्य वीरं विशीर्ण-दोषाऽऽशय-पाशबन्धम् ॥ दयादमत्याग समाधि निष्ठं नय प्रमाण-प्राकृताञ्ज सार्थम् । अधृष्यमन्यैरखिलः प्रदैिजिन त्वदीयं मतमद्वितीयम् ॥
अभव्य संगम रूपी कृष्ण कषोपल (काली कसौटी) पर कसा जाकर आपका अपूर्व धैर्य समुज्ज्वल स्वर्ण की भांति चमक उठा । वह ज्ञात-नन्दन जिनेन्द्र महावीर जो सुरेन्द्रों, चक्रवति नरेशों, दिक्पालादि के स्वामी हैं, भक्त मनुष्यों को सुख दें। यदि पृथ्वीतल पर आप जैसे महापरोपकारी धर्म वैद्य का सुयोग न मिलता तो अपने कर्मों के रोगों से पीड़ित, बढ़ती हुई वेदना से त्रस्त, नीच वासनाओं से आकुलव्याकुल, अपथ्य विषय सेवी मनुष्यों का क्या भविष्य होता ? कैसे उनकी सुगति होती ? हे जिनेन्द्र ! आपकी वाणी (आगम) विमुक्ति मार्ग के अग्रद्वार के दर्शन कराने वाली है, समस्त विघ्नों को दूर करने वाली है, दुरन्त दुर्गति में प्रवेश रोकने के लिए लौह अर्गला है, हे स्वामी वह जगत के तत्वों की प्रकाशक है, उत्तम योग-क्षेम की कर्ता है, वह जिनागम मेरे दुख जाल को नष्ट कर दे।
केवलज्ञान-लक्ष्मी सम्पन्न उन भगवान वर्द्धमान को नमस्कार हो, जिन्होंने अपनी आत्मा से समस्त कर्ममल धो डाला है और जिनके ज्ञान में अलोकाकाश सहित तीनों लोक दर्पणवत् प्रतिबिंबित होते हैं। हे वीर जिन ! आप दोषों और दोषाशयों के पाशबन्धन से मुक्त हैं, आप निश्चय से ऋद्धमान, सर्वोत्कृष्ट और अबाध्य हैं, महती कीर्ति से भूमण्डल पर वर्द्धमान हैं (सर्वत्र आप की कोति फैली है), मैं आपकी स्तुति करने में प्रवृत्त होता हूँ।
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सर्वान्तवत्तद्गुण-मुख्यकल्पं सर्वातशून्यं च मिथोऽनपेक्षम् । सर्वापदामन्तकरं निरन्तं सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव ॥
इति स्तुत्यः स्तुत्यस्त्रिदश-मुनिमुख्यैः प्रणिहितः, स्तुतः शकत्या श्रेयः पदमधिगस्त्वं जिन! मया। महावीरो वीरो दुरित-पर-सेनाऽभिविजये,
विधेया मे भक्तिं पथि भवत एवाऽप्रतिनिधौ। कीर्त्या भुवि भासितया, वीरत्वं गुणसमुत्थया भासितया ।
भासोड्डसमाऽसितया, सोम इव व्योम्नि कुन्दशोभाऽसितया॥ तव जिन शासन विभवो, जयति कलावपि गुणानुशासन विभवः । दोष कशासन विभवः, स्तुवन्ति चैनं प्रभाकृशासन विभवः ॥
त्वं जिन गत-मद-मायस्तव भावानां मुमुक्षुकामदमायः । श्रेयान् श्रीमद् मायस्त्वया समादेशि सप्रयामदमायः ॥
हे प्रभु ! आपका धर्म शासन नय-प्रमाण द्वारा वस्तु तत्त्व को सर्वथा स्पष्ट करने वाला तथा समस्त प्रवादियों से अबाध्य होने के साथ साथ दया, दम, त्याग और समाधिनिष्ट है, अतएव संसार में अद्वितीय है। (पिछले पृष्ठ के अंतिम श्लोक का अर्थ)
हे स्वामी ! आपका धर्म शासन अनेकान्त रूप है तथापि सुव्यवस्थित है, उसमें असंगतता और विरोध के लिए कोई अवकाश नहीं है। वह समस्त आपदाओं का अन्त करने वाला है, अखंडनीय है, और सभी प्राणियों के अभ्युदय का कारण होने से 'सर्वोदय तीर्थ' है। हे जिनेन्द्र ! आप मोहादि शत्रुओं की सेना को पूरी तरह पराजित करने में वीर हैं, निःश्रेयस (मोक्ष) पद प्राप्त करने से 'महावीर' हैं, जिन देवेन्द्रों और मुनीन्द्रों की दूसरे लोग स्तुति करते हैं उनके स्तुत्य हैं, और आपका मार्ग अद्वितीय है. अतएव आप मेरी सविशेष भक्ति के भाजन बनो।
हे वीर प्रभु ! आप अपने निर्मल आत्मीक गुणों से समुत्पन्न धवल कीर्ति से पृथ्वी मंडल पर ऐसे शोभायमान हो जैसे कि कुन्दपुष्पों की आभावाली नक्षत्रमालिका के मध्य चन्द्रमा शोभायमान होता है। हे जिनेन्द्र ! आप के शासन की परम महिमा इस कलिकाल में भी जयवंत हो रही है। काम-क्रोध आदि दोषों को दूर करके जिनके ज्ञान की महिमा सर्वत्र प्रभावान है, ऐसे गणधरादि देव भी आपके इस महिमामय शासन की स्तुति करते हैं। हे बीर जिनेन्द्र ! आप मान और माया से रहित हैं, मुमुक्षुओं (मोक्ष के अभिलाषियों) को इच्छा पूर्ण करने वाले हैं, अर्थात् भक्ति भाव से आपकी स्तुति करने वाले जन मान और माया को शीघ्र ही छोड़ देते हैं तथा आप जैसे ही गुणों के धारक होने के अधिकारी शीघ्र ही बन जाते हैं।
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गिरिभित्त्यवदानवतः श्रीमत इव दन्तिनः श्रवदानवतः । तव शमवादानवतो गत मूजितमपगत प्रमादानवतः ॥
अभीत्यावर्द्ध मानेनः श्रेयोगुरु संजयन् ।
अभीत्या वर्द्ध मानेनः श्रेयोगुरु संजयन् । नानानन्तनुतान्त तान्तित निनुन्नुन्नान्त नुन्नांनृत नूतीनेग नितान्ततानितनुते
नेतोन्नतानां ततः। नुन्नातीतितनून्नति नितनुतान्नीति निनूतातनुन्तान्तानीतिततान्नुतानन
नतान्नो नूतननोत्तु नो॥ प्रज्ञा सा स्मरतीति या तव शिरस्तद्यन्नतं ते पदे, जन्मादः सफलं परं भवभिदी मत्राश्रिते ते पदे । मांगल्यं च स यो रतस्तव मते गीः सैव या त्वा स्तुते, ते ज्ञा ये प्रणता जनाः क्रमयुगे देवाधिदेवस्य ते । जन्मारण्यशिखी स्तवः स्मृतिरपि क्लेशाम्बुधेनौंः पदे, भक्तानं परमौनिधी प्रतिकृतिः सर्वार्थसिद्धिः परा। वन्दीभूतवतोपि नोन्नतिहतिर्नन्तुश्च येषां मुदा, दातारो जयिनो भवन्तु वरदा देवेश्वरास्ते सदा ॥
-स्वामि समन्तभद्रः
जिस प्रकार गण्डस्थल से मद बहाते और मार्ग के पर्वतों के छोरों को विदारण करते हुए उत्तम गजराज का स्वाधीन गमन होता है वैसे ही पृथ्वी पर आपका उदार, हितकारी, सबको अभयदाता और एकांत मतों का खंडन करने वाला सुखद विहार हुआ। हे देव विनत जिनेन्द्र ! जो बुद्धिमान आपकी स्तुति और पूजा करता है, वह संसार के दुखों से पीड़ित नहीं होता और सफल मनोरथ होकर मोक्ष सुख पाता है। हे देव ! अनेक भव्य जीवों ने आप के विविध गुणों की स्तुति की है, आप दुखों को नष्ट करने वाले हैं, अन्तरहित हैं, आपने एकान्तवाद रूप असत्य को नष्ट कर दिया है, गणधरादि देवों ने आपका उज्ज्वल यश सब ओर फैलाया है, आप उत्तम पुरुषों के नायक हैं, उनके द्वारा पूजित हैं, आपकी मुख छवि स्तुत्य है, हे पूज्यवर ! हम सांसारिक दुःखों से पीड़ित अनेक व्याधियों से घिरे हैं, हम आप के चरणों में विनत हैं। आप हमें जन्म-मरण का अन्त करने वाली महाविद्या प्रदान कीजिए, हमारे नये बंधने वाले पापों को नष्ट कीजिए और शीघ्र ही बन्धन मुक्त कीजिए। हे देवधिदेव ! बुद्धि वही है जो कि आपका स्मरण करे, ध्यान करे, मस्तक वही है जो आपके चरणों में झुका रहे, वही जन्म सफल है जिसमें भवभ्रमण को नष्ट करने वाले आपके चरणों का आश्रय . लिया गया हो, वही मंगलीक है जो आपके मत में अनुरक्त हो, वाणी वही है जो कि आपकी स्तुति
करे, और पंडितजन वही हैं जो आपके चरण-युगल में नत रहते हैं। जिनका स्तवन भव रूपी अटवी को नष्ट करने के लिए अग्नि के समान है, जिनका स्मरण दुःखरूप
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प्रशान्तं दर्शनं यस्य सर्वभूताऽभयप्रदम् । मांगल्यं च प्रशस्तं च शिवस्तेन विभाव्यते ॥ जगन्नकावस्थं युगपदखिलाऽनन्त विषयं, यदे तत्प्रत्यक्षं तव न च भवान् कस्यचिदपि । अनेनैवाऽचिन्त्य-प्रकृति-रस-सिद्धस्तु विदुषां, समीक्ष्यतद्वारं तवगुण-कथोत्कावयमपि ॥ नार्थान् विवित्ससि न वेत्स्य सि ना, ऽप्यवेत्सीन ज्ञातवानसि न तेऽच्युत! वेद्यमस्ति । त्रैकाल्य-नित्य-विषमं युगपच्च विश्व,
पश्यस्यचिन्त्य-चरिताय नमोऽस्तु तुभ्यम् ॥ दूरामाप्तं यदचिन्त्य-भूतिज्ञानत्वया जन्मजराऽन्तकर्तृ ।
तेनाऽसि लोकानभिभूय सर्वान्सर्वज्ञ! लोकोत्तमतामुपेतः ॥ क्रियां च संज्ञान-वियोग-निष्फलां क्रियाविहीनं च विबोधसंपदम् । निरस्यता क्लेश समूह-शान्तये त्वया शिवाया लिखितेव पद्धतिः॥
समुद्र से पार होने के लिये नौका के समान है, जिनके चरण भक्तों के लिये परम निधान हैं, जिनकी प्रतिमा सब कार्यों की सिद्धि करने वाली है, जिन्हें सहर्ष प्रणाम करने वाले तथा जिनका मंगलगान करने वाले मुझ सेवक की उन्नति निर्बाध है, वे दानशील, कर्म विजेता देवेश्वर भगवान महावीर सबके मनोरथ पूर्ण करें।
जिनकी प्रशान्त मूर्ति के दर्शन मात्र से समस्त प्राणी अभय प्राप्त करते हैं, वह भगवान प्रशस्त मंगलरूप एवं कल्याणमयी शोभायमान हैं। अखिल विश्व के अनन्त विषय और उनकी समस्त पर्यायें जिसके प्रत्यक्ष हैं. अभ्य किसी को नहीं, और प्रकृति-रस-सिद्धविद्वानों के लिए भी जो अचिन्त्य है, ऐसे उक्त सर्वज्ञद्वार की समीक्षा करके मैं आपका गुणगान करने को उत्सुक हुआ हूँ। विश्व के त्रिकालवर्ती समस्त साकार-निराकार, व्यक्त-अव्यक्त, सूक्ष्म-स्थल, दृष्ट-अदृष्ट, ज्ञात-अज्ञात, व्यवहित-अव्यवहित आदि पदार्थ अपनी अनेक अनन्त पर्यायों सहित आप को युगपत प्रत्यक्ष हैं. हे भगवान अच्युत ! आपको नमस्कार हो ! हे सर्वान्सर्वज्ञ ! कठिनाई से प्राप्त होने वाले अचिन्त्य तत्त्वज्ञान द्वारा आपने जन्म-जरा-मृत्यु को जीत कर लोक को अभिभूत किया और लोकोत्तमता प्राप्त की। हे प्रभ ! आपके सन्मार्ग में सम्यग्ज्ञानरहित क्रिया को तथा क्रियाविहीन ज्ञान को क्लेश समूह की शान्ति और शिवप्राप्ति के अर्थ निष्फल बताया है।
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य एव षड्जीव - निकाय - विस्तरः परैरनालीढ अनेक सर्वज्ञ - परीक्षण-क्षमास्त्वयि प्रसादोदय सोत्सवाः
पथस्त्वयोदितः । स्थिताः ॥
- सिद्धसेनाचार्यः
श्री मुखालोकनादेव श्रीमुखालोकनं भवेत । आलोकनविहीनस्य तत्सुखावाप्तयत् कुतः ॥
अद्याभवत्सफलता नयनद्वयस्य, देव त्वदीय चरणाम्बुज वीक्षणेन । अद्य त्रिलोक तिलक प्रतिभासते मे, संसारवारिधिरियं चुलक प्रमाणम् ॥ अद्य मे क्षालितं गात्रं नेत्रे च विमली कृते । स्नातोऽहं धर्मतीर्थेषु जिनेन्द्र तव दर्शनात् ॥ नमो नमः सत्त्वहितंकराय, वीराय भव्याम्बुजभास्कराय । अनन्तलोकाय सुरार्चिताय देवाधिदेवाय नमो जिनाय ॥ देवाधि देव परमेश्वर वीतराग । सर्वज्ञ तीर्थकर सिद्धमहानुभाव ॥ त्रैलोक्यनाथ जिनपुंगव वर्द्धमान |
स्वामिन् गतोऽस्मि शरणं चरणद्वयं ॥ जयतुजिन वर्द्धमानस्त्रिभुवनहित धर्मचक्र नीरज बन्धुः । त्रिदशपति मुकुटभासुर चूडामणि रश्मिरंजितारुण चरणः ॥
हे वीर जिन ! छ :काय के जीवों का जो विस्तार आपने प्रतिपादित किया है, वैसा कोई अन्य नहीं कर सका। अतएव जो लोग सर्वज्ञत्व की परीक्षा करने में समर्थ हैं, वे बड़े प्रसन्न चित्त से आपके भक्त बने हैं।
आज भगवान जिनेन्द्रदेव के श्रीमुख का दर्शन करने मात्र से मुक्ति रूपी लक्ष्मी के दर्शन हो गये । जो भगवमुख का दर्शन नहीं करते, उन्हें यह सुख कैसे प्राप्त हो सकता है ।
हे देव ! आपके चरण कमलों का दर्शन करने से मेरे नेत्र सफल हो गये । हे त्रिलोक-तिलक आज यह संसार-सागर मुझे चुल्लू भर पानी के समान जान पड़ता है ।
हे जिनेन्द्र ! आज आपका दर्शन करने से मेरा शरीर प्रवित्र हो गया, मेरे दोनों नेत्र निर्मल हो गये, आज मैने धर्मरूपी तीर्थ में स्नान कर लिया ।
जो भगवान वर्द्धमान समस्त प्राणियों का हित करने वाले हैं, प्रफुल्लित करने वाले हैं, अनन्त लोकालोक को देखने वाले हैं, महावीर जिनेन्द्र को नमस्कार हो ! हे देवाधिदेव ! हे परमेश्वर ! हे वीतराग ! हे सर्वज्ञ ! हे तीर्थंकर ! हे सिद्ध ! हे महानुभाव ! हे त्रिलोकीनाथ ! हे जिनवरश्रेष्ठ वर्द्धमान स्वामी! मैं आपके युगल चरण कमलों की शरण को प्राप्त होता हूँ ।
वे वर्द्धमान जिनेन्द्र जो तीनों लोकों का हित करने वाले धर्मचक्र रूपी कमल के लिये सूर्य हैं और जिनके
भव्य रूपी कमलों को सूर्य के समान देवों द्वारा पूजित हैं, उन देवाधिदेव
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जय जय जय त्रैलोक्यकाण्डशोभि शिखामणे । नुव नुद नुद स्वान्तध्वान्तं जगत्कमलार्क नः॥ नय नय नय स्वामिन् शान्तिं नितान्तमनन्ति मां । नहि नहि नहि त्राता लौकैकमित्र भवत्परः ॥ चित्ते मुखे शिरसि पाणिपयोज युग्मे । भक्तिं स्तुति विनति मज्जलिमज्जसैव ॥ चेक्रीयते चरिकरीति चरीकरोति ।
यश्चर्करोति तव देव स एव धन्यः ॥ पद्मवनदीपिकाकुल विविधद म खण्डमण्डिते रम्ये । पावानगरोद्याने व्युत्सर्गेण स्थितः स मुनिः ॥ कार्तिक कृष्णास्यान्ते स्वातावृक्षे निहत्य कर्मरजः । अवशेषं संप्रापद्व्यजरामरमक्षयं सौख्यम् ॥ पावापुरस्य बहिरून्नतभूमिदेशे,
पद्मोत्पलाकुलवतां सरसां हि मध्ये । श्रीवर्द्ध मानजिनदेव इति प्रतीतो,
निर्वाणमाप भगवान्प्रविधूतपाप्मा ॥
अरुण चरण युगल देवराज इन्द्र के मुकुट में दैदीप्यमान चूडामणि रत्न की आभा से और भी शोभायमान हो रहे हैं, सदा जयशील हों ! हे भगवान ! आप त्रिलोक के अत्यन्त सुशोभित शिखामणि हैं, अत: आपकी जय हो, जय हो, जय हो। हे प्रभो! आप जगत रूपी कमल को खिलाने वाले सूर्य हो, अत: मेरे हृदय के मोहांधकार को दूर कीजिए। हे स्वामिन ! मुझे कभी समाप्त न होने वाली अत्यन्त शान्ति दीजिए। हे भव्य जीवों के अद्वितीय मित्र आप के सिवा मेरी रक्षा करने वाला अन्य कोई नहीं है, नहीं है, नहीं है। हे देव ! जो व्यक्ति अपने हृदय में आप की भक्ति रखता है, मुख से आपकी स्तुति करता है, मस्तक से आपको नमस्कार करता है और अपने हस्त कमलों को बार-बार आपके सन्मुख जोड़ता है, वह इस लोक में अत्यन्त धन्य है। आप कमलों से भरे हुए सरोवर तथा नाना प्रकार के वक्ष समूह से सुशोभित, पावानगर के अत्यन्त मनोहर उद्यान में पहुंचकर कायोत्सर्ग से विराजमान हुए और कार्तिक कृष्ण अमावस्या के प्रात:काल, स्वाति-नक्षत्र में, समस्त अवशिष्ट कर्मों से मुक्ति पाकर आपने जन्म-जरा-मरण आदि दुखों से रहित अविनाशीक अक्षय सौख्य प्राप्त किया। इस प्रकार पावापुर के बाहर, सूर्य विकासी एवं चन्द्र विकासी कमलों के सरोवरों के मध्य, उन्नत भूमि (ऊचे स्थान) पर, केवल ज्ञान लक्ष्मी के स्वामी, समस्त पापों का नाश करने वाले, सर्वप्रसिद्ध भगवान वर्द्धमान जिनेन्द्र ने निर्वाण लाभ किया।
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इत्येवं मगवति वर्धमान चंद्र,
___यः स्तोत्रं पठति सुसंध्ययो योहि । सोऽनंतं परमसुखं नृदेवलोके, भुक्त्वांते शिवपदमक्षयं प्रयाति ॥
-पूज्यपादाचार्यः जयत्यनन्त संसार पारावारकसेतवः । महावीराहतः पूताश्चरणाम्बुजरेणवः ॥
-अल्तेम शि० ले० (५४२ ई०) विशाला जननी यस्य विशालं कुलमेव च । विशालं वचनं चास्य तेन वैशालिको जिनः॥
-सूत्रकृतांग टीका सन्मतिर्महतिर्वीरो महावीरोऽन्त्य काश्यपः । नाथान्वयो वर्धमानो यत्तीर्थ मिह साम्प्रतम् ॥
-धनञ्जयः सुप्रभातं जिनेन्द्रस्य वीरः कमललोचनः । येन कर्माटवी दग्धा शुक्लध्यानोग्रवन्हिना ॥
-सुप्रभातस्तोत्र त्वया नाथ जगत्सुप्तं महामोह निशागतम् । ज्ञानभास्कर बिम्बेन बोधितं पुरतेजसा ॥
जो भव्य जीव प्रातःकाल और सायंकाल दोनों समय वर्धमान मगवान महावीर स्वामी के इस स्तोत्र का भक्तिपूर्वक पाठ करता है, वह मनुष्यलोक और देवलोक के परम सुखों का उपभोग करते हुए अन्त में मोक्ष रूपी अक्षय सौरख्यधाम को प्राप्त होता है। जो अनन्त पारावार संसार को पार करने के लिए एक मात्र सेतु हैं, ऐसे अर्हत् महावीर के चरणरूपी कमलों की रज जयवन्त हो। जिनकी जननी का नाम विशाला था, जिनका कुल भी विशाल (उच्च) था, जिनके वचन बिशालाशय थे, ऐसे यह वैशालिक (उपनाम धारी) महावीर जिन थे। जिनका वर्तमान में धर्मतीर्थ चल रहा है वह सन्मति वीर, महतिवीर, महावीर, काश्यप, नाथान्वयी, भगवान वर्धमान हैं। जिन कमल-लोचन भगवान महावीर जिनेन्द्र ने शुक्लध्यान रूपी प्रचंड अग्नि के द्वारा कम रूपी वन को भस्म कर दिया है (उनके प्रसाद से मेरा) सुप्रभात हो । हे वीरनाथ ! महामोह रूपी निशा के मध्य सोये पड़े इस संसार को आपने अपने अमित तेजपूर्ण ज्ञान सूर्य द्वारा जगाया है।
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नमस्ते वीतरागाय सर्वज्ञाय महात्मने । याताय दुर्गमं कूलं संसारोदन्वतः परम् ॥ भवता सार्थवाहेन भव्य चेतन वाणिजाः । यास्यन्ति वितनुस्थानं दोष चारैरलुण्टिताः॥ प्रवर्तितस्त्वया पन्था विमलः सिद्धगामिनाम् । कर्मजालं च निर्दग्धं ज्वलित ध्यानवन्हिना ॥ निर्बन्धूनामनाथानां दुःखाग्नि परिवर्तिनाम् । बन्धु थश्च जगतां जातोऽसि परमोदयः ॥ कथं कुर्यात्तव स्तोत्रं यस्यान्तपरिवर्जिताः । उपमानेन निर्मुक्ता गुणः केवलिगोचराः ॥
-रविषणाचार्यः शुद्धज्ञान प्रकाशाय लोकालोकैक भानवे। नमः श्री वर्तमानाय वर्द्धमान जिनेशिने ॥
-जिनसेनाचार्यः
हे भगवान् ! आप वीतराग हो, सर्वज्ञ हो, महात्मा हो, और संसार रूपी सागर के दुर्गम अंतिम तट पर पहुँच गये हो, अत: आपको नमस्कार हो। आप ऐसे उत्तम सर्थवाह हो कि भव्य जीव रूपी अनेक व्यापारी आप के नेतृत्व में, आपके साथ,निर्वाण धाम को प्राप्त होंगे, और राह में दोष रूपी लुटेरे उन्हें नहीं लूट सकेंगे। आपने मोक्षभिलाषियों को निर्मल मोक्ष का मार्ग दिखाया है, और ध्यान रूपी अग्नि से कर्मों के समूह को भस्म कर दिया है। जिनका कोई बन्धु नहीं, जिनका कोई नाथ नहीं उन दुःखरूपी अग्नि में जलते हुए संसारी जीवों के आप ही बन्धु हो, आप ही नाथ हो, और आप ही उन्हें परम अभ्युदय प्राप्त कराने वाले हो। हे भगवन् ! हम आपके गुणों का स्तवन कैसे कर पावें, जब कि वे अनन्त हैं, उपमा रहित हैं, और केवल ज्ञानियों के विषय हैं। जिनका शुद्धज्ञान रूपी प्रकाश सर्गत्र फैल रहा है, जो लोक और अलोक को प्रकाशित करने के लिए अद्वितीय सूर्य हैं, तथा जो अनन्त चतुष्टय रूपी लक्ष्मी से सदा वृद्धिंगत हैं, ऐसे श्री वर्धमान जिनेन्द्र को नमस्कार हो।
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संसार दावानल दाह नीरं,
संमोह धूलोहरणे समीरं । मायारस दारण सार सीरं, नमामि वीरं गिरिसार धीरं ॥
-हरिभद्रसूरिः स्थेयाज्जात जयध्वजाऽप्रतिनिधिः प्रोद्भूत भूरिप्रभुः, प्रध्वस्ताखिल-दुर्नय-द्विषदिभः सन्नीति सामर्थ्यतः। सन्मार्गस्त्रिविधः कुमार्गऽमथनोर्हन्वीरनाथः श्रिये, शश्वत्संस्तुति-गोचरोऽनघधियां श्री सत्यवाक्याधिपः ॥
-विद्यानंदः श्रीवर्धमानमनिशं जिनवर्धमानं
त्वां तं नये स्तुतिपथं पथि संप्रधौते । योऽन्त्योऽपि तीर्थकरमग्रिममप्यजैषीत् ।
___ काले कलौ च पृथुलीकृतधर्म तीर्थः॥ देवा वीरजिनोऽयमस्तु जगतां वन्द्यः सदा मूनि मे ॥
-गुणभद्राचार्यः श्रियं त्रिलोकीतिलकायमानामात्यन्तिकी ज्ञातसमस्ततत्त्वाम् । उपागतं सन्मतिमुज्ज्वलोक्ति वन्दे जिनेन्द्र हतमोहमन्द्रम् ॥
संसार रूपी दावानल की ज्वाला को शान्त करने के लिए जल के समान, संमोह रूपी धुलि को उड़ाने के लिए वायु के समान, और माया के रस को सुखाने के लिए सूर्य के समान तथा पर्वतराज के समान धीर वीर प्रभु को नमस्कार हो । अद्वितीय विजेता, महत् प्रभुत्व के धारी, अपनी सन्नीति की सामर्थ्य से दुर्नयरूपी शत्रुगजों के संहार में सिंह के समान, कुमार्गों का मथन करने वाले, साक्षात् रत्नत्रय की मूति, कलुषित आशय से रहित सुधीजनों द्वारा सदैव संस्तृत, श्री सम्पन्न, सत्य वाक्यों के अधिपति, अहंन्त वीरनाथ (महावीर) कल्याणार्थ लोक हृदयों में निवास करें। जो मोक्ष रूपी लक्ष्मी से निरन्तर वृद्धि को प्राप्त हैं, जिन्होंने इस कलिकाल में भी धर्मतीर्थ का भारी विस्तार किया है, और इस प्रकार जो अन्तिम तीर्थंकर होते हुए भी पूर्ववर्ती तीर्थकरों से आगे बढ़ गये हैं, ऐसे श्री वर्धमान जिनेन्द्र की मैं स्तुति करता हूँ। सम्पूर्ण जगत द्वारा वन्दनीय देवाधिदेव श्री वीर जिनेन्द्र सदैव मेरे मस्तक पर विराजमान रहें। जो तीनों लोकों में श्रोष्ठ, भविनाशी सर्वज्ञत्वलक्ष्मी को प्राप्त थे, जिनके वचन निर्दोष (पूर्वापर विरोध रहित) थे, और जिन्होंने मोहरूपी तन्द्रा को नष्ट कर दिया था, उन सन्मति जिनेन्द्र महावीर की मैं वन्दना करता हूँ।
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श्रीवीर यद्यथ वचोरुचिरं न ते स्याद् मव्यात्मनां खलु कुतो भुवितत्त्वबोधः । तेजो विना दिनकरस्य विभातकाले पद्मा विकासमुपयान्ति किमात्मनैव ॥ अस्नेहसंयुतदशो जगदेकदीपश्चिन्तामणिः कठिनतारहितान्तरात्मा । अव्यालवृत्तिसहितो हरिचन्दनागस्तेजोनिधिस्त्वमसि नाथ निराकृतोष्मा ॥ - वर्धमानचरिते असगः
श्री वर्द्धमान वचसा पर-मा-करेण, रत्नत्रयोत्तम-निधेः परमाऽऽकरेण । कुर्वन्ति यानि मुनयोऽजनता हि तानि,
वृत्तानि सन्तु सततं जनता हितानि ॥ - सिद्धप्रियस्तोत्रे देवनंदिः
सद्दृष्टि-ज्ञान-वृत्तात्मा मोक्षमार्गः सनातनः । आविरासीद्यतो वन्द्य तमहं वीरमच्युतम् ॥
-प्रभाचन्द्रः
श्रीसभायां समभ्येत्य श्रीवीरं जिननायकम् । पूजयामास पूज्योयमस्तावीच्च पुनः पुनः ॥ -वादीभसिंहः
हे वीर जिनेन्द्र ! यदि आपके मनोहारी वचन न होते तो निश्चय से इस भूतल पर भव्य जीवों को तत्त्व बोध कैसे होता ? प्रभातकाल में सूर्य के तेज के बिना क्या कमल आप से आप विकसित हो जाते हैं ?
[ १७
नाथ ! आप जगत के ऐसे अद्वितीय दीपक हैं कि जिसकी दशा (बाती) स्नेह (तेल) रहित है ( अर्थात् आप वीतराग दशा में स्थित हैं), आप चिन्तामणि ( मनवांछित देने वाले रत्न ) हैं, किन्तु आपकी अन्तरात्मा कठोरता (निर्दयता) से शून्य है, आप हरिचन्दनतरु हैं किन्तु वहाँ सर्पों का अभाव है (अर्थात् आप परोपकारी दयालु चेष्टाओं से युक्त हैं), आप तेज के निधि हैं किन्तु ( मन की ) ऊष्मा (गर्ग) का निराकरण करने वाले हैं ।
उत्कृष्ट लक्ष्मी के कारण, सम्यग्दर्शन- ज्ञान-चरित्र रूप रत्नत्रय के भंडार, श्री वद्धमान के वचनों के आश्रय से मुनिजन आत्महित साधन करते हैं और सामान्य जन भी अविकारी सुख प्राप्त करते हैं । उन भगवान का ऐसा वृत्त समस्त जनों के लिए सतत् हितकारी हो !
मैं उन अच्युत वीर प्रभु को नमस्कार करता हूँ जिनके द्वारा सम्यग्दर्शन- ज्ञान चरित्र रूप रत्नत्रयात्मक सनातन मोक्षमार्ग आविर्भूत हुआ ।
जिनेन्द्रों में प्रमुख श्री महाबीर की पूजा के लिए श्रीसभा (समवसरण) में आकर (इन्द्र ने ) उनको पूजा करके बार-बार स्तुति की थी ।
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अगलनिजामतीत-दोषमवाल्य-विधातमकत्व-ज्यम् । श्री पर्वमानं जिनमाप्तमुख्यं स्वयम्भुवं स्तोतुमहं यतिष्ये ॥ तव प्रेष्योऽस्मि दासोऽस्मि सेवकोऽस्मि अस्मिकिकरः। ओम-इति प्रतिपद्यस्व नाथ! नातः परं वे॥
-हेमचन्द्राचार्यः गतान्तो विद्यानां त्रिदशवनितानामधिपति, नं शक्तो यस्यासीद्गुणलवमपि स्तोतुमखिलम् । महिम्नामाधारो भुवन विततध्वान्त तपनः, स भूयान्नो वीरो जनन जय सम्पत्तिजननः ॥
-वर्धभानचरिते दामनन्दिः वीरमपारचरित्रपवित्रं, कर्ममहीरुहमूललवित्रम् ॥ संसाराप्रतिप्रतिबोध, परिनिष्क्रमणं केवल बोधम् ॥ परिनिवृत्ति सुखबोधितबोधं, सारासार विचार विबोधम् ॥ वन्दे मन्दारमस्तकपीठे, कृतजन्माभिषनं नुतपीठे ॥ दर्शनान्स विलब्धि विकरणं, केवल बोधामृत सुखकरणम् ॥
-माघनन्दिः
अनन्त ज्ञान के धनी, समस्त दोषों से रहित, अकाट्य सिद्धांत के प्रतिपादक, देवों द्वारा पूजित, आप्तपुरुषों में प्रमुख, स्वयंभू, ऐसे वर्द्धमान जिनेन्द्र की स्तुति करने का मैं प्रयत्न करता हूँ। मैं तुम्हारा प्रेष्य हूँ, दास हुँ, सेवक हूँ, किंकर हूँ, बस इतना कहदो नाथ ! कि मैं ऐसा हूँ, इसके अतिरिक्त फिर मुझे कुछ कहना शेष नहीं है-वही मेरे लिए पर्याप्त है। जिन्होंने समस्त विद्याओं का पार पा लिया है, जिनके अखिल गुणों की लवमात्र स्तुति करने में देवांगनाओं का अधिपति स्वयं इन्द्र भी समर्थ नहीं है, जिनका नाम ही लोक में भवाताप से बचने के लिए एक मात्र आधार है, वह वीर जिन समस्त जय और सम्पत्ति के जनक हैं। है वीर जिन ! आप अपार पवित्र चरित्र के धारी, कर्मरूपी वृक्ष का उन्मूलन करने वाले, संसार के प्रतिबोधकों में अप्रतिम, अभिनिष्क्रमण करके (दीक्षा लेकर) कैवल्य प्राप्त करने वाले, परिनिर्वाण के सूख की अनुभूति एवं बोध कराने वाले, तत्त्वातत्त्व विचार का ज्ञान देने वाले, सुमेरु शिखर स्थित (पांडुक शिला पर) देवेन्द्रों द्वारा वंदित सिंहासन पर जन्माभिषिक्त, दर्शनादि (नव केवल) लब्धियों से सुशोभित, सुखकर कैवल्यज्ञान रूपी अमत का पान करने वाले हैं। ,
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सन्मतिजिन सरसिजधवन । मनिताखिल कर्मकमधनं । पद्मसरोवरमध्यगतेन्द्र। पावापुरि महावीर जिनेन्द्र॥ वीर भवोदधिपारोत्तारं । मुक्ति-श्री-वधु-नगर-विहारं ॥ विदिशकं तीर्थ पवित्रं । जन्माभिषकृत निर्मलगात्रं ॥ वर्धमान नामाख्य विशालं। मानप्रमाण लक्षण दशतालं ॥ शत्रुविमन्थन विकटभटविरं । इष्टैश्वर्यधुरीकृतदूरं ॥ कुंडलपुरि सिद्धार्थ भूपालं । तत्पत्नी प्रियकारिणी बालं ॥ तत्कुलनलिन विकाशितहंसं। घातपुरोघातिक विध्वंसं ॥ ज्ञानदिवाकर लोकालोकं । निजित काराति विशोकं ।। बालवयस्संयम सुपालितं । मोहमहानल मथन विनीतं ॥
-श्राशाधरः श्रीमते केवलज्ञान साम्राज्यफ्यशालिने । नमो वीराय भव्योघे धर्मतीर्थप्रवतिने ॥
-सकलकोत्तिः यदीया वाग्गंगा विविधनय-कल्लोल-विमला, बहज्ज्ञानाम्भोभिर्जगति जनतां या स्नपयति । इदानीमप्येषा बुध-जन-मरालैः परिचिता, महावीर स्वामी नयन-पथ-गामी भवतु मे ॥
-भागेन्दुः
कमल जैसी मुख श्री वाले जिननाथ सन्मति ने समस्त कर्मों को पूर्णतया मथडाला । पावापुरी में पद्म सरोवर के मध्य उन महावीर जिनेन्द्र ने निर्वाण लाभ किया। वह वीर प्रभु संसाररूपी सागर से पार उतारने वाले और मुक्ति रूपी लक्ष्मीवधु में सदा विलास करने वाले हैं। जन्माभिषेक से हुए निर्मल देह वाले वह भगवान चौबीसवें पवित्र तीर्थ के कर्ता हैं। उनका विशाल आशय वाला वर्धमान नाम है और उनके शरीर का मान दश ताल है। कर्म शत्रुओं के उन्मूलन में वह अद्रत सुभट वीर हैं,
और सांसारिक वैभव की धुरी को ही उन्होंने अपने से दूर कर दिया है। कुण्डलपुर के महाराज सिद्धार्थ की धर्मपत्नी प्रियकारिणी के वह लाडले पुत्र हैं। उनके कुलरूपी कमल को विकसित करने के लिए सूर्य के समान हैं तथा समस्त घात-प्रतिघात के विसध्वंक हैं। अपने ज्ञान सूर्य से लोकालोक को प्रकाशित करके तथा कर्म शत्रओं को पराजित करके वह विशोक हुए हैं। बालवय से ही संयम का सम्यक पालन करके तथा मोहरूपी महाअग्नि का शमन करके उक्त मोह को उन्होंने विनीत बना दिया है। श्री सम्पन्न केवलज्ञान रूपी साम्राज्य के स्वामी उन वीर प्रभु को नमस्कार हो, जिन्होंने भव्य जनों के हितार्थ धर्मतीर्थ का प्रवर्तन किया था। जिन वाणीरूपी गंगा में अनेकविध निर्मल नय कल्लोल करती हैं, जिसके बृहद् ज्ञानरूपी जल में जगत की जनता स्नान करती है, तथा जिससे बुध जन रूपी हंस सुपरिचित् हैं, वह महावीर स्वामी मेरे नयन पथगामी हों।
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२० ]
-:
वीर ! त्वमानन्दभुवाम वीरः मीरो गुणानां जगतामारः। एकोऽपि सम्पातितमामनेक-लोकाननेकान्तमतेननेक ॥
यज्ज्ञानमस्त सकलप्रतिबन्धभावाद्, व्याप्नोति विश्वगपि विश्वभवांश्च भावान् । भद्र तनोतु भगवान जगते जिनोऽसावस्थ न स्मयरयाभिनयादिदोषाः ॥
-ज्ञानसागरः स्यादिति वादः सुवचनममृतं ते जिन संसृति गदमपहर्तृ । मारजयी त्वं हरमदहरणो नाव सुवंश तिलक इह लोके ॥
ज्ञानवती श्रीः झटिति भवतुमे भक्तिवशात् तवमुनिगणवंद्या। स्वात्मजसिद्धिवसुख-जनिका सन्मतिदेव ! सकल विमला स्यात् ॥
वर्धमानो महावीरो श्रीमान् सिद्धार्थनंदनः । त्वत्संस्तुतेः स्मृतेश्चापि विघ्नौघः प्रलयं व्रजेत् ॥
-ज्ञानमती माताजी असितगिरि समं स्यात्कज्ज्लं सिन्धुपात्रे,
सुरतरुवरशाखालेखनी पत्रमूर्वी । लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालं, तदपि तवगुणानां वीर ! पारं न याति ॥
-अज्ञात
हे वीर भगवन् ! आप आनन्द की भूमि होकर अवीर हो, और गुणों के मीर होकर भी जगत के अमीर हो। आपने एक होकर भी अपने अनेकान्त दर्शन द्वारा अनेकों को एकता के सूत्र में बांध दिया। जिनका ज्ञान समस्त प्रतिबन्धक कारणों का अभाव हो जाने के फलस्वरूप अखिल विश्व के समस्त पदार्थों को व्याप्त कर रहा है-साक्षात् जान रहा है, तथा जिनमें मद, मत्सर, आवेग, राग, द्वेषादि दोष नहीं रहे, वह महावीर भगवान सम्पूर्ण जगत का कल्याण करें।
★★★★
परम्परोपजीबाबाम
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भाषा स्तुतियाँ
महावीर छन्द प्रणमीय बीर विबुहजण रंजण, मदमइ मान महाभय भंजण । गुण गण वर्णन करीय बखाणु, यति जण योगीय जीवन जाणु ॥ नेह गेह शुद्ध देश विदेहह, कुंडलपुर वर पुहवि सुदेहह । सिद्धि वृद्धि वर्धक सिद्धारथ, नर वर पूजित नरपति सारथ ॥
सिद्धारथ सुत सिद्धि-वृद्धि वांछित वर दायक, प्रियकारिणी वर पुत्र सप्तहस्तोन्नत कायकं । द्वासप्तति वर वर्ष आयु सिंहांक सुमंडित, चामीकर वर वर्ण शरण गौतम यति पंडित । गर्भ दोष दूषण रहित शुद्ध गर्भ कल्याण करण, 'शुभचन्द्र सूरि' सेवित सदा पुहवि पाप पंकह हरण ।
-शुभचन्द्र भट्टारक
वीरजिन स्तुति दिढ़ कर्माचल दलन पवि, मवि सरोज रवि राय । कंचन छवि कर जोर कवि, नमत वीर जिन पाय ॥ रहौ दूर अंतर की महिमा, बाहिज गुनवरनन बल का पै। एक हजार आठ लच्छन तन, तेज कोटि रवि किरनि उथापै ॥ सुरपति सहस आंख अंजुलिसौ, रूपामृत पीवत नहिं धापै । तुम बिन कौन समर्थ वीर जिन, जगसौ काढ़ि मोख मैं थापै ॥
-भूधरदास
पद
अब मोह तार लेहु महावीर ।। सिद्धारथ-नन्दन जगवन्दन, पाप निकन्दन धीर ॥१॥ ज्ञानी ध्यानी दानी जानी, वानी गहन गंभीर । मोक्ष के कारण दोष निवारण, रोष विदारण वीर ॥२॥ समता सूरत आनन्द पूरत, चूरत आपद पीर ।
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बालयती दृढ़ व्रती समकिति, दुख दावानल नीर ॥३॥ गुण अनन्त भगवन्त अन्त नहीं, शशि कपूर हिम हीर । 'द्यानत' एकहु गुण हम पावें, दूर करै भव भीर ॥४॥
-द्यानतराय
प्रार्थना वीर जिन चरन पूजत, वीर जिन आश्रय रहैं। वीर नेह विचार शिवसुख, वीर धीरज को गहैं। वीर इन्द्रिय अघ घनेरे, वीर विजयी हौं सही। वीर प्रभु मुझ बसहु चित्तनित, वीर कर्म नशावही ॥
-नवलशाह वीर जयमाला
जय सार्थक नाम सुवीर नमों, जयधर्म धुरंधर वीर नमों। जय ध्यान महान तुरी चढ़के, शिव खेत लियो अति ही बढ़िके ॥ जय देव महा कृतकृत्य नमों, जय जीवउधारन व्रत्य नमों। जय अस्त्र बिना सब लोक जई, ममता तुमते प्रभु दूर गई ॥
-मनरंगलाल
जयमाल
गनधर असनिधर चक्रधर, हलधर गदाधर वरवदा । अरु चापधर विद्यासुधर, तिरसूलधर सेवहिं सदा ॥ दुःख हरन आनन्द भरन तारन तरन चरन रसाल हैं। सुकुमाल गुन-मनि-माल उन्नत भाल की जयमाल है॥ जय केवल भानु कला सदनं, भवि कोक विकाशन कंज वनं । जग जीत महा रिपु मोह हरं, रज-ज्ञान दृगांबर चूर करं ॥ प्रभु मो हिय आप सदा बसिये, जबलौं बसु कर्म नहीं नसिये। तबलौं तुम ध्यान हिये बरतो, तबलौं श्रुत चिंतन चित्तरतो॥ तबलौं व्रत चारित चाहत हौं, तबलौं शुभ भाव सुगाहत हौं । तबलौं सत्संगति नित्त रहो, तबलौं मम संजम चित्त गहो॥ - जबलौं नहिं नाश करौं अरिको, शिव नारि व समता धरिको। यह द्यो तबलौं हमको जिनजी, हम जाचतु हैं इतनी सुनजी ॥
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[ २३
श्री सन्मति के जुगल पद, जो पूर्जे धर प्रीत । 'वं दावन' सों चतुर नर, लहैं मुक्ति नवनीत ॥
-वृन्दावनदास
पद
जय श्री वीर जिनेद्रचन्द्र, शत-इन्द्र वंद्य जगतारं ॥ टेक ॥ सिद्धारथ-कुल-कमल अमल-रवि, भव-भूधर पविभारं ॥ गुनमनि कोष अदोष मोषपति, विपिन कषाय तुषारं ॥१॥ मदन-कदन शिव-सदन पद नमित, नित अनमित यतिसारं ॥ रमा-अनन्त-कन्त अन्तक कृत-अंत, जन्तु हितकार ॥२॥ फन्द चन्दना-कन्दन, दादुर-दुरित तुरित निर्वारं ॥ रुद्र रचित अति रुद्र उपद्रव, पवन अद्रिपति सारं ॥३॥ अन्तातीत अचिन्त्य सुगुन तुम, कहत लहत को पारं ॥ हे जग मौल "दौल" तेरे क्रम, नमै सीस कर धारं ॥४॥
-दौलतराम
पद
दरशन के देखत भूख टरी ॥ टेक ॥ समोसरन महावीर विराज, तीन छत्र शिर उपर छाजै । भामंडल से रवि शशि लाजै, चंवर ढरत जैसे मेघझरी ॥दरशन०॥१॥ सुरनर मुनि जन बैठे सारे, द्वादश सभा सुगणधर ग्यारे । सुनत धरम भये हरष अपारे, बानी प्रभुजी थारी प्रीतिभरी ॥दरशन०॥२॥ मुनिवर धरम और गृह वासी, दोनों रीति जिनेश प्रकाशी। सुनत कटी ममता की फाँसी, तृष्णाडायन आप मरी ॥दरशन०॥३॥ तुम दाता तुम ब्रह्म महेशा, तुमही धनंतर वैद्य जिनेशा । काटो 'नयनानन्द' कलेशा. तुम ईश्वर तुम राम हरी ॥दरशन०॥४॥
-नयनानंद
पद (राग होरी) ___जो सुख चाहो निराकुल, क्यों न भजो. जिनवीर ॥ टेक ॥ • आयु घटै छिन ही छिन तेरी. ज्यों अंजुलि को नीर ॥१॥ जो० ॥ E मात तातसुत नारि सुजन कोई, भीर परे नहीं सीर।
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अपना लखि पोखे सो तेरो, विनसि जायगो सरीर ॥२॥ जो० ॥ वे प्रभु दीनदयाल जगतगुरु, जानत हैं पर पीर । भाव सहित ध्यावें भवि 'मानिक', पावें भवदधि तीर ॥३॥ जो० ॥
-मानिकचन्द महावीर वन्दना बन्दू मैं जिन वीर धीर महावीर सुसन्मति । वर्धमान अतिवीर बंदिहों मन-वच-तन कृत ॥ त्रिशला तनुज महेश धीश विद्यापति बन्दूं । बंन्दू नित प्रति कनक रूप तनु पाप निकंदूं ॥१॥ सिद्धारथनृपनंद द्वद दुख दोष मिटावन । दुरित दवानल ज्वलित ज्वाल जगजीव उधारन । कुण्डलपुर करि जन्म जगविजय आनन्द कारन । वर्ष बहत्तरि आयु पाय सबही दुख टारन ॥२॥ सप्त-हस्त-तनु तुंग भंगकृत जन्म-मरण भय । बाल ब्रह्ममय ज्ञेय हेय आदेय ज्ञान-मय ॥ दे उपदेश उधारि तारि भव सिंधु जीव घन । आप बसे शिव माहिं ताहि बन्दों मन-बच-तन ॥३॥ जाके बंदन थकी दोष दुख दूरिहिं जावै । जाके बंदन थकी मुक्तितिय सन्मुख आवै ॥ जाके वंदन थकी वंद्य होवै सुरगन के। ऐसे बीर जिनेश बंदिहूँ क्रम युग तिनके ॥४॥
-महाचंद
पद
महावीर स्वामी! अबको तो अर्जी सुन लीजिये। अतिवीर, वीर तुम, सान्मति दीजिये ॥ टेक ॥ त्रिजग ईस जे सन्मुख आये, ते सब एक छिनक में ढाये । ऐसो वीर काम भट ताको, तुम सन्मुख बल छीजिये ॥महावीर०॥१॥ परिग्रह छाँडि बसे बन माहीं, निज रुच, बाहर की सुधि नाहीं।।
सिद्ध कियो आतमबल तपत, चारकरम रिपु खीजिये ॥महावीर०॥२॥ ___ जब तुम केवल ज्ञान उपायो, देश देश उपदेश सुनायो।
कियो कल्याण सबही जीवन को, हमहूँ · सुख दीजिये ॥महावीर०॥३॥
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पावापुरतें मोक्ष सिधारे, कार्तिक वदि मावस सुखकारे ।
अष्ट कर्म रिपु वंश उजारे, काल अनंत ते जीजिए || महावीर० ॥४॥ वह दिन आज भयो सुखकारी, आनंद भयो सकल नरनारी ।
लाडू से करि पूजा थारी, 'चम्पा' निज रस पीजिए || महावीर० ॥ ५॥
- चम्पादेवी
स्तुति
सिद्धारथ ताता जग विख्याता, त्रिसला देवी माय ।
तिहाँ जग गुरु जनम्या, सब दुख विनस्या, महावीर जिनराय ॥ प्रभु केइ दीक्षा, परहित शिक्षा, देइ संबत्सरी दान ।
बहु कर्म खपेवा, शिव सुख लेवा, कीधा तप शुभ ध्यान ॥१॥ वर केवल पामी, अन्तरयामी, वदि कार्तिक शुभ दीस ।
अमावस जाते, पिछली राते, मुक्ति गया जगदीश ॥ वलि गौतम गणधर, मोटा मुनिवर, पाम्या पंचम ज्ञान ।
भया तत्त्व प्रकाशी, शील विलासी, पहुता मुक्ति निदान ॥ २ ॥ सुरपति संचारिया, रतन उघरिया, रात थई तिहाँ काली ।
जन दीवा कीधा, कारज सीधा, थइ निशा उजवाली || सहु लोके हरखी, नजरे निरखी, कियो परब दीवाली ।
बलि भोजन भगते, निज निज शकते, जीमे सेव सुहाली ॥३॥ सिद्धाका देवी, विघन हरेवी, वांछित दे निरधारी ।
करे संघमा शाता, जिम जगमाता, एहवी शक्ति अपारी ॥ जिन गुण इम गावें, शिव सुख पावे, सुन ज्यों भविजन प्राणी । 'जिनचन्द्र यतीश्वर', महामुनीश्वर, जपे एहवी वाणी ॥४॥
-- जिनचंद यति
प्रभाती
सन्मति प्रभु दरश करत, हरष उर न माई ॥ टेक ॥ पावापुर शुभ स्थान, आये सुरगण महान । पूजे बहु हर्षमान, परम प्रीति लाई ॥ टेक ॥। अष्ट द्रव्य ले उदार, कंचन मय पूर्ण थार । मुख से जयजय उचार, चरनन चित्त लाई ॥ टेक ॥ आयो प्रभु तुम द्वार करता तुमसे पुकार । करो भव सिन्धु पार, तुम्हीं हो सहाई ॥ टेक ॥
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२६
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जन्म सफल भयो आज, पूरे सब समानकाज। पायो सब सुख समाज, जै-जै जिन राई ॥टेक॥ इन्द्रादिक सुगुन गाय, चरणों में शीस नाय । कार्तिक बदि मावसको, “कुमुद" मुक्तिपाई ॥टेक॥
-कुमुद
भजन सब मिलके आज जय कहो श्री वीर प्रभु की।
____ मस्तक झुका के जय कहो श्री वीर प्रभु की ॥१॥ विघ्नों का नाश होता है, लेने से नाम के।
___ माला सदा जपते रहो श्री वीर प्रभु की ॥२॥ ज्ञानी बनो दानी बनो बलवान भी बनो।
___अकलंक सम बन जय कहो, श्री वीर प्रभु की ॥३॥ होकर स्वतन्त्र धर्म की रक्षा सदा करो।।
निर्भय बनो अरु जय कहो, श्री वीर प्रभु की ॥४॥ तुमको अगर मोक्ष की इच्छा हुई है "दास" । उस वाणी पर श्रद्धा करो, श्री वीर प्रभु की ॥५॥
-न्यामतसिंह 'दास' सद्धर्म-सन्देश मन्दाकिनी दया की जिसने यहाँ बहाई । हिंसा कठोरता की कीचड़ भी धो भगाई ॥ समता सुमित्रता का ऐसा अमृत पिलाया। द्वषादि रोग भागे मद का पता न पाया ॥ उस ही महान प्रभु के तुम हो सभी उपासक । उस वीर वीर-जिनके सद्धर्म के सुधारक ॥ अतएव तुम भी वैसे बनने का ध्यान रक्खो। आदर्श भी उसी का आँखों के आगे रक्खो॥ सन्तुष्टि शान्ति सच्ची होती है ऐसी जिससे । एहिक क्षुधा पिपासा रहती है फिर न जिससे ॥ वह है प्रसाद प्रभु का पुस्तक स्वरूप उसको। सुख चाहते सभी हैं, चखने चाहे दो जिसको ॥ कर्तव्य का समय है निश्चिन्त हो न बैठो। थोड़ी बड़ाइओं में मदमत्त हो न ऐंठो ॥
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[ २७
"सद्धर्म का सन्देशा" प्रत्येक नारी नर में। सर्वस्व भी लगाकर फैला दो विश्व भर में ॥
-नाथूराम 'प्रेमी वीर वाणी अखिल जग तारन को जल-यान । प्रकटी, वीर, तुम्हारी वाणी, जगमें सुधा समान ॥ अनेकान्तमग, स्यात्पद-लांछित, नीति-न्याय की खान । सब कुवाद का मूल नाशकर, फैलाती सत् ज्ञान ॥ नित्य अनित्य-अनेकएक इत्यादिक वादि महान । नत मस्तक हो जाते सन्मुख, छोड़ सकल अभिमान ॥ जीव-अजीवतत्त्व निर्णयकर, करती संशय-हान साम्य भाव रस चखते हैं जो,
करते इसका पान ॥ ऊँच, नीच औ लघु-सुदीर्घ का, भेद न कर भगवान । सबके हित की चिन्ता करती, सब पर दृष्टि समान ॥ अन्धी श्रद्धा का विरोध कर, हरती सब अज्ञान । युक्तिवाद का पाठ पढ़ाकर, कर देती सज्ञान ॥ ईश न जगकर्ता, फलदाता, स्वयं सृष्टि-निर्माण । निज उत्थान-पतन निज कर में, करती यों सुविधान ॥ हृदय बनाती उच्च, सिखा कर, धर्म सुदया-प्रधान । जो नित समझ आदरें इसको, 'वे युगवीर' महान ॥
-जुगलकिशोर 'युगवीर'
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भगवान महावीर के चरणों में हे ज्योतिपुंज जयवीर ! सत्य का ज्ञाता दृष्टा तू । हे महाप्राण ! भूच्छित जनमन का जीवन-सृष्टा तू ॥ हे जिन ! प्रभात तू सघन तमस् से घिरती संसृतिका । हे निर्विकार ! परिशोधक मानवता की संस्कृति का ॥
तूने अपने अन्तरतम का सोया देव जगाया। तूने नर से नारायण तक अपने को पहुंचाया ॥ सीमित नरतन में असीम की ज्ञानचेतना जागी। जन्म जन्म की धूमिल कलुषित मोह-चेतना जागी॥ तेरी वाणी जगकल्याणी, प्रखर सत्य की धारा । खण्ड खण्ड हो गई दम्भ की, अन्धाग्रह की कारा ॥ 'सत्य एक हैं' उस पर, तेरे मेरे का क्या अंकन । विश्व समन्वय कर देता है, तेरा यह उद्बोधन ॥ तू उन अन्धों की आंख, भटकते ठोकर खाते जो। तू उन अबलों की लाठी, प्रताड़ित अश्रु बहाते जो॥ मानवता के महामन्त्र का जो दाता, तू गुरुवर है। अस्तंगत जो कभी न होगा, ऐसा तू दिनकर है। जाति-पंथ-भेदों से ऊपर, तू सबका सब तेरे। देशकाल वह कौन तुझे, जो सीमाओं में घेरे ॥ तू अनन्त है, अजर अमर है तेरा जीवन दर्शन । अखिल विश्व का तव चरणों में हो निर्वाणगामी वन्दन ॥
-उपाध्याय अमर मुनि
स्तुति प्रणमों वीर जिनेन्द्र को, चरन कमल शिरनाय ।
विघन हरन मंगल करन, आनन्द मोद बढ़ाय ॥ गुण अनन्त भगवन्त नमस्ते, शुद्ध चिदातम ज्ञान नमस्ते ॥ अविनाशी अविकार नमस्ते । ज्योति अखंड स्वरूप नमस्ते ॥ निर्मल निर्मद धीर नमस्ते। पूरन ब्रह्म स्वरूप नमस्ते ॥ राग द्वष परिहार नमस्ते । काम भोग परिहार नमस्ते ॥ मेरु अचल सम धीर नमस्ते । उदधि समान गंभीर नमस्ते ॥ मोह रहित भगवन्त नमस्ते । माया मत्सर त्याग नमस्ते ॥ ज्ञान खड्ग धर धीर नमस्ते । मारग धर्म प्रकाश नमस्ते ॥
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प्रेम विवश हो अवश मैं, नाथ करूं गुण गान ॥ तुम गुण महिमा अगम है, पावन पतित सुजान ॥
-श्रीलाल पंडित
प्रार्थना सुध्यान में लवलीन हो, जब घातिया चारो हने, सर्वज्ञ बोध विरागताको, पा लिया तब आप ने। उपदेश दे हितकर अनेकों भव्य, निज सम कर लिये, रवि ज्ञान किरण प्रकाश डालो, वीर! मेरे भी हिये ॥
-मक्खनलाल न्यायाचार्य
महावीर प्रार्थना महावीर प्रभु के चरणों में, श्रद्धा के कुसुम चढ़ायें हम। उनके आदर्शों को अपना, जीवन की ज्योति जगायें हम ॥महावीर०॥ तप सयम मय शुभ साधन से, आराध्य चरण आराधन से । बन मुक्त विकारों से सहसा, अब आत्म विजय कर पायें हम ॥महावीर० १॥ दृढ़ निष्ठा नियम निभाने में, हो प्राण बलि प्रण पाने में । मजबूत मनोबल हो ऐसा, कायरता कभी न लायें हम ॥महावीर० २॥ यश लोलुपता पद लोलुपता, न सताये कभी विकार व्यथा। निष्काम स्वपर कल्याण काम, जीवन अर्पण कर पायें हम ॥महावीर० ३॥ गुरुदेव शरण में लीन रहें, निर्भीक धर्म की बाट बहें। अविचल दिल सत्य अहिंसा का, दुनियां को सुपथ दिखायें हम ॥महावीर०४॥ प्राणी प्राणी सह मंत्री सझें, ईर्ष्या मत्सर अभिमान तजें। कहनी करनी इकसार बना, 'तुलसी' तेरा पथ पायें हम ॥महावीर० ५॥
-आचार्य तुलसी गणि
जय गान
शिव पथ परिचायक जय हे सन्मति युग निर्माता ! गंगा कल-कल स्वर से गाती तव गुण गौरव गाथा । सुरनर किन्नर तव पद-युग में नितनत करते माथा ।
हम भी तव यश गाते, सादर शीश झुकाते, हे सद् Ex बुद्धि प्रदाता, दुख हारक सुखदायक जयहे ! सन्मति युग निर्माता
जय हे ! जय हे ! जय हे ! जय जय-जय जय हे ॥१॥
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३०]
मंगल
कारक
दया-प्रचारक खग-पशु-नर- उपकारी । भवि - जन तारक कर्म-विदारक सब जग तब आभारी । जब तक रवि शशि तारे, तब तक गीत तुम्हारे, विश्व रहेगा गाता,
चिर सुख शान्ति विधायक जय हे ! सन्मति युग निर्माता । जय हे ! जय हे ! जय हे ! जय जय जय जय हे ॥२॥ भ्रातृ भावना भुला परस्पर लड़ते हैं जो प्राणी । उनके उर में विश्व प्रेम फिर भरे तुम्हारी वाणी । सब में करुणा जागे, जग से हिंसा भागे, पायें सब सुखसाता । हे दुर्जय ! दुख त्रायक जय हे ! सन्मति युग निर्माता । जय हे ! जय हे ! जय हे ! जय जय जय जय हे ॥३॥
-अज्ञात
वीर स्तवन
हैं हे प्रभो ।
जय महावीर जिनेन्द्र जय, भगवन! जगत रक्षा करो । निज सेवकों के भव जनित, सन्ताप को कृपया हरो ॥ हैं तेज के रवि आप, हम अज्ञान तम में लीन हैं । हैं दयासागर आप हम, अति दीन हैं बलहीन हैं ॥१॥ दानी न होगा आप सा, हम सा न अज्ञानी कहीं । अवलम्ब केवल हैं हमारे, आप ही दूजा नहीं ॥ भव सिन्धु के भव-भ्रमर में, हम डूबते झटपट सहारा दीजिये, हम ऊबते हैं हे प्रभो ॥ २ ॥ गिरि को अंगूठे से हिलाया, आपने तो क्या किया ? यदि इन्द्र के मद को मिटाया, आपने तो क्या किया ? यदि कमल को गज ने हिलाया, तो प्रशंसा क्या हुई ? यदि सिंह ने गीदड़ भगाया, तो प्रशंसा क्या हुई ? ॥३॥ अपकारियों के साथ भी उपकार करते आप थे । मन में न प्रत्युपकार की कुछ, चाह रखते आप थे ॥ वड़वाग्नि वारिधि के हृदय को, है जराता तित्य ही । पर जलधि अपनाये उसे है, क्रोध कुछ करता नहीं ॥४॥ शुभ्र स्वावलम्बन का सुपथ, सबको दिखाया आपने । दृढ़ आत्मबल का मर्म भी, सबको सिखाया आपने ॥
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३१
समता सभी के साथ सबदिन, आप की रहती रही। इस हेतु सेवा आप की, निश्छल मही करती रही ॥५॥
-रामचरित उपाध्याय
हे पूर्ण पुरातन हे पूर्ण पुरातन, अनघ, अभय, हे दिव्य, अनामय चिर-अशेष। तुम अभिनव, अभिनव गति महान, अभिनव अभिनन्दन, नयनिवेश ॥ युग-परिवर्तक, युग गति वाहक, युग युग अजेय दुर्द्धर्ष "वीर"। भारत-भूतल कर गये स्वर्ग, नारकी विश्व का वक्ष चीर ॥ हिंसक समष्टि की दृष्टि हुई नयस्नात, मिला आलोकसघन । अभिनवोत्थान-पथ पर पहुंचा, इस जीर्ण जाति का जर्जर मन ॥ हिंसा की वेदी पर पोषित, युग राष्ट्र-धर्म अनुदार प्रबल । अभिसिञ्चित हुआ अहिंसा के, सुचि मधुरस से पावन अविरल ॥ वैशाली के अवशेष वहन, करते अबभी वे सदुपदेश । करता अब भी आख्यान सरल, निज भाल उठा हिमिगिर नगेश ॥ बहता है पुण्य-प्रसू भू पर, नैसर्गिक जीवन का प्रवाह । गुञ्जित अम्बर में, श्रुतियों में नय-मिश्रित वे स्वर अनवगाह ॥
तुम बढ़े, बढ़ चला विश्व, पुण्य-शिक्षा-दीक्षा का ले प्रश्रय । अमृत वाणी से फूट पड़ा, मृतकों के प्रति जीवन अक्षय ॥ तुमने उस हिंसा के युग में थे, दिये देश के नयन खोल । हिंसा प्रतिहिंसा के उर में भर भ्रातृभाव का स्वर अमोल ॥ तुमने परार्थ बलिदान किया, हे वीर ! स्व का, तुम हो महान । तुमने विनाश के खण्डहर पर, नव सृजन किया दे अभयदान ॥ तुमने बन्धन के जराजीर्ण बन्धन को ध्वस्त किया उदार । दासत्व मिटाया कर निनाद, सम भ्रातृभाव का महोच्चार ॥ मानवता का जय घोष, अमर-शंखध्वनि प्रचुर प्रगति अमन्द । निर्दयता का दृढ़ भाल तोड़ निर्मम पशुबलि हो गई बन्द ॥ नर्तित था जाति-अहंता के, वक्षसू पर समतासुधा राग । अनुराग बढ़ा भिन्नता भूल, बह चला पुण्य पावन पराग ॥ जुड चली भिन्न भंगुर कड़ियाँ, बनने को फिर श्रंखला एक । हो चले एकमय-महा एक, वे छिन्न-भिन्न अगठित अनेक ॥ हम जगे, जगी जगती अशेष, कर उच्च भव्य भारत ललाट । जगधन्य हुआ सीखा हमसे, प्रिय-विश्व बन्धु'-मिद्धान्तराट् ॥
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चिर अतीत के धर्म वीर, उतरो नूतन बन । पुनर्दर्शन से मुखरित हो अभिशापित जन मन ॥
-शिवसिंह चौहान 'गुञ्जन
जन-जीवन के भगवान
सत्य-अहिंसा के पथदर्शक, जय जन जीवन के भगवान । आज बंदना के स्वर लेकर, करें तुम्हारा हम आह्वान ॥ राष्ट्र-राष्ट्र हिंसक बन कर अब सर्वनाश के हेतु बने। एक तुम्हारे ही इंगितपर, विश्व शान्ति का सेतु बने ॥ धधक रहा है घर का आंगन, लपटें झपट रही विकराल । यौवन जरा भेद नहीं जाने, मृत्यु दे रही निर्भय ताल ॥ नारी का सौन्दर्य शाप बन, आज दे रहा पाप महान । कौन-किसी की लज्जारख ले. कौन अभयता का दे दान॥ तुम्ही एक थे सच्चे स्वामी, सच्चे सेवक जन जन के। आज अंधेरी काल रात्रि में, तुम्ही दीप हो मन मन के । गांधी सा अनुगामी तेरा, ईसा जैसा शिष्य पुनीत ॥ प्राण गंवा कर भी जिनने, अंतिम सांसों तक गाये गीत । तूने भेद भाव की उठती, दीवारों को गिरा दिया । ऊँच-नीच का भेद हटाकर, दानवता को हिलादिया । "करुणा-शान्ति विश्व की रक्षक", कहकर मंत्र बताया एक । जन जन को स्वातन्त्र्य दिलाकर, रखली मानवता की टेक ॥ सुलगाती हैं आज शक्तियाँ, महानाश की ज्वालाएँ। किन्तु तुम्हारी शक्ति महा प्रभु, मिटा रही भव बाधाएं ॥ आज तुम्हारी स्मृति लेकर हम, सोच रहे हैं विधि तत्काल । कैसे हिंसा की हिंसा कर, मेटें भव भव के जंजाल ॥ तुम न हुए होते तो स्वामी, मानव दानव बन जाता। तुम न हुए होते स्वामी, विश्व नर्क ही बन जाता ॥ आज तुम्हारे ही कारण तो जीवन जीवन कहलाता । आज तुम्हारा ही प्रकाश, तम भरे मार्ग है दिखलाता ॥ मानवता लौटेगी फिर से, महावीर स्वामी आओ। वसुधा को कुटुम्ब कर डालो, अपनी करुणा बरसाओ ॥
-'मुकुल'
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तुम महावीर थे
तुम महावीर थे, और अहिंसक धीर व्रती । तुम राजपुरुष थे, अनासक्त तुम बने यती । धीरे-धीरे सब कुछ छोड़ा, ममता-माया का बंधपाश । तुमने जर्जर जन-जीवन में, फैलाया करुणा का प्रकाश । हम आज स्मरण करते तेरा, जब विश्व युद्ध से है पीड़ित । यह वियतनाम, यह बियाफरा, यह मध्य एशिया, दीर्घ दाह । ऐसे विनाश के समय हमें, तुम ही दिखलाओं शान्ति राह ॥ - प्रभाकर माचवे
वीर का उपदेश
(१)
क्या तुम्हें राज यह मालूम है दुनियावालो,
किसने इन्सान को मुक्ति की दिखाई राहें ? और दुनियाँ के अँधेरे में किया किसने प्रकाश,
किससे पुरनूर हुई दहर की जुल्मतगाहें ? (२)
किसने हस्ती को दिया पहिले अहिंसा का सबक ?
किसकी शिक्षा से हुये ब्रह्म के दिल को दर्शन ? किसने समझाये हर एक जीव को जीवन सिद्धान्त ? किसने कुर्बान सचाई पै क्रिया तन मन (३) आत्मा कहती है, “भगवान महावीर थे वह ! "
धन ?
जिनकी तालीम से अज्ञान मिटा, ज्ञान हुआ ! जिनकी दृष्टि को नजर आई बकाकी मंजिल,
जिनकी शक्ति से कठिन मार्ग भी आसान हुआ ! (४)
वीर ने प्रेम-ओ-अहिंसा को बताया है सवाब,
वीर ने नफरत -ओ-हिंसा को बताया है गुनाह, वीर ने भेद हकीकत के बताये सबको,
बीर ने सबसे कहा, 'पाक करो कल्बो निगाह',
[ ३३
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३४ ]
(५)
जबहीं हो सकती है दुनियां की तरक्की 'मुज्तर' ।
देश हर एक बढ़े प्राप्त होता है अहिंसा ही से
आगे लिये सत्य का भेष ! सच्चा आनन्द,
सारे संसार को है वीर का यही उपदेश ! !
- रामकृष्ण 'मुज्तर' काकोरवी
हे युग-पुरुष
हे युग पुरुष ! वंद्य युग-युग के, जन जन के सादर प्रणाम लो ।
तुमने दिया उजाला ऐसा, मानव का पाथेय बन गया । आदर्शों को जीवित रखकर, जीवन जीना ध्येय बन गया ॥
महावीर ! तुमने जीवन को, ऐसा पावन मोड़ दे दिया । जिसने मन को अमर शान्ति का, तन को तप का कोड़ दे दिया ||
सत्य अहिंसा प्रेम दया के, ऐसे स्वर्गिक भाव जगाये | जिनको पुरुष अगर अपना ले, तो खुद पुरुषोत्तम बन जाये ॥
हर युग के शाश्वत सत्यों को, सार तुम्हारा अमर-गान है । जितना समय बीतता जाता, बढ़ता उसका और मान है ॥
जितना तम गहराता जाता, पुजता उतना ही प्रकाश है । वर्तमान में, वरण तुम्हारा, करने की बढ़ रही प्यास है ॥
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दुखिया है जग, डगमग पग हैं, आओ, आकर बांह थाम लो । हे युग-पुरुष, वंद्य युग-युग के, जन जन के सादर प्रणाम लो ॥
- विश्वदेव शर्मा
देवों के देव
हे देवों के देव ! महाव्रत ! तापस पुंज ! अनामय । कीरी- कुंजर कनकन के तुम करुना मित्र, तुम्हारी जय ॥ राज हेम सुख जगती का तज, ग्यान ज्योति को अवनी लाने । छीन किया काया तप भारी, स्वयं ज्ञान आया अपनाने ॥ रिजुपालिका नदी के तट में, पाया था शीर्षस्थ प्रकाश । अरे जितेन्द्रिय ! जैन धर्म की, करूना सी, जगती की आश ॥ घूम घूम कर उपदेशों का, कोशल दिया मगध नवजूस । आज आज भी आज जागरित, जैन धर्म - शाश्वत - पीयूष ॥ निर्मम थे बलिदान यज्ञ वे, सिखलाया सत्कर्म अछोर । तर्क प्राण ! तुम सदाचार की, जाग्रत कर दी महा हिलोर ॥ आज तुम्हारे उपदेशों की, दिविज देव! अमृतवानी । गगन मगन है आकुल-व्याकुल, आज धरा हिंसा अकुलानी ॥ तू साधक ! नव दिव्य दृष्टि से, ज्ञान ज्योति जो फैलाई । अद्यावधि नव चारु चाँदनी, जन जन उर प्रकाश लाई ॥ आज देव-उपदेशों से तव, धरा त्राण है पा सकती । दिव्य दृष्टि की उन राहों से, मानव संस्कृति बच सकती ॥ शतशत नमन ! पूज्य ! हे साधक महावीर स्वीकार करो । हिंसा व्यथित धरित्री कंपित, जगत
क्रूरता क्षार करो ॥ - रामकरन शुक्ल
वीर वन्दना
समस्त संसार-समुद्र-सेतु को, सुरेन्द्र-संपूजित-धर्म-केतु को । अनन्त आभामय वीर विक्रमी महा महावीर ! प्रणाम आप को ॥ सदैव इन्द्रादिक पूजते जिन्हें, सराहते हैं अनन्त भू में जिनकी गुणावली, विहार में
मुनि - सूरि - सिद्ध भी ।
मग्न अभीत सिंह सी ॥
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न लोभ के वश्य न काम क्रोध के, न मोह के दास न द्रोहदंभ के। विमोहते जोमद-मान विश्व का, नमामि ऐसे नर नाथ ! आप को । महा महावीर नमामि आप को, सुधीर गंभीर नमामि आप को । नमामि कर्मक्षय-हेतु आप को, सदाश्रयी, श्रीवर हे, नमामहे ॥ प्रणाम श्रीसागर ज्ञानसिन्धु को, प्रणाम भू भूषण विश्व बन्धु को। नमामि सत्यार्थ प्रकाश-भानु को, नमामि तत्त्वार्थ-विकास-सानु को ॥
-अनूप शर्मा महावीर भगवान की जय ज्ञान भरे इन्सान की जय, इन्सान में महान की जय, त्रिशला की सन्तान की जय, सुत सिद्धार्थ सुजान की जय । जन्म-मरण के रहस्य भेदी, कर्मठ कर्म विधान की जय, ब्रह्मचर्य-अस्तेय-अहिंसा-सत्य-परिग्रहपरिमाण की जय। धर्म धुरी ध्र वमान की जय, पावन पथ प्रस्थान की जय । जन जीवन जलयान की जय, संयम सिंधुसुजान की जय, सत्य-अहिंसा प्रेम प्रदाता, महावीर भगवान की जय ॥
-'निर्भय' हाथरसी
वीर की वरीयता
'वीर' की वरीयता बखानते, कल्पना उफान थम रहा नहीं। पंच व्रत से शुद्ध हो रहा दिगन्त, शान्ति स्रोत संवलित हुई मही ॥ कुण्डग्राम प्राप्त धन्य हो गया, वर्धमान की वरीयता महान् । सत्य शील शांति स्नेह संवलित, विश्व भाग्य जगमगा उठा विहान ॥ अणु-विभीषिका से त्रस्त जीव को, 'वीर' का अभय उबारता रहे। सृष्टि हम समष्टि से संवार दें, स्नेह शांति की सुधा यहाँ बहे ॥
-शोभनाथ पाठक आरती उतारी
कंटक पथ पर चले. राह निष्कंटक कर दी। पतझारों की बगिया, सुख-सुषमा से भर दी।
पुहुपों ने पाया तुमसे, मकरन्द लुटाना । जब तुमने गूंगे जग को, दे दिया तराना ॥
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कर्म कीर्ति के लिये प्राणि, कुछ कर जाता है। केवल दो क्षण को अंधियारा झर जाता है ।
शिव समान तुमने पी जग की गरल गागरी ।
पंकिल काया अनाचार की हुई अधमरी ॥ जब तक है इतिहास, धरा पर नाम तुम्हारा । पावन ही पावन, गायेगी गंगा धारा ॥
संतों की चूडामणि, युग-युग वीर तुम्हारी। पीड़ित मानवता ने, सजल आरती उतरी ॥
-रमेश रंजक'
महावीर सन्देश
जिसने जग के सब जीवों को, निर्भर जीवन का दान दिया । मिथ्या भ्रम में भटकी जनता को, जिसने अनुपम ज्ञान दिया । खुद जियो, जगत को जीने दो, सुख शांति सुधारस पीने दो । जिसने जग को यह मंत्र दिया, फिर बंधन मुक्त स्वतंत्र किया । उस परम पूज्य परमेश्वर का, सुनलो पावन उपदेश सखे । हिंसा में धर्म नहीं रहता, है यही सुखद सन्देश सखे ॥ जग में हैं जीव समान सभी, दुख से रहते भयवान सभी । सबहीं को प्यारा है जीवन, इसकी रक्षा के हेतु यतन ॥ सबहीं करते हैं बेचारे, सबको अपने बच्चे प्यारे। तुम सब पर करुणा दिखलाओ, तुम विश्व प्रेम को अपनाओ। तुमने यह मानव तन पाया, तुमने सुन्दर जीवन पाया ॥ पर तुम्हें आत्म का ज्ञान नहीं, अपने पर की पहचान नहीं । यदि निश्चल होकर संयम से, आतम का ध्यान लगाओगे ॥ तो निश्चय ही धीरे-धीरे, भगवान स्वयं बन जाओगे। करुणामय का उपदेश यही, है महावीर संदेश यही ॥
--'पुष्पेन्दु'
वन्दना
जो निन्दक के प्रतिकूल नहीं, जो पूजक के अनुकूल नहीं । जो ठुकराते हैं शूल नहीं, जो अपनाते हैं फूल नहीं ॥
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पर जिनके वन्दन भवाताप हितदाह निकन्दन चन्दन हैं । इस आनन्दित - कवि वाणी से वन्दित वे त्रिशलानन्दन हैं ॥ - धन्यकुमार 'सुधेश'
आतो जो न
आतो जो न विश्व माहिं वीर अवतार लेके । भारत की आरत को कहो कौन हरतो ॥ देतो कौन प्रान दान मूक अविचारियों को ।
मुनि मानवों में कौन भक्ति भाव भरतो ॥ कौन दर्शातो मुक्ति मारग मही पर आय ।
कौन को 'सरोज' हिरदे में लाय धरतो ॥ प्रेम को प्रकाश औ अहिंसा को विकास यहां ।
'वीर' जो न होतो तो प्रकट कौन करतो ॥ - स्वरूपचन्द्र 'सरोज'
वीर का सन्देश
विश्व के हित बह रहा हो प्रेम का अविभ्रान्त निर्झर । रोम रोम स्वतन्त्र हो बन्दी न हो जीवन हृदय स्वर ॥ एक्यता समता क्षमा सौहाद्र जागे उत्तरोत्तर । शान्ति जननी शुद्ध हार्दिकता बहे जग में निरन्तर ॥ विश्व रक्षा के लिये अन्तर सदा हो हो धराअभय घोर हिंसा भावना होकर
प्रोत्साहित । पराजित ।।
आज हिंसा रह गई बुझते प्रदीपों का उजाला ।
विश्व में होगा अहिंसा सत्य का फिर बोल बाला ॥ फिर बहायेगा निरर्थक रक्त मानव का न मानव । गुञ्जरित होगा अहिंसक 'वीर' के संदेश का रव ॥ जग जलाने के लिये कोई न फिर दीपक जलेगा । अमर - जीवन -दीप जल कर विश्व में तम हर बनेगा ॥ आज हिंसा दानवों के केन्द्र विश्व के हित 'वीर' के सन्देश
में भीषण प्रलय हों । जग में विजय हों ॥ - कल्याण कुमार 'शशि'
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धन्य हुआ
धन्य हुआ वह देश की जिसने 'महावीर' सा मानव पाया, सफल हुआ जन वही कि जिसने इनको निज आदर्श बनाया । विजयी रहा सदा वह जीवन जो उसके पथपर बढ़ पाया, करती है कल्याण सभी का उसके नित चरणों की छाया । उसका जन्म स्वयं अपने जग का निर्माण बन गया, और एक दिन 'महावीर' यह मानव से भगवान बन गया ॥ - राजेन्द्र कुमार 'कुमरेश'
तब तुम उतरे स्वर्गधाम से.
निर्मल नभ में ज्योतिर्गण जब चमक रहे थे अति अभिराम । दमक रहे थे सूर्य चन्द्र भी महक रहे थे चन्दन धाम । उषा की जब लाल किरण ने पृथ्वी तल को किया ललाम, तब तुम उतरे स्वर्गधाम से 'वीर' लोक के कमल ललाम ॥ - कमल कुमार 'गोइल्ल'
कहानी महावीर भगवान की
आओ आओ सुनो कहानी, मानवता उत्थान की । सत्य-अहिंसा के अवतारी महावीर भगवान की ॥ मानव-मानव मध्य बढ़ रही, भेद भाव की खाई थी । पशुओं में थी त्राहि-त्राहि हिंसा से थर्राई थी ॥ धर्म नाम पर द्वेष दम्भ आडम्बर की बन आई थी । स्वार्थ असत्य अनैतिकता से, मानवता मुरझाई थी || आओ ||
प्रान्त विहार पुरी वैशाली, राजा थे सिद्धार्थ सुजान । चैत्र सुदी तेरह को माता, त्रिशला से उपजे गुणखान ॥ श्रीवृद्धि सर्वत्र हुई थी, जनता ने सुख पाये थे । इससे जग में त्रिशलानन्दन, 'वर्द्धमान' कहलाये थे || आओ || मदोन्मत्त हाथी के मद को चूर 'वीर' पद प्राप्त किया । दर्शन से शंकायें मिट गई मुनिजन 'सम्मति' नाम दिया ॥ तरु लिपटे विषधर को वश कर 'महावीर' कहलाये थे । सर्वहितैषी शान्त वीर के सबने ही गुण गाये थे || आओ ० ॥
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भोग-रोग सम्पति-विपत्ति है, जब यह भाव समाया था। कामजयी ने तीस वर्ष में दीक्षा को अपनाया था ॥ सर्व परिग्रह त्याग, वर्ष बारह, बन बीच बिताये थे। मोहादिक कर नष्ट, सर्वज्ञाता 'अरेहन्त' कहाये थे ॥आओ०॥ मानव बने महामानव, अब 'तीर्थंकर' पद पाया था। मानवता उद्धार-हेतु, तब यह सन्देश सुनाया था ॥ "स्वयं जियो जीने दो सबको", इससे बढ़ कर धर्म नहीं । स्वार्थ-हेतु पर को दुख देने से बढ़कर दुष्कर्म नहीं ॥आओ०॥ तीस वर्ष उपदेश सुना अगणित जीवों को ज्ञान दिया। कार्तिक कृष्ण अमावस्या, तन त्याग, प्राप्त निर्वाण किया ॥ ढाई हजार वर्ष से जन-मन वीर-चरण आराधक हैं। महावीर सिद्धान्त पूर्णतः विश्वशान्ति के साधक हैं |आओ०॥ रायचन्द्र ने बापू को वीर-सन्देश सुनाया था। बापू ने सत्य-अहिंसा से भारत स्वतन्त्र करवाया था। उन्हीं वीर के आगे 'कौशल" सब मिल शीश झुकायें हम । आत्म शक्ति को पहिचान, सच्चे मानव बन जायें हम ॥आओ०॥
-हीरालाल 'कौशल'
धन्य हुआ कुण्डलपुर ज्योति भरे कलधौत घाम में दिनकर किरण सुहाई,
मन्द-मन्द मलयानिल मारुत मृदु सुगन्ध भर लाई । सरसिज खिले गन्ध मन भावन चारु चतुर्दिश छाई,
सजा सलोने गीत कोकिला नव उपवन में आई। नृत्य करें हरषित मयूर मन भावन पंख पसारे।
धन्य हुआ कुण्डलपुर परसत पावन चरण तिहारे ॥ साज सजे कुण्डलपुर के लख सुर नगरी शरमाई,
सुर सुगरांना सुधर रूप धर प्रभुदर्शन हित आई। त्रिसला माता के आंगन में बजने लगे बधाये,
भाव भरे सुरबाला नाचें हरष चहुँ दिश छाये । तोरण बन्दनवार बंधे नृप सिद्धारथ के द्वारे,
धन्य हुआ कुण्डलपुर परसत पावन चरण तिहारे ॥ चकित हुआ तिहुँ लोक थकित हिंसक के मन डोले.
धीरज बंधा निराशा टूटी भव दुख बन्धन खोले।।
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[ ४१
ज्ञान.सूर्य की किरण तिमिर हर अखिल विश्व ने पाई,
फैला नव-आलोक जगत में अनुपम ज्योति जगाई । सत्य अहिंसा क्षमा शान्ति के बजने लगे नगारे, धन्य हुआ कुण्डलपुर परसत पावन चरण तिहारे ॥
-घासीराम चन्द्र' वीर तुमने वीर तुमने अवतरित होकर धरा की थी अलंकृत। वातमंडल को किया था, भव्य भावों से तरंगित ॥ दश दिशा को कर दिया था, धर्म ध्वनि से परम झंकृत । और मानव मात्र को तुमने बनाया था सुसंस्कृत ॥
-प्रकाश चन्द्र ओ वर्द्धमान मानवता के ओ अलंकार ! बसुधा के चिर अक्षय विराम ! ओ वर्द्धमान ! पतितोद्धारक, ज्योतिर्मय, विभु ! शतशत प्रणाम । प्रकटे तू भूपर लेकर के दानावता का संहार सुखद, फिर से इस जगती में लाए मानवता का श्रृंगार सुखद, अकरुण, निर्दय जग में लाए करुणा का पारावार अगम, आवर्तित करने इस जग को लाए नवीन संसार सुगम, तुम महामनस्वी युग नेता, युग निर्माता अतिशय ललाम । ओ वर्द्धमान ! पतितोद्धारक, ज्योतिर्मय, विभु ! शतशत प्रणाम ॥ लो, आज परिस्थिति ठीक वही, संघर्ष, दैन्य, शोषण, छलबल, सभ्यता भव्यता मिटी सकल परिव्याप्त चहूँ दिशि है हलचल, अतएव चीखती 'वैशाली' मेरे लिच्छिवि भगवान कहां? कण-कण बसुधा का बोल रहा करुणा के अहो निधान कहां ? कितनी ही मौन पुकारें हैं अब बुला रही प्रति दिवस-याम"ओ मानवता के अलंकार, वसुधा के चिर अक्षय विराम !" 'ओ वर्द्धमान ! आओ आओ, ज्योतिर्मय विभु ! शतशत प्रणाम ॥'
गर प्रचंडिया त्रिशला नन्दन तुमने जब अवतार लिया, जब पशु हत्या ही धर्म हुआ था। ___ अपनी सर्व श्रेष्ठता मद में, जब मानव बेशर्म हुआ था।
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४२ ]
तुमने स्वगृह, स्वजन, स्ववैभव, सब कुछ त्याग जब यौवनअपने पूरे यौवन पर था, और नियंत्रण रहित देह मान ॥ जबकि देखता था संस्कृति के, अणु-अणु में नूतन आकर्षण, तुम महान मानव थे भगवान, युगों युगों तक विश्व न तुमको, भूल सकेगा त्रिशला नन्दन ॥ कर में धवल अहिंसा ध्वज ले, वीतरागता का सम्बल ले। विद्रोही सत्याग्रह धर तुम, जब ममता सीमा से निकले ॥ तब रवि शशि भी झिझक थे उठे, कवि मानव की कहे बात क्या? खेल उठा था भू प्राङ्गण में, एक निराला ही परिवर्तन ! तुम महान् मानव थे भगवान-युगों युगों तक विश्व न तुमको, भूल सकेगा त्रिशला नन्दन ॥
-'तन्मय बुखारिया भावों के फूल खिले हे वीर तुम्हारे चरणों में भावों के फूल खिले
जन जन के हृदय मिले। तुमने हर प्राणी को दी, जीवन की कोमल अभिलाषा । ममता के स्वर में समझादी, मानव जीवन की परिभाषा ।
तुम गीत बने संगीत बने, हर मन के मीत मिले, प्राणों में ज्योति जले । हे वीर तुम्हारे चरणों में,
भावों के सुमन खिले ॥ देव ! तुम्हें पा धन्य हुई थी, धरती माँ और त्रिसला रानी। विपुलाचल पर्वत से छलकी, हर मन में करुणा कल्याणी॥
तेरे पावन पग चिन्हों पर साँसों की राह मिले, प्राणों में प्यार पले । हे वीर तुम्हारे चरणों में, भावों के फूल खिले ॥
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हर दुखियारे का दुःख बाँटा, हर आँसू को मुक्ति दिलाई। जीओ और जीने दो सबको, ये सत्यपथ की राह बताई ॥ हर भाषा के कंठ कंठ में तेरा स्वर निकले।
हर मन में ज्योति जले हे वीर तुम्हारे चरणों में भावों के फूल खिले ।
श्रम के साधक, कर्म विजेता, पुरुषारथ कर्तव्य सिखाया। मिलकर चलो बाँट कर खाओ,
परिग्रह दुख का मर्म बताया ॥ कितने ही दुःख सुख आयें, समता का दीप जले।
जन जन के हृदय मिले। हे वीर तुम्हारे चरणों में भावों के फूल खिले ॥
-तारा चन्द 'प्रेमी'
आये शरण तुम्हारे सत्य अहिंसा आत्मशक्ति के सतत सबल रखवारे ।
सुखदर्शी गंगा से पावन जन जन तुम्हें पुकारे ॥ अहर्निशि झंझा से झंकृत भारत के जन सारे।
__कलुष कल्पना का पथ झूठा पाते सांझ सकारे ॥ सौम्य शान्ति के दूत दुःख के नाशक विपद् सहारे।
पथ परिचायक युग निर्माता वसुन्धरा के प्यारे ॥ निज स्वभाव साधन से तुमने परमातम पद पाया।
__सृष्टि को सदृष्टि देकर सत्यमार्ग दिखलाया ॥ तुम जैसा बन जाता जो भी पथ पर चला तुम्हारे ।
विश्व विभूषण सिद्धारथ सुत आये तुम्हारे द्वारे ॥ कठिन विपद में धर्म पड़ा है कलयुग करे ठिठोली।
लक्ष्य भ्रष्ट शासन जगती पर राख बन गई रोली॥ ज्ञान लोक विश्व के ज्ञाता, सब दुनियाँ से न्यारे। सद् दृष्टि पाने को भगवान्, आये शरण तुम्हारे॥
-चन्द्रकान्ता
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४४ ]
शतशत वन्दन
यह त्याग ज्योति का प्रख्यापक, विभु वर्द्धमान की कीर्ति-किरण । ज्योतिर्मय अन्तर-वाह्य सभी,
रे धन्य वीर ! शिवरमा-वरण । प्रभु धन्य-धन्य सन्मति स्वामी, जिनवर जिनेन्द्र विभु निष्कामी।। शाश्वत सु-शक्ति शान्ति निधि अभिरामी, शिवपथदर्शक शिव-पदगामी॥
निस्सीम देव ! सीमित वाणी, यशगान न कुछ भी बन पाता। श्रद्धालु विनत अन्तस लेकिन,
जय बोल झुका शिर सुख पाता ॥ जय जय जय जयवन्त सह त्रिशला नन्दन । जय जय जय जय जगवंद्यनीय शत शत बन्दन ॥
-बीरेन्द्र
आत्मज्ञानी महावीर
सत्ता, सम्पत्ति, सिंहासन, सौन्दर्य और सम्बन्धी जन, हिला सके नहिं 'वीर' हृदय, मानों सुमेरू था उनका मन । तब माता की ममता दौड़ी, त्रिशला ने रोका महल द्वार, आँसू की नदिया उमड़ पड़ी, और उमड़ पड़ा था पुत्र प्यार ॥
वीर चरण रुक गये वहाँ, थी माँ की ममता का प्रभाव, सिद्धार्थ जनक भी पहुंच गये, उनकी वाणी में प्रेम भाव । स्नेह सत्य से सनी हुई बोले प्रभुवर तब अमिय घोल, समझायी जग की ममतायें और मुक्तिमार्ग को दिया खोल ॥
(३) उघड़े हिय के तब नयन-पलक, माता त्रिशला थी हुई शांत, स्वीकृत बन जाने को दे फिर, लौट पड़ी मन रहित भ्रान्त । नभ में गूंजी थी मधुर तान, जल थल में मुखरित दिव्य गान, "मन वैभव है धूल पिणु, जिसको जागा है आत्म ज्ञान ॥"
-नेमीचन्द पाटोदिया
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४५
समता का सन्देश सुनाया हिंसा से जलते प्रांगण में, करुणा का अमृत बरसाया दुखी विश्व को महावीर ने, समता का संदेश सुनाया।
चैत्र मास की त्रयोदशी को कुण्डग्राम में जन्म लिया था पिता नृपति सिद्धार्थ तथा मां त्रिशला को सानंद किया था था निस्वार्थ प्रेम की प्रतिमा, सहज साधनायुक्त हिया था तपी, संयमी, सेवक, त्यागी, ज्ञान-प्रकाशी दिव्य दिया था। उसने जग को सात तत्त्व व नव पदार्थ का भेद बताया
दुखी विश्व को महावीर ने, समता का सन्देश सुनाया ॥ 'मैं ऊँचा हूँ वह नीचा हैं' यह विचार होगा दुःखदायी राग-द्वष से युक्त जीव ने बतला शांति-सुधा कब पाई ? ब्राह्माण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र कहकर करता है व्यर्थ लड़ाई त्यागो क्रोध लोभ माया को, पाटो द्वप दंभ की खाई। छोटा-बड़ा कौन है जग में, सब में सदृश आत्मा छाया दुखी विश्व को महावीर ने समता का सन्देश सुनाया ॥
'मेरी बात सही वह झूठा' इस एकान्त वाद को तोड़ो स्याद्वाद का सार यही है, हठधर्मी से मुखड़ा मोड़ो भाव-शुद्धि की करो तपस्या, और ढोंग का पल्ला छोड़ो सहनशीलता, क्षमा, त्याग से टूटे हुए हृदय को जोड़ो । शान्ति आत्मा के अन्दर है, व्यर्थ पोषता नश्वर काया दुखी विश्व को महावीर ने, समता का सन्देश सुनाया ॥
-प्रसन्नकुमार सेठी
मुक्तक जगत के जीव सब सम हैं, किसी को कम नहीं लेखो, सभी को प्राण प्यारे हैं, किसी पर गम नहीं फेको। श्री महावीर स्वामी की अहिंसा ये बताती हैइन्हें कुछ दे नहीं सकते, तो केवल प्यार से देखो।
-हजारीलाल जैन 'काका'
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भगवान महावीर के चरणों में वीर, तेरी राह को यदि विश्व सारा जान जाता, मिट गए होते कलह सब,
तूने परस्पर प्रेम का, शान्ति का वरदान पाता। सबको दिया संदेश, प्रभुवर, मनुज देवी-देवताओं के,
भेद सारे दूर करने को बवन्डर से था घिरा,
दिया वर बहुत सुन्दर । भूलकर निज शक्ति उनके,
द्वेष औ' एकान्त को विफल चरणों में गिरा।
तूने सदा मिथ्यात्व माना, छोड़कर पुरुषार्थ अपना,
ले अपेक्षावाद का, मांगता था वर उन्हीं से,
अवलम्ब सबको सत्य जाना। तूने कहा तब, “ए मनुज",
हाय ! जीवन में इसे यदि, क्यों ढूंढता बाहर कहीं है।
क्षुब्ध मनुज उतार पाता, तू स्वयं ही शुभ-अशुभ निज, वीर, तेरी राह को यदि, भाग्य- रेखा का विधाता।
विश्व सारा जान जाता। वीर, तेरी राह को यदि,
मिट गए होते कलह सब, विश्व सारा जान जाता ॥ शान्ति का वरदान पाता॥
-इन्द्रचन्द्र शास्त्री ओ विद्रोही ! ओ तीर्थकर !! तेरा वह धर्मचक्र-वर्तन !!!
लेकर अनंग मोहन यौवन, अधरों पर बकिम धनुताने । मनसिज की पुष्प-धनुष-डोरी, तुम तोड़ चले ओ मस्ताने ॥ नन्दन कानन में अप्सरियाँ वन कमल विछी तेरे पथ में। पद-रज की उनको दे पराग, तू लौट चढ़ा पावक रथ में ॥
ओ विद्रही ! ओ तीर्थकर !! तेरा वह धर्मचक्र-वर्तन !!! जिससे तू भेद गया अर्हत ! चिर जन्म-मरण के गठबन्धन !! पावापुर की वे सर लहरें गाती हैं। अब भी मुक्तिगान ! प्रकटा उषा में ज्योति पुरुष ! वह झांका तीर्थंकर महान !!
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जागे विवेक, जागे चेतन, जागे जीवन कल्याण मंत्र ।
सब राजनीति औ भेदनीति से कर मानव को फिर स्वतन्त्र ॥ इस मुक्ति रात्रि में, लो, बन्दी के अश्रुसजल शतशत प्रणाम । ओ मुक्त ! लोक के सुख-दुःख से क्या कभी ले सके तुम विराम ॥ बेबस आँसू में जन जन के, प्रभु ज्योतित कर दो आत्मज्ञान । अपना स्वामी सृष्टा बनकर, वह करे मांगलिक नव विधान ॥
-वीरेन्द्रकुमार जैन मंगल-रथ
आत्मदर्श की लिये साधना,
ग्राम-ग्राम में किया भ्रमण, जोवन दर्शन सहित, लोक
दर्शन का इच्छुक महाभ्रमण । बीजगणित थे रात और दिन,
आत्मज्ञान था समीकरण, हल करने की चाह लिए,
वन-उपवन में करता विचरण ॥ अंतविरोध जिससे विनष्ट,
वह वीतराग कुछ ऐसा था, मृग शावक का मित्र सिंह,
तप का प्रभाव कुछ ऐसा था। आजाद-श्रद्धा शक्ति भाव,
____ व्यापा वसुधा पर दूर-दूर, बर्बरता और घमंड सभी,
थे खंड-खंड व चूर-चूर ॥
-रमेश रायजादा
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जय महावीर नमो ! जय त्रिशला-नन्दन महावीर नमो !
भव-भय-भंजन वीर नमो !! सिद्धारथ राजदुलारे, तिहुँ जग के उजियारे । जन-जन के प्यारे, जय महावीर नमो।
पाप निकंदन वीर नमो !! लोकालोक प्रकाशी, भविजन कमल विकाशी। गुण अनन्त की राशी, जय महावीर नमो।
हरि-कृत-वन्दन वीर नमो !! मोक्ष-मग-नेता, करम-कलंक-विजेता। शुद्धातम-चेता, जय महावीर नमो।
रहित सपंदन वीर नमो !! करुणा-सागर पर-उपकारी, सत्य-अहिंसा अवतारी। सुधर्म-ध्वज-धारी, जय महावीर नमो।
__ भक्त-उर-चन्दन वीर नमो !! सन्मति के दाता, वर्द्धमान सुख-साता । अखिल जग-त्राता, जय महावीर नमो। ज्योति-मन-रंजन वीर नमो !!
-'ज्योति'
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महावीरः युग, जीवन और देना
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क्या कहाँ है ?
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तीर्थकर महावीर
महावीर की विशेषता ३ महावीर युग में समाज और धर्म की स्थिति ...
भगवान महावीर मानव उत्कर्ष की ऊर्जा के संवाहक महावीर ... भव-भव की साधना
यदि महावीर तीर्थकर नहीं होते ८ चिन्तन के झरोखे से ६ महावीर कितने ज्ञात, कितने अज्ञात १० अहिंसा के मूर्त स्वरूप ११ महापुरुष महावीर १२ महावीर की निष्पक्षता का एक प्रसंग १३ ज्ञातपुत्र की अज्ञात साधना १४ महावीर और मूक जगत १५ भगवान महावीर-जीवन और दर्शन १६ भगवान महावीर का दुःख बोध १७ श्रमण भगवान महावीर १८ समता धर्म के प्ररूपक-महावीर १६ समत्वस्रष्टा भगवान महावीर २० महावीर जीवन दर्शनः एक मूल्यांकन २१ समग्र क्रान्ति के दृष्टा २२ महावीर के जीवन-दर्शन का आधार f २३ दुःख और सुख के कारण २४ भगवान महावीर के जीवन पर एक दृष्टि २५ महावीर की भाषा क्रान्ति २६ महावीर-निर्वाण-काल २७ महावीर ने कहा
उपाध्याय मुनि विद्यानन्द सन्त विनोबा भावे डा० ज्योति प्रसाद जैन डा. वासुदेव शरण अग्रवाल श्री लक्ष्मी चन्द्र जैन डा० कामता प्रसाद जैन आचार्य तुलसी उपाध्याय अमर मुनि श्री जमनालाल जैन श्री राम नारायण उपाध्याय डा० सर्वपल्ली राधाकृष्णन श्री अगरचन्द्र नाहटा, बीकानेर श्री धनराज शामसुखा आचार्य रजनीश मुनि श्री राकेश कुमार डा० हरेन्द्र प्रसाद वर्मा पं० बेचर दास दोशी प्रो० दलसुख मालवणिया साध्वी अणिमा श्री डा० धर्म चन्द्र श्री शरद कुमार 'साधक' डा० प्रद्युम्न कुमार जैन
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पं० हीरालाल सिद्धान्ताचार्य ब्यावर डा० नेमिचन्द्र जैन डा० ज्योति प्रसाद जैन मुनि महेन्द्र कुमार 'प्रथम'
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बागपणा
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योगीश्वर वर्द्धमान महावीर
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तीर्थंकर महावीर
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जब ग्रीष्म का सूर्य अपनी प्रखर किरणों से जगत् को संतप्त कर डालता है, पक्षियों का उन्मुक्त गगन विहार बन्द हो जाता है, स्वछन्द विहारी हिरणों की खुले मैदान की आमोदमयी क्रीड़ा रुक जाती है, असंख्य प्राणधारियों की तृषा बुझाने वाले सरोवर सूल जाते हैं, उनकी सरस मिट्टी भी नीरस हो जाती है, जनता का आवागमन अवरुद्ध हो जाता है, प्राणदायक वायु भी तप्त लू बनकर प्राणहारक बन जाती है, समस्त धलचर, नभचर प्राणी असह्य ताप से त्राहि-त्राहि करने लगते हैं।
- उपाध्याय मुनि श्री विद्यानन्द
तब जगत की उस व्याकुलता को देखकर प्रकृति करवट लेती है, आकाश में सजल काले बादल छा जाते हैं, संसार का संताप मिटाने के लिए उनमें से शीतल जल बिन्दु टपकने लगते हैं, वाष्प (भाप) के रूप में पृथ्वी से लिए हुए जल ऋण को आकाश सूद समेत चुकाने के लिए जलधारा की झड़ी बाँध देता है । जिससे पृथ्वी न केवल अपनी प्यास बुझाती है, अपितु असंख्य व्यक्तियों की प्यास बुझाने के लिए अपना भंडार भी भर लेती है, जनता के आमोद-प्रमोद के लिए हरी घास की चादर बिछा देती है, समस्त जगत का संताप दूर हो जाता है और सभी मनुष्य, पशु-पक्षी आनन्द की ध्वनि करने लगते हैं।
इसी तरह स्वार्थ की आड़ में जब दुराचार अत्याचार संसार में फैल जाता है; दीन, हीन, निःशक्त प्राणी निर्दयता की चक्की में पिसने लगते हैं, रक्षक जन हो उनके भक्षक बन जाते हैं, स्वार्थी दयाहीन मानव धर्म की धारा अधर्म की ओर मोड़ देता है, दीन असहाय प्राणियों की करुण पुकार जब कोई नहीं सुनता, तब प्रकृति का करुण स्रोत बहने लगता है । वह ऐसा पराक्रमी साहसी वीर ला खड़ा करती है, जो अत्याचारियों के अत्याचार को मिटा देता है, दीन-दुःखी प्राणियों का संकट दूर करता है और जनता को सत्पय दिखाता है।
आज से २६०० वर्ष पहिले भारत की वसुन्धरा भी पाप भार से कांप उठी थी। जनता जिन लोगों को अपना धर्म-गुरु पुरोहित मानती थी, धर्म का औतार समझती थी, उन ही का मुख रक्त-मांस का लोलुप बन गया था, अत: वे अपनी लोलुपता शान्त करने के लिए स्वर्ग, राज्य, पुत्र, धन आदि का प्रलोभन देकर भोली अबोध जनता से हवन कराते थे उनमें बकरों आदि अनेक मूक, निरीह और निरपराध पशुओं, यहां तक कि कभी-कभी धर्म के नाम पर कत्ल करके उनके मांस का हवन करते थे। ज्ञानहीन जनता उन स्वार्थी, माने हुए धर्म गुरुओं के वचनों को परमात्मा की वोणी समझकर दयाहीन पाप को धर्म समझ बैठी थी इस तरह दीन, निर्बल, असहाय पशुओं की करुणा-जनक आवाज सुनने वाला कोई न था ।
इस प्रकार मांस-लोलुप धर्मान्धों का स्वार्थ ओर जनता का अज्ञान उस पाप कृत्य का संचालन कर रहा था । उस समय आवश्यकता थी जन साधारण को ज्ञान का प्रकाश देने की और पथ भ्रष्ट धर्मान्धों का हृदय बदलने की, जिससे भारत का पाप भार हल्का होता और पाप की दुर्गन्ध देश से दूर होती ।
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ख-३
और जब तीर्थंकर महावीर का मर्मस्पर्शी उपदेश जनता ने सुना तो धर्म का सुन्दर सत्य स्वरूप उसे ज्ञात हुआ। उस धर्म प्रचार से अहिंसा का प्रभावशाली प्रसार हुआ, पशुयज्ञ होने सर्वत्र बन्द हो गये। हिंसा कृत्य और मांस-भक्षण से भी जनता घृणा करने लगी। हिंसक लोग तीर्थंकर महावीर का उपदेश सुनकर स्वयं अहिंसक बन गये।
श्री महावीर तीर्थकर ने इच्छारहित होकर भो भव्यजनों के प्रति सहज दया से प्रेरित होकर अथवा उनके प्रबल पुण्ययोग से काशी, कश्मीर, कुरु, मगध, कोसल, कामरूप, कच्छ, कलिंग, कुरुजांगल, किष्किंधा, मल्लदेश, पांचाल, केरल, मद्र, चेदि, दशार्ण, वंग, अंग, आंध्र, उशीनर, मलय, विदर्भ, गौड़ आदि देशों में धर्मप्रभावना की, देशनार्थ प्रवचन किया। एतावता अनेक प्रान्तों तथा देशों में तीर्थंकर महावीर का मंगल विहार हुआ और महान धर्म-प्रचार हुआ। उनकी भाषा दिव्य ध्वनिरूपिणी थी, जिसे सभी उपस्थित श्रोता समझते थे। जहाँ-जहाँ तीर्थंकर भगवान विहार करते थे वहाँ-वहाँ धर्मपीयूषपाथियों को उपदेश प्रदान करते थे।
तीर्थंकर महावीर का जहाँ भी मंगलमय विहार हुआ, वहाँ के शासक, मंत्री, सेनापति, पुरोहित, विद्वान, तथा अन्य साधारणजन उनके अनुयायी भक्त बनते गये। जिस तरह सूर्य के उदय से अन्धकार हटता जाता है उसी तरह तीर्थंकर महावीर के उपदेश से अज्ञान, भ्रम, अधर्म, अन्याय, अत्याचार, हिंसा-कृत्य आदि पापाचार साधारण जन क्षेत्र से दूर होता गया और निरपराध मूक पशु जगत् को संरक्षण मिला।
* महावीर की विशेषता *
महावीर स्वामी ने तोड़ने का काम नहीं किया, हमेशा जोड़ने का काम किया। उनके साथ बातचीत के लिए कोई उपनिषद का अभिमानी आता तो उसके साथ वे उपनिषद के आधार पर चर्चा करते थे, गीता का अभिमानी आता तो गीता का आधार लेकर चर्चा करते, कोई वेद का अभिमानी आता तो वेद का आधार लेकर चर्चा करते, बौद्धों के साथ उनके ग्रन्थ का आधार लेकर चर्चा करते। उन्होंने अपना विचार किसी पर जरा भी लादा नहीं और सामने वाले के विचार के अनुसार-सोचकर समाधान देते थे ।
-संत विनोबा भावे
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महावीर-युग में समाज और धर्म की स्थिति
-डा. ज्योति प्रसाद जैन
वर्धमान महावीर श्रमण परम्परा के चौबीस तीर्थंकरों में अन्तिम थे। ईसा पूर्व ५९९ में उनका जन्म हुआ था, और बहत्तर वर्ष की आयु में, ईसा पूर्व ५२७ में उनका निर्वाण हुआ था। ईसा मसीह के जन्म से पूर्व की वह छठी शताब्दी ऐसी युगान्तरकारी शती थी जो मानव जाति के इतिहास में अत्यन्त महत्वपूर्ण सिद्ध हुई। उस काल में प्रायः सम्पूर्ण सभ्य संसार का वातावरण एक अभूतपूर्व ज्ञान जागृति, दार्शनिक चिन्तन एवं भावुक उत्साह से विद्युताक्रान्त था, प्रायः सर्वत्र एक अद्भुत आध्यात्मिक व्यग्रता और बौद्धिक क्षोभ दृष्टिगोचर हुआ। एक नवीन युग का आविर्भाव हो रहा था।
पश्चिमी सभ्य जगत के केन्द्र यूनान में आयोनियन दार्शनिक विश्व संरचना के आद्य उपादान तत्व के विषय में वाद-प्रतिवाद कर रहे थे, तो वहीं पाइथेगोरस महान अपने 'सामंजस्य सिद्धान्त' का प्रतिपादन कर रहे थे
और पुनर्जन्म एवं शाकाहार का प्रचार कर रहे थे। परमेडीज और एम्पिडोक्लीज जैसे युनानी दार्शनिक भी प्रायः तभी हए। उसी युग में महादेश चीन में लाउत्सु और कनफशस नाम के दो महापुरुष उत्पन्न हुए-लाउत्सु ने अपने 'प्रकृति शास्त्र' को रचना की, जो ताओ धर्म एवं विचारधारा का सर्वमहान आप्त ग्रन्थ माना जाता है, और नीतिज्ञ शिरोमणि कनफशस ने अपने सुप्रसिद्ध 'स्वर्ण सिद्धान्त' का प्रतिपादन किया। ईरान (फारस देश) में जरथरत महान ने 'प्रकाश' एवं 'अन्धकार' की शक्तियों के मध्य चलने वाले द्वन्द्व को अपने सिद्धान्त का आधार बनाया, तो मेसोपोटामिया में पैगम्बर मूसा अपने अनुसर्ताओं को परमपिता जेहोवा तक पहुँचने का मार्ग दिखा रहे
थे। स्वयं पुण्यभूपि भारतवर्ष में, उस काल में, एक नहीं, दर्जनों श्रेष्ठ चिन्तकों, धर्मसुधारकों, एवं दर्शन संस्थापकों · का उदय हआ था। इन चिन्तकों एवं दृष्टाओं ने अपने पूर्वजों से प्राप्त ज्ञान की विरासत को आगे बढ़ाया और
अपनी ओर से उसे नई भंगिमाएँ प्रदान की।
वस्तुतः भारतीय समाज के लिए तो वह अनेक दृष्टियों से एक महान क्रान्ति-युग था, और राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक एवं धार्मिक क्षेत्रों में जिन परिवर्तनों की नींव उस समय पड़ी, उनका चिरव्यापी एवं दूरव्यापी प्रभाव हुआ।
सुप्रसिद्ध महाभारत युद्ध और तदनन्तर भी चलती रही आत्मघाती गृहकलहों ने वैदिक क्षत्रियों की सार्वसत्ता को प्रायः धराशायी कर दिया था। उनका स्थान अब प्रागार्य राज्यवंशो की बची-खुची सन्तानों ने, अथवा अज्ञात कुलशील साहसिक व्यक्तियों ने लेना प्रारम्भ कर दिया था। कट्टर वैदिक धर्मी उन्हें धर्मबाह्य एवं
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४ ]
जातिबाह्य मानते थे और उनके लिए क्षात्रबन्धु व्रात्य क्षत्रिय प्रभूति होनता द्योतक शब्दों का प्रयोग करते थे, जिसका कारण संभवतया यह था कि इन नवोदित क्षात्रधर्मियों का बहुभाग ब्राह्मण वैदिक धर्म का अनुयायी नहीं था, वरन् श्रमणों का उपासक था । मगध देश के राजे और पूर्वी उत्तर प्रदेश एवं विहार की गणतन्त्रीय जातियाँ इसी वर्ग की थीं ।
प्राचीन जैन एवं बौद्ध साहित्य में उस काल में विद्यमान सोलह महाजनपदों का उल्लेख प्राप्त होता है । ही प्रमुख सत्ताएँ थीं। किन्तु इनमें भी जनतन्त्रीय जातियों का शक्तिशाली वज्जिगणसंघ, जिसका प्रमुख केन्द्र महानगरी वैशाली थी, और मगध ( राजधानी राजगृह, अपरनाम पंचशैलपुर, कुशाग्रपुर, क्षितिप्रतिष्ठ, मगधपुर, ऋषभपुर, आदि), कोसल ( राजधानी श्रावस्ती), वत्स ( राजधानी कौशाम्बी) तथा अवन्ति (राजधानी उज्जयिनी) के राजतन्त्र सर्वोपरि थे । मगध ने तो उसी युग में अपने बिम्बिसार श्रेणिक और अजातशत्रु कुणिक जैसे महत्वाकांक्षी एवं आक्रमण नीति विशिष्ट नरेशों के शासन में प्रभूत उत्कर्ष प्राप्त कर लिया था - भावी मगध साम्राज्य की नींव पड़ चुकी थी और उसकी महानगरी राजगृह को तो विश्व के धार्मिक दृष्टि से एक सर्वाधिक सम्पन्न समय को प्रसव करने और उसका केन्द्र होने का श्रेय प्राप्त हुआ ।
राजनीति के क्षेत्र में, पुराना जातीय मुखिया ( या कबीले का सरदार) अब वास्तविक राजा का रूप ले चुका था, जो प्रायः एकच्छत्र और बहुधा निरंकुश शासक होता था तथा अपनी प्रजा के जन सामान्य की वैयक्तिक सम्पत्ति भी चाहे जब हस्तगत कर सकता था। छोटे-बड़े भूमिपतियों और सामन्त सरदारों की संस्था द्रुत वेग से उभर रही थी । वे लोग राज्य और खेतिहर कृषक के मध्य बिचौलिए थे, राजतन्त्र की शक्ति को बल प्रदान करने में उनका बड़ा योग था । एकच्छत्र राज्यतन्त्रों में अभी भी कतिपय जनतन्त्रीय तत्व कार्यान्वित थे, यथा राजा के चुनाव में जनता की राय भी ली जाती थी, सिंहासनासीन होते समय नया राजा अपनी प्रजा को कुछ आश्वासन एवं वचन देता था, अपने मन्त्रियों के परामर्श से शासन कार्य चलाता था और सभा एवं समिति नामक सम्मेलनों में जनता की सम्मति भी विशेष परिस्थितियों में प्राप्त करता था । लिच्छवि, मल्ल, विदेह, शाक्य प्रभृति जातीय गणतन्त्रों में शासन का जनतान्त्रिक रूप स्वभावतया अधिक प्रत्यक्ष था। पड़ोसी शक्तियों में परस्पर युद्ध बहुधा चलते रहते थे, किन्तु उक्त युद्धों से सामान्य जनता को विशेष क्षति नहीं पहुंचती थीं- युद्ध में संलग्न विरोधी दल उन्मुक्त लूट-खसोट, तोड़-फोड़ और विध्वंस से प्रायः बचते थे, और यह सावधानी बरतते थे कि खेती एवं पशुधन को हानि न पहुंचे और यथाशक्य जन साधारण को कोई क्षति न हो ।
आर्थिक क्षेत्र में, कृषि जनता का सर्वप्रधान उद्योग था, यद्यपि विभिन्न हस्तशिल्प एवं कुटीर उद्योग भी द्रुतवेग से विकसित हो रहे थे । विविध उद्योग-धन्धों में लगे लोग स्वयं को अपने-अपने व्यवसाय से संबन्धित श्रेणियों, निगमों आदि में संगठित करने लगे थे । इस प्रकार सार्थवाह, राजश्रेष्ठि, महाजन, स्वर्णकार, लोहकार, कुम्भकार, तैलकार, तन्तुकार आदि के अपने पृथक-पृथक संगठन थे। इन श्रेणियों के निर्माण एवं संगठन में मगध नरेश बिम्बिसार ने विशेष योग दिया था । सम्भवतया इसी कारण वह राजा 'श्रेणिक' नाम से प्रसिद्ध हुआ । उद्योगधन्धों के विशिष्टीकरण, वृद्धि और प्रसार ने वाणिज्य एवं व्यापार को अभूतपूर्व प्रोत्साहन दिया । विविध पण्य से लदे बड़े-बड़े सार्थवाहँ थल और जलमार्ग से भी, जंगलों, मरुभूमियों, नदियों, और समुद्रों को पार करके दूर-दूर तक जाने-आने लगे थे । बैशाली, राजगृह, चम्पा, वाराणसी, श्रावस्ती, कौशाम्बी, उज्जयिनी और मथुरा जैसी महाराजधानियों के अतिरिक्त भी देश के विभिन्न भागों में अनगिनत व्यापार-केन्द्र उदय में आ रहे थे, और प्रत्येक में धनी महाजनों, वणिकों एवं व्यापारियों की संख्या वृद्धिगत थी। साथ ही क्रीत दासों, सेवकों, कर्मकरों और श्रमिकों की संख्या में भी वृद्धि हो रही थी। मांग एवं पूर्ति के सिद्धांत से निर्धारित व्यापार निर्बाध एवं
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स्वतन्त्र या राज्य की ओर से उस पर प्राय: कोई बकावट या नियन्त्रण नहीं था क्रय-विक्रय में वस्तु परिवर्तन का स्थान मुद्रित सिक्के ले रहे थे- कई श्रेणियां या निगम स्वयं अपनी मुद्राएं ढालती थीं । हुंडी-परचों का प्रचलन भी होने लगा था। ब्याज पर ऋण देना वैध माना जाता था और लिए हुए ऋण को चुकता करना एक प्रतिष्ठित कर्तव्य समझा जाता था । वचन की साख थी । सामान्यतया प्रत्येक व्यक्ति मन चाहे व्यवसाय में लग सकता था; और श्रमिक वर्ग तो बहुधा किसी व्यवसाय विशेष अथवा स्थान विशेष से बंधा नहीं था; श्रम सचल या देहात में जीवन अत्यन्त सरल, सादा, मितव्ययी एवं श्रमशील था, किन्तु इसके विपरीत नगरों में जीवन तड़क-भड़क, वैभव और विलासपूर्ण थां । वहाँ, विशेषकर समृद्ध जनों का, जीवन स्तर पर्याप्त ऊँचा था । वहाँ ऐसे भी अनेक व्यक्ति दृष्टिगोचर हो सकते थे जो ज्ञान-विज्ञान तथा संगीत, नृत्य, चित्र, मूर्तिशिल्प, स्थापत्य आदि विविध कलाओं की साधना में रत रहते। प्राचीन जैन, बौद्ध एवं ब्रह्मणीय साहित्य तथा अनुभूतियों से यही प्रतीत होता है कि महावीरयुग में लोग सामान्तया सुखी थे, जीवन संघर्ष तब तक उतना भीषण और कठोर नहीं हुआ था, तथा उपभोग से अधिक उत्पादन होता था। अर्थव्यवस्था घाटे की नहीं बचत की थी।
वस्तुतः उस काल में राजनैतिक और आर्थिक विषमताएँ इतना त्रासदायक शायद नहीं थीं, जितना कि विविध सामाजिक विषमताएँ थीं। जन समुदाय के बहुभाग पर ब्राह्मण पुरोहितों का प्रभाव इतना बढ़ गया था और उनका पंजा इतना दृढ़ हो गया था कि वे स्वयं को साक्षात् 'भूदेव' (पृथ्वी का देवता) कहने लगे थे। अपने आपको अन्य सबसे पृथक रखने की उनकी प्रवृत्ति ने सम्पूर्ण भारतीय समाज को शनैः शनै: ऐसी अनेक अलग-अलग जातियों-उपजातियों में विभाजित कर दिया, जिनका आधार व्यक्ति की मनोवृत्ति, कर्म या व्यवसाय न होकर, जन्म को माना जाने लगा । अर्थात् ये जातियाँ कर्मतः न रहकर, जन्मतः होने लगीं, और बहुधा उनमें रोटी-बेटी व्यवहार पर भी प्रतिबन्ध लगने लगा था। शूद्र कर्म करने पर भी ब्राह्मण का पुत्र ब्राह्मण ही रहता, और ब्राह्मण कर्मा एवं धर्मा होते हुए भी शुद्र के घर जन्मा बालक जीवन भर शुद्र ही रहता । ये जातियाँ ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य शूद्र इन चार वर्गों तक ही सीमित नहीं रहीं, अनेक व्यवसायपरक उपजातियाँ भी उदय में आने लगीं। ऐसा भी नहीं है कि ब्राह्मण के इस स्व- आरोपित तेज, उच्च स्थिति, पद एवं प्रभाव को सभी ने बिना बूं-चरा किये स्वीकृत कर लिया था। कम से कम उस काल का क्षत्रिय पग-पग पर ब्राह्मण को चुनौती दे रहा था, यहाँ तक कि ज्ञान-विज्ञान एवं धर्म के क्षेत्र में भी उसका प्रबल प्रतिद्वन्द्वी था। तीसरा वर्ण वैश्य था, जिसके हाथ में अर्थकोष की कुन्जी थी और जो सम्पूर्ण आर्थिक व्यवस्था की प्रधान धुरी था। अतएव ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनों ही न तो उससे प्रत्यक्ष घृणा कर सकते थे और न उसकी उपेक्षा ही कर सकते किन्तु अनेक व्यावसायिक रूढ़ उपजातियों में विभाजित चतुर्थ वर्ण, शूद्र, उपरोक्त तीनों ही अधिकारसम्पन्न एवं तथाकथित द्विज वर्णों के शोषण का शिकार था। सामान्यतया वह ढंग से जीने और रहने की सुविधाओं से तथा धर्म का लाभ लेने से भी वंचित कर दिया गया था। इस चातुर्वर्ण्य संगठन के बाहर भी अनेक जातिबाह्य चांडाल, अन्त्यज, अस्पृश्य जैसे समुदाय थे, जिन्हें कोई नागरिक अधिकार प्राप्त नहीं थे और जो पशुवत् जीवन जीते थे । प्रायः वैसी ही, शायद उससे भी अधिक होन एवं करुणोत्पादक स्थिति दास-दासियों की थी, जो खुले बाजार, जड़ पदार्थों अथवा मूक पशुओं की भाँति खरीदे और बेचे जाते थे । जैसे ही कोई दुर्भाग्य का मारा दास बनने पर विवश हो जाता, उसका कुल, शील, जाति, नाम, स्वतन्त्र व्यक्तित्व, सब समाप्त हो जाते थे । उसका कोई नागरिक अथवा कानूनी अधिकार नहीं रह जाता था । वह पूर्णतया अपने स्वामी की सम्पत्ति था, जो उसके साथ चाहे जो कर सकता था। दासप्रथा उस युग की एक ऐसी भयंकर सामाजिक विकृति थी जिसका विशेष भगवान महावीर ने खुलकर किया और समाज से उसका उन्मूलन करने में वह प्रायः सफल भी हुए ।
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एकच्छत्र राज्यतन्त्रों, सामन्तवाद, व्यापार और उद्योग, तथा इन सबसे भी अधिक जाति व्यवस्था की संकुचित कठोरता की उत्तरोत्तर वृद्धि के फलस्वरूप घर में भी और समाज में भी स्त्रियों का स्थान, स्थिति, दशा,
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एवं नियति उत्तरोत्तर हीन होती चली गयी। बहु-पश्नीत्व की प्रवृत्ति को जो प्रोत्साहन मिला, विशेषकर ब्राह्मण वर्ग में, जिनका अनुकरण क्षत्रिय एवं वैश्य भी स्वभावतः करने लगे, उससे नारी की दशा में और अधिक पतन हुआ 1 जनतन्त्रात्मक गणों के प्रात्य क्षत्रियों में अवश्य ही सामान्यतया एक पत्नीवाद की प्रथा चलती रही। स्वयं भगवान महावीर के पितामह, पिता तथा अन्य अनेक सम्बन्धी एवं नातेदार एक पत्नीव्रती ही थे । उस काल में कम से कम उत्तर भारत में समाज व्यवस्था पुरुष प्रधान थी पुरुष ही गृहपति एवं परिवार का मुखिया था। उसे अधिकार था कि वह अपनी चल व अचल सम्पत्ति का इच्छानुसार उपयोग करे, चाहे जिसको दे डाले या चाहे जिस प्रकार व्यय करे । वह परिवार की पुत्रियों और विधवा वधुओं को उनके दाय से वंचित भी कर सकता था । विधवा का अपने पति की सम्पत्ति पर कोई वैधानिक अधिकार नहीं था, सिवाय मात्र भरण-पोषण के । विवाह प्रथा व्यापक और प्रायः अनिवार्य हो चली थी। विवाह ने विधिवत् धार्मिक संस्कार का रूप ले लिया था और सम्बन्ध प्रायः दोनों पक्षों के अभिभावकों द्वारा ही निश्चित होते थे। कन्या की तो क्या, वर की सहमति भी शायद कभी ली जाती थी । लोग बहुधा स्वजाति की कन्या के साथ ही, यदि संभव हुआ तो अपने मामा की पुत्री के साथ, विवाह करना पसन्द करते थे। कभी-कभी अन्तर्जातीय और स्त्री-पुरुष द्वारा स्वेच्छा से अपनी पसन्द के भी विवाह सम्बन्ध हो जाते थे। मगधनरेश थे णिक विम्बिसार की कई पत्नियां थीं, जिनमें से एक दक्षिण देशवासी ब्राह्मण कन्या भी थी। राजाओं की वैश्य पलियों और वैश्यपुत्रों की क्षत्रिय या ब्राह्मण पत्नियों के होने के भी उदाहरण मिलते हैं । ब्राह्मण तो किसी भी वर्ण की स्त्री के साथ विवाह करने में स्वतन्त्र था ही वृद्ध और अनमेल विवाह भी होते थे, किन्तु विधवा विवाह पर प्रतिबन्ध या स्त्रीपुरुष के विवाहबाह्य प्रणय सम्बन्ध निन्दनीय समझे जाते थे, किन्तु जो सम्पन्न और समर्थ थे उपपत्नियाँ भी रखते थे । वेश्यावृत्ति समाज मान्य थी और प्रर्याप्त प्रचलित थी । मगधसुन्दरी, पाली, अनंगसेना, कोशा जैसी अनेक वारवधुएँ या गणिकाएं नगर की शोभा समझी जाती थीं। वे अत्यन्त धन, वैभव, विलास सम्पन्न, प्रतिष्ठित एवं नृत्य, वाद्य, संगीत, चित्र आदि कलाओं में परम निपुण भी होती थीं। राजाओं, राजकुमारों, उच्च पदाधिकारियों और धोष्ठिपुत्रों आदि भद्रलोक के विलास एवं मनोरंजन का वे एक प्रमुख साधन थीं।
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इस काल में ब्राह्मण पुरोहित धार्मिक गुडस्य के जीवन को नाना विधिविधानों, कर्मकांडों एवं संस्कारों की श्रृंखला में जकड़ता जा रहा था। ये संस्कार आदि गर्भाधान के भी कुछ पूर्व प्रारम्भ हो जाते थे, और व्यक्ति के जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त ही नहीं उसके उपरान्त भी श्राद्ध, पिण्डदान आदि के रूप में चलते रहते थे । इसमें सन्देह नहीं है कि इन समस्त विधि-विधानों का पूर्णतया पालन तत्कालीन भारतीय समाज का अल्पांश ही करता था अनेक व्यापक पर्व त्योहार, उत्सव आदि लोकप्रिय थे और बहुत करके जीवन को आनन्दमय बनाते थे। इसके अतिरिक्त ब्राह्मणों की समस्त चेष्टाओं के बावजूद भारतीय समाज अभी कूटस्थ, गत्यावरुद्ध एवं निपट रूढ़िग्रस्त नहीं हो पाया था। यह संक्रमण युग परिवर्तनों एवं क्रान्तियों का युग था। सामाजिक जीवन में अभी भी एक स्वस्थ विशालहृदयता, परमतसहिष्णुता, दानशीलता और उदारता परिलक्षित थी। लोग सदाचारी, भले, गुणी, सुविज्ञ एवं शूरवीर व्यक्तियों का सम्मान करने में रस लेते थे और उनके प्रति बड़ा आदरभाव रखते थे ।
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वास्तव में, शायद ही किसी अन्य युग और अन्य देश में, समाज के प्रायः सभी वर्गों में ऐसी उत्कट जिज्ञासा तथा दार्शनिकों एवं धर्मोपदेष्टाओं के प्रति ऐसा निष्पक्ष एवं उच्च आदरभाव रहा हो, जैसा कि उस युग के भारत में था, भले ही उक्त धर्मगुरुओं के सिद्धांत कितने ही परस्पर विरोधी अथवा श्रोताओं के स्वमत के विरुद्ध रहते हों।
वैदिक परम्परा के कट्टर पक्षपाती पंडितों ने प्रायः इसी युग में वेदों को अन्तिम रूप देकर उन्हें संहिताओं में संकलित किया था और उन पर ब्राह्मण, आरण्यक आदि ग्रन्थों के रूप में क्लिष्ट, दुर्बोध टीकाओं की रचना
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कर डाली थी, जिसके परिणामस्वरूप याज्ञिक क्रियाकाण्ड अत्यन्त व्ययसाध्य, आडम्बरपूर्ण, जटिल और अपरिवर्तनीय बनता चला गया। वैदिक संस्कृति के आद्य युगों में जो पवित्र मन्त्रों का पाठ करने वाले सीधे-साधे ऋषि थे, उनके वंशजों ने स्वयं को अब धर्म पुरोहितों के एक शक्तिशाली वर्ग के रूप में संगठित कर लिया था। इन धर्माचार्यों ने लोकमानस में यह बात जमा दी थी कि उपयुक्त विधि-विधान, क्रियाकाण्ड, पुरोहित या होता और याज्ञिक सामग्री का संयोग होने पर ही यज्ञ चमत्कारिक रूप में यथेष्ठ फल प्रदाता होता है । ये यज्ञ किसी आध्यात्मिक लाभ या चारित्रिक उन्नयन के प्रयोजन से नहीं किये जाते थे, वरन यश, कीति, मान-बड़ाई, धन-सम्पत्ति का लाभ, पुत्रादि की प्राप्ति अथवा वैयक्तिक शत्रओं का विनाश जैसे लौकिक उददेश्यों को लेकर ही प्रायः यज्ञानुष्ठान किये जाते थे। उत्तर वैदिक काल में तीर्थङ्कर अरिष्टनेमि और पार्श्वनाथ ने शृमणधर्म पुनुरुद्धार का जो अभियान चलाया था उसका सुफल यह अवश्य हुआ कि अब ऐसे अनष्ठान अपेक्षाकृत विरल हो गये थे और उनमें की जाने वाली याज्ञिक हिंसा, पशुबलि आदि में भी भारी न्यूनता आ गई थी । इसी युग में ब्राह्मणीय स्मृति शास्त्रों का प्राथमिक रूप बना तथा वर्णाशृम धर्म (चातुर्वर्ण्य एवं चतुराम व्यवस्था) के दृढ़ता से पालन करने पर बल दिया जाने लगा।
परन्तु तभी, मुख्यतया क्षत्रिय चिन्तकों के नेतृत्व में, एक ऐसा सबल वर्ग भी उदय में आ रहा था जो स्वयं वैदिक परम्परा के आधार से ही याज्ञिक क्रियाकाण्ड एवं पशुबलि का खुला सशक्त विरोध करता था। इस वर्ग ने वैदिक साहित्य में से ही आध्यात्मिकता के बीज खोजकर उपनिषदों के आध्यात्मिक रहस्यवाद का विकास किया। ब्राह्मण परम्परा के सांख्य, योग, वैशेषिक, मीमांसा आदि तथाकथित आस्तिक षड्दर्शनों और चार्वाक के नास्तिक भौतिकवाद का उदय भी प्रायः इसी काल में हुआ। बहुभाग जनता अब भी बौद्धिक दृष्टि से पिछड़ी हुई और अज्ञान ग्रस्त थी, जो स्थानीय या ग्राम्य देवताओं, भूत-प्रेतों, दैत्य-दानवों, आदि की पूजा और तृप्ति करने में संलग्न थी तथा नाना अन्धविश्वासों की शिकार थी।
भारतीय चिन्तन एवं संस्कृति की दूसरी महत्वपूर्ण धारा का प्रतिनिधित्व शृमण परम्प रा करती थी, जो वेदों के प्रामाण्य, समाज में ब्राह्मण की सर्वोपरि सत्ता और वर्णाश्रम व्यवस्था को मान्य नहीं करती थी। अहिंसा, त्याग और अपरिग्रह उसके मूल मन्त्र थे और व्यक्ति के चारित्रिक उन्नयन, नैतिक सदाचरण एवं आध्यात्मिक साधना पर वह विशेष बल देती थी। इस काल के शृमण जगत में परम्परा विश्वास के अनुसार अन्तिम तीर्थङ्कर के उदय की प्रतीक्षा बड़ी उत्सुकता के साथ की जा रही थी । परिणामस्वरूप दर्जनों विभिन्न धर्मोपदेष्टा स्वयं उक्त तीर्थङ्कर होने का दावा कर रहे थे और इतस्ततः भ्रमण करते हुए अपने-अपने मन्तव्यों का जनता में प्रचार कर रहे थे तथा लोगों को अपना अनुयायी बना रहे थे। कहा जाता है कि ६३ अथवा ३६३ विभिन्न दार्शनिक वाद या मत-मतान्तर उस समय देश में प्रचलित हो रहे थे, जिन्हें भौतिकवादी, संशयवादी, व्यवहारवादी, भाग्य या नियतिवादी, नित्य या शाश्वतवादी, क्षणिकवादी, क्रियावादी, अक्रियावादी, आदि लगभग आधे दर्जन स्थल भेदों में वर्गीकृत किया जा सकता है । पूरण कस्सप, अजित केसकंबलिन, पकुध काच्चायन, संजय वेलठिपुत्त, मक्खलि गोशा, शाक्यपुत्र गौतम बुद्ध और निर्ग्रन्थ ज्ञात पुत्र वर्धमान महावीर उस काल के श्रमण धर्माचार्यों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण थे। इनमें से भी प्रथम चार के नाम एवं कतिपय विशिष्ट सिद्धान्तों के अतिरिक्त विशेष कुछ ज्ञात नहीं हैं उनके सम्प्रदाय अत्यन्त अस्थायी रहे प्रतीत होते हैं। मक्खलि गोशाल आजिविक सम्प्रदाय के प्रवर्तक थे, जो मध्ययुग के प्रारम्भ तक किसी न किसी रूप में विद्यमान रहा और अन्ततः जैन परम्परा में अतभुक्त हो गया। गौतम बुद्ध बौद्ध धर्म के यशस्वी प्रवर्तक एवं संस्थापक थे और वर्धमान महावीर प्राचीन भारत के चौबीस आईत. जिन शृमण तीर्थङ्करों की शृखला में अन्तिम थे। उन्होंने उक्त तीर्थङ्कर परम्परा के धर्म का पुनुरुद्धार एवं संशोधन किया, मुनि-आयिका-श्रावक-श्राविका रूप चतुविद्य जैन संघ का संगठन किया और परम्परा मान्यताओं,
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दर्शन एवं सिद्धान्तों को व्यवस्थित किया । उन्होंने अपने अनेकान्तिक स्याद्वाद दर्शन, स्वानुभूत प्रौढ़ तत्त्वज्ञान, अहिंसा, अपरिग्रह एवं जीवमात्र की समानता के सिद्धान्तों तथा स्वस्थ प्रगतिगामी आशावाद के प्रचार द्वारा भारतीय समाज की दार्शनिक, वैचारिक, धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक आदि विविध विषमताओं के उन्मूलन का पथ प्रशस्त किया। उनके महान प्रतिद्वन्द्वियों ने भी उन्हें वीतराग, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी मानकर उनकी प्रतिष्ठा की थी।
इस प्रकार ईसापूर्व छठी शती की वह वैचारिक क्रान्ति या धार्मिक आन्दोलन अपने परिणामों में क्षेत्रातीत एवं कालातीत सिद्ध हुआ। उसने उस युग विशेष की ही नहीं, मानव जगत की अनेक शाश्वत चुनौतियों का डटकर सामना किया और मानव की स्थायी सुख-शान्ति के लिए उक्त चुनौतियों के समाधान खोजे एवं प्रस्तुत किये।
* भगवान महावीर *
भगवान महावीर तपः प्रधान संस्कृति के उज्जवल प्रतीक हैं। भोगों से भरे इस संसार में एक ऐसी स्थिति भी संभव है जिसमें मनुष्य का अडिग मन निरन्तर संयम और प्रकाश के सान्निध्य में रहता हो-इस सत्य की विश्वसनीय प्रयोगशाला भगवान महावीर का जीवन है। वर्द्धमान महावीर गौतम बुद्ध की भांति नितान्त ऐतिहासिक व्यक्ति हैं। माता-पिता के द्वारा उन्हें भी हाड़-मांस का शरीर प्राप्त हुआ था। अन्य मानवों की भांति वे भी कच्चा दूध पीकर बढ़े थे; किन्तु उनका उदात्त मन अलौकिक था। तम और ज्योति, सत्य और अनत के संघर्ष में एक बार जो मार्ग उन्होंने स्वीकार किया, उस पर दृढ़ता से पैर रखकर हम उन्हें निरन्तर आगे बढ़ते हुए देखते हैं। उन्होंने अपने मन को अखण्ड ब्रह्मचर्य की आँच में जैसा तपाया था, उसकी तुलना में रखने के लिए अन्य उदाहरण कम ही मिलेंगे। जिस आध्यात्म केन्द्र में इस प्रकार की सिद्धि प्राप्ति की जाती है उसकी धाराएँ देश और काल में अपना निस्सीम प्रभाव डालती हैं। महावीर का वह प्रभाव आज भी अमर है । अध्यात्म के क्षेत्र में मनष्य कैसा साम्राज्य निमित कर सकता है, उस मार्ग में कितनी दूर तक वह अपनी जन्मसिद्ध महिमा का अधिकारी बन सकता है, इसका ज्ञान हमें महावीर के जीवन से प्राप्त होता है । बार-बार हमारा मन उनकी फौलादी दृढ़ता से प्रभावित होता है । कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़े रहकर शरीर के सुख-दुःखों से निरपेक्ष रहते हुए उन्होंने काय साधन के अत्यन्त उत्कृष्ट आदर्श को प्रत्यक्ष दिखाया था। निर्बल संकल्प का व्यक्ति उस आदर्श को मानवी पहुंच से बाहर भले ही समझे, पर उसकी सत्यता में कोई संदेह नहीं हो सकता । तीर्थकर महावीर उस सत्यात्मक परिधि के केन्द्र में अखण्ड प्रज्वलित दीप की भाँति हमारे सामने आते हैं। यद्यपि यह पय अत्यन्त कठिन था; किन्त हम उनके कृतज्ञ हैं कि उस मार्ग पर जब वे एक बार चले तो न तो उनके पैर रुके और न डगमगाये । उन्होंने अन्त तक उसका निर्वाह किया। त्याग और तप के जीवन को रसमय शब्दों में प्रस्तुत करना कठिन है, किन्तु फिर भी इस सुन्दर जीवन में कितने ही मार्मिक स्थल हैं तथा कितनी ही ऐसी रेखाएं हैं जो उनके मानवीय रूप को साकार बनाती हैं।
सत्य, अहिंसा और ब्रह्मचर्य, तप और अपरिग्रह रूपी महान आदर्शों के प्रतीक भगवान महावीर हैं। इन महाव्रतों की अखण्ड साधना से उन्होंने जीवन का बुद्धिगम्य मार्ग निर्धारित किया था और भौतिक शरीर के प्रलोभनों से ऊपर उठकर अध्यात्म भावों की शाश्वत विजय स्थापित की थी। मन, वाणी और कर्म की साधना उच्च अनन्त जीवन के लिए कितनी दूर तक संभव है, इसका उदाहरण तीर्थकर महावीर का जीवन है। इस गम्भीर प्रज्ञा के कारण आगमों में महावीर को 'दीर्घप्रज्ञ' कहा गया है। ऐसे तीर्थकर का चरित्र धन्य है।
-डा० वासुदेव शरण अग्रवाल.
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मानव उत्कर्ष की ऊर्जा के
संवाहक महावीर
-श्री लक्ष्मी चन्द्र जैन
यह विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि सांसारिक विजय के क्षेत्र में जिन क्षत्रियों की तलवार ने पराक्रम और वीरता को तेजस्विता का आलोक दिया, उन क्षत्रियों के वंशज ही आध्यात्मिक साधना के नेता बने । आश्चर्य नहीं कि जैन धर्म के चौबीसों तीर्थकर क्षत्रिय थे। इन तीर्थकरों ने जीवन के विकास-क्रम में सभी प्रकार के दायित्वों का निर्वाह किया-अनेक ने राज्यों का संचालन किया, सभी ने सामाजिक व्यवस्था में युगानुकल सुधार करके लोक-कल्याण किया, वैयक्तिक त्याग और तपस्या द्वारा आत्मतत्व की उपलब्धि के उपरान्त आत्मज्ञान की ओर मानव समाज को उन्मुख किया।
जब बुद्ध वैशाली में पधारे, तो उन्होंने अपने भिक्षओं से कहा था-'भिक्षुओं, क्या तुमने देवों को सुदर्शन नगर से उद्यान-भूमि को जाते देखा है ? यदि नहीं, तो अब इन वैशाली के क्षत्रियों को देख लो, क्योंकि जैसी ऋद्धि देवों की होती है, वैसी ही वैशाली के इन लिच्छिवियों की दिखाई दे रही है।
यद्यपि वैशाली का यह चमत्कारी वर्णन बुद्ध ने स्वयं किया है, किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि समाज के सभी वर्ग सम्पन्न थे। जन-साधारण की आर्थिक विपन्नता अधिक न रही हो, किन्तु सामाजिक विपन्नता की स्थिति बहुत करुण थी। ऐसा न होता, तो महावीर और बुद्ध ने सामाजिक क्रान्ति का शंखनाद क्यों किया होता? महावीर की इस सामाजिक क्रांति का मुख्य लक्ष्य था, धर्म तीर्थ की स्थापना-धर्म जिसने भारतीय समाज की व्यवस्था को सदा प्रभावित किया है, नियंत्रित किया है, और अपनी जीवंतता से जन-समाज को सुमार्ग दिखाया, मन को शांति दी, विपत्तियों को सहन करने की क्षमता दी, प्रेम के द्वार खोले, सहानुभूति की सीख दी। धर्म का यह स्वरूप शताब्दियों के बंधे-बंधाये ढंग के क्रियाकांड और क्रियाकांडियों की स्वार्थपरक दृष्टि के कारण विलुप्त होता गया था। यज्ञों के अनुष्ठान की यांत्रिकता, नियमों, उप-नियमों की ऐसी पांडित्यपूर्ण व्यवस्था कि जनसाधारण की पहुँच और समझ से बाहर-न भाषा का बोध, न भाव की पकड़, और न ही भावना की परितृप्ति का कोमल मानवीय आधार । पशुयज्ञ भी जहां निषिद्ध नहीं; जहां शूद्रों की सामाजिक जघन्यता उन्हें पशुओं की कोटि में ला बैठाये; जहाँ स्त्रियों के अस्तित्व को व्यक्तित्व की कोटि से बहिष्कृत कर दिया गया हो; जहाँ भरे बाजार में दास-दासियों का क्रय-विक्रय होता हो, वहाँ ऐसी व्यवस्था का समर्थन करनेवाला धर्म स्वतन्त्रचेता व्यक्तियों के हृदय को मथित क्यों न करता ?
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सिद्धार्थ और त्रिशला के वैभव की वद्धि के बीच बालक वर्द्धमान (महावीर का प्रारम्भिक नाम इसी वृद्धि के कारण) ने शैशव पार किया। किशोर हुए थे। अपनी वीरता के कारण मदोन्मत्त हाथी को वश में करके जनता की रक्षा की; विषधर सर्प को वश में करके भयभीत सखाओं का त्राण किया और 'महावीर' कहलाए; प्रखर प्रतिभा के सहज प्रयोग द्वारा गढ़ दार्शनिक प्रश्नों का उत्तर देने के कारण 'सन्मति' कहलाए-अनेक चमत्कार, और इन चमत्कारों की कवि-सुलभ कल्पना के लता-वितान में अनेक चरित-पुरुषों और काव्य-कथाओं के पुष्प खिलते चले गये। किन्तु महावीर के व्यक्तित्व के यह चमत्कार ही यदि सब कुछ होते और जनता उनसे मुग्ध होकर उन्हें भगवान मानकर परितृप्त और सुखी हो जाती, तो ३० वर्ष के राजकुमार वर्द्धमान महावीर राजमहल छोड़ कर साधना के लिए वन की ओर क्यों प्रस्थान करते ? निर्ग्रन्थ, नग्न, अकेले, मौन, अनिद्र, ध्यानमग्न । पूरे बारह वर्षों की कठोर तपस्या और साधना। कहीं कुटी नहीं बनायी, केवल वर्षा के चार महीनों में स्थान की परिधि में बंधे चातुर्मास करते, और शेष दिन-महीने भ्रमण और ध्यान, चिन्तन और पदयात्रा, मौन और अलस, निद्राहीन । मन में प्रश्न होता है-राजवंश के साधनों का उपयोग करके उन्हें वैशाली में रहते हुए समाज कल्याण के कार्य करने चाहिए थे। जिनका वीरत्व प्रतिष्ठित हो चुका था, उनके लिए सहज था कि जनतन्त्र को शक्तिशाली बनाते, साम्राज्यवादियों का उच्छेद करते. प्रजा की समद्धि की योजनाओं को रचते, उन्हें सफल बनाते । जहाँ तक आध्यात्मिक ज्ञान का प्रश्न है, उनके नाना चेटक और पिता सिद्धार्थ तीर्थङ्करों के साधना मार्ग के ज्ञाता थे। स्वयं महावीर अहंत दर्शन को पल्लवित करने की क्षमता रखते थे; वह तीर्थङ्कर थे, और इसी भव से मोक्ष जायेंगे, यह जनश्रति और ज्योति विभोर की वाणी प्रचारित हो चुकी थी। फिर महावीर ने कष्टों, परीषहों का मार्ग क्यों चुना, क्यों भयावह निर्जन वनों में यक्षों और प्रेतों के उपद्रव सहे; क्यों लाढ़ देश के निर्दय हिंसकों की प्रताड़ना सही; जब पकड़े गये, तो क्यों मौन साधना का व्रत भंग नहीं किया ? कथानक तो यहाँ तक भी है कि दुष्टों ने उनके कान में कीलें ठोंक दी और रुधिर की धारा के बीच जब उन्हें निकाला गया होगा तो ठोकने से भी अधिक निकालने में कष्ट हुआ होगा? सोचते हैं तो हृदय थर्रा जाता है । जिनके चमत्कारों की कथा अनन्त है, ऐसे तीर्थङ्कर के विषय में इन कष्टों की कल्पना, इनका सोचना और हुनका बताना सब कुछ त्रासदायक है। इसलिये जैन धार्मिक साहित्य की एक परम्परा में तीर्थंकर के प्रति ऐसी द्रावक घटनाओं का उल्लेख नहीं किया गया। किन्तु उपसर्ग तो महावीर ने सहे ही। कठिन से कठिन सर्दी, गर्मी, धूप, विषाक्त कृमि-कीटों द्वारा शरीर-छेदन, सभी कुछ सहने का उल्लेख है; उनके १२ वर्ष के साधना काल के प्रत्येक क्षण के साथ ये घटनाएं जुड़ी हुई हैं । महावीर के धर्म को और जैन धर्म के मौलिक चिंतन को समझने की कुन्जी इन्हीं प्रश्नों के उत्तर में है।
पूर्व तीर्थकरों द्वारा उपदेशित ज्ञान पर आस्था और श्रद्धा रखना एक बात है, ज्ञान रूप में श्रद्धा के साथ ही साथ समझ लेना यह दूसरी बात है। लेकिन उस पर आचरण करना, उसे अपनी निजी अनुभूति बना लेना, और इस तरह उसके साथ आत्मसात हो जाना अलग बात है। श्रद्धा, ज्ञान और आचरण का समन्वय ही मुक्ति का मार्ग है। जैन धर्म के केन्द्रीयभूत सिद्धान्त यही हैं। साधारण बोलचाल की भाषा का मुहावरा है-'बिना अपने मरे स्वर्ग नहीं देखा जाता है।' सम्यक ज्ञान को सम्यक् चरित्र बनाने का काम महावीर के लिए कोई दूसरा कर ही नहीं सकता था। ज्ञान को आचरण (तपस्या और साधना) के माध्यम से साधते-साधते जब १२ वर्ष बीत गए, तब हुआ महावीर को केवलज्ञान-एक ज्योति जिसने दर्शा दिया कि रागद्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, हिंसा, असत्य, स्वेय (चोरी), कुशील और परिग्रह के परे उस प्रतीति और उपलब्धि का वह सुख पा गये हैं, जो मनुष्य ही नहीं, पशु-पक्षी, कीड़े-मकोड़े, वृक्ष-वनस्पति, स्पंदित पर्वत, सप्राण जल और अग्नि में बसी आत्मा की अनु. भृति से भी प्राप्त होता है। अपनी सी आत्मा इन सब में व्याप्त है, अतः सब आत्माएं निजी विकास की चरम
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क्षमता की कसौटी पर, कालान्तर में मानव देह पाकर धर्माचरण के द्वारा मोक्ष पाने की सामर्थ्य से मंडित हैं-यह ज्ञान और अनुभव ही 'अहिंसा' के अखंड, निष्कंप आचरण में उद्भासित होता है। यह अहिंसा विविध रूपों में अभिव्यक्ति पाती है-.क्षमा जो स्वयं को शांति देती है और दूसरे को निर्मल बनाती है। लोभ और परिग्रह का त्याग कि दूसरों को जीवन-साधन अधिक-अधिक मात्रा में प्राप्त हो और वह निश्चित बनें। दूसरे के अधिकारों का संरक्षण और अपनी लालसा पर विजय कि द्वेष की भावना जागृत न हो। जो न्याय से अपना नहीं है, उसे शक्ति से या चालाकी से प्राप्त करने के प्रपंच में हम न फंसे ।
भगवान महावीर ने अहिंसा की सफलता व्यक्ति के जीवन में उसकी व्याप्ति से मानी, क्योंकि व्यक्ति ही समाज बनाता है और समाज की इकाइयाँ राष्ट्र, तथा राष्ट्रों का समूह विश्व की संज्ञा पाता है।
सत्य, औचार्य, इन्द्रिय-संयम और अपरिग्रह से युक्त अहिंसा बलवान की अहिंसा है। यह मानसिक संतुलन और उत्कर्ष विकट पुरुषार्थ से प्राप्त होता है-यही कारण है कि भगवान महावीर के श्रमण धर्म में श्रम की प्रधानता है, अप्रमाद पर बल है, और सतत संयम की साधना को मुक्तिदायिनी माना गया है।
जन्म-जन्मान्तरों के माध्यम से आध्यात्मिक विकास की श्रृंखला की कड़ी देखनी हो, तो स्वयं महावीर की जीवन गाथा प्रमाण है। महावीर का वह संख्यातीत, कल्पनातीत भव जब वह प्रथम तीर्थकर आदिनाथ के पौत्र थे, भरत के पुत्र । नाम था मरीचि । पितामह ने मुनिदीक्षा भी तो सैकड़ों राजपुरुष आर नागरिक दीक्षित हो गये थे । उसने बड़े उत्साह से, सच्चे मन से दीक्षा ली थी, लेकिन जैन साधु की जीवनचर्या के जो नियम ऋषभ देव ने बनाये थे, वे बहत कठोर थे। तन पर वस्त्र नहीं, हफ्तों भोजन नहीं, रहने को खला आकाश, घोर गर्मीसर्दी और घनघोर वर्षा में कई-कई दिन तक एक आसन से खड़े रहकर तपस्या करने का अभ्यास, नींद पर अपलक नियन्त्रण, निरन्तर ध्यान और ध्यान....."इस परीक्षा मैं सभी खरे न उतरे । मरीचि भी घबरा गया। उसने दिगम्बर साध का वेश और इतनी कठोर तपस्या की पद्धति छोड़ दी। उसने अपना मनमाना साधु रूप बना लिया। गेरुए वस्त्र, छुरे से मुडाया सिर, त्रिदंड हाथ में, खाने पीने का कोई बंधन नहीं, ध्यान का भी अलग ढंग। इतना ही नहीं, मरीचि अपने बाबा भगवान आदिनाथ के समवसरण, उनकी धर्म सभा, के द्वार पर जा बैठता और दिखाता कि उसने ऋषभदेव का अहंत धर्म छोड़कर अपना एक परिव्राजक पंथ चलाया है । ऋषभदेव की धर्मसभा में एक दिन उनके पुत्र भरत चक्रवर्ती ने प्रश्न किया, "भगवान ! आपकी धर्मसभा में, या अयोध्या में क्या कोई ऐसा प्राणी है, जो भविष्य के किसी जन्म में तीर्थंकर बनेगा?" ऋषभदेव ने कहा, "भरत तुम्हारा एक अगले भव में चौबीसवां तीर्थंकर महावीर बनेगा।" भरत आश्चर्यचकित रह गये। उन्होंने पूछा, "किन्तु भगवान वह तो आप द्वारा चलाये गये अहंत धर्म का विरोधी है, आचरण से गिर गया है।" ऋषभदेव ने शान्त भाव से कहा, "भरत, मनुष्य के पुरुषार्थ की यही तो विशेषता है कि अपना भविष्य बनाना उसके अपने हाथ में है । मनुष्य के परिणाम और भावनाएं बदलती रहती हैं । मरीचि का जीव आज क्या कर रहा है, इस पर मत जाओ। वह पुण्यात्मा है, वह बडा सरल है, मायावी नहीं, इसलिये वह तीर्थंकर बने तो इसमें आश्चर्य क्य
और सच था भगवान का वचन कि उन के युग का मरीचि जन्म-जन्मान्तरों के सागर को पार करता हुआ अन्त में महावीर नाम का चौबीसवां तीर्थंकर बना ।
इतने सब विरोधों और विरोधाभासों के बीच एक सहज-बुद्धिगम्य सामंजस्य और तारतम्य बैठाने का प्रयत्न महावीर ने किया। इस प्रयत्न की उपलब्धि थी अनेकांत ।
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ख - ३
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जब केवलज्ञान प्राप्त हो गया, उनकी साधना सार्थक और सफल हुई, तो भगवान महावीर जनपदों की ओर लौटे और अपना धर्मोपदेश देना प्रारम्भ किया। भगवान की धर्म सभा को 'समवसरण' कहते हैं - वह स्थान जहाँ सभी प्राणी (पुराणों की भाषा में जहाँ देव, मनुष्य पशु-पक्षी सभी) सम भाव से समताभाव से इकट्ठे होकर, श्रेणीबद्ध बैठते हैं, उपदेश सुनते हैं। सभी प्रकार के मनुष्य, विविध भाषाएं बोलने वाले और यहाँ तक कि पशु-पक्षी भी बैठेंगे तो किस भाषा में महावीर बोलें कि सब समझें ? एक कल्पना है कि भगवान जिस भाषा में बोलते थे, वह निरक्षरी भाषा थी, वह एक नाद था, ओंकारनाद जैसा, जो हृदयों में गूंजता था और प्रत्येक प्राणी उसकी अनुभूति से शांति, सुख और समताभाव प्राप्त करता था । महावीर ने जनभाषा में उपदेश दियो । वह मगधवासियों की मागधी ही नहीं थी, अर्धमागधी थी, अर्थात् वह मिश्रित भाषा (अनेक प्रान्तों का सम्मिलित रूप ) जो मगध के आस पास के जनपदों को पिरो लेती थी और इसलिये सीमा पार के लोग भी समझ लेते थे । वैदिक संस्कृत और शिष्ट संस्कृत को त्याग कर जनपदीय भाषा में उपदेश देने का अर्थ ही था कि धर्म का रहस्य जन-जन तक उनकी भाषा में पहुंचे, उनके लिये बोधगम्य हो न यन्त्र, न तन्त्र न मन्त्र यश मानव धर्म के सहज सिद्धांत सहज भाषा में कथा है कि भगवान का समवसरण देवों ने रचा, किन्तु उपदेश प्रारम्भ नहीं हुआ। इसलिये कि उनकी वाणी की अवधारणा करने वाला, उस वाणी को सार्थक रूप से भगवान के उपरान्त जन-जन तक पहुँचाने वाली समर्थ और उपयुक्त ज्ञानी गणधर सामने नहीं आया था। अन्त में इन्द्रभूति गौतम आये जो ब्राह्मण विद्वान थे, जिनकी शंकाओं का समाधान भगवान महावीर ने किया था और जो यज्ञ की परिपाटी से प्रसन्न होने वाली परमात्मा पद्धति से उबर कर आत्म-साधना की पद्धति से अभिभूत हुए थे । भगवान स्वयं क्षत्रिय, उनके गणधर ब्राह्मण, उनके उपासकों में अहिंसक पद्धति से आजीविका उपार्जित करने वाले वैश्य, और उनकी वाणी तथा उनकी कल्याणकारी, परोपकारी जीवन पद्धिति से प्रभावित शूद्र, सब उनकी धर्म-श्रृंखला की कड़ी बन गये ।
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व्यवहार-पक्ष की दृष्टि से महावीर के धर्म की यह विशेषता है कि चिन्तन के क्षेत्र में व्यक्ति को अपना मार्ग आप खोजने की भरपूर प्रश्न पूछने और तर्क-वितर्क करने की स्वतन्त्रता दी गई। बुद्ध ने सत्ता के अत्यन्त गहन प्रश्नों में उलझने से गृहस्थों को रोका था वह उनकी दृष्टि से सार्थक भी था; किन्तु जैनधर्म के अनुयायी श्रावकों ने तो जीवन और जगत के प्रश्नों को हर स्तर पर समझने का प्रयत्न किया है, उन्हें प्रोत्साहित किया गया है ।
आध्यात्मिक साधना के क्षेत्र में जहाँ इन्द्रियातीत ज्ञान की उपलब्धि का प्रश्न है, वहाँ 'युक्ति' की मान्यता के साथ 'अनुभूति' को ही प्रमाण माना है। युक्ति और अनुभूति की वैज्ञानिक दृष्टि ने जैन दर्शन को समृद्ध किया ।
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भव-भव
की
साधना
-डा० कामता प्रसाद जैन
भगवान महावीर की जीवात्मा ने केवली तीर्थकर का पद सहज ही नहीं पा लिया था। एक समय था जब उनका जीव एक शिकारी भील था-पूर्ण हिंसक और असंस्कृत ! किन्तु उसी जन्म में उन्होंने अहिंसा का बीज अपने अन्तर में बो लिया । भील गया था शिकार करने पशुओं का, किन्तु शिकार हो गया उसके अन्तर के पशु का । जैन मुनि से उसने जीव दया पालने का व्रत लिया कि वह किसी को मारेगा नहीं और निरामिष भोजन करेगा। अहिंसा का यह बिरवा उस जीव के हृदय में पनपा, परन्तु एक जन्म में उसपर फिर हिंसा का तुषार पड़ गया, अनादि काल का कुसंस्कार चमक गया । तब वह एक भयंकर शेर था। शिकार करना उसका काम था। किन्तु सत्य मिटता नहीं, अहिंसा के बिरवा की जड़ फिर हरी हो गई। शेर को मुनि के दर्शन हुए और वह अहिंसक बन गया । आज जैसे अमेरिका में टायक नाम की सिंहनी जीवदयापालक शाकाहारी बनी थी, वैसे ही वह शेर भी पूर्ण अहिंसक बना था।
आदि तीर्थकर भगवान ऋषभ अथवा वृषभ से भी बहुत पहले भगवान महावीर के जीव ने अहिंसा धर्म की साधना प्रारम्भ की थी। आदि भगवान का तो वह पोता हुआ था। उपरान्त उत्थान-पतन की भूल-भुलैया में भटक कर शेर हा जहां से फिर उसने आत्मोन्नति का प्रयास प्रारम्भ किया। अच्छे कर्म का फल भी अच्छा होता है। आम बोने पर आम ही मिलता है। अहिंसा का व्रत पाला तो उसका पुण्य-पुष्प चक्रवर्ती जसी विभूति में फलित हुआ। किन्तु महावीर के जीव को तो आगे बढ़ना था। उसके हृदय में आत्मबोध का फल खिल चुका था, जिससे सम्यक्त्व की सुगंधि आ रही थी। निस्संग का भाव आर्जवता में चमक रहा था। वह राजभोग में नहीं फंसे । उनकी सम्पत्ति लोक कल्याण के लिए थी और उनका समय और शक्ति अहिंसा के विकास में लगी थी। रागद्वेष से निलिप्त रहने की जागरूकता ने समता और समानता को भाव जगा रखा था। मैत्री और करुणा उनके आगे नाचती थी। यह प्रिय मित्र चक्रवर्ती तो हुए परन्तु सार्थक नाम, छह खण्ड भूमि पर अहिंसा का साम्राज्य पनपे इसलिए ही वह धर्म विजय की यात्रा पर निकले । निस्पृही तेजपुत्र अहिंसक वीर के आगे सभी नतमस्तक होकर अहिंसा संस्कृति के उपासक बन जाते। प्रियमित्र सर्वत्र मैत्री और कारुण्य की पुण्यधारा बहाकर लौटे तो उन्हें राजत्व का ऐश्वयं काटने लगा। शासन भार से मुक्त होकर वह साधु हो गए। कर्मशूर तो थे ही अब धर्म-शुर भी बन गए। केवली भगवान के पादमूल में बैठकर उनके जीव ने तीर्थंकर बनने की कला को पहचाना । उस कला के विकास में मूल प्रेरक सोलह प्रकार के कारणों को अपने रोम-रोम मे ऐसा चमकाया कि उनको तीर्थंकर होते देर न लगी। स्वर्ग के भोग विलास में भी वह आत्मरसी ही रहे। आत्मा स्वस्थ, तो शरीर भी स्वस्थ । स्वर्ण के संसर्ग से पाषाण चमकता ही है। आखिर उस भील के जीवने अपने अन्तर को ऐसा मांझा कि रागद्वेषपरक हिंसा की गंध भी उसमें न रही। सहज आर्जव के भाव ने भील के जीव को लोकपूज्य बना दिया।
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यदि महावीर तीर्थंकर
नहीं होते
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PILLLL
-आचार्य श्री तुलसी
मैं कई बार सोचता है कि यदि महावीर तीर्थंकर नहीं होते तो उनके अनुयायी उन्हें अतीत से कसकर रखते, आगे नहीं बढ़ने देते।
तीर्थकर शास्त्र-निरपेक्ष होते हैं, इसलिए वे देशकाल के औचित्य के अनुसार कार्य करने को स्वतन्त्र होते हैं।
महावीर जिस युग में हुए वह घोर जातिवाद का युग था। ब्राह्मण उच्च माने जाते थे और शूद्र नीच । चाण्डाल सर्वथा अछूत माने जाते थे । महावीर ने उन चाण्डालों को भी अपने संघ में प्रवजित होने की छूट दी थी।
भगवान महावीर जातिवाद के घोर विरोधी थे। आत्मौपम्य के सिद्धान्त की स्थापना करने वाला अहिंसावादी जातिवाद का समर्थक हो नहीं सकता । महावीर के शासन में न जाने कितने शूद्र और चाण्डाल दीक्षित हुए होंगे। महावीर यदि तीर्थकर नहीं होते तो उनके अनुयायी उन्हें ऐसा करने से अवश्य रोकते ।
अर्जुन मालाकार सुदर्शन सेठ के साथ महावीर की शरण में आ गया। महावीर ने उसे अपने धर्मसंघ की शरण में ले लिया। ऐसे क्रूरकर्मा व्यक्ति को सहसा अपने साधुसंघ में सम्मिलित कर लेना अकित घटना थी। यदि महावीर आचार्य होते तो ऐसा करने से अवश्य झिझकते किन्तु वे तीर्थंकर थे, इसलिए उन्हें वैसा करने में कोई संकोच नहीं हुआ।
महावीर सचमुच महावीर थे। तीर्थकर होने के पश्चात वे पूर्ण अभय थे । उनकी भयविमुखता ने ही उन्हें महावीर बनाया था। यदि वे भयसंकुल होते तो महावीर नहीं बन पाते। अभय का बीज अनासक्ति या अपरिग्रह है। यदि महावीर के मन में शिष्यों और अनुयायियों का लोभ होता तो वे अभय नहीं हो पाते। यदि महावीर के मन में सामाजिक प्रतिष्ठा और प्रशंसा की आसक्ति होती तो वे अभय नहीं हो पाते । अनगिन बार देवताओं ने उनके सामने नाटक किया, पर उनका अन्त:करण कभी उन नाटकों से आकृष्ट नहीं हुआ। उनके सामने नाटक होते हैं, उसे लोग क्या समझेंगे, इस आशंका से वे कभी विचलित नहीं हुए।
उनके व्यक्तित्व और कर्तृत्व की अनगिन घटनाएं हैं। मैंने केवल इस ओर अंगुलि-निर्देश किया है ।
महावीर तीर्थकर थे, इसलिए वे विधि और निषेध में स्वतन्त्र थे। यह स्वतन्त्रता सहज ही प्राप्त नहीं होती। इसके लिए बहुत खपना पड़ता है । जैन दर्शन के अनुसार तीर्थंकर मनुष्य ही होता है। वह कोई देव रूप में अवतार नहीं होता। जिसकी साधना उच्च कक्षा में पहुंच जाती है, तीर्थकर हो जाता है।
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चिन्तन के
झरोखे से
महावीर
२५०००
परस्परोपग्रहो जीवानाम
युग निर्माता का निर्मल मानस सदा ही जनमंगल की ओर गतिशील रहता है । वह उचित परम्परा को ग्रहण करने, अनुचित को तोड़ने और अनेक आवश्यक नई परम्पराओं को जन्म देने की विविध शक्तियां रखता है । लोकमंगल की दिव्य दष्टि एवं सृष्टि के निर्माताओं के इतिहास पर ज्यों ही एक विहंगम दृष्टि डालते हैं तो हम अनायास ही भगवान महावीर के युग परिवर्तनकारी दिव्य रूप का दर्शन करते हैं। धर्म, समाज और राजनीति, तीनों ही क्षेत्रों में, भगवान महावीर हमें क्रान्ति साधना से संबलित दृष्टिगोचर होते हैं।
ईसापूर्व छठी शती सम्पूर्ण विश्व के लिये धार्मिक क्रान्ति काल मानी जाती है। हमारा भारत तो उस समय अत्यन्त ही व्याकुलता के दौर से गुजर रहा था। धर्म के क्षेत्र में वहां केवल रूड़ियां मात्र शेष रह गयीं थीं। धर्म का तेजस्वी रूप रूढ़ियों के अन्धकार में विलीन हो चुका था । ' वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमसः पुरस्तात्' का ज्योति उद्घोष करने वाला राष्ट्र उस समय स्वयं अन्धकार में भटक रहा था; यज्ञ-यागादि के रूप में मूक पशुओं का बलिदान देकर अपने लिये वह देवताओं की अनुकम्पा प्राप्त करने की विडम्बना अपना रहा था । धर्म के नाम पर यत्र-तत्र उत्पीड़न प्रधान क्रियाकांडों की जय जयकार बुलाई जा रही थी। पंच पंचनखा भक्ष्या: ' की ओट में अखाद्य वस्तु भी उसके लिये खाद्य वस्तु बन गई थी। मनुष्य एक प्रकार से मानवी वृत्ति से राक्षसी वृत्ति पर उतर आया था, और वह भी देवी वृत्ति की पवित्रता के नाम पर मनुष्य की आंखों से दूर हो चुकी थी। कहना तो यह चाहिये कि धर्म का कोई अंग ऐसा नहीं बच रहा था, जिसमें सत्पथनिर्देश की क्षमता शेष रही हो। ऐसे कठिन समय में भगवान महावीर को हम सत्य धर्म का निरूपण करते हुए देख कर निश्चय ही विस्मय विभोर हो उठते हैं। अर्थहीन कर्मकांड के स्थान में अध्यात्मभाव की नई दृष्टि प्रदान कर वे धर्म को अमंगल भूमि से मंगलभूमि में स्थापित कर देते हैं। शुभ और अशुभ की सत्यलक्षी यवार्थ व्याख्या कर वे मनुष्यमात्र की आंखें खोल देते हैं, इसमें तनिक भी संदेह की गुंजाइश नहीं सभी प्राणियों में परमात्मतस्व की भावना अपनाकर मनुष्य वास्तव में मनुष्य कहलाने का अधिकारी हो गया । मानवता की दिव्य प्रभा से मानव हृदय आलोकित हो उठा ।
करुणा और दया की ज्योति
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- उपाध्याय अमर मुनि
सामाजिक क्षेत्र में भगवान महावीर की जो देन है, वह तो सर्वथा क्रान्तिकारी देन कही जायगी। समत्व की चर्चा मनुष्य समाज में प्रथम बार उनके द्वारा हुई, व्यवहार में समता का जीवन मनुष्यों को प्रथम बार उनके द्वारा प्राप्त हुआ । उन्होंने शूद्र और नारी समाज के लिये उत्थान का मार्ग प्रशस्त कर दिया । चिर-पतितों और की आशंका पवित्र वित्रों के लिये नहीं रह गई । नारी को केवल भोग्य या दासी बनाकर नारकीय जीवन बिताने
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की आज्ञा देने वालों को अपनी करता पर पश्चाताप होने लगा आज अलभ्य नहीं रह गया, हम उसके
पृष्ठों में समाज का जो
भगवान महावीर के जन्म से पूर्व का इतिहास हृदय द्रावक रूप पाते हैं, उसके स्मरण मात्रसे
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ख-३
उपेक्षितों के जीवन में प्रथम बार जागति आई । युगान्तर स्पष्ट दशित होने लगा। शूद्रों की छाया से अपवित्र होने रोमांच हो आता है। बाजार में खुले आम मातृजाति का क्रय-विक्रय होता था, उन्हें पशुओं की तरह खरीदने के लिये सड़कों पर बोलियां लगाई जाती थीं। इतना ही क्यों, उन दास-दासियों की मृत्यु स्वामी की मारों से हो जाती थी तो उसकी सुनवाई के लिये कहीं स्थान नहीं था। केसी विडम्बना थी कि उनके हाथों भिक्षा ग्रहण करने में भिक्षुक भी अपना अपमान मानते थे। भगवान महावीर ने प्रथम बार इस जघन्य-वृत्ति के लिये चेत वनी दी, सृजनात्मक विप्लवी घोषणा की। इतिहास के पृष्ठों में चन्दनबाला की कष्ट-कथा तत्कालीन मनुष्य समाज की दानवी प्रवृत्ति, सामाजिक विकृति, दोनों को ही उजागर करने वाली कथा है। महावीर ने उसे यंत्रणापूर्ण जीवन से उबार कर विराट साध्वीसंघ के प्रमुखपद की पीठिका पर समासीन करने की भूमिका निबाही। उनके धर्म-संघ में वह श्रेष्ठ मानव आचारों की प्रवक्ता बनो। पवित्र शूद्र कहलाने वाला, जीवन भर दास कर्म करता हुआ मृत्यु अपनाने वाला, अभिशापित वर्ग, समाज में श्रद्धा-भाजन ही नहीं, मुक्ति-लाभी भगवत्स्वरूप अर्हन्त भी स्वीकृत हुआ। समाज की विषमता दूर करने में भगवान महावीर को हम अन्य सभी महापुरुषों से आगे पाते हैं। ज्ञात इतिहास में उनके वैशिष्ट्य की तुलना सहज ही किसी दूसरे से नहीं की जा सकती।
रही राजनीति-क्षेत्र की बात, हम देखते हैं कि राजनीति के क्षेत्र में भी भगवान महावीर की उपलब्धि किसी प्रकार कम नहीं कहीं जा सकती। जिस संक्रान्तिकाल में उनका जन्म हुआ था, वह राजनीति का सर्वथा ह्रासकाल था। भारत ने प्रजातत्र का नवीन प्रयोग कर जो कीति प्राप्त की थी, उस प्रजातंत्र का ढांचामात्र शेष रह गया था। प्रजातंत्र में भी अधिनायकवाद का उभरता प्रचण्ड नाग जनता का रक्तपान करने लगा था। प्रजातंत्र की जन्मभूमि वैशाली में जननायक जन से हटकर केवल नायक के आसन पर आसीन हो चुके थे। और तो क्या, राजा और राजा से ऊपर महाराजा का उच्च आसन भी रिक्त नहीं था, तत्कालीन प्रजातन्त्रों में। इतिहास महाराजा चेटक को हमारे सामने सर्वाधिकार प्राप्त महाराजा के रूप में ही उपस्थित करता है। स्वयं भगवान महावीर का जन्म ज्ञात-गणतंत्र के वैभवशाली एक सामान्य राजकुल में हुआ था। हम तो कहेंगे, प्रजातंत्र की अनेक अलोकतंत्रीय खामियों ने, नित्य के होने वाले उत्पीड़नों ने, उन्हें तथाकथित प्रजातंत्री जननायकों तथा एकतंत्री निरंकुश राजाओं के विरुद्ध बोलने को विवश कर दिया था। यहाँ तक कि उन्होंने अपने भिक्षुओं को राजकीय अन्नग्रहण का भी निषेध कर दिया था। उन्होंने प्रथम बार आने वाले कठिन भविष्य की ओर उन जननायकों का ध्यान ही आकृष्ट नहीं कराया, उन्हें सही रूप में जन-प्रतिनिधि के योग्य कर्तव्य-पालन की चेतावनी भी दी। महावीर ने कहा था 'कोई कैसा ही महान क्यों न हो, महा आरम्भ और महा परिग्रह नरक के द्वार हैं । समग्रभाव से प्रजा के प्रति अनुकम्पाशील होना ही राजा का सही अर्थ में राजत्व है।' 'और कुछ उच्चतर नहीं कर सकते हो तो आर्यकर्म तो करो।' राजनीति के क्षेत्र में यह कितना महान उद्बोधन था। कौन कह सकता हैं कि वैशालीजनतन्त्र का विघटन भगवान महावीर के उक्त साम्यधर्म को यथारूप ग्रहण करने के अभाव में नहीं हुआ? यदि वैशाली के जननायक अपने को साम्य भूमि पर उतार पाते, बिखरे जनगण को समधर्मी रूप में अपनाने का साहस करते तो वैशाली का जनशासन कभी विघटित नहीं होता। मगध की राजशक्ति वैशाली को चिरकाल में भी ध्वस्त नहीं कर पाती।
इतिहास का वातायन एक-एक अन्वेषी हृदय के लिये खुला हुआ है-हम जितनी बार चाहें, भगवान महावीर के जीवन पर दृष्टिपात कर सकते हैं। हमें उनके जीवन एवं सन्देशों से किसी भी समस्या का समुचित समाधान आज भी प्राप्त हो सकता हैं।
जाती है जिस ओर दृष्टि, बस उसी ओर आकर्षण, करता अग जग को अनुप्राणित जग-नायक का जीवन ।
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महावीर, कितने ज्ञात
कितने अज्ञात
-श्री जमना लाल जैन
भगवान महावीर के विषय में कुछ भी लिखना बड़ा मुश्किल है। वह अत्यन्त अदभुत व्यक्तित्व था। उसे व्यक्तित्व कहना ही अल्पता है। वे व्यक्तित्व से ऊपर उठ गये थे। पकड़ में आने जैसा उनका व्यक्तित्व था ही नहीं। उन्हें कहाँ से पकड़ा जाय, कहाँ से ग्रहण किया जाय, यह तय करना उन लोगों के लिये भी कठिन था जो उनके समय में भी जीवित थे, उनके आस पास उपस्थित थे, और जो समग्र रूप से उनकी वाणी को झेलने में तत्पर थे । बरसों तक महावीर का पदानुसरण करने के उपरान्त भी लोग भटक गये । बुद्ध जैसे ज्ञानी और श्रेणिक जैसे नृपति भी उस गहरे और अत्यन्त व्यक्तित्व की थाह न पा सके जिसे महावीर जी रहे थे और फैला रहे थे।
महावीर का आना हमारे लिये हजारों-हजार वर्षों के लिये एक घटना हो गई है। हम इस घटना पर गर्व करते हैं और कहते हैं कि वह न 'भूतो न भविष्यति' है; लेकिन महावीर के लिये यह घटना अगण्य थी, न कुछ थी। वे घटनाओं की श्रृंखला से उत्तीर्ण हो चुके थे । संसार में लिप्त आँखें घटनाओं की कीमत पर व्यक्तित्व की महत्ता का मूल्यांकन करती हैं, तुला पर व्यक्तित्व को तोलती हैं। हम घटनाओं द्वारा व्यक्तित्व को आंकने के अभ्यस्त हो गये हैं। महावीर ने अपने को घटित होने से इन्कार कर दिया, शरीर के साथ, शरीर सम्बन्धों के साथ; संपार के बीच जो कुछ होता है, वह सब भरमाने वाला है। शरीर अगर राख होने वाला है तो उससे संस्पशित समस्त घटनाएं भी राख होने वाली हैं। इसका कोई शाश्वत मूल्य नहीं है । अगर महावीर के जीवन में घटनाए' नहीं मिलती हैं तो हम परेशान होते हैं, चितित होते हैं, बेचैन होते हैं, और अपने को दीन-दरिद्र समझते हैं।
सचमुच अव्यक्त चेतना में और ऊर्जा में जीने वाले, आनन्दलोक में, प्रकाश में विचरण करने वाले को समझना और अपने जीवन में उतारना अत्यन्त कठिन है। महावीर यों सबको सुलभ थे, सबके समक्ष समुपस्थित, और आज भी वे प्रतिक्षण प्रकाशमान हैं, लेकिन हमारी बाह्य आँखें, बाहर भटकने वाली इन्द्रियाँ उनको देख नहीं पा रही हैं, क्योंकि हम बाह्यता पर लुब्ध है, विमोहित हैं। हमारी निष्ठा की परिधि वस्तुगत, पदार्थगत और घटनागत है । व्यापक-विराट अव्यक्त दर्शन का अभ्यास हमारी इन्द्रियों को रहा ही नहीं।
हम घटनाओं के द्वारा परमता को, आत्मत्व को उपलब्ध करने के आकांक्षी हैं, जबकि महावीर आत्मतत्व को उपलब्ध होकर घटनाओं को तटस्थ भाव से देखते हैं और उनमें प्रविष्ट हो जाते हैं । हम कर्म और क्रिया द्वारा अहिंसक बनने की प्रक्रिया अपनाते हैं और हिसाब लगाते हैं कि इतना कुछ घटित हो जाने पर मुक्ति उपलब्ध होगी,
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परन्तु महावीर विलक्षण हैं। वे अहिंसक पहले से हैं और उसी के आलोक में संसृप्ति की घटनाओं के साक्षी बनते हैं । अहिंसा उनकी आत्मा थी, हमारे लिए वह साध्य है । हम घटना के द्वारा, क्रिया के द्वारा, व्रत के द्वारा, चर्या के द्वारा अहिंसा की साधना में संलग्न हैं। यह प्रक्रिया अपने में द्वैतपरक है, हिंसक है, यह बात महावीर ही जान सकते थे, क्योंकि उनकी चेतनता अद्वैत को, एकरूपता की समग्रता को, उपलब्ध हो गई थी।
हम निषेध की, अस्वीकार की, छोड़ने की, पलायन की भाषा में और चर्या में सोचते हैं। हम इतने बाह्य और गणितप्रिय हैं कि आंकडों से और वस्तुगत परिधि से परे देख नहीं पाते हैं। महावीर निषेध की. की, ग्रहण की प्रक्रिया में विचरते थे। उनके लिए ग्रहण में भी त्याग था और त्याग में भी ग्रहण। उनके लिये त्याग और ग्रहण में कोई अन्तर नहीं रह गया था।
महावीर ने जो कुछ छोड़ा, वह छोड़ा नहीं था, वह आपोआप छूट गया था, क्योंकि उन्हें उत्कृष्ट या विराट उपलब्ध हो गया था। निकृष्ट को छूटना ही था। नसैनी का जब ऊपरी डण्डा हाथ आ जाता है तो नीचे का डण्डा अपने आप छूट जाता है। उसे छोड़ने का प्रयास नहीं करना पड़ता है। जब बढ़िया वस्तु हाथ लगती है तो घटिया अपने आप छूट जाती हैं। महावीर ने क्या-क्या छोड़ा था, यह शायद वे स्वयं न बता सके। पर हम बता सकते हैं, कि हमने क्या-क्या छोड़ा, क्योंकि हम छोड़कर प्राप्त करने की आशा या अभीप्सा में तन को गलाते हैं। महावीर इतने आनन्दोपलब्ध थे, ज्ञान चेतना से भरे थे, कि बाहर का अपने आप छुट गया।
सत्य और मिथ्या को जांचने की कसौटी बाह्यता कभी नहीं है। बाहर से हिंसक दीखने वाली घटना में भी परम अहिंसा हो सकती है और अहिंसक दीखने वाली घटना भी घोर हिंसामय हो सकती है। इसलिए महावीर घटना से अधिक उसकी आंतरिक भूमिका को, उसके रहस्य को, महत्व देते थे। इसी अर्थ में वे ज्ञाता-दृष्टा थे और इसी के लिये अनेकान्त की कसौटी उन्होंने प्रस्तुत की। किताबी कानुन या संहिता ऐसे लोगों के लिये बेमानी होती है । महावीर जैसे दृष्टा-ज्ञाता ही जान सकते हैं कि बाह्यतः दीखने वाली अहिंसा के भीतर कितना आग्रह, कितना अहंकार और दर्प है।
महावीर सहज नग्न थे, सहज विहारी थे, वीतरागी थे, लेकिन उनकी छवि को भी हमारी आँखें बिना रागद्वेष के नहीं निहार सकतीं । उनकी सर्वांगसुन्दर सहज मूर्ति में भी हम 'अश्लीलता' को ढाकने का बाल-प्रयास करते हैं। अपनी भोगाकांक्षा कायासक्ति की तृप्ति भी हम प्रतिकार के द्वारा करना चाहते हैं।
जो ग्रन्थ और ग्रन्थियों से सर्वथा मुक्त थे, उनको हम ग्रन्थों में खोजना चाहते हैं और ग्रन्यों में आबद्ध करना चाहते हैं, क्योंकि हम स्वयं प्रमाण बनने के बदले ग्रन्थ प्रामाण्य में विश्वास करते हैं। जिन्हें स्वयं का विश्वास नहीं होता, जिन्हें अपने पथ का ज्ञान नहीं होता, वे ही ग्रन्थ और पन्थ में उलझते हैं । ग्रन्यों से हम अपनी चर्या तय करते हैं। ग्रन्थ के मरे हुए सत्य को हम अपना जीवन धर्म बना लेते हैं। महावीर के पीछे ग्रन्थों का ढेर लगा कर हम महावीर के व्यक्तित्व को विस्मृत कर गये हैं। उनका जीवन्त, तेजस्वी व्यक्तित्व ग्रन्थों में छिप गया है। अब हम उनकी देह के साथ अपने को एकरूप करने के प्रयास में संलग्न हैं । परिणामतः राजनीति और अर्थ नीति हम पर हावी है । यह महावीर ही जानते थे कि ग्रन्थों का सत्य सजीव नहीं होता, क्योंकि सत्य निरन्तर नया होता है और वह सर्वथा वर्तमान में ही रहता है-अतीत तो स्मृति मात्र होता है।
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अहिंसा के मूर्तस्वरूप
-श्री रामनारायण उपाध्याय
महावीर स्वामी का सम्पूर्ण जीवन अहिंसा की एक सतत साधना थी। यदि आप अहिंसा को मूर्त स्वरूप में देखना चाहें, तो महावीर स्वामी का स्मरण कीजिये। महावीर अजातशत्र थे। जो उनका विचार मानते थे, जो न्यायी थे और जो अन्यायी थे, वे उनको सबको समान रूप से प्यार करने वाले महामानव थे। उनकी आँखों में ऐसी करुणा थी कि एक बार जब वे जंगलों में से जा रहे थे, एक महाभयंकर विषधर उन्हें काटने दौड़ा। महावीर स्वामी ने उसकी आँखों में आँख डालकर कहा-'चण्ड कौशिक सोच तू यह क्या कर रहा है ?' और वह महाभयंकर विषधर लौट गया था।
महावीर स्वामी वस्त्र नहीं पहनते थे । क्या उन्होंने अपने वस्त्रों को उतारकर त्यागने का अभिनय किया था? वे तो इतने विदेह थे, इतने वीतराग थे कि अपने साधना-काल में जब जंगलों में भटक रहे थे, तो वृक्षों से उलझ कर उनके वस्त्र फटते चले गये और जब वे फट ही गये तो उन्हें पुनः पहनने की सुध किसे थी? जैसे सांप अपनी केंचल को सहज भाव से छोड़ देता है, वैसे ही वस्त्र उनसे सहज भाव से छूट गये थे।
उनके जैसे तपस्या और ज्ञान की साधना करने वाले विरले ही मिलेंगे। अट्ठाइस वर्ष की अवस्था में जब उनके माता-पिता का देहान्त हुआ, तो उन्हें लगा कि "यह शरीर तो पानी के बुलबुले की तरह क्षणभंगुर है। अतएव इसके प्रति आसक्ति छोड़ने में तनिक भी आलस्य नहीं करना चाहिए।" तीस वर्ष की अवस्था में उन्होंने गह त्याग की घोषणा कर दी । अपनी समस्त सम्पत्ति दीन-दुखियों में वितरित करके, गुरुजनों का आशीर्वाद लेकर एक पालकी में बैठकर वन को ओर चल दिये।
वहाँ पहुँचकर महावीर पालकी से उतरे और उन्होंने कहा, "आप लोगों के स्नेह ने मेरे हृदय को जीत लिया है। मैं किसी स्वर्ग की कामना से, स्नेह की कमी से, क्रोध की अधिकता से, या कर्तव्यों की उपेक्षा से गहत्याग नहीं कर रहा है। असल में आत्मविजय ही मेरा लक्ष्य है। मैं अपने शरीर रूपी नौका के सहारे ही भव. सागर को पार करना चाहता हूँ।" ऐसा कहकर उन्होंने अपने समस्त आभूषण उतार डाले और अपनी सहसशक्ति की परीक्षा लेते हुए अपने सुन्दर धुंधराले बालों को पांच मुट्टियों में कसकर उखाड़ डाला। फिर समस्त सिद्धों को प्रणाम करते हुए उन्होंने कहा-"मैं आज से जीवन पर्यन्त समतावृत्ति से रहने का व्रत लेता है", ऐसा कहकर वे ध्यानस्थ हो गये।
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२०
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उसके बाद उन्हें लगा कि प्रश्न केवल आत्मविजय का ही नहीं है, मुझे उन कारणों का भी पता लगाना है, जो संसार में संघर्ष के लिये उत्तरदायी हैं और जिनकी वजह से आत्म-उन्नति का मार्ग अवरुद्ध है। उन्होंने अनुभव किया कि इसके लिए ध्यान, चिन्तन, मनन, अनुभूति और तपस्या का मार्म अपनाना होगा। वे उठकर परीक्षण के लिए चल दिये। उनके व्यक्तित्व को देखकर ऐसा लगता था, मानों साक्षात् सूर्य पृथ्वी पर चल रहा है।
वे पूरे साढ़े बारह वर्ष तक परिव्राजक की तरह घूमते रहे। इसी बीच उन्होंने केवल ३४९ दिन अन्न-जल ग्रहण किया। कर-तल भिक्षा, तरुतल वास' की वृत्ति को अपनाते हुए उन्होंने समस्त देश की परिक्रमा की। इस बीच उन्हें क्या-क्या नहीं सहना पड़ा? उनके अवधूत की तरह नग्न शरीर और मलिन देह को देखकर लोगो ने उन्हें गालियाँ दी, पत्थर मारे, ध्यानावस्था में उनको नोचा और उनके कानों में लकड़ी तक ठोंक दी। सरकारी कर्मचारियों ने भी उन्हें पकड़कर तरह-तरह की यातनाएँ दीं। लेकिन वे सबको समान रूप से प्यार करते हुए अपनी साधना में लीन रहे। पूरे साढ़े बारह वर्षों के बाद उन्हें रिजुवालिका नदी के तट पर शाल्मलि वृक्ष के नीचे ज्ञान की प्राप्ति हई। उन्हें लगा कि उनका स्वप्न विशाल दृष्टि बनकर आलोकित हो उठा है। अनन्त ज्ञान उनके अन्तःकरण में हिलोरे ले रहा है। अनन्त वीर्य उनके दुर्बल शरीर में समा गया है और असीम सूख की अनभूति से उनकी आत्मा अभिभूत हो उठी है। अब वे श्रमण महावीर न होकर "तीर्थकर महावीर" थे, साधक न होकर, सर्वज्ञ थे।
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महापुरुष महावीर
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-डा० सर्वपल्ली राधाकृष्णन
मानव-जाति के उन महापुरुषों में से जिन्होंने अपना ध्यान बाह्य प्रकृति से हटाकर मनुष्य की आत्मा के अध्ययन पर केन्द्रित किया, एक हैं महावीर। उन्हें 'जिन' अर्थात विजेता कहा गया है। उन्होंने राज्य और साम्राज्य नहीं जीते, अपितु आत्मा को जीता, सो उन्हें महावीर कहा गया है। सांसारिक युद्धों का नहीं, अपितु
। संग्रामों का महावीर । तप, संयम, आत्मशुद्धि और विवेक की अनवरत प्रक्रिया से उन्होंने अपना उत्थान करके दिव्यपुरुष का पद प्राप्त कर लिया। उनका उदाहरण हमें भी आत्मविजय के उस आदर्श का अनुसरण करने की प्रेरणा देता है।
जो संयम द्वारा, निष्कलंक जीवन द्वारा इस स्थिति को प्राप्त कर ले, वह परमेष्ठी है। जो पूर्ण मुक्ति प्राप्त कर ले वह अहंत् है । वह पुनर्जन्म की संभावना से, काल के प्रभाव से पूर्णतया मुक्त है। महावीर के रूप में हमारे समक्ष ऐसे व्यक्ति का उदाहरण है जो सांसारिक वस्तुओं को त्याग देता है, जो भौतिक बन्धनों में नहीं फंसता, अपितु जो मानव-आत्मा की आंतरिक महिमा को अधिगत कर लेता है।
संयम की आवश्यकता, अहिंसा और दूसरे के दृष्टिकोण एवं विचार के प्रति सहिष्णता और समझ का भाव, ये उन शिक्षाओं में से कुछ हैं, जो महावीर के जीवन से हम ले सकते हैं। यदि इन चीजों को हम स्मरण रक्खें और हृदय में धारण करें तो हम महावीर के प्रति अपने महान ऋण का छोटा-सा अंश चुका रहे होंगे।
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महावीर की निष्पक्षता का
एक प्रसंग
परम्परोपपही जीवानाम
-श्री अगरचंद नाहटा, बीकानेर
भगवान महावीर भारत की ही नहीं, विश्व की एक महान विभूति थे। उनके जैसी कठोर और महान साधना करने वाला विश्व में और कोई दूसरा व्यक्ति इतिहास के पृष्ठों में खोजने पर भी नहीं मिलेगा। उनके साढ़े बारह वर्षों की साधना का सबसे प्राचीन विवरण जो आचारांग सूत्र के प्रथम श्रुत-स्कन्ध के नवमें अध्ययन में पाया जाता है, उसको पढ़कर रोमांच हो जाता है, साधना की चरमोत्कर्षता स्पष्ट हो जाती है। ध्यान में उनकी
ता बड़ी अद्भुत थी। वे महान तपस्वी थे । जहाँ तक पूर्ण ज्ञान की सिद्धि प्राप्त नहीं की, वहाँ तक वे प्रायः मौन ही रहे, वीतरागता जब पूर्ण रूप से प्राप्त हो गयी तभी उन्होंने उपदेश देना प्रारम्भ किया था।
उनके प्रथम उपदेश में इन्द्रभूति गौतम आदि ग्यारह गणधर प्रतिबद्ध हुये। साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविका रूप चविध संघ की स्थापना हई। तीस वर्षों तक उन्होंने निरन्तर धर्मोपदेश देकर लाखों व्यक्तियों माग में अग्रसर किया। उनके प्रमुख श्रावकों में आनन्द गाथापति बहुत ही उल्लेखनीय है, जिसने उनसे बा रूप श्रावक धर्म स्वीकार करके और अन्त में ग्यारह-श्रावक प्रतिमाओं का वहन करके अवधि ज्ञान नामक एक विशिष्ट ज्ञान की उपलब्धि की । अन्त में उसने समाधि मरण के लिये संलेखना स्वीकार की। संयोगवश उसी समय वहाँ श्रमण भगवान महावीर भी पधारे, उनके दर्शन और उपदेशों से अनेक लोग प्रभावित हए ।
भगवान महावीर के प्रथम और प्रधान शिष्य गणधर गौतम भी अपने दो उपवासों के पारणा के लिये तीसरे पहर में गोचरी के लिये निकले और वाणिज्यग्राम में उच्च, नीच और मध्यम कुलों में भिक्षा ग्रहण की। उसके बाद जब वे कुल्लाक सन्निवेश के निकट पहंचे तब बहुत से लोगों को श्रमणोपासक आनन्द ने पोषधशाला में मरणान्तिक संलेखना की है, इस विषय में वार्तालाप करते सुना। तब गौतम स्वामी को विचार हुआ कि मैं भी आनन्द श्रावक को देख आऊँ।
वह आन्नद श्रावक की पौषधशाला मै पहुंचे तो आनन्द उन्हें देखकर बहुत ही प्रसन्न हआ और वन्दना नमस्कार करके बोला कि उदार तप आदि से अब मेरे शरीर में इतनी शक्तिं नही रही है कि मैं आप के पास में आकर चरणों पर मस्तक रखते हुए वन्दना कर सकें। यह जानकर गौतम स्वामी जहाँ आनन्द संस्तारक की शैया में स्थित था वहाँ पहुंचे तो आनन्द श्रावक ने उनक पैरो में तीन बार मस्तक झुका के नमस्कार किया। तदनन्तर गौतम स्वामी को उसने पूछा कि भगवन् ? क्या गृहस्थ को अवधि श्रमण विशिष्ट ज्ञान प्राप्त हो सकता है ?
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२२ ]
ख - ३
इसके उत्तर में गौतम स्वामी ने कहा कि हाँ हो सकता है। यह सुनकर आनन्द ने उनसे कहा कि भगवान आपकी कृपा से मैं चारों दिशाओं और ऊपर नीचे के अमुक क्षेत्र तक जानता और देखता हूँ। यह सुनकर गौतम स्वामी ने अनुपयोग से ऐसा कह दिया कि है आनन्द ! तुम जिसने उच्च स्तर के ज्ञान की कह रहे हो वह गृहस्थों के लिए संभव नहीं, इसलिए इस कथन की आलोचना और दण्ड ग्रहण करो, क्योंकि तुमने अतिशयोक्तिपूर्ण बात कही है ।
यह सुनकर आनन्द बोला कि भगवन् सत्य, यथार्थ और सद्भूत भाव की आलोचना करना, यावत् दण्ड ग्रहण करना, क्या जिनधर्म में मान्य है ?' गौतम स्वामी ने कहा कि ऐसा तो नहीं है। तब दृढ़ता के साथ आनन्द बोला तो फिर भगवान् आपने जो मेरी बात को अतिशयोक्तिपूर्ण बतलाई है, उसके लिए आप ही आलोचना और दण्ड लें, क्योंकि मैं तो अपने अवधिज्ञान से जितने क्षेत्र तक जानता और देखता हू, उतनी पूरी वही सत्य बात आपसे कही है, उसमें तनिक भी अतिशयोक्ति नहीं है ।
जब गौतम स्वामी ने आनन्द का दृढ़तापूर्वक ऐसा कहना सुना तो उनके मन में विचार हो आया कि क्या मैंने ही अनुचित बात (अनुपयोग से) कह दी है। इसका निश्चय करने के लिए वे भगवान् महावीर के पास पहुंचे और उन्हें वन्दना नमस्कार करके बोले कि भगवन् मैं भिक्षा ग्रहण करके श्रमणोपासक आनन्द के पास पहुँचा, उसने अपने अभिज्ञान की बात कही, तब मैंने इतने उच्च स्तर का अवविज्ञान गृहस्थ को नहीं होता, कह दिया क्या इस कथन के लिए मैं आलोचना और दण्ड का भागी हूँ ? या मानन्द श्रावक है ?
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भगवान महावीर को वीतरागता और निष्पक्षता का यहाँ पूर्ण परिचय मिल जाता है जबकि उन्होंने अपने प्रधान शिष्य गौतम का तनिक भी पक्षपात न करते हुए यह स्पष्ट रूप से कह दिया कि 'हे गौतम! इस विषय में तो तुम्हें ही आलोचना और दण्ड ग्रहण करना चाहिए, आनन्द धावक ने तो जैसा और जितना देखा जाना उतना सत्य वचन कहा है। इसलिए तुमने जो गलती की उसके लिए आनन्द श्रावक से तुम्हें क्षमा मांगनी चाहिए।'
भगवान महावीर ने गौतम जैसे अपने प्रधान शिष्य की गलती को बतला कर अपनी निष्पक्षता का जो परिचय दिया है वह बहुत ही उल्लेखनीय महत्वपूर्ण और अनुकरणीय है। पूर्ण वीतरागता के बिना ऐसा कहना सम्भव नहीं है। उन्होंने केवलज्ञान और केवलदर्शन में सारे विश्व की कालिक वस्तुओं का स्वरूप जैसा भी देखाजाना वही निरूपण किया। यह उनके वचन की प्रमाणिकता का अनुपम उदाहरण है ।
1
गौतम स्वामी भी भगवान महावीर के प्रति कितने श्रद्धाशील थे, और कर्मबन्ध और मोह भ्रमण से कितने भीरु तथा सरल और निराभिमानी थे कि भगवान महावीर द्वारा अपनी गलती मालूम होने पर तत्काल उन्होंने कहा—‘भगवन् ! आपका कथन सत्य है । मैं आनन्द श्रावक से क्षमा मांगने के लिए जा रहा हूँ । आलोचना और दण्टग्रहण के लिए उद्यत हूँ यह कहते हुए वे तत्काल आनन्द धावक के पास पहुँचे और अनुपयोग से जो अयोग्य कह दिया था, उसके लिए आनन्द से क्षमा मांगी।
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ज्ञातपुत्र की अज्ञात
साधना
सुकरात ने उत्तर दिया, "मेरे लिये शांति मेरा धर्म और दर्शन है। यह बाहर नहीं अपितु मेरे अन्दर है।" आचारांग सूत्र में कहा गया है, "सुत्ता अमुणी सया मुणिणो जागरंति" अर्थात अनि सोते और मुनि सदा
जागते हैं।
कबीरदास जी ने कहा है
सुविधा सब संसार, खावे अरू सोवे। दुखिया दास कबीर, जागे अरू रोवं ॥
- श्री धनराज शामसुखा
शास्त्रों के अवलोकन से
उपधान-श्रुत
ज्ञात होता है कि महावीर इसी स्थिति में सदा निमग्न रहा करते थे । उपधान में उनकी कठोर साधना का वर्णन है। लाढ़ देश में जब वे बच्चभूमि और सुम्मभूमि नामक स्थानों में विहार कर रहे थे तो उन्हें अनेक उपसर्ग सहन करने पड़े। वहाँ के निवासी उन्हें मारते और दांतों से काट लेते । आहार भी उन्हें रूखा सूखा ही मिलता । वहाँ कुत्ते उन्हें बहुत कष्ट देते। लोग डंडे, मुष्टि, भाले की नोक, मिट्टी के ठेले अथवा कंकड़ पत्थरों से मारते और बहुत शोर मचाते कितनी ही बार उनके शरीर का मांस नोच लेते और अनेक प्रकार से कष्ट देते वे उन पर धूल बरसाते ऊपर उछाल कर नीचे पटक देते। लेकिन शरीर
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की ममता छोड़कर सहिष्णु महावीर अपने लक्ष्य के प्रति अचल रहते । ऐसी स्थिति योग निष्णात साधकों के जीवन में पायी जाती है। बहिर्मुख संसार के वातावरण से पूर्णतः असंपृक्त रहकर साधक अन्तर्मुख होकर आन्तरिक जगत में विचरण करता रहता है। भगवान महावीर दधीचि की भाँति उस कोटि में पहुंच चुके थे जहाँ शरीर का परित्याग करने की नौबत आए तो भी मुंह से उफ तक न निकले। महावीर विभिन्न आसनों ओर ध्यान की क्रियाओं की साधना करते थे, यह शास्त्रसम्मत तथ्य है। जैसा कि - "मनोनुशसानम्" की भूमिका में मुनि नयमल जी ने कहा है, "महावीर ने आसन को तप का एक प्रकार बताया है। उनकी भाषा में आसन का नाम कायक्लेश है। आसन के द्वारा शरीर को कुछ कष्ट होता है और उस कष्ट से मानसिक धयं और सहिष्णुता का विकास होता है ।" हठयोग प्रदीपिका में कहा गया है कि स्थिर होने के लिये आसनों का अभ्यास करना चाहिए - "कुर्यात्तदासन स्वयं मारोग्यं चांगला स्त्रनम" यह स्थिरता ही ध्यान की जननी है।
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ख - ३
२४ ]
ज्ञातपुत्र महावीर की शरीर के प्रति निर्मोह भावना बड़ी आश्चर्यमयी थी। उन्हें शीत ताप उद्विग्न नहीं करता था, न वे रोग पर औषध करते । आँख में रज कण पड़ने पर उसे निकालने की इच्छा न करते, खुजली आने पर जलाने का यत्न न करते इस प्रकार देह के ममत्व से अत्यन्त ऊपर उठकर सदेह होते हुए भी विदेहवत् प्रतीत होते थे। यह योग की उच्च स्थिति की परिचायिका है। इस दशा को योग में 'जीवन-मृतक कहा गया है। इस स्थिति में पहुँचकर साधक जहाँ अपने पहले जीवन ( दीक्षा-पूर्व) की दृष्टि से 'मुक्तक' बन जाता है वहाँ इस नवीन दृष्टि से अमरत्व भी पा लेता है। जीवन मृतक वह जीवन्मुक्त पुरुष है जो सदा किसी ब्राह्मी स्थिति में लीन रहा करता है।
महावीर स्वामी को इसी प्रकार एकाग्रचित्त से साधना करने, स्वयं को अनन्त शक्ति का स्रोत मानने, दत्तचित्त होकर संग्राम में जुट जाने और अनेकानेक बाधाओं उपसर्गों और संझावातों के आने पर भी अचल, अडिग, अटल रहने पर ही सत्य की प्राप्ति हुई थी।
दीर्घ तपस्वी महावीर ने एक बार अपनी अहिंसावृत्ति की पूरी साधना का ऐसा हो परिचय दिया । जब वे जंगल में ध्यानस्थ खड़े थे, एक प्रचण्ड विषधर ने उन्हें डस लिया । उस समय वे न केवल ध्यान में ही अचल रहे, बल्कि उन्होंने मंत्री भावना का उस विषधर पर प्रयोग किया, जिससे वह "अहिंसा प्रतिष्ठायां तत् संनिधी वैर त्याग", इस योगसूत्र का जीवित उदाहरण बन गया ।
महावीर की विशिष्टता शास्त्रों में निम्न उपायों से बतायी गई है :
(१) कांस्य पात्र की तरह निर्लेप । (२) शंख की तरह निरंजन राग-रहित । (३) जीव की तरह अप्रतिहत गति । ( ४ ) गगन की तरह आलम्बन रहित (५) वायु की तरह अप्रतिबद्ध ( ६ ) शरद ऋतु के जल की तरह निर्मल (७) सागर के समान गम्भीर (८) कमलपत्र के समान निलॅप । ( ९ ) कच्छप के समान जितेन्द्रिय । (१०) गैंडे के समान राग-द्वेष से रहित, एकाकी । ( ११ ) पक्षी की तरह अनियत बिहारी । ( १२ ) आरंड की तरह अप्रमत्त । (१३) गजेन्द्र के समान शूर (१४) सिंह के समान दुईर्ष । ( १५ ) वज्र के समान अडिग (१६) सूर्य के समान तेजस्वी, आदि ।
महावीर ने कहा है कि
सुक्कभूले जहा स्वले, एवं कम्मा व रोहंति
सिचपाने ण रोहति । मोहणिजे वयं गए ||
जिस तरह मूल सूख जाने से सींचने पर भी वृक्ष लहलहाता, हरा-भरा नहीं होता है, इसी तरह से मोहकर्म के क्षय हो जाने पर पुनः कर्म उत्पन्न नहीं होते ।
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*CIALA
महावीर और मूक जगत
-आचार्य रजनीश
महावीर की चेष्टा रही है कि पौधे, पशु-पक्षी, देवी-देवता, सब तक, जीवन के जितने तल हैं उन सब तक, उन्हें जो मिला है उसकी खबरें पहुंचे। महावीर के बाद ऐसी कोशिश करने वाला दूसरा नहीं हुआ। यूरोप में फ्रांसिस ने थोडी कोशिश की है, पशु-पक्षियों से बातचीत करने की। अभी-अभी श्रीअरविन्द ने कोशिश की है पदार्थ तत्व पर चेतना के स्पन्दन पहुँचाने की। लेकिन महावीर जैसा प्रयास न पहले कभी हुआ और न बाद में हुआ । वृक्षों, पत्थरों से बातचीत करने के लिये उसी पल जड़ अवस्था, उसी पल मूक अवस्था में उतरना पड़ेगा। रामकृष्ण परमहंस ऐसी जड़ अवस्था में उतरते रहे हैं, मगर महावीर ने इस दिशा में मनुष्य जाति के इतिहास में सबसे अधिक गहरे प्रयोग किये, और महावीर की अहिंसा भी इसी मूक, जड़ पदार्थ के तादात्म्य से निकली है। मेरी समझ में यह है कि महावीर ने जितने पशुओं और जितने पौधों की आत्माओं को विकसित किया है, उतना इस जगत में किसी दूसरे ने नहीं किया। यानी आज पृथ्वी पर जो मनुष्य हैं, उनमें से बहुत मनुष्य सिर्फ इसलिए मनुष्य हैं कि उनको पशु योनि या पौधों की योनि में या पत्थर होने में महावीर ने संदेश भेजे थे, और उन्हें बुलवा भेजा था।
इतना ही नहीं परमाणुओं तक में भी महावीर ने खबर पहुंचाने की कोशिश की है। इन प्रयोगों में वे इतने व्यस्त रहे कि चार-चार, पाँच-पांच महीनों तक शरीर मृतावस्था जैसी जड़ हालत में रहा और वे निराहार रहे । मगर जिस परमाणु जगत को उन्होंने सत्य का संदेश भेजा, वह भी प्रत्युत्तर में उन्हें कुछ न कुछ देते ही होंगे। जो मनुष्य सारे परमाणु जगत से सम्बन्ध बनाये हुए है, उसे इसी परमाणु जगत से अगर कुछ शारीरिक शक्ति मिल रही हो तो कोई आश्चर्य नहीं। यही उनके भोजन की चिन्ता न करने का सूत्र था।
आज भी यूरोप में एक ऐसी महिला जिन्दा है, जिसने ३० साल से भोजन नहीं किया और पूरी तरह स्वस्थ एवं सुन्दर है । बंगाल में अभी एक महिला की मृत्यु हुई है, उसने ४५ वर्ष तक भोजन नहीं किया, फिर भी स्वस्थ और सुखी थी। वैज्ञानिक कारण ढूंढने में लगे हैं । मुझे ऐसा लगता है कि यह सूक्ष्म परमाणु जगत ही उन्हें भोजन देता है।
प्रकृति भी महावीर के प्रतिकूल होने की कोशिश नहीं करती, बल्कि अनुकूल होने की कोशिश करती है, क्योंकि जिसने प्रकृति से इतना अधिक प्रेम किया हो, वह प्रकृति भी कैसे प्रतिकूल होने की कोशिश करेगी।
महावीर ने देवताओं तक भी संदेश भेजे हैं। उनकी १२ वर्ष की पूरी साधना अभिव्यक्ति सम्प्रेषणा की साधना है शब्दों के बिना भी संदेश भेजे जा सकते हैं जैसे तरंगों के द्वारा, जिसे हम 'वायरलेस' कहते हैं, सन्देश पहुंचाना । मनुष्य के साथ घटना 'शब्द' के साथ घटी है । देवताओं से सम्पर्क सीधे अर्थ द्वारा होता है। मनुष्य के पास शब्द रूपी तरंगे पहुंचती है, 'अर्थ' वह स्वयं खोजता है। तब बड़ी मुश्किल हो जाती है । व्याख्याओं और टीकाओं की लाइन खड़ी हो जाती है।
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भगवान महावीर-जीवन और दर्शन
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-मुनि श्री राकेश कुमार
महावीर अवतार और देव नहीं, मानव बनकर संसार में आए थे। इस मिट्टी में वे पले-पूसे थे और इसी मिटी पर उन्होंने अपना लक्ष्य प्राप्त किया था। उनके जीवन की कहानी आकाश की उड़ानें नहीं हैं. उनके स्वर कल्पना की लहरियों से नही उठे थे। अनुभूति की कसौटी पर खरे उतर कर हमारे सामने आये थे.। उनकी शारीरिक और मानसिक संवेदनाए मानवेतर नहीं थी। उनकी सतत गतिशील मानवता ने उन्हें महामानव बना दिया, जिसकी पृष्ठभूमि में विजय का संदेश है। वह विजय यी अन्धकार पर प्रकाश की, असत पर सत् की और मृत्यु पर अमरत्व की।
आदर्श श्रमण-श्रम, शम और सम की साधना करने वाले महावीर 'श्रमण' कहलाए। जैन आगम वाङमय में "समणे नाथपुत्ते" उनका मुष्य विशेषण रहा है। महावीर एक राजकुमार थे, उनके पास भौतिक सख साधनों की कमी नहीं थी। पर जीवन की इस बाहरी दिशा में उन्हें तृप्ति नहीं मिली। उन्हें संसार में बहुत बड़ा काम करना था ।
मह वीर गृहस्थ जीवन में भी बड़े निलिप्त भाव से रहे । कीचड़ में रहने वाले कमल-पत्र के उदाहरण को उन्होंने पूरा चरितार्थ किया। उनका सारा व्यवहार गहरा आदर्श लिए हुआ था, श्रमण जीवन की कठोर साधना में वे बड़ी दढ़ता के साथ आगे बढ़े थे। महावीर का तितिक्षा धर्म बहुत प्रसिद्ध है। शारीरिक और मानसिक सभी परिषहों को उन्होंने बड़ी समाधि के साथ सहन किया।
अपनी मंजिल पर पहुंचने के लिए भगवान महावीर ने घोर तप किया। अपने पूर्ववर्ती २३ तीर्थकरों से भी उन्होंने अधिक कष्ट सहन किए । किन्तु भगवान महावीर ने तपस्या का मतलब केवल भूखा रहना ही नहीं समझा था। उनके जीवन में अनेक यौगिक प्रयोग चलते थे। उनकी हर तपस्या के साथ ध्यान का अभिन्न सम्बन्ध था। उन्होंने भूखे रहने को बाहरी तप बताया, व ध्यान और स्वाध्यायको आभ्यन्तर तप ।
महावीर ने उस समय के अनेक अनार्य असभ्य प्रदेशों में भी विहार किया, जहां उग्र परिषहों का सामना करना पड़ा। पर उन्होंने किसी का सहारा नहीं लिया। स्वावलम्बन के आधार पर आगे बढ़े थे वे।
उन्होंने वाणी की अपेक्षा कर्म से अधिक प्रशिक्षण दिया ।
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भगवान महावीर कादुःख-बोध *
- डा० हरेन्द्र प्रसाद वर्मा
मानव जीवन की सबसे बड़ी समस्या दुःख की है । भ० महावीर को जिसने आत्मानुसमस्या संधान की ओर प्रेरित किया वह उनका गहरा दुख बोघ है। उन्होंने गहराई से अनुभव किया कि यह जीवन दुखमय है--यह जीवन बन्धन का जीवन है, यह जीवन जरा और मरण से अभिशप्त है। भगवान महावीर ने कहा- 'जन्म दुःख है, बुढ़ापा दु:ख है, रोग दु:ख है, बार-बार संसार में आना और मृत्यु को प्राप्त होना दुःख है । अहो ! सारा संसार ही दु:खरूप है। यहाँ प्राणी सदा दुःख भोगते रहते हैं।"
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जम्मं दुबलं, जरा दुक्खंरोगाणि मरणानिय ।
अहो दुक्खो हु संसारो, जस्थं कीसन्ति जंतवो ॥
सब कुछ क्षणिक है, सब कुछ अनित्य है । रूप और जीवन दोनों चपला की चमक के समान क्षण भंगुर हैं ( जीवितं चैव रूपं च विज्नु संपायचंचलं) । मानव देह असार है, व्याधि मंदिर है, जरा मरण से ग्रस्त है । अतएव इसमें क्षणमात्र भी रमण करना, इसका मोह करना निरर्थक है । हमारी वर्तमान दशा उस नाविक की भाँति है जिसकी नाव मंझधार में टूट गयी हो, जिसे तैरना भी नहीं आता हो और वह बचाव के लिये बार-बार हाथ पैर मार रहा हो। जिस प्रकार डूबता मनुष्य तिनके को भी सहारा मान लेता है, उसी प्रकार दुःख- संतप्त व्यक्ति इन्द्रिय सुख को ही सहारा और शरण मान बैठता है । परन्तु यह उसकी भूल है । इन्द्रिय तृप्ति कभी भी श्रेयस्कर नहीं है और न तो सुख ही कभी भी आनन्दकर है । सुख चिन्ता उपजाता और अन्ततः दुःख में बदल जाता है । सुख और दु:ख के बीच विभाजक रेखा नहीं खींची जा सकती है। सुख अप्राप्त दुःख है और दु:ख प्राप्त सुख । भगवान महावीर ने कहा है- 'काम भोग क्षणमात्र सुख और चिरकाल तक दुःख देने वाले हैं। उनमें सुख की मात्रा कम और दुःख की मात्रा ही अधिक है ( खण मेत्त सोक्खा बहुकाल दुक्खा, पगाम दुक्खा अणिगाम सोक्खा)। जिसे सुख कहते हैं वह वास्तव में दुःख की पूर्वपीठिका है-दुखों को भुलाने का प्रयत्न है। मनुष्य अपने अंतर के हाहाकार को वीणा के गुंजार में छिपाना चाहता है । हँसी रुदन की भूमिका मात्र है। भगवान महावीर ने अनुभव किया कि - 'संगीत विलाप रूप है, नाट्य विडम्बना रूप है, आभरण भार रूप है और सभी कामनाएं दुःख रूप हैं ।"
सव्वं विलवियं गीयं सव्वं नटं विडंबयं ।
सव्वे आभरणा मारा, सब्वे कामा दुहावहा ॥
कामनाओं के पीछे भागना मृग मरीचिका के पीछे भागने के समान है । इसमें तृप्ति की कोई सम्भावना नहीं है । तृष्णा दुष्पूर है । भोग की आग कभी नहीं बुझती, वह आग में घृत दिये जाने के समान प्रतिक्षण बढ़ती ही जाती है । भोग अन्ततोगत्वा भोक्ता को ही समाप्त कर देता है । इसलिये भोग जीवन का निःश्रेयस् नहीं हो सकता | भगवान महावीर ने कहा है- " तृष्णाएं शल्य रूप हैं, विषमय हैं, भयंकर विषधर के समान हैं । जो कामनाओं के पीछे भागते हैं उनकी कामनाएं कभी भी तृप्त नहीं होतीं । वे केवल दुर्गति के शिकार होते हैं ।"
सल्ल कामा विस कामा, कामा आसी विसोवमा ।
कामे य पत्थे माणा,
अकामा जन्ति दोग्गई ॥
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२८
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"fकपाक का फल जैसे केवल देखने में सुग्दर मालूम पड़ता है, लेकिन उसका परिणाम सुखद नहीं होता, उसी प्रकार भोग केवल मनोहर मालूम पड़ते हैं लेकिन उनका परिणाम सुन्दर नहीं होता है।'
नहा किपाग फलाण, परिणामो न सुन्दरो।
एवं भुत्ताण मोगाणं परिणामो न सुन्दरो। यह मनोहर फल जिस प्रकार जीवन ही हर लेता है, उसी प्रकार सुख-भोग अन्ततः मृत्यु के मुख में ही पहुँचा देता है। भोग रोग उत्पन्न करता है और मृत्यु का कारण बन जाता है। अतएव ऐसा सुख कभी भी सुखद नहीं है।
सुख और दुख वास्तव में एक ही हैं। वे एक ही सिक्के के दो पहल या एक ही रेखा के दो छोर के समान हैं । सुख बिना दु:ख के नहीं हो सकता और दुःख भी बिना सुख के नहीं हो सकता। हमारा अज्ञान यह है कि हम सुख को तो पसंद करते हैं, लेकिन दुखों से बचना चाहते हैं। जबकि वस्तु-स्थिति यह है कि एक को पसंद करने से दूसरे का वरण भी करना ही होता है। यह प्रकृति की व्यवस्था में ही निहित है। इसका सम्यक ज्ञान नहीं रहने के कारण ही हम मोह और प्रमाद में पड़ते हैं। जो प्रकृति की इस निर्धारित व्यवस्था को स्वीकार कर लेते हैं. वे सुख-दुख में समत्व भाव को उपलब्ध होते हैं।
मानव स्वभाव यह है कि अहंकार के कारण वह सुख की वाहवाही तो स्वयं लेना चाहता है, लेकिन दुखों के लिए वह परिस्थिति और ईश्वर को दोषी ठहराता है । परन्तु भगवान महावीर के अनुसार यह मिथ्यादृष्टि है। वास्तव में हम स्वयं अपने सुख-दुख के कर्ता हैं (अप्पा कत्ता विकत्ता यः दुक्खाण य सुहाणय), अतएव कर्मों का पूर्ण उत्तरदायित्व हमारे ऊपर है। यदि सुख हमारे कर्मों का फल है, तो दुख भी हमारे कर्मों का फल है। ऐसा मानकर जो न सुख को पकड़ता है न दुख को वह सुख और दुख दोनों के अतीत चला जाता है। वह शान्ति में प्रतिष्ठित हो जाता है।
भगवान महावीर के अनुसार व्यक्ति को उसी प्रकार निलिप्त रहना चाहिए जैसे कमल। कमल जल में जन्मता है. फिर भी उसमें लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार सुख-दुख आदि द्वन्द्वों में व्यक्ति जब निलिप्त बना रहता है, तभी वह मोक्ष को उपलब्ध होता है। साथ ही साथ भगवान महावीर ने यह भी कहा है कि शरद ऋतु का कमल स्वच्छ जल से भी लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार व्यक्ति को सुख और शुभ के प्रति भी लिप्त नहीं होना चाहिए । ऐसा करने से ही मनुष्य द्वन्द्वातीत हो सकता है।
जहा पोम्म जले जायं, नोव लिप्पह बारिणा । एवं अलिप्तं कामेहि तं वयं वम माहणं ।। वाच्छिन्द सिणहमप्पणो, कुमुयं सारइयं व पाणियं ।
से सव्व सिह वन्जिए, समयं गोयम ! मा पमायए॥ गुणभद्राचार्य ने इसे संक्षेप में इस प्रकार उपस्थित किया है-'मानव को इस जन्म में पूर्व जन्म में किए हए कर्मों का फल सुख और दु:ख रूप में मिलता है, जो मनुष्य इस तथ्य को सवीकार कर सुख और दुःख दोनों को तटस्थ भाव से ग्रहण करता है, उसके पुराने कर्म तो नष्ट हो जाते हैं (निर्जरा) और नवीन कर्मों का बन्ध नहीं होता है (संवर), फलतः उसकी आत्मा अत्यन्त निर्मल मणि के समान जगमगा उठती है।
सुखं दुखं वा स्यादिह विहित कर्मोदय वशात । कुतः प्रीतिस्तापः कुतः इति बिकल्पादयदि भवेत् ॥ उदासीनस्तस्य प्रगलति, पुराणं न हि नवं । समास्कन्वत्येष स्फुरति, सुविदग्धो मणिरिवा॥
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२४..
बहार
विवाग
हम्मक
श्रमण भगवान महावीर
परम्परोपमहो त्रीवानाम
-पं० बेचरदास दोशी
माता पिता और कुटुम्ब के अकारण वत्सलभाव का पोषण करने से भगवान महावीर में किसी को उद्विग्न न करने को बीजरूप वत्ति का विकास हो गया था। परिणामस्वरूप जब उन्होंने यह अनुभव किया कि देहसुख, इन्द्रिय सुख और वासनाओं की वृत्तियों की तृप्ति का सुख दूसरों को त्रस्त या दु:खी करने पर ही सम्भव है, अन्य छोटे-बड़े प्राणियों को दुःखी या त्रस्त किये बिना, सताये बिना, ये सब ग्राह्य सुख संभव ही नहीं है, तब उन्होंने अपनी निजी संपत्ति सब लोगों में बांट दी।
जिस समय वर्द्धमान महावीर राज भोग कुटुम्ब आदि सभी सांसारिक सुखों को तृणवत् त्यागकर आध्यात्मिक शांति और आध्यात्मिक पूर्ण विकास की शोध में निकले, उस समय के उनके स्वभाव का चित्र जैनागमों में इस प्रकार मिलता है
श्रमण वर्धमान महावीर मन-वचन-काय को ठीक-ठीक संचालित करने वाले थे। मनगुप्ति और कायगुप्ति पालने वाले थे। जितेन्द्रिय, सर्वथा निर्दोष ब्रह्मचर्य-बिहारी थे। क्रोध, अहंकार, छल-कपट और लोभविहीन थे, शांत, उपशांत, अपरिग्रही, अकिंचन थे। निर्ग्रन्थ थे, अर्थात जिनके पास गांठ बांधकर रखने या संग्रह करने जैसा कुछ भी न था। निर्लेप थे जैसे-कांसे के बर्तन पर कोई लेप नहीं चिपट सकता। वीतरागी थे शंख की तरह जिस पर रागद्वेष का कोई रंग नहीं चढ़ता। वोतद्वेषी अर्थात आकाश की तरह स्वप्रतिष्ठित यानी दूसरे के आधार की अपेक्षा न रखने वाले थे। वायु की भांति स्वतन्त्रविहारी यानि एक ही स्थल पर बंधकर न रहने वाले थे। शरद ऋतु के जल की तरह निर्मल थे । कमल की तरह अलिप्त थे। कछुए की तरह गुप्तेन्द्रिय थे। गैंडे के मुख पर के श्रंग की भांति एकाकी, किसी घोर विपत्ती में भी किसी की भी सहायता न लेने वाले थे। पक्षी के समान सर्वथा मुक्त, हाथी के समान शुर, जातिवंत वृषभ के समान पराक्रमी, सिंह के समान अपराजित थे। क्सिी से भी न दबने वाले, मेरुवत अंकप थे। सागर के समान गम्भीर थे। सोने के समान कान्तिमान थे, वृतहोमी अग्नि के समान प्रदीप्त थे और पृथ्वी के समान सब परिस्थितियों को सहन करने वाले सर्वसहा थे। वर्धमान महावीर ने तन ढंकने के लिए वस्त्र के एक टुकड़े, चिथड़े तक का भी उपयोग नहीं किया। अग्नि आदि अन्य साधनों का भी कोई उपयोग नहीं किया। गांव में भगवान एक रात ही ठहरते और नगर में पांच रात्रियों से अधिक
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३०
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खण्ड-३
नहीं ठहरते थे। कोई डण्डे का प्रहार करे अथवा चन्दन का लेप करे, दोनों ही परिस्थितियों में वे सम रहते थे। वे तृण, मणिमाणिक्य, पत्थर अथवा सोने आदि समस्त पदार्थों में समान परीक्षावृत्ति थे और जीवन-मरण दोनों में ही समानुभाव रखते थे. सर्वथा समदर्शी थे।
साधना के परिणामस्वरूप जमई (प्राचीन काल के जभिक-जंभिय) गांव के पास, ऋजुवालिका नदी के तट पर, वैयवित्त नामक चैत्य के पास, सामाग (श्यामाक) नामक गृहस्थ (गृहपति) के खेत में शालवृक्ष के नीचे गोदोहन-आसन से ध्यानावस्थित वर्धमान महावीर को केवलज्ञान प्राप्त हुआ। यह वैशाख शुक्ल १० का दिन था, ग्रीष्म ऋतु थी: और छाया पश्चिम की ओर ढल रही थी, विजय मुहूर्त और हस्तोत्तरा (यानी उत्तराफाल्गुनी) नक्षत्र का योग था। प्रव्रज्या स्वीकार करने के तेरहवें वर्ष में आत्मज्ञान-केवलज्ञान प्रकट हुआ। तब उनकी मनोदशा इस प्रकार थी
"उस समय भगवान का संयम, तप, आत्मबल-आत्मवीर्य सब कुछ अनुपम था। उनकी सरलता पराकाष्ठा को पहुँच गयी थी। नम्रता, क्षमा, अपरिग्रहवत्ति, अलोभभाव, प्रसादभाव, आत्मप्रसन्नता, सत्य का आग्रह, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक-चारित्र इन समस्त गुणों की उनमें पराकाष्ठा हो गई थी।"
अब वे वीतराग, वीत द्वेष, जितेन्द्रिय और सब प्रकार से समदर्शी की भूमिका पर पहुंच गये थे। उन्होंने देह और आत्मा के पृथक भाव का स्वयं ही अनुभव किया था और आत्मलीनता प्राप्त कर ली थी। उनका ज्ञान निरावरण हो गया था।
स्थितप्रज्ञ केवलज्ञानी अथवा वीतराग होने के बाद अपना स्वतन्त्र धर्मचक्र प्रवर्तन करने के लिए महावीर मगध और आसपास के प्रदेशों में विहार करने लगे । धर्मचक्र-प्रवर्तन द्वारा उन्होंने अहिंसा और अहिंसा में से उदभूत अन्य मानव-अधिकारों का उपदेश दिया। धर्म के नाम से एकदम तिरस्कृत और सर्वसाधारण मानवीय अधिकारों से वंचित सभी वर्गों को उन्होंने अत्यन्त सहानुभूतिपूर्वक अपनाया। धार्मिक कर्मकाण्ड में प्रचलित हर प्रकार की हिंसा के विरुद्ध उन्होंने घोषणा की। सच्चे यज्ञ, सच्चे श्राद्ध, सच्चे स्नान और सच्चे ब्राह्मण का स्वरूप समझाया, लोकभाषा को अपने प्रवचनों का माध्यम बनाया और स्त्रियों एवं शूद्रों के लिये आत्मसाधना का मार्ग खोला।
उन्होंने अपने अहिंसा-प्रधान, समतामूलक, सर्वोदयी धर्मचक्र को जीवन के अन्तिम श्वास तक फैलाया। इसी का प्रभाव आज पचीस सौ वर्ष बाद भी समसत भारत में स्पष्ट दिखायी दे रहा है। इस तथ्य को आधुनिक के इतिहास पंडित भी मुक्तकंठ से और स्पष्ट रूप में स्वीकार करते हैं।
महावीर मगध देश में एक ऐसे पुरुष थे जो साधना व वस्तुस्वरूप दोनों ही विषयों में लेशमात्र उदासीन नहीं थे। भगवतीसूत्र में अथवा अन्य सूत्रों में जो भी संवाद, चर्चा और दृष्टान्त अथवा कथाएँ आयीं हैं उन सबका अध्येता इस तथ्य को ठीक-ठीक समझ सकता है। महावीर साधना में इतने अधिक कठोर थे कि वे जीवन पर्यन्त केवल भेक्ष्य याने सच्चे अर्थ में मधुकरी पर ही अपना निर्वाह करते रहे थे। बड़े-बड़े निमन्त्रणों में भोजन के लिये वे कभी गये ही नहीं और न कभी सदोष भिक्षा ग्रहण की-अर्थात ऐसी भिक्षा जो कि उनके लिये ही तैयार की गई हो अथवा जिससे किसी व्यक्ति को असन्तोष अथवा पीड़ा होती हो। निर्दोष भिक्षा न मिलने पर वे उपवास पर उपवास करते जाते थे। यदि भक्तिभाव से प्रेरित होकर किसी अनुयायी उपासक या उपासिका ने उनके लिये भिक्षा तैयार की है, ऐसा उन्हें मालम हो जाता तो वे वैसी भिक्षा कभी नहीं लेते थे। इतना ही नहीं, उन्होंने अपने अन
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खण्ड-३
[ ३१ यायियों-भिक्षुओं को भी ऐसी भिक्षा लेने की सख्त मनाई कर दी। उन्होंने अपने निर्वाह के लिये छोटा अथवा बड़ा अथवा किसी भी प्रकार का विहार आदि का दान कभी स्वीकार नहीं किया। दान में बगीचा, भूमि, मठ ओदि कभी स्वीकार नहीं किया। अपने अथवा संघ के स्थायी निर्वाह के लिये किसी असाधारण उपासक अथवा उपासिका को भी कभी कोई प्रेरणा नहीं दी। और तो और हरण होने पर भी उन्होंने औषधि लेने अथवा कोई वैद्य उपचार करने कराने की तनिक भी इच्छा नहीं की। संघ के धमण-श्रमणी को भी रोगी अवस्था में हर बात में वैद्यकीय सहायता लेने का स्पष्ट शब्दों में निषेध किया है । यही उनकी कठोर साधना को रीति थी। जब कोई जिज्ञासु उनसे पूछताछ करता तो उसको अपने ज्ञान और अनुभव के आधार पर उन सब विषयों की जानकारी जीवन के अन्तिम श्वासोच्छवास तक देते रहे। उन्होंने कहीं भी और कभी भी यह नहीं कहा कि वस्तुस्वरूप के रस विचार के विषय में स्पष्टता नहीं हो सकती, अथवा यह चर्चा अव्याकृत है । भगवती सूत्र (शतक १० उद्देशक ३) में घोड़ा दौड़ता है, तब उसके पेट में अमुक प्रकार का शब्द हुआ करता है, इस विषय का एक प्रश्न है। ऐसे मामूली प्रश्न तक का उत्तर भी उन्होंने जिज्ञासु को दिया है, उसे टाला नहीं है । तात्पर्य यह है कि उनके पास जैसा भी जिज्ञासु पहुंचता वह उनसे कुछ न कुछ प्राप्त करके ही लौटता था। इस प्रकार उनकी वृत्ति ज्ञान की दृष्टि से भी असाधारण थी।
अन्तिम प्रवचन के समय काशी देशाधिपति, मल्लवंश के गणतन्त्री नौ राजा तथा कोसलादेशपति लिच्छविवंशीय गणतन्त्र के नौ राजा पावापुरी में भगवान महावीर की उपासना के लिए उपस्थित थे। पावा और आस पास का विशाल जनसमूह भी वहाँ उपस्थित था। भगवान के निर्वाण के समय उनके श्रमण, श्रमणी, श्रावक और श्राविकाओं का परिकर इस प्रकार बताया गया है, इन्द्र भूति गौतम आदि १४ हजार श्रमण-आर्या चन्दनादि ३६ हजार श्रमणियां, शंख शतक आदि १ लाख ५९ हजार श्रावक तथा सुलसा रेवती, आदि ३ लाख १८ हजार श्राविकाएँ।
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समता धर्म के प्ररूपक - महावीर
- प्रो० दलसुख मालवणिया
श्रमण संस्कृति की ही यह विशेषता है कि उसमें प्राकृतिक अधिदैविक देवों या नित्यमुक्त ईश्वर का पूज्य स्थान नहीं है । एक सामान्य मनुष्य ही अपना चरम विकास करके आम जनता के लिये ही नहीं किन्तु यदि किसी देव का अस्तित्व हो तो उसके लिए भी पूज्य बन जाता है । इसीलिये इन्द्रादि देवों का स्थान श्रमण-संस्कृति में पूजक का है, पूज्य का नहीं । भारतवर्ष में राम और कृष्ण जैसे मनुष्य की पूजा ब्राह्मण-संस्कृति में होने तो लगी, किन्तु उन्होंने उन्हें केवल मनुष्य, शुद्ध मनुष्य न रहने दिया । उन्हें मुक्त ईश्वर के साथ जोड़ दिया । ईश्वर का अवतार मान लिया । किन्तु श्रमण संस्कृति के बुद्ध और महावीर पूर्ण पुरुष या केवल मनुष्य ही रहे । उनको नित्य बुद्ध, नित्यमुक्त रूप ईश्वर कभी नहीं कहा गया ।
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भगवान महावीर के माता पिता भगवान पार्श्वनाथ के अनुयायी थे, अतएव बाल्यकाल से ही उनका संसर्ग त्यागी - महात्माओं से हुआ, यही कारण है कि उनको सांसारिक वैभवों की अनित्यता और निस्सारता का ज्ञान हुआ । संसार की अनित्यता और अशरणता के अनुभव ने ही उनको भी त्याग और वैराग्य की ओर झुकाया । उन्होंने सच्ची शांति सुख-वैभव के भोग में नहीं, त्याग में देखी। तीस वर्ष की युवावस्था में सब कुछ छोड़कर त्यागी बन गये - ३० वर्ष तक भी जो उन्होंने गृहवास स्वीकारा, उसका कारण भी अपने माता पिता और बड़े भाई की इच्छा का अनुसरण था । संसार में रहते हुए भी उनका मन सांसारिक पदार्थों में लिप्त नहीं था । अन्तिम एक वर्ष में तो उन्होंने अपना सब कुछ दीन-हीन जनों को दे दिया था और अकिंचन होकर घर छोड़ कर निकल गये थे ।
उनके उपदेश को सुनकर वीरांगक, वीरयश, संजय, एणेयक, सेय, शिव, उदयन और शंख इन आठ समकालीन राजाओं ने प्रव्रज्या अंगीकार की थी। अभयकुमार, मेघकुमार आदि अनेक राजकुमारों ने भी घरबार छोड़ कर व्रतों को अंगीकार किया था । स्कंधक प्रमुख अनेक तापस तपस्या का रहस्य जानकर भगवान के शिष्य बने थे । अनेक स्त्रियाँ भी संसार की असारता समझकर उनके श्रमणी संघ में शामिल हो गयीं थीं। उनमें अनेक तो राजपुत्रियाँ भी थीं । उनके गृहस्थ अनुयायियों में मगधराज श्रेणिक और कुणिक, वैशालीपति चेटक, अवन्तिपति चण्डप्रद्योत आदि मुख्य थे । आनन्द आदि वैश्य श्रमणोपासकों के अलावा शकडाल - पुत्र जैसे कुम्भकार भी उपासक संघ में शामिल थे । अर्जुनमाली जैसे दुष्ट हत्यारे भी उनके पास वैर त्याग करके शान्तिरस का पान कर क्षमा को धारण कर दीक्षित हुए थे। शूद्रों और अतिशूद्रों को भी उनके संघ में स्थान था ।
उनका संघ राढ़ देश, मगध, विदेह, काशी, कोसल, शूरसेन, वत्स, अवन्ति आदि देशों में फैला हुआ था । उनके विहार के मुख्य क्षेत्र मगध, विदेह, काशी, कोसल, राढ़ देश और वत्स थे ।
तीर्थंकर होने के बाद ३० वर्ष पर्यन्त सततं विहार करके लोगों को आदि में कल्याण, मध्य में कल्याण, और अन्त में कल्याण, ऐसे अहिंसक धर्म का उपदेश कर ७२ वर्ष की आयु में मोक्ष लाभ किया। लोगों ने दीपक जलाकर निर्वाणोत्सव मनाया। तब से दीवाली पर्व प्रारम्भ हुआ, ऐसी परम्परा है ।
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* समत्व सृष्टा भगवान महावीर *
-साध्वी अणिमाश्री
“समया धम्म मुदाहरे मुणी" भगवान महावीर का यह पावन उद्घोष रहा है। कथनी-करनी का साकार प्रतिबिम्ब भगवान महावीर के जीवन में देखने को मिलता है । अभिभावकों के अगाध वात्सल्य से लालित-पालित, राजकीय अतुल्य सुकुमार राजकुमार महावीर ने दुष्क र दीक्षाव्रत को स्वीकार किया और तत्काल ही आत्म-शोध के मार्ग को अपनाया, निर्वाण प्राप्ति अपना लक्ष्य बनाया । “न पीछे हटाया कदम को बढ़ाकर, गर दम भी लिया तो मंजिल को पाकर" । आत्म-दर्शन के महान उद्देश्य के पीछे अतुल साहस और अट निष्ठा ही सफलता के द्योतक थे।
भगवान के साधना-काल में समुपस्थित उपसर्गों की आश्चर्य-भूत कहानी पढ़ने मात्र से कलेजे में कंपन होता है। इतनी प्रतिकलता में कितनी समता मनुष्य, होकर देवताओं द्वारा दत्त कष्टों को समचित्त सहन करना, यह थी भगवान की उदात्त समता, अदभुत सहनशीलता। वस्तुत: साधना पथ कटकाकीर्ण पथ है। भगवान के साधनाकाल के १२१ वर्षों की अवधि में देव, मनुष्य तथा तिर्यंचों द्वारा अनेक अनुकूल प्रतिकूल उपसर्ग उत्पन्न हुए । सामान्य व्यक्ति जहाँ कष्टों के मार्ग को टालते हुए अन्य पथ का अनुसरण करते हैं, महापुरुष लक्ष्य निरूपण करके उसी पथ पर आगे बढ़ते हैं। अपने दारुण कर्मों के क्षय के लिए भगवान अनार्य भूमि में पधारे। वहाँ अचित्त द्रव्य पर निनिमेष दृष्टि से ध्यान कर रहे थे । इन्द्र ने ज्ञान द्वारा जान भगवान की प्रशंसा के गीत गुनगुनाए। एक तरफ जहाँ शौर्य के गीत गाए जाते हैं, वहाँ दूसरी तरफ असूया का आलाप होता है। इन्द्र की सभा में उपस्थित ईर्ष्याल संगमदेव कब सहन कर सकता था ? तत्काल भगवान के सन्निकट प्रस्तुत हुआ और विकराल रूप धारण किया । ध्यान से विचलित करने के लिये एक ही रात्रि में पिशाच, व्याघ्र, सर्प, बिच्छ आदि के तथा देवांगना के हावभाव पूर्ण अनुकल-प्रतिकुल बीस मारणान्तिक उपसर्ग दिए । लेकिन भगवान तनिक भी विचलित नहीं हुए। उनके चेहरे पर न रोष था, न आक्रोश, केवल मात्र सन्तोष के सागर में वे गोते लगा रहे थे। अन्ततोगत्वा संगमदेव पराजित होकर अपने गन्तव्य स्थान को चला गया। भगवान अपनी तप: पूत साधना में सफल बने ।
भगवान की भाषा में समता ही धर्म है और विषमता अधर्म । राग-द्वेष दोनों विषमता के प्रतीक हैं। अहिंसा, सत्य, आचार्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, क्षमा, अभय आदि गुणों की जड़ एक मात्र समता है। ये सारे तो समतारूपी वृक्ष की शाखाएं, पत्र, पुष्प फल आदि हैं ।
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महावीर जीवन दर्शन :
एक मूल्यांकन
-डा० धर्मचन्द
महावीर संन्यस्त जीवन का लम्बा अंश ध्यान, योग, तपश्चर्या के द्वारा सुख-दुख, राग-द्वेष, अहं-आग्रह, संकल्प-विकल्प को हटाकर, मन से परे, आत्म स्वरूप के बोध में लगा। साधनाकाल में संयम, सहनशीलता, अनुकल-प्रतिकूल परिस्थितियों में समभाव व स्थिरता को साधा । सम्पूर्ण समाज के परिवेश का विश्लेषण कर तत्कालीन समस्याओं के समाधान का मार्ग ढूंढा । उनकी साधना का मार्ग कतई आत्मदमन का मार्ग नहीं रहा। आत्म उन्नयन व सहज-स्वस्थ आनन्द का मार्ग रहा है । व्यक्तित्व के विकास की ऐसी विशिष्ट अवस्था प्राप्त की जहाँ व्यक्तित्व समस्त ग्रन्थियों से मुक्त हो जाता है, भविता शरीर व मन की सीमाओं से परे हो जाती है, साध्य और साधक एक हो जाते हैं, निश्चय और व्यवहार में भेद नहीं रहता, सम्पूर्ण सत्य के ज्ञान की क्षमता आ जाती है, अर्थात सर्वज्ञता आ जाती है।
___ महावीर ने अपनी साधना का मार्ग स्वयं निर्मित किया । किसी गुरु या ग्रन्थ को मान्य नहीं किया। प्रत्येक आत्मा अद्वितीय होती है, अतः प्रत्येक आत्मा का मार्ग भी अद्वितीय ही हो सकता है। धर्म अर्थात् सत्य की साधना व शोध का मार्ग तो निश्चय ही अनुगमन का बंधा-बंधाया मार्ग नहीं हो सकता । यह तो अन्वेषण व आविष्कार का मार्ग ही हो सकता है। इसके लिए वैयक्तिक स्वतन्त्रता एवं मौलिकता तथा प्रयोगधर्मिता नितांत आवश्यक होते हैं, क्योंकि चेतना का विकास व्यक्तिक होता है। हर अनन्त के यात्री का अपना ही पथ होता है। महावीर ने अपने युग की आवश्यकता को पहचान कर, पार्श्व-परम्परा के सूत्र शेष होते हुए भी, स्वयं प्राप्त सत्य की दृष्टि से समाज की आवश्यकता के अनुरूप धर्म की व्याख्या, प्ररुपणा एवं संगठन किया। किसी भी जीवन्त मार्ग की सार्थकता मनुष्य के कल्याण और विकास के साधन में हैं।
महावीर ने समाज की जर्जर स्थिति को समझा । अपनी व्यक्तिक उपलब्धियों को सम्पूर्ण समाज की चेतना के विकास हेतु समर्पित कर दिया। अपनी साधना को पूरे समाज के हित में व्यापक करने हेतु धर्म के चतुविध संघ की स्थापना की। साधना को सामूहिकता प्रदान की, क्योंकि व्यक्ति की चेतना से भिन्न समाज की चेतना, व्यक्तिगत धर्म-कर्म व समष्टिगत आकांक्षाओं में भिन्नता जीवन में भेद उत्पन्न करते हैं। जीवन-व्यवहार व धर्मसाधना को विभाजित नहीं किया जा सकता । सम्पूर्ण जीवन-व्यवहार ही धर्म-साधना बन जाना चाहिए।
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समग्र क्रान्ति के द्रष्टा
-श्री शरद कुमार 'साधक'
सामाजिक विषमता, राजनैतिक उठापटक, राष्ट्रीय-चरित्र-हीनता और डगमगाती मानवीय निष्ठाओं को देखकर लगता है कि जड़मूल से क्रान्ति करने का समय आ गया है। ऐसे समय भारतीय पृष्ठभूमि में जो क्रान्ति होगी, वह सांस्कृतिक तथयों की अनदेखी नहीं करेगी। इसलिए कहा जा सकता है कि व्यक्ति, समाज एवं राष्ट्र परिवर्तन की दिशा प्रशस्त करने वाले महाबीर हमारे एक ऐतिहासिक प्रकाश स्तम्भ हैं और उनके दर्शन से आज भी हम बहुत कुछ सीख सकते हैं।
महावीर के समय की सामाजिक स्थितियां काफी जटिल थीं। आपसी सम्बन्ध भी सन्देह रहित न थे। पिता-पुत्र, भाई-भतीजे, सगे-सम्गन्धी सब में कहीं-कहीं खिचाव था। तैलीपुर के नरेश कनकरथ ऐसे ही पिता ये, जो अपने पुत्रों का इसलिए अं-भंग कर देते थे, ताकि वे बड़े होकर राज्य-सिंहासन न हड़प लें। इसी प्रकार सम्राट बिबिसार के विरुद्ध अजातशत्रु के नैतत्व में उन्हीं के पुत्रों ने षड्यन्त्र रचा और उन्हें काल कोठरी में डाल दिया। अजातशत्रु और चेटक के युद्ध की साक्षी देने वाले वैशाली के खण्डहर आज भी यह बताने के लिए पर्याप्त हैं कि कैसे पड़ोसी राज्य एक दूसरे से हथियाये गये तथा कैसे-कैसे समधि राजाओं ने एक दूसरे को परास्त किया। वैशाली विजय में १ करोड ८० लाख मनुष्यों का संहार हुआ। महाभारत के बाद वही सबसे बड़ा युद्ध था। उस ऐतिहासिक युद्ध का परिणाम पूरे उत्तर भारत को भुगतना पड़ा। राज्यकुलों से सम्बद्ध होने के कारण महावीर ने जहाँ विजयी राजाओं का दपै देखा, वहीं विजित राजाओं की दयनीय दशा भी देखी। विजयी और विजित की दुर्दमनीय आकांक्षाओं के बीच पिसती जनता को बचाने की अनिवार्यता ने महावीर को नये सिरे से चिन्तन करने को विवश किया, जिससे स्नेह, सौजन्य, समता, सहयोग एवं शील की धारा बह निकली। मानना चाहिए कि अधिनायकवादी प्रवत्ति के दुष्परिणामों से जब महावीर ने समाज को अवगत कराया तो छोटी-छोटी इकाइयों को प्रश्रय देने वाली गणतांत्रिक व्यवस्था फली-फली और उससे आक्रमण एवं उपनिवेशवादी वृत्ति घटी। उस समय ७७०७ गणतांत्रिक घटक होना यही सिद्ध करता है कि महावीर की भूमिका केन्द्रित व्यवस्था को विकेन्द्रित कराने में महत्वपूर्ण गिनी गयी और फिर उस विकेन्द्रित व्यवस्था को उन्होंने धार्मिक आस्था में केन्द्रित किया ।
राजाओं की भांति धनीमानी लोगों का अपना एक संसार है। वे जो करते हैं, अपने ढग से। हर राज्य में उनकी अपनी अलग इकाई होती है। मगध हो या विदेह, अंग-बंग-कलिंग हो या काशी-कोशल. सर्वत्र पैसेवाले एक ही ढंग से जीते थे। वाराणसी के चुल्लनी-पिता बहुचर्चित हैं। वे आठ करोड़ स्वर्ण मुद्राएं जमीन में गाड़ कर रखते थे, आठ करोड़ व्यापार में, आठ करोड़ खेती बाड़ी में और आठ करोड कर्ज देने में लगाए हुए थे। अस्सी हजार गायों की अपार संपत्ति के कारण उनका घर भरा-पुरा था। फिर भी वे सुखी नहीं थे। लगभग सभी धनाढपों की हालत ऐसी ही थी। उन सबको प्राप्त वैभव के संरक्षण एवं संवर्धन की चिन्ता थी तो दूसरी ओर गरीब जीवन की अनिवार्य आवश्यकताएं पूरी नहीं कर पाते ये। जमीन-आसमान सी विषमता ने हिंसा और क्रूरता की जड़े सींची। अमीरों ने देख कर अनदेखा किया तो गरीब लट-पाट पर उतर आये। राजगह निवासी धन्ना सार्थवाह ने अपने नौकर को निकाल दिया। वह लुटेरों के दल में जा
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मिला। लुटेरे भी अपना काम व्यवस्थित ढंग से करते थे। वे जहाँ भी जाते, घोषित करके जाते थे। धन्ना सार्थवाह की अनीति का प्रतिशोध करने के लिए वे शहर में घोषणा करते हुए आये कि आज लुटेरों का सरदार चिलाती धन्ना का घर लूटेगा, जिसे नई मां का दूध पीना हो वही अपने घर से निकले । इस घोषणा को सुनकर राजगहवासी अपने-अपने घरों में छिप गये। राजा की ओर से उनका कोई प्रतिरोध नहीं हआ। इससे यह ध्वनित होता है कि जीवन की जरूरतें पूरी करने को जनता बुरा नहीं समझती थी, बुरे तो वे थे जो जरूरतों की सीमा नहीं समझते थे। महावीर ने समता का सन्देश दे कर अनिवार्य आवश्यकताओं का मूल्य समझाया। आवश्यकताओं के विवेक से ममता की भावना घटी। अमीरों ने घरों में धन गाड़ना बन्द किया और गरीबों ने लूट न करने की शपथ ली। सबके लिए जीवन-निर्वाह की परिस्थितियां पैदा हुई, जिसके परिणामस्वरूप धर्मशालाएं, कुँए, जलाशय, चिकित्सालय, विद्यालय, मन्दिर आदि स्थापित हुए और परोपकार की वत्ति को प्रश्रय मिला। सम्राट श्रेणिक ने महावीर से जब अपनी अपार सम्पत्ति की चर्चा की तो वे बोले, 'सम्राट ! पूनी कात कर आजीविका चलाने वाले पूनिया की एक मुहूर्तचर्या के समक्ष यह सब नगण्य है।' महावीर की इस स्पष्टोक्ति से जहाँ इच्छा परिमाण का विचार फैला वहीं पिछड़े वर्गों को समानता के धरातल पर सिर ऊँचा उठाकर चलने की भी शक्ति मिली।
महावीर को सबसे अधिक संघर्ष दासप्रथा के खिलाफ करना पड़ा। उस समय दासप्रथा के अभिशाप ने समूचे देश को अभिशप्त कर रखा था। राजा-महाराजा एवं धनी-मानी लोगों की बात छोड़िये, पोलासपुर के सद्दाल कुंभकार की पत्नी भी जब महावीर के दर्शन करने पहुंची तब उसके साथ अनेक दासियाँथीं। चन्दना स्वयं क्रीत दासी थी। दास दासियों को मुक्त करना एवं फिर उन्हें सामाजिक तथा आध्यात्मिक क्षेत्र में समान अधिकार देना दिलाना महावीर का प्रभावकारी कार्यक्रम था । वे इसमें कम सफल नहीं रहे। दास प्रथा से परावलम्बन एवं असंयम बढ़ा। महावीर ने श्रमण संस्कृति के समुद्धर्ता के रूप में स्वावलम्बन एवं समय की साधना से जीवन को नये आयाम दिये । 'परस्परं भावयन्तः' के रूप में जब एक दूसरे के सहयोग से सारा काम होगा, तभी सचमुच दासथप्रा का अन्त होगा।
महावीर ने ऊँच-नीच, गरीब-अमीर, शासक-शासित आदि सब को ध्यान में रख कर सोचा-समझा। जीवन के छोटे-से-छोटे पहल पर कहां हम स्खलित होते हैं और कैसे हमें सभलना है, कैसे अतीत, आज, एवं अनागत की गौरव रक्षा सम्भव है, वह कोई उनसे सीखे । न वे आदर्श में उड़ते हैं और न व्यवहार में डूबते हैं। हर बात को हर दृष्टि से सुन-समझ कर यथार्थ का आकलन करने में ही उनका सौंन्दर्य बोध है उनकी चर्या हैं। उनकी दृष्टि में सत्य भगवान है और विवेक धर्म । असत से असत में सत की लो प्रज्वलित करने में उन्हें कभी झिझक नहीं लगी। हर धर्म, पथ, सम्प्रदाय, वेश-भाषा-भूषा के बीच उन्होंने मानवीय पक्ष को उजागर किया । 'असंविभागी नहु तस्य मोक्खो'-जैसे सूत्रों में उनके समाजवादी व्यवहार की झंकृति है। महावीर ने यम-नियम आदि की उपयोगिता का प्रतिपादन किया तो स्पष्ट कह दिया कि 'अस्थिलाए परस्थ य-जो वर्तमान को नकारता है, वह इष्ट नहीं है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय. ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह की साधना इसलिए जरूरी है कि हम सुखी रहें और अपने पास पड़ोस वालों को सुखी रखें। एक दूसरे की जिजीविषा में तालमेल बिठाने की भावना से आनंद उदभूत होता है । जो आनंद मिल बाँट कर भोगा जाय वह परमानंद है और उसकी पराकाष्ठा में ही ब्रह्मानंद के अक्षय भंडार की उपलब्धि है। 'अहं ब्रह्मास्मि' की अनुभूति से ही 'यत्पिण्डे तद ब्रह्माण्डे' की अभिव्यक्ति संभव हैं, और महावीर क्योंकि समाज एवं देश के स्तर पर हर असंभवता से बचाते हुए हमें आत्मा, महात्मा एवं परमात्मा को साक्षात्कार कराते हैं, इसीलिए अब ढाई हजार वर्ष बाद जब उनके आचार समम्त विचार दर्शन की ओर राष्ट्र का ध्यान आकृष्ट हुआ है, तो हमें चाहिए कि समग्र क्रान्ति के द्रष्टा के रूप में हम महावीर को नमन करें।
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VIRAL
महावीर के जीवन-दर्शन
का आधार बिंदु
-डा० प्रद्युम्न कुमार जैन
युग दृष्टा महावीर ने जो सबसे पहला प्रश्न उभारा, वह था दु:ख । उन्होंने व्यापक अनुभव के आधार सारी समस्याओं का निचोड़ पाया दुःख रूप में। जीवन का यह सर्वस्वीकृत पहल उन्होंने अपने पहले प्रवचन में ही उजागर का दिया। उन्होंने घोषित किया कि सारे प्राणी दुःखी हैं और दुख-मक्ति के रूप में सख की आकांक्षा करते हैं। अत: दुःख प्राणियों का अरोपित सत्य है, अनैसर्गिक परिणति है और सुखाकांक्षा उनका जन्मसिद्ध अधिकार है। इस विभाव अथवा अनैसर्गिक परिणति के कठोर सत्य को स्वीकारते हुए सुखोपलब्धि के जन्मसिद्ध नैसर्गिक अधिकार को पाना मनुष्य का धर्म है । इसी आधार पर धर्म की परिभाषा की गई, 'वत्थ सहावो धम्मो' अर्थात वस्तु का स्वभाव ही धर्म है। धर्म जीवन की स्वभावीकरण की प्रक्रिया मात्र है अनैसगिक स्थिति को नैसागिक दिशा देने का अभियान है।
इस स्वभावीकरण प्रक्रिया के सन्दर्भ में अब कई और प्रश्न उभर कर सामने आते हैं। दूःख क्या है ? वह क्यों है ? उसका निरोध कैसे सम्भव है ? निरोध की अन्तिम परिणति क्या है ? आदि आदि । इन सभी प्रश्नों के उत्तर महावीर के धर्मचक्र-प्रर्वतन के मुख्य मुद्दे.रहें हैं। चूंकि ये सभी प्रश्न वास्तविक जीवन से सम्बन्धित हैं. अतः इनके उत्तर भी ठोस वास्तविक होना अपेक्षित हैं। इन प्रश्नों के बारे में महावीर का रुख आद्योपांत वास्तविक है। वह दुःख जैसे मूलभूत तथ्य को काल्पनिक मानकर नहीं चलते। उनकी स्पष्ट देशना थी कि दुःख एक वास्तविकता है, अनुभूत वास्तविकता, और इससे जीवन के प्रत्येक स्तर पर वास्तविक रूप से ही निपटना है। अतः उनका दो ट्रक उत्तर था, कि दु:ख वास्तविक है, उसका कारण वास्तविक है, कारणों का निरोध वास्तविक है और निरोध की अन्तिम परिणति मी वास्तविक है। कहने का तात्पर्य है, कि जीवन की आद्यंत प्रत्येक अवस्था वास्तविक है, ठोस सत्य है। और उसे ठोस रूप में ही जानना और व्यवहारमा उपादेय है । यथार्थवाद महावीर के जीवन दर्शन का आधार बिन्दु हैं।
दु:ख एक प्रतिक्रिया है। वह जिनीविषा का महा-भय को जीतने का संत्रास है। अस्तित्व आतंक. ग्रस्त है। इसी आतंक की प्रतिक्रिया दु:ख है। आतंकदर्शी महावीर ने देखा कि सम्पूर्ण अस्तित्व प्रतिक्रियाओं का पंज है। वह श्रृंखलाबद्ध प्रतिक्रियाओं की संहति है। वह किसी अज्ञात भय से निपटने का उपक्रम है। वह किसी महान युद्ध की तैयारी का अभियान है। इस युद्धरत और प्रतिक्रियापुंज संहति को ही महावीर ने
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कर्म संज्ञा से अभिहित किया। उन्होंने दुःख को कर्मोपाधि कहा । वर्तमान जीवन-क्रम कर्मजन्य माना। उनकी निगाह में कर्म की यह शृंखला अनादि कालीन है। जीवन का विविधरंगी उत्पाद और व्यय कर्मकृत है। दु:ख की प्रतीक एवं जनक इस कर्म संहति से संघर्ष करके मुक्ति प्राप्त करने का जो उपाय उन्होंने बताया वही उनका धर्म-दर्शन है।
निज्झाइत्ता पाडिले हित्ता पत्तेयं परिनिव्वाणं सम्वेसि पाणाणं सव्वेसि भूयाणं, सम्वेसि जीवाणं, सम्वेसि सत्लाणं अस्सायं अपरिनिव्वाणं महाब्भयं, दुक्खंत्ति बेमि, तसंति पाणा पदिसो दिसासुयअचारांग सूत्र, श्रुत० प्रथम १-६-५१ जाई च बुडिढं च इहऽज्ज, पासे,
भएहि जाणे पडिलेह सायं-आचांराग, श्रुत० प्रथम ३-२-४ २. आरंभजं दुक्खमिणंति णच्चा एवमाहु संमत्त दंसिणों, वे सब्वे पावाइया दुक्खस्स कुशला परिष्ण मुदाहरंति
इयं कम्मं परिणय सव्वसो-वही ४-३-१३५ ३. आयंकदंसी अहियंता णच्चा-आचारांग, श्र त. प्रथम १-७-५७
दुःख और सुख के कारण
गौतम-भंते ! जीव दीर्घकाल तक दुःखपूर्वक जीने के योग्य कर्म क्यों व किस कारण से करता है ? भगवान-गौतम ! हिंसा करने से, असत्य बोलने से तथा श्रमण ब्राह्मणों को अवहेलना, निन्दा एवं
अपमान करने से, उन्हें अमनोज्ञ आहार पानी देने से जीव दुःखपूर्वक जीने योग्य अशुभ कर्म का
बंध करता है। गौतम-भंते ! जीव दीर्घकाल तक सुखपूर्वक जीने योग्य कर्म किस कारण से बांधता है ? भगवान-गौतम ! हिंसा व असत्य की निवृत्ति से तथा श्रमण-ब्राह्मणों को वंदना-उपासना करके प्रिय
कारी निर्दोष आहार-पानी का दान करने से जीव शुभ दीर्घायुष्य का बंध करता है।
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भगवान महावीर के जीवन पर एक दृष्टि
-पं० हीरालाल सिद्धांताचार्य ब्यावर
भगवान महावीर कितने महान थे, उनका ज्ञान कितना विशाल था, इसे उनके ही समकालीन भगवान बुद्ध के शब्दों में देखिए
"एकमिदाह, महानाम, समयं, राजंगहे, विहरामि गिज्झकटे पन्वते । तेन खो पन समयेन संबहुला निगण्ठा इसिगिलियस्से कालासिलायं उब्भत्थका होन्ति आसन पटिक्खित्ता, ओपक्कमिका दुक्खा तिप्पा कटुका वेदना वेदयन्ति । अथ खो हां, महानाम, सायण्ह समयं पटिसल्लाणा बूढिढतो येन इसिगिलि पस्सम काणासिला येन ते निगण्ठा तेन उपसंकम्मि। उणसंकमित्तेवा ते निगठे एतद्वोंचम: किन्नु तुम्हें आवसो निगण्ठा उभट्टका आसनपटिक्खित्ता, ओपक्कमिका दुक्खा तिप्पा कटुका वेदना वेदियथाति। एवं वुत्ते, महानाम, ते निगण्ठा में एतदबोचु निगण्ठा, आबुसो नातपुत्तो सम्वजु, सव्वदस्सावी अपरिसेसं ज्ञान स दस्सनं परिजाति:, चरतो च मे तिट्टतो च सुत्तस्स च जागरस्स च सततं समितं ज्ञान दस्सनं पक्चपट्रितंति:, सो एवं आहः अस्थि खो वो निगण्ठा पुत्वे पापं कम्मं कतं, त इमाय कटुकाय दुक्करिकारिकाय निज्जरेथ यं पनेत्तय एतरहि कायेन संवुता, वाचाय संवुता, मनसा संवुता तं आयति पापस्स कम्मस्स अकरणं, इति पुराणानं कम्मानं तपसा व्यन्तिभावा नवानं कम्मानं अकरणा आयति अनवस्सवो, आयति अनवस्सवा कम्मक्खयो, कम्मक्खयो दुक्खक्खयो, दुक्खक्खया वेदनाक्खयो, वेदनाक्खया सव्वं दुक्खं निज्जिण्णं भविस्सति तं च पन अम्हाकं रुच्चति चेव खमति च तेन च अम्हा अत्तमना ति ।"
भावार्य-भगवान बुद्ध कहते हैं, हे महानाम ! मैं एक समय राजगृह में गद्धकूट नामक पर्वत पर विहार कर रहा था। उसी समय ऋषिगिरि के पास कालशिला (नामक पर्वत) पर बहुत से निर्ग्रन्थ (जैन मुनि) आसन छोड़ उपक्रम कर रहे थे और तीव्र तपस्या में प्रवृत्त थे। हे महानाम, मैं सायंकाल के समय उन निर्ग्रन्थों के पास गया और उनसे बोला, अहो निर्ग्रन्थ, तुम आसन छोड़ उपक्रम कर क्यों ऐसी घोर तपस्या की वेदना का अनुभव कर रहे हो ? हे महानाम ! जब मैंने उनसे ऐसा कहा तब वे निर्ग्रन्थ इस प्रकार बोले--अहो, निर्ग्रन्थ ज्ञातपुत्र (महावीर) सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हैं, वे अशेष ज्ञान और दर्शन के ज्ञाता हैं। चलते, ठहरते, सोते, जागते समस्त अवस्थाओं में सदैव उनका ज्ञान और दर्शन उपस्थित रहता है। उन्होंने कहा है-निर्ग्रन्थों तुमने पूर्व जन्म में पाप कर्म किये हैं उनकी इस घोर दुश्चर तपस्या से निर्जरा कर डालो। मन, वचन और काय की संवृत्ति से (नये) पाप नहीं बंधते और तपस्या से पुराने पापों का व्यय हो जाता है। इस प्रकार नये पापों के रुक जाने से कर्मो का क्षय होता है, कर्मक्षय से दु:खक्षय होता है, दुःखक्षय से वेदनाक्षय और वेदनाक्षय से सर्व दु:खों की निर्जरा हो जाती है। इस पर बुद्ध कहते हैं कि यह कथन हमारे मन को ठीक जंचता है।
मज्झिमनिकाय के इस कथन से स्पष्ट ज्ञात होता है कि भगवान महावीर अपने समय में एक महान तत्ववेत्ता, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी के रूप में प्रसिद्ध थे। उनके सिद्धान्त कार्यकारण सम्बन्ध पर आधारित हैं, अत: वे सब वैज्ञानिक, बुद्धिगम्य एवं ग्राह्य हैं।
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महावीर की भाषा-क्रान्ति
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-डा० नेमीचन्द जैन
विगत शताब्दियों में जो भी क्रान्तियां घटित हुई हैं, उनमें भाषा की अर्थात माध्यम की क्रान्तियां अधिक महत्व की हैं। भाषा का संदर्भ बड़ा सुकुमार और संवेदनशील संदर्भ है। भाषा संपूर्ण मानव समाज के लिए एक विकट अपरिहार्यता है। जीवन का हरेक क्षण भाषा के बहुविध संदर्भो में सांस लेता है । भाषा जहाँ एक ओर सुविधा है, वहीं दूसरी ओर उसने अपने प्रयोक्ता से ही इतनी शक्ति अजित कर ली है कि वह एक खतरनाक औजार भी है। उसमें सजन, सुविधा और संहार तीनों स्थितियां स्पंदित हैं। बहुधा यही होता है कि भाषा के दो पक्ष, वक्ता और श्रोता, पूरी तरह कभी जुड़ नहीं पाते, सप्रेषण की प्रक्रिया में । सारी सावधानी के बावजूद भी कुछ रह जाता है, जिस पर वक्ता श्रोता दोनों को पछताना होता है। वह पास लाकर भी सारी दूरियों का समाधान नहीं कर पाती। भगवान महावीर ने भाषा को इस असमर्थता को गहराई में समझा था। उन्होंने अनुभव किया था कि एक ही भाषा के बोलने वालों के बीच ही भाषा ने दूरियां पैदा कर ली हैं।
उन्होंने देखा पंडित बोल रहा है, आम आदमी उसके आतंक में फसा हुआ है। उसकी समझ में कुछ भी नहीं है, किन्तु पंडित वर्ग उस पर थोपे जाता है स्वय को। दोनों एक ही जमाने में अलग-अलग जी रहे हैं। महावीर को यह असंगति कचोट गई। उन्होंने आम आदमी की पीड़ा को पकड़ा, और उसी की भाषा को अपने जीवन की भाषा बनाया; क्योंकि उनके यूग तक धर्म का, दर्शन का जो विकास हो चका था वह भाषा की क्लिष्टता और परिभाषाओं के बियाबान में भटक गया था। आम आदमी इच्छा होते हुये भी अध्यात्म की गहराई में भाषा की खाई के कारण उतर नहीं पाता था। महावीर ने आम आदमी की इस कठिनाई को माना, समझा और अध्यात्म के लिये उसी के औजार को अंगीकार किया। उन्होंने पंडितों की भाषा को अस्वीकार किया, और सामान्य व्यक्ति की भाषा को स्वीकारा । यह क्रान्ति थी महान युग प्रवर्तक ।
उन्होंने भाषा के माध्यम से वह सब ठकरा दिया जो विशिष्टों का था। वे मुट्ठी भर लोगों के साथ कभी नहीं रहे, उन्होंने सदैव जन समुदाय को अपनाया। भगवान ने उन सारे संदर्भो को द्वितीय कर दिया जो अलगाव का अलख जगा रहे थे; जो उनकी समकालीन चेतना को क्रमहीन और खण्डित कर रहे थे। इसलिये उन्होंने साफ-सुथरी परिभाषा-मुक्त भाषा में लोगों से आमने-सामने बात की और जीवन के संदर्भो को, जो जटिल और पेचीदा दिखाई देते थे, खोलकर रख दिया। भाषा में कितनी अपार ऊर्जा धड़कती है इसे महावीर जानते थे । अर्द्धमागधी में वह उर्जस्विता थी. जिसकी खोज में भगवान थे। जो भाषा एक जगह आकर ठहर गयी थी. महावीर ने उसमें बोलने से इन्कार कर दिया। शास्त्र की पराजय ही महावीर की जय है; जहाँ शास्त्र ठहरता गया, महावीर वहां से आगे बढ़े हैं।
महावीर की भाषा को 'दिव्य ध्वनि' कहा गया। यह कोई रहस्यवादी शब्द नहीं है। 'दिव्य ध्वनि' वह जो सबके पल्ले पड़े, और अदिव्य वह जो कुछेक की हो और शेष जिससे वंचित रह जाते हों। महावीर की दिन ध्वनि अपने युग के प्रति पूरी तरह ईमानदार है, वह सुबोध है, और अपने युग के तमाम संदर्भो से जुड़ी हुई है।
महावीर की भाषा-क्रान्ति को समझने के लिये दो शब्दों को समझने की जरूरत है; 'ज्ञान' और 'समझ' या सभ्यकज्ञान । 'जानना' समझना' नहीं है; ज्ञान में हम जानते हैं, समझते नहीं हैं; सभ्यकज्ञान में हम जानते भी हैं और समझते भी हैं। जनभाषा अर्धमागधी के माध्यम से सभ्यग्ज्ञान का प्रसार करना महावीर की महान काति. कारी देन है।
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-ॐ
महावीर-निर्वाण-काल
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-डा० ज्योति प्रसाद जैन
[गत सौ-सवासी वर्षों में जिन अनेक पाश्चात्य एवं पौर्वात्य प्राच्यविदों और इतिहासकारों ने प्राचीन भारतीय इतिहास एवं संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में अथवा स्वतंत्ररूप से, जैनधर्म का ऐतिहासिक परिचय देने का प्रयास किया तो अन्तिम तीर्थंकर महावीर का जीवन परिचय देने और उनका समय निर्धारण करने का भी अल्पाधिक प्रयत्न किया ही। स्वयं जैनों को तो भगवान महावीर के निर्वाण-काल आदि के विषय में प्रायः कभी कोई सन्देह नहीं रहा, किन्तु अनेक प्रसिद्ध जैनेतर विद्वानों ने कतिपय पर्वबद्ध धारणाओं के वश अथवा महात्मा बुद्ध और बौद्धधर्म के इतिहास या राजनैतिक इतिहास की किन्हीं घटनाओं के साथ संगति बैठाने के प्रयत्न में महावीर के समय को विवादास्पद बनाने में योग दिया । इन नवीन मतों का निरसन करने के लिए, वर्तमान शती के तीसरे दशक में सर्वप्रथम मुनि श्री कल्याणविजयजी एवं पं० जुगलकिशोर मुख्तार अग्रेसर हुए । सन् १९५५-५६ में लिखित अपने ग्रन्थ, 'दी जैना सोर्सेज आफ दी हिस्टरी आफ एन्शेण्ट इन्डिया', में हमने इस समस्या पर विस्तार के साथ ऊहापोह किया था। उसके अतिरिक्त शोधांक-२ (नव० १९५६) में हमने प्राचीन पाठों के आधार से 'श्री वीर निर्वाण' का विवरण दिया था, शोघांक-३ (अप्रेल १९५९) में स्व. कस्तुरमल बाठिया का लेख 'महावीर निर्वाणाब्द,' शोधांक-५ (अक्टूबर १९५९) में हमारे लेख 'महावीर निर्वाण संवत्' तथा 'भ० महावीर के समय सम्बन्धी एक नवीन भ्रान्ति', और पं० के० भुजबली शास्त्री का लेख 'प्रचलित वीर निर्वाण संवत् ही ठीक है'
शित हुए। पं० नाथराम प्रेमी, बा. कामता प्रसाद, प्रो० हीरालाल, पण्डित कैलाशचन्द्र, पं० सुखलाल जी, डा० ए० एन० उपाध्ये आदि अन्य अनेक विद्वानों ने भी अपने लेखों में प्रसंगवश इस विषय पर प्रकाश डाला। गत वर्षों में भी, अन्य कई लेखकों के अतिरिक्त यति विजयेन्द्रसूरि जी, मुनि हस्तिमल्ल जी, डा० नेमीचन्द्र शास्त्री, मुनि विद्यानन्द जी एवं डा० मुनि नगराज जी ने इस प्रश्न पर विचार किया है। भाषा, शैली, युक्तियों और प्रमाणाधारों के प्रयोग में अल्पाधिक अन्तर रहते हुए भी प्राय: सभी जैन विद्वानों ने एक मत से महावीर निर्वाण की परम्परा मान्य तिथि, ईसापूर्व ५२७, को ही सिद्ध किया है।
अन्तिम जन तीर्थंकर वर्धमान महावीर की तिथि प्राचीन भारत की ऐतिहासिक कालानुक्रमणिका का एक प्रमुख आद्य पथ-चिन्ह है । जैनेतिहासिक कालानुक्रमणिका की तो वह मूल भित्ति ही है । महावीर-निर्वाण की तिथि ही प्रचलित जैन संवत्, अर्थात महावीर संवत् या महावीर-निर्वाण संवत् के प्रवर्तन की तिथि है, और उसी को आधार मानकर उसकी पूर्ववर्ती एवं परवर्ती समस्त घटनाओं का समय सूचित किया जाता रहा है। यह ऐतिहासिक महत्व की घटना तेइसवें तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ के निर्वाण से दोसौ-पचास वर्ष पश्चात तथा वर्तमान कल्पकाल
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४२ ]
ख-३
की अवपिणि के चतुर्थ आरे (या काल) की समाप्ति में तीन वर्ष साढ़े आठ मास शेष रहने पर घटित हुई थी। जिस दिन भगवान महावीर ने निर्वाण लाभ किया उसी दिन उनके प्रधान शिष्य एवं गणधर इन्द्रभूति गौतम को केवलज्ञान एवं अर्हत पद की प्राप्ति हई और उसी दिन उज्जयिनी में अवन्तिनरेश चंडप्रद्योत के पुत्र पालक का राज्याभिषेक हुआ था। महावीर निर्वाण के ४६१ वर्ष पश्चात् उज्जयिनी (मालव) प्रदेश में शकों का सर्व-प्रथम प्रवेश हुआ, ४७० वर्ष पश्चात प्रचलित विक्रम संवत् (कृत या मालव संवत्) का प्रवर्तन हुआ, ६०५ वर्ष ५ मास पश्चात् शक संवत् (शक शालिवाहन) प्रारम्भ हुआ, ६८३ वर्ष पर्यन्त महावीर की द्वादशांगवाणी के अंग-पूर्वी का क्रमश: ह्रास को प्राप्त होता हुआ ज्ञान गुरुपरंपरा में मौखिक द्वार से, अपने मूल रूप में सुरक्षित रहा, और निर्वाण के एक सहस्र वर्ष उपरान्त प्रथम कल्कियुग हुआ। महावीर के उपरान्त मूल आचार्य परम्परा उपरोक्त ६८३ वर्ष पर्यन्त चलती है, जिसके पश्चात, उप्सीको आधार बनाकर, विभिन्न संघ-गण-गच्छादिकों के इतिहास, पट्टावलियों एवं गुर्वावलियां प्रारम्भ होती हैं। यदि यह परम्परा प्राप्त न होती तो प्रारम्भिक जैन संघ और जैन साहित्य के भी, इतिहास का पुननिर्माण और ईस्वी सन की प्रारम्भिक शताब्दियों में हुए जैन गुरुओं एवं ग्रन्थकारों का समय निर्णय करना एवं पूर्वापर निश्चित करना अत्यन्त दुष्कर होता। जैनों ने उपरोक्त महावीर सम्वत का प्रयोग विशिष्ट व्यक्तियों एवं घटनामों का समय सूचन करने के लिये मात्र अपनी धार्मिक अनुश्रुतियों में ही नहीं किया, वरन कई जैन ग्रन्थकारों ने अपनी रचनाओं को पूर्ण करने का समय प्रगट करने में भी किया है तथा कुछ शिलालेखों में भी उसका प्रयोग हुआ है। धार्मिक कार्यों में इस सम्वत का प्रयोग आज भी होता है।
प्राचीन भारत के इतिहास में स्वयं वर्धमान महावीर का अति महत्वपूर्ण स्थान है । ईस्वी सन् के प्रारम्भ के पूर्व से ही चले आये जैन साहित्य में निबद्ध अनुश्रुतियों में उनके जीवनचरित्र एवं देशकाल की स्थिति के विषय में उपयोगी तथा बहुधा विस्तृत जानकारी उपलब्ध है।
उनके पिता राजा सिद्धार्थ वैशाली, जिसकी पहचान वर्तमान विहार राज्य के मुजफ्फरपुर जिले में स्थित बसाढ़ के साथ की गई है,4 के निकटस्थ कुण्डग्राम के ज्ञातवंशी, काश्यपगोत्री वात्य क्षत्रिय थे और अपने ज्ञातृक गण के, जो
1-जैन मान्यता के अनुसार अनादि-अनन्त व्यवहार-काल प्रवाह कल्पों में विभाजित है । प्रत्येक
कल्पकाल के उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी नाम के दो विभाग होते हैं, जो एक के पश्चात एक आते रहते हैं। इनमें से प्रत्येक छह आरों, कालों या युगों में विभाजित होता है। कालचक्र की गणना का प्रारम्भ श्रावण कृष्ण प्रतिपदा से होता है। वर्तमान में चालू कल्पकाल की अवसर्पिणी का
पांचवा आरा चल रहा है। 2-जैन मान्यता के अनुसार महावीर निर्वाण के ५०० वर्ष पश्चात एक उपकल्कि और सहस्र वर्ष पश्चात
एक कल्कि होता है। ये कल्कि-उपकल्कि धर्मद्रोही अत्याचारी उच्छं खल शासक होते हैं, और
इनका यह क्रम आगे भी चलता रहता है। 3-यथा कुन्दकुन्दाचार्य की प्राकृत भक्तियां (८ ई० पू०-४४ ई०), यतिवृषभकृत तिलोयपण्णत्ति (लग
भग २०० ई०), पूज्यपादकृत दशभक्तिः (ल० ५०० ई०), धवल एवं जयधवल (७८० ई०), आचारांग, उत्तराध्ययम, भगवती आदि आगमसूत्र तथा उत्तरवर्ती आगमिक साहित्य और जैन पौराणिक साहित्य
आदि में। 4-देखिये विषयेद्रसूरिकृत 'वैशाली' (दिल्ली, १९४६) 5-पूज्यपाद ने चरित्रभक्ति में उन्हें 'श्री मज्ज्ञातकुलेन्दुना' लिखा है, इसी से महावीर 'ज्ञातृपुत्र' कह
लाते थे, जिसका अपभ्रन्श नायपुत्त या नातपुत्त हुआ-पालिबौद्धसाहित्य में महावीर का उल्लेख निगंठनातपुत्त नाम से ही हुआ है।
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ख - ३
[ ४३
संभवतया लिच्छवियों की ही एक शाखा थी, प्रमुख थे। महावीर की जननी त्रिशला अपरनाम प्रियकारिणी तथा विदेहदत्ता, वैशाली के लिच्छवि नरेश तथा महान वज्जिगण संघ के अध्यक्ष महाराज चेटक की पुत्री थी। 7 मातृपक्ष से महावीर का सम्बन्ध मगध, काशी, कोसल, वत्स, अवन्ति, अंग ( चम्पा) और सिन्धु-सौवीर के राजघरानों के साथ था । लगभग २९ वर्ष की आयु में महावीर ने सांसारिक सुखवैभव का परित्याग करके महाभिनिष्क्रमण किया, तदनन्तर साधिक १२ वर्षं उन्होंने दुर्द्धर तपः साधना द्वारा आत्मशोधन किया, फलस्वरूप कैवल्य प्राप्त किया और वह अर्हत्-जिन हो गये । अगले ३० वर्ष पर्यन्त उन्होंने स्थान-स्थान में पदातिक निरन्तर विहार करके जनभाषा अर्धमागधी में जनता को सद्धर्म का उपदेश दिया । महावीर का व्यक्तित्व अत्यन्त तेजपूर्ण था। वह अपने समय के महान धर्मोपदेष्टा थे । गौतम बुद्ध उन्हें अपना अति प्रबल प्रतिद्वन्द्वी मानते थे 10 – वहभ० महावीर के कनिष्ठ समका लीन रहे प्रतीत होते हैं। जैनों ने भ० महावीर के पञ्चकल्याणक - गर्भावतरण, जन्म, अभिनिष्क्रमण, कैवल्य और निर्वाण की पूरी विगत, समय, तिथि, वार, नक्षत्रादि सहित बड़े यत्नपूर्वक सुरक्षित रक्खी है। और इस प्रकार भगवान महावीर का निर्वाण पावापुर के बाहर कमल सरोवरों एवं नाना प्रकार के वृक्षों से मण्डित रम्य उद्यान में, उन्नत भूमि प्रदेश में कायोत्सर्ग मुद्रा में स्थिति, कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी के अन्तिम प्रहर ( प्रत्यूषकाल ) में स्वातिनक्षत्र में हुआ था | 11 उस समय उनकी आयु ७१ वर्ष ६ मास और १८ दिवस की थी ।
महावीर - निर्वाण काल के विषय में प्राचीन जैनों ने किसी संदेह, शंका या अनिश्चय के लिए कोई अवकाश नहीं छोड़ा। वर्तमान में भी सभी जैनीजन सर्वत्र महावीर निर्वाण सम्वत् का प्रवर्तन ईसापूर्व ५२७ में
6 - सिद्धार्थनृपतितनयो भारतवास्ये विदेहकुण्डपुरे ।
देव्या प्रियकारिण्यां सुस्वप्नात् सप्रदश्य विभुः । दशभक्ति, पृ० ११६
7 - देखिये निश्यावलिया:, पृ० २७; एक श्वेताम्बर अनुश्रुति के अनुसार त्रिशला चेटक की भगिनी थी । 8-डा० बूलचन्दकृत महावीर, (जै० सं० स० मंडल, वाराणसी १९५३), पृ० १२-१३; इनके अतिरिक्त, कलिंगनरेश जितशत्रु महावीर के फूफा थे ।
9- भ० महावीर ने किन-किन ग्रामों, नगरों एवं देश-प्रदेशों में विहार किया, इसका वर्णन जिनसेनकृत 'हरिवंशपुराण' (७८३ ई०), विजयेन्द्रसूरिकृत वीर विहार मीमांसा' (दिल्ली, १९४६), जैन सिद्धांत भास्कर, भाग १२, कि० १, पृ० १६-२२ आदि में देखें ।
10 – सेक्रेड बुक्स आफ दी ईस्ट, जिल्द २२ और ४५ की प्रस्तावनाएँ । 11- पद्मवनदीर्घिका कुल विविधद्रुमखण्ड मण्डिते रम्ये
पावानगरोद्याने व्युत्सर्गेणस्थितः स मुनि: ।।१६।।
कात्तिक कृष्णास्यान्ते स्वातावृक्षे निहत्य कर्मरजः । अवशेष संप्रापद व्यजरामरमक्षय सौख्यम ||१७||
-- पूज्यपादीय निर्वाणभक्ति क्रमात्पावापुरं प्राप्य मनोहर वनान्तरे । बहूनां सरसांमध्ये महामणि- शिलातले ।। कृष्ण कार्तिक पक्षस्य चतुर्दश्यां निशात्यये । स्वातियोगे .............
-- गुणभद्रीय उत्तरपुराण
पावापुरस्य बहिरुन्नत भूमि देशे पद्मोत्पलाकुलवतां सरसां हि मध्ये ........
-- भचष्णकृत वर्धमान पुराण
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४४
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हा मानते हैं, और इसी रूप में चिरकाल से उसका उपयोग करते आ रहें हैं। जैनेतर विद्वानों ने भी सामान्यतया उसी तिथि को मान्य कर लिया है, किंतु उनमें से कई एक ने उस पर गम्भीर आपत्तियां भी की हैं और उसे पर्याप्त विवादास्पद भी बना दिया।
तद्विषयक विभिन्न मतों को स्थूलतया तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-(क) उन विद्वानों के मत जो प्रचलित निर्वाण वर्ष में वृद्धि के पक्षपाती हैं और उसे ई०पू० ५२७ से अल्लाधिक पूर्व स्थिर करते हैं । (ख) वे विद्वान जो उसमें कमी करके उसे दशकों आगे खींच लाते हैं। और (ग) वे जो ईसापूर्व ५२७ की तिथि का ही पक्षसाधन करते हैं।
प्रथम वर्ग में (१) एम के. आचार्य12 और डा. पी. एस. शास्त्री13 जैसे विद्वान हैं जो हिन्दू पौराणिक अनुवतियों तथा वराहमिहिर आदि ज्योतिविदों की गणना के आधार पर महाभारत युद्ध, युधिष्ठर का समय और कलि सम्वत् का प्रवर्तन ईसा से लगभग तीन सहस्र वर्ष पूर्व मानकर बुद्ध और महावीर के समय में भी साधिक एक सहस्त्र वर्ष की वृद्धि करने के पक्ष में हैं। किन्तु ऐसी मान्यताएँ शुद्ध ऐतिहासिक दृष्टि से मान्य नहीं हैं, अतएव उन पर विचार करने की भी आवश्यकता नहीं है।
(२) मैसूर के आस्थान विद्वान पं० ए. शान्तिराज शास्त्री ने महावीर-निर्वाण के ६०५ वर्ष पश्चात होने वाले शकराज का समीकरण विक्रम (ई०प०५७) के साथ करके निर्वाणकाल में १३५ वर्ष की वृद्धि करने और उसे ईसापूर्व ६६२ में हुआ मानने का पक्ष साधन किया। तदनन्तर कुछ अन्य पंडित भी जब-तब उसका समर्थन करते रहे हैं। किन्तु यह मान्यता एक भ्रान्तिमूलक उल्लेख पर आधारित है, उसके पक्ष में युक्ति और प्रमाण का कोई बल नहीं है, और कई बार उसका सफल निरसन किया जा चुका है।14
(३) तीसरा मत स्व. डा० काशिप्रसाद जायसवाल का है जो महावीर-निर्वाण ईसापूर्व ५४५ में स्थिर करते हैं। उनका मुख्य तर्क यह था, क्योंकि जैन पट्टावालियों के अनुसार महावीर का निर्वाण विक्रम के जन्म से ४७० वर्ष पूर्व हुआ था और विक्रम सम्वत का प्रारम्भ १८ वर्ष की वय में, ई० पू० ५७ में, विक्रम के राज्याभिषेक से हआ था, निर्वाण वर्ष में १८ वर्ष की वृद्धि करके उसे ई०पू० ५४५ में हुआ मानना चाहिए। उसके समर्थन में उनका एक तर्क यह था कि कतिपय अन्य पट्टावलियों में महावीर-निर्वाण और चन्द्र गप्त मौर्य के राज्याभिषेक के मध्य २१९ वर्ष का अन्तराल दिया हुआ है, और यह नरेश नवम्बर ३२५ ई०प० में सिंहासनासीन हुआ था। जैन अनुश्रुतियों के आधार से निर्मित अपनी कालानुक्रमणिका की उन्होंने हिन्दू पौराणिक
12-अ० भा० प्राच्यविद्या सम्मेलन विवरणिका (पूना, १९१९), पृ. १११-११४ 13-वहो (लखनऊ, १९५१), पृ० १२५ 14--शास्त्री जी का मूल संस्कृत लेख 'जैन गजट' के १९४१ के दिवाली अंक में प्रकाशित हुआ था, जिसका
अनुवाद 'अनेकान्त' व० ४ कि० १० के पृ० ५५९ पर प्रकाशित हुआ था। पं० जुगलकिशोर मुख्तार ने उस लेख का युक्ति पुरस्सर खण्डन 'अनेकांत' के उसी अंक म कर दिया था। उसके पश्चात् भी जब कुछ विद्वानों ने उस प्रश्न को पुनः उठाया तो हमने तथा पं० के० भुजबलि शास्त्री ने अपने लेखों (शोधांक-५-अक्टूबर १९५९, पृ० १७२-१७६ तथा १६९-१७१) द्वारा उसका निरसन कर दिया था।
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[ ४५ अनुश्रुतियों के साथ संगति बैठाने का भी प्रयत्न किया, बुद्ध का निर्वाण ईसा पूर्व ५४४ में स्थिर किया और विक्रम को गौतमीपुत्र शातकणि के पुत्र एवं उत्तराधिकारी सातवाहनवंशी नरेश पुलुमायि प्र० से अभिन्न रहा बताया।
डा० जायसवाल के मत का प्रधान दोष यह है कि उन्होंने जैन साधन-स्रोतों का आंशिक उपयोग ही किया-वहीं तक जहाँ तक उनसे उनके स्वयं के मत की पुष्टि होती थी, शेष की उपेक्षा कर दी। जैन लेखकों में इस विषय में मतभेद रहे हो सकते हैं कि विक्रम के जीवन की किस घटना से विक्रम सम्वत् की प्रवृत्ति हुई, किन्त इस विषय में वे पूर्णतया एकमत हैं कि वह महावीर-निर्वाण के ४७० वर्ष पश्चात हुई। इसके अतिरिक्त जायसवालजी यह मानकर चले हैं कि चन्द्रगुप्त मौर्य ई० पू० ३२५ में मगध के सिंहासन पर बैठा था और यह कि बुद्ध का निर्वाण ई०पू० ५४४ में हुआ था। इनमें से प्रथम घटना की तिथि अभी भी विवादास्पद है, और दूसरी की तिथि तो प्राय: निश्चित रूप से ई०पू० ४८३ में स्थिर कर दी गई है। विक्रम और सातवाहन नरेश पूलमायि का अभिन्नत्व भी किसी को मान्य नहीं है। कहा नहीं जा सकता कि इन परिवर्तित परिस्थितियों में महावीर-निर्वाण-काल के विषय में जायसवालजी का क्या मत रहता।
(ख) महावीर-निर्वाण-काल में कमी करने का पक्ष वर्तमान में पर्याप्त बल पकड़े हुए है--आधुनिक विद्वानों में से अनेकों का झुकाव उसे ईसापूर्व ५ वीं शती में रखने की ओर है। उनके तर्क का मूलाधार यह है कि क्योंकि महावीर और बुद्ध प्राय: समसामयिक थे और बुद्ध का निर्वाण ईसापूर्व ४८३ में निश्चित होता है, अतएव महावीर का निर्वाण बुद्ध के निर्वाण से लगभग आंधी शती पूर्व नहीं हुआ हो सकता। दूसरी ओर प्रत्यक्षतः प्रबलतर परिकल्पना यूनानी इतिहास के साथ समीकरण पर आधारित चन्द्रगुप्त मौर्य की तिथियाँ हैं जिनके साथ महावीर निर्वाणकाल की संगति बैठाने का प्रयत्न किया जाता है।
अस्तु, (१) एस. वी. वेङ्कटेश्वर ने महावीर निर्वाण की तिथि ईसापूर्व ४३७ अनुमान की। उनका कहना है कि क्योंकि बुद्ध का निर्वाण ईसापूर्व ४८५ और ४५३ के मध्य किसी समय हुआ था, और वह महावीरनिर्वाण के पश्चात हुआ नहीं हो सकता, अतएव अनुश्रुतिगम्य विक्रमपूर्व ४७० का अभिप्राय सन् ३३ ई० में प्रवत्तित अनन्द-विक्रम सम्वत् से होना चाहिए, जिसके अनुसार ई० पू० ४३७ की तिथि प्राप्त होती है ।16 किन्तु इस मत की पुष्टि किसी भी अनुश्रुति या अन्य आधारसे नहीं होती। प्रत्युत इसके स्व० डा. गौरीशंकर हीराचन्द ओझा ने अनन्द-विक्रम सम्बत् की कल्पना विषयक अपने लेख में17 यह सिद्ध किया है कि इस
ई सम्वत कभी प्रारम्भ ही नही हुआ और न प्रचलित र: और न ही चन्दबरदाई के पृथ्वीराज रासों में उसका कोई उल्लेख है-श्री वेङ्कटेश्वर ने पृथ्वीराज रासो के तथाकथित उल्लेख के आधार पर ही अपना मत बनाया था।
(२) प्रो० जाल शारपेन्टियर ने महावीर-निर्वाण ई० पू० ४६७ में स्थिर किया । वह इस परिकल्पना को लेकर चले हैं कि बुद्ध-निर्वाण की सुनिश्चित तिथि ई० पू० ४७७ है, और यह कि बौद्ध साहित्य के अनुसार महावीर और बुद्ध समसामयिक थे तथा मगध नरेश अजातशत्र के शासनकाल में विद्यमान थे।
15--'शैशुनाक एण्ड मौर्य कानोलाजी'--जर्नल बिहार-उड़ीसा रिसर्च सोसाइटी, वा० १, पार्ट १, पृ.९९-१०४ 16--दी डेट आफ वर्तमान--जर्नल रायल ए. सो, १९१७, पृ० १२२-१३० 17--देखिए-नागरी प्रचारिणी पत्रिका, भा० १, पृ० ३७७-४५४
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का विश्वास है कि ई० पू० ५७ के आस-पास विक्रम नाम का कोई व्यक्ति हुआ ही नहीं, और यह कि महावीर निर्वाण एवं चन्द्रगुप्त मौर्य के राज्याभिषेक के अन्तराल के सम्बन्ध में अन्य जैन अनुश्रुतियों और हेमचन्द्राचार्य के कयन के बीच ६० वर्ष का मतभेद या अन्तर है। हेमचन्द्र का कथन है कि चन्द्रगुप्त मौर्य महावीर निर्वाण के १५५ वर्ष पश्चात सिंहासन पर बैठा था, अतएव प्रर्चात ई०पू० ५२७ में से ६० वर्ष घटाने पर ई० पू० ४६७ की तिथि निश्चित होती है ।18 इस विद्वान के तर्क में सबसे बड़ा दोष यह है कि उसने जैन अनुश्रुतियों एवं साधनस्रोतों की प्रायः पूर्णतया उपेक्षा की है, सिवाय इसके कि निर्वाणकाल को ६० वर्ष आगे ले आने के लिए उसे भी एक साधन बना लिया।
(३) डा० नीलकण्ठ शास्त्री का भी यही मत है और उसकी पुष्टि में उन्होंने प्रायः वही तर्क दिये हैं जिसका प्रयोग शालपेन्टियर ने किया है, परन्तु उन्होंने यह भी अनुभव किया कि इस मत के मानने में दो बाधाएं हैं-एक तो यह कि इसके अनुसार चन्द्र गुप्त मौर्य का राज्यारोहण ई० पू० ३१२ में ठहराता है, जो बहुमान्य तिथि से ९ या १२ वर्ष परवर्ती हैं, दूसरे इससे बुद्ध का निर्वाण महावीर के पहले निश्चित होता है । पहली बाधा का समाधान तो वह यह कहकर कर लेते हैं कि हेमचन्द्र द्वारा प्रदत्त चन्द्रगुप्त की तिथि (३१२ई०पू०) जैन इतिहास की किसी महत्वपूर्ण घटना से सम्बन्धित होगी जो चन्द्रगुप्त के राज्यारोहण के अति निकट होने से उसके साथ सम्बद्ध कर दी गई। दूसरी बाधा को उन्होंने यह कह कर टाल दिया कि बौद्ध पालि ग्रन्थों के उक्त एकाकी कथन (बुद्ध के जीवन काल में महावीर-निर्माण सम्बन्धी) की उपेक्षा की जा सकती है-यह अयथार्थ हो सकता है ।19
(४) डा. हेमचन्द्र राय चौधरी महावीर-निर्वाण के लिए तीन तिथियों, ईसापूर्व ४७८ या ४८६ और ५३६ की सम्भावना व्यक्त करते हैं, क्रमश: यदि बुद्ध निर्वाण की तिथि कैन्टोनी (चीनी) गणना के अनुसार ई०पू० ४८६ स्वीकार की जाती है, अथवा सिंहली गणनानुसार ई० पू० ५४४ मान्य की जाती है। वर्ष ४७८ और ४८६ में से प्रथम तो हेमचन्द्राचार्य के कथनानुसार चन्द्रगुप्त के राज्याभिषेक को, जो ई०पू० ३२३ में हआ, महावीर निर्वाण से १५५ वर्ष पश्चात हुआ मानने से निश्चित होती है, किन्तु उसे करने से बौद्ध ग्रन्थों के उस स्पष्ट कथन को अमान्य करना होगा जिसके अनुसार महावीर का निर्वाण बद्ध के जीवनकाल में हो गया था। अतः अधिक सम्भावना ई० पू० ४८६ के लगभग महावीर का निर्वाण होने की है, जिसकी संगति जैन एवं बौद्ध अनुश्रुतियों में सम्मत अजातशत्र के राज्याभिषेक की तिथि के साथ बैठ जाती है 120
(५) प्रो० चरणदास चटर्जी भी ई० पू० ४८६ की तिथि के पक्ष में हैं, क्योंकि बुद्ध निर्वाण की तिथि ई० पू० ४८३ सुनिश्चित है और बौद्ध अनुश्रुति के स्पष्ट साक्ष्यानुसार महावीर का निर्वाण बुद्ध के निर्वाण से पूर्व हुआ था। 21
18--इ. ए., भाग ४३ जून-जो०-अग० १९१४, पृ० ११ आदि, तथा दी कैम्ब्रिज हिस्टरी आफ इण्डिया,
खण्ड, १, पृ० १५६ 19-हिस्टरी आफ इण्डिया (मद्रास; १९५०), भा० १, पृ० ३९-४० 20-एन एडवान्स्ड हिस्टरी आफ इण्डिया, पृ०७३ 21-बी. सी. ला वाल्यूम, ख० १, पृ. ६०६, ६०७ तथा फु० नोट३०
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[ ४७
(६) प्रो० एच० सी० सेठ महावीर निर्वाण की तिथि ई० पू० ४५८ और बुद्ध निर्वाण की ई० पू० ४८७ मानते हैं। कालक्रम सम्बन्धी दिगम्बर एवं श्वेताम्बर अनुध तियों के तुलनात्मक अध्ययन से उनकी धारणा है कि उन्होंने ४० वर्ष का ऐसा अन्तर पकड़ लिया है जिसे महावीर और विक्रम के बीच तथाकथित ४७० वर्ष के अन्तराल में से घटा देना चाहिये 122
(ग) तीसरे वर्ग में उन विद्वानों के मत आते प्रमाणसिद्ध मानते हैं, अथवा उसका समर्थन करते हैं। उसे ई० पू० ५२६ या ५२८ भी कह देते हैं।
(१) स्वर्गीय एम. गोविन्द ने बर्मा की बौद्ध अनुश्रुतियों को आधार बनाकर बुद्ध की बोधि प्राप्ति की तिथि ई० पू० ५४६ और उनके परिनिर्वाण की निधि ई० पू० ५०१ निश्चित की थी। वह इस बौद्ध अनुश्रुति को मान्य करते थे कि महावीर बुद्ध के ज्येष्ठ समकालीन थे, अतएव उनके अनुसार महावीर निर्वाण की तिथि ईसापूर्व ५४६ ओर ५०१ के मध्य रही होनी चाहिए तथा यह कि ईसापूर्व ५२७ की तिथि ही सर्वाधिक सम्भव प्रतीत होती है 1 23
ख - ३
हैं जो परम्परामान्य तिथि, जो परम्परामान्य तिथि अर्थात् ईसापूर्व ५२७ को ही गणना के साधारण से अन्तर के कारण कोई-कोई विद्वान
(२) स्व० आचार्य जुगल किशोर मुख्तार ने ई० पू० ५२७ की परम्परामाम्य तिथि का ही समर्थन किया है । उन्होंने यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि कथित विक्रम सम्वत् का प्रारम्भ न तो विक्रम के जन्म से हुआ और न उसके राज्याभिषेक से, वरन् उसकी मृत्यु के साथ हुआ था, अतएव महावीर निर्वाण और विक्रम सम्वत् के प्रवर्तनकाल के मध्य जो ४७० वर्ष का परम्परानुमोदित अन्तराल है, उसमें कोई भी वृद्धि या हानि करने का प्रश्न नहीं उठता। इस प्रकार उन्होंने जार्ल शारपेन्टियर और काशिप्रसाद जायसवाल, दोनों के मतों का निरसन करने का प्रयास किया है। उनका यह भी विश्वास था कि बुद्ध का निर्वाण महावीर के निर्वाण से सात या आठ वर्ष पूर्व हो चुका था 24 वह शक सम्वत् की प्रवृत्ति भी शकराजा की मृत्यु के समय से मानते थे । अब यदि विक्रम और शक सम्वतों की प्रवृत्ति उक्त राजाओं की मृत्यु के स्थान में उनके जीवन की किसी अन्य घटना के साथ हुई सिद्ध हो जाती है तो मुख्तार साहब क्या कहते नहीं कहा जा सकता। इधर आधुनिक विद्वानों ने बुद्धनिर्वाण की तिथि ई० पू० ४८३ प्राय: सुनिश्चित कर दी है। उसके परिप्रेक्ष्य में भी मुस्तार साहब अपने मत में कुछ संशोधन करते या नहीं, यह नहीं कहा जा सकता ।
प्रो० हीरालाल जैन ने भी प्रायः मुस्तार साहब जैसी युक्तियों से ई० पू० ५२७ की तिथि का समर्थन किया है। उन्होंने यह मानकर कि विक्रम का जन्म महावीर निर्वाण के ४१० राज्य करने के उपरान्त महावीर निर्वाण सम्वत् ४७० में उसकी मृत्यु हुई होगी, साधने का प्रयत्न किया है । 25 किन्तु उनके मत के साथ भी मुख्तार साहब जैसी आपत्ति बनी रहती है।
22 – जेना एन्टीक्वेरी भा० ११, न० १ ० ६ आदि
23 - प्रबुद्ध कर्णाटक ( मैसूर वि० वि०) में प्रकाशित बुद्ध के परिनिर्वाण की तिथि विषयक उनका लेख 24- भगवान महावीर और उनका समय दिल्ली, १९३४
वर्ष पश्चात् हुआ और ६० वर्ष आचार्य हेमचन्द्र के साक्ष्य को
1
25 षट्खण्डागम (धवल) I, I i प्रस्तावना तथा नागपुर वि० वि० के जर्नल (१९४० पृ० ५२-५३ ) में प्रकाशित महावीर निर्वाण तिथि विषयक उनका लेख कालान्तर में उन्होंने अपने मत एवं प्रतिपादन में कतिपय संशोधन किये हैं और ई० पू० ५२७ की तिथि को ही मान्य किया है- देखिए वीर जिदि चरिउ ( भा० ज्ञा० पी० १९७४ ) की प्रस्तावना तथा 'महावीर युग और जीवन दर्शन' (भा० ज्ञा० पी० १९७५) । डा० ए. एन. उपाध्ये ने भी उनके अन्तिम मत मे सहमति प्रकट की हैं।
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खण्ड-३
(३) इसी प्रकार पंन्यास मुनि कल्याणविजयजी ने महावीर निर्वाण को तिथि ईसापूर्व ५२८ निश्चित की है और उनकी मान्यता है कि बुद्ध का निर्वाण उसके पूर्व ही, ई० पू० ५४२ में हो चुका था 126
वस्तुतः दो चार अपवादों को छोड़कर प्रायः सभी जैन विद्वान27 और जैनेतर विद्वानों में से अनेक महावीर निर्वाण ई० पू० ५२७ में ही हआ मानते हैं। ऊपर तीनों वर्गों के अन्तर्गत जिन विभिन्न मतों का उल्लेख किया गया है, और जिनमें परस्पर बहुधा पर्याप्त अन्तर हैं, उनमें प्रकृत विषय से सम्बन्धित प्रायः सब ही उल्लेखनीय मत समाहित हो जाते हैं। यह भी स्पष्ट है कि अधिकांशतः ये सब ही मत किन्हीं पूर्व निर्धारित धारणाओं, अयुक्तिक मान्यताओं, विश्वासों या अनुमानों का आधार लेकर चले हैं और अन्त:साक्ष्यों की अपेक्षा बाह्य साक्ष्यों पर मुख्यतया निर्भर करते हैं ।
अब यदि महावीर के समय का निर्णय करने का प्रयत्न मुख्यतया बुद्ध की तिथि के आधार पर किया जाता है, जो स्वयं अभी भी पर्याप्त विवादग्रस्त है, अथवा यूनानी (सेन्ड्रोकोटस-चन्द्रगुप्त-सिकन्दर) समीकरण के आधार से किया जाता है. जबकि उक्त समीकरण भी पर्णतया असंदिग्ध रूप से सिद्ध नहीं है. तो प्रस्तत समस्या के साथ समुचित न्याय नहीं किया जा सकता, विशेषकर ऐसी स्थिति में जबकि महावीर अथवा बुद्ध के निर्वाणकाल और चन्द्रगुप्त मौर्य के राज्याभिषेक के मध्य रहे अन्तराल के विषय में जैनों, बौद्धों और ब्राह्मणों की विभिन्न अनुश्रुतियाँ एकमत नहीं हैं। अतएव आवश्यकता इस बात की है कि महावीर का समय अपेक्षाकृत अधिक ठोस एवं अपरिवर्तनीय तथ्यों के आधार पर स्वतंत्र रूप से निश्चित किया जाय, और तदुपरान्त हो अन्य अनुश्रुतियों एवं इतिहाससिद्ध तथ्यों के साथ उसका यथासम्भव समन्वय करने का प्रयत्न किया जाय ।
भारतीय इतिहास के प्राचीन युग में जो अनेक संवत् समय-समय पर प्रचलित हुए, उनमें से विक्रम और शक नाम के दो संवत ही सर्वाधिक लोकप्रिय एवं व्यापक प्रचारप्राप्त रहे हैं और आज भी प्रचलित हैं। इस विषय में अनेक मतभेद रहें हैं कि उनकी प्रवृत्ति कैसे हुई अथवा उनके प्रवर्तन का श्रेय किसे है, किन्तु यह सर्वमान्य तथ्य है कि विक्रमसंवत् का प्रारम्भ ईसापूर्व ५७ में और शक (या शक-शालिवाहन) संवत का ७८ ई० में हुआ था, और उन दोनों के मध्य १३५ वर्ष का अन्तराल है। साहित्य एवं शिलालेखों में इन दोनों संवतों के प्रयोग की खोज यदि वर्तमान से लेकर पीछे की ओर करते चलें तो उनके प्रवर्तन की प्रायः प्रारम्भिक शताब्दियों तक उनके उपरोक्त पारस्परिक सम्बन्ध तथा अन्य ज्ञात कालगणनाओं के साथ भी उनके संबन्धों की एकरूपता सहज ही सिद्ध की जा सकती है ।
26–वीर निर्वाण सम्वत् और जैन काल गणना-ना० प्र० पत्रिका, भा० १०, सं० १९८६, पृष्ठ ५८५७४५ 27-स्व. बा. कामताप्रसाद जैन ने अपनी पुस्तक 'भगवान महावीर (दिल्ली, ५९५१) में तथा मुनि विद्यानन्र । जी (तीथंकर वर्धमान, इन्दौर १९७३, पृ०७४-७८) और डा० नेमिचन्द्र शास्त्री ('भगवान महावीर औद
उनकी आचार्य परम्परा,' वाराणसी, १९७५) ने भी इस प्रश्न पर किंचित ऊहापोह किया है। डा० मुनि नगराज जी ने तो 'आगम और त्रिपिटक: एक अनशीलन' तथा 'महावीर और बुद्ध की समसामयिकता' (दिल्ली, १९७१) में पर्याप्त विस्तार के साथ इस सम्बन्ध में विचार किया है और यह निष्कर्ष निकाला है कि 'महावीर निर्वाण का असंदिग्ध समय ई०पू० ५२७ है तथा महावीर बुद्ध से वयोवृद्ध और पूर्व निर्वाण प्राप्त थे ।' यही निष्कर्ष हम बहुत पहले निकाल चुके थे, किन्तु लगता है, कि मुनि जी हमारी पुस्तक नहीं देख पाये। डा. राधाकुमुद मुकर्जी (हिस्ट्री एण्ड कल्चर आफ इण्डियन पीपल, भा॰ २, पृ० ३६-३८) भी परम्परा तिथि ५२८ ई०प० को स्वीकार करने में कोई विसंगति नहीं देखते।
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ख-३
[ ४९ दसवीं शती के उपरान्त तो ऐसे दृष्टान्त बहुलता से प्राप्त होते हैं, किन्तु उसके पूर्व भी गुर्जर प्रतिहार नरेश भोजदेव के देवगढ़ स्थिति ८६२ ई० के जनस्तम्भ-लेख में उक्त मानस्तम्भ की प्रतिष्ठा का समय विक्रम संवत ९१९ और शकसंवत ७८४ साथ-साथ दिया है, जो इस प्रकार का सम्भवतया सर्वप्रथम शिलालेखीय उदाहरण है ।28 आठवीं शती ई० में, स्वामी वीरसेन ने अपनी धवला टीका विक्रमसंवत् ८३८ (सन् ७८० ई० ) में समाप्त की थी और उनका उल्लेख जिनसेनसूरि पुन्नाट ने अपने हरिवंश पुराण में किया है, जिसकी समाप्ति का काल स्वयं उन्होंने शकसवत् ७०५ (सन् ७८३ ई० ) दिया है। इन दोनों ग्रन्थकारों ने कई तत्कालीन नरेशों का भी नामोल्लेख किया है, जिनके समय प्राय: सुनिश्चित हो गये हैं और उपरोक्त तिथियों से समीकृत हैं 129 सातवीं शती में कन्नौज के सम्राट हर्षवर्धन (६०६-६४७), चीनी यात्री युवान-च्वांग (६२९-६४४ई०), दक्षिणापथ के चालुक्य सम्राट पुलकेशिन द्वितीय (६०८-६४२ ई. ) और फारस (ईरान) के शाह खुसरो द्वितीय (६२५६२६ ई.) की समसामयिकता इतिहास-सिद्ध है। युवान-च्वांग हर्ष और पुलकेशिन, दोनों सम्राटों के सम्पर्क में आया था, पुलकेशिन और शाह खुसरोने राजदूतों का आदान-प्रदान किया था, हर्ष और पुलकेशिन प्रबल प्रतिद्वन्द्वी थे-उनके मध्य युद्ध भी हुए थे, और जैन विद्वान रविकीर्ति ने शक ५५६ (सन् ६३४ ई०) में पुलकेशिन की प्रसिद्ध ऐहोल प्रशस्ति रची थी। जैनाचार्य जिन-भद्रगणि क्षमाश्रमण ने अपना विबेषावश्यक भाष्य शक ५३१ (६०९ई०) में, जिनदास महत्तर ने अपनी चूणियां शक ५९८ (सन् ६७६ ई०) में और रविषेण ने अपना पद्मचरित महावीर निर्वाण संवत् १२०३ (सन् ६७६ई०) में पूर्ण किये थे । अकलङ्कदेव ने बौद्ध विद्वानों पर वि० सं० ७०० (सन् ६४३ ई० ) 30 में वाद-विजय की बताई जाती है। ये समस्त विद्वान प्रायः समसामयिक थे और प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से परस्पर सम्बद्ध भी रहे प्रतीत होते हैं । संयोग से इस बहुविध समीकरण की पुष्टि चीनी, ईरानी, उत्तर भारतीय, दक्षिण भारतीय, बौद्ध, ब्राह्मण, दिगम्बर, श्वेताम्बर, शिलालेखीय एवं साहित्यिक जैसे विभिन्न स्रोतों से हो जाती है। साथ ही, उस काल में महावीर, विक्रम और शक, तीनों ही संवतों का प्रयोग भी हुआ मिलता है और यह सुनिश्चित रूप से प्रमाणित हो जाता है कि ७वीं शती ई. के मध्य के लगभग भी इन तीनों के पारस्परिक सम्बन्धों एवं प्रवर्तनकालों (क्रमशः ईसापूर्व ५२७, ई० पू० ५७ और ईस्वी ७८) के विषय में वही मान्यता थी जो आज भी है। उसके पूर्व की शताब्दियों से सम्बन्धित भी कतिपय ऐसे दृष्टान्त प्राप्त हो जाते हैं, किन्तु न उनका रूप ही उतना सुनिश्चित है और न उनके आधार ही उतने ठोस हैं । साथ ही यह बात भी है कि उपरोक्त निष्कर्षों को सुनिश्चित रूप से असिद्ध करने वाला भी कोई दष्टान्त अभी तक उपलब्ध नहीं हुआ है।
28-एपी० इण्डि०, भा० ४, न० ४४, पृ० ३०९-३१.. 29-देखिए ज्यो. प्र. जैन-जैना सोसेज आफ दी हिस्टरी ऑफ एन्शंट इण्डिया, (दिल्ली १९६४) अध्याय, १० 30-मतान्तर से वि० सं० ७७७ % सन ७२० ई०
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५० ]
उपरोक्त कालगणनाओं में से शक सम्वत् का प्रयोग उसके प्रारम्भ से लगभग १३५ वर्ष पर्यन्त तो मथुरा के कुषाणकालीन शिलालेखों में तथा उसकी चौथी शती के अन्त पर्यन्त पश्चिमी क्षत्रप नरेशों के अभिलेखों में प्राप्त होता है, और प्रायः दूसरी शती से ही दक्षिणापथ, सुदूर दक्षिण तथा सुदूर पूर्व के काम्बुज, चम्पा, सुवर्णद्वीप आदि भारतीय राज्यों में होने लगा था। प्रायद्वीप के जैन गुरुओं और ग्रन्थकारों ने भी इसी सम्वत् का सर्वाधिक उपयोग किया। इस विषय में भी कोई सन्देह नहीं है कि दक्षिण भारत में सामान्यतया और वहां के जैनों द्वारा विशेषरूप से प्रयुक्त यह लोकप्रिय शक सम्वत्, जो बहुधा शक-शालिवाहन भी कहलाता है, सन् ७८ इ. में प्रारम्भ हुआ था।
इसी प्रकार उत्तरी भारत में, विशेषकर मालवा, गुजरात, मध्यभारत और राजस्थान में विक्रम संवत अधिक प्रचलित एवं लोकप्रिय हुआ। इन प्रदेशों के निवासी जनों ने भी उसे ही अपनी कालगणनाओं का आधार बनाया, और उन्होंने इस विषय में कभी कोई सम्देह नहीं किया कि इस संवत् का प्रवर्तन ईसापूर्व ५७ में हुआ था। तत्सम्बन्धी अनुथति को भी उन्होंने अभ्रान्त रूप में सुरक्षित रखा।
जैन लेखकों ने जब कभी या जहां कहीं भी भगवान महावीर के समय की सूचना दी तो सीधे महावीर निर्वाण सम्वत् में दी, अथवा शक या विक्रम सम्वत् के आधार से दी । विभिन्न देशों (तिब्बत, सिंहल, बर्मा, चीन
आदि) के बौद्धों में तो भगवान बुद्ध के सम्बन्ध में परस्पर स्पष्ट मतभेद रहे, किन्तु तीर्थंकर महावीर के समय के सम्बन्ध में स्वयं जैनों में कोई मतभेद नहीं हुआ। वे भारतवर्ष में ही सीमित रहे यद्यपि देश के कोने-कोने में फैल गये और संघभेदों, सम्प्रदाय भेदों आदि के होते रहते भी तथा प्रदेश विशेषों में सम्प्रदाय विशेषों को बहलता या प्रधानता रहते हुए भी, उनमें पारस्परिक सम्पर्क बराबर बने रहे, स्थान की दूरी या सम्प्रदायभेद उसमें बाधक नहीं हुए।
इसके अतिरिक्त, जैनों ने जिन दो अत्यन्त महत्त्वपूर्ण एवं मौलिक अनुश्रुतियों को उल्लेखनीय लगन एवं मतैक्य के साथ सुरक्षित रक्खा है, वे श्रुतावतार (आगमों की संकलना एवं पुस्तकीकरण ) तथा 'कल्कि' से सम्बन्धित हैं। इनमें से प्रथम अनुश्रुति महावीर निर्वाण के उपरान्त ६८३ वर्ष पर्यन्त की अविच्छिन्न आचार्य परम्परा प्रदान करती है, और साथ ही यह भी सूचित करती है कि भगवान की द्वादशाङ्गवाणी-रूपी मूल आगमज्ञान (श्रुतागम) मौखिक द्वार से गुरु परम्परा में किस प्रकार इस अवधि पर्यन्त सुरक्षित रहा आया यद्यपि उसमें शनैः शनैः क्रमश: हास भी होता रहा था, और अन्ततः किस प्रकार तत्कालीन आचार्य तदावशिष्ट आगमज्ञान का पुस्तकीकरण करने के लिये सहमत हए। दूसरी अनुश्रुति कल्कि से सम्बन्धित है जो महावीर निर्वाण के प्रथम सहस्त्राब्द के अन्त के लगभग हुआ ।31 इसी प्रसंग में उत्तर भारत, विशेषकर उज्जयिनी में क्रमश: शासन करने वाले राज्यवंशों की
31-एवं वस्स सहस्से पुह चक्की हवेइ इक्केको
-तिलोयपण्णत्ति
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[ ५१
कालानुक्रमणिका भी उक्त सहस्त्राब्द को दे दी जाती है, जिसका अन्त कल्कि के अत्याचारी शासन के साथ हुआ ।
प्रथम अनुश्रुति तो जैन साहित्य एवं जैनसंघ के इतिहास की मूलभित्ति है । इसे आधार बनाकर हम ईस्वी सन् की प्राथमिक चार-पांच शताब्दियों में हुए प्रमुख जैन आचार्यों एवं ग्रन्थकारों के क्रम को तथा उनके समय को सन्तोषप्रदरूप में निर्धारित कर सकते हैं। विशेषकर दिगम्बर आम्नाय के प्रायः सभी संघ - गण गच्छ आदि के इतिवृत्तों का मूलाधार भी यही अनुश्रुति है । ये संघ-गण- गच्छ आदि अपनी-अपनी पट्टावलियाँ या गुर्वावलियाँ उपरोक्त महावीर निर्वाण वर्ष ६८३ से ही प्रायः प्रारंभ करते हैं, और साथ ही उक्त ६८३ वर्ष की आचार्यपरंपरा अपनी-अपनी पट्टावलियों के प्रारम्भ में प्राय: उसी रूप में निबद्ध कर देते है जिसमें कि वह अनुश्रुति से सम्बन्धित अन्य अनेक साधन स्रोतों में प्राप्त होती है । स्वयं भगवान महावीर के समय के संकेत भी उनमें बहुधा प्राप्त होते हैं ।
ख - ३
अस्तु, विक्रम सम्वत् ८३८ (सन् ७८० ई०) में समाप्त अपनी धवला टीका में स्वामी वीरसेन ने भगवान महावीर के उपरान्त होने वाले २८ आचार्यों की परम्परा दी है, जिसे उन्होंने पांच समूहों में विभाजित किया है। और साथ ही प्रत्येक समूह का पूरा काल भी निर्देशित कर दिया है तथा अन्त में यह सूचित किया है कि 'उपरोक्त ६८३ वर्ष में से ७७ वर्ष ७ मास घटाने से ६०५ वर्ष ५ मास शेष रहते हैं जो उस अन्तराल के द्योतक हैं जो महावीर निर्वाण और शक सम्वत् के प्रवर्तनकाल के मध्य रहा था ।' अपने कथन के समर्थन में उन्होंने एक प्राचीनतर गाथा भी उद्धृत की है जिसका आशय है कि प्रचलित शकवर्ष में ६०५ वर्ष ५ मास जोड़ने से वर्तमान महावीर निर्वाण वर्ष निकल आता है 1 32.
मुक्तिगते महावीरे प्रतिवर्ष सहस्रकम् । एकैको जायते कल्की जिनधर्म विरोधकः । इदि पडि सहस्सवस्सं वीरे कक्कीणदिक्कमे चरिमो ।
जलमंथणो भविस्सदिकक्की सम्यग्गमत्थणओ ॥
-तिलोयसार (९७३ ई० )
तित्थोगालीपयन्ना, दीपमालाकल्प, कालसप्तति आदि श्वेताम्बर ग्रन्थों में भी इसी आशय के कथन पाये जाते हैं ।
अवणी
32- सव्वकाल समासो तेयासीदिअहिय छस्सदमेत्तो (६८३), पुणे एत्थ सत्तमासाहिय सत्तहत्तरिवासेसु (७७-७) पंचमासाहियपंचत्तर छस्सदवासाणि ( ६०५-५ ) हवंति । एसो वीर जिणिणिव्वाणगद दिवसादो जाव सगकाल सभादी होदि, तावदियकालो, कुदो ? एदम्मिकाले सगणरिदकालस्स पक्खित्ते वड्ढमाणजिण विदकालगमणादो |
- हरिवंश (७८३ ई० )
वृत्तं च-पंच य मासा पंच या वासा छच्चेव होंति वाससया ।
सगकालेन य सहिया थावेयव्वो तदो रासी ॥
- जैन सिद्धांत भवन आरा की प्रति, पृ० ५३७
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५२ ]
ख-३ ऐसी ही गाथातित्यो-गाली-पयन्ना नामक प्राचीन श्वेताम्बर आगमिक रचना में पाई जाती है 133 प्रथम पंक्ति दोनों में समान है, दूसरी पंक्ति भिन्न है, किन्तु उक्त पाठभेद से गाथा के आशय में कोई अन्तर नहीं आता। 'उपपन्नो सगोराया' (शक-राज उत्पन्न हुआ ) का फलितार्थ यही है कि 'शक संवत् की प्रवृत्ति हुई' । यतिवृषभ (लगभग १७६ ई.) ने इस अनुश्रुति को सर्वप्रथम लेखबद्ध किया प्रतीत होता है ।34 तदनन्तर जिनसेन (७८३ ई०), 35 नेमिचन्द्र (९७३ ई०),36 मेरुतुंग (१३०६ ई०) 37 आदि परवर्ती विद्वानों ने उसकी पुनरावृत्ति की। अतएव यह स्पष्ट है कि शक संवत् की प्रायः प्रथम शती से ही दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही इस विषय में पूर्णतया एकमत रहते आये हैं कि महावीर निर्वाण संवत् और शक संवत् के प्रवर्तनकालों के मध्य ६०५ वर्ष ५ मास का अन्तराल था, साथ ही यह भी कि उक्त शक संवत् सन् ७८ ई० में प्रारम्भ हुआ था, जिससे सिद्ध है कि महावीर निर्वाण १७ में हुआ था।
एक दूसरे वर्ग की अनुश्रु ति विक्रम संवत् के अधार से महावीर का समय सूचित करती है । दिगम्बर पट्टावलियों में प्रायः सर्व प्राचीन, नन्दिसंघ की प्राकृत पट्टावलि, प्राचीनता में प्रायः उसी के समकक्ष श्वेताम्बर तपागच्छ पट्टावलि, तथा हरिभद्रीय आवश्यकवृत्ति (लगभग ७७५ ई०), तीर्थोदारप्रकरण एवं कई अन्य ग्रन्थ
33--पंच य मासा पंच य वासाछच्चेव होंति वाससया। परिणिव्वु अस्सअरहंतो तो उपपन्नो सगोराया ।
-पट्टावली समुच्चय, पृ० ५३७ मुनि कल्याणविजयजी ने अपने पूर्वोक्त निबन्ध में भी इस पयन्ना को उद्धृत किया है। 34-णिव्वाणे वीरजिणे छन्वाससदेसु पंचवरिसेषु । पणमासेसु गदेषु संजादो सगणिओ अहवा ॥
__ -तिलोयपण्णति, IV, १४९९. 35--वर्षाणां षट्शतीं त्यक्त्वा पंचाग्रां मास पंचकम् । मुक्तिगते महावीरे शकराजस्ततोऽभवत् ।।
-हरिवशं, अ०६०, श्लो० ५४९ 36--पणछस्सय वस्सं पणमासजुदं गमियवीर णिव्वुइदो। सगराजो तो कक्की चदुणवतिय एहिय सगमासं ।।
-तिलोयसार, गा० ८५० 37--श्री वीर निवृतेर्वषः षड्भिः पंचोत्तरैः शतैः ।
शाक संवत्सरस्यैषां प्रवृत्तिभरतेऽभवत् ॥ -विचारश्रेणी वस्तुत: मेहतुङ्ग ने किसी पूर्ववर्ती रचना से यह पद्य उध्दृत किया है ।
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एकमत से यह प्रतिपादन करते हैं कि भगवान महावीर का निर्वाण विक्रम संवत् के प्रवर्तन से ४७० वर्ष पूर्व हुआ था ।38 इनमें से प्रथम आधार को छोड़कर शेष सब महावीरोत्तर काल की राज्यकाल गणना प्राय: अभिन्न रूप से देते हुए अन्त में यह कथन करते हैं कि उज्जयिनी में चतुर्वर्षीय शकशासन के उपरान्त महावीर निर्वाण वर्ष ४७० में विक्रमादित्य का राज्याभिषेक हुआ था। कई जैन लेखकों ने तो स्वयं अपने समय की सूचना देते हुए यह सुस्पष्ट कर दिया कि जिस विक्रम संवत् का प्रचलन है और जिसका वह स्वयं प्रयोग कर रहें हैं वह वही है जिसका प्रारम्भ महावीर निर्वाण के ४७० वर्ष पश्चात हुआ था। 39 और क्योंकि इस विषय में कोइ सन्देह
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38-- सत्तरि चन्दुसदजुत्तोतिणकाला विक्कमो हवईजम्मो-नंदिसंघ की प्रा० पट्टावली का
विक्रमप्रबन्ध, जैन सिध्दान्त भास्कर, I, ४, पृ. ७५ तद्राज्यंतु श्री वीरात सप्तति वर्षशतचतुष्टये संजातम्-तपागच्छ पट्टावली (षटखंडागम, I, 1, i, पृ० ३३--प्रस्तावना में उद्धृत) इतः श्री विक्रमादित्यः शास्त्यवन्ती नराधिपः । अनुण पृथिवीकुर्वन प्रवर्तयति वत्सरम् ॥--प्रभावक चरित्र विक्कमरंज्जारंभो पुरओ सिरिवीर णिब्बुइ भणिया। सुन्न-मुणि-बेयजुत्तो विक्कमकालाउजिणकालो।।-विचारश्रेणी महमुक्खगमणाओ पालयनन्दचन्दगुत्ताइराईसु वोलीणेसु ।
च उसय सत्तरेहि वासेहिं विकक्माइच्चो राया होही ।।-विविधतीर्थ कल्प का पावापुरीकल्प 39- वरिसाण समचउक्के सत्तरिजुत्तो जिणेद वीरस्स ।
गिब्बाण उववण्णा विक्कमकालस्स उत्पत्ती । विक्कमणिवकालाओछाहत्तरदसस एसु वरिसाणं । माहम्मि सुद्ध पखे दसमी दिवसम्मि संतम्मि ||-आमेर भंडार की १४५६ ई० में लिपिकृत वीरकवि द्वारा वि. सं १०७६ (सन् १०१९ ई०) में रचित जम्बूचरित्र काव्य की प्रशास्तिगत ।। इसी प्रकार कन्नड़ ग्रन्थ माघनन्दि-श्रावकाचार के कर्ता ने अपने ग्रन्थ की समाप्ति का समय शक १९७५ (सन, १२५३ ई.) सूचित करते हुए यह बता दिया कि उसके द्वारा प्रयुक्त शक सम्वत् की प्रवृत्ति महावीर निर्वाण के ६०५ वर्ष ५ मास पश्चात् हुई थी, यह कि उनके समय में महावीर निर्वाण वर्ष १७८०वा चल रहा था, आचारांगधारियों की परम्परा को समाप्त हुए (अर्थात म. सं. ६८३ से) १०९७ वर्ष बीत चुके थे और पंचमकाल के २१००० वर्ष में से १९२२० वर्ष शेष थे। स्पष्ट है कि १२वीं शताब्दी में भी जैनीजन महावीर निर्वाण ईसापूर्व ५२७ में हुआ निर्विवाद रूप से मानते थे। (देखिए-के. बी. पाठक का लेख, इंडियन एन्टीक्वेरी, XII, पृ० २१-२२)
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५४ ]
ख - ३
नहीं था कि उक्त विक्रम संवत् का प्रारम्भ ईसापूर्व ५७ में हुआ था, अतएव सिद्ध है कि महावीर निर्वाण ईसा पूर्व ५२७ में हुआ था 140
इसी तिथि (ईसापूर्व ५२७ ) की पुष्टि जैन परम्परा में हुए महान संपभेद से सम्बन्धित अनुश्रुतियाँ भी करती हैं। श्वेताम्बर मान्यता के अनुसार यह दिगम्बर श्वेताम्बर संघभेद महावीर संवत् ६०९, अर्थात ईस्वी सन् ८२, में हुआ था, 41 और दिगम्बर परम्परा के अनुसार विक्रम संवत् १३६, अर्थात् ईस्वी सन् ७९ में हुआ था । 2
बलभी नगरी में आचार्य देवद्विवणि क्षमाश्रमण द्वारा श्वेताम्बर परम्परा सम्मत आगम-सूत्रों के पुस्तकीकरण की तिथि महावीर निर्वाण संवत् ९८०, मतान्तर से ९९३, अर्थात् ईस्वी सन् ४५३ या ४६६ मान्य की जाती है। इस तिथि की सत्यता में शंका करने के लिए विशेष अवकाश नहीं है, क्योंकि उक्त पुस्तकारूढ़ आगमसूत्रों पर नियुक्तियाँ रचने वाले आवार्य भद्रबाहु जो तन्नाम श्रुतकेवलि से भिन्न एवं पर्याप्त परवर्ती हैं,
40.
41.
42.
43.
वस्तुत:, जैसा कि डा० एडवर्ड टामस का कथन है, 'जैन परम्परा में महावीर निर्वाण की असंदिग्ध एवं सुनिश्चित तिथि सुरक्षित रही है, जो दिगम्बर श्वेताम्बर उभय सम्प्रदायों के अपने-अपने स्वतन्त्र साक्ष्यों से सुनिर्णीत है। दोनों की कालगणना की विधि अपनी-अपनी स्वतन्त्र और एक दूसरे से भिन्न होने के कारण वे विवक्षित तथ्य की दोहरी पुष्टि करते हैं। श्वेताम्बरों ने ईसापूर्व ५७ में प्रारम्भ हुए विक्रम संवत् को अपनी काल गणना का आधार बनाया तो दिगम्बरों ने सन ७८ ई० में प्रारम्भ हुए शक संवत् को, और दोनों ही इस अभिन्न निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि महावीर निर्वाण ईसापूर्व ५२६-७ में हुआ था । अतएव इस तथ्य में सन्देह के लिए अवकाश नहीं है।" ( देखिए - इन्डियन एन्टीक्वेरी, भाग ८, पृष्ठ ३०-३१) छवास सवाई नवस्ताई सिद्धिगयस्स वीरस्स | तो बोडियाण विट्ठी रवीरपुरे समुप्यमा ॥
- आवश्यक मूलभाष्य (६०९ ई०) गा० १४५
छत्तीस वारिस विक्कमरायरस मरणपस्तस्स । सोरठे बलहीए उप्पण्णो सेवडो सेबडो संघी ॥
दर्शनसार (सं० ९९० )
देखिए, ज्यो० प्र० जैन-दी जैना सोर्सेज, पूर्वोक्त, पृ० १५२
समय सुन्दर कृत समाचारीशतक में यह तिथि म० नि० सं० ९५० दी है, म०नि० सं० ९९३ की तिथि
के लिए देखें अनेकान्त, वर्ष ३, अंक
१२, पृष्ठ ६८१-६८२
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ख-३
[ ५५ सुप्रसिद्ध ज्योतिषी वराहमिहिर के ज्येष्ठ भ्राता थे और वराहमिहिर की सुनिश्चित तिथि शक संवत् ४२७, अर्थात् ५०५ ई० है 145
यतिवृषभकृत 'तिलोयपण्णति' के अनुसार शक संवत् की सर्वप्रथम प्रवृत्ति महावीर नि० सं० ४६१ में हुई थी, और अन्यत्र हमने यह सप्रमाण सिद्ध किया है कि उक्त पुरातन शक संवत् का प्रारंभ ईसापूर्व ६६ में हुआ था 146
इसी तथा अन्य अनेक ग्रन्थों में प्रचलित शक संवत (तथाकथित शक शालिवाहन) का प्रवर्तन महावीर निर्वाण के ६०५ वर्ष ५ मास पश्चात हुआ बताया है, जो सर्वमान्य मत के अनुसार ईस्वी सन् ७८ निश्चित होता है।47 हरिवंशकार जिनसेन (७८३ ई०) भी शक संवत् के प्रारम्भ की इसी तिथि का समर्थन करते हैं, और वह उसके तथा गुप्तवंश की स्थापना के मध्य २४२ वर्ष का अन्तर बताते हैं। गुप्त राज्य की स्थापन संवत् के प्रर्वतन की इतिहास मान्य तिथि ३१९-३२० ई० है, जिसके साथ उक्त अनुश्रुति की संगति ठीक-ठीक बैठ जाती है।48 प्रसिद्ध अरब विद्वान अल-बेरूनी के मतानुसार भी उपरोक्त अन्तराल २४१ वर्ष का था। 49
साहित्य में महावीर संवत का प्राचीनतम उपलब्ध प्रयोग विमलसूरि के पउमचरिउ में प्राप्त होता है जहाँ स्वयं उक्त ग्रन्थ की रचना-तिथि महावीर संवत् ५३० (अर्थात सन् ईस्वी ३) दी है 150
शिलालेखों में महावीर संवत का प्राचीनतम ज्ञात प्रयोग म० नि०सं० ८४ (ईसा पूर्व ४४३) के बड़ली
44. ज्यो. प्र. जैन, वही, पृ० १६३. सम्यक्त्व सप्ततिकावृत्ति तथा मेरुतुंगकृत प्रबंध-चिन्तामणि में इन भद्रबाहु
को वराहमिहिर का सहोदर बताया है। 45. ए० मेकडानेल-संस्कृत साहित्य का इतिहास, पृ० ५६४, वि० स्मिथ-आक्सफोर्ड हिस्ट्री आफ इंडिया
(१९२०), पृ० १६० 46. ज्यो० प्र जैन, वही, अध्याय ५-दी अलियर शक इरा, पृ० ८२.९९ 47. वही, पृ. ६९-८१ 48. वही, पृ० ४९, १९६, २५७ 49. देखिए-ई० सचाउ द्वारा संपादित एवं अनुवादित 'अल वेरुनीज इंडिया,' तथा १९१९ में पूना में हुए
अखिल प्राच्य विद्या सम्मेलन में पठित डा०के०बी० पाठक का निबन्ध, पृ० १३३ 50. पंचेव वास सया दुसमाए तीसवरस संजुत्ता। वीरे सिद्धिमुवगए तओ निबदधं इमं चरियं ।।-अंतिम सर्ग की गा० १०३
-कई विद्वान इस तिथि में शंका करते हैं।
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ख-३
अभिलेख में प्राप्त होता है। 51 राजस्थान में अजमेर के निकट स्थित प्राचीन काल का यह महत्वपूर्ण स्थान माध्यमिका या माध्यमिका नगरी के नाम से प्रसिद्ध था। अशोक मौर्य के शासन के प्रारंमिक वर्षों के एक अभिलेख में एक स्थान पर २५६ संख्या प्राप्त होती है,52 जो किसी संवत् के वर्ष का सूचक प्रतीत होती है । कतिपय विद्वान उसे बुद्ध संवत् रहा अनुमान करते भी हैं । अधिक संभावना यही है कि वह महावीर निर्वाण संवत् के वर्ष थे, विशेष कर इस कारण कि अपने प्रारंभिक जीवन में बौद्ध धर्म में दीक्षित होने के पूर्व-अशोक का झुकाव जनधर्म की ओर रहा प्रतीत होता है।3 । इस प्रकार महावीर संवत् २५६ का अर्थ है ईसापूर्व २७१ के लगभग, जिसके दो-तीन वर्ष पूर्व ही अशोक का विधिवत राज्याभिषेक हुआ माना जाता है। इसके अतिरिक्त, कलिंग चक्रवर्ती महमेघगहन खारवेल, जो सुनिश्चित रूप से जैनधर्मावलम्बी था. अपने सुप्रसिदध हाथीगंफा शिलालेख (लगभग ईसा पूर्व १५०) में कथन करता है कि अपने राज्य के पांचवे वर्ष में वह उस प्रणालिका (नहर) को अपनी राजधानी तक ले आया था, जिसे वर्ष १०३ में भूलत: एक नन्दराजा ने निर्माण कराया था।54 यह वर्ष १०३ भी महावीर निर्वाण वर्ष ही रहा प्रतीत होता है, जिसके अनुसार उक्त घटना, अतः उक्त नन्दराजा की तिथि ईसा पूर्व ४२४ आती है। राज्यकालगणना सम्बन्धी जैन अनुश्र तियों में नन्दों का शासनारंभ महावीर नि० सं० ६० (ईसापूर्व ४६७) में और उनका अन्त म० नि० स० २१० या २१५ (ई० पू० ३१७ या ३१२) में हुआ बताया गया है । 55 अतएव लगभग डेढ़ सौ वर्ष पर्यन्त चलने वाले नन्दवंश के राजाओं में से ही कोई एक उपरोक्त नदराजा था । वस्तुत: पौराणिक अनुश्र तियों, ज्योतिष गणना तथा कल्कि अथवा सप्तर्षि संवत्सरों के आधार पर कतिपय विद्वानों ने नंदवंश के सर्वप्रसिद्ध नृप का राज्यारोहण ईसापूर्व ४२४ में ही निश्चित किया है ।56
51. 'वीराय भगवते चतुरासीतिवसे (८४) का जालामालिनिये रनिविठ माझिमिके'-प्राचीन मौर्य कालीन
ब्राह्मी लिपि का यह लघु शिलालेख सन् १९१२ में स्व० ५० गौरीशंकर हीराचन्द ओझा को बड़ली ग्राम से प्राप्त हुआ था और उन्होंने उसकी उपरोक्त व्याख्या की थी। यह अभिलेख डी०सी० सरकार के
'सेलेक्ट इन्सक्रिप्शन्स' में भी प्रकाशित हुआ है। 52. अशोक के लघुशिलालेख नं० १ की पंक्ति ५ में देखिए,
जे. फ्लीट, जर्नल रायल एशियाटिक सोसायटी, १९१०, पृ० १३०१-८; १९११, पृ० १०९१-१११२ 53. एडवर्ड टामस, 'जैनिज्म, और दी अर्ली फेथ आफ अशोक,' जर्नल रायल एशियाटिक सी० भाग पृ० १५५
आदि 54. पंचमे च दानीवसे नदराजा तिवससत ओ (घा) टितं' आदि हाथीगुंफा शि० ले०, पंक्ति ६-जर्नल बी०ओ०
आर० एस, जिल्द ३, भाग ४, पृष्ट ४५५ 55. ज्यो० प्र० जैन, वही, पृ० २५५-२५९ 56. देखिए, एच०के० देब, 'डेट आफ कारोनेशन आफ महापदम नंद,' अ०भा० प्राच्य विद्या सम्मेलन (पना
१९१९) में पठित निबन्धों का संक्षेप सार, पृ० १२०-१२३
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यह सत्य है कि १२ वीं शती के प्रसिद्ध जैनाचार्य हेमचन्द्रसूरि ने एक स्थान पर यह कथन किया है कि चन्द्रगुप्त मौर्य का राज्यारोहण म०नि० सं० १५५ में हुआ था। उनके कथन से अनेक आधुनिक विद्वानं भ्रान्ति में पड़ गये । परन्तु यह ध्यातव्य है कि हेमचन्द्राचार्य का वह एकाकी कथन उनके पूर्ववर्ती एवं परवर्ती, दिगम्बर एवं श्वेताम्बर, समस्त जैन साधन स्रोतों के विरुद्ध जाता है । वे सब एक मत से नंदवंश का राज्यारंभ म० नि० सं० ६० में हुआ प्रतिपादित करते हैं, और नन्दों का पूरा राज्यकाल १५५ वर्ष रहा सूचित करते हैंकेवल एक ग्रन्थ (खित्थोगाली पयन्ना) में यह काल १५० बर्ष बताया गया है। स्वयं हेमचन्द्र भी अन्यत्र नंदवंश स्थापना की परम्परानुमोदिल तिथि, म०नि० सं० ६० ही प्रतिपादित करते हैं ।57 साथ ही जब वह अपने शिष्य गुजरात के चौलुक्य सम्राट कुमारपाल के सिंहासनारोहण की तिथि महावीर नि० सं० १६६९ सूचित करते हैं,58 तो प्रकारान्तर से महावीर निर्वाण के ईसापूर्व ५२७ में हुए होने का ही स्पष्ट समर्थन करते हैं, क्योंकि कुमारपाल का राज्यारंभ ११४२ ई० में हुआ था। उनके परवर्ती विद्वान मेरुतुंग (१३०६ ई.) ने इस विसंगति को लक्ष्य किया था, किन्तु हेमाचार्य जैसे प्रमाणीक विद्वान के मत का खुला खंडन करने का शायद उन्हें साहस नहीं हुआ । तथापि उन्होंने यह तो लिख ही दिया कि हेमचन्द्राचार्य ने क्यों और कैसे ऐसा विचित्र कथन कर दिया यह विचारणीय है (सञ्चिन्त्यम्)9, साथ ही मेक्तुंग ने स्ववं परम्परानुमोदित कालगणना ही दी।
आधुनिक इतिहासज्ञों द्वारा सुनिर्धारित मौर्य कालगणना पर भी महावीर निर्वाण की तिथि ईसापूर्व ५२७ मानने से कोई अन्तर नहीं पड़ता । जैन राज्यकाल-गणना में मौर्यों के राज्यारंभ की तिथि म० नि० सं० २१० या २१५ (अर्थात् ई० यू० ३१७ या ३१२) का अभिप्राय उस वर्ष से है जब चन्द्रगुप्त मौर्य के शासनकाल में उसका आधिपत्य उज्जयिनी पर स्थापित हुआ था, क्योंकि उक्त कालगणनाएं उज्जयिनी को केन्द्र मानकर ही की गयी हैं 160 मगध में अन्तिम नन्दनरेश से राज्य-सत्ता छीनने के पश्चात् चन्द्रगुप्त मौर्य को अवश्य ही कुछ वर्ष वहां अपनी स्थिति सुदृढ़ एवं निष्कंटक करने में लगे थे । तदुपरान्त ही उसने विजय अभियान चलाया और उज्जयिनी पर अधिकार स्थापित करके ही वह वस्तुत: भारत सम्राट बन पाया था।
57. अनन्तरं बर्धमान स्वामी निर्वाण वासरात । . गतायां षष्टिवत्सर्यामेष नन्दोऽभन्नृपः ।। परिशिष्ट पर्व, VI, २४३ 58. त्रिषष्ठिशलाकापुरुषचरित, पर्व १०, पृ० १२, श्लोक ४५-४६ 59. मेरुतुंग कृत 'प्रबन्ध चिन्तामणि' के अन्तर्गत विचारश्रेणी' 60. 'ग्रीक्स इन बैक्ट्रिया एण्ड इंडिया' ग्रन्थ के लेखक प्रोफेसर टार्न ने अपनी पुस्तक (पृ० ४४-५०) में लिखा है
कि ईसा पूर्व १०० के लगभग हुए एक प्राचीन:युनानी इतिहासकार (जिसे टार्न ने ट्रोगससोर्स के रूप में उल्लिखित किया है) ने चन्द्रगुप्त मौर्य के राज्या रोहण की तिथि ई० पू० ३१२ ही दी है । उनका विश्वास है कि इस महत्वपूर्ण प्राचीन युनानी इतिहाकार ने यह तथ्य अपने भारत प्रवास में स्वयं जैनों से जानकर 'ही लिखा होना चाहिए।
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जहाँ तक मगध के ऐतिहासिक नरेश बिम्बिसार और उसके पुत्र एवं उत्तराधिकारी अजातशत्र का प्रश्न है, बिम्बिसार तो जैन परम्परा में श्रेणिक नाम से प्रसिद्ध है । उसकी पट्टराणी चेल्लना भगवान महावीर की मौसी थी तथा उनकी परम भक्त श्राविका भी थी। स्वयं श्रीणिक भी महावीर का परम भक्त शिष्य, प्रमुख श्रोता और श्रावकोत्तम था। उसकी मृत्यु महावीर निर्वाण के पूर्व ही हो चुकी थी। श्रेणिक और चेल्लना का पुत्र सम्राट अजातशत्रु अपरनाम कुणिक भी महावीर का भक्त था । एक जैन अनुश्रुति के अनुसार अजातशत्रु के राज्य के १६ वें वर्ष में महावीर निर्वाण हुआ था, किन्तु मगध का सिंहासन प्राप्त करने के पूर्व
जातशत्रु आठ वर्ष तक चम्पा (अंगदेश) का शासक, अपने पिता के जीवनकाल में ही, रह चुका था, और ऐसा प्रतीत होता है कि यह आठ वर्ष उक्त सोलह वर्ष में सम्मिलित हैं ।61 इस प्रकार अजातशत्रु ई० पू० ४४३ के लगभग चम्पा का शासक नियुक्त हुआ और ई० पू० ४३५ के लगभग मगध के सिंहासन पर बैठा था। सम्भवतया इसी समय के लगभग गौतम बुद्ध को गया में निर्वाण अर्थात् बोधिलाभ हुआ था और उसके लगभग ४५ वर्ष पश्चात् ई० पू० ४८३ में कुशीनगर में उनका परिनिर्वाण हुआ था । बुद्ध परिनिर्वाण की यह तिथि वर्तमान में सर्वाधिक विद्वन्मान्य है, और इसके साथ उस बौद्ध अनुश्रुति की भी संगति बैठ जाती है जिसके अनुसार उनका निर्वाण (बोधिप्राप्ति) अजातशत्रु के (चम्पा में शासनारंभ के) आठवें वर्ष में हुआ था।
इस विषय में तो कोई मतभेद है ही नहीं कि महावीर और बुद्ध समसामयिक थे। प्राचीन पालि साहित्य से यह भी स्पष्ट सूचित होता है कि बुद्ध महावीर निर्वाण के उपरान्त भी जीवित रहे थे, वह उनके प्रति बड़ा आदर भाव भी रखते थे और एक अवसर पर, तत्कालीन तीर्थकों के प्रकरण में, उन्होंने महावीर का उल्लेख 'अद्धगतोवयो' (अधेड़ उम्रवाला) रूप में किया था तथा स्वयं के लिए 'नब्ब' पबज्जित' (नवदीक्षित) पद का प्रयोग किया था ।62 अतएव यह न मानने के लिए कोई कारण नहीं है कि महावीर बुद्ध से पर्याप्त वयज्येष्ठ थे।
इसके अतिरिक्त, बुद्ध परिनिर्वाण की तिथि के सम्बन्ध में स्वंय बौद्ध अनुश्र तियों में परस्पर भारी मतभेद है-सिंहली अनुश्रुति ई० पू० ५४४ मानती है, बर्मी ई० पू० ५०१, तिब्बती ई० पू० ४८८ और कैन्टोनी (चीनी) ई० पू० ४८६ मानती हैं। आधुनिक विद्वानों में भी कुछ ई० पू० ५०१, कुछ ई० पू० ४७७ और कुछ ई० पू० ४५३ भी निश्चित करते हैं । किन्तु सर्वाधिक मान्य मत इस घटना को ईसा पूर्व ४८३ में निश्चित करता
61. देखिए, भगवती सूत्र; एन एडवान्स्ड हिस्टरी आफ इंडिया (पृ० ७३) के विद्वान लेखक भी इसी:मत का
समर्थन करते प्रतीत होते हैं ।
'एक समये भगवो सक्केस, विहरति....तेन खोपन समयेन निगण्ठो नातपुत्तो पावायं अधुना कालकतो होति' मज्झिमनिकाय का सामगामसुत्त, तथा उसी का उपालिसुत्त और दीधनिकाय का पासादिक सुत्तन्त भी द्रष्टव्य हैं । और देखिए राहुल मांस्कृत्यायन कृत 'बुद्धचर्या', केम्बिन हिस्ट्री आफ इंडिया, जिल्द I, (१९३५ ई०), पृ० १५६; जर्नल आर० ए० एस०. १८८५ ई०, पृ० ६६५ आदि
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ख - ३
[ ५९
है 163 अतएव बुद्ध निर्वाण की तिथि उपरोक्त विभिन्न तिथियों में से कोई भी क्यों न रही हो, उससे बुद्ध का महावीर के कनिष्ट समकालीन होने में कोई अन्तर नहीं पड़ता । केवल ई० पू० ५४४ की तिथि इस स्थापना में बाधक हो सकती है, किन्तु उसमें यदि कुछ सत्यांश है तो यही कि वह बुद्ध के बोधि लाभ की तिथि हो सकती है, जिसे बौद्ध परम्परा में निर्वाण भी कहा जाता है। इतना ही नहीं, महावीर निर्वाणोपरान्त अगले ६२ वर्षों में गौतम, सुधर्मा और जम्बू नाम के उनके तीन उत्तराधिकारी क्रमशः हुए जो भगवान महावीर की भांति ही अपने जीवन में कैवल्य प्राप्त करके अर्हत् केवलि या (निगंठतित्थक) हुए थे, और यह तीनों भी बुद्ध के समकालीन थे, अतएव सामगामसुत्त का उपरोक्त कथन उनमें से किसी के लिए भी हुआ हो सकता है ।
इस प्रकार, महावीर निर्वाण काल असंदिग्ध रूप से ईसापूर्व ५२७ में सुनिश्चित होता है, जिसकी पुष्टि अन्तरंग एवं बाह्य विविध प्रमाण बाहुल्य से होती है। ज्ञात ऐतिहासिक प्रतिपत्तियों से भी उसमें कहीं कोई विरोध नहीं आता। इसे केवल एक वर्ष आगे ( ई० पू० ५२६) या एक वर्ष पीछे ( ई० पू० ५२८ ) जो कतियप विद्वान स्थिर करते हैं, वह महावीर की आयु में गर्भकाल आदि गौण तथ्यों के सम्मिलित करने या न करने अथवा निर्वाण वर्ष को प्रारंभ या समाप्ति का सूचक मानने आदि कारणों से करते हैं । किन्तु इस तिथि को एकाधिक वर्षो से आगे या पीछे नहीं ले जाया जा सकता । उसे स्थिर करने में परिवर्तनीय, अनिश्चित या अर्ध-निश्चित प्रति पत्तियों और अनुमानों को आधार बनाने की कोई आवश्यकता नहीं है । वह एक प्रकार से स्वयं सिद्ध है ।
निर्वाण के समय भगवान महावीर की आयु ७१ वर्ष, ६ मास और १७ दिन थी ।64 उनके जीवन की महत्वपूर्ण घटनाओं की तिथियाँ नीचे लिखे अनुसार हैं
जन्म - चैत्र शुक्ल त्रयोदशी, मार्च ३०, ई० पू० ५९९, वैशाली के निकट कुण्डग्राम में ।
अभिनिष्क्रमण - मार्गशीर्ष कृष्ण दशमी, नवम्बर ११, ई० पू० ५७०, ज्ञातृखण्ड वन में ।
कैवल्य प्राप्ति - वैशाख शुक्ल दशमी, अप्रैल २६, ई० पू० ५५७, ऋजुकूला तटवर्ती जृ भिकग्राम के बाहर । धर्मचक्र प्रवर्तन—श्रावण कृष्ण प्रतिपदा, अगस्त १, ई० पू० ५५७, राजगृह के विपुलाचल पर ।
63. यह तिथि प्रो० गीगर, डा० फ्लीट, डा० विक्रमसिंथे, आदि प्रकाण्ड विद्वानों एवं प्राच्यविदों ने निश्चित की है - देखिए डी० आर० भंडारकर वाल्यूम, पृ० ३२९ - ३३०,
भगवान महावीर की उपरोक्त आयु स्व० आचार्य जुगल किशोर मुख्तार ने अपनी पुस्तक 'भगवान महावीर और उनका समय' (दिल्ली १९३४, पृ० १३, ३१ ) में पर्याप्त उहापोह के पश्चात् निश्चित की थी । कुछएक गर्भकाल के ९ मास ७ दिन १२ घंटों को जोड़ते हैं । किन्हीं की गणना के अनुसार उनकी
कुछ विद्वान इसमें एक या दो दिन की वृद्धि करते हैं । इसमें सम्मिलित रहा मानते हैं, जबकि कुछ अलग से पूरी आयु ७१ वर्ष ३ मास २५ दिन १२ घंटे बैठती है ।
64.
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निर्वाण-कार्तिक कृष्ण अभावस्या,(सूर्योदय से पूर्व, प्रत्यूषकाल में) भौमवार, अक्तूबर १५, ई० पू० ५२७, मध्यमापावा में पदमसरोवर के तट पर 165
65. भारतीय तिथि, मास आदि पूज्यपादीय दशभक्ति, विशेषकर निर्वाणभक्ति तथा धवल, जयधवल आदि के
आधार से दी गयी हैं । अंग्रेजी तिथियों का आधार स्वामी कन्नु पिल्ले की 'इंडियन एफ्रीमेरिस को बनाया गया है। यह ध्यातव्य है कि महावीर निर्वाण संवत के वर्ष, वर्ष की समाप्ति के सूचक हैं, ईस्वी सन के वर्षों की भांति चालू वर्ष के सूचक नहीं हैं।
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महावीर ने कहा
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-मुचि महेन्द्र कुमार 'प्रथम'
सडिढए मेहावी मारं तरह-श्रद्धाशील मेघावी संसार के पार पहुंच जाता है। पर, प्रश्न यह है कि श्रद्धा किसके प्रति हो ? सामान्यत: शास्त्रों के प्रति, धर्माचार्य के प्रति तथा अभिभावकों के प्रति समर्पण को श्रद्धा कहा जाता है। किन्तु, तीर्थंकर महावीर इसके आगे बढ़े थे। उनका कहना था, शास्त्र जड़ वर्गों में पिरोये हुए हैं। वे स्वत: कुछ भी प्रभावी नहीं होते । व्यक्ति उन वर्गों में अपनी अनुभूतियों को योजित करता है । जैसी वे अनुभूतियां होती हैं, उन्हीं के आधार पर शास्त्रों की परिणति हो जाती है। प्रयोक्ता यदि उनके साथ सम्यक अनुयोजन करता है, उनसे बढकर अन्य कोई भी प्रकार उतना प्रभावी नहीं हो सकता। यदि उस' अनुयोजन में सम्यक्ता का निर्वहन पूर्णत: नहीं हो पाता, तो वे शास्त्र भार के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं हो सकते।
धर्माचार्य चेतन हैं। वे शिष्यों को साधना में अनुयोजित करने का प्रयत्न करते हैं । किन्तु, बहुधा वे न्याय तथा निष्पक्षता से हट भी जाते हैं। शिष्यों के प्रति उनकी समवर्तिता खण्डित हो जाती है। अन्य भी अनेक प्रकार हैं, जिनसे उनकी अपूर्णता छलकती है। अपूर्ण के प्रति श्रद्धा की कैसी अभिव्यक्ति ?
__ अभिभावक तो केवल रहन-सहन, खान-पान, शिक्षण-संस्थापन आदि व्यवहारिक क्रियाओं के व्यवस्थापक होते हैं। उनके साथ तो मात्र विनिमय की ही प्रधानता होती है।
श्रद्धा स्व के प्रति होनी चाहिये । जो अपने अस्तित्व में लीन हो गया, श्रद्धा वहां साकार हो गयी । आत्मविस्मृत व्यक्ति किसी भी परिस्थिति में श्रद्धा का परिवेश पा नहीं सकता। इसलिए श्रद्धा का तात्पर्य है, आत्मा के अस्तित्व में अधिनिष्ठ होना।
आनन्द का श्रेष्ठ मार्ग
सामान्यतः व्यक्ति निराशा, असफलता व बिषाद के क्षणों में उन्मन हो जाता है तथा आशा, सफलता व हर्ष के क्षणों में उछलने लगता है। वह प्रतिकूलता को अभिशाप तथा अनुकूलता को वरदान मानकर चलता है। यह व्यक्ति की अपूर्णता है और वह किसी रिक्तता की ओर संकेत करती है। यथार्थता यह है कि जीवन द्वन्द्वात्मक है। वह नाना विरोधी युगलों को अपने में अटा कर ही अवस्थित रह सकता है। उनका तिरोधान किसी भी स्थिति में शक्य नहीं है। व्यक्ति यह क्यों भूल जाता है कि ये सारे द्वन्द्व जीवन रूप रस्सी के दो छोर या एक ही सिक्के के दो पार्श्व हैं।
निराशा, असफलता, विषाद एवं प्रतिकूलता के क्षणों में जो अन्यमनस्क नहीं होता, वह जीवन के रण क्षेत्र में विजयी होता है। वह फिर सफलता, हर्ष, आशा तथा अनुकूलता के समय भी समचित्त रहैगा । उसके जीवन में न ऊब तथा घटन होगी एवं न अतिरिक्ता की अनुभूति होगी। यह प्रकार जितना साधक के लिए उपयोगी है, उतना ही सामान्य व्यक्ति के लिए भी। जो इन द्वन्द्वों से अतीत रहेगा, वह सदैव आनन्दमय रहेगा। आनन्दित होने का यही श्रेष्ठ मार्ग है।
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६२ ]
ख-३ दिड्मूढ़ता
सामान्यतः व्यक्ति वर्तमान में जीता है । वह बहुधा इस तथ्य को भूल जाता है कि वर्तमान का आधार विगत है और उसका आकार अनागत है । आधार और आकार के बिना वर्तमान का श्रृंगार नहीं हो सकता। फिर वहां दिग्मूढ़ता परिलक्षित होने लगती है। इसीलिये 'के अंह आसी', केवा इओ चुइयो पेच्चा भविस्सामि, (१-आयारो, अ० १, अ० १)-अधिकांश व्यक्तियों को विगत का ज्ञान नहीं होता और भविष्य की उनके सामने कोई स्पष्टता नहीं होती। विगत की विस्मृति का तात्पर्य है कि वर्षों तक जो अनुभव संजोये थे, जिनके आधार पर भविष्य में निखार लाया जा सकता था, उस अमूल्य निधि से वंचित हो जाना। व्यक्ति जितना अपने अनुभवों से पा सकता है, उतना पुस्तकों तथा अन्य व्यक्तियों के सम्पर्क से नहीं पा सकता। सहज प्राप्त अनुभव-ज्ञान से रिक्त व्यक्ति जड़वत् रहता है।
___ भविष्य की दिङ्मूढ़ता वर्तमान को भी धूमिल कर देती है। अनिश्चय की स्थिति में वह हाथ-पर-हाथ रख कर बैठा रहेगा। उसके कर्तव्य में अकल्पित सामर्थ्य होते हुये भी उसके लिये सब कुछ नहीं जैसा ही होगा। अकर्मण्यता पनपती चली जायेगी । जो व्यक्ति वर्तमान को उजागर करना चाहता है, उसे विगत को आधार तथा अनागत को आकार के रूप में स्वीकृत करना ही पड़ेगा। वर्तमान तभी सार्थक होगा और दिङ्मूढ़ता समाप्त होगी।
हिंसा के सूक्ष्म रूप
__ "पुरिसा ! तुमंसि नाम सच्चेव जं हंतव्वंति मन्नसि"-पुरुष ! जिसे तू मारना चाहता है, वह तू ही है । वध्य (मरने वाला) और वधक (मारने वाला) दो नहीं हैं। जो वधक है, वही वध्य है । जिसे परितप्त करना चाहता है, उपद्रत करना चाहता है, जिसे दास या नौकर बनाना चाहता है, वह भी अन्य कोई नहीं। वस्तुतः वह तू ही है । "सव्वेसि जीवियं पियं नाइवइज्ज किंचणं" सबको ही जीवन प्रिय है, अतः किसी का भी अतिपात (हिंसा) न करो।
प्राण-वियोजन करना तो हिंसा है ही, पर किसी के प्रति दुश्चिन्तन करना भी हिंसा है। अहिंसक का मन सर्वथा पवित्र रहना चाहिये । उसमें उभरने वाले प्रतिक्षण के विचार सुदात्त, उदार तथा उन्नत होने चाहिये। एक क्षण भी संकीर्ण, आग्रह से भरे तथा अनुदार विचार नहीं होने चाहिये। प्रतिशोध, उत्तेजना, अहं, छद्म, आसक्ति, किसी को हीन समझना, स्वयं को उच्च समझना आदि भी हिंसा के ही सूक्ष्म रूप हैं।
किसी के प्रति अनादर व्यक्त करना, असभ्य शब्दों का प्रयोग करना, उपहास करना, निन्दा करना, एकदूसरे के मन में घ णा के भाव उत्पन्न करना, डांटना, विरोधी वातावरण उभारना, किसी जाति, समाज या सम्प्रदाय को अन्य-जाति, समाज या सम्प्रदाय के विरूद्ध भड़काना आदि वाचिक हिंसा के नाना सूक्ष्म रूप हैं।
चांटा मारना, उद्दण्डता करना, अभद्र व्यवहार करना, अशिष्टता बरतना, उछल-कूद मचाना आदि कायिक हिंसा के नाना सूक्ष्म रूप हैं ।
अहिंसक व्यक्ति उपरोक्त सभी प्रकारों से स्वयं को मुक्त रखता है। वह मन, वाणी तथा काया से सर्वथा पवित्र रहता है।
हीन भावना तथा अहम्
'नौ हीणे ।" व्यक्ति हिंसा दूसरों की ही नहीं करता, अपितु स्वयं की भी करता है। अपने प्रति हीनता की अनुभूति करने वाला प्रतिक्षण अपनी हिंसा करता रहता है । वह यह भूल जाता है कि उसमें अनन्त प्रकार की
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ख-३
ऊर्जाएँ हैं और उनके प्रस्फोट से अनिर्वचनीय सिद्धियां प्राप्त की जा सकती हैं। किन्तु, स्वयं को हीन समझने वाला व्यक्ति अपनी ही शक्तियों से अज्ञात अन्यमनस्कता में पगा रहकर क्षण-क्षण अवसाद को प्राप्त होता रहता है, जो हिंसा का ही एक पर्याय है । अहिंसक व्यक्ति किसी भी परिस्थिति में हीनता की अनुभूति नहीं करेगा। वह अपने पुरुषार्थ का पूर्णरूपेण उपयोग करेगा।
"नो अइरित्त।" बहत सारे व्यक्ति अपने को महान् मानकर अन्य व्यक्तियों की अवहेलना करते रहते है। वहां उनमें अहं छलकता रहता है। स्वयं सब कुछ है, अन्य कुछ भी नहीं है, इस अनुभूति में स्वयं को अतिरिक्त तथा अन्य को यथार्थ से विरहित मानकर वास्तविकता को झुठलाने का प्रयत्न करते हैं। अहिंसा को सदैव वास्तविकता ही मान्य है। वहां स्वयं को महान् मानने वाले को अवकाश नहीं है।।
जिस प्रकार सचेतन प्राणियों को कष्ट पहँचाना हिंसा है, उसी प्रकार किसी जड़के प्रति दुर्व्यवहार करना भी हिंसा है । राह चलता हुआ व्यक्ति किसी पत्थर के ठोकर मारता है, तो वह असत् प्रवृत्ति करता है और वह हिंसा ही है। इसलिये जड़ पदार्थो के प्रति भी किसी भी प्रकार असंयत व्यवहार नहीं होना चाहिये।
मैत्री
"मैत्ति भूयेसु कप्पये-प्राणियों से मैत्री करो।" संसार में अनेक विचारों के व्यक्ति हैं। सबके विश्वास भिन्न-भिन्न होते हैं। रहन-सहन के प्रकार भी एक तरह के नहीं होते। भाषा, व्यवहार, सम्प्रदाय आदि भी भिन्नभिन्न होते हैं। जब व्यक्ति अपने विचारों को प्रधानता देकर अन्य के विचारों का प्रतिरोध करता है, तब हृदयों में दुराव का भाव उत्पन्न होता है। आत्मा का सहज स्वभाव मैत्री तब खण्डित हो जाती है। प्रत्येक व्यक्ति को चाहिये कि स्वयं के विश्वास, रहन-सहन के प्रकार, भाषा, व्यवहार तथा सम्प्रदाय आदि को ही अन्तिम मानकर आग्रहशील न बने। उस समय ही मैत्री फलित हो सकती है।
___ व्यक्ति दूसरों से अपने प्रति अच्छा व्यवहार चाहता है, किन्तु, दूसरों के प्रति अच्छा व्यवहार करने में कृपणता दिखलाता है। वह यह भूल जाता है-'आयतुले पयासु"-सबको अपने तुल्य समझो। अपने तरह की अनुभूति जब दूसरों के साथ होती है, तब दुराव घटता है और समीपता बढ़ती है। दो हृदयों की दूरी समाप्त होकर जब निकटता में अभिवृद्धि होती है, तभी मैत्री साकार होती है। जो क्षुद्र रेखायें विभाजक बनती हैं, उन्हें समाप्त किया जाता है। उस समय तब-मम-तेरे-मेरे की अनुभूति नहीं रहती । सब हमही हैं । यह सारा संसार एक परिवार है और सभी व्यक्ति उसके छोटे-बड़े सदस्य हैं, यही चिन्तन क्रियान्वित होता है।
मैत्री में छोटी-छोटी इकाइयां नहीं होती। जो कुछ होता है, वह सर्व के लिए होता है। यदि छोटी-छोटी इकाइयाँ अवस्थित रहती हैं, जो मैत्री का नाम हो सकता है, पर उसका फलितार्थ नहीं।
समय का मूल्य
संसार में सबसे बहुमूल्य समय होता है। पर, अधिकतम उपेक्षा इसकी ही की जाती है। व्यक्ति प्रमाद एवं असावधानी में समय को व्यर्थ ही गंवा देता है । जो समय के मूल्य को नहीं आंकता, उसका भी कोई मूल्य नहीं आंकता । इसलिये 'समयं गोयम ! मा पमायये'-एक क्षण का भी प्रमाद में अपव्यय न करो।
जा जा वच्चइ रयणी न सा पडिनियत्तई, धम्मं च कुणमाणस्स सफला जन्ति राइओ।
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जो रात्रियाँ व्यतीत हो गईं, वे लौटकर पुनः नहीं आयेंगी। जो साधक साधना-शील (धर्म-परायण) रहकर उनका उपयोग कर लेगा, वह समय की सार्थकता को प्रमाणित कर लेगा।।
समय के मूल्य को आंकने का तात्पर्य है, वर्तमान का जागरूकता के साथ उपयोग करना। वर्तमान में सजग रहने वाला सब क्षेत्रों तथा सब कार्यो में सजग रहता है, अत: वह अपने निर्माण में पूर्ण सफल रहता है। जिसने समय की उपेक्षा कर दी, सारा संसार उसकी उपेक्षा कर देता है। उस प्रकार के निरूपयोगी व्यक्ति का कोई भी सन्मान नहीं करता।
जो व्यक्ति समय का उपयोग नहीं करता, वह अपने निर्माण में ही कोरा रहता है, इतना ही नहीं, बल्कि व्यर्थ किये गये उस समय से वह ऐसे दुःखद जाल भी बुन लेता है, जिनसे उसका निष्क्रमण अत्यन्त कठिन हो जाता हैं। जीवन में प्रगति, विकास तथा निखार चाहने वाले व्यक्ति के लिए यह आवश्यक है कि वह एक क्षण को भी प्रमाद में व्यतीत न करे ।
पुरुषार्थ
"उदिए नो पमाय (१-आयारो, अ० ५, उ०२)-उठो, प्रमाद न करो।" आलस्य एवं अकर्मण्यता में समय को न गंवाओ। तुम पुरुष हो; अत: पुरुषार्थ को काम में लो। दीनता के स्वर तुमको शोभा नहीं देते। भाग्य के निर्माता हो । किसी के सामने हाथ न फैलाओ । सफलता तुम्हारे पौरुष की प्रतीक्षा में है।
अनन्त शक्तियां तुम्हारे में अन्तर्गभित हैं। तुम उनसे अनजान हो, इसीलिए अपने पौरुष के प्रति आश्वस्त नहीं हो । कार्य की सफलता के लिए दूसरों के मुंहताज बन रहे हो, यह परावलम्बिता है। जब शक्तियों का आभास कर लोगे, देखोगे, कुछ भी तुम्हारे लिए असम्भावित नहीं है । बल, वीर्य, पुरुषाकार और पराक्रम ही योजनाओं को क्रियान्वित करते हैं; अत: उनका गोपन न कर, इन्हें सत्कार्यो में प्रयुक्त करो। शुभ प्रवृत्ति नये का सर्जन करती है, वहां वह अशुभ का निवारण भी करती है। केवल संवेदनाओं में पलना उचित नहीं है। वे तो कर्तृत्व का हनन करती हैं।
साधना पौरुष की क्रियात्मक परिणति है। उससे शक्तियों का आभास तथा उनका सम्यक् अनुयोजन होता है। उस ओर सतत बढ़ने का तात्पर्य पुरुषार्थ के सम्यक् अनुष्ठान का प्रतीक होता है।
प्रत्येक क्षण में सावधान रहो। आलस्य, अकर्मण्यता तथा प्रमाद को अपने पास न आने दो। ये लो शक्तियों को कुण्ठित करने के साधन हैं।
महाबीर
विवरण 8
महोत्सव
परस्परोपग्रहो जीवानाम
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जैनधर्म, दर्शन और संस्कृति
जनधर्म
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क्या कहाँ है ?
सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाश चन्द्र शास्त्री डा० दरबारीलाल कोठिया न्यायाचार्य डा० ज्योति प्रसाद जैन कविवर पं० बनारसीदास पं० सुखलाल जो मुनि नथमल पद्म विभूषण डा० दौलतसिंह कोठारी
१ भगवान महावीर का दर्शन और धर्म २ जैन न्याय : संक्षिप्त विवेचन ३ गृहस्थ जीवन का जैन आदर्श ४ श्रावक के इक्कीस गुण ५ भगवान महावीर की मांगलिक विरासत ६ असाम्प्रदायिकता का मूलमंत्र अनेकान्त ७ महावीर और अहिंसा--आज के परिप्रेक्ष्य में ... ८ वर्तमान युग में महावीर के उपदेशों की
सार्थकता
राष्ट्रीय एकता के विकास में जैनधर्म का योग १० महावीर का धर्म-जनधर्म ११ जैन दर्शन की व्यापकता १२ अच्छा हिन्दू बनने के लिए अच्छा जैनी
बनना आवश्यक है १३ भगवान महावीर की अहिंसा १४ महावीर का नैतिकता बोध १५ जैनधर्म, महावीर और नारी १६ सर्वोदयी जैनधर्म और जातिवाद १७ बदलते सामाजिक मूल्यों में महावीर
की भूमिका १८ क्या महावीर का युग कभी लौटेगा १६ भारतीय वास्तुकला के विकास में जैनधर्म .
का योगदान
डा० प्रभाकर माचवे डा० (श्रीमती) कुसुमलता जैन श्री रिषभदास रांका डा० गोकुलचन्द्र जैन
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श्री परिपूर्णानन्द वर्मा आर्यिकारत्न ज्ञानमती माताजी डा० कमलचन्द्र सोगानी सुश्री सुशीला कुमारी वैद, एम.ए. पं० परमेष्ठी दास जैन न्या० ती०
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डा० उम्मेदमल मुनौत डा० देवेन्द्रकुमार शास्त्री
प्रो० कृष्णदत्त बाजपेयी
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८-भगवान महावीर (गुप्तकालीन प्रतिमा), कंकाली टीला, मथुरा
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९-मानस्तम्भ (१७६ जिनमूर्तियों के अंकन से युक्त), देवगढ़
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* भगवान महावीर का दर्शन और धर्म *
-सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री
बारह वर्षों की कठोर साधना के पश्चात जब भगवान महावीर को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई और राजग्रही नगरी के बाहर विपुलाचल पर उनकी प्रथम धर्मदेशना हुई तो उनके मुख से प्रथम वाक्य निसृत हुआ
उप्पन्नेय वा धवेइ वा विगमेई वा अर्थात् वस्तु उत्पन्न होती है, ध्रुव रहती है, और नष्ट होती है। ये तीनों क्रियाएं एक ही समय में प्रत्येक वस्तु में सदा हुआ करती हैं। महावीर के दर्शन में सत् का लक्षण ही उत्पाद व्यय और ध्रौव्य है। जो उत्पाद व्यय और ध्रौव्य से युक्त है वही सत् है। आचार्य कुन्दकुन्द और उनके अनुयायी आचार्य उमास्वाती ने सत का यही लक्षण किया है और भगवान महावीर के अनुयायी सभी उत्तरकालीन जैनाचार्यों ने उसे स्वीकार किया है। इस एक ही वाक्य में भगवान का दर्शन और धर्म दोनों समाविष्ट हैं।
आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने प्रवचनसार आदि ग्रन्थों में उक्त तत्व का समर्थन करते हुए कहा है-विनाश के बिना उत्पाद नहीं और उत्पाद के बिना विनाश नहीं। तथा उत्पाद और विनाश ध्रौव्य के बिना नहीं होते। अतः जो उत्पाद है वही विनाश है। जो विनाश है वही उत्पाद है। तथा जो उत्पाद विनाश हैं वही स्थिति या ध्रौव्य है और जो स्थिति है वही उत्पाद विनाश है। इसका स्पष्टीकरण दृष्टान्त द्वारा इस प्रकार है-जो घट की उत्पत्ति है वही मिट्टी के पिण्ड का विनाश है। क्योंकि भाव (घट) अन्य भाव के अभाव (मिट्टी के पिण्ड से विनाश) स्वरूप से प्रतिभासित होता है, तथा जो मिट्टी के पिण्ड का विनाश है वही घट का उत्पाद है क्योंकि अभाव (मिट्टी के पिण्ड का विनाश) का अन्य भाव के भाव (घट की उत्पत्ति) स्वरूप से अवभासन होता है। और जो घट का उत्पाद तथा मिट्टी के पिण्ड का विनाश है वही मिट्टी की स्थित है। क्योंकि व्यतिरेक रूप से अन्वय का प्रकाशन होता है तथा जो मिट्टी की स्थिति है वही घट और मिट्टी के पिण्ड का उत्पाद विनाश है क्यों व्यतिरेक अन्वय का अतिक्रमण नहीं करता ।
यदि ऐसा नहीं माना जाता तब उत्पाद, विनाश और स्थिति भिन्न-भिन्न ठहरती हैं। और ऐसा होने पर जो केवल घट को उत्पन्न करना चाहता है वह घट को उत्पन्न नहीं कर सकता, क्योंकि घट के उत्पाद का कारण है मिट्टी के पिण्ड का विनाश, उसका अभाव । यदि उसके बिना भी घट उत्पन्न होता है तो असत् का उत्पाद हुआ कहा जायेगा। और इस प्रकार या तो घट की तरह सभी पदार्थों का उत्पाद नहीं हो सकेगा, या असत् की उत्पत्ति मानने पर आकाश के फूल जैसे असंभव पदार्थों का भी उत्पाद हो जायगा।
तथा केवल विनाश को चाहने पर मिट्टी के पिण्ड का विनाश नहीं होगा क्योंकि विनाश का कोई कारण नहीं है। या फिर सत् का सबंधा विनाश मानना होगा। और मिट्टी में पिण्ड का विनाश न होने पर क्या सभी प्रदार्थों का विनाश नहीं होगा । अथवा सत का उच्छेद मानने पर ज्ञानादि का भी उच्छेद हो जायेगा।
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ख-४
तथा केवल मिट्टी की स्थिति मानने पर उत्पाद-व्यय के बिना स्थिति सम्भव नहीं है। इसी तरह सभी पदार्थों की स्थिति अकेली सम्भव नहीं है।
यहाँ यह शंका होती है कि एक ही वस्तु को एक ही समय में उत्पाद व्यय और स्थिति कैसे हो सकते हैं। इसके उत्तर में कहा है कि उत्पाद व्यय और ध्रौव्य पदार्थों में होते है। और पर्याय द्रव्य में होती है । अतः वे सब एक ही द्रव्य हैं, द्रव्यान्तर नहीं हैं, जैसे वृक्ष स्कन्ध मूल और शाखाओं का समुदाय रूप है उसी तरह द्रव्य पर्यायों का समुदायरूप है। और पर्याय उत्पाद व्यय ध्रौव्य रूप हैं क्योंकि उत्पाद व्यय ध्रौव्य अंशों के धर्म है अंशी के नहीं, जैसे अंशी वृक्ष के बीज अंकुर और वृक्षत्व रूप तीन अंश अपने धर्म विनाश उत्पाद और ध्रौव्य के साथ ही प्रतिभासित होते हैं उसी तरह अंशी द्रव्य के नष्ट होने वाला, उत्पन्न होने वाला, और स्थिति रहने वाला ये तीन अंश विनाश उत्पाद और ध्रौव्य के साथ ही प्रतिभासित होते हैं। यदि द्रव्य का ही विनाश, उत्पाद और ध्रौव्य माना जाये तो सब गड़बड़ हो जायेगा। इसलिये उत्पाद व्यय ध्रौव्य पर्यायों में होते हैं और पर्याय द्रव्य में होती है । अतः ये सब एक द्रव्य है।
आमतौर पर लोग ऐसा समझते हैं कि विश्व में जिस क्षण में वस्तु का जन्म होता है उस क्षण में केवल जन्म ही होता है, विनाश और स्थिति नहीं होते । जिस क्षण में वस्तु की स्थिति है उस क्षण में उत्पाद विनाश नहीं होते, और जिस क्षण में विनाश होता है उस क्षण में उत्पाद और स्थिति नहीं होते। इस तरह तीनों में कालभेद माना जाता है।
किन्तु यह तभी सम्भव है जब ऐसा माना जाये कि द्रव्य स्वयं ही उत्पन्न होता है, स्वयं ही ध्रौव्य रहता है और स्वयं ही नाश को प्राप्त होता है, किन्तु ऐसा नहीं माना जाता । उत्पाद आदि पर्यायों के ही होते हैं तब काल भेद क्यों ?
जैसे कुम्हार, दण्ड, चक्र, चीवर के द्वारा अरोपित संस्कार के होने पर जिस क्षण में घट की उत्पत्ति होती है उसी क्षण में मिट्टी की पिण्ड पर्याय का नाश है और उसी क्षण में मिट्टीपने की स्थिति है। इसी तरह अन्तरंग और बहिरंग कारण कलाप के द्वारा आरोपित संस्कार के होने पर जिस क्षण में उत्तरपर्याप का उत्पाद होता है उसी क्षण में पूर्वपर्याय का विनाश होता है और उसी क्षण में द्रव्यत्व की स्थिति भी है, जैसे घट, मिट्टी का पिण्ड और मिटटीपना प्रत्येक में होने वाले उत्पाद व्यय ध्रौव्य इन तीनों स्वभावों को स्पर्श करने वाली मिट्टी में समस्त रूप से एक समय में ही देखे जाते हैं। उसी प्रकार उत्तर पर्याय पूर्व पर्याय और द्रव्यत्व इनमें से प्रत्येक में होने वाले उत्पाद व्यय ध्रौव्य इन तीनों को स्पर्श करने वाले द्रव्य में समस्त रूप से एक समय में ही देखे जाते हैं, और जैसे घट, मिट्टी पिण्ड और मिट्टीपना में होने वाले उत्पद व्यय ध्रौव्य मिट्टीरूप ही हैं, अन्य वस्तु नहीं है। उसीप्रकार उत्तरपर्याय पूर्वपर्याय और द्रव्यत्व में होने वाले उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य द्रव्य ही हैं, अन्य पदार्थ नहीं है।
इस प्रकार द्रव्य की अन्य पर्याय उत्पन्न होती है, अन्य पर्याय नष्ट होती है, फिर भी द्रव्य न उत्पन्न होता है और न नष्ट होता है। जैसे आम हरे से पीला होता है, तो वह पीत भाव से उत्पन्न होता है, हरितपने से नष्ट होता है और आमफल रूप से स्थिर रहता है, इसलिये आमफल एक वस्तु की पर्यायद्वारा उत्पाद व्यय ध्रौव्य रूप है। उसी प्रकार उत्तरपर्याय से उत्पन्न, पूर्वपर्याय में नष्ट और द्रव्यत्व से स्थिर होने से द्रव्य एक द्रव्यपर्याय द्वारा उत्पाद व्यय ध्रौव्यात्मक है।
इस तरह जो उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक है वह सत् है और जो सत् है वह द्रव्य है । इस प्रकार द्रव्य स्वयं सत् है। द्रव्य को स्वयं सत् न मानने पर दो ही बाते हो सकती हैं-या तो वह असत् होगा या सत्ता से भिन्न
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होगा। असत् मानने से तो द्रव्य का ही अभाव हो जायेगा और सत्ता से भिन्न मानने पर सत्ता के बिना भी वह स्वयं वर्तमान रहकर सत्ता का ही अभाव कर देगा। क्योंकि सत्ता जो काम करती थी वह उसने स्वयं कर लिया । अत: द्रव्य स्वरूप से सत् है । क्यों कि भाव (सत्ता) और भाववान् (द्रव्य) पृथक-पृथक न होने से अभिन्न होते हैं । जैन दर्शन में पृथक्त्व का लक्षण है - प्रदेश भेद का होना । जिनके प्रदेश भिन्न हैं वे भिन्न हैं । किन्तु गुण और गुणी के प्रदेश भिन्न नहीं होते। जैसे शुक्ल गुण के जो प्रदेश हैं वे ही प्रदेश गुणी वस्त्र के हैं। उसी तरह सत्ता गुण के जो प्रदेश हैं वे ही प्रदेश गुणी द्रव्य के हैं । उनके प्रदेश भिन्न नहीं हैं । किन्तु फिर भी गुण और गुणी में अन्यत्व है । अन्यत्व का लक्षण है अतद्भाव, गुण और गुणी में तद्भाव का अभाव होने से अन्यत्व है । जैसे शुक्ल गुण केवल एक चक्षु इन्द्रिय का विषय है और वस्त्र सभी इन्द्रियों का विषय है अतः जो शुक्लगुण है वही वस्त्र है और जो वस्त्र है वही शुक्लगुण है ऐसा तद्भाव उनमें नहीं है । उसी प्रकार सत्ता आश्रय से रहने वाली है, निर्गुण है, विशेषणरूप है । किन्तु द्रव्य किसी के आश्रय नहीं रहता, गुणवान होते हुए अनेक गुणों के समुदाय रूप है तथा विशेष्य है । अतः जो सत्ता है वही द्रव्य है और जो द्रव्य है वही सत्ता और द्रव्य या गुण और गुणी में कथंचित अभेद होते हुए भी सर्वथा एकत्व नहीं है । एकत्व का लक्षण है तद्भाव । जहां तद्भाव नहीं वहाँ एकत्व कैसे हो सकता है किन्तु गुण और गुणी रूप से उनमें अनेकता ही है।
जैसे एक मोतियों की माला का विस्तार हार, धागा और मोती तीन रूप होता है उसी तरह एक द्रव्य का विस्तार द्रव्य, गुण, पर्याय तीन रूप होता है । जैसे एक मोती की माला का शुक्ल गुण, शुक्ल हार, शुक्ल घागा, शुक्ल मोती तीन रूप से विस्तृत किया जाता है। उसी प्रकार एक द्रव्य का सत्ता गुण सत् द्रव्य, सत गुण और सत्पर्याय इस तरह तीन रूप से विस्तृत किया जाता है। जैसे एक मोती की माला में जो शुक्ल गुण है, वह न हार है न धागा और न मोती है, तो हार है या धागा है या मोती है वह शुक्ल गुण नहीं है, इस प्रकार एक का दूसरे में अभाव अतद्भाव है और वही अन्यत्व का कारण है । उसी प्रकार एक द्रव्य में जो सत्ता गुण है वह न द्रव्य हैन अन्य गुण हैन पर्याय है । और जो द्रव्य अन्य गुण या पर्याय है वह सत्ता गुण नहीं है। इस प्रकार एक का दूसरे में अभाव अतद्भाव है और वही उनके अन्यत्व का कारण है ।
सारांश यह है कि द्रव्य से भिन्न न गुण है और न पर्याय है। दोनों ही द्रव्य की अवस्था विशेष हैं। जैन दर्शन में द्रव्य नामक एक ही पदार्थ इस रूप में माना गया है कि अन्य पदार्थ को मानने की आवश्यकता नहीं होती गुण, क्रम, समान्य विशेष अभाव ये सब द्रव्य की ही विभिन्न अवस्थायें है।
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द्रव्य के मेव द्रव्य भी छह माने है-जीव, पुद्ग, पम, अधम, आकाश, काल पुल में पृथ्वी, अप, तेज और वायु गर्भित हैं। जिसमें रूप रस गन्ध स्पर्श ये चार गुण होते हैं वह पुद्गल है। जैन दर्शन प्रत्येक परमाणु में चारों गुण मानता है और उन्हीं परमाणुओं से भूत चतुष्टय की उत्पत्ति मानता है। किसी में किसी गुण का व्यक्त और अव्यक्त होना यह वस्तु के परिणमन पर निर्भर है ।
पुद्गल के दो भेद हैं परमाणु और स्कन्ध जो आदि मध्य और अन्त से रहित है, इन्द्रियों का विषय नहीं है ऐसे अखण्ड एक प्रदेशी द्रव्य को परमाणु कहते हैं और उन परमाणुओं के बन्ध से निष्पन्न स्कन्ध होता है । हम जो कुछ इन्द्रियों से जानते देखते हैं वह सब कुद्गल स्कन्ध है। पूरणालन क्रिया से पुद्गल शब्द बना है । जो टूटे फूट जुड़े वह पुद्गल है । यद्यपि परमाणु टूटता - फूटता नहीं है, वह अखण्ड होता है तथापि परमाणुओं के मेल से बने स्कन्ध टूटते- फूटते हैं इस दृष्टि से परमाणु को भी पुद्गल कहा है। एक परमाणु एक समय में लोक के एक ओर दूसरे छोर तक चौदह राजु गमन करता है । किन्तु परमाणुओं के मेल से निष्पन्न स्कन्ध ऐसा नहीं कर सकता ।
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पुद्गल के तेईस प्रकार जैनागम में कहे हैं और उनका बहुत विस्तार से वर्णन मिलता है जो अन्वेषकों के लिये बहुत उपयोगी है। एक परमाणु दूसरे परमाणु के साथ कैसे बन्यता है इसका भी विवेचन है ।
धर्म और अर्धम द्रव्य जीवों और पुद्गलों की गति और स्थिति में सहायक होते हैं। इनसे पुण्य पाप नहीं लेना चाहिये । ये दो द्रव्य ऐसे हैं जिन्हें किसी अन्य तत्वज्ञानी ने नहीं माना है ।
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जीवद्रव्य - इन छह द्रव्यों में से पांच द्रव्य जड़-अचेतन हैं । चेतन द्रव्य केवल एक जीव है। जीव के मुख्य भेद दो हैं— संसारी और मुक्त । जीव का लक्षण है उपयोग । जो जानता देखता है वह जीव है । जैन दर्शन में चेतना के भेद ज्ञान और दर्शन हैं । अतः ज्ञान दर्शन के बिना चैतन्य संभव नहीं है । ज्ञान आत्मा का स्वरूप है । जो जानता है वह ज्ञान है । आत्मा जानता है अत: वह ज्ञान है । 'आत्मा भिन्न है और ज्ञान भिन्न है तथा ज्ञान के सम्बंध से ओरमा ज्ञानी है, ऐसा जैन दर्शन नहीं मानता। किन्तु आत्मा स्वयं ज्ञान स्वरूप है । यद्यपि संसार अवस्था में जीव की ज्ञानशक्ति इतनी कुण्ठित हो जाती है कि वह इन्द्रियों के बिना कुछ भी नहीं जान सकता और इस लिये वह इन्द्रियों को ही ज्ञान का साधन मान बैठता है। किन्तु ज्ञान इन्द्रियों के द्वारा होने पर भी न इन्द्रियों का धर्म है और न ज्ञेय पदार्थों का धर्म है । वह तो ज्ञाता आत्मा का धर्म है । जब आत्मा ज्ञान की रोधक शक्तियों का अन्त कर देता है तो वह स्वयं अतीन्द्रिय ज्ञान रूप परिणत होता है । और सर्वज्ञ सर्वदर्शी बन जाता है। कहा है
जादो सयं स चेदा सव्वण्हु सव्व स लोग दरसीय । पप्पोदि हम अब्बा
वार्ष
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सगममुत्तं ।। २९ ।। पञ्चास्ति ०
वह चिदात्मा स्वयं सवंश सर्वदर्शी हुआ, अनन्त बाधारहित अमूर्त आत्मिक सुख को प्राप्त
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करता है ।
इस प्रकार चेतन जीव उपयोग से विशिष्ट कर्ता, भोक्ता, तथा अपने शरीर प्रमाण, अमूर्तिक होता है तथा संसार अवस्था में कर्म के बन्धन से बद्ध होता है।
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जीव को सर्वव्यापी या अणुपरिमाण आदि रूप न मानकर शरीर के बराबर मानना भी जैन दर्शन की अपनी विशिष्ट मान्यता है जैसे दीपक को जैसे स्थान में रखा जाता है उसका प्रकाश उतने ही स्थान में फैला रहता है । उसी प्रकार जीव को जैसा शरीर मिलता है वह उतने में ही व्याप्त होकर रहता है । बड़ा शरीर मिलने पर उसके प्रदेशों में फैलाव होता है और छोटा शरीर मिलने पर उसमें संकोच होता है । किन्तु मुक्त होने पर जिस शरीर से मुक्त होता हैं उससे किञ्चित न्यून आकार सदा बना रहता है । उसमें कोई हानि या वृद्धि नहीं होती ।
संसारी जीव के सूल भेद दो हैं, बस और स्थावर जिनके केवल एक स्पर्शन इन्द्रिय ही होती है उन्हें स्थावर कहते हैं । उनके पांच भेद हैं- पृथिवी कायिक- पृथिवी जिनका शरीर होता है । इसी प्रकार जल कायिक, तेज स्कायिक, वायु कायिक और वनस्पति कायिक । जो जीव इन पृथ्वी, जल, वायु, आग और वनस्पति को शरीर रूप से ग्रहण करते हैं वे सब स्थावर हैं तथा कीट, जिनके स्पर्शन और रसना इन्द्रिया होती है, चींटी आदि जिनके स्पर्शन रसना और घ्राण इन्द्रियां होती हैं, और मनुष्य पशु आदि जिनके कान सहित पांच इन्द्रिय होती है वे सब सजीव होते हैं ।
जैन दर्शन में इन्द्रिय से ज्ञान में सहायक इन्द्रियां ली गई हैं और उनकी संख्या पांच है। स्पर्शन-जो स्पर्श गुण को जानती है, रसना, जो स्वाद को जानती है, घ्राण जो गन्ध को जानती है, चक्षु जो रूप को जानती कर्ण या श्रोत्र जो शब्द को जानती है । ये सब जीव अपने-अपने शुभ अशुभ कर्मानुसार मरकर सदा चार
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गतियों में भ्रमण करते रहते हैं। वे चार गतियां हैं-नरक, तिर्यञ्च मनुष्य और देव । लोक के तीन भागों में से नीचे के भाग में नरक हैं, मध्य भाग में मनुष्य रहते हैं और ऊपर के भाग में देवलोक या स्वर्ग है। अधोलोक दु:ख प्रधान है, देवलोक सासांरिक सुख प्रधान है और मध्यलोक सुख दुःख की स्थिति से भी मध्यम ही है। मध्य लोक के मनुष्य और पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च ही मरकर नरक या स्वर्ग में जाते हैं। न नारकी मरकर स्वर्ग में जा सकता है और न देव मरकर नरक में जाता है। वे मरकर मनुष्य या तिर्यञ्च होते हैं। देव, नारकी और मनुष्य के सिवाय शेष सब जीव तिर्यञ्च कहे जाते हैं। इनमें से एक इन्द्रिय वाले तिर्यञ्च समस्त लोक में रहते हैं। इन जीवों का बहुत विस्तार से वर्णन जिनागम में किया है। इसका कारण यह है कि संसार नाम जीवों के परिभ्रमण का है और एक जन्म त्याग कर नया जन्म धारण करते रहते का नाम संसार है और इस संसार से छुटकारा दिलाना धर्म का कार्य है। अत: जीव की दशाओं का वर्णन भी धर्म का ही अंग है। उसे जाने बिना धर्म में प्रवत्ति नहीं होती।
सात तत्व-जैसे छह द्रव्य हैं वैसे ही सात तत्त्व हैं। छह द्रव्यों से तो यह जगत बना है। इन द्रव्यों के सिवास जगत में अन्य कोई मौलिक वस्तु नही हैं। जो कुछ है वह इन्हीं छह में समाविष्ट है । अत: जगत के मूल कारणों को जानने के लिये छह द्रव्यों का ज्ञान आवश्यक है। उनसे वस्तु व्यवस्था का बोध होता है, जो दर्शन शास्त्र का विषय है। किन्तु जो इस संसार के वन्धन से छूटकर मुक्त होना चाहते हैं उन्हें सात तत्त्वों की श्रद्धा होना आवश्यक है। उसके बिना मुक्ति की प्राप्ति संभव नहीं है। तत्व कहते हैं सार भूत को । वे हैं-जीव, अजीव, आश्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ।
जैसे वही रोगी वैद्य के पास जाता है जिसे यह विश्वास होता है कि मैं बीमार हूँ । यदि बीमार होने पर भी कोई अपने को बीमार नहीं मानता तो वह वैद्य के पास नही जाता । और 'मैं रोगी हूँ' इस श्रद्धा के लिये अपनी निरोग अवस्था के साथ रोग का बोध होना आवश्यक है, उसके बिना वह अपने को रोगी नहीं मान सकता।
वैद्य के पास जाने पर वह पूछता है रोग कसे हुआ और कैसे उसने तुम्हें जकड़ लिया। यह जानने के बाद ही वह चिकित्सा करता है कि अमुक-अमुक पदार्थों का सेवन न करना। ऐसा करने से नया रोग नहीं बढ़ेगा। और औषधि सेवन करने से धीरे-धीरे रोग घटेगा तब तुम रोग से मुक्त हो जाओगे ।
इसी प्रकार जीव के साथ कर्म का बन्धन एक रोग है। इस रोग को जानने के लिये शुद्ध जीव का स्वरूप तथा उससे बंधने वाले कर्म का स्वरूप जानना आवश्यक है। ये दोनों जीव और अजीव नामक तत्व हैं। जीव में अजीव तत्व कर्म का आना कैसे होता है उसके कारण क्या है, यह आस्रवतत्व है। आने के पस्चात कर्म जीव से किस प्रकार बंधता है यह बन्ध तत्व है। नवीन कर्म बन्ध को रोकने की प्रक्रिया संवर तत्व है । पूर्वबद्ध कर्म को धीरे-धीरे निर्जीर्ण करने की प्रक्रिया निर्जरा तत्व है और कर्म बन्धन से सर्वदा के लिये पूर्ण रूप से छूटना मोक्ष है। इन सात तत्वों को जानकर उनपर श्रद्धा करना सम्याक् दर्शन है। सात तत्वों की श्रद्धा के बिना सभ्यक दर्शन नहीं होता और सम्यग्दर्शन के हुए बिना मोक्ष का मार्ग नहीं बनता।
कर्म सिद्धान्त-यहां संक्षेप में जैन कर्म सिद्धान्त पर भी प्रकाश डालना उचित है। क्योंकि उसको समझे बिना मुक्ति को भी समझना शक्य नहीं है। जैनधर्म में कर्म केवल संस्कार रूप ही नहीं हैं किन्तु पौदगलिक पर. माणुओं का एक समूह भी है जिन्हें कर्म वर्गणा कहते हैं। ये कर्म वर्गणा समस्त लोक में भरी हैं। जीव की प्रत्येक मानसिक वाचनिक और कायिक क्रिया से आकृष्ट होकर यह कर्म वर्गणा उस जीव से बन्ध जाती हैं। इस आस्रव
और बन्ध के मूल कारण दों हैं-योग और कषाय । मन बचन काय की प्रवृत्ति पूर्वक जीव के आत्म प्रदेशों में जो परिस्पन्द होता है, वह योग है, कर्मों के आने का नाम आस्रव है, उसका कारण योग हैं अत: उसे आश्रव कहते
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हैं- कहा है- 'कायवाङमनः कर्म योगः स आस्रवः' और जीव के क्रोध, मान, माया लोभ रूप परिणामों को कषाय कहते हैं । यह कषाय कर्म बन्ध का प्रधान कारण है, इसी के कारण योग द्वारा आई हुई कर्म वर्गणा जीव के साथ बन्ध को प्राप्त होती है। यदि कषाय तीव्र होती है तो बन्ध भी दृढ़ होता है ।
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बन्ध के भी चार प्रकार हैं- प्रकृति बन्ध, स्थिति अन्य अनुभाग बन्ध, प्रदेशबन्ध कर्म में स्वभाव का पड़ना प्रकृति बन्ध है । मूल कर्म आठ हैं- १ ज्ञानावरण, जो जीव के ज्ञान गुण को विकृत करके उसे ढांकता है । इसी के कारण जीवों में ज्ञान की हीनता मन्दता होती है। २ दर्शनावरण-जो जीव के दर्शन गुण को ढांकता है । निद्रा आदि का तीव्र या मन्द होना इसी का कार्य है । ३ वेदनीय - जो सुख दुःख का अनुभव कराता है, उनके अनुकूल सामग्री के प्राप्त करने में सहायक होता है । ४ मोहनीय - जो जीव को मोहित करता है, उसे अपने स्वरूप की प्रतीति नहीं होने देता। यह सब कर्मों में प्रधान है, सेनापति है ५ आयुकर्म जिसके कारण जीव अमुक समय तक एक ही शरीर में रुका रहता है ६ नामकर्म जिसके कारण जीव के शरीर आदि बनता है। ७ गोत्रकर्मजो लोक में उच्च नीच का व्यवहार कराता है। ८ अन्तराय कर्म जो जीवों के लाभ आदि में बाधा डालता है।
इन आठ कर्मों में जीव के साथ बद्ध रहने की काल मर्यादा का पड़ना स्थिति बन्ध है। उनमें तीव्र या मन्द फल देने की शक्ति पड़ना अनुभाग बन्ध है । और बंधने वाले कर्म परमाणु की संख्या का निर्धारण प्रदेश बन्ध है । प्रकृतिबन्ध, प्रदेशबन्ध योग से होते हैं। स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध कषाय से होते हैं। चारो बन्धों में स्थिति बन्ध और अनुभाग बन्ध मुख्य हैं अतः कषाय की ही संसार मे प्रमुखता है।
तत्वार्थ सूत्र
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में बन्ध का स्वरूप इस प्रकार कहा है
'सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्रलानुपादत्ते स बन्धः । '
कषाय युक्त परिणामों से सहित होने से जीव कर्म के योग्य दलों को ग्रहण करता है यह बन्ध है ।
इसकी व्याख्या में कहा है कि कपाय से कर्मबन्ध होता है और कर्म के उदय से कषाय होती है। इस तरह कर्म और कषाय का सम्बन्ध अनादि हैं। अनादि काल से जीव इस चक्र में पड़ा है।
आचार्य कुन्दकुन्द
कहा है
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जो खलु संसारस्यो जीवो ततो दु होदि परिणामो । परिणामादो कम्मं कम्मावो होदि मदिसुमदी ।। १२८ ।। गदिमधिगदस्य बेहो बेहादो इंदियाणि जायते । तेहि दु विसयग्गहणं तत्तो रागो व दोसो वा ।। १२९ ।।
जायदि जीवस्सेवं भावो संसार चक्कवालम्मि । इवि जिणवेहि मणिदो अनादिनिधनो सणि घणो वा ।। १३० ।।
संसारी जीव के अनादि बन्धन की उपाधि व राग द्वेष रूप परिणाम होते हैं। राग द्वेष रूप परिणामों का निमित्त पाकर पुनः पोद्गलिक कर्म बंधते हैं। उन कर्मों के फल स्वरूप नरक आदि गतियों में जाता है। गति में जाने से शरीर मिलता है शरीर में इन्द्रियाँ होती है, इन्द्रियों से विषयों को ग्रहण करता है । विषय ग्रहण से राग द्वेष होते हैं- इष्ट विषयों में राग और अनिष्ट से द्व ेष करता है । राग द्वेष से 'पुन: पौगलिक कर्म बंधते हैं। इस प्रकार परस्पर में कार्यकारणभूत जीव और पुल के परिणाम रूप यह कर्म जाल चक्र की तरह घूमता रहता है। पुद्गल कर्मके निमित्त से जीव के परिणाम होते हैं और जीव के परिणाम के
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निमित्त से पुद्गल कर्म परिणाम होते हैं । यह संसार चक्र अनादि है किन्तु किन्ही जीवों का जो मोक्ष जा सकेंगे, सान्त है और जो मोक्ष प्राप्त करने में असमर्थ है उनका अन्त रहित है।
इस प्रकार जीव और पुदगल का संयोग रूप परिणाम शेष पांच तत्वों में निमित्त है। मूल तत्व तो दो ही हैं. जीव और अजीव । उनका संयोग होने से ही आस्रवादि तत्वों की निष्पत्ति होती है। उनका कथन जीवों को हेय और उपादेय तत्व का बोध कराने के लिये किया गया है। दुःख हेय तत्व है। उसका कारण संसार हैं। संसार के कारण आस्राव वन्ध के कारण मिथ्या दर्शन, मिथ्या ज्ञान और मिथ्या चरित्र हैं। सुख उपादेय तत्व है । उसका कारण मोक्ष है। मोम के कारण संवर और निर्जरा तत्व हैं। उन दोनों के कारण सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चरित्र हैं। कहा है
_ 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः।-तत्वा० सू० ॥१॥ अर्थात सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र इन तीनों का मेल मोक्ष का मार्ग है । अर्थात इनमें से एक या दो से मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती । सबसे प्रारम्भ में सम्यग्दर्शन होता है और सम्यग्दर्शन के साथ ही सम्यग्ज्ञान होता है। उनके होने पर जो चरित्र होता है वही सम्यक चारित्र है और उनके अभाव में जो चरित्र होता है वह मिथ्या चारित्र है।
यथार्थ में धर्म तो आत्मा का स्वभाव है। उस आत्म स्वभाव की श्रद्धा और ज्ञान के बिना उसको प्राप्त करने का प्रयत्न व्यर्थ है। आत्मस्वरूप की प्राप्ति उससे नहीं हो सकती और आत्मस्वरूप की प्राप्ति ही मोक्ष है। अत: भगवान महावीर के धर्म का केन्द्रविन्दु व्यक्ति की अपनी आत्मा है। उस आत्मा को लक्ष्य में रखकर ही धर्म की गाड़ी चलती है। जितना भी वाह्य आचरण, व्रत, जप, तप, संयम आदि रूप है वह तभी यथार्थ है जब वह आत्म शोधन को दृष्टि से किया जाता है । लौकिक एषणा से किया गया धर्म, धर्म नहीं है।
गृहस्थ और साधु के भेद से धर्म के भी दो भेद हैं-गृहस्थ धर्म और साधु धर्म । गृहस्थ धर्म को एक देश पालता है । और साधु सर्वदेश पालता है । एक देश धर्म को अणुव्रत कहते हैं और सर्वदेश को महाव्रत कहते हैं । व्रत पांच हैं-अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह । इन व्रतों का आचरण करने से ही कोई व्रती नहीं होता। व्रती बनने के इच्छुक को सर्वप्रथम अपनी आत्मा से तीन शल्य निकाल देना चाहिये। वे हैं-मिथ्यात्व, माया और निदान । शरीर में आत्मबुद्धि मिथ्यात्व है। सच्चे देव, सच्चे शास्त्र और सच्चे गुरू की पहचान न होना मिथ्यात्व है। दुनिया को छलने के लिये धर्म का बाना धारण करना मायाचार है और लौकिक फल की इच्छा से धर्म का साधन निदान है । इन्हें शल्य कहा है क्योंकि ये शरीर में घुसे कण्टक आदि की तरह सदा कष्ट देते हैं और इनके रहते हुए धर्म साधन से जो शान्ति मिलनी चाहिये वह नहीं मिलती। ऐसे धर्मसाधक का मन धर्म में न रहकर उसके फल में ही उलझा रहता है । फलत: न धर्म साधन होता है और न उससे फल प्राप्ति होती है।
अहिंसा-यद्यपि व्रत चांच कहे हैं तथापि मुख्य व्रत तो एक अहिंसा ही है । शेषव्रत तो उसी के रक्षण के लिये हैं। जैसे किसान खेत में बीज बोकर उनकी रक्षा के लिये बाड़ लगा देता है। अतः सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य
और अपरिग्रह अहिंसा के पोषक और रक्षक होने से व्रत कहे गये हैं। अत: जिस सत्य वचन से दूसरे को कष्ट पहुंचे उसे असत्य में ही गिना गया है।
__ पहले जो दो प्रकार के जीव कहे हैं, स्थावर और त्रस । उनमें से गृहस्थ त्रस जीवों की हिंसा का त्याग करता है, यह उसको प्रथम अहिंसाणुव्रत है । स्नेह या मोह आदि के वश होकर ऐसा झूठ नहीं बोलता जो किसी घर या ग्राम के विनाश में कारण बने । यह गृहस्थ का दूसरा सत्याणुव्रत है । जिससे दूसरे को पीड़ा पहुंचे, राज
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दण्ड मिले, ऐसी विना दी हुई वस्तु भले ही कोई उसे छोड़ गया गया हो उसके प्रति ग्रहण का भाव भी न होना तीसरा अचौर्याणवत है । परस्त्री, किसी की पत्नी आदि हो या वेश्या आदि है उसका भोग का त्याग चतुर्थ ब्रह्मचर्याणु व्रत है। और अपनी इच्छा के अनुसार धन, धान्य, मकान, खेत आदि की एक मर्यादा करना कि मैं इतना रखूगा, पांचवा परिग्रह परिमाण अणुव्रत है । और हिंसा, असत्य, चोरी, स्त्री सेवन और परिग्रह का सर्वथा त्याग महावत है।
यदि गृहस्थ पांच अणुव्रतों का पालन करें तो आज उनके और देश के सामने जो समस्याएं खड़ी हैं वे खड़ी न होती। हिंसा, झठ आदि पांच पाप हैं। इनसे मनुष्यों का वैयक्तिक और सामाजिक जीवन दुःखी होता है। अनावश्यक संग्रह ही भ्रष्टाचार और काले बाजार की जड़ है। मनुष्य आज धन संचय के पीछे ऐसा पड़ा है कि उसे अपने भी अहित का ध्यान नहीं है । फमतः आज अनावश्यक संचय करने वाले कानून के शिकंजे से भयभीत हैं । अब भी यदि उन्हें बुद्धि आ जाये और वे अपनी तृष्णा को रोककर अपनी इच्छा को सीमित करलें तो वे स्वयं भी सूखी रहेंगे और उनकी शोषणवत्ति से त्रस्त जनता को भी राहत मिलेगी। अस्तू,
अहिंसा को प्रायः सभी धर्मों ने माना है किन्तु अहिंसा के पालन करने का क्रम तथा अहिंसा की परिभाषा स्पष्ट करके भगवान महावीर ने अहिंसा को व्यवहार्य बनाने का महान कार्य किया है। तत्वार्थसूत्र में हिंसा की परिभाषा की है-'प्रमत्त योगात प्राणव्यपरोपणं हिंसा' । इसकी व्याख्या में कहा है-प्रमाद कहते हैं कषाय सहितपने को। उससे युक्त आत्मा का परिणाम प्रमत्त है। उसके योग से प्राणों का घात हिंसा है। बह हिंसा प्राणी के दु.ख का कारण होने से अधर्म है। यहां इस हिंसा के लक्षण में जो 'प्रमत्तयोगात्' पद दिया है वह बतलाता है कि केवल प्राणों का घात हिंसा रूप अधर्म नहीं है क्योकि आगम में कहा है कि प्राणों का घात करने पर भी हिंसा का भागी नहीं होता। इसे एक दृष्टान्त द्वारा स्पष्ट करते हुए कहा है-कोई साधु पुरुष आगे देखकर मार्ग में जा रहा है। उसने आगे देखकर ज्यों ही पैर उठाकर आगे रखने का प्रयास किया त्यों ही कोई क्षद्र जन्तु उसके पैर रखने के स्थान पर आगिरा और उसके पैर से कुचल कर मर गया । उस साध को उस जीव के मरने के निमित्त से जरा भी पाप नहीं होता । क्योंकि साध प्रमादी नहीं था, सावधान था। किन्तु जहां प्रमाद है वहां किसी का प्राणघात न होने पर भी हिसा मानी गई है। कहा है-जीव मरे या जिये, जो असावधान है उसे हिंसा का पाप अवश्य होता है, किन्तु जो सावधान है, अपने मन बचन काय को संयत करके प्रवृत्ति करता है, उसे हिंसा होने मात्र से पाप बन्ध नहीं होता।
इसका सार यह है कि हिंसा के दो भेद हैं, द्रव्य हिंसा और भाव हिंसा । परिणामों में हिंसा का भाव होना भाव हिंसा है। और किसी के प्राणों का धात द्रव्य हिंसा है। यदि कर्ता के भाव में हिंसा है तो बाहर में किसी का धात नहीं होने पर भी हिंसा है और यदि कर्ता के भावों में हिंसा नहीं है तो बाहर में किसी का घात हो जाने पर भी कर्ता हिंसा का भागी नहीं है, अतः भाव हिंसा ही हिंसा है। द्रव्य हिंसा को तो इस लिये हिंसा कहा है कि उसका भाव हिंसा के साथ सम्बन्ध देखा जाता है।
इस तरह हिंसा की बुनियाद जीव के अपने भावों पर है । अतः जो हिंसा से बचना चाहता है उसे अपने मन बचन काय पर पूरा नियंत्रण रखकर सावधानी पूर्वक इस प्रकार प्रवृत्ति करनी चाहिये कि उससे किसी के प्राणों को कष्ट न पहुंचे। फिर भी यदि किसी को कष्ट पहुंचाता है तो उसकी हिंसा का भागी वह नहीं है । अतः हिंसा पाप से बचना अपने हाथ में है और इस लिये अहिंसा का पालन व्यवहार्य है। प्रत्येक मनुष्य अपने को संयत रखकर हिंसा से बच सकता है। असल में हिंसा कहते ही मनुष्य दूसरे प्राणियों के घात को ही हिंसा समझते हैं किन्तु जो उनकी हिंसा करता है वह अपनी भी हिंसा करता है इसे कोई नहीं समझता । भगवान ने कहा है
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'स्वयमेवात्मनात्मानं हिनस्त्यात्मा प्रमादवान् ।
पूर्व प्राण्यन्तराणां तु पश्चाद् स्याद्वा न वा वधः ॥' जो प्रमादी है, असावधान है, दूसरों को मारने सताने का भाव रखता है अथवा उनकी ओर से विमुख है, पहले तो वह अपने से अपना ही घात करता है । अन्य प्राणियों का घात तो उसके बाद होता है । वह भी हो या न हो।
अतः भगवान महावीर केवल परघात की दृष्टि से अहिंसा पर जोर नहीं देते किन्तु आत्मघात की दृष्टि से अहिंसा पर जोर देते हैं। वे मारकों के द्वारा मारे जाने वालों को नहीं बचाना चाहते । मारने वालों में के भाव से बचाना चाहते हैं । मारने वालों के मन से मारने का भाव दूर होने पर उनके द्वारा मारे जाने वाले तो स्वयं ही बच जायेंगे । इस तरह महावीर भगवान की अहिंसा आध्यात्मिक है, कोरी भौतिक नहीं है।
वे आत्मा के प्रत्येक विकार को हिंसा कहते हैं क्योंकि विकार आत्मा के शुद्ध स्वरूप का घातक है । इसी से जिनागम में कहा है
रागावीणमणुप्पा अहिंसगत्तेत्ति मासिदं समये ।
तेसि चेदुप्पत्ती हिंसेति निणेहि णिद्दिदिठा ॥ अर्थात रागादि विकारों के उत्पन्न न होने को आगम में अहिंसा कहा है। और उनकी उत्पत्ति को भगवान महावीर ने हिंसा कहा कहा है। अत: आत्मा का समस्त विकारों से रहित होना ही पूर्ण अहिंसा है और वह मोक्ष रूप होने से पूर्ण अहिंसा ही मोक्ष का कारण है । जप, तप, संयम, ध्यान आदि सब उसी के पोषक है है क्योंकि उनकी सहायता से ही आत्मा निर्विकार बनता है।
इसी अहिंसा की देन स्याद्वाद है। स्याद्वाद दार्शनिक क्षेत्र की हिंसा को दूर करता है। दार्शनिक क्षेत्र में एक दर्शन वस्तु को नित्य मानता है तो दूसरा अनित्य मानता है। एक अद्वैत का आग्रही है तो दूसरा द्वैत का आग्रही है । एक वस्तु को सामान्य रूप मानता है तो दूसरा विशेष रूप मानता है, और इस तरह दार्शनिक क्षेत्र में विवाद चलता है। अनेकान्तवादी जैन दर्शन कहता है कि वस्तु किसी दृष्टि से नित्य है तो किसी दृष्टि से अनित्य भी है। किसी दृष्टि से एक है तो किसी दृष्टि से अनेक है। किसी दृष्टि से सामान्य रूप है तो किसी दृष्टि से विशेष रूप है । इस तरह वस्तु परस्पर में विरुद्ध प्रतीत होने वाले धर्मों का एक समन्वयात्मक रूप है। आचार्य हेमचन्द्र ने भगवान महावीर का स्तवन करते हुए कहा है
आवीपमाव्योम समस्वभावं स्याद्वाद मुद्रानति मेदि वस्तु । तमित्य मेवकमनित्यमन्यत्
इति त्वदाज्ञा द्विषतां प्रत्नापाः ।। दीपक से लेकर आकाश पर्यन्त सब वस्तुएं समान स्वभाव वाली हैं। इस तरह वस्तु स्याद्वाद की मुद्रा का उल्लंघन नहीं करती । इस लिये दीपक क्षणिक ही है और आकाश नित्य ही है यह आपके मत से विरोध रखने वालों का प्रलाप है।
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१.
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इस लेख के प्रारम्भ में ही वस्तु को, द्रव्यपर्यायात्मक सिद्ध किया है। द्रव्य एक नित्य और सामान्य रूप होता है। पर्याय अनेक अनित्य और विशेष रूप होती हैं। अतः द्रव्यदृष्टि से प्रत्येक वस्तु एक, नित्य और सामान्य रूप है तथा पर्याय दृष्टि से अनेक, अनित्य और विशेष रूप है।
___ अमृतचन्द्राचार्य ने प्रवचनसार (गा० ११३) की टीका में कहा है-सब वस्तु सामान्य विशेषात्मक होने से उसके स्वरूप को देखने वालों की दो आंखे हैं। एक आंख या दृष्टि द्रव्याथिक है जो वस्तु के सामान्य रूप को देखती है। दूसरी दृष्टि पर्यायाथिक है जो वस्तु के विशेष रूप को देखती है । जब पर्यायाथिक दृष्टि को बन्द करके केवल द्रव्याथिक दृष्टि से देखते हैं तो नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य, देव, सिद्ध पर्याय रूप विशेषों में रहने वाले एक जीव सामान्य को ही देखने पर और पर्यायों को दृष्टि से ओझल करने पर सब जीव द्रव्य ही प्रतिभासित होता है । और जब द्रव्याथिक दृष्टि को बन्द करके पर्यायाथिक दृष्टि से देखते हैं तब जीव द्रव्य में होने वाली नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य, देव और सिद्ध पर्याय रूप विशेषों को देखने वालों को सब पर्याय भिन्न-भिन्न प्रती हैं। और जब दोनों दृष्टियों को एक साथ खोलकर देखते हैं तो एक ही समय में नारक आदि पर्यायों में स्थित जीव सामान्य और जीव सामान्य में होने वाली नारकादि पर्याय विशेष दृष्टिगोचर होती हैं। अत: एक दृष्टि से देखना एकदेश देखना है और दोनों दृष्टियों से देखना पूर्ण वस्तु का अवलोकन है। पूर्ण अवलोकन अनेकान्त रूप है और एक देश अवलोकन एकान्त रूप है। जो वस्तु के एकदेश को देखकर उसे ही यथार्थ मानता है और उसी वस्तु के अन्य देशों का निषेध करता है वह अयथार्थवादी और जो एकदेश को देखकर भी अन्य देशों का निषेध नहीं करता, उन्हें भी यथार्थ मानता है, वह यथार्थवादी है । अतः प्रत्येक एकान्त दृष्टि अन्य दृष्टि से निरपेक्ष होने पर मिथ्था है और अन्य दृष्टि सापेक्ष होने पर सच्ची है।
इस तरह भगवान महावीर की अनेकान्त दृष्टि में सब एकान्त दृष्टियों का समन्वय किया है । वहां द्वैत-अद्वैतवाद, नित्य-अनित्यवाद, सामान्य-विशेषवाद, एक-अनेकवाद, भेद-अभेदवाद, भाव-अभाववाद परस्पर में मित्रता के साथ रहते हैं ।
भगवान का कहना है कि व्यक्ति वस्तु को अपनी तत्कालीन दृष्टि से देखता है अत: वह दृष्टि सत्य का अंश देखती है। किन्तु उस एकांशग्राही दृष्टि को तभी सत्य कहा जा सकता है जब वह सत्य के शेष अंशो को भी मान्य करे। यदि वह अपने ही एकांश के पूर्ण सत्य का आग्रह करती है तो मिथ्या है । जैसे कुछ अन्धे हाथी के -एक अवयव को स्पर्श करने के बाद हायी को अपने-अपने देखे अवयव के रूप में ही सत्य मानकर झगड़ने
टिसमपान व्यक्ति ने उन्हें समझाकर उनके द्वारा देखे गये संड. पर. पेट. कान आदि अवयवों को जोडकर उन्हे पूर्ण हाथी का ज्ञान कराया । यही स्थिति अनेकान्त की भी है। वह भी परस्पर में फैले विवाद को दूर करके दुराग्रह को हटाता है और मनुष्य को समन्वयात्मक दृष्टि प्रदान करता है।
भगवान महावीर के द्वारा उपदिष्ट परमागम का तो वही प्राण है । उसको समझे बिना न भगवान महावीर के दर्शन को समझाया जा सकता है और न धर्म को । दर्शन में जो अनेकान्तवाद है वह अहिंसा का ही प्रतिरूप है। अतः भगवान महावीर का दर्शन और धर्म दोनों अहिंसात्मक हैं क्योंकि उनका उद्गम निर्विकार शुद्धात्म स्वरूप भगवान महावीर के अहिंसामय अन्तस्तल से हुआ है।
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* जैन न्याय : संक्षिप्त विवेचन *
-डा० दरबारीलाल कोठिया न्यायाचार्य
'नीयते परिच्छिते ज्ञायते वस्तुतत्त्वं येन सोन्यायाः' इस न्यायशब्द की व्युत्यत्ति के आधारपर न्याय उसे कहा गया है जिसके द्वारा वस्तुस्वरूप जाना जाता है। तात्पर्य यह कि वस्तुस्वरूप के परिच्छेद के साधन (उपाय) को न्याय कहते हैं। कुछ दार्शनिक न्याय के इस स्वरूप के अनुसार 'लक्षण प्रमाणाम्यामर्थ सिद्धि:'-1 लक्षण और प्रमाण से वस्तु की सिद्धि (ज्ञान) मानते हैं। अन्य दार्शनिक 'प्रमाणरर्थपरीक्षणं न्यायः2-प्रमाणों से वस्तु-परीक्षा बतलाते हैं । कतिपय ताकिक पञ्चावयव वाक्य के प्रयोग–अनुमान को न्याय कहकर उससे वस्तु-परिच्छित्ति प्रतिपादन करते है। जैन ताकिक आचार्य गद्धपिच्छने 'प्रमाणनयरधिगमः' (त. सू. १-६) सूत्र द्वारा प्रमाणों और नयों से वस्तु का ज्ञान निरूपित किया है । फलतः अभिनव धर्मभूषणने प्रमाण नयात्मको न्यायः'-प्रमाण और नय को न्याय कहा हैं । अतः जैन मान्यतानुसार प्रमाण और नय दोनों न्याय (वस्त्वधिगम-उपाय) हैं।
प्रमाण-षट्खण्डागम में ज्ञानमार्गणानुसार आठ ज्ञानों का प्रतिपादन करते हुए तीन ज्ञानों (कुमति, कुश्रत और अवधि) को मिथ्याज्ञान और पांच ज्ञानों (मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवल) को सम्यरज्ञान निरूपित किया है। कुन्दकुन्द ने उसका अनुसरण किया है। गद्धपिच्छने7. उसमें कुछ नया मोड़ दिया है। उन्होंने मति आदि पांच ज्ञानों को सम्यग्ज्ञान तो कहा ही है, उन्हें प्रमाण भी प्रतिपादित किया है। अर्थात उन्होंने मत्यादिरूप पञ्चविध सम्यग्ज्ञान को प्रमाणका लक्षण बतलाया है। समन्तभद्रने तत्वज्ञान को प्रमाण कहा है। उनका यह तत्वज्ञान उपर्युक्त सम्यग्ज्ञान रूप ही है। सम्यक और तत्व दोनों का एक ही अर्थ है और वह है-सत्ययथार्थ। अतः सम्यग्ज्ञान को या तत्वज्ञान को प्रमाण कहना एक ही बात है। उत्तरवर्ती जैन ताकिकों ने प्रायः सम्यग्ज्ञाम को ही प्रमाण कहा है। अकलंक, विद्यानन्द10 और माणिक्यनन्दिने11 उस सम्यग्ज्ञान को 'स्वापूर्वार्थ व्यवसायात्मक' सिद्ध किया और प्रमाण लक्षण में उपयुक्त विकास किया है । वादिराज,12 देवसूरि13, हेमचंद्र,14 धर्मभूषण15 आदि परवर्ती ताकिकों ने प्रायः यही प्रमाण-लक्षण स्वीकार किया है। यद्यपि हेमचंद्र ने सम्यक अर्थनिर्णय को प्रमाण कहा है, पर सम्यक अर्थनिर्णय और सम्यग्ज्ञान में शाब्दिक भेद के अतिरिक्त कोई अर्थभेद नहीं है।
प्रमाण-भेद--प्रमाण के कितने भेद सम्भव और आवश्यक हैं, इस दिशा में सर्व प्रथम आचार्य गद्धपिच्छने16 निर्देश किया है । उन्होंने प्रमाण के दो भेद बतलाये हैं-१. परोक्ष और २. प्रत्यक्ष । पूर्वोक्ति पाँच सम्यग्ज्ञानों में आदि के दो ज्ञान-मति और श्रत परसापेक्ष होने से परोक्ष तथा अन्य तीन ज्ञान-अवधि, मन:पर्यय और केवल इन्द्रियादि पर सापेक्ष न होने एवं आत्ममात्र की अपेक्षा से होने के कारण प्रत्थक्ष-प्रमाण हैं। यह प्रमाण-द्वयका प्रतिपादन इतना विचारपूर्ण और कुशलता से किया गया है कि इन्हीं दो में सब प्रमाणों का समावेश हो जाता है। मति (इन्द्रिय-अनिन्द्रियजन्य अनुभव), स्मृति, संज्ञा (प्रत्यभिज्ञान), चिन्ता (तर्क) और अभिनिबोध (अनुमान)
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१२]
ये पांचों ज्ञान इन्द्रिय और अनिन्दिय सापेक्ष होने से मतिज्ञान के ही अवान्तर भेद हैं और इसलिए उनका परोक्ष में ही अन्तर्भाव किया गया है17 ।
जैन न्याय के प्रतिष्ठाता अकलंक ने18 भी प्रमाण के इन्हीं दो भेदों को मान्य किया है । विशेष यह कि उन्होंने प्रत्येक के लक्षण और भेदों को बतलाते हुए कहा है कि विशद ज्ञान प्रत्यक्ष है और वह मुख्य तथा संव्यवहार के भेद से दो प्रकार का है। इसी तरह अविशद ज्ञान परोक्ष है और उसके प्रत्यभिज्ञा आदि पांच भेद हैं। उल्लेख्य है कि अकलंक ने उपयुक्त परोक्ष में प्रथम भेद मति (इन्द्रिय-अनिन्द्रियजन्य अनुभव )को संव्यवहारप्रत्यक्ष भी वणित किया है। इससे इन्द्रिय-अनिन्द्रियजन्य अनुभव को प्रत्यक्ष मानने की लोकमान्यता का संग्रह हो जाता है और आगम परम्परा का भी संरक्षण रहता है। विद्यानन्द19 और माणिक्यनन्दि ने20 भी प्रमाण के यही दो भेद स्वीकार किये और अकलंककी तरह ही उनके लक्षण एवं प्रभेद निरूपित किये हैं। उत्तरवर्ती जैन ताकिकों ने प्रायः इसी प्रकार का प्रतिपादन किया है।
परोक्ष-परोक्ष का स्पष्ट लक्षण आचार्य पूज्यपादने21 प्रस्तुत किया है। उन्होंने बतलाया है कि पर अर्थात इन्द्रिय, मन, प्रकाश और उपदेश आदि वाह्य निमित्तों तथा स्वावरणकर्म क्षयोपशमरूप आभ्यन्तर निमित्त की अपेक्षा से आत्मा में जो ज्ञान उत्पन्न होता है वह परोक्ष है । यत: मतिज्ञान और श्रुतज्ञान दोनों उक्त उभय निमित्तों से उत्पन्न होते हैं, अत: ये परोक्ष कहे जाते हैं। अकलंक ने22 इस लक्षण के साथ परोक्ष का एक लक्षण और दिया है, जो उनके न्यायग्रन्थों में उपलब्ध है । वह है अविशद ज्ञान । अर्थात अस्पष्ट ज्ञान परोक्ष है। यद्यपि दोनों (परापेक्ष और अविशद ज्ञान) लक्षणों में तत्वत: कोई अन्तर नहीं है-जो परापेक्ष होगा वह अविशद होगा, फिर भी वह दार्शनिक दृष्टि से नया एवं संक्षिप्त होने से अधिक लोकप्रिय और ग्राह्य हुआ है। विद्यानन्द ने23 दोनों लक्षणों को अपनाया है और उन्हें साध्य-साधन के रूप में प्रस्तुत किया है। उनका मन्तव्य है किरापेक्ष होने के कारण परोक्ष अविशद है । माणिक्यनन्दिने24 परोक्ष के इसी अविशदता-लक्षण को स्वीकार किया है और उसे प्रत्यक्षादि पूर्वक होने के कारण परोक्ष कहा है । परवर्ती न्याय लेखकों ने25 अकलंकीय परोक्ष लक्षण को ही प्रायः प्रश्रय दिया है।
परोक्ष के भेद-तत्वार्थसूत्रकारने 26 परोक्ष के दो भेद कहे हैं-१ मतिज्ञान और २ श्रुतज्ञान । इन्द्रिय और मनकी सहायता से उत्पन्न होने वाला ज्ञान मतिज्ञान है तथा मतिज्ञान पूर्वक होने वाला ज्ञान श्रुतज्ञान है। मतिज्ञान और श्रतज्ञान ये परोक्ष के आगमिक भेद हैं। अकलंकदेव ने27 आगम के इन परोक्ष भेदों को अपनाते हए भी उनका दार्शनिक दृष्टि से विवेचन किया है। उनके28 विवेचनानुसार परोक्ष प्रमाण की संख्या तो पांच ही है, किन्त उनमें मति को छोड़ दिया गया है, क्योंकि उसे संव्यवहार प्रत्यक्ष माना है। तथा श्रुत (आगम) को ले लिया है। इसमें सैद्धान्तिक और दार्शनिक किसी दृष्टि से भी बाधा नहीं है। इस तरह परोक्ष के मुख्यतया पाँच भेद हैं-29 १ स्मृति, २ संज्ञा (प्रत्यभिज्ञान), ३ चिन्ता (तर्क), ४ अभिनिबोध (अनुमान) और ५ श्रुत (आगम)।
पूर्वानुभूत वस्तु के स्मरण को स्मृति' कहते हैं । जैसे 'वह' इस प्रकार से उल्लिखित होने वाला ज्ञान । अनुभव तथा स्मरणपूर्वक होने वाला जोड़रूप ज्ञान 'संज्ञा' ज्ञान है। इसे प्रत्यभिज्ञा या प्रत्यभिज्ञान भी कहते हैं यथा-'यह वही है', अथवा 'यह उमी के समान है' या 'यह उससे विलक्षण हैं' आदि । इसके एकत्व, सादृश्य, वसादृश्य, प्रातियोगिक आदि अनेक भेद माने गये हैं। अन्वय (विधि) और व्यतिरेक (निषेध) पूर्वक होने वाला च्याप्तिका ज्ञान 'चिन्ता' अथवा 'तर्क' है । ऊह अथवा ऊहा भी इसे कहते हैं। इसका उदाहरण है-इसके होने पर ही यह होता है और नहीं होने पर नहीं ही होता । जैसे-अग्नि के होने पर ही धुआं होता है और अग्नि के अभाव में घओं नहीं ही होता । निश्चित साध्याविनाभावी साधन से जो साध्य का ज्ञान होता है वह अनुमान है।
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[ १३
जैसे
धूम्र
से अग्नि का ज्ञान । शब्द, संकेत आदि पूर्वक जो ज्ञान होता है वह 'श्रुत' है। इसे आगम, प्रवचन आदि भी कहते हैं । जैसे—'मेरु आदिक हैं' शब्दों को सुनकर सुमेरु पर्वत आदि का बोध होता है। ये सभी ज्ञान परापेक्ष और अविशद हैं । स्मरण में अनुभव, प्रत्यभिज्ञान में अनुभव तथा स्मरण, तर्क में अनुभव, स्मरण और प्रत्यभिज्ञान, अनुमान में लिंगदर्शन, व्याप्तिस्मरण और श्रुतं में शब्द एवं संकेतादि अपेक्षित हैं, उनके बिना उनकी उत्पत्ति सम्भव नहीं है । अतएव ये और इस प्रकार के उपमान, अर्थापत्ति आदि परापेक्ष अविशद ज्ञान परीक्ष प्रमाण माने गये हैं ।
ख -४
प्रतिपादित किया है ।
अकलंक ने इनके विवेचन में जो दृष्टि अपनायी वही दृष्टि विद्यानन्द, माणिक्यनन्दि आदि तार्किकों ने अनुसृत की है । विद्यानन्द ने 30 प्रमाण-परीक्षा में और माणिक्यनन्दि ने 31 प्ररीक्षामुख में स्मृति आदि पांचों परोक्ष प्रमाणों का विशदता के साथ निरूपण किया है। इन दोनों तार्किकों की विशेषता यह है कि उन्होंने प्रत्येक की सहेतुक सिद्धि करके उनका परोक्ष में ही समावेश किया है। विद्यानन्द ने 32 इनकी प्रमाणता में सबसे बड़ा हेतु उनका अविसंवादी होना बतलाया है । साथ ही यह भी कहा है कि यदि कोई स्मृति, प्रत्यभिज्ञा, तर्क, अनुमान और श्रुत ( पद- वाक्यादि ) अपने विषय में विसंवाद (बाधा ) उत्पन्न करते हैं तो वे स्मृत्याभास, प्रत्यभिज्ञाभास, तर्काभास, अनुमानभास और श्रुताभास हैं । यह प्रतिपत्ताका कर्तव्य है कि वह सावधानी और युक्ति आदि पूर्वक निर्णय करे कि अमुक स्मृति निर्बाध होने से प्रमाण है और अमुक सबाध (विसंवादी) होने से अप्रमाण है । इसी प्रकार प्रत्यभिज्ञा, तर्क, अनुमान और श्रुत के प्रामाण्याप्रामाण्यका निर्णय करे। ये पाँचों ज्ञान यतः अविशद हैं, अत: परोक्ष हैं, यह भी विद्यानन्द ने स्पष्टता के साथ विद्यानन्द की 38 एक और विशेषता है । वह है अनुमान और उसके परिकरका विशेष निरूपण । जितने विस्तार के साथ उन्होंने अनुमान का प्रतिपादन किया उतना स्मृति आदिका नहीं | तत्वार्थश्लोकवार्तिक और प्रमाणपरीक्षा में अनुमान -निरूपण सर्वाधिक है । पत्रपरीक्षा में तो प्रायः अनुमान का ही शास्त्रार्थ उपलब्ध है । विद्यानन्द ने 34 अनुमान का वही लक्षण दिया है जो अकलंकदेव ने 35 प्रस्तुत किया है । अर्थात् 'साधनात्साध्यविज्ञानमनुमनम् ' - साघन से होने वाले साध्य के ज्ञान को उन्होंने अनुमान कहा है । साधन और साध्य का विश्लेषण भी उन्होंने अकलंक प्रदर्शित दिशानुसार किया है। साधन 36 वह है जो साध्य का नियम से अविनाभावी है । साध्य के होने पर ही होता है और साध्य के न होने पर नहीं ही होता। ऐसा अविनाभावी साघन ही साध्य का अनुमापक होता है, अन्य नहीं । त्रिलक्षण, पंचलक्षण आदि साधन लक्षण सदोष होने से युक्त नहीं हैं 137 इस विषयका विशेष विवेचन हमने अन्यत्र 38 किया है । साध्य 39 वह है जो इष्ट- अभिप्रेत, शक्य- अबाधित और अप्रसिद्ध होता है । जो अनिष्ट है, प्रत्यक्षादि से बाधित है और प्रसिद्ध है वह साध्य - सिद्ध करने योग्य नहीं होता । वस्तुतः जिसे सिद्ध करना है उसे इष्ट होना चाहिए, अनिष्ट को कोई सिद्ध नहीं करता। इसी तरह जो बाधित हैसिद्ध करने के अयोग्य है, उसे भी सिद्ध नहीं किया जाता। तथा जो सिद्ध है उसे पुनः सिद्ध करना निरर्थक है । अत: निश्चित साध्याविनाभावी साधन ( हेतु) से जो इष्ट, अबाधित और प्रसिद्ध रूप साध्य का विज्ञान किया जाता है वह अनुमान प्रमाण है ।
अनुमान के दो भेद हैं- १. स्वार्थानुमान और २ परार्थानुमान । अनुमाता जब स्वयं ही निश्चित साध्याविनाभावी साधन से साध्यका ज्ञान करता है तो उसका वह ज्ञान स्वार्थानुमान कहा जाता है । उदाहरणार्थ - जब वह धूप को देखकर अग्नि का ज्ञान, रस को चखकर उसके सहचर रूप का ज्ञान या कृतिका के उदय को देखकर एक मुहूर्त्त बाद होने वाले शकट के उदय का ज्ञान करता है तब उसका वह ज्ञान स्वार्थानुमान है। और जब वही स्वार्थानुमाता उक्त हेतुओं और साध्यों को बालकर दूसरों को उन साध्य साधनों की व्याप्ति ( अन्यथानुपपत्ति ) ग्रहण कराता है और दूसरे उसके उक्त वचनों को सुनकर व्याप्तिग्रहण करके उक्त हेतुओं से उक्त साध्यों का ज्ञान करते हैं तो दूसरों का वह अनुमान ज्ञान परार्थानुमान है ।
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१४
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ख-४
धर्मभूषण ने40 स्वार्थानुमान और ज्ञानात्मक परार्थानुमान के सम्पादक तीन अङ्गों और दो अङ्गों का भी प्रतिपादन किया है। वे तीन अङ्ग हैं-१. साधन, २. साध्य और ३. धर्मी। साधन तो गमकरूप अङ्ग है, साध्य गम्यरूप से और धर्मी दोनों का आधार रूप से। दो अङ्ग हैं-पक्ष और हेतु। जव साध्य धर्म को धर्मी से पृथक नहीं माना जाता-उससे विशिष्ट धर्मी को पक्ष कहा जाता है, तो पक्ष और हेतु ये दो ही अङ्ग विवक्षित होते हैं। इन दोनों प्रतिपादनों में मात्र विवक्षाभेद है-मौलिक कोई भेद नहीं है। वचनात्मक परार्थानुमान के प्रतिपाद्यों की दृष्टि से दो, तीन, चार, और पांच अवयवों का भी कथन किया गया है। अवयव प्रतिज्ञा और हेतु हैं। उदाहरण सहित तीन, उपनय सहित चार और निगमन सहित वे पांच अवयव हैं।
यहाँ उल्लेखनीय है कि विद्यानन्द ने परार्थानुमान के अक्षरभुत और अनक्षरश्रुत दो भेदों को प्रकट करते हुए उसे अकलङ्क के अभिप्रायानुसार श्रुतज्ञान बतलाया है और स्वार्थानुमान को अभिनिबोध रूप मतिज्ञान विशेष कहा है। आगम की प्राचीन परम्परा यही है421
श्रुतज्ञानावरण और वीर्यान्त रायकर्म के क्षयोपशम विशेषरूप अन्तरंग कारण तथा मतिज्ञानरूप बहिरंग कारण के होने पर मन के विषय को जानने वाला जो अविशद ज्ञान होता है वह श्रतज्ञान है43 । अथवा आप्तके वचन, अंगुली आदि के संकेत से होने वाला अस्पष्ट ज्ञान श्रुत है । यह श्रुतज्ञान सन्ततिकी अपेक्षा अनादि निधन है। उसकी उत्पादक सर्वज्ञ परम्परा भी अनादिनिधन है । वीजाङकुरसन्तति की तरह दोनों का प्रवाह अनादि है । अतः सर्वज्ञोक्त वचनों से उत्पन्न ज्ञान श्रतज्ञान है और वह निर्दोष पुरुषजन्य एवं अविशद होने से परोक्ष प्रमाण है।
. प्रत्यक्ष-जो इन्द्रिय, मन, प्रकाश आदि परकी अपेक्षा नहीं रखता और आत्ममात्र की अपेक्षा से होता है वह प्रत्यक्ष ज्ञान है44 । अकलङ्कदेवने 45 इस लक्षण को आत्मसात् करते हुए भी एक नया लक्षण और प्रस्तुत किया है, जो दार्शनिकों द्वारा अधिक ग्राह्य और लोकप्रिय हुआ है। वह है विशद ज्ञान । जो ज्ञान विशद अर्थात अनुमानादिज्ञानों से अधिक विशेष प्रतिभासी होता है वह प्रत्यक्ष है। उदाहरणार्थ-'अग्नि है' ऐसे किसी विश्वस्त व्यक्ति के वचन से उत्पन्न अथवा वहाँ अग्नि है, क्योंकि धुआं दिख रहा है। ऐसे धमादि साधनों से जनित 'अग्निज्ञान' से 'यह अग्नि है' अग्नि को देखकर हुए अग्निज्ञान में जो विशेष प्रतिभासरूप वैशिष्ट्य अनुभव में आता है उसी का नाम विशदता है और यह विशदता ही प्रत्यक्ष का लक्षण है । तात्पर्य यह कि जहाँ अस्पष्ट ज्ञान परोक्ष है वहाँ स्पष्ट ज्ञान प्रत्यक्ष है।
प्रत्यक्ष के भेद--प्रत्यक्ष के भेदों का निर्देश सर्वप्रथम आचार्य गद्धपिच्छने46 किया है। उन्होंने बतलाया है कि प्रत्यक्ष तीन प्रकार का है-१. अवधिप्रत्यक्ष, २. मन:पर्ययप्रत्यक्ष और और ३. केवल प्रत्यक्ष । पूज्यपादने47 इन्हें दो भेदों में बांटा है-१. देशप्रत्यक्ष और २. सर्वप्रत्यक्ष । अवधि और मनःपर्यय ये दो प्रत्यक्षज्ञान58 मुस्तिक पदार्थ को ही जानने के कारण देश प्रत्यक्ष हैं और केवल प्रत्यक्ष69 मूत्तिक और अमूत्तिक सभी पदार्थों को विषय करने से सर्वप्रत्यक्ष है। किन्तु तीनों ही आत्ममात्र को अपेक्षा से होने और इन्द्रियादि परकी अपेक्षा से न होने तथा पूर्ण विशद होने से प्रत्यक्ष हैं।
अकलंकदेव ने50 आगम की इस परम्परा को अपनाते हए भी उसमें कुछ मोड़ दिया है। उन्होंने प्रत्यक्ष के मुख्य और संव्यवहार के भेद से नये दो भेदों का प्रतिपादन किया है। लोक में इन्द्रिय और मनोजन्य ज्ञान को प्रत्यक्ष कहा जाता है। पर जैन दर्शन उन्हें परोक्ष मानता है। अकलक ने प्रत्यक्ष का एक संव्यवहार भेद स्वीकार कर उसके द्वारा उनका संग्रह किया और व्यवहार (उपचार) से उन्हें प्रत्यक्ष कहा । इस प्रकार उन्होंने आगम और लोक दोनों दृष्टियों में सुमेल स्थापित कर उनके विवाद को सदा के लिए शान्त किया।
एक दूसरे स्थान पर उन्होंने51 प्रत्यक्ष के तीन भी भेद बतलाये हैं-१. इन्द्रिय प्रत्यक्ष, २. अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष और ३. अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष । प्रथम के दो प्रत्यक्ष संव्यवहार प्रत्यक्ष ही हैं, क्योंकि वे इन्द्रिय पूर्वक व अनि.
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ख - ४
[ १५
न्द्रियपूर्वक होते हैं। अन्त का अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष मुख्य प्रत्यक्ष है, क्योंकि वह इन्द्रिय और मन की अपेक्षा न करके आत्ममात्र की अपेक्षा से उत्पन्न होता है ।
विद्यानन्द ने 52 इन प्रत्यक्ष भेदों का विशदता और विस्तार पूर्वक निरूपण किया है । इन्द्रिय प्रत्यक्ष के आरम्भ में अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये चार भेद हैं। ये चारों पाँच इन्द्रियों और बहु आदि बारह अर्थ भेदों के निमित्त से होते हैं। व्यंजनावग्रह चक्षु और मनसे नहीं होता, केवल चार इन्द्रियों से बहु बहु आदि बारह प्रकार के अर्थों में होता है । अतः ४ X १२५ = २४० और १४१२४ = ४८ कुल २८८ इन्द्रिय प्रत्यक्ष के भेद हैं। अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष के ४१२ x १४८ भेद हैं। इन्द्रिय प्रत्यक्ष और अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष ये दोनों मतिज्ञान अर्थात् संव्यवहार प्रत्यक्ष हैं। अतएव संव्यवहार प्रत्यक्ष के कुल ३३६ भेद है अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष के दो भेद हैं१. विकल प्रत्यक्ष और २. सकल प्रत्यक्ष विकल प्रत्यक्ष भी दो प्रकार का है—१. अवधिज्ञान और २. मन:पर्ययज्ञान | सकल प्रत्यक्ष मात्र एक ही प्रकार का है और वह है केवल प्रत्यक्ष इनका विशेष विवेचन प्रमाणपरीक्षा से देखना चाहिए। इस प्रकार जैन दर्शन में प्रमाण के मूलतः प्रत्यक्ष और परोक्ष ये दो ही भेद माने गये हैं ।
1
प्रमाण का विषय — जनदर्शन में यतः वस्तु अनेकान्तात्मक है, अतः प्रत्यक्ष प्रमाण हो, चाहे परोक्ष प्रमाण सभी सामान्य विशेषरूप, द्रव्य-पर्यायरूप, भेदाभेदरूप, नित्यानित्यरूप आदि अनेकान्तात्मक वस्तु को विषय करते अर्थात् जानते हैं। कोई भी प्रमाण केवल सामान्य मा केवल विशेष आदि रूप वस्तुको विषय नहीं करते, क्योंकि वैसी वस्तु ही नहीं हैं । वस्तु तो अनेकान्तरूप है और वही प्रमाण का विषय है54 ।
प्रमाण का फल - प्रमाण का फल अर्थात् प्रयोजन वस्तु को जानना और उसका अज्ञान दूर होना है । यह प्रमाण का साक्षात्फल है। वस्तु को जानने के उपरान्त उसके ग्राह्य होने पर उसमें ग्रहण बुद्धि, हेय होने पर हेयबुद्धि और उपेक्षणीय होने पर उपेक्षा बुद्धि होती है । ये बुद्धियाँ उसका परम्परा फल हैं । प्रत्येक प्रमाताको ये दोनों फल उपलब्ध होते हैं
।
नय
पदार्थों का यथार्थज्ञान जहाँ प्रमाण से अखण्ड (समग्र) रूप में होता है, वहाँ नय से खण्ड (अं) रूप में होता है। धर्मी का ज्ञान प्रमाण और धर्म को ज्ञान नय हैं। दूसरे शब्दों में वस्वंशग्राहीज्ञान नय है। यह मूलतः दो प्रकार का है- १. प्रत्याधिक और २. पर्यायायिक अथवा १. निश्चय और २. व्यवहार द्रव्यार्थिक द्रव्य को पर्यायायिक पर्याय को निश्चय अमयोगी को और व्यवहार संयोगी को ग्रहण करता है। इन मूल नयों के अवान्तर भेदों का निरूपण जैन शास्त्रों में विपुलमात्रा में उपलब्ध होता है। वस्तु को सही रूप में जानने के लिए उनका सूक्ष्म से सूक्ष्म विश्लेषण किया गया है । विस्तार के कारण वह यहाँ नहीं किया जाता । यहाँ हमने जैन न्याय का संक्षेप में परिशीलन करने का प्रयास किया है। यों उसके विवेचन के लिए एक पूरा ग्रन्थ अपेक्षित है।
-
1, 2, 3, न्याय दी. टि. पृ. ५, वीरसेवामन्दिर
प्रकाशन
4.
वही पृ० ५
5. षटखं १।१।१५
6. नियमसा०, गा १०, ११, १२
7.
त. सू. १९१०
8.
आप्त मी. १०१
9.
10.
11.
12. प्रमाणनिर्णय, पृ० १ ० न० त० १२
13.
प्र० मी० १।१।२
लघीय. का. ६०
प्रमाणप० पृ० ४, वीरसेवामंदिर ट्रस्ट प्रकाशन परी० मु० १-११
14.
श्या० दी० पृ० ९
15. 'तत्प्रमाणो', 'आये परोक्षम्', 'प्रत्यक्षमन्यत्
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35.
त० सू० १-१०, ११, १२ 16. 'मतिः स्मृति: संज्ञा चिन्ताऽमिनिबोध इत्यन
न्तिरम्'-त० सू० १.१३ 17. लघीय० १-३, प्रमाण सं० १-२ 18. प्र. परी० पृ० २८, ४१, ४२ 19. परी० मु०२-१, २, ३, ५, ११ तथा ३-१,२
पराणीन्द्रियाणि मनश्च प्रकाशोपदेशादि च बाह्यनिमित्तं प्रतीत्य तदावरण कर्म क्षयोपशमापेक्षस्यात्मनो मतिश्रतं उत्पद्यमानं परोक्ष
मित्याख्यायते ।'-स. सि०१-११ 21. 'तथोपात्तान पात्ता पर प्रत्ययापेक्ष
परोक्षम्'-त० वा० १-११ । 'ज्ञानस्यैव विशद निर्भासितः प्रत्यक्षत्वम्, इतरस्य परोक्षता
लघीय. १-३ की स्वोपज्ञवृत्ति 22. 'परोक्षमविशद ज्ञानात्मकम्, परोक्षत्वात्'
प्रमाण परी० पृ० ४१ 23. 'परोक्षमितरत्', 'प्रत्यक्षादि निमिन्तं स्मृति
प्रत्यभिज्ञान तानुमानागम भेदम्'-परी०
मु० ३-१, २ 24. 'अविशद: परोक्षम्,-प्र० मी० ११२१ आदि
'आद्य परोक्षम'-त. सू० १-११ 26. प्र० सं० १-२, लघी० १.३ 27. 'परोक्ष प्रत्यभिज्ञादि प्रमाणे इति संग्रहः ।'
प्रमाण सं०२ 'अविसंवाद स्मृते: फलस्य हेतुत्वात् प्रमाणं धारणा। स्मतिः संज्ञाया: प्रत्यव मर्शस्य । संज्ञा चिन्तायाः तर्कस्य चिन्ता अभिनिबोधस्य अनुमानादेः, प्राक् शब्द योजनात् शेषं श्रुत ज्ञानमनेक प्रभेदम् ।'-लघीय २-१० की
34. 'साधनात्साध्य विज्ञानम नुमानं तदत्य ये ।'
न्या० वि० द्वि. भा० २११ 'तत्र साधनं साध्याविनाभाव नियम निश्चयक
लक्षणम् ।'-प्र० प. पु. ४५ 36. प्र. प. पु. ४५ से ४९
जैन तर्कशास्त्र में अनुमान विचार, प. ९२,
वीर सेवामन्दिर ट्रस्ट प्रकाशन १९६९ । 38. प्र. १० पृ० ५७ 39. न्या. दी०प०७२, ३-२४ 40. प्र०प० १० ५८ 41. विशेष के लिए देखें, 'जैन तर्क शास्त्र में अनु
मान विचार, पृष्ठ ७७-८५ 42. प्र०प० पृ० ५८ 43. स. सि. १।१२, पृ. १०३ 44. लघी०१३ 'प्रत्यक्षमन्यत्'-त० सू१।१२।स.
सि० १२१ को उत्थानिका तदद्वेधा-देश प्रत्यक्षं सर्व प्रत्यक्षं च । देश प्रत्यक्षमवधिमन:पर्यय ज्ञाने । सर्व प्रत्यक्षं केवलम् ।'
-स०सि० १।२१ की उत्थानिका 46. त० सू० ११२७, २८ 47. त० सू० १२२९ 48. लधी० १२३ 49. प्र० सं० स्वोपज्ञवृत्ति १२
'तत त्रिविधम-इन्द्रियानिन्द्रियातीन्द्रिय प्रत्यक्ष विकल्पात् । तत्रेन्द्रिय प्रत्यक्षं सांब्यवहारिकंदेशतोविशदत्वात् । तद्वदनिन्द्रियप्रत्यक्षम् ......" | अतीन्द्रियप्रत्यक्षं तु द्विविधं विकल प्रत्यक्षं सकल प्रत्यक्षं चेति । विकल प्रत्यक्षमपि द्विविधमअवधिज्ञानं मनःपर्ययज्ञानं चेति । सकल प्रत्यक्ष तु केवलज्ञानम । तदेतस्त्रिविधमपिमुध्यं प्रत्यक्षम, मनोऽक्षानपेक्ष-त्वात........." ।'
प्र०प० पृ० ३८, अनुच्छद ९१ । 51. प्र० प० पृ० ४० 52. वही, पृ० ६५ 53. वही, पृ० ६६ 54. लघी० नय प्रवेश, का० ३०-४६
28.
वृत्ति
29. प्र. प० पु. ४१ से ६५ 30. प. मु० ३।१ से १०१ 31. 'स्मृतिः प्रमाणम्, अविसंवाद कत्वात्, प्रत्यक्ष
वत् । यत्र तु विसंवादः सा स्मृत्याभासा, प्रत्यक्षाभासवत् ।'-प्र०प० पु. ४२
प्र. प. प. ४५ से ५८ 33. प्र. प. पु. ४५
32
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गृहस्थ जीवन
का जैन आदर्श
-डा० ज्योति प्रसाद जैन
राग, द्वेष, काम, क्रोधादि समस्त आत्मिक विकारों के पूर्णविजेता (जयतीति जिन:) जिन भगवान जिनके इष्टदेव हैं (जिनो देवता अस्य सः जनः) ऐसे जैन वर्तमान में अन्तिम तीर्थङ्कर जिनेन्द्र महावीर (५९९-५२७ ईसा पूर्व) द्वारा पुनरुद्धारित, संशोधित एवं व्यवस्थित धर्मशासन के अनुयायी हैं । ऋषम, आहेत, व्रात्य, श्रमण, निर्ग्रन्य, अनेकान्त, स्याद्वाद, भव्य, श्रावक (सरावग, सरावगी), जैन आदि विभिन्न नामों से अभिहित यह धार्मिक परम्परा निवृत्ति, अहिंसा, समता एवं सदाचार प्रधान है । आत्मानुशासन पूर्वक धर्म-अर्थकाम रूपी त्रिवर्ग का साधन करते हुए अभ्युदय एवं निःश्रेयस का सामंजस्यपूर्ण सम्पादन इस परम्परा में गृहस्थ जीवन का आर्दश है।
अपने धर्मतीर्थ का प्रवर्तन करते समय भगवान महावीर ने साधकों को चतुर्विध संघ में सुव्यवस्थित किया था। मुनि-आर्यिका,-श्रावक-श्राविका उक्त संघ के चार अंग थे। प्रथम दो गृह अथवा संसार त्यागी वे साधु-साध्वियां थे जिन्होंने संसार-देह-भोगों से विरक्त होकर एकान्त आत्मसाधन का व्रत लिया । किन्तु ऐसी महान आत्माएं अत्यन्त विरल होती हैं; उनका लक्ष्य स्वपर कल्याण होता है । आत्मसाधन से जितना भी समय बचता है, वह वे शेष समस्त संसारग्रस्त जनता के पथ प्रदर्शन एवं हित-उपदेश में व्यय करते हैं। अधिकांश जनसंख्या गृहस्थ स्त्री-पुरुषों की होती है जो आहार-भय-मैथुन-परिग्रह नामक संज्ञाओं से प्रेरित होकर भोगेष्णा-पुत्रेष्णा-वित्तेष्णा • लोकेष्णा आदि विविध इच्छाओं की सम्पूर्ति में संलग्न रहते हैं । अर्थ (उत्पादन अर्जन) और काम (भोगोपभोग) पुरुषार्थों में वे इतने व्यस्त रहते हैं कि अन्य किसी ओर ध्यान देने का उन्हें प्रायः अवकाश ही नहीं होता । तथापि, उनमें से जो स्त्री पुरुष देव-गुरु-शास्त्र का सामीप्य प्राप्त करने के
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१५ ]
कदाचित इच्छुक होते हैं और संसर्ग प्राप्त होने पर उनके हितकारी वचनों को विनय पूर्वक सुनते हैं (श्रणोति हित वाक्यानि यः स श्रावकः ) तथा उक्त उपदेशों पर यथाशक्य, अल्पाधिक आचरण करने का प्रयास करते हैं वे समस्त पुरुष श्रावक और स्त्रियां श्राविकाएं कहलाती हैं। अपने आचार-विचार से ये श्रावक श्राविकाएं जैन दृष्टि में गृहस्थ जीवन का जो आदर्श है उसे प्रस्तुत करते हैं, अथवा उसे प्रस्तुत करने की उनसे अपेक्षा की जाती है ।
मोक्षपाहुड़ में श्रमणों (साधु-साध्वियों ) के धर्म का प्रतिपादन करने के पश्चात् आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं, 'सावयाणं पुण सुणसु' (अब श्रावकों के धर्म के विषय में सुनो) :
हिंसा रहिये धम्मे अट्ठारहदोस वज्जिय देवे ॥ णिग्गंथे पव्वयणे, सदहणं होई सम्मतं ॥
अर्थात् हिंसा रहित
(अहिंसा) धर्म में, अष्टादश दोष विवजित देव (अर्हन्त भगवान) में, निर्ग्रन्थ ( निष्परिग्रही ) गुरुओं में ओर प्रवचन ( आप्त वचनों) में जो श्रद्धान करता है वह सम्यक्त्वी अर्थात् श्रावक (जैन) होता है ।
भगवान की वाणी है कि
ख-४
एहु धम्मु जो आचरह- वंगणु सुदद्धि कोई । सो साहु, fक सावयहि अण्ण कि सिरमणि होई ॥
ऐसे (अहिंसा रूपी जिन ) धर्म का जो कोई भी आचरण करता है, चाहे वह ब्राह्मण हो अथवा शूद्र, वही श्रावक (जैनी) होता है, वर्ना क्या श्रावक के सिर पर कोई मणि लगी होती है ।
समस्त जीवात्माओं के समत्व पर आधारित यह अहिंसा, संयम एवं सदाचरण प्रधान धर्म, वर्ण, जाति कुल, वर्ग, लिंग आदि किसी प्रकार के भी ऊंच-नीच या भेदभाव को प्राश्रय नहीं देता । उसकी दृष्टि में 'णवि देहो चंदिज्जई, णविय कुलो णविय जाईसंजुत्तो' शरीर, कुल जाति आदि बाह्यरूप बंदनीय नहीं हैं, वह गुणपूजक है और आत्मोन्नयन उसका लक्ष्य है । "जीओ और जीने दो' में तथा दूसरों के साथ वैसा व्यवहार करो जैसा कि तुम चाहते हो वे तुम्हारे साथ करें, के सिद्धान्त में उसका विश्वास होता है ।
अपने नामाक्षरो में निहित अर्थ - श्रद्धा, विवेक एवं कर्म (सत्कर्म) का अपने जीवन में सामन्जस्य स्थापित करने में प्रयत्नशील श्रावक-श्राविका पूर्णतया गृहाश्रमी - गृहस्थ होते हैं, संसार में रहते हैं, संसारी हैं, अपने कौटुम्बिक, पारिवारिक, सामाजिक राष्ट्रीय जीवन को सोत्साह जीते हैं। जिस किसी भी शासन तन्त्र के अधीन रहते हैं उसके नागरिकों से अपेक्षित कर्तव्यों का पालन करते हैं और अधिकारों का उपभोग करते हैं । अर्थ का उत्पादन एवं अर्जन करने में अपनी शक्ति एवं क्षमताओं का यथासंभव उपयोग करते हैं और अपनी इच्छाओं की पूर्ति एवं भोगोपभोग में उसका व्यय करते हैं । किन्तु जैन गृहस्थ से यह अपेक्षा भी की जाती है कि वह उपरोक्त
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ख-४
[ १९ अर्थ एवं काम पुरुषार्थों के साथ धर्म पुरषार्थ का समन्वय बनाये रक्खें, अर्थ साधन भी धर्म एवं न्यायपूर्वक करे और भोगोपभोग में भी धर्म विरुद्ध आचरण न करे । उसके आचार में अंहिंसापूर्ण सहअस्तित्व की और विचार में अनैकान्तिक सहिष्णता की प्रतिष्ठा होती है।
एक जैन गृहस्थ देव (अर्हन्त और सिद्ध), शास्त्र (अर्हन्त तीर्थंकरों के उपदेश) और गुरु (आचार्य, उपाध्याय, सामान्य साधु) का श्रद्धानी, उपासक,आराधक और पूजक होता है । वही उसके आदर्श हैं, जिनके समान हो जाने की वह वांछा करता है। ये अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय एवं साधु ही उसके पंच परम गुरु-पंच परमेष्टि हैं, उनके नमस्कार रूप पंचनमस्कार मंत्र उसका महामंत्र है जिसका जाप और पाठ वह करता हैं। वह इन अर्हन्त, सिद्ध, साधु और धर्म को ही मंगल-रूप, लोकोत्तम एवं अपने लिए एक मात्र शरण समझता है। अर्हन्तों में ऋषभादि महावीर पर्यन्त चतुर्विंशति तीर्थंकर देवों की वह विशेषरूप से पूजा उपासना भक्ति करता है।
___ जैन गृहस्थ के अष्टमूलगुण बताये गये है, जिनमें सर्व प्रकार के सामिष पदार्थो (मांसाहार) का त्याग, मद्यादि मादक पेयों एवं अन्य मादक द्रव्यों के सेवन का त्याग, अन्य अनेक तामसिक आदि अभक्ष्यों के भक्षण का त्याग, आखेट, शिकार, पशुओं की लड़ाई आदि हिंसक मनोरंजनों एवं व्यसनों का त्याग, व्यभिचार (पर स्त्री या परपुरुष, वेश्यादि सेवन ) का त्याग, चोरी, अपहरण आदि का त्याग, सर्वप्रकार के द्यूतसेवा (जुए) का त्याग, रात्रि भोजन (सूर्यास्त के पश्चात् भोजन करने) का त्याग और अनछने पानी आदि पेय पदार्थो को पीने का त्याग सम्मिलित हैं। यह ध्यातव्य है कि एक गृहस्थ को जैन बनने का ॐनमः त्याग के साथ करना पड़ता है और प्रत्यक्ष ही है कि उक्त त्याग का लक्ष्य उसके आचरण का परिमार्जन, परिष्कार एवं संस्कार करना है, जो शनैः शनैः ही होता है ।
इनके अतिरिक्त आगम सूत्रों में भगवान महावीर द्वारा श्रावक के प्राथमिक गुणों का जो संकेत किया गया है उसके अनुसार उसे अप्पेच्छा (अल्प इच्छा वाला), अप्परिग्गहा (अल्प परिग्रह वाला), अप्पारंभा (अल्प आरम्भ वाला) कहा गया है तथा उसके लिए धार्मिक (धम्मिए), धर्मानुग या धर्म का अनुसरण करने वाला (धम्माणुए), धर्मिष्ठ (धम्मिट्ठ), धर्म की ख्याति-आख्यान करने वाला (धम्मक्ख हि), धर्म का प्रलोकन-प्रकाश करने वाला (धम्मप्पलोई), धर्मानुरंजित-धर्म के रंग में रंगा हुआ (धम्मपलज्जणो), धर्मशील-सदाचार का आचरण करने वाला (धम्मसीलसमुदायारे) तथा धर्मपूर्वक अजीविका उर्पाजन करने वाला (धम्मेण चेव वित्ति करप्पेमाणे) विशेषणों का प्रयोग किया है। उसकी यह अभिलाषा रहती है कि एक न एक दिन वह परिग्रह का त्याग कर पावे, अगार छोड़ अनगार बन पाये और अन्त में सल्लेखनापूर्वक मरण कर पावे।
पं० अशाधरजी ने सागारधर्मामृत (अध्याय १)में कहा है कि जो व्यक्ति सागार-धर्म अर्थात श्रावकाचार का विधिवत पालन करने के उन्मुख हो उसमें निम्नोक्त १७ गुण होने चाहिएं-(१) न्यायपूर्वक द्रव्य उपार्जन करना (२) गुणीजनों का सम्मान करना (३) सत्यभाषी (४) धर्म-अर्थ-कामरूप त्रिवर्ग का निविरोध सेवन (५) योग्य
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२० ]
स्त्री से विवाह सम्बन्ध करना (६) उपयुक्त बस्ती या मुहल्ले में रहना ( ७ ) उपयुक्त मकान में निवास करना (८) लज्जाशील होना (९) योग्य भोजन पान करना (१०) उपयुक्त आचरण करना (११) उत्तम पुरुषों की संगति करना ( १२ ) बुद्धिमत्ता (१३) कृतज्ञता (१४) जितेन्द्रियता (१५) धर्मोपदेश श्रवण करना (१६) दयालुता और (१७) पाप से भय करना ।
आचार्य नेमिचन्द ने प्रवचनसारोद्धार में बताया कि निम्नोक्त २१ गुणों को धारण करने वाला श्रावक ही अणुव्रतादि व्रतों की साधना करने के योग्य होता है-अक्षुद्रपन, स्वस्थता, सौम्यता, लोकप्रियता, अक्रूरता, पापभीरुता, अशठता, दानशीलता, लज्जाशीलता, दयालुता, गुणानुराग, प्रियसम्भाषण या सौभ्यदृष्टि, मध्यस्थ वृत्ति, दीर्घदृष्टि, युक्तियुक्त, सत्य का पक्ष करना, नम्रता, विशेषज्ञता, वृद्धानुगामी होना, कृतज्ञता, परहितकारी या परोपकारी होना और लब्धलक्ष्य अर्थात् जीवन के साध्य का ज्ञाता होना ।
ख -४
हेमचन्द्राचार्य ने अपने योगशास्त्र ( प्रथम प्रकाश) में श्रावक के ऐसे प्राथमिक गुणों की संख्या ३५ दी है और उन्हें मार्गानुसारी गुण कहा है, यथा - न्यायपूर्वक धनोपार्जन, ज्ञानवृद्ध, वयोवृद्ध शिष्टजनों का सम्मान, समान कुलशील साधर्मी किन्तु भिन्न गोत्रोत्पन्न व्यक्ति के साथ विहाह सम्बन्ध, चोरी, परस्त्रीगमन, झूठ आदि पापाचार का परित्याग, स्वदेश के हितकर आचार-विचार एवं संस्कृति का पालन-संरक्षण, परनिन्दा से बचना, उपयुक् मकान में निवास, सदाचारी जनों की संगति, माता-पिता का सम्मान सरकार एवं उन्हें सन्तुष्ट रखना, जिस नगर या ग्राम का वातावण अशान्त अराजकतापूर्ण हो वहाँ निवास नहीं करना, देश - जाति कुल विरुद्ध आचरण न करना, देशकालानुसार वेषभूषा एवं रहन-सहन रखना, आय से अधिक व्यय न करना और अनुचित कार्यों में व्यय न करना, धर्मश्रवण की इच्छा रखना, शास्त्र चर्चा तत्व चर्चा आदि में रस लेना, जीवन को उत्तरोत्तर उच्च एवं पवित्र बनाने का प्रयत्न, अजीर्ण होने पर भोजन न करना, समय पर भोजन करना, भूख से अधिक न खाना, धर्म-अर्थ- काम का निर्विरोध सेवन, अतिथि- दीन- साधुजनों को यथायोग्य दान देना, आग्रहशीलन होना, सौजन्य, औदार्य, दाक्षिण्य आदि गुणों की प्राप्ति में प्रयत्नशील होना, अयोग्य देश एवं अयोग्य काल में गमनागमन न करना, आचारवृद्ध-ज्ञानवृद्ध जनों को स्वगृह पर आमंत्रित कर उनकी सत्कार सेवा करना, माता पिता पत्नि पुत्र पुत्री आदि आश्रित जनों का यथायोग्य भरण-पोषण करना और उनके विकास में सहायक होना, दीर्घदर्शिता, विवेकशीलता, कृतज्ञता, निर-अहंकार, विनम्रता, लज्जाशीलता, करुणाशीलता, सौम्यता, परोपकारिता, काम-क्रोध-लोभ-मोह - सह मत्सर्य आदि आतिरक शत्रुओं से बचे रहने का प्रयत्न, और इन्द्रियों की उच्छृन्खलता पर रोकथाम । कविवर बनारसीदास ने भी श्रावक के २१ गुण गिनाये हैं ।
इन तालिकाओं में अनेक गुण अभिन्न या समान हैं। इन गुणों के संकेत से पुरातन आचार्यों का अभिप्राय यही प्रतीत होता है कि श्रावक की भूमिका को समुचित ढंग से निभाने के लिए व्यक्ति के लिए यह आवश्यक है कि सर्वप्रथम वह स्वयं मानवोचित व्यावहारिक सदगुणों का विकास करके एक सभ्य, शिष्ट, सर्वप्रिय, उपयोगी नागरिक एवं समाज का प्रशंसनीय सदस्य बन जाय ऐना व्यक्ति ही सच्चे अर्थों में श्रावक
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[ २१ बनने की योग्यता रखता है और श्रावक कहलाने का अधिकारी है। कम से कम एक श्रावक से यह अपेक्षा तो की ही जाती है कि वह श्रावक के सभी उपरोक्त प्राथमिक गुणों को अपने व्यक्तित्व में विकसित करने, अपने जीवन में उतारने और अपने व्यवहार में चरितार्थ करने के लिए बुद्धिपूर्वक प्रयत्नशील रहे।
तदुपरान्त एक जैन गृहस्थ पांच अणुव्रतों को ग्रहण करता है, जिनमें से प्रथम अहिंसाणुव्रत (स्थूल हिंसा विरमण व्रत) है जिसमें आरंभी (खान-पान गृह कार्य सम्बन्धी), उद्योगी (कृषि, व्यापार, व्यवसाय आदि से (सम्बन्धित) और विरोधी (देश, धर्म, परिवार, मन, धन आदि की रक्षार्थ की जाने वाली) हिंसा का वह त्यागी नहीं होता, किन्तु जानबूझकर, द्वेष, क्रोध, वैर-विरोध में या शौक, व्यसन, मनोरंजन आदि के लिए, अथवा प्रमाद, असावधानी या लापरवाही के कारण दूसरे मनुष्यों अथवा पशुपक्षि आदि का प्राणघात करने रुप संकल्पी हिंसा का वह यागी होता है । सत्याणुव्रत (स्थूलमृषावाद विरमण) का पालन वह हित-मित-प्रिय वचन व्यवहार द्वारा करता है । झूठे, असत्य, अनृत, अतिशयोक्तिपूर्ण, छलकपट, नामक, भंड, अश्लील, कडुए, कर्कश, कठोर, क्रूर निर्दयतापूर्ण बचनों के बीलने से वह परहेज करता है, जानबूझकर किसी के मन को दुखने वाले या अनिष्ट कर वचन नहीं बोलता, वाक्संयमी और शिष्टभाषी होने का प्रयत्न करता है । अचौर्याणुव्रत के द्वारा वह प्रतिज्ञा करता है कि अन्य किसी भी व्यक्ति की किसी प्रकार की चल या अचल सम्पत्ति की चोरी, अपहरण, अमानत में खयानत, लूट-खसोट वह नहीं करेगा, धोखा, बेईमानी, ठगी, छलकपट, फरेब, आदि से दूर रहेगा। शीलाणुव्रत द्वारा वह प्रतिज्ञा करता है कि अपनी न्याय्य विवाहित पत्नी (स्त्रीपक्ष में स्वपति) को छोड़कर अन्य किसी व्यक्ति से-काम प्रसंग, मैथुनादि नहीं करेगा और परिग्रहपरिमाण अणुव्रत में वह अपनी आवश्यकताओं एवं इच्छाओं को सीमित रखने का प्रयत्न करता है और प्रतिज्ञा करता है कि अमुक सीमा से यदि उसकी सम्पत्ति बढ़ जायगी तो वह उक्त शेष द्रव्य को न अपने उपयोग में लेगा, न उसका संचय करेगा, वरन् उसे धर्मार्थ अर्थात् परोपकार या जनता के हित में व्यय करेगा।
___ इन पांच अणुव्रतों के पोषण के लिए वह चार शिक्षाव्रतों (सामयिक, प्रोषधोपवास, भोगोपभोग परिमाण एवं अतिथिसंविभाग), तथा तीन गुणवतों (दिग्वत, देशव्रत और अर्नथदंडवत) का पालन करता है। प्रत्येक व्रत के कतिपय अतिचार होते हैं, जिनकी विद्यमानता में व्रत भंग तो नहीं होता किन्तु उसमें दूषण लगता है । अतएव आदर्श जैन का प्रयत्न होता है कि वह जिन व्रतों को ग्रहणकरता है उनका यथाशक्य निरतिचार पालन करे।
यह साधना आंशिक है, प्राथमिक है, तथापि साधक के जीवन एवं व्यवहार पर उसका सुप्रभाव होता ही है। अब से लगभग सत्तर वर्ष पूर्व स्व० दीवान बहादुर ए०बी० लठे महोदय ने भारतीय दण्ड विधान के साथ जैन गृहस्थ को अचार संहिता का विश्लेष्णात्मक समीकरण करके यह प्रतिपादन किया था कि उक्त दण्डविधान की अथ से अन्त तक एक भी धारा ऐसी नहीं है जिसका श्रावकाचार में वणित स्थूल व्रतों का स्थूल रूप से पालन करने वाला भी कोई जैन गृहस्थ उल्लंघन कर सके, इतना ही नहीं, सन् १८९१ की जेल एडमिनिस्ट्रेशन रिपोर्ट
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२२ ] के आधार से उन्होंने यह भी प्रकट किया था कि उनका उक्त निष्कर्ष मात्र काल्पनिक या सैद्धांतिक ही नहीं है वरन् व्यवहार्य एवं वास्तविक है क्योंकि उक्त रिपोर्ट के अनुसार जब कि प्रत्येक ४७७ ईसाइयों में से एक, ४८१ यहूदियों में से एक, प्रत्येक ६०४ मुसलमानों में से एक, प्रत्येक १५०९ हिन्दुओं में से एक और प्रत्येक २५४९ पारसियों में से एक दण्डविधान के अन्तर्गत दंडित होकर जेल की सजा भोग रहे थे तब प्रत्येक ६१६५ जैनों में से एक व्यक्ति वैसी सजा काट रहा था। सन् १९०१ में यह अनुपात और भी कम हो गया अर्थात् ७३५५ जैनों के पीछे केवल एक व्यक्ति ही दंडित अपराधी पाया गया। प्रशासन, अदालतों, व्यापार और व्यसाय में भी जैन जन अपनी सच्चाई, ईमानदारी, वचन निर्वाह एवं साख के लिए अन्य समस्त समाजों की अपेक्षा अधिक प्रतिष्ठा प्राप्त रहे हैं। एक सच्चा न गृहस्थ नाप-तौल में कमी-बेशी करने से, पदार्थों में मिलावट करने से, काला बाजार से, चोरी का माल लेने-देने से, उत्कोच-घूस (रिश्वत) के आदान प्रदान से, दूसरों का शोषण आदि करने से सदा दूर रहेगा।
वह क्षमा-मादर्व-आर्जव-सत्य-शौच-संयम-तप-त्याग-आकिन्चन्य-ब्रह्मचर्य रूपी दश-लाक्षण धर्म का चिन्तन मनन करने में तथा उन्हें अपने जीवन में उतारने में प्रयत्नशील रहता है।
'देवपूजा-गुरुपास्ति-स्वाध्याय-संयमस्तपः-दानश्चेति षट्कर्मणिदिनेदिने' - जैनगृहस्थ इन षडावश्यक करणीय कर्मों को प्रतिदिन यथाशक्ति करता है। इन आवश्यक नित्य कर्तव्यों में अन्तिम.दानका विशेष महत्व है। व्यवहार्य जैन धर्म के प्रवृत्यात्मक रूपों में दान प्रवृत्ति सर्वोपरि है । इसके प्रायः चार भेद किये जाते हैंआहार, औषध, शास्त्र और अभय । एक सदगृहस्थ आत्मार्थी गृहत्यागी साधु साध्वियों को उनके उपयुक्त आहार-पान सहर्ष एवं सादर प्रदान करके उनके धर्मासाधन में सहायक होता है और दीनदुस्नी भूखे प्यासे जनों की क्षुधा निवारण करने में, अभावग्रस्तों के अभावों का यथाशक्य निवारण करने में अहोभाग्य मानता है । जो रोगी हैं उन्हें रोगमुक्त करने के लिए औषधालयों, आतुरालयों, चिकित्सालयों आदि की स्थापना आदि सहायता, निःशुल्क औषधि वितरण तथा रोगी की सुश्रुषा-परिचर्या आदि के रूप में वह औषधिदान नामक अपने आवश्यक कर्तव्य का पालन करता है । सद्साहित्य का निर्माण वा निर्माण में सहायता दान, उसके प्रकाशन, वितरण में योग, ज्ञान केन्द्रों एवं शिक्षा संस्थाओं को स्थापना सहायता, स्वयं दूसरों को ज्ञान-दान देना अथवा उसके दिये जाने की साधन सुविधायें उपलब्ध करना-कराना जैन समुदाय का शास्त्र दान है। किसी भी प्राणी को मानसिक अथवा शारीरिक कष्ट न पहुंचाना, जो अन्याय, अत्याचार, उत्पीड़न या त्रास के शिकार हैं उन्हें सुरक्षा एवं शरण प्रदान करके निर्भय करना जैन श्रावक का अभयदान है। 'दयामूलो धम्मो' के सिद्धान्त में विश्वास रखने वाले जैन गृहस्थ परोपकार एवं सेवाकार्यों में सदैव तत्पर रहते हैं । अनगिनत अनाथालय, विधवाश्रम, बाला विश्राम, पिंजरापोल, ज्ञानकेन्द्र, शिक्षा संस्थाएँ, पुस्तकालय, छात्रवृत्तियाँ, छात्रालय, धर्मशालाएं, चिकित्सालय, आतुरालय या औषधालय, अकाल-सूखा बाढ़ आदि प्राकृतिक वा अप्राकृतिक आकस्मिक आपस्ति-विपत्तियों से पीड़ित मनुष्यों आदि की सेवा सहायता करने वाली संस्थाएं, जैन गहस्थ की इस दान प्रवत्ति के फलस्वरूप लोक सेवा में
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[ २३
ख - ४
रत हैं । परोपकार एवं लोकसेवा के कार्यों में जैन जनों का सक्रिय योगदान अपनी जनसंख्या के अनुपात में शायद ही किसी अन्य धार्मिक समाज से कम हो ।
आत्मशोधन के उद्देश्य से एक सच्चा जैन गृहस्थ नित्यप्रति प्रातः, मध्यान्ह एवं सायं प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, आलोचनापाठ, द्वादशानुप्रेक्षा, सामयिकपाठ आदि विविध भावनाए भाता है। इनमें से एक अत्यधिक लोकप्रिय पाठ का प्रारंभ निम्नलिखित पद से होता है
जो व्यक्ति ऐसी उदात्त भावना के साथ अपने दिन का प्रारंभ तथा अंत भी करने का अभ्यस्त होता है, कोई कारण नहीं कि वह प्राणीमात्र को अपना मित्र वस्तुतः न मानने लगे ( मिस्ति मे सब्बभूएसू), उसका वैर विरोध फिर किसके साथ रहेगा ( वैर मज्झं ण केणवि), वह कैसे किसी का अपकार कर सकता है, कैसे किसी को कष्ट पहुँचा सकता ।
सत्व ेषु मैत्रीं गुणीषु प्रमोदं । क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वं ॥ माध्यस्थभावं विपरीतवृत्ती । सदा मामात्मा विदधातु देव ॥
अपनी नित्य प्रातः सम्पादित की जाने वाली देव- पूजा का उपसंहार भी एक जैन गृहस्थ इस शांतिपाठ
के साथ करता है। ---
देशस्य राष्ट्रस्य पुरस्य राज्ञाः
क्षेमं
करोतु शान्ति भगवज्जिनेन्द्रः ।
सर्व प्रजानां प्रभवतु, बलवान्धामिको
काले काले च सम्यग्वर्षतु मघवा,
व्याध्यायान्तु
भूमिपाल: ।
दुभिक्षं-चोर-मारी
नाश्म ।
क्षणमपि,
जगतां मास्ममुज्जीव लोके ॥
अस्तु, भगवान महावीर और उनकी शिष्य परम्परा में उत्पन्न आचार्य पुंगवों ने एक जैन गृहस्थ के आदर्श का जो मान स्थापित किया, उसके आचार विचार के लिए जो विधि निषेध प्रतिपादित किये और उसका जो स्वरूप निर्धारित किया वह सर्वथा व्ववहार्य, सुकर एवं लभ्य है । एक आदर्श जैन गृहस्थ की दृष्टि सम्यक् या समाचीन होती है, स्वकृत कर्मों के शुभाशुभ फल में वह विश्वास करता है । वह श्रद्धावान ( अन्धविश्वासी नहीं),
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२४ ]
ख-४ विवेकावान, शीलवान, दयालु, परदुःखकातर, निर्भय, विनम्र, कर्तव्यपरायण, उदार, सहिष्णु, उद्यमी, साहसी, न्याय एवं धर्मभीरु, आशावादी और स्वपुरुषार्थ पर निर्भर होता है। वह एक संस्कृत, सभ्य एवं उत्कृष्ट नागरिक होता है, किसी छोटे से राज्य या राष्ट्र का ही नहीं, सम्पूर्ण विश्व का। वह मानवता का पुजारी और अपने अन्तर के मानव को यथासंभव पूर्णतया विकसित करने का इच्छुक-प्रयासी होता है। ऐसे ही जैन गृहस्थों के विषय में आचार्यों ने कहा है:
गृहस्थऽपि क्रियायुक्तो न गृहेण गृहाश्रमी । न चैव पुत्रदारेण, स्वकर्म परिवजितः ॥
तथा
गृहस्थो मोक्षमार्गस्थो निर्मोहो नव मोहवान ।
अनगारो गृही श्रेयाम् निर्मोहो मोहिने मुने ॥ अर्थात, जो क्रियावान-आचारवान है वह घर में रहते हुए भी गृहस्थी नहीं है, स्त्री सन्तान आदि भी उसके सन्मार्ग में बाधक नहीं हो पाते। एक मोह-मिथ्यात्व से रहित गृहस्थ मोक्षमार्ग में स्थित रहता है, जबकि मोहग्रस्त साधु उससे भ्रष्ट हो जाता है-मोही मुनि की अपेक्षा मोह-मुक्त गृहस्थ श्रेष्ठ है ।
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श्रावक के इक्कीस गुण
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लज्जावंत दयावंत प्रसंत प्रतीतवंत । परदोषको ढकया पर उपगारी है ।। सौमदृष्टि गुनग्राही गरिष्ट सबको इष्ट । शिष्टपक्षी मिष्टवादी दीरघ विचारी है। विशेषग्य रसग्य कृतग्य तग्य धरमग्य । न दीन न अभिमानी मध्य विवहारी है। सहज विनीत पापक्रियासो अतीत ऐसौ । श्रावक पुनीत इकबीस गुनधारी है।
-कविवर पं० बनारसीदास
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भगवान महावीर की मांगलिक विरासत
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-पं० सुखलालजी
भगवान महावीर ने जो मांगलिक विरासत हमें सौंपी है, वह क्या है, यही हमारे लिये विचारणीय है । सिद्धार्थनन्दन या त्रिशलापुत्र स्थूल देहधारी महावीर के विषय में हमें यहाँ विचार नहीं करना है । उनका ऐतिहासिक या ग्रन्थबद्ध स्थूल जीवन तो हमेशा हम पढ़ते सुनते आये हैं । जिस महावीर का निर्देश मैं करता हूं वह शुद्ध बुद्ध वासना मुक्त चेतनस्वरूप महावीर का है । ऐसे महावीर में सिद्धार्थनंदन का तो समावेश हो ही जाता है । साथ ही सभी शुद्ध -बुद्ध चेतन का भी समावेश हो जाता है। इस महावीर में किसी जाति पांति का या देशकाल का भेद नहीं है । वे वीतरागाद्वैत रूप से एक ही हैं। इन्हीं बातों को ध्यान में रखकर अनेक स्तुतिकारों ने स्तुति की है । जब आचार्य मानतुंग स्तुत्य तत्व को बुद्ध, शंकर, विधाता और पुरुषोत्तम कहते हैं, तब वे सद्गुणाद्वैत की भूमिका का ही स्पर्श करते हैं। आनन्दघन राम, रहिमान, कान्ह आदि सम्प्रदायों में प्रचलित शब्दों में ऐसे ही किसी परमतत्व का स्त्तवन करते हैं।
भगवान महावीर ने जो विरासत हमें दी है, उसे उन्होंने अपने विचार में ही संगृहीत नहीं रखा, किंतु उन्होंने उसे अपने जीवन में उतार कर परिपक्व रूप में ही हमारे समक्ष रखा है। अतएव वह विरासत उपदेश में नहीं समा जाती, उसका तो आचरण भी अपेक्षित है।
भगवान महावीर की विरासत को संक्षेप में चार भागों में बांट सकते हैं :१, जीवन दृष्टि. २. जीवन शुद्धि, ३. जीवन व्यवहार का परिवर्तन और ४. पुरुषार्थ ।
भगवान की जीवन-विषयक दृष्टि को सर्वप्रथम समझने का यत्न कर । जीवनदृष्टि अर्थात जीवन का मूल्य परखने की दृष्टि । हम सभी अपने-अपने जीवन का मूल्य आंकते हैं । जिस कुटुम्ब, जिस ग्राम, जिस समाज या जिस राष्ट्र के साथ हमारा सम्बद्ध होता है उसके जीवन का मूल्य करते हैं । इससे आगे बढ़कर सम्पूर्ण मानवसमाज और उससे भी आगे अपने से सम्बन्ध पशु पक्षी के भी जीवन का मूल्य आंकते हैं । किंतु महावीर की स्वसंवेदन दृष्टि उससे भी आगे बढ़ गई थी। काका कालेलकर ने भगवान महावीर की जीवनदृष्टि के विषय में कहा है कि वे एक ऐसे धैर्य सम्पन्न और सूक्ष्म-प्रज्ञ थे कि उन्होंने कीट पतंग तो क्या जल और वनस्पति जैसी जीवन शून्य मानी जाने वाली भौतिक वस्तुओं में भी जीवन तत्व देखा था। महावीर ने जब अपनी दृष्टि लोगों के
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ख-४
समक्ष रखी तब उसे कौन ग्रहण कर सकेंगे इसका विचार उन्होंने नहीं किया, किंतु इतना ही सोचा कि काल निरवधि है और पृथ्वी विशाल है, कभी न कभी तो कोई उसे समझेगा ही। जिसे गहनतम स्पष्ट प्रतीति होती है वह अधीर होकर ऐसा नहीं सोचता कि मेरी प्रतीति को तत्काल ही लोग क्यों नहीं समझ जाते ।
महावीर ने आचारांग नामक अपने प्राचीन उपदेश ग्रन्थ में बहुत सरल ढंग से अपनी बात उपस्थित की है और कहा है कि प्रत्येक को जीवन प्रिय है, जैसा कि स्वंय हमें अपना जीवन प्रिय है। भगवान की सरल सर्व ग्राह्य दलील ही है कि मैं आनंद और सुख चाहता हूँ। इसी से मैं स्वंय हूँ। तो फिर इसी न्याय से आनंद और सुख चाहने वाले दूसरे भी प्राणी हैं । ऐसी स्थिति में ऐसा कैसे कहा जाय कि मनुष्य में ही आत्मा है, पशु पक्षी में ही आत्मा है, और दूसरे में नहीं है ? कीट और पतंग अपने ढंग से सुख की खोज करते नजर आते हैं, किंतु सूक्ष्मतम वानस्पतिक जीव सृष्टि में भी संतति-जनन और प्रोषण की प्रक्रिया अगम्य अगम्य रूप से चलती रहती है। उन्होंने समस्त विश्व में अपने समान ही चेतन तत्व को उल्लसित देखा। उसे धारण करने वाले, पुष्ट करने वाले शरीर और इन्द्रियों के आकार प्रकार कितना ही अन्तर क्यों न हो, कार्य शक्ति में भी अन्तर हो, फिर भी तात्विक रूप में सर्वव्यापी चेतन तत्व एक ही प्रकार का विलसित हो रहा है। भगवान की इस जीवनदृष्टि को हम आत्मौपम्य-दृष्टि कह सकते हैं। हम सब जैसे तात्विक रूप से हैं वैसे ही छोटे बड़े सभी प्राणी हैं। जो अन्य प्राणी रूप में हैं वे भी कभी न कभी विकास क्रम में मानव भूमिका को स्पर्श करते हैं। और मानव भूमिका को प्राप्त जीव भी कभी अवक्रान्ति क्रम में अन्य प्राणी का स्वरूप प्राप्त करते हैं। इस तरह उत्क्रान्ति और अवक्रान्ति का चक्र चलता ही रहता है। किंतु उससे मूल चैतन्य के स्वरूप में कोई अन्तर नहीं पड़ता। जो होता भी है वह व्यवहारिक हैं।
भगवान की आत्मौपम्य-दृष्टि में जीवन शुद्धि की बात आ ही जाती है । अज्ञात काल से चेतन का प्रकाश कितना भी आवृत क्यों न हुआ हो, उसका आविर्भाव न्यूनाधिक हो, फिर भी उसकी शक्ति पूर्ण विकास पूर्ण, शुद्धि ही है। यदि जीवन तत्व में पर्ण-शुद्धि की शक्यता न हो तो आध्यात्मिक साधना का कुछ भी प्रय जिस देश में सच्चे आध्यात्मिक अनुभवी हुये हैं, उन सबकी प्रतीति एक जैसी ही है कि चेतन तत्व वस्तुतः शुद्ध है, वासना और लेप से पृथक है । शुद्ध चैतन्य के ऊपर जो वासना या कर्म की छाया पड़ती है वह उसका मूल स्वरूप नहीं है । मूल स्वरूप तो उससे भिन्न ही है । यह जीवन शुद्धि का सिद्धांत है । जिसे हमने आत्मौपम्य की दृष्टि कहा और जिसे जीवन शुद्धि की दृष्टि कहा, उसमें वेदान्तियों का ब्रह्माद्वैतवाद या बौद्धों का विज्ञानाद्वैतवाद या वैसे ही दूसरे केवलाद्वैत, शुद्धाद्वैत जैसे वाद समाविष्ट हो जाते हैं, भले ही सांप्रदायिक परिभाषा के अनुसार उनका भिन्न २ अर्थ होता है।
यदि तत्वत: जीव का स्वरूप शुद्ध ही हैं तो फिर हमें उस स्वरूप को पुष्ट करने और प्राप्त करने के लिये क्या करना है ? यह साधना-विषयक प्रश्न उपस्थित होता है। भगवान महावीर ने उक्त प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा है कि जब तक जीवन व्यवहार में आत्मौपम्य की दृष्टि और आत्म शुद्धि की सिद्धि मूलक परिवर्तन नहीं होता, तब तक उक्त दोनों बातों का अनुभव नहीं हो सकता। इसे जैन परिभाषा में चरण-करण कहते हैं।
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[ २७ व्यवहार में उसका अर्थ है बिलकुल सरल सादा और निष्कपट जीवन बिताना । व्यवहारिक जीवन आत्मौपम्य की दृष्टि विसकित करने का और आत्मशुद्धि सिद्ध करने का एक साधन है । यह नहीं कि उक्त दृष्टि और शुद्धि के ऊपर अधिक आवरण-मायिक जाल बढ़ाया जाय । जीवन व्यवहार के परिवर्तन के विषय में एक ही मुख्य बात समझने की है और वह यह कि प्राप्त स्थूल साधनों का ऐसा उपयोग न किया जाय कि हम अपनी आत्मा को ही खो बैठे।
किंतु उक्त सभी बातें सच होने पर भी यह विचारणीय रहता ही है कि यह सब कैसे हो? जिस समाज, जिस लोकप्रवाह में हम रहते हैं उसमें ऐसा कुछ भी घटित होता हुआ नजर नहीं आता। क्या ईश्वर या ऐसी कोई दैवी शक्ति नहीं है जो हमारा हाथ पकड़ ले और लोकप्रवाह से विपरीत दिशा में हमें ले जाय, अध्वंगति दे ? इसका उत्तर महावीर ने स्वानुभव से दिया है कि इसके लिये पुरुषार्थ ही आवश्यक है। जब तक कोई भी साधक स्वंय पुरुषार्थ न करे, वासनाओं के प्रतिकल आचरण न करे, उसके आधात-प्रत्याघात से क्षोभ का अनुभव बिना किये अडिगरूप उसके सामने युद्ध करने का पराक्रम न दिखाये तब तक उपर्युक्त एक भी बात सिद्ध नहीं हो सकती। इसी से उन्होंने कहा है कि 'संजमम्मि य वीरिय' अर्थात संयम, चारित्र, सरल जीवन व्यवहार इन सबके लिए पराक्रम करना चाहिए। वस्तुत: 'महावीर' नाम नहीं है, विशेषण है । जो ऐसा वीर्य-पराक्रम दिखाते हैं, वे सभी महावीर हैं। इसमें सिद्धार्थनन्दन तो आ ही जाते हैं और इनके जैसे अन्य सभी आध्यात्म पराक्रमी भी आ जाते हैं।
इतिहासकार जिस ढंग से विचार करते हैं उस ढंग से विचार करने पर यह प्रश्न होना स्वाभाविक है कि महावीर ने जो मंगल विरासत दूसरों को दी है वह उन्हें कहाँ से और कैसे प्राप्त हुई थी ? शास्त्र और व्यवहार में कहा जाता है कि बिन्दु में सिन्धु समा जाता है । यों तो यह वचन विपरीत प्रतीत होता है । किन्तु बात यह सच है । महावीर के स्थूल जीवन का परिमित काल तो भूतकाल के महान समुद्र का एक बिन्दुमात्र है। वह तीव्रगति से आता और चला जाता है। किन्तु उसमें संचित होने वाले संस्कार नये-नये वर्तमान के बिन्दु में समाविष्ट होते जाते हैं। भगवान महावीर ने अपने जीवन में जो आध्यात्मिक विरासत प्राप्त की और सिद्ध की, वह उनके पुरुषार्थ का परिणाम है यह सच है; किन्तु इसके पीछे अज्ञात भतकालीन वैसी विरासत की सतत-परम्परा विद्यमान है। कोई उसे ऋषम या नेमिनाथ या पार्श्वनाथ आदि से प्राप्त होने का बता सकते हैं, किन्तु मैं इसे एक अर्ध-सत्य के रूप में ही स्वीकार करता हूं। भगवान महावीर से पहले मानव जाति ने ऐसे जिन महापुरुषों की सृष्टि की थी, वे किसी भी नाम से प्रसिद्ध हुए हों, अथवा अज्ञात रहे हों, उन समग्र आध्यात्मिक पुरुषों की साधना की संम्पत्ति मानव जाति में इस प्रकार से उत्तरोत्तर संक्रान्त होती जाती थी कि उसके लिए यह कहना कि सब सम्पत्ति किसीएक ने सिद्ध की है' मात्र भक्ति है। भगवान महावीर ने ऐसे ही आध्यात्मिक कालस्रोत से उपरिसूचित मांगलिक विरासत प्राप्त की है और पुरुषार्थ से उसे जीवन्त या सजीव बनाकर, विशेषरूप से विकसित करके, देश और कालानुसार समद्ध रूप में हमारे समक्ष उपस्थित किया है। नहीं जानता कि उनके बाद होने वाले उत्तर कालीन कितने वेशधारी संतो ने उस मांगलिक विरासत में से कितना प्राप्त किया और विकसित किया, किन्तु इतना तो कहा ही जा सकता है कि जिस प्रकार उस बिन्दु में भूतकालीन महान समुद्र समाविष्ट है उसी प्रकार भविष्य का अनन्त समुद्र भी उसी बिन्दु में समाविष्ट है। अतएव भविष्य की धारा इस बिन्दु के द्वारा अवश्य आगे बढ़ेगी।
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* असांप्रदायिकता का मूलमंत्र : अनेकान्त *
-मुनि नथमल
महावीर ने कहा, 'किसी को मान कर मत चलो। सत्य की दिशा में आनेकांत का उपयोग करो। अनेकांत का आशय है, किसी को मान कर मत चलो। किसी वस्तु को एक दृष्टिकोण से मत देखो। वस्तु में जो है, उसे ही देखो और जितने वस्तु धर्म हैं, उतने ही दष्टिकोणों से देखो।'
महावीर ने इस सिद्धान्त की स्थापना कर सम्प्रदायवाद के मुल पर कुठाराघात कर दिया। सम्प्रदाय की जड़ तब मजबूत होती है, जब सत्य की अपेक्षा मान्यता की प्राथमिकता हो जाती है । सांप्रदायिकता का सूत्र है-मान कर चलो। वस्तु को एक दृष्टिकोण से देखो। पूर्व धारणा के दृष्टिकोण से देखो। महावीर को कोई अनुयायी नहीं हुआ। जिन लोगों ने उन्हें समझा, वे उनके सहगामी बने । अनेकांत के दर्शन में अनुगमन के लिए कोई अवकाश नहीं है । महावीर ने जो कहा, वह सत्य है । क्या समग्र सत्य की व्याख्या महावीर ने की ? कोई भी देहधारी मनुष्य उस की व्याख्या नहीं कर सकता। एक क्षण में वह एक ही शब्द का उच्चारण कर सकता है। यह वाणी की सीमा है। इस सीमा में सत्य के एक अंश का प्रतिपादन किया जा सकता है। जीवन के अनेक क्षणों में अनेक सत्यांशों का प्रतिपादन किया जा सकता है, समग्र सत्य का कभी नहीं किया जा सकता। कोई विदेह आत्मा उसका प्रतिपादन कर नहीं सकती। इस लिए वेदान्त ने कहा था 'ब्रह्म अनिर्वचनीय है' । महावीर ने यह नहीं कहा कि सत्य अनिर्वचनीय है और यह भी नहीं कहा कि आत्मा और पुनर्जन्म अव्याकृत हैं। उन्होंने कहा, 'सत्य सापेक्ष है।'
एक ट्रक उत्तर देना महावीर के लिए संभव नहीं था। उन्होंने जिस भी तथ्य का प्रतिपादन किया, वह सापेक्षदृष्टि से किया। इस सापेक्षता का आधार है-पक्षपात शून्यता । एकांगी दृष्टिकोण का आधार है पक्षपात । वस्तु के किसी एक धर्म के प्रति हमारा झुकाव होता है, तब हम उसके शेष धर्मों को अस्वीकार कर उसी का समर्थन करते हैं । अन्यथा जो समर्थित है, उसी का समर्थन करें, जो ज्ञात है उसी को स्वीकृति दें-यह नहीं हो सकता। असमर्थित और अज्ञात को स्वीकृति देने पर ही यह प्रमाणित हो सकता है कि हमारा मन किसी पक्षपात से ग्रस्त और पूर्व मान्यता से पीड़ित नहीं है। नये ज्ञान और नए विकास की संभावना अनेकांत के क्षितिज्ञ में ही हो सकती है।
महावीर का संदेश था, मध्यस्थ बनो। राग और द्वेष के दोनों तटों के बीच में रहो । न किसी के प्रति रक्त हो न किसी के प्रति द्विष्ट । जिसमें राग और द्वेष है, उसमें समभाव नहीं हो सकता। जिसमें समभाव नहीं होता, उसमें न अहिंसा होती है, न सत्य और अपरिग्रह । उससे सामाजिक न्याय की आशा नहीं की जा सकती। अनेकांत
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ख-४
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उनके लिए है, जो मध्यस्थ हैं। अनेकांत का दर्शन केवल तत्ववाद का दर्शन नहीं है। वह तत्ववाद और आचारशास्त्र, दोनों का समन्वित दर्शन है। उसका स्पर्श प्राप्त किए बिना तत्व और आचार-दोनों सम्यक नहीं हो सकते । वही तत्व सम्यक् हैं, जो अनेकांत के आलोक में दृष्ट हैं । वही आचार सम्यक् है, जो अनेकांत के आलोक में आचरित है।
भगवान महावीर ने अस्तित्व-बोध के जिस उपाय की खोज की उसका नाम 'नय' है । वचन के जितने प्रकार हैं उतने नय हैं। प्रत्येक अस्तित्व अनंतधर्मा होता है। भाषा को सीमा है और प्रतिपादन करने वाले की भी सीमा है, इसलिए नय अनंत नहीं हो सकते । अनंत धर्मों का प्रतिपादन अनंत नयों के द्वारा ही हो सकता है। किंतु उनकी सीमा होने के कारण वे अनंत नहीं होते, इसीलिए अनेकांत की मर्यादा में इस सिद्धांत की स्थापना की गयी कि वचन के जितने प्रकार है उतने ही नय हैं। कोई भी वक्ता हो वह एक क्षण में वस्तु के एक ही धर्म का प्रतिपादन करेगा और वह एक धर्म का प्रतिपादन एक नय होगा। सब नय अपने-अपने प्रतिपादन में सत्य होते हैं। वे जब दूसरे के प्रतिपादन का निराकरण करने लग जाते हैं, तब असत्य हो जाते हैं। अनेकांत का सिद्धान्त नयों में कुछ नय सत्य हैं और कुछ असत्य, ऐसा विभाग नहीं करता । उसके अनुसार सब नय सत्य हैं, यदि वे सापेक्ष हों और सब नय असत्य हैं, यदि वे निरपेक्ष हों। उनके सत्य होने की मर्यादा यह है कि वे अपने दृष्टि कोणों का प्रतिपादन करें, दूसरे के दृष्टिकोण का निराकरण न करें, उसके प्रति तटस्थ रहें। यह तटस्थता ही उनकी सच्चाई है। सत्यांश की स्वीकृति शेष सत्यांशों का निराकरण कर सच्चाई नहीं हो सकती। किंतु उनके प्रति तटस्थ रह कर सच्चाई हो सकती है। सब सत्यांशों की स्वीकृति संभव नहीं है, फिर भी कुछेक सत्यांशों को प्राप्त कर हम सत्य की दिशा में प्रस्थान कर सकते हैं। अनेकांत के नयवाद ने उसी दिशा का उदघाटन किया है।
भगवान महावीर के समय में अनेक मतवाद प्रचलित थे। उन्होंने उन मतवादों को अनेकांत की दृष्टि से देखा । उनका दृष्टिकोण नयचक्र की महान श्रुतराशि में गुंफित था।
अनेकांतवाद ने विरोधी प्रतीत होने वाले सत्यों की समन्वित स्वीकृति कर अस्तित्ववाद के सिद्धान्त को जन्म दिया। उसने सह-अस्तित्व की व्याख्या इन शब्दों में की, कि सर्वथा नित्य और सर्वथा अनित्य कुछ भी नहीं है । वास्तविकता वही है, जो नित्य और अनित्य का समुदय है। सर्वथा सदृश और सर्वथा विसदृश कुछ भी नहीं है। वास्तविकता वही है, जो सदृश और विसदृश का समुदय है। सर्वथा अस्तित्व और सर्वथा नास्तित्व कुछ भी नहीं है। वास्तविकता वही है, जो अस्तित्व और नास्तित्व का समुदय है। सर्वथा निर्वचनीय और सर्वथा अनिर्वचनीय कुछ भी नहीं है। वास्तविकता वही है, जो निर्वचनीय और अनिर्वचनीय का समुदय है । यह सहअस्तित्ववाद बहत बड़ी सच्चाई है। इस सच्चाई के आलोक में वर्तमान राजनीतिक-वादों, सामाजिक पद्धतियों और संस्कृतियों की व्याख्या कर हम अनेक विरोधाभासों को समन्वय में बदल सकते हैं; संघर्षों को शांति और मैत्री के रूप में परिवर्तित कर सकते हैं।
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महावीर और अहिंसा
-आज के वीरप्रेक्ष्य में
-पद्मविभूषण डा० दौलतसिंह कोठारी
भारतीय जीवन और चितन्तन में अहिंसा का केन्द्रीय स्थान रहा है। अब से २५०० वर्ष पूर्व भगवान महावीर ने कहा था कि अहिंसा ही परम धर्म है, अर्थात मन, वचन और काय से हिंसा-विरमण के व्रत का पालन करना। महावीर ने जैसा आचरण किया उसी का उदघोष किया और उपदेश दिया। उनके सन्देश और उनकी जीवन चर्या में पूर्ण सामंजस्य था-दोनों अभिन्न थे।
मानव की अंहिसा विषयक अथक खोज में २४वें जैन तीर्थंकर महावीर एक सर्वोपरि पथ-चिन्ह, और प्रकाश प्रेरणा एवं उत्साह के सतत स्रोत हैं। वह जैन धर्म के संस्थापक नहीं थे, जो कि इस देश में उनके समय से बहुत पूर्व भी क्वचित प्रचलित था। महावीर का दर्शन उनके उपदेश और आदर्श आज जितने समयानुकूल हैं उतने शायद पहले कभी नहीं थे। जैसा कि गान्धी जी ने सदैव बलपूर्वक कहा है, अहिंसा और सत्याग्रह का अविनाभाव सम्बन्ध हैं, एक से दूसरे को अलग नहीं किया जा सकता। इस आणविक युग में अहिंसा की प्रगति के अभाव में मनुष्य के भविष्य की कल्पना ही नहीं की जा सकती। उसके जीवित रहने में भी संशय है। मनुष्य स्वयं अपना प्रतिद्वन्द्वी है। वह इस पृथ्वीमण्डल पर सम्पूर्ण जीवन का विनाश कर सकता है ? अथवा वह सांस्कृतिक, सामाजिक और अध्यात्मिक विकास के नवीन क्षेत्र उन्मुक्त कर सकता है। यही विज्ञान और अहिंसा का मार्ग है, यह दोनों परस्पर एक दूसरे को बल प्रदान करते हैं जैसा कि नेहरू जी ने (अपनी डिस्कवरी आफ इन्डिया, पृष्ठ ४९३) कहा हैं, "मानवीयता और वैज्ञानिक मनोवृत्ति में समन्वय वृद्धिंगत हैं, जिसका परिणाम एक प्रकार की वैज्ञानिक मानवीयता हैं ।" महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि हम यह स्वीकार करें कि मानवीय मस्तिष्क के विकास के साथ-साथ ही जैविक विकास की प्रकृति में एक गम्भीर परिवर्तन-गुणात्मक परिवर्तन हुआ है। जैविक विकास का क्रम अब अन्य किसी वस्तु की अपेक्षा स्वयं मनुष्य पर अधिक निर्भर करता है । और, यह तथ्य अहिंसा को मानवीय विकास का प्राथमिक विधान बना देता है ।
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[ ३१ ___ महावीर, बुद्ध (६२४-५४४ ई. पू.) के समकालीन थे। उनका जन्म विहार प्रान्त के वैशाली नगर में ऐसे कुल में हुआ था जिसका सम्बन्ध मगधनरेश बिम्बिसार (श्रेणिक ) महान से था। उनकी आयु ७२ वर्ष की हुई, उनके निर्वाण की तिथि सामान्यतया दीपावली, ५२६ ई. पू. मान्य की जाती है । उतके पिता का नाम सिद्धार्थ और माता का त्रिशलादेवी था। श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार, किन्तु जिसे दिगम्बर परम्परा मान्य नहीं करती है, महावीर का विवाह यशोधरा के साथ हुआ था और उनसे एक पुत्री भी हुई थी। कुछ इतिहासकार यह मानते हैं कि बुद्ध का निर्वाण ४८४ ई. पू. में और महावीर का ४८२ ई. पू. में हुआ था।
३० वर्ष की आयु में महावीर ने सब कुछ त्याग दिया, अन्यतम आवश्यकता की वस्तुएं भी । वह पूर्णतया एवं सर्वथा निष्परिग्रही, निर्ग्रन्थ हो गये। अगले १२ वर्ष उन्होंने गम्भीर चिन्तन दुद्धर तपश्चरण और योग साधना में व्यतीत किये । कल्पसूत्र के अनुसार १३वें वर्ष में "जब वह एक शाल वृक्ष के नीचे गोदोहन आसन से बैठे हुए, शरीर पर सूर्य का आतप सह रहे थे, अढ़ाई दिन पर्यन्त अन्न एवं जल का त्याग कर उपवास रह चुके थे, गहरे ध्यान में रत थे, तो उन्होंने ज्ञान एवं दर्शन की वह चरमावस्था प्राप्त की जो केवलज्ञान कहलाती है, और जो अनन्त, सर्वोपरि, निराबाध, अप्रतिहत, सार्व और पूर्ण थी।" इस प्रकार ४२ वर्ष की आयु में वह अर्हत हो गये, अर्थात अपने मन-वचकाय के पूर्ण आत्मविजेता हो गये । कहा जाता है कि ऐसी अवस्था में व्यक्ति संसार के समस्त जीवों की समस्त दशाओं को, वे समय विशेष में क्या सोचते हैं, क्या बोलते हैं, करते हैं, प्रत्यक्ष जानता देखता हैं । अर्हत उस सर्वोपरि, सर्वोच्च रहस्य को जानता है कि "मैं' क्या हूँ, हमारी इस आत्मा का क्या स्वरूप है, हम कहाँ से आते हैं, कहाँ जाते हैं, आधुनिक विज्ञान के क्षेत्र में प्रशिक्षित हम लोगो को अजीब, बिल्कुल समझ में न आने वाले, बल्कि अवास्तविक भी लगते हैं। और यह बात भी सर्वथा आश्चर्यजनक और अविश्वसनीय लगती है कि कोई ऐसा व्यक्ति हो सकता है जो उनके उत्तर जानता है, और वह भी मात्र ध्यान के द्वारा । किन्तु मात्र अनोखपन के कारण ही सर्वोच्च बुद्धि एवं सत्यता सम्पन्न आत्मविजय एवं करुणा में अद्वितीय महापुरुषों के स्वानुभव में अविश्वास करना (उनके वैयाकतिक साक्ष्य में अविश्वास करना विज्ञान की आत्मा की हत्या करना होगा।
शिष्य परम्परा में पीढ़ी दरपीढ़ी/मौखिक/द्वार से चले आये महावीर के उपदेश सर्वप्रथम सम्भवतया उनके निर्वाण के १००० वर्ष बाद देवद्धिगणी के निर्देशन में वल्लभी की वांचना (४५४ ई.) में लिपिबद्ध हुए थे।
जैनधर्म के ५ मुख्य सिद्धान्त या व्रत हैं। प्रथम, किसी भी अस या स्थावर छोटे या बड़े प्राणी को किसी प्रकार की पीड़ा देना या उसकी हत्या करने का त्याग- व्यक्ति को मनवच कायसे सब प्रकार की हिंसा का त्याग करना, दूसरों से भी हिंसा न करानी, और न ही उसके लिए अनुमति देना या उसका अनुमोदन करना । दूसरा सिद्धान्त है, क्रोध लाभ अथवा भय के कारण बोले जाने वाले समस्त झूठ या असत्य का त्याग । शेष तीन में परिप्रह, इन्द्रियविषय और ममत्व को त्याग है। एक जैन मुनि को इन पांचों सिद्धान्तों या व्रतों का पूर्णतया एवं सर्वथा पालन करना होता है। गृहस्थजनों को उनका पालन अपनी परिस्थितियों के अनुसार यथासंभव
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करना चाहिए, अपने आचरण में सुधार करने के लिए सच्चाई के साथ सदव प्रयत्न रहना चाहिए । मुनियों और गृहस्थों के व्रत गुण रूप से समान है, अन्तर जो है वह उनके पालन की मात्रा में है । अतएव साधुओं के प्रसंग में यह महाव्रत कहलाते हैं और अन्य लोगों के लिए अणुव्रत । साधु-साध्वी श्रावक-श्राविका ( चतुविध संघ ) के आचार के इस आधारभूत एकत्व को जैन संघ की शक्ति एवं लचकीलेपन का बहुत कुछ श्रेय है ।
अहिंसा का मूलाधार यह अनुभूति है कि मनुष्य का अन्य समस्त प्राणियों के साथ मौलिक आत्मीय सम्बन्ध है । मनुष्य उनका स्वामी नहीं, किन्तु उनका एक साथी प्राणी है। महावीर ने कहा है, "जिस प्रकार जब मुझ पर किसी डण्डे, हड्डी, मुक्के, ढेले या ठीकरे से प्रहार किया जाता है अथवा मुझे धमकी दी जाती है, पीटा जाता है, जलाया जाता है, पीड़ा दी जाती है या मेंरे प्राण लिए जाते हैं, उसमें मुझे जैसा दुख होता है, एक बाल के उखाड़ने से लेकर मृत्यु पर्यन्त की जितनी पीड़ा और यन्त्रणा की मुझे अनुभूति होती है, उसी प्रकार, यह निश्चय से जानो, सभी प्रकार के प्राणी वैसे ही दुःख, पीड़ा, यन्त्रणा आदि का अनुभव करते हैं जैसा कि मैं, जबकि उनके साथ भी वैसा ही बुरा वर्ताव किया जाता है। यही कारण है कि किसी भी प्रकार के जीव या प्राणी का ताड़न-मारन नहीं करना चाहिए, उसके प्रति हिंसक व्यवहार नहीं करना चाहिए, उसको अपशब्द नहीं कहने चाहिए, पीड़ा नहीं पहुंचानी चाहिए और उसके प्राणों का घात नहीं करना चाहिए ।" (सूत्रकृतांगजा)
जैनधर्म द्वारा प्रतिपादित जीवमात्र की एकता या आत्मोपम्य का सिद्धान्त अब आधुनिक विज्ञान का एक महान सिद्धान्त और विजय बन गया है, जिसका श्रेय चार्ल्स डारबिन के विकासवाद के सिद्धान्त को तथा आणुविक जीवविज्ञान एवं जैनेटिक्स में अभी हाल में हुई प्रगतियों को है । परन्तु यहूदी और ईसाई धार्मिक परम्परा में, जिसे डेसकार्टिस ने और अधिक बल प्रदान किया, मनुष्य अन्य समस्त प्राणियों से सर्वथा पृथक माना गया है। मात्र वही एक ऐसा प्राणी है जिसमें आत्मा होती है । यह सम्भव है कि पश्चिमी औद्योगिक राष्ट्रों द्वारा वातावरण का जो भयंकर एवं दुर्भाग्यपूर्ण शोषण एवं दूषितीकरण हो रहा वह अंशत: उस आचार संहिता का ही परिणाम है जो मपुष्य की (बल्कि पश्चिमी मपुष्य की ) कल्पना प्रकृति के स्वामी एवं विजेता के रूप में करती है न कि उसके एक भागीदार और साथ रहने वाले के रूप में ।
इस प्रसंग में मैं स्याद्वाद के विषय में कुछ कहना चाहूँगा जो अहिंसा दर्शन का एक अद्वितीय एवं अभिन्न तत्व है । स्याद्वाद संभावनाओं की अभिव्यक्ति है । वह सभी संभव दृष्टिकोणों से वस्तु के अर्थों की खोज करती है । यह दृष्टियां सात हैं । कोई भी प्रतिषेध या निर्णय सर्वथा सत्य नहीं, प्रत्येक केवल आपेक्षिक रूप में ही सत्य या प्रमाण होता है ।
जब महावीर के प्रधान शिष्य गौतम ने उनसे पूछा कि क्या आत्मांए शाश्वत हैं अथवा अशाश्वत, तो उन्होंने कहा "गौतम ? आत्माएं किन्ही दृष्टियों से शाश्वत हैं और किन्हीं दृष्टियों से अशाश्वत द्रव्य ; दृष्टि से वे शाश्वत हैं और पर्याय दृष्टि से अशाश्वत या क्षणस्थायी हैं ।"
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साधिक दो सहस्र वर्ष पूर्व विकसित स्याद्वाद न्याय का आधुनिक संभावना सिद्धान्त (और तत्सम्बधिन्त तस्तुत्त्व दृष्टि) के साथ अद्भुत सादृश्य है, जैसा कि प्रो. पी. सी. महलनोबिस और जे. बी. एस. हलदाने ने बताया है। उससे भी अधिक महत्वपूर्ण यह तथ्य है कि स्याद्वाद का नील्स बोह, र एवं हीसेनवर्ग के पूरक (Complementarity) सिद्धान्त से अतिनिष्कट साम्य है। महावीर के समय के उपरान्त प्राकृतिक विज्ञान में यही पूरक सिद्धान्त सर्वाधिक क्रान्तिकारी नवीन उदभावना सिद्ध हुआ है।
स्याद्वाद का यह अर्थ नहीं है कि प्रत्येक दृष्टिकोण को चुपचाप निर्विरोध स्वीकार कर लिया जाय। उससे तो उसका निषेध, उसका प्रत्यावर्तन हो जायेगा। स्याद्वाद तो सभी संभव दृष्टिकोणों का आलोचनात्मक एवं निर्मम विवेचन है जिससे कि उनमें से प्रत्येक की प्रमाणिकता की सीमाओं को निर्धारित किया जा सके। यह तो कार्य व्यवहार के लिए पथ प्रदर्शक है ।
आज का संसार भय, घृणा, आक्रामक प्रवृत्ति और हिंसा से आक्रान्त है। यह भी निश्चित है कि हिंसा से हिंसा को समाप्त नहीं किया जा सकता। हिंसा तो और अधिक हिंसा को ही जन्म दे सकती है। उपचार मात्र अहिंसा है। आज वैयक्तिक अथवा संगठित हिंसा का मुकाबला करने के लिए और जीवन को समृद्ध बनाने के लिए दुनिया को अहिंसा की अत्यन्त आवश्यकता है। परन्तु अहिंसा, उसके दर्शन और व्यवहार को समझने, बढ़ावा देने और उसका विकास करने के लिए को गम्भीर प्रयत्न नहीं किया जा रहा है। अहिंसा कोई जादू की छड़ी नहीं है, वह बिना प्रयत्न के प्राप्त होने वाला इलाज नहीं है। इस रूप में वह विज्ञान जैसी ही है। हमारे युग की एक दुःखान्त समीक्षा है कि जब यह दुनिया प्रति वर्ष दो सौ सहस्त्र करोड़ रुपये से अधिक युद्ध और पराभव के अस्त्र-शस्त्र यन्त्र आदिकों पर व्यय (बर्बाद) करती है, तो अहिंसा के लिए वह उसका एक हजारवाँ भाग भी व्यय नहीं करती। और अहिंसा एवं सत्याग्रह के विषय में अभी न जाने कितना कुछ जानना सीखना शेष है-इतना कुछ कि आज हमें उसकी झलक मात्र भी प्राप्त नहीं है। अपनी मृत्यु के ३ मास पूर्व गान्धी जी ने कहा था, "जीवन भर अहिंसा का आचरण करने के कारण मैं उनका एक विशेषज्ञ होने का दावा करता हूँ यद्यपि अत्यन्त अपूर्ण......"। मैं जानता हूँ कि अपने जीवन व्यापार में अहिंसा की पूर्ण अभिव्यक्ति से मैं अभी भी कितनी दर हूँ। दुनिया में अपने इस सर्वोपरि कर्तव्य (धर्म) के प्रति अनभिज्ञता के कारण मनुष्य यह कह देता है कि इस युग में हिंसा के मुकाबले में अहिंसा के लिए बहुत कम स्थान है, जब कि मैं बलपूर्वक यह कहता हूँ कि अणुबम के इस युग में शुद्ध (अमिश्रित) अहिंसा ही एक ऐसी शक्ति है जो हिंसा के समस्त छल बल को एक ही साथ पराभूत सकती है ।"
भय और हिंसा एक दूसरे को परिगुणित करते हैं। निर्भयता और अहिंसा साथ-साथ चलते हैं। भगवान महावीर के निर्वाण के २५०० सौ वर्ष पश्चात आज हमारे सम्मुख अन्य कोई कार्य इतना तात्कालिक और इतना अर्थपूर्ण नहीं है जितना कि अहिंसा में अपनी आस्था को पुष्ट करना, अहिंसा को समझना, उसका आचरण करना और उसका प्रसार करना। इस दिशा में जो भी पग उठाया जायेगा, वह चाहे कितना भी छोटा हो, सार्थक होगा।
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वर्तमान युग में महावीर के उपदेशों की सार्थकता
- डा० प्रभाकर माचवे
हजारों वर्ष पूर्व महावीर और उनके शिष्यों ने नय-पद्धति से अपेक्षा भंग पर गहरा विचार किया था । यदि उसे आज की समाजनीति राजनीति अर्थनीति पर लागू किया जाय तो गांधी जी कहते थे उस प्रकार से प्रत्येक व्यक्ति "स्वे-स्वे कर्मण्यभिरतः " रहकर " योग। कर्मसु कौशलम् " का अनुसरण करेगा । जन्मना जातीय ऊँचनीचता नहीं रहेगी। वर्गों की परस्पर हित रक्षा पंचायत और पंच पद्धति से “पंचाठ" अवार्ड और ट्रस्टी विश्वस्त संस्था से बात-चीत और परस्पर संवाद से प्राप्त की जा सकेंगी। हर छोटी-छोटी मांग के लिए परस्पर सिर फोड़ने, दंगे, रक्तपात, घेरत्व और दबाव में मानवी शक्ति का अपव्यय नहीं होगा ।
विचार के क्षेत्र में, साहित्य- कला संस्कृति के सम्यक् समीक्षा-दृष्टि दे सकता है । आज हम देखते हैं मानकर, हम अन्य सम्भावनाओं को एकदम झुठला देते हैं ।
क्षेत्र में भी महावीर का स्याद्वाद बहुत उपयोगी और एकमात्र कि अपनी बात को मनवाने के लिए, उसी को अन्तिम सत्य
मनोविष्लेषण शास्त्र के नये आचार्य जानते हैं कि पूर्वाग्रह एक प्रकार का मनोरोग है । उससे तो कोई भी ज्ञान आगे विकसित नहीं हो सकता । जहाँ ज्ञान नहीं है, वहाँ सृजन क्या होगा । ऐसी दिशा में महावीर के अनन्त सम्भावनाओं वाले “स्याद्वाद" से हमें बहुत प्रेरणा मिलेगी। वह " अव्यक्तव्यं" तक मानवी कल्पना को पहुँचाता है । अतः वह नवीनतम "मोन में शब्द की अन्तिम परिणति वाले" विचार को बहुत पहले ही सोच चुका है ।
जीवन अधिकाधिक अप्राकृतिक और असहज होता जाता है । प्रदूषण न केवल पर्यावरण में, पर विचारों के सूक्ष्मलोक में भी पहुँच चुका है । यदि मनुष्य आत्महत्या के विरुद्ध और देहात से हटकर जीना चाहता है तो उसे पुनः उसी प्राकृतिक और सहज जीवन पद्धति की ओर जाना होगा। जिसकी बात महावीर ने की थी और बाद में गांधी ने उसे कृति द्वारा पुनः अधोरेखित किया था ।
महावीर के उपदेशों की सबसे बड़ी सार्थकता मुझे उनके अस्तेय और अपरिग्रह की श्रेष्ठता के प्रतिपादन में लगती है । आज जो स्मगलर, मुनाफाखोर, जमाखोर, चोर बाजारिये, कालाधन संग्राहक व्यापारी और जल्दी से जल्दी श्रीमन्त बननेवाले समाज के ही तबके और हर प्रदेश और भाषा भाषी समाज में दिखाई देते हैं, भारत को यह जो की तरह से रोग लगा है, इसका मूल है लोभ और तृष्णा । मनुष्य की एषणाओं का अन्त नहीं | उनमें घुन ईंधन डालो अग्नि भड़कती ही जाती है। यहां महावीर ने जो यह कहा कि भंगुर, क्षणजीवी, असार और बेकार की चीजों से मोह मनुष्य को कहीं का नहीं रहने देगा, आज फिर से दुहराने की आवश्यकता है। जड़ और चेतन का भेद समझना होगा । पुद्गल से सब व्याप्त हैं । फिर यह मैल मन पर और तन पर ओढ़ते जाने से क्या होगा ? संवरण करना होगा । 'कम्म-निज्जरा' वृत्ति ही यहाँ अन्ततः काम आयेगी ।
सबसे बड़ी महावीर की देन निर्भीकता और निडर होने के क्षेत्र में है । वन, पर्वतों में अकेले घूमना, हिंस्र श्वापदों और बटमारों से न डरना इन निरंतर परिव्राजक मुनियों और यात्रियों का नित्य धर्म था । आज तो पग-पग पर लोग अनुक्षण निराधार भयाकुल लगते हैं । कई भय तो अमूर्त और निराधार होते हैं । डरने से कोई बात नहीं मिलती । 'मा मै' के उपनिषदीय मंत्र को महावीर ने अपने जीवन में प्रत्यक्ष अनुवाद किया । ●
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राष्ट्रीय एकता के विकास में जैनधर्म का योग
डा० (श्रीमती) कुसुमलता जैन
भारतवर्ष धर्म, प्रान्त तथा भाषागत विविधताओं से परिपूर्ण एक विशाल राष्ट्र है। इस विशाल राष्ट्र की अखंडता के लिए राष्ट्रीय एकता आवश्यक है। इतिहास साक्षी है कि राष्ट्रीय एकता का अभाव ही हमारी दीर्घकालीन परतन्त्रता के लिए उत्तरदायी है। स्वतन्त्र भारत में राष्ट्रीय एकता कितनी महत्वपूर्ण है, यह सर्वविदित ही है। हमारा देश अभी एक संघर्षपूर्ण स्थिति से गुजर रहा है। इस संघर्षपूर्ण स्थिति में साम्प्रदायिकता हमारे राष्ट्र की शक्ति को क्षीण कर रही है । उक्ति है कि 'संघे शक्तिः कलीयुगे' किन्तु हमारे यहां प्रायः साम्प्रदायिक दंगे होते रहते हैं।
ये साम्प्रदायिक दंगे प्रायः चार आधारों पर होते हैं-भाषा, प्रान्त, जाति या धर्म के आधार पर । स्वतन्त्रता के २५ वर्षों के उपरान्त भी हिन्दी को राष्ट्रभाषा का गौरव प्राप्त करने में अनेकों कठिनाइयां हैं।
भाषा के प्रति उदारतावादी दृष्टिकोण-इस दृष्टिकोण से यदि हम जैनधर्म और समाज की ओर देखें तो विदित होगा कि जैनधर्म और संस्कृति उदारतावादी दृष्टिकोण से परिचालित हैं, क्योंकि जैन-मतानुयायिओं ने कभी किसी एक भाषा का मोह नहीं रखा। एक समय संस्कृत को देववाणी घोषित कर उसी भाषा में पठन-पाठन को श्रेष्ठ तथा अन्य भाषाओं के अध्ययन को निषिद्ध ठहराया । गरुड़ पुराण का कथन है
लोकायतं कतकंच प्राकृतं म्लेच्छभाषितम् ।
श्रोतव्यं न द्विजेनैतद तद् गच्छति अधोगति ।। यहां प्राकृत को म्लेच्छ भाषा तक कह दिया गया है, पर जैन आचार्यों ने समय की मांग और औचित्य के अनुसार प्राकृत्त का आश्रय लिया, क्योंकि भाषा उनके लिए विचारों की अभिव्यक्ति का साधन थी, साध्य नहीं। प्राकृत जन-साधारण की भाषा थी और संस्कृत शिक्षितों तथा पंडितों की भाषा थी, जिसे कम लोग समझ सकते थे, अतः जन कल्याण की भावना से जैनाचार्यों ने अपने उपदेशों का माध्यम जनभाषा को चुना। धार्मिक उपदेश वसे ही नीरस होते हैं, जनरुचि धर्म-विमुख होती है, इस पर यदि जनता को क्लिष्ट भाषा में उपदेश दिये जावें, तो वह उनसे लाभान्वित नहीं हो सकती।
प्राकत के साहित्यिक परिनिष्ठित भाषा पद पर आरूढ हो जाने पर जब जनभाषा का स्थान अपभ्रंश ने ले लिया तो जैनाचार्यों और साहित्यकारों ने अपभ्रंश में साहित्य सर्जना की। प्राकृत तथा विशेषतः अपभ्रंश का तो अधिकांश साहित्य जैन कवियों तथा आचार्यों द्वारा रचित है। इनके अतिरिक्त जैन कवियों ने संस्कृत साहित्य को भी यथेच्छ अभिवृद्ध किया है। उनका प्राकृत के प्रति कोई दुराग्रह या संस्कृत के प्रति द्वेष रहा हो, यह बात नहीं
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है, वस्तुतः भाषा उनके विचारों की वाटिका रही हैं । जैन साहित्य अन्य भारतीय भाषाओं जैसे कन्नड, मराठी, तमिल, तेलगू, राजस्थानी, हिन्दी, गुजराती आदि में भी सुलभ है ।
जैन धर्मावलम्बी प्रान्तीय भावना से ऊपर - प्रान्तीयता का प्रश्न भी साम्प्रदायिक विद्वेष का कारण नहीं हो सकता, यत: जैन धर्मावलम्बी गुजरात, महाराष्ट्र, मालवा, मैसूर, राजस्थान, आन्ध्र, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, पंजाब आदि भारत के उत्तर-दक्षिण, पूर्व-पश्चिम सभी प्रदेशों में निवास करते हैं ।
जैनधर्म जातीय भावना से परे – जैन-धर्म ने जातीयता को भी कोई प्रोत्साहन नहीं दिया है। जैन दर्शन कर्मफल सिद्धान्त को बहुत महत्व प्रदान करता । इसके अनुसार प्रत्येक जीवात्मा अपने कार्यों के फल को भोगता है । कर्म से ही मनुष्य ब्राह्मण या शूद्र होता है । जन्म व्यक्ति की महत्ता या लघुता का कारण नहीं है । जैन धर्म तो मानव मात्र का ही नहीं, अपितु प्राणीमात्र का धर्म है । वस्तु का स्वभाव ही उसका धर्म है -- ' वस्तु सहावो धम्मो', अतः आत्मा का स्वभाव ही आत्मधर्म है। इस आत्मतत्व की अनुभूति करने के लिए प्रदर्शित करने वाला धर्म जैन धर्म है । इस धर्म ने ऐसे किसी सिद्धान्त का पोषण नहीं किया, जो साम्प्रदायिकता को प्रश्रय दे ।
जैन धर्म : धार्मिक कट्टरता का विरोधी - धर्म के नाम पर भारत में हुए हैं । इतिहास के पृष्ठ साक्षी हैं कि धार्मिक कट्टरता, वैमनस्य का कारण रही है। सरीखे साम्यवादियों ने धर्म को मानव के लिए घातक माना । वे संसार से धर्म देना चाहते थे । वास्तव में तो धर्म परस्पर भ्रातृत्व की भावना को विकसित लिखा है—
नहीं, विदेशों में भी अनेक रक्तपात यही कारण है कि कार्लमार्क्स नाम की वस्तु को ही समाप्त कर करता है, जैसा कि इकबाल ने
'मजहब नहीं सिखाता, आपस में बैर करना ।'
जैनधर्म तो विपरीत विचारधारा वालों के प्रति भी माध्यस्थ भाव रखने का संदेश देता है—
सत्त्वेत्येषु मंत्रों गुणिषु प्रमोदं । क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम् ॥ माध्यस्थ भावं विपरीत वृत्तौ । सदा ममात्मा विदधातु देव ॥
समस्त जीवों के प्रति मैत्री और क्षमाभाव रखने का आदेश है—
खम्मामि सब्वजीवाणं, सव्वे जीवा खमंतु मे । मित्ती में सव्वभूदेसुर्व रं मज्झं ण केणवि ॥
समन्वयवादी दृष्टिकोण – जैनधर्म की समन्वयवादिता का परिचय इससे भी मिलता है कि वैदिक धर्म में प्रतिष्ठित राम, कृष्ण, हनुमान आदि महापुरुषों की गणना जैनों ने भी शलाका-पुरुषों में की है, यद्यपि जैन आचार्यों ने इनके चरित्रों का वर्णन अपने आदर्शों के अनुरूप वर्णित किया है । आचार्य विमलसूरि महर्षि वाल्मीकिकृत 'रामायण' के अनेक अंशों को कपोलकल्पित और असंगत मानते थे, अतः उन्होंने अपने 'पउम चरिय' की रचना की, जिसमें इन अंशों का संशोधन किया गया है ।
अनेकान्तवादः आपसी सहिष्णुता का प्रतीक - अनेकान्तवाद या स्याद्वाद तो जैनधर्म का अनुपम उज्ज्वल । यह विपरीत विचारधारा वालों के सिद्धान्त में भी सत्यांश के अन्वेषण का प्रयत्न करता है । इसके अनुसार ज्ञान अनन्त और सापेक्ष है । सम्भव है कि कोई सिद्धान्त किसी अपेक्षा से सत्य है और दूसरी अपेक्षा से मिथ्या ।
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एक ही व्यक्ति अपने पिता की अपेक्षा से पुत्र तथा पुत्र की अपेक्षा से पिता होता है। अतः ज्ञान को विविध नयों द्वारा जाना जाता है जैसा कि तत्वार्थसून में कहा गया है "प्रमाणनवैरधिगमः" अर्थात् ज्ञान के दो साधन है-प्रमाण और नय । नय अनन्त है । अनेकान्तवाद को स्पष्ट करने के लिए षडान्धगजन्याय (छह अंधे और एक हाथी की कहानी) का आश्रय लिया जाता है ।
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छह अंधे हाथी के एक-एक अंग को पकड़कर हाथी के स्वरूप को उसी जैसा समझते हैं । उसके सम्पूर्ण स्वरूप को नेनवान व्यक्ति ही जान सकता है, किन्तु अन्धों का कथन भी उनके दृष्टिकोण से युक्त है । इसी प्रकार पूर्ण सत्य तो केवल ज्ञानी ही जान सकता है । अल्पज्ञों के लिए तो एक समय में किसी पदार्थ की समस्त पर्यायों का जानना सम्भव नहीं। अतः विरोधी विचारधारावालों की बात भी किसी अपेक्षा से सत्य हो सकती है। इस प्रकार यह अनेकान्तवाद सहिष्णुतापूर्ण सिद्धांत हैं तथा जैनियों की वैचारिक अहिंसा का प्रतीक है।
अहिंसा और अपरिग्रहः राष्ट्रीय एकता के आधार - अहिंसा और अपरिग्रह के सिद्धान्त भी राष्ट्रीय एकता के सम्वर्धन में सहायक हैं। साम्प्रदायिकता हिंसा और घृणा के वातावरण में पनपती है, जब कि धर्म प्रेम, अहिंसा तथा विश्वबन्धुत्व की भावना सिखाता है । यद्यपि सभी धर्मों ने अहिंसा का महत्व उद्घोषित किया है, तथापि जैनधर्म में अहिंसा का विशेष स्थान है। अहिंसा अथवा प्राणिमात्र के प्रति ममस्व तथा विश्वबन्धुत्व की भावना सिखाने वाला जैनधर्म राष्ट्रीय एकता में बाधक कैसे हो सकता है ?
अपरिग्रह का सिद्धान्त समाजवाद लाने तथा आर्थिक विषमता दूर करने में सहायक है । आर्थिक विषमता द्वेष तथा वैमनस्य का कारण होती है । अपरिग्रह के सिद्धान्त को मानने से यह आर्थिक विषमता स्वयमेव दूर हो जायेगी। अररिग्रहवाद हमें सिखाता है कि हम अपनी आवश्यकताओं को कम करें तथा आवश्यकता से अधिक संग्रह न करें। अधिक धन एकत्रित हो जाने पर उसे उन लोगों में वितरित कर दें, जिन्हें इसकी अधिक आवश्यकता
। ऐसा करने पर किसी साम्यवादी प्रक्रिया या हिंसक क्रान्ति द्वारा पूंजीवाद को नष्ट नहीं करना पड़ेगा, अपितु पूंजीवादी व्यवस्था स्वयं ही समाप्त हो जायेगी ।
अस्तु स्पष्ट है कि जैनधर्म के उदात्त आदर्श तथा उच्च-सिद्धान्त राष्ट्रीय एकता के संयोजक एवं समर्थक हैं।
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महावीर का धर्म-जनधर्म
-श्री रिषमदास रांका
भगवान महावीर न तो जैनियों के प्रथम तीर्थंकर थे और नहीं अन्तिम । उनके पहले अनेक तीर्थकर हो गए। इसी युग में भगवान महावीर के पहले २३ हुए और २४वें वह स्वयंथे । भविष्य में भी अनेक तीर्थकर होंगे, उन्होंने यह भी कहा था। उन्होंने कहा था कि मैं जो धर्म कह रहा हूँ वह नित्य है, ध्रुव है और शाश्वत है। मेरे पहले भी अनेक तीर्थंकरों ने इसे कहा था और भविष्य में भी कहेंगे। उन्होंने कहा था कि सभी जीव सुख से जीना चाहते हैं, दुःख सभी को अप्रिय है, मरना भी कोई नहीं चाहता इसलिए यदि सुख से रहना चाहते हो तो जिस तरह के व्यवहार की दूसरों से अपेक्षा रखते हो वैसा ही व्यवहार दूसरों के साथ करो। उन्होंने दुःख का प्रारम्भ दूसरों के साथ परायेपन के व्यवहार को कहा था। उन्होंने सब जीवों के साथ समता के व्यवहार को सुखकर बताया था क्योंकि सभी प्राणियों में आत्मा से परमात्मा, नर से नारायण तथा जीव से शिव बनने की क्षमता है। हर जीव अपने भाग्य का विधाता है, सुख-दुःख का कर्ता है। उनकी समता का आधार गहरा था। उनका वचन दीर्घकाल की साधना का परिणाम था। वे पूर्णतया अनुभवपूर्ण थे। इसी कारण उनके पीछे यह आत्मविश्वास था कि मैं जो कह रहा हूँ वह नित्य है, ध्रुव है और शाश्वत है। उन्होंने कभी नहीं कहा कि तुम मेरी शरण में आओ, मेरी भक्ति करो, मैं तुम्हारा उद्धार कर दूंगा। बल्कि उनका यही उपदेश था कि तुम्हीं अपना उद्धार कर सकते हो, तुम्ही तुम्हारे मिन हो और तुम्ही तुम्हारे शत्रु । जीव मान के प्रति आदर, यह उनका चिन्तन था।
महावीर क्षत्रिय थे। उनका जन्म नाम वर्द्धमान था। महावीर शब्द उनकी वीरता का परिचायक मात्र । वह शवओं को जीतता है पर अपने आपको जीतने वाला-अपने दुर्गणों-कषायों-अहंताओं-ममताओं को जीतने वाला महावीर होता है। ऐसे महावीर की परम्परा वीरत्व की परम्परा है--कायरों की नहीं। तभी महात्मा गाँधी ने भी कहा है कि--"अहिंसा वीरों का धर्म है , कायरों का नहीं।"
जैनधर्म नहीं, जनधर्म-महावीर का धर्म उनके समय में निर्ग्रन्थधर्म कहलाता था। किसी प्रकार की ग्रंथी नहीं--ग्रंथीहीन । मूर्छाओं, अशक्तियों और परिगृहों से दूर, जिसमें किसी प्रकार का आग्रह नहीं, जो सबका धर्म था अर्थात जन-धर्म, सबके लिए। वह स्त्री का भी उद्धार कर सकता था, पुरुष का भी, गृहस्थ का भी, गृहत्यागी का भी, धनवान, का भी और निर्धन का भी, ब्राह्मण का भी, चाण्डाल का भी, नगरवासी का भी, वनवासी का भी। जिसने समता अपनाई फिर वह कोई भी क्यों न हो, अपना उद्धार कर सकता है।
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जैन दर्शन की व्यापकता
-डा० गोकुलचन्द्र जैन
जैन दर्शन के विषय में जब मैं बात करता हूं तो मेरे सामने एक महान व्यक्तित्व उभर कर आता है। यह व्यक्तित्व है वर्धमान महावीर का। महावीर ने जैन दर्शन के सिद्धान्तों को जो व्याख्या ही, उससे जैन दर्शन मानवीय जीवन मूल्यों के साथ अनिवार्य रूप से संपृक्त हो गया। मुझे तो स्पष्ट दिखाई देता है कि महावीर के बाद इन ढाई हजार वर्षों में जैन दर्शन के सिद्धान्तों का व्यापक प्रसार हुआ है। उसने न केवल भारतीय जीवन को प्रत्युत विश्वचिन्तन को व्यापक रूप से प्रभावित किया है।
सिद्धान्तों की बात कहने से पहले यह जान लेना उपयुक्य होगा कि यह दर्शन कहां से प्रतिफलित हआ।
धर्म के चौबीसवें और अन्तिम तीर्थंकर माने जाते हैं। उनके साथ तीर्थकरों के चिन्तन की एक दीर्घकालिक परम्परा जुड़ी है । सुदूर अतीत की वह कड़ी अब भी इतिहास की पकड़ के बाहर है । पुरातत्व और साहित्यिक अनुसन्धानों से जो तथ्य सामने आये हैं, उनसे इतना तो स्पष्ट ज्ञात होता है कि इतिहास पूर्व में भी चिन्तन की दो धाराएं प्रवाहित होती रही हैं। इन्हें श्रमण और ब्राह्मण विचारधारा कहा गया। ब्राह्मण परम्परा के प्रवर्तक वैदिक ऋषि थे। श्रमण परम्परा ऋषभ द्वारा प्रवर्तित हुई। प्राचीन वाङ्मय में वातारशन मुनियों, व्रात्यों और केशी श्रमणके जो विवरण मिलते हैं, वे स्पष्ट रूप से श्रमण संस्कृति से सम्बद्ध ज्ञात होते हैं। ऋषभ ने ध्यान और कायोत्सर्ग की कठोर साधना की थी। मोहन-जो-दरों तथा हड़प्पा के उत्खनन में प्राप्त कायोत्सर्ग प्रतिमाओं का सम्बन्ध इसी परम्परा से प्रतीत होता है।
ऋषभ को जैन धर्म का प्रथम तीर्थकर माना गया है। उनके जीवन के सम्बन्ध में पर्याप्त जानकारी प्राप्त हो जाती है । ऋग्वेद में ऋषभ के उल्लेख मिलते हैं। श्रीमद्-भागवत में उनका चरित्न वर्णित है। जैन वाङ्मय में तो पूरा विवरण प्राप्त होता ही है। उनके बाद के तीर्थंकरों के जीवन के सम्बन्ध में अभी तक विशेष सामग्री प्रकाश में नहीं आ पायी, इसीलिए कई लोग उनकी ऐतिहासिकता के विषय में सन्देह व्यक्त करते हैं। जो भी हो, यह सच है कि इतिहास की पकड़ अभी बहुत गहरी नहीं है। इसलिए जब तक खोजें जारी हैं तब तक मेरी समझ में हमें सूत्र रूप में प्राप्त सन्दर्भो को भी नकारना नहीं चाहिए। भारत में अभी इन तीर्थंकरों के जीवन और साधना से सम्बद्ध स्थान तीर्थ के रूप में प्रतिष्ठित हैं।
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बीसवें तीर्थंकर मुनिसुव्रत और पुरुषोत्तम राम समकालीन बताये जाते हैं। इक्कीसवें तीर्थकर नमि और विदेह जनक का काल एक माना गया है। २२वें तीर्थंकर नेमि वासुदेव कृष्ण के चचेरे भाई थे। २३वें तीर्थंकर पार्श्व का जन्म वाराणसी में हुआ और बिहार के सम्मेदशिखर से सौ वर्ष की आयु में उनका निर्वाण हआ। अब भी यह पर्वत पार्श्वनाथ पहाड़ के नाम से जाना जाता है। जब महावीर जन्मे, उस समय पार्श्व की परम्परा के श्रमण बहु संख्या में मौजूद थे । राजगृह पाश्र्वानुयायियों का गढ़ था । स्वयं महावीर के माता-पिता पार्श्व के अनुयायी थे। महावीर और गौतम बुद्ध जब संन्यस्त हए तो उन्होंने पार्श्व का ही श्रामण्य जीवन स्वीकार किया था। पार्श्व की परम्परा के साधू निग्गंठ समण' और गृहस्थ अनुयायी 'पापित्य' कहलाते थे।
गौतम बुद्ध को पार्श्व की साधना पद्धति बहुत कठोर प्रतीत हुई। इहलिए उन्होंने उसे छोड़ कर बीच का रास्ता निकाला, जिसे 'मध्यमप्रतिपदा' कहा जाता है। महावीर ने पार्श्व की साधना पद्धति को और अधिक विकसित किया। कायोत्सर्ग की जितनी कठोर साधना उन्होंने की उसका इतिहास में दूसरा उदाहरण नहीं मिलता। साढ़े बारह वर्ष तक महावीर निरन्तर साधना करते रहे। सर्वथा निर्वस्त्र रह कर भीषण गरमी, शीत और वर्षा में उन्होंने साधना की। जेठ की तपती दोपहरी में महावीर नंगे बदन तप्त शिला पर बैठ जाते या खड़े रहते । कड़कड़ाती सर्दी में जब बर्फीली हवाएं सांय-सांय करती हुई बहती, पक्षी भी घोंसलों में मुंह छिपाए दुबक कर बैठे रहते, ऐसे में महावीर किसी ताल के तट पर या नदी के किनारे निरभ्र आकाश में अपनी अनावृत्त काया लिए ध्यान में मग्न होते। झंझावात और तूफानी बरसातें, वे अपनी खुली देह पर झेल लेते। लगातार कई-कई दिनों, सप्ताहों और महीनों तक महावीर बिना खाये, बिना पिये रह जाते। जहां भी जाते पैदल जाते। न बोलते न बतियाते। उन्हें कोई गाली देता, कठोर वचन बोलता, सुन लेते । अपमान करता, यातना देता, सह लेते, न कुछ बोलते, न प्रतिकार करते। कोई उन्हें आदर देता, वन्दन करता उसका भी वे उत्तर न देते। साधना की इस दीर्घावधि में वे कुल मिला कर मुश्किल से कुछ मुहूर्त ही सोये। वे अपने जीवन पर ही तरह-तरह के प्रयोग कर रहे थे। महावीर ने कठोर से कठोरतम साधना की और एक दिन पाया कि उन्होंने अपने आप को पूरी तरह जीत लिया है। वे 'जिन' हो गये।
जैन दर्शन के जो सिद्धान्त हमें वर्तमान में प्राप्त हैं, उन्हें हम महावीर की साधना और चिन्तन का नवनीत कह सकते हैं। महावीर के अनुयायी आचार्यों ने पिछले ढाई हजार वर्षों में उन सिद्धान्तों की जो व्याख्याएं की, उनमें युगीन सन्दर्भ भी जुड़ते चले गए । दार्शनिक युग की जटिलताओं में सीधे-साधे सिद्धान्त इतने दुरूह लगने लगे कि जीवन के साथ उनका सम्बन्ध ही न हो। इसी युग में धार्मिक अनुदारता के कारण सिद्धान्तों की दुर्व्याख्या भी की गयी और दुरालोचना भी, पर इस सबसे वे खराद पर चढ़ाए गए हीरे की तरह और अधिक चमकदार होकर सामने आये।
महावीर ने जीवन और जगत के किसी भी प्रश्न को अव्याकृत कह कर नहीं टाला। उन्होंने प्रत्येक के समाधान दिये।
जैन दर्शन सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की धुरी पर प्रतिष्ठित है। दृष्टि जव तक सही न हो, ज्ञान सच्चा हो ही नहीं सकता। और सही ज्ञान के बिना सदाचरण की अपेक्षा नहीं की जा सकती है। इसलिए जैन दर्शन में इनको सम्मिलित रूप से मोक्ष का मार्ग कहा है। सम्यग्दर्शन में सम्पूर्ण तत्वमीमांसा निहित है। सम्यग्ज्ञान में ज्ञानमीमांसा । सम्यग्चारित्र जीवन की एक पूर्ण आचार संहिता है। जैन दर्शन के तत्व चिन्तन और ज्ञान मीमांसा में हजारों हजार वर्षों के बाद भी विशेष अन्तर नहीं आया। आचारसंहिता युग और परिस्थितियों के अनुसार
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[ ४१ बदलती रही है। छह द्रव्य, सात तत्व और नव पदार्थ तथा मतिज्ञान, श्रुतज्ञान आदि का विवेचन यथापूर्व अब भी मिलता है।
जैन दर्शन का पहला सूत्र है-चेतन और अचेतन दो मूल तत्व हैं। इनका स्वरूप और प्रकृति सर्वथा भिन्न हैं। पर स्वर्ण-पाषाण में स्वर्ण और बालुका के कणों की तरह या दूध में पानी की तरह अनादिकाल से मिले हैं। इनको पृथक्-पृथक् जान लेना ही सम्यग्ज्ञान है।
इस सिद्धान्त ने एक नयी जिज्ञासा को जन्म दिया। ये जड़ और चेतन कैसे बंधते हैं, कैसे अलग-अलग हो सकते हैं। इस जिज्ञासा के सूत्र हैं बन्ध और मोक्ष । इसके समाधान में से प्रतिफलित हुआ कर्म का सिद्धान्त । आस्रव बन्ध का कारण है। संवर और निर्जरा मोक्ष के हेतु हैं। चेतन जड़ से संपृक्त रह कर जो क्रिया करता है, उससे कर्म के परमाणु आ-आ कर बंधते जाते हैं । योग द्वारा क्रिया या परिस्पन्द को रोक दिया तो कर्मों का आना रुक जाता है। संवर की इस स्थिति के बाद पूर्व संचित कर्मों का विनाश निर्जरा है और सर्वथा पृथक्करण मोक्ष है। चेतन और अचेतन की बद्ध अवस्था संसार है और स्वतन्त्र अवस्था मोक्ष । जीव और जगत का यही दर्शन है। चेतन आत्मा है। जितने चेतन हैं, उतनी सब स्वतन्त्र आत्माएं हैं। प्रत्येक आत्मा अपने कर्म का कर्ता और उसके परिणामों का भोक्ता स्वयं है--"अप्पा कत्ता विकत्ता य ।"
जैन दर्शन में आत्मा और कर्म के इस सिद्धान्त ने व्यक्तित्व को जो प्रतिष्ठा दी, वह भारतीय चिन्तन में अद्भुत है। यही आत्म-विद्या या अध्यात्म है। आत्मविद्या के पुरस्कर्ता तीथंकरों ने भारतीय मनीषा को इतना प्रभावित किया कि 'स्वर्गकामः यजेत्' का वैदिक चिन्तक भी उपनिषदकाल में आ कर आत्मा की बात करने लगता है।
दूसरी जिज्ञासा थी—यह दृश्यमान् जगत क्या है, कैसे बना और कैसे चलता है ?
जैन दार्शनिकों ने कहा यह स्वयं कृत है। न कोई बनाता है, न चलाता है। न जीव और जड़, चेतन और अचेतन स्वयं इसके कर्ता और संचालक हैं। जिस प्रकार जीव अनेक हैं पर उनकी कोटियां हैं उसी प्रकार अजीव या अचेतन द्रव्य पांच तरह के हैं, उनको कोटियां अनेक हैं, भेद-प्रभेद अनेक हैं । यही संसार है।
इस सिद्धान्त ने मानव मनको बड़ी राहत दी। वह किसी अज्ञात शक्ति का दास नहीं है, वह अपने कार्य का कर्ता स्वयं है और उसके अच्छे बुरे परिणाम का भोक्ता भी स्वयं है। अपना सूत्रधार वह स्वयं है। कोई अन्य शक्ति उसे संचालित नहीं करती।
इस चिन्तन से मानवीय मूल्यों को प्रतिष्ठा मिली। उसके कृतित्व को प्रतिष्ठा मिली। व्यक्तित्व को प्रतिष्ठा मिली।
एक बात और आप देखें-चिन्तन जब गहराई में उतरा तो सहज प्रश्न उठा-यदि यह बात है तो दार्शनिकों के चिन्तन में मतभेद क्यों है ? सब एक जैसी बात क्यों नहीं कहते ? एक दूसरे की बात परस्पर विरोधीसी क्यों लगती है?
इन प्रश्नों ने अनेकान्त के दर्शन को जन्म दिया। भोले मन, तुम जितना जानते हो, वह तो एकांश ज्ञान है, तुम जितना कहते हो, वह तो एकांश कथन है। जितने जन कहेंगे उनकी दृष्टिबिन्दुएं अलग-अलग होंगी। उनका अपना चिन्तन दूसरे से सापेक्ष होगा। यह जान लें तो कहीं विरोध नजर ही नहीं आता। विचार के स्तर पर इस चिन्तन को अनेकान्त नाम दिया गया और वाणी के स्तर पर स्याद्वाद । जीवन में इस सापेक्ष सिद्धान्त का
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प्रयोग सारी जटिलताओं को समाप्त कर देता है। विभिन्न दार्शनिक दृष्टियों का समाधान इससे अच्छा और क्या हो सकता है।
जैन दर्शन के इन सिद्धान्तों की आधार-भूमि पर जिस आचार-संहिता का भवन खड़ा हुआ, उसे एक शब्द में कहें तो कह सकते हैं "अहिंसा"। सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह, सच मानों तो इसी के अंग हैं । अहिंसा के बिना इनकी साधना हो ही नहीं सकती। आपने असत्य बोला नहीं कि हिंसा हो गयी। चोरी की बात सोची नहीं कि हिंसा तभी हो गयी। अब्रह्म और परिग्रह की हिंसा प्रत्यक्ष दिखाई देती है । हिंसा बहुआयामी है और उसका समाधान है एक मात्र अहिंसा।
महावीर ने अहिंसा का प्रयोग समग्र जीवन के लिए किया। सामाजिक जीवन और आर्थिक क्षेत्र में इसका प्रयोग कैसे हो सकता है, राजनीति इसका वरण कैसे करे, इस सबके लिए उन्होंने आधार सूत्र दिये-जब तक मानव-मानव में ऊंच-नीच की दीवार खड़ी रहेगी, अहिंसा सध नहीं सकती। सामाजिक जीवन संतुलित हो नहीं सकता। सबको समान मानो और समान अवसर दो। धन और जन को कुछ हाथों में केन्द्रित करना ठीक नहीं है। परिग्रह की मर्यादा बना कर चलना होगा। बिना अनुमति किसी की वस्तु लेना अनुचित है। भले ही वह धर्म के नाम पर क्यों न हो। दूसरे के प्राण तो किसी भी स्थिति में नहीं लेना चाहिए।
राजनीति के विषय में उन्होंने कहा-शासक को प्रजाजन से उतना ही अंश लेना चाहिए जितने से वह पीड़ित न हो। जैसे भौंरा फूल में से रस ग्रहण करके अपने को तृप्त कर लेता है और फूल को नुकसान भी नहीं पहुंचाता, ऐसे ही शासक को अपना मागधेय ग्रहण करना चाहिए।
जैन दर्शन की यह स्पष्ट फलश्रुति है कि वर्ग भेद चाहे वह धर्म के नाम पर हो चाहे आर्थिक कारणों से, वह हिंसा है। स्वर्ग के सुखों का प्रलोभन दे कर वर्तमान की साधन सुविधाओं को स्वाहा करना असत्य है, चोरी है, हिंसा है। अर्थ को अपने हाथों में समेट लेना परिग्रह है और परिग्रह बिना हिंसा के हो नहीं सकता।
आज हम जिस युग में जी रहे हैं उसमें जैन दर्शन के सिद्धान्तों की व्यापकता और अधिक नजर आती है। आज कोई भी बड़े से बड़ा व्यक्ति, बड़े से बड़ा समाज और बड़े से बड़ा राष्ट्र अपनी बात को, अपनी विचारधारा को दूसरे के ऊपर थोप नहीं सकता। इसे मैं तो अनेकान्त के चिन्तन का प्रसार ही कहंगा। वर्गहीन समाज, समानाधिकार, आर्थिक सन्तुलन और धर्म निरपेक्ष शासन की जो इतनी व्यापक रूप से बात कही जाने लगी है, वह महावीर की साधना के बट बीज का छतनार वृक्ष है। अहिंसा का प्रयोग व्यक्ति के जीवन से समाज और राष्ट्र के जीवन में किस प्रकार हो सकता है इसका प्रयोग करके गान्धी जी ने हमारे सामने रख दिया है, जिसका प्रभाव सम्पूर्ण विश्व पर है।
जैन दर्शन के सिद्धान्तों की समय-समय पर अनेक प्रकार से व्याख्या की गयी। निःसन्देह मानवीय मूल्यों की दृष्टि से उसका व्यापक क्षेत्र है। जैन चिन्तन ने विभिन्न युगों में दूसरे जीवन-दर्शनों को पर्याप्त रूप से प्रभावित किया है। तीर्थंकरों का चिन्तन मानवीय मूल्यों के जिस व्यापक घरातल पर प्रतिष्ठित है वह देश और काल की सीमाओं से परे है। युग के सन्दर्भ में जैन दर्शन की पुनर्व्याख्या की जाए तो आज हम एक ऐसे जीवन दर्शन की कल्पना कर सकते हैं जो समग्र मानवता के लिए हो, जो सम्पूर्ण विश्व का जीवन दर्शन हो, जो जन-दर्शन हो।
सिद्धान्तों की उदारता और व्यापक दृष्टिकोण के कारण ही जैन दर्शन ने विकास की इतनी व्यापक सम्भावनाएं मानीं, कि व्यक्ति से विराट, आत्मा से परमात्मा, मानव से महामानव और जीव मात्र में भगवान् बनने की सामर्थ्य का प्रतिपादन किया। सभी भारतीय दर्शन जहां ईश्वर को आदि में रखकर आगे चले वहां जैन दर्शन
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[ ४३
ने परमात्मा को अन्त में रखा और कहा-परमात्मा तो तुम्ही हो। अपने को जानो और स्वयं परमात्मा हो जाओ, अपने को जीतो और स्वयं 'जिन' हो जाओ, 'अर्हत' हो जाओ। अपने को शुद्ध करो और स्वयं 'सिद्ध' बन जाओ।
जैन दर्शन का मंगल मन्त्र है
जो अर्हन्त हो गये, उन सबको मैं प्रणाम करता हूं। जिन्होंने सिद्धि को वरण किया, उन सिद्धों को वन्दन करता हूं। जो अर्हत् होने को प्रयत्नरत हैं, उन आचार्यों को नमस्कार करता हूं। जो यह रास्ता दिखाते हैं उन उपाध्यायों को नमस्कार करता हूं। जितने भी सत्पुरुष इस मार्ग पर चल रहे हैं, उन सबको मैं प्रणाम करता हूं।
णमो अरहताणं । णमो सिद्धाणं । णमो आयरियाणं । णमो उवज्झायाणं ।
णमो लोए सव्यसाहणं । इससे व्यापक दृष्टिकोण और मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा क्या हो सकती है ?
भगवान महावीर ने जैन दर्शन के इन उदार सिद्धान्तों के प्रसार के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन अर्पित कर दिया और स्वयंसिद्ध हो गये। उनके २५०० वें निर्वाण शताब्दी वर्ष में यदि हम उनके चिन्तन का अमृत जन-जन तक पहुंचा सके तो बहत बड़ा पुण्य-कार्य होगा।
Porall
बहाना
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परस्परोपपहो जीवानान
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अच्छा हिन्दू बनने के लिए अच्छा जैनी बनना आवश्यक है
-श्री परिपूर्णानन्द वर्मा
मैं हिन्दू हूँ। ईश्वर की सत्ता में विश्वास करता हूँ-कम से कम मेरी परम्परा ने मुझे यही विश्वास दिया है। पर मैं हृदय से जैनधर्म का भक्त भी हूँ। मुझसे प्रायः मेरे साहित्यिक तथा राजनैतिक मिन पूंछते हैं कि मैं जैनमत पर इतना आसक्त क्यों हूँ, और जब उसे इतना मानता हूँ तो जैनी क्यों नहीं हो जाता।
प्रश्न अच्छा है। और मेरा उत्तर भी बुरा नहीं है। मेरा विश्वास है कि बिना हिन्दू बने जनी श्रेष्ठ जैनी बन सकता है, पर बिना जैन आचार संहिता को अपनाये मैं अच्छा हिन्दू नहीं बन सकता। हमने जैन धर्म से उसका अध्यात्मवाद लेकर अपने विशाल धर्म को विशालतम बना लिया है। जैनियों ने हमसे कर्मकाण्ड लेकर अपने को कुछ बहुत आगे बढ़ाया, ऐसा मैं नहीं मानता। अच्छे हाथों में पड़कर कर्मकाण्ड हमें कल्याण की ओर ले जाता है, पर जरा सी त्रुटि से तथा नादानी से उसमें उलझकर मनुष्य ऊपर उठने के बजाय नीचे दुबका रहता है। ठीक वैसे ही जैसे वास्तविक तंत्र-शास्त्र की गरिमा को पशु-तांत्रिकों ने पतन का साधन बना दिया-चाहे हिन्दू तान्त्रिक हों, बौद्ध या जैनी तान्त्रिक हों।
जैन परम्परा के विशाल विज्ञान की बात अलग रख दीजिए। केवल भगवान् महावीर की तीन बातें अगर हम पकड़ लें तो आज का अनर्थमय संसार कितना बदल सकता है। भगवान महावीर ने कहा है कि कर्म में पूर्ण अनासक्ति हो, चित्त में राग-द्वेष लेशमान भी न हो, और वह परम शान्त हो। परिग्रह की भावना पूर्णतः समाप्त हो जाय । आज संसार का एकमात्र रोग है परिग्रह-जो जितना नोच सके, लूट सके, प्राप्त कर सके उतना भी उसे कम प्रतीत होता है। आज की परिग्राह की भावना से ही सब राग-द्वेष-कुकर्म-अशान्ति पैदा हैं बढ़ रही हैं। पर हम रातों-दिन घड़ी-घन्टा बजाकर देवता को प्रसन्न करने की चेष्टा करते हैं और जिन बातों से देवता, हमारे मन के भीतर बैठा देवता, प्रसन्न हो सकता है, उसके प्रति नितान्त उदासीन हैं। तब फिर हिन्दू होते हए भी हमें क्या मिला? क्या हम आवागमन, पुनर्जन्म, संसार के रोग-व्याधि से लेशमान भी ऊपर उठ सके हैं ?
___ कूर्म पुराण में कथा है कि दैत्य की सेना को जीतने वाली सौ देवियां ईश का दर्शन करने की इच्छा से जब शंकर भगवान के सामने आई तो उनका अद्भुत रूप देखकर उन्होंने उनसे पूछा कि आप कौन हैं ? शंकर ने उत्तर दिया
अहं हि निष्क्रियः शान्तः केवलो निष्परिग्रहः। (कूर्म १/१५/१५४) "मैं निष्क्रिय, शान्त, अद्वितीय तथा परिग्रह शून्य है।"
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[ ४५ वीतराग भगवान महावीर के अद्वितीय शान्त, निष्क्रिय रूप में तथा उपर्युक्त वर्णन में क्या अन्तर है ? वीतराग ने तपश्चर्या द्वारा पापक्षय तथा कर्म-क्षय की बात सिखलाई थी । वीतिहोत्र नामक पौराणिक राजा की कथा तो प्रसिद्ध है कि उसने अपने पाप का क्षय करने के लिए बारह वर्ष तक कन्दमूल का सेवन किया तथा बारह वर्षों तक केवल वायु का भक्षण किया, तब उसके पापों का क्षय हुआ । यदि हम अपने पाप का क्षय करने के लिए केवल देवता के आशीर्वाद के भरोसे बैठे रहें तो क्या कभी उसका क्षय हो सकता है ।
बड़े से बड़े महापुरुष तथा उच्च से उच्च आत्माएं कर्म का, संस्कार का क्षय कष्ट भोग कर करते हैं । रामकृष्ण परमहंस को बार-बार उनके इष्ट का साक्षात्कार होता था, पर उन्होंने स्वयं अपने शिष्यों से कहा था कि अपने संस्कार का क्षय करने के लिए ही वे गले के कैंसर के अत्यधिक पीड़ामय रोग को भोग रहे हैं । महर्षि रमण को कैंसर रोग ने वर्षों तक कष्ट देकर प्राण लिया । तपस्वी अरविन्द जब रोग शैय्या पर पड़े थे तो उनके शिष्यों ने उनसे पूछा कि आप अपने को स्वस्थ क्यों नहीं कर लेते ? उन्होंने भी उत्तर दिया था कि संस्कार के क्षय के लिए कष्ट सहन की तपस्या अनिवार्य है ।
अहिंसा और अस्तेय इन दो बातों पर जैन धर्म बहुत बल देता है । विष्णु पुराण ( ३१९/२४-३३), गरुड पुराण (१/१०२/१-६), अग्नि पुराण ( १६१ / १ - ३१), पद्म पुराण ( १/१५/३४८-३९२) तथा भागवत् (७/१३/१-४६), में यति का जो धर्म बतलाया गया है, वे भगवान महावीर के ही अहिंसा तथा अस्तेय का प्रतिपादन करते हैं । कूर्म ने यहाँ तक लिखा है
स्तेयादभ्यधिकः कश्चिन्नास्त्यधर्म इति स्मृतः । हिंसा चैषापरा दिष्टा या चात्माज्ञाननाशिका |
(२/२९/३०)
चोरी से बढ़कर और कोई अधर्म नहीं है । चोरी आत्मज्ञान को नष्ट करने वाली दूसरी हिंसा कही गयी है । अमरकोश के अनुसार हिंसा का अर्थ है 'चौर्यादि कर्म
हिंसा चैव न कर्तव्या वैधहंसा तु राजसी । ब्राह्मणः सा न कर्तव्या यतस्ते सात्विका मताः ॥
हलायुध कोश के अनुसार 'धर्म' का अर्थ है 'सुकृत, न्याय, आचार, सत्संग तथा अहिंसा ।' हम हिन्दू कैसे अपने को धर्मात्मा कह सकते हैं यदि हम हिंसक हैं, यदि हम सत्कर्म नहीं करते, यदि हमारा आचरण ठीक नहीं है । यदि हम न तो सत्संग करते हैं और न हम न्यायपूर्ण जीवन बिताते हैं, हम अपने को हिन्दू कह सकते हैं पर हम धार्मिक व्यक्ति हैं, यह झूठ होगा ।
मैं इन्हीं मोटी बातों को पकड़कर कहता हूँ कि बिना अच्छा जैनी हुए मैं अच्छा हिन्दू नहीं बन सकता । जैन धर्म के आचार्यों ने किसी भी धर्म का खण्डन - मण्डन करके अपने को ऊँचा साबित करने का प्रयास भी नहीं किया । मैं यहां स्याद्वाद या अनेकान्तवाद पर न जाकर केवल जैन आचार्यों की निष्पक्ष विचारधारा की ओर संकेत करना चाहता हूँ । आचार्य हेमचन्द्र ने स्पष्ट लिखा है कि "हमने जो कुछ लिखा है वह पक्षपात वश या द्वेष भाव से नहीं । केवल श्रद्धा के कारण, न आपके प्रति, हे वीर ! हमारा कोई पक्षपात है और न द्वेष के कारण अन्य देवताओं
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में अविश्वास है, किन्तु, यथार्थ रूप में आप की परीक्षा करके ही हमने आपका आश्रय लिया है।"
न श्रद्धयैव त्वयि पक्षपातो न द्वेषमात्रावरुचिः परेषु । यथावदाप्तव्यपरीक्षया तु'वामेव वीर प्रभुमाश्रिताः स्मः ॥
कोई झगड़े की बात तो जैनधर्म कहता भी नहीं। जैन परम्परा केवल एक धुरी पर घूमती रही है । वह धुरी केवल एक लक्ष्य है-अनन्त ज्ञान । जिसे वह प्राप्त हो गया, उसे सब कुछ मिल गया । आचारांग सूत्र ने बड़े स्पष्ट शब्दों में कहा है
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जे एगं जाणइ, ये सब्वं जाणइ ।
जे सब्वं जाणइ से एगं जाणई। उसी ने कहा है
एको भावः सर्वथा येन दृष्टः सर्वे भावा सर्वथा तेन दृष्टाः ।
___ सर्वे भावाः सर्वथा येन दृष्टाः एको भावः सर्वथा तेन दृष्टः ।। --(प्र. श्रुतस्कंध, ३ अ., ४ उ., १२२) ऐसा कौन हिन्दू है जो आत्म-तत्व के ज्ञान को गौण समझे? न्यायकोष के अनुसार
शुद्धात्मतत्वविज्ञानं सांख्यमित्यभिधीयते । सांख्यकारिका के भाष्यकार ने कहा है
वृक्षान् छित्वा पशून हत्वा कृत्वा रूधिर कर्दम् ।
यद्योगं गम्यते स्वर्ग नरके केन गम्यते ॥ (२-माठर भाष्य) आचार्य हरिभद्र ने अपने 'योगदृष्टि समुच्चय' में जिस सुन्दरता के साथ योग के महत्व का प्रतिपादन किया है वह हरेक हिन्दू के लिए अनमोल है। योग का अर्थ प्रायः ध्यान है। जैन दर्शन के अनुसार बिना ध्यान के ज्ञान नहीं प्राप्त हो सकता। हेमचन्द्र ने 'योग शास्त्र' में तथा योगविजयसूरि ने 'द्वानिशिका' में पंतजलि, योगवशिष्ट तथा तैत्तिरीय उपनिषद् की यौगिक क्रियाएं भी दी हैं। हिन्दू ग्रन्थ 'योगसार' ने जो लिखा है वह जैनी भी स्वीकार करेंगे। धर्म का लक्षण ही प्राणायाम, ध्यान, प्रत्याहार, धारणा तथा स्मरण (जैनी सामायिक) है। योगसार के अनुसार
प्राणायामस्तथा ध्यानं प्रत्याहारोऽथ धारणा ।
स्मरणं चैव योगेऽस्मिन पञ्च धर्माः प्रकीर्तिताः ।। फिर जब इतना मेल है जैन तथा हिन्दू विचारधारा में, तो हिन्दू जैनी से भेदभाव क्यों करें ? वह मूर्खता का युग तो चला गया जब हम जैनी मन्दिर में जाना भी पाप समझते थे। वह मूर्खता तो समाप्त हुई। पर दूसरी मूर्खता भी समाप्त होनी चाहिए कि हम एक दूसरे को भिन्न समझें। जैन धर्म नास्तिक नहीं है। जीव की सत्ता में विश्वास करने वाला नास्तिक हो नहीं सकता। झगड़ा इतना ही है कि एक ही आत्मा सब में व्याप्त है या सब आत्मा अलग-अलग हैं। जब हम निश्चय रूप से नहीं कह सकते कि ईश्वर है तो कैसे निश्चित रूप से कह दें कि आत्मा एक है। सन्त कबीर ने कहा है
मारी कहूँ तो बहु डाँ, हल्का कहूं तो झूठ ।
मैं का जानूं राम को, नैना कबहूं न दीठ ॥ जैनधर्म कहता है कि आशा-निराशा के चक्कर में न पड़ो। निष्क्रिय-निराश न होकर आगे बढ़ो। यही बात तो अष्टावक्र अपनी गीता में कह गये हैं कि जो आशा के दास होते हैं, वे दुनिया भर के दास हो जाते हैं। जो आशा को दासी बना लेते हैं वे संसार के स्वामी बन जाते हैं
आशाया ये दासास्ते दासाः सर्वलोकस्य ।
आशा येषां दासी तेषां दासायते लोकः ।। अस्तु, मेरा तात्पर्य केवल इतना ही है कि हमने जैन धर्म को समझने की चेष्टा नहीं की। इसीलिए हम अच्छे हिन्दू नहीं बन पा रहे हैं ।
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भगवान महावीर की अहिंसा
-आर्यिकारत्न ज्ञानमती माताजी
यत्खलु कषाय योगात्प्राणानां-द्रव्यमावरूपाणाम् ।
व्यपरोपणस्य करणं सुनिश्चिता भवति सा हिंसा ॥ (श्री अमृतचन्द्र सूरि) कषाय के योग से जो द्रव्य और भावरूप दो प्रकार के प्राणों का घात करना है वह सुनिश्चित ही हिंसा कहलाती है अर्थात अपने और पर के भावप्राण और द्रव्य प्राण के घात की अपेक्षा हिंसा के चार भेद हो जाते हैं।
स्वभाव हिंसा-जब क्रोधादि कषायों की उत्पत्ति होती है तब स्वयं के शुद्ध ज्ञान दर्शन रूप भाव प्राणों का घात होता है यह स्वभावहिंसा है।
स्वद्रव्य हिंसा-कषायों की तीव्रता से, दीर्घ श्वासोच्छ्वास से, हस्तपादादि से अपने अंग को कष्ट पहुंचाना अथवा आत्मघात कर लेना, अपने द्रव्य प्राणों के घात से यह द्रव्य हिंसा कहलाती है।
पर भाव हिंसा-धर्मवेषी कुवचन आदि से दूसरे के अन्तरंग में पीड़ा पहुंचाना अथवा दूसरे को कषाय उत्पन्न कराना पर के भावों की हिंसा है।
पर द्रव्य हिंसा:-कषायादि से पर के द्रव्य प्राणों का घात करना या उसको मार देना पर के प्राणों का हनन करने से यह पर द्रव्य हिसा है।
अहिंसा:-अपने से राग द्वेष आदि भावो का प्रकट न होना ही निश्चय से अहिंसा है और रागादि भावों का उत्पन्न होना ही हिंसा है, ऐसा जैन सिद्धांत का सार है। क्योंकि सावधानी पूर्वक प्रवृत्ति करने वाले साधुओं के रागादि भावों के बिना कदाचित किसी प्राणी को बाधा हो जाने मात्र से ही हिंसा का पाप नहीं लगता है। तथा जिस समय आत्मा में कषायों की उत्पत्ति होती है, उसी समय आत्मघात हो जाता है, पीछे यदि अन्य जीवों का घात हो या न हो, वह घात तो उसके कर्मों के आधीन है। परन्तु आत्मघात तो कषाओं के उत्पन्न होते ही हो जाता है।
इस हिंसा के विषय में अन्य भी चार बातें ज्ञातव्य हैं-हिंस्य, हिंसक, हिंसा और हिंसा का फल ।
हिस्य-जिनकी हिंसा की जावे ऐसे अपने अथवा अन्य जीवों के द्रव्य प्राण और भाव प्राण, अथवा एकद्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक प्राणी समुदाय ।
हिसक-हिंसा करने वाला जीव । हिंसा-हिंस्य-जीवों के प्राणों का प्रीणन अथवा प्राणों का घात । हिंसाफल-हिंसा से प्राप्त होने वाला नरक निगोद आदि फल । इन चारों बातों को समझकर हिंसा का त्याग करने की भावना करने वालों का कर्तव्य है कि वे मद्य,
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मांस-मधु इन तीनों को तथा बड़, पीपल, पाकर, कठूमर, उमर इन पांच फलों का ऐसी आठ वस्तुओं का अवश्य ही त्याग कर देना चाहिये ।
मद्य – रस से उत्पन्न हुये बहुत से जीवों की योनिस्वरूप है अतः उसके पीने से सभी जावों की हिंसा हो जाने से महान पाप का बंध होता है ।
I
मांस-प्राणियों के कलेवर को मांस कहते हैं । यह मांस बिना जीवघात के असम्भव है । यद्यपि स्वयं मरे हुए बैल, भैस आदि जीवों के कलेवर को भी मांस कहते है किन्तु उस मांस के भक्षण में भी उस मांस के आश्रित रहने वाले उसी जाति के असंख्य निगोद जीवों का घात हो जाने से महान हिंसा होती है। बिना पके, पके हुये तथा पकते हुए भी मांस के टुकड़ों में उसी जाति के निगोदिया जीव निरन्तर ही उत्पन्न होते रहते हैं । इसलिए मांसाहारी महापातकी है ।
मधु जो मधुमक्खी के छत्ते से स्वयं भी टपका हुआ है ऐसा भी शहद अनन्त जीवों का आश्रय भूत होने से निषिद्ध है। मधु के एक बिन्दु के खाने से भी सात गांव के जलाने का पाप लगता है।
अतः इसका त्याग भी
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ख-४
श्रेयस्कर है ।
मद्य, मांस, मधु और मक्खन, ४८ मिनट के अनन्तर की लोनी, ये चारों पदार्थ अहिंसक को नहीं खाने चाहिए क्योंकि इनमें उसी वर्ण के जीव उत्पन्न होते रहते हैं । तथा चर्म स्पर्शित घी- तेलजल एवं अचार आदि भी नहीं खाने चाहिए ।
बड़-पीपल उमर कठूमर और पाकर फल ये भी सजीवों की योनिभूत हैं, इनको सुखाकर भी नहीं खाना चाहिये ।
आम या पक्यां वा खावति यः स्पृशति वा पिशितपेशीम् ।
स निर्हति सततनिचितं पिडं बहुजीव कोटीनाम् ।। ६८ ।। (श्री अमृतचन्द्र सूरि )
मद्य, मांस, मधु और पांच उदुंबर फल ये आठों पदार्थ महापाप के कारण है, इनका त्याग करने पर ही मनुष्य जिनेन्द्र भगवान के उपदेश को सुनने का पान हो सकता है अन्यथा नहीं ।
विदेह क्षेत्र के मधु नाम के वन में किसी समय सागरसेन नाम के एक दिगम्बर मुनिराज मार्ग भूलकर भटक रहे थे । उस समय एक पुरुरवा नाम का भील उन्हें मृग समझकर बाण से मारने को उद्यत हुआ कि उसी समय उसकी स्त्री ने कहा कि इन्हें मत मारो ये वन देवता विचर रहे हैं तब भील ने मुनि के पास आकर उन्हें नमस्कार किया और उन्हें मार्ग बता दिया । मुनिराज ने उसे भद्र समझकर मद्य मांस-मधु का त्याग करा दिया । जिसके फलस्वरूप वह भील जीवन भर पालन कर अन्त में मरकर सौधर्मं स्वर्ग में देव हो गया । देव के वैभव और सुखों को भोगकर वह भील का जीव इसी अयोध्या नगरी में भगवान वृषभदेव के पुत्र चक्रवर्ती भरत महाराज की अनन्तमती रानी से मरीचिकुमार नाम का पुत्र हो गया ।
इस मरीचिकुमार ने पाखंडमत का प्रचार करने से कालांतर में बहुत काल तक पुनः संसार के दुःख भोगे । अनन्तर सिंह की पर्याय से मुनिराज से सम्यक्त्व और अहिंसाणुव्रत आदि पंच अणुव्रत ग्रहण कर सल्लेखना से मरकर देव हो गया । इस सिंह पर्याय से दसवें भव में यही जीव भगवान महाबीर हुआ है ।
देखिये अहिंसा धर्म ही इस जीव की उन्नति करके इसे स्वर्गादि के उत्तम उत्तम सुखों को देकर क्रमशः इस जीव को परमात्मा बना देता है ।
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महावीर का नैतिकता - बोध
- डा० कमलचन्द सोगानी
महावीर तो आत्मानुभूति और समाज में नैतिक मूल्यों के सृजन के जीते-जागते उदाहरण हैं । नैतिक मूल्यों के सन्दर्भ में महावीर ने व्यक्ति और उसके सामाजिक दायित्व पर पूर्ण बल दिया । सर्व प्रथम महावीर ने व्यक्ति को आत्मज्ञ होने की प्रेरणा दी क्योंकि इसके बिना निर्भयता प्राप्त नहीं हो सकती और निर्भयता बिना सामाजिक दायित्वों का निर्वाह भली प्रकार नहीं हो सकता । जो व्यक्ति लौकिक प्रशंसा - निन्दा के भय से भयभीत है, परलोक की उधेड़बुन में ग्रस्त है, मरण-भय से आतंकित है, आकस्मिक एवं अरक्षाभय से चिन्तित है, वह मानसिक सन्तुलन के अभाव में सामाजिक नैतिकता का पालन नहीं कर सकता । इस तरह से जो महत्व मुँह के लिए चक्षु का है, वही महत्व नैतिकता के लिए आत्मज्ञता और निर्भयता का है। दूसरी बात महावीर ने व्यक्ति विकास के लिए कही वह थी "उन सब इच्छाओं का जन्म न होने दो जो व्यक्ति का ह्रास करने वालीहों ।" जिस व्यक्ति में सदैव भौतिक सम्पदाओं को प्राप्त करने की इच्छा रहती है, वह कभी भी समाज में नैतिक मार्ग का अनुसरण नहीं कर सकता । अतः महावीर ने कहा कि इच्छाओं का परिमार्जन करो। महावीर का यह भी कहना था कि जो व्यक्ति अविवेकी परम्पराओं से चिपके रहने की प्रवृत्ति वाला होता है वह सदैव भूतकालका ही अनुगामी होने के कारण उज्ज्वल भविष्य का निर्माण नहीं कर सकता । अतः उन्होंने कहा कि असद् परम्पराओं की दासता व्यक्ति ही को विकासोन्मुखी बनाने में बाधक होती है, व्यक्ति वर्तमान में न जी कर सर्वदा भूतकाल के बोझ को ढोता रहता है। इससे व्यक्ति तो पिछड़ हो जाता है, साथ ही समाज में जड़ता को प्राप्त होकर अपनी जीवन दायिनी शक्ति से हाथ धो बैठता है । महावीर ने ये बातें व्यक्ति को उसके अपने उत्थान के लिए कहीं । वे इस बात को भली-भांति जानते थे कि प्रत्येक कार्य के लिए मूल में व्यक्ति होता है, इसलिए सर्वप्रथम व्यक्ति को विकासोन्मुखी बनाना अत्यन्त आवश्यक है । जब व्यक्ति विकासगामी बन जाता है तो सामाजिक दायित्वों के लिए उचित भूमिका तैयार की जाती है । महावीर व्यक्ति तक रुके नहीं । वे जानते थे कि व्यक्ति समाज से अलग नहीं होता; उसका दूसरों के प्रति भी कुछ दायित्व है । जहाँ 'दूसरा' होता है वहीं से समाज प्रारम्भ होता है । स्वस्थ समाज के लिए 'मैं' और 'तू' का उचित सामंजस्य आवश्यक है। महावीर ने कहा कि अनैतिक के लिये सारा ज्ञान उसी तरह अर्थहीन है जैसे अन्धे के लिए जलते हुए हजारों दीपक ।
महावीर ने समाज के लिए जिन मूलभूत नैतिक मूल्यों का प्रतिपादन किया है वे हैं-अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकांत | सब प्राणियों के प्रति समभाव अहिंसा है। महावीर ने कहा कि किसी भी प्राणी को मत मारो, न उस पर अनुचित शासन करो, न उसे पराधीन बनाओ, न उसे परिताप दो और न ही उसे उद्विग्न करो, क्योंकि अन्ततः प्राणीमात्र तुम्हारे अपने जैसा ही है । ऊँच-नीच, छुआ-छूत हिंसा की पराकाष्ठाएं हैं। महावीर ने स्वंय दलित से दलित समझे जाने वाले लोगों को अपने गले लगाया और उनको सामाजिक सम्मान देकर उनमें आत्मसम्मान प्रज्वलित किया। महावीर ने कहा कि समाज में प्रत्येक मनुष्य को, चाहे वह स्त्री हो या पुरुष, धार्मिक एवं सामाजिक स्वतंत्रता है । प्रत्येक मनुष्य का अस्तित्व गौरवपूर्ण है उसकी गरिमा को बनाए रखना अहिंसा की पालना है | अहिंसक कभी वर्ग शोषण का पक्षपाती नहीं होता । वह कभी अपने आश्रितों का शोषण नहीं करता । मानव मात्र के प्रति वात्सल्य उसकी स्वाभाविकता होती है । वह हिंसाकारक, कलहकारी और कठोर वचनों का प्रयोग नहीं करता तथा सदैव हितकारी एवं प्रियवचन बोलता है । बहुमूल्य वस्तु को अल्पमूल्य में लेना, चोरी का
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माल रखना, झूठी गवाही देना, तस्करी, घूसखोरी, मिलावट आदि करना-इन सबसे दूर रहना वह अपना कर्तव्य समझता है । वह शाकाहारी वृत्ति का पोषक होता है । मदिरा, जुआ आदि व्यसनों को उन्हें हिंसा का कारण जानकर वह त्याग देता है। अनावश्यक एवम् अनैतिक कामातुरता को वह अशोभनीय समझता है। उसको कुल, जाति, रूप, ज्ञान, धन, तप और प्रभुता का मद नहीं होता। सबके प्रति मैत्री, गुणीजनों की प्रशंसा एवं दुखियों की सेवासुश्रुषा अहिंसक प्रक्रियाएं हैं; अतः कहा जा सकता है कि जैसे प्यासों के लिए पानी, और रोगियों के लिए औषधि आवश्यक है वैसे ही संसार में प्राणियों के लिए अहिंसा है।
महावीर इस बात को भली-भांति जानते थे कि आर्थिक असमानता और आवश्यक वस्तुओं का अनुचित संग्रह समाज के जीवन को अस्तव्यस्त करने वाला है। इनके कारण एक मनुष्य दुसरे का शोषण करता है । मनुष्य की इस लोभ-वृत्ति के कारण समाज अनेक कष्टों का अनुभव करता है। इसलिए महावीर ने कहा कि आर्थिक असमानता को मिटाने का अचूक उपाय है अपरिग्रह । परिग्रह के सब साधन सामाजिक जीवन में कटुता, घृणा और शोषण को जन्म देते हैं। अपने पास उतना ही रखना जितना आवश्यक है। बाकी सब समाज को अर्पित कर देना, अपरिग्रह पद्धति है। धन की सीमा, वस्तुओं की सीमा-ये सब स्वस्थ समाज के निर्माण के लिये जरूरी हैं। धन हमारी सामाजिक व्यवस्था का आधार होता है। और कुछ हाथों उसका एकत्रित हो जाना समाज के एक बहुत
विकसित होने से रोकता है। जीवनोपयोगी वस्तुओं का संग्रह समाज में अभाव की स्थिति पैदा करता है। ऐसे परिग्रह के विरोध में महावीर ने आवाज उठायी और समाज में अपरिग्रह के नैतिक मूल्य की स्थापना की।
आर्थिक असमानता के साथ-साथ वैचारिक मतभेद भी समाज में द्वन्द्व को जन्म देते हैं, जिसके कारण समाज रचनात्मक प्रवृत्तियों को विकसित नहीं कर सकता है। वैसे तो वैचारिक मतभेद मानव-मन की सृजनात्मक मानसिक शक्तियों का परिणाम होता है, पर इसको उचित रूप से न समझने से मनुष्य के आपसी मतभेद संकुचित संघर्ष के कारण बन जाते हैं और इससे समाज शक्ति विघटित होती है। समाज के इस पक्ष को महावीर ने गहराई से समझा और एक ऐसे नैतिक सिद्धान्त की घोषणा की जिससे मतभेद भी सत्य को देखने की दृष्टियां बन गये और व्यक्ति समझने लगा कि मतभेद दृष्टि-पक्ष भेद के रूप में ग्राह्य हैं। वह सोचने लगा कि मतभेद संघर्ष का कारण नहीं, शक्ति और विकास का द्योतक है। वह एक उन्मुक्त मस्तिष्क की आवाज है। इस तथ्य को प्रकट करने के लिए महावीर ने कहा कि वस्तु एकपक्षीय न होकर अनेकपक्षीय होती है। वह अनेकान्तिक है, एकान्तिक नहीं। अनेकान्त के इस बौद्धिक-नैतिक मूल्य से समाज में विचारों का संघर्ष ग्रहणीय बन गया। मनुष्य ने सोचना प्रारम्भ किया कि उसकी अपनी दृष्टि ही सर्वोपरि न होकर दूसरे की दृष्टि भी उतनी ही महत्वपूर्ण है। उसने अपने क्षुद्र को गलाना सीखा। समाज के इस बौद्धिक-नैतिक मूल्य ने सत्य के विभिन्न पक्षों को समन्वित करने का मार्ग खोल दिया। सत्य किसी एक व्यक्ति, धर्म, राष्ट्र में बंधा हुआ नहीं रह गया। प्रत्येक व्यक्ति सत्य के एक नये पक्ष की खोज कर समाज को गौरवान्वित कर सकता है। समाज के इस बौद्धिक-नैतिक मूल्य ने अनुचित वैचारिक संघर्ष को समाप्त करने का निमंत्रण दिया और कंधे से कंधा मिलाकर चलने के लिये अह्वान किया। अनेकांत समाज का बौद्धिकनैतिक गत्यात्मक सिद्वान्त है जो जीवन में वैचारिक गति उत्पन्न करता है।
अत: यह कहा जा सकता है कि महावीर ने नैतिक जागरण के लिये व्यक्ति और समाज के परिप्रेक्ष्य में जो बोध हमें दिया वह अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इससे हमारा बौद्धिक, आर्थिक, राजनैतिक जीवन परिमार्जित होता है, जिसके फलस्वरूप समाज सुगठित एवं समुन्नत हो जाता है। विश्व के राष्ट्र, अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकान्त के माध्यम से युद्ध, शोषण और तनाव को समाप्त कर शान्ति, समानता और सहअस्तित्व के वातावरण से मानव कल्याण का मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं।
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जैनधर्म, महावीर और नारी
-सुश्री सुशीला कुमारी बैद, एम. ए., धर्मालंकार,
आज से लगभग २६०० वर्ष पूर्व भारत में नारी की स्थिति बड़ी दयनीय थी। उसकी स्वाधीन सत्ता प्रायः लुप्त हो चुकी थी। उसे मात्र दासी मानकर उपेक्षा और अवहेलना की दृष्टि से देखा जाता था। गृह-लक्ष्मी कहकर उसे घर की चहारदीवारी में बन्द रखा गया था। पुरुष की गुलामी की बेड़ियों में जकड़ी हुई नारी को समाज की गतिविधियों पर सोचने का अवसर ही नहीं दिया गया था। धार्मिक क्षेत्र में भी उसकी उपेक्षा होने लगी थी। यह वही समय था जब निर्दोष चन्दना की नीलामी की बोलियां सरे बाजार लगाई गईं। तिरस्कार और लांछना के उस युग में नारी को एक सच्चे मार्गदर्शक की आवश्यकता थी।
सौभाग्य से उसी समय कुण्डलपुर में त्रिशला और सिद्धार्थ के पुत्र के रूप में वर्धमान का जन्म हुआ। अतिशयों से युक्त इस बालक का जन्मोत्सव धूमधाम से मनाया गया । वातावरण में उल्लास छा गया। बालक वर्धमान बड़े होने लगे, वह वीर, अतिवीर और महावीर बन गये। अवस्था की वृद्धि के साथ-साथ उनका चिन्तन बढता गया । जैसे उन्होंने मानव-जीवन के और पक्षों पर गहन चिन्तन किया वैसे समाज में नारी की स्थिति पर भी उनका विचार चला।
उन्होंने बताया कि पुरुष और नारी की आत्मा समान है । स्त्री को पुरुष की तरह आगे बढ़ने का अवसर समान रूप से मिलना चाहिए । नारी को हेय अथवा अज्ञानी समझना महापाप है। उन्होंने नारी के लिए भी साधना का मार्ग खोल दिया । अपने चतुर्विध संघ की संरचना में मुनि, आर्यिका, श्रावक और श्राविका को उन्होंने समान रूप से स्थान दिया।
उन परिस्थितियों में स्त्री के लिए दीक्षित होने का अधिकार एक महान क्रान्ति थी। पराधीनता से त्रस्त स्त्रियां अपनी मुक्ति का उपाय पाकर बड़ी प्रसन्न हुई। संघ में हजारों साध्वियां और लाखों श्राविकाएं प्रविष्ट हुईं, जिनकी संख्या क्रमश: साधुओं और श्रावकों की संख्या के दुगुने से अधिक थी।
संघ के पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों की अधिकता इस बात की द्योतक है कि भगवान महावीर ने नारी जाग्रति की दिशा में एक दूरगामी कदम उठाया था। इससे यह प्रकट हो गया कि अच्छे काम में वे पुरुषों से पीछे नहीं रह सकतीं। नारी के नेतृत्व की बागडोर उन्होंने नारी को सौंप दी। साध्वी चन्दनबाला उनके संघ की प्रमुख आर्यिका थी। अपने साध्वी जीवन में उन्होंने नारी का आदर्श चरित्र प्रस्तुत किया।
उस युग में जीवन के जिन मूल्यों की प्रतिष्ठा थी उनके अनुसार नारी जीवन का निर्माण हुआ। वह निर्माण असाधारण था। वर्तमान युग में पुरुष के जीवन में जो परिवर्तन आ रहे हैं उनका असर स्त्री जीवन पर पड़े बिना नहीं रह सकता । इन परिवर्तनों के सन्दर्भो को समझना चाहिए और ऐसे कदम उठाने चाहिएं, जिनमें आज की जागरुक नारी प्रतिस्पर्धा से बचकर समाज को सही रास्ते पर ले चलने की क्षमता पा सके।
भगवान महावीर ने भोग से त्याग की ओर, प्रवत्ति से निवत्ति की ओर, स्वार्थ से परमार्थ की ओर चलने
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का जो मार्ग बताया है उसका महत्व समाज के घटक स्त्री और पुरुष दोनों को समझना चाहिए और तब जो उचित लगे उसका जीवन में आचरण करना चाहिए ।
1 [वस्तुतः जैन परम्परा में प्रारम्भ से ही नारी को प्रायः पुरुष तुल्य ही सम्मानप्राप्त रहता आया है । प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के उदय से पूर्व के भोगयुग में पुरुष और स्त्री युगलियों के रूप में साथ ही उत्पन्न होते, साथ साथ रहकर जीवन व्यतीत करते और साथ ही मृत्यु को प्राप्त होते थे। ऋषभदेव ने कर्मयुग का प्रवर्तन किया तो विवाह प्रथा भी चालू की। उनके समय में ही वाराणसी की राजकुमारी सुलोचना ने चक्रवर्ती-पुत्र के मुकाबले में सेनापति जयकुमार को स्वेच्छा एवं स्वतन्त्रता से अपना वर चुना था। भगवान के पुत्र भी हुए और पुत्रियाँ भी हुई, और उन्हें उन्होंने समान रूप से विविध ज्ञान-विज्ञान एवं कलाओं की शिक्षा दी थी। भगवान की दीक्षा लेने के उपरान्त जब उनके अनेक पुत्रों ने मुनि दीक्षा ली तो भगवान की दोनों पुत्नियों, ब्राह्मी और सुन्दरी ने भी आर्यिका दीक्षा ले ली। कुमारी ब्राह्मी के नाम से ही भारतवर्ष की प्राचीन लिपि ब्राह्मीलिपि कहलाई, ऐसी अनुश्रुति है। हस्तिनापुर में राजकुमार श्रेयांस ने अपनी धर्मपत्नी के साथ ही भगवान के वर्षीतप का प्रारणा कराके श्रावक धर्म की प्रवृत्ति चलाई थी । एक परम्परा का तो यह भी विश्वास है कि प्रथम तीर्थंकर के जीवनकाल में सर्वप्रथम केवल ज्ञान एवं निर्वाण प्राप्त करने का सौभाग्य स्वयं उनकी जननी मरुदेवी को प्राप्त हुआ था। उसी परम्परा के अनुसार तो १८ वें तीर्थकर मल्लि स्त्री ही थे। जैनों में तीर्थकरों की जननियों का सम्मान जनकों की अपेक्षा कुछ अधिक ही रहा है। ब्राह्मी, सुलोचना, सीता, अंजना, मन्दोदरी, द्रोपदी, चन्दना आदि जैन परम्परा की सोलह महासतियां परम आदरणीय रही हैं । भगवान महावीर ने तो एक अज्ञात कुल-शील क्रीत दासी का उद्धार करके उसे अपने आर्यिका संघ की अध्यक्षा बनाया था । स्त्री और पुरुष के विषय में महावीर पूर्णतया समदृष्टि थे। यहां तक कि जब उन्होंने अपने मुनि-आर्यिका-श्रावक-श्राविका रूप चतुर्विध संघ का संगठन किया तो उसमें मुनि १४,००० थे तो साध्वी आर्यिकाएं ३६००० थीं और गृहस्थ श्रावक यदि डेढ़ लाख थे तो गृहस्थ श्राविकाएं तीन लाख अट्ठारह हजार थीं।
शिवार्य (लगभग प्रथम शती ई०) जैसे प्राचीन जैनाचार्यों ने भी यह स्पष्ट घोषित किया कि "जो दोष स्त्रियों में गिनाये गये हैं, उनका यदि पुरुष विचार करेगा तो उसे वे भयानक दीखेंगे और उसका चित्त उनसे लौटेगा, किन्तु नीच स्त्रियों में जो दोष हैं वे ही दोष नीच पुरुषों में भी रहते हैं । इतना ही नहीं, स्त्रियों की अपेक्षा उनकी अन्नादिक से उत्पन्न हुई शक्ति अधिक रहने से उनमें स्त्रियों से भी अधिक दोष रहते हैं । शील का रक्षण करने वाले पुरुषों को स्त्री जैसे निंदनीय एवं त्याज्य हैं, उसी प्रकार शील का रक्षण करने वाली नारियों को भी पुरुष निदनीय एवं त्याज्य हैं। संसार-देह-भोगों से विरक्त मुनियों के द्वारा स्त्रियां निदनीय मानी गयी हैं, तथापि जगत में कितनी ही नारियां गूणातिशय से शोभायुक्त होने के कारण मुनियों के द्वारा भी स्तुत्य हई हैं, उनका यश जगत में फैला है । ऐसी स्त्रियां मनुष्य लोक में देवता के समान पूज्य हुई हैं, और देव भी उन्हें नमस्कार करते हैं।" आचार्य जिनसेन भी कहते हैं कि 'गुणवती नारी संसार में प्रमुख स्थान प्राप्त करती है (नारी गुणवती धत्ते स्त्री सृष्टिरग्रिमं पदम्)।
इतिहास काल में भी अनेक जैन नारियां धार्मिक, साहित्यिक, राजनीतिक एवं सामाजिक क्षेत्रों में अपनी विशिष्ट उपलब्धियों के कारण स्मरणीय हुई हैं। वर्तमान युग में भी पुराने हिन्दू न्यायविधान के अनुसार एक हिन्दु नारी दायभाग, पति की सम्पत्ति का उत्तराधिकार, दत्तक पुत्र या पुत्री लेने का अधिकार आदि जिन प्रतिबन्धों से जकड़ी रही है, विशेष जैन न्यायाविधान द्वारा जैन नारी उन प्रतिबन्धों से मुक्त रही है, और उच्च न्यायालयों में इसके वे अधिकार मान्य हुए हैं। स्त्री शिक्षा का अनुपात भी जैन समाज में हिन्दू एवं मुस्लिम समाजों की अपेक्षा कहीं अधिक रहा है। इसी शती के स्वतन्त्रता संग्राम में भी जैन नारियों ने उल्लेखनीय भाग लिया है। सं.]
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सर्वोदयी जैनधर्म और जातिवाद
-पं० परमेष्ठीदास जैन न्यायतीर्थ
जब हम भगवान महावीर के विविध कल्याणकारी सिद्धान्तों और उनके सार्वजनीन उपदेशों पर दृष्टिपात करते हैं, तो ऐसा लगता है कि ढाई हजार वर्ष पूर्व भी जो मानव-मन या मानव-वृत्तियां अथवा मानवों की समस्यायें थीं, वे आज भी विद्यमान हैं। यही कारण है कि भगवान महावीर ने तब जो उपदेश अथवा सन्देश दिये थे उन्हीं को उत्तरवर्ती जैनाचार्यों ने प्रकारान्तर से ग्रन्यबद्ध किया था और जब हम आज के सन्दर्भ में उन उपदेशों को देखते हैं तो लगता है कि वे ही उपदेश आज भी मानव कल्याण के लिए ज्यों के त्यों उपयोगी एवं कल्याणप्रद हैं।
जैसे वर्तमान में सम्पत्ति संग्रह, स्मगलिंग, टैक्स चोरी और सम्मिश्रण (मिलावट) आदि की सर्वत्र चर्चा है, तथा इन अनाचारों से सरकार और प्रजा परेशान है, इन सबका प्रबल विरोध करते हुए जैनाचार्यों ने दो हजार वर्ष पूर्व भी कहा थास्तेनप्रयोगतदाहृतावान विरुद्ध राज्यातिक्रम होनाधिक मानोन्मानप्रतिरूपकव्यवहारा
-तत्वार्थसूत्र ७-२७ अर्थात चोरी के लिए चोर को प्रेरणा करना या चोरी के उपाय बताना, चुराई हुई वस्तु को खरीदना, राज्य की आज्ञा के विरुद्ध चलना (जैसे निषिद्ध वस्तुओं का चोरी-छुपी से आयात-निर्यात करना अथवा चुंगी, नाका-बैरियर आदि को चोरी से पार कर जाना), नाप-तौल में कम-बढ़ करना (किलो और सेर अथवा मीटर और गज के नापतौल में मनमानी गड़बड़ी करना), तथा मिलावट करना, इत्यादि सब पापाचार हैं। जो इन अतिचारों से बचकर चलता है वही व्रती है, वही भला नागरिक है।
आज के वातावरण में इस सूत्र का तदनुरूप भाष्य करके देखें तो ज्ञात होगा कि आज कैसे-कैसे चोरी के प्रयोग हो रहे हैं, आयात-निर्यात के लिए कैसे और कितने प्रकार से राजकीय नियमों का चतुराई से उल्लंघन किया जाता है, चोरी का माल कैसे खपाया जा रहा है, और नाप-तौल तथा मिलावट की कितनी, कैसी गड़बड़ियां चल रही है। स्मगलिंग और स्मगलरों की पकड़ा-धकड़ी या छापामार योजना इसका जीवित प्रमाण है।
जैनाचार्यों ने मानवचरित्र को समुज्जवल बनाने के लिए "अहिंसासत्यमस्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहः” का उपदेश दिया था और श्री अमृतचन्द्रसूरि ने पुरुषार्थसिद्धध्युपाय में परिग्रह अथवा लोभ को हिंसा का ही पर्यायवाची बतलाया था (हिंसायाः पर्यो लोभः) । इस प्रकार परिग्रह को भी हिंसा का ही रूपान्तर कह कर उसके त्यागने का उपदेश दिया था । आचार्य उमास्वामी ने “मूर्छा परिग्रहः" सूत्र द्वारा केवल बाहर के तामझाम को ही नहीं, अपितु अन्तरंग ममत्वभाव को मूर्छा कहा है (मूर्छा तु ममत्व परिणामः) और वाह्य पदार्थों के प्रति आन्तरिक लालसा को परिग्रह कहा है, पाप कहा है, त्याज्य कहा गया है।
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ख -४
यही कारण कि गृहस्थाचार के निर्वाह के लिए परिग्रह का परिमाण करने की बात कही गयी है । समन्तभद्राचार्य ने "परमित परिग्रहस्यात" के द्वारा अनिवार्य आवश्यक वस्तुओं की मर्यादा करके और अधिक में क्षा का त्याग ( ततोऽधिकेषु निस्पृहता) करने की बात कही है ।
इस प्रकार अपनी यथार्थ आवश्यकताओं को देखते हुए कम से कम परिग्रह रखना और उस परिग्रह-परिमाण व्रत के बाहर किसी भी प्रकार की चाह, ममत्व, लालसा या लोभ का भाव मन में नहीं आने देना चाहिए। जैन पूजा में "लोभ पाप को बाप बखानी" कहकर लोभ या परिग्रह को 'पाप का बाप' बतलाया है। क्योंकि युद्ध, आक्रमण, अन्याय और अत्याचार, लोभ, लालसा या परिग्रह की तृष्णावश ही होते हैं ।
जहाँ परिग्रह का परिमाण नहीं किया जाता है वहां निरन्तर सम्पत्ति को बढ़ाने की लालसा बढ़ती जाती है, और यो समग्र जीवन हाय तोबा में व्यतीत होता है । अपरिमित संपत्ति के कारण मन निरन्तर आकुलित रहता है, सरकारी छापे का भय बढ़ा रहता है और संचित सम्पत्ति का खुलकर उपयोग भी नहीं कर पाते। हमारा धर्म ही नहीं, अपितु सरकार की छापामार प्रवृत्ति भी हमें परिग्रह का परिमाण करने के लिए प्रेरित कर रही है ।
जैनाचार्यों ने कहा है कि धन-सम्पत्ति, मकान और वस्त्राभूषणादि परिग्रहों का यथावश्यक परिमाण करो, तथा अपनी कृतमर्यादा से अधिक जो न्यायपूर्वक अर्जित हो, वह दूसरों के हित में अर्पित कर दो । यही सद्-गृहस्थ का धर्माचार है । अपरिग्रह, अचौर्य और अहिंसादि व्रतों की शुद्धि के लिए यह भी आवश्यक है कि व्रती व्यक्ति किसी प्रकार की शल्य नहीं रखे। सभी प्रकार छल-कपट या दिखावे का त्याग करे, दान आदि देकर प्रतिफल की आकांक्षा नहीं रखे और आत्मश्रद्धा को सुदृढ़ बनाये रखे, क्योंकि मानसिक स्थिति स्वच्छ रखकर ही धर्म हो सकता है । इस प्रकार अन्तरंग - बहिरंग शुद्धिपूर्वक किया गया व्रत, धर्म अथवा त्याग आदि ही वास्तविक धर्म कहा गया है ।
यही कारण है कि जैनाचार्यों ने अहिंसादि व्रतों की रक्षा के लिए बध, लादने का भी निषेध किया है, गलत दस्तावेज लिखने- लिखाने को और धरोहर को भी अपराध कहा है तथा कुत्सित जीवन की भर्त्सना करते
बंधन तथा पशुओं पर अधिक भार आदि के व्यवहार में गड़बड़ी करने हुए निर्मल जीवन जीने का उपदेश दिया है ।
साथ ही भगवान महावीर ने रुढ़िगत परम्पराओं का निषेध करके सर्वोदयी धर्म का प्रतिपादन किया था, जो बिना किसी भेदभाव के सबके लिये था । जहाँ संकुचित दृष्टि है, स्वपर का पक्षपात है, शारीरिक अच्छाई बुराई के कारण आंतरिक नींच ऊंचपन का भेदभाव है, वहाँ धर्म नहीं हो सकता । धर्म आत्मिक होता है, शारीरिक दृष्टि से तो कोई भी मानव पवित्र नहीं । इसलिए आत्मा के साथ धर्म का सम्बन्ध मानना ही विवेक है । लोग जिस शरीर को उच्च समझते हैं उस शरीर वाले कुगति में भी गये हैं, और जिनके शरीर नीच समझे जाते हैं वे भी सुगति को प्राप्त हुए हैं । धर्म चमड़े में नहीं किन्तु आत्मा में होता है । इसलिए जैनधर्म इस बात का स्पष्टतया प्रतिपादन करता है कि प्रत्येक प्राणी अपनी सुकृति के अनुसार उच्च पद प्राप्त कर सकता है । धर्म का द्वार सबके लिए सर्वदा खुला है। रविषेणाचार्य कहते हैं
अनाथानामबंधुनां दरिणां सुदुःखिनाम् । जिनशासनमेतद्विध, परमं शरणं मतम् ॥
जो अनाथ हैं, बांधव विहीन है, दरिद्र हैं, अत्यन्त दुखी हैं उनके लिए धर्म परम शरण भूत है ।
यहाँ पर कल्पित जातियों या किसी वर्ण का उल्लेख न करके सर्व साधारण को जैनधर्म ही एक शरणभूत बतलाया है । जैनधर्म में मनुष्यों की बात तो क्या, पशु पक्षी, प्राणिमात्र के कल्याण का विचार किया गया है।
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आत्मा का सच्चा हितैषी, जगत के प्राणियों को पार लगाने वाला, महामिथ्यावाद के गड्ढे से निकालकर सन्मार्ग पर आरूढ़ करा देने वाला और प्राणिमात्र के प्रेम का पाठ पढ़ाने वाला सर्वज्ञ-कथित जैनधर्म है ।
यह सिखाता है कि अहमन्यता को छोड़कर मनुष्य से मनुष्यता का व्यवहार करो, प्राणीमान से मैत्रीभाव रखो, और निरन्तर परहित निरत रहो। मनुष्य ही नहीं, पशुओं तक के कल्याण का उपाय सोचों और उन्हें घोर दुःख दावानल से निकालो।
इस प्रकार भगवान महावीर के शासन में समस्त प्राणियों की हित कामना की गई है। यमपाल नामक चाण्डाल व्रत धारण करने पर समाजमान्य हो गया और देवताओं ने भी अभिषेकपूर्वक उसकी पूजा की थी। यथा
तदा तदव्रतमाहात्म्यान्महा धर्मानुरागतः । सिंहासने समारोप्य देवतामिः शुभैर्जलैः ।। अभिषिच्य प्रहण दिव्यवनादिमि: सुधीः ।
नानारत्नसुवर्णद्वियंः पूजितः परमादरात् ॥ वहाँ के राजा ने भी उस चाण्डाल के धर्म प्रभाव से प्रभावित होकर, नीच-ऊँच का भेद-भाव किये बिना, उसका सम्मान किया, यथा
तं प्रभावं समालोक्य राजायः परया मुदा।
___अथितः स मातंगो यमपालो गुणोज्वल: ।। भगवान महावीर के शासन में ब्रत, धर्म और गुणों को महत्ता दी गयी है, इनके सम्मुख हीन जाति अथवा अस्पृश्यता का विचार नहीं किया गया। जाति के अभिमान का परित्याग करने का उपदेश देते हुए स्पष्ट कहा है कि
चाण्डालोपि व्रतोपेतः प्रजितः देवतादिमिः ।
तस्मादन्थन विप्राद्वर्य जातिगर्बो विधीयते ।। व्रतों से युक्त चाण्डाल भी देवों द्वारा पूजा गया, इसीलिए ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों को अपनी जाति की उच्चता का गर्व नहीं करना चाहिए।
इस प्रकार जैनधर्म में जाति अथवा वर्ण को महत्ता न देकर केवल शुभाचरण और शील-पालन को ही महत्व दिया है । अमितगति आचार्य के शब्दों में
शीलवन्तों गताः स्वर्ग नीच जातिभवा अपि ।
कुलीना नरकं प्राप्ताः शीलसंयमनाशिनः ।। जिन्हें नीच जाति में उत्पन्न कहा जाता है वे शील को धारण करके स्वर्ग गये हैं और जिनके लिए उच्च कुलीन होने का मद किया जाता है ऐसे दुराचारी मनुष्य नरक गये हैं।
नास्ति जातिकृतो भेदो मनुष्याणां गवाश्ववत् । मनुष्यों में गाय और घोड़ों की तरह जातिकृत कोई भेद नहीं होते। गुणभद्राचार्य ने तो कह दिया कि(मनुष्यजातिरेक) सब मनुष्यों की एक ही जाति है; जैनाचार्यों ने मनुष्यों के बीच कोई जाति भेद न मानकर स्पष्ट कहा है कि आजीविका के भेद से ही ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य और शूद्र जैसे जाति परक भेद हो गये हैं। उनमें
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५६ ] जन्मतः कोई मेद नहीं होता, और इसीलिए भगवान महावीर के शासन में प्रतिपादित व्यवस्था को लेकर जातिगत अभिमान को जाति मद कहा गया है, जो कि सभ्यक्-दर्शन का दोष माना गया है । समझदार लोगों को जाति का गर्व नहीं कराना चाहिए।
जातिगर्यो न कर्तब्यस्ततः कुत्रापि धीधनैः । जैनधर्म में बड़ी ही उदारतापूर्वक कहा गया है कि-इस धर्म का जो भी आचरण करता है. वही श्रावक अर्थात जैन है भले ही वह ब्राह्मण हो, शूद्र हो या और अन्य कोई भी हो, क्योंकि श्रावक के सिर पर कोई मणि नहीं रहता, जिससे पहचाना जा सके कि यह श्रावक है।
____ इससे स्पष्ट है कि कोई भी व्यक्ति बिना किसी भेदभाव के जैनधर्म धारण कर सकता है और श्रावक हो सकता है।
मनुष्य और मनुष्य के बीच जातिगत भेदभाव के आधार पर लोगों को छोटा बड़ा माना जाने लगा और इसीलिए विविध प्रकार के कलह, द्वेष एवं मात्सर्य भाव फैले तथा मनुष्यों के बीच खून खराबा हुआ। यह अनाचार भगवान महावीर के उस पावन सन्देश को भुला देने से ही हुआ कि मनुष्य और मनुष्य के बीच जातिगत कोई भेद नहीं हो सकता । वस्तुतः सर्वोदयी जैनधर्म में जातिवाद के लिए स्थान ही नहीं है।
आज केवल भारतवर्ष में ही नहीं अपितु समूचे विश्व में मानव जाति के बीच जन्म, रंग और विविध प्रकार की काल्पनिक ऊँच नीचता को लेकर पहिले से भी अधिक भयानक स्थिति बनी हुई है। इसलिए यदि भगवान महावीर के और अन्य जैनाचार्यों के उपदेशों एवं संदेशों का पुनः प्रचार किया जाय तो मानव जाति के मध्य मैत्री एवं भ्रातृभाव स्थापित हो सकता है।
महावीर ने तो अखिल मानव समाज के योग क्षेम (क्षेमं सर्व प्रजानां) की भावना भाने की बात कहकर विश्वबंधुत्व या विश्वकल्याणकारिता का उपदेश दिया है। इस प्रकार भगवान महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा में वह उपदेश, आदेश या सन्देश दिये गये थे जो आधुनिक युग में पहले से भी अधिक उपयुक्त होते हैं। यदि हम उन पर चल सकें तो हमारी समाज या हमारा देश ही नहीं, अपितु अखिल विश्व सुख, शान्ति और निराकुलतापूर्वक रह सकता है।
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बदलते सामाजिक मूल्यों में महावीर वाणी की भूमिका
आत्मा और शब्द अजर-अमर
वैदिक परम्परा में बताया गया है कि शब्द ब्रह्म' है, वह अजर-अमर है । इसका अभिप्राय यह है कि शब्द का विनाश नहीं होता, वाणी सदैव अमर रहती है। तब प्रश्न हो सकता है कि जब शब्द का विनाश नहीं होता, वाणी सदैव अमर रहती है, तब तो कोई भी शब्द क्यों न हो, कोई भी वाणी क्यों न हो, चाहे व महान् पुरुषों की हो अथवा अधमजनों की, भगवान की हो अथवा पामर प्राणियों की, दोनों ही अमर होने के नाते परस्पर टकराती रहेंगी, उनका कोलाहल बना ही रहेगा। फिर वर्तमान में उससे हमें क्या लाभ ? महान् पुरुषों की वाणी ही कल्याणी
भारतीय संस्कृति में एक बहुत बड़ी बात कही गई है कि पाप पर पुण्य की, असत्य पर सत्य की, अन्याय पर न्याय की, शैतान पर इन्सान की और दानव पर देव की सदैव विजय हुआ करती है । 'सत्यमेव जयते' भारतीय संस्कृति का पावन सिद्धान्त वाक्य है । इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि यद्यपि देव और दानव की या पामरप्राणी की वाणी सर्वकाल और सर्वक्षेत्र में जन कल्याणकारी न होने से लोक में अमरता प्राप्त नहीं कर सकती, जब कि महान आत्माओं की वाणी, जो कि मुख्यतः सर्वक्षेत्र और सर्वकाल में लोक-कल्याणार्थं ही निःसृत हुआ करती है, लोक में मर्यादित, प्रतिष्ठित एवं अमर होती है ।
महावीर वाणी की युगसापेक्षाता
भगवान् महावीर की वाणी, भी उस युग में उत्पीड़न के बीच सार्वजनिक सर्वक्षेत्रीय कल्याण स्वरूप निस्सृत हुई थी, अतः वह युगान्तरकारी एवं अजर-अमर है। भगवान् महावीर की वाणी का, उनके अमृतोपम संदेश का शब्द शब्द एवं अक्षर-अक्षर प्रत्येक युग में और प्रत्येक क्षेत्र में लोक कल्याण कारक है । कोटिशः समस्याओं के जाल में उलझे मानवों के लिये प्राणदायी है। चाहे हम इसे आध्यात्मिक या दार्शनिक रूप में लें अथवा भौतिक या जागतिक रूप में, यह सर्वतोभावेन सर्वज्ञत्व मर्यादा समन्विता वाणी है। किसी युग विशेष के लिये नहीं, अपितु युगों-युगों के लिये समान रूप से उपादेय है ।
१.
- डा० उम्मेदमल मुनोत
इसे स्पष्ट करने के लिये हमें भगवान के मंगलमय उपदेशों की गहराई में गोते लगाना होगा, उसके मर्म को समझना होगा, उसका युग सापेक्ष एवं समीचीनता की दृष्टि से विश्लेषण करना होगा । इस लोक में भगवान महावीर का आविर्भाव ( अवतार ) आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व हुआ था । तब की और अब की मान्यताओं, परम्पराओं, रूढ़ियों, रीतियों, जीवन-स्तरीय समस्याओं, युगीन परिस्थितियों में पर्याप्त अन्तर है । आधुनिक युग
'शब्दं ब्रह्मेति व्यजानात् ' -उपनिषद |
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५८ ]
की भिन्न समस्याएँ हैं, भिन्न मापदण्ड हैं, आचार-विचार में भिन्नता है, फिर भगवान महावीर के उन प्राचीनतम सिद्धान्तों का आज के युग में क्या कुछ महत्व हो सकता है ? वे हमें किस भाँति समस्याओं के दलदल से बाहर निकाल सकते हैं ? समस्त मानव महावीर बने
यहाँ विचारणीय यह है कि मानव का बाह्य आवरण बदल जाने से मानव नहीं बदल जाता। मानव अन्ततः मानव ही रहता है। ठीक उसी प्रकार समस्याओं के बाहरी कलेवर बदल जाने से समस्याएँ बदल जाती हैं, ऐसा नहीं समझा जाता। भले ही समस्याओं को सोचने, समझने और जीवन में देखने की दृष्टि में परिवर्तन आ जाये, किन्तु मानव की समस्याएं यथावत् बनी हुई हैं। उसके रहन-सहन, आचार-विचार के तौर-तरीके चाहे बदल गये हैं, किन्तु मानव की मौलिक समस्याएं-भोजन, वस्त्र, आवास एवं शिक्षा-जिस प्रकार प्राचीन काल में थी आधुनिक काल में भी वैसी ही हैं। अलबत्ता, क्रमशः बढ़ती हुई मॅहगाई, औद्योगिक एवं तकनीकी क्षेत्रों में राष्ट्रों की बेतहाशा भागती हुई दौड़ अवश्य बढ़ गई है। और सबसे बड़ी बात तो यह है कि आज की कशमकश स्थिति में भगवान महावीर की वाणी का मूल्य और भी बढ़ गया है। तब एक महावीर थे, आज समस्त मानवों को महावीर बनने का समय आ गया है। इसी में लोक-कल्याण है, अन्य में नहीं।
भगवान महावीर के लोक-कल्याणार्थ जो उपदेश थे उनमें अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, और अपरिग्रह इन पंच-महाव्रतों के जीवन व्यवहार में सक्रिय परिपालन पर मुख्य रूप से बल देना होगा। और इन्हीं पांच व्रतों के सिद्धान्तों में, चाहे समरसतावाद हो, समतावाद हो, सर्वोदयवाद हो अथवा आधुनिक समाजवाद हो-सबका स्वतः समावेश हो जाता है।
यहाँ हम भगवान की वाणी का इन पंचव्रतों के परिप्रेक्ष्य में युगसापेक्ष विवेचन करेंगे।
महावीर-वाणी : आधुनिक परिप्रेक्ष्य में ध्वंसमूलक विकृतियों का उपचार
१. अहिंसा-अहिंसा के विषय में भगवान महावीर का कथन है किसी भी जीव को त्रास (कष्ट) नहीं देना चाहिये। सभी सचेतन प्राणियों को अपना जीवन प्रिय है, सुख सबको ही अच्छा लगता है और दुःख बुरा । वध सबको अप्रिय है और जीवन प्रिय । अतः किसी प्राणी की हिंसा नहीं करनी चाहिये ।' परपीड़ा में लगे हुए जीव एक तो अन्धकार की ओर जाते हैं, और दूसरे, इस प्रकार वैर की परम्परा चल पड़ती है। वैर-वृत्ति वाला व्यक्ति सदैव वैर ही करता रहता है। वह एक के बाद एक किये जाने वाले वैर को बढ़ाते रहने में ही दिलचस्पी रखता है। मानव-जाति की जितनी भी ध्वंसमूलक विकृतियाँ हैं जैसे-वैर, वैमनस्य, कलह, घृणा, ईर्ष्या-द्वेष, दुःसंकल्प, दुर्वचन, क्रोध, अभिमान, दम्भ, लोभ, लालच, शोषण-दमन आदि-इन सबको दूर करने का अहिंसा का
२. न य वित्तासए परं-उतरा ध्ययन २/२ ३. (क) सव्वे पाणा पियाउया, सुहसाया दुह-पडिकूला पिय जीविणो जीविउकामा, सव्वेसि जीवियं पियं नाइ
वाऐज्ज कंचन-आयाराग १/२/३ (ख) सव्वे जीवा वि इच्छंति, जीविउं न मरिज्जिउं। तम्हा पाणिवहं घोरं, निग्गंथा वज्जयतिणं-दशवकालिक
४. तमाओ ते तंमं जंति मंदा आरम्भनिस्सिया-सूत्रकृतांग १/१/१/१२ ५. वेराई कुव्वइ वेरी, तओ वेरेहिं रज्जति–सूत्रकृतांग १/८/७
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ख-४
व्यापक सिद्धांत है कि क्रोध को क्रोध से नहीं, क्षमा से जीतो। दंभ को दंभ से नहीं, सरलता और निश्छलता से जीतो।
से नहीं, संतोष से जीतो, उदारता से जीतो। इसी प्रकार भय को अभय से, घणा को प्रेम से जीतना चाहिये। अहिंसा प्रकाश की अन्धकार पर, प्रेम की घृणा पर, सद्भाव की वैर पर तथा अच्छाई की बुराई पर विजय का अमोघ अस्त्र है। यह वही पथ है, जिस पर चल कर मानव, मानव को मानव समझ सकता है। दूसरे साथ ही यह विश्व के समग्र-चेतन्य को एक धरातल पर ला खड़ी करती है। अहिंसा समग्र प्राणियों में एकता एवं समानता स्थापित करती हैं।
अहिंसा का जितना बड़ा महत्व प्राचीन काल में था, उतना ही, बल्कि उससे कहीं ज्यादा महत्व आज के युग में हैं, आज की परिस्थितियों में है। आज आवश्यकताएँ अनन्तमूखी हो चली हैं, जब कि उनकी पूर्ति के साधन सीमित हो चले हैं। ऐसी स्थिति में आज के बदले हुए युग में भगवान महावीर की अहिंसा सम्मतवाणी का महत्व और भी बढ़ जाता है अहिंसा का व्यापक सिद्धांत सार्वकालिक है। यह प्राचीन युग में भी आवश्यक था, वर्तमान में उससे भी बढ़कर आवश्यक है, और भविष्य में इससे भी ज्यादा आवश्यक रहेगा।
मानव जीवन के सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक आदि सभी क्षेत्रों की, और समस्त राष्ट्रों की समस्याओं, झगड़ों, प्रश्नों एवं मसलों को स्थायी रूप से हल करने के लिए अहिंसा अमोघ साधन है। मन की पवित्रता से साक्षात्कार
२. सत्य-सत्य जीवन का बहुत बड़ा आधार है। इसे भगवान महावीर ने 'सं सच्यं खु भगवं' कहा है। इसकी प्राप्ति के लिये व्यक्ति को आत्मा की गहराई में उतरना पड़ता है। सत्य का ऐसा आचरण करने वाला आत्मस्थ व्यक्ति साक्षात निर्विकार निरानन्द परमात्मा स्वरूप हो जाता है। उसे किसी भी प्रकार का राग-द्वेष, हर्षविषाद अपने बाहुपाश में आवद्ध नहीं कर पाता।
__ सत्य की धुरी पर यह जड़-चेतनमय विश्व स्थित है। इसकी प्रक्रिया में थोड़ा सा भी जब व्यतिक्रम हो जाता है, तो भीषण संहार शुरू हो जाता है । यह सत्य है कि विश्व के समस्त नियम एवं विधान सत्य पर ही प्रतिष्ठित हैं।
वान् महावीर के दर्शन में सबसे बड़ी क्रान्ति सत्य के विषय में यह रही है कि वे वाणी के सत्य की अपेक्षा मन के सत्य को अधिक महत्व देते थे। जब तक मन में सत्य की प्रतिष्ठा नहीं हो जाती, मन सत्य के प्रति आग्रहशील नहीं बन जाता, उसमें झूठ, छल, कपट भरे होते हैं तब तक वाणी का सत्य सत्य नहीं माना जा सकता। सत्य का प्रथम सोपान मानसिक पवित्रता और दूसरा वचन की पवित्रता है। इन दोनों से संयुक्त आचरण का व्यक्ति सत्य का सच्चा पुजारी होता है। उसका प्रत्येक आचरण कल्याणकारी होता है।
उदारता और क्षमा सत्य के आचरण के ही दो पहलू हैं। इस प्रकार विनम्रभाव से विश्व की सेवा करने वाला व्यक्ति सत्य का सच्चा साधक है। सत्य का ऐसा आचरण करने वाला व्यक्ति सत्य के उज्ज्वलतम प्रकाश से उद्भासित होता हुआ, सत्य के वास्तविक लोक में पहुँच जाता है । सत्य की इस विराट् भूमि पर पहुँच कर साध्य स्वयं सत्यमय किंवा सत्यस्वरूप बन जाता है।
ऊपर के विवेचन से यह स्पष्ट है कि भगवान महावीर के सत्य के अर्थ को किसी दर्शन के निगूढ़ पर्याय में न देख कर विश्व-कल्याणक व्यवहारक्षम पर्याय में देखा और उसे जन मानस में प्रतिष्ठत किया जाय । अतएव भगवान महावीर की इस सत्य की शाश्वत् वाणी की उपादेयता सार्वयुगीन है, अनन्तकाल-पर्यन्त लोकोपकारी रहेगी।
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नैतिकता का मापदण्ड
३. अस्तेय-कोई भी वस्तु चाहे वह सजीव हो अथवा निर्जीव, उसके स्वामी के आदेश के बिना उसे कदापि वहीं लेना चाहिये । दांत कुरेदने को तिनका भी बिना आज्ञा के नहीं लिया जा सकता।'
चोरी के बहुत से कारण हैं, जिनमें चार मुख्य हैं। इनमें प्रथम कारण है-वेरोजगारी। काम धन्धा नहीं मिलने से, बेकार हो जाने से और अपना जीवन नहीं चला पाने से कितने ही व्यक्ति चोरी करना शुरू कर देते हैं। इनमें जो सुसभ्य एवं सुसंस्कृत मनुष्य होते हैं, वे तो मरण पसन्द कर सकते हैं किन्तु चोरी का आचरण नहीं अपना सकते । किन्तु ऐसे व्यक्ति स्वल्प ही होते हैं।
चोरी अपव्यय करना भी सिखाती है । अनेक मनुष्य विवाह, मृतभोज, अथवा अन्य यज्ञादि में अपना पूर्ण शान-शौकत दिखाने के लिये बेशुमार धन कर्ज लेकर खर्च कर डालते हैं, जिसे बाद में, अपनी सीमित आमदनी से चका नहीं पाने के कारण चोरी का रास्ता अपनाते हैं।
__ कुछ लोग कुशिक्षा, कुसंस्कार एवं कुसंगति के कारण भी चोरी करने लग जाते हैं। अतएव अस्तेय का महत्व भी सार्वकालिक एवं जीवनव्यवहार में शाश्वत है। इसका महत्व कदापि कम नहीं हो सकता। आत्मा की शुद्ध परिणति
४. ब्रह्मचर्य-ब्रह्म का अर्थ है-मात्मा का शुद्ध भाव, परमात्मभाव और 'चर्य' का अर्थ है-चलना, गति करता, आचरण करना । आत्मा को विकारी भावों से हटा कर शुद्ध परिणति में केन्द्रित करना-ब्रह्मचर्य का पालन करना है। आत्मा की शुद्ध परिणति ही परमात्मज्योति है, परब्रह्म है, और इसे प्राप्त करने की साधना का नाम ही ब्रह्मचर्य है तथा इस प्रकार की साधना करने वाले का नाम है-ब्रह्मचारी (Searcher after God)
कतिपय व्यक्ति ब्रह्मचर्य का अर्थ स्त्री-संसर्ग से दूर होना बताते हैं। किन्तु जैनधर्म ब्रह्मचर्य का इतना सीमित अर्थ नहीं लेता । ब्रह्मचारी का अर्थ है कि स्त्री का स्पर्श करने से मन में किसी प्रकार का विकार उत्पन्न न हो. जिस तरह कागज पर छपे सुन्दर रमणीक चित्र को स्पर्श करने से नहीं होता। अंतर्मन में सच्ची निर्विकारता दोनो स्पर्श करने पर भी विकार पैदा नहीं होता। अंतर्मन की निर्विकार दशा ही वस्तुतः सच्चा ब्रह्मचर्य है।
ब्रह्मचर्य किसी प्रकार का बाहरी दबाव या बंधन नहीं, अपितु मन का संयम है। जैनागमों में इस संयम को सर्वोपरि महत्व देते हुए असीम कामनाओं को सीमित करने हेतु विवाह को स्वीकार किया है। इसमें कहा हैविवाह पूर्ण संयम की ओर अग्रसर होने का महत्वपूर्ण चरण है और पाशविक्र जीवन से निकल कर नीतिपूर्ण मर्यादित मानव जीवन को अंगीकार करने का साधन है। किन्तु इसमें वेश्या-गमन, एवं परदार सेवन के लिये कोई स्थान नहीं है बल्कि मैथुन सेवन को अधर्म का मूल और बड़े-बड़े दोषों को बढ़ाने वाला कहा है। इस रूप में भगवान महावीर ने जन चेतना के समक्ष ब्रह्मचर्य का एक महान् आदर्श उपस्थित किया है, जो कि नैतिकता पर सर्वांशतः आधारित है। इसके बिना मानव का जीवन तेजोहीन, ओजहीन, कांतिहीन एवं एक प्रकार से निष्प्राण हो जाएगा। अतः भगवान-महावीर की ब्रह्मचर्य सम्मत वाणी भी सार्वकालिक है, इसमें कोई संशय नहीं है।
६. चितमंतमचित वा अप्यं वा जइ वा बाहु । दंत-सोहणमेतं पि उग्गहंसि अजाइया । ७. मूलमेयमहमस्स महादोससमुस्सयं ।
तम्हा मेहणसंसग्गं निग्गंथा वज्जयंतिणं दशवकालिक
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ममत्वभाव का त्याग
५. अपरिग्रह-किसी भी वस्तु के प्रति मूर्छा का भाव ही परिग्रह का मूल कारण है। परिग्रह का अर्थ है-संग्रह (hoarding) और अपरिग्रह का अर्थ है-त्याग, किसी वस्तु का अनावश्यक संग्रह न करके उसका जन-कल्याण हेतु वितरण कर देना। कारण यह भी मनुष्य को अहंकार एवं मोहरूपी अंधेरे अथाह भंवर में डुबो देने वाला होता है। यह अर्थ (सम्पति) अनित्य है, चंचल है, क्रोध, मान और लोभ की उद्भाविका है। धर्मरूपी कल्पवृक्ष को जला देने वाली है। यह न्याय, क्षमा, सन्तोष, नम्रता आदि सद्गुणों को खा जाने वाला कीड़ा है । परिग्रह बोधि बीज (सम्यक्त्व) का विनाशक है और संयम, संवर, तथा ब्रह्मचर्य का घातक है। चिन्ता और शोक रूप सागर को बढ़ाने वाला तृष्णारूपी विष-बेल को सींचने वाला क्रूर-कपट का भण्डार और क्लेश का आगार है ।
ज्ञानी पुरुष संयम साधक उपकरणों को लेने और रखने में कहीं भी किसी प्रकार का ममत्व नहीं करते । और तो क्या, अपने शरीर तक के प्रति भी ममत्वभाव नहीं रखते। जो पुरुष सम्पूर्ण कामों (इच्छा कामों और मदनकामों) का त्याग कर ममत्व रहित व अहंकार रहित निस्पृह जीवन बिताता है, वह स्थितप्रज्ञ है। वही अखण्ड शान्ति को प्राप्त करके ब्राह्मी स्थिति को प्राप्त कर लेता है। अतः अपरिग्रह एक महान व्रत है, जिसका आज के युग में जनकल्याण की दृष्टि से और भी अधिक महत्व है, क्योंकि वर्तमान युग में परिग्रह लालसा बहुत बढ़ी
भगवान महावीर ने अपरिग्रह के विषय में एक बहुत ही बड़ी बात कही है कि अपरिग्रह किसी वस्तु के त्याग का नाम नहीं अपितु किसी वस्तु में निहित ममत्व-मूर्छा के त्याग को अपरिग्रह कहते हैं। जड़ चेतन, प्राप्त-अप्राप्त, दृष्ट-अदृष्ट, श्रुत-अश्रुत वस्तु के प्रति ममता, लालसा, तृष्णा व कामना बनी रहती है तब तक वाहत्याग सही माने में त्याग नहीं कहा जा सकता। क्योंकि किसी परिस्थिति विशेष में विवश होकर भी किसी वस्तु का त्याग किया जा सकता है। किन्तु उसके प्रति निहित ममत्व का त्याग नहीं हो पाता। यही ममत्व संत्रास का कारण है । यदि लोग वस्तु के अनावश्यक संग्रह को रोकना चाहते हैं। उसका उन्मूलन करना चाहते हैं, तो वस्तु के त्याग से पूर्व वस्तु में निहित ममत्व के त्याग को अपनाना होगा और ऐसा किये बिना अपरिग्रह का पालन न हो पायेगा, इसी कारण भगवान महावीर ने गृहस्थ श्रावकों के लिए परिग्रह-परिमाणव्रत बताया है। विश्व के बहुसंख्यक अभावग्रस्त प्राणनाण पा सकते हैं । महावीर वाणी की भूमिका
ऊपर मैंने भगवान महावीर के सार्वजनीन, सार्वभौम वाणियों का विहंगम विवेचन किया है। उस विवेचन के उपरान्त हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि भगवान महावीर की वाणियों की शाश्वत महत्व है, चाहे म उसे आध्यात्मिक परिप्रेक्ष्य में देखें, चाहे सामाजिक एवं राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में देखें अथवा सांस्कृतिक एवं आर्थिक
८. अर्थमनथं भावय नित्यम्-शंकराचार्य ९. अवि अप्पगोवि देहनि,
नायरंति ममाइयं-दशवकालिक १०. विहाय कामान्यः सवीन्पुमांश्चरति निःस्पृहः ।
निर्ममो निरंहकारः स शांतिमधिगच्छति ।। गीता, २, ७
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६२ ]
परिप्रेक्ष्य में देखें। युग बदल जाए, युग की मान्यताओं एवं मूल्यों में परिवर्तन आ जायें, किन्तु भगवान महावीर की वाणी का महत्व सदैव अक्षुण्ण रहेगा।
जहां तक आज के बदलते सामाजिक मूल्यों के बीच भगवान महावीर की वाणी की भूमिका का प्रश्न है, आज के युग के लिये तो भगवान् महावीर की वाणी कल्पवृक्ष की भांति महत्वपूर्ण है । भगवान महावीर ने ऐसा कुछ भी नहीं कहा, जिसका सिर्फ तत्कालीन परिस्थितियों में ही महत्व हो, बल्कि उन्होंने जो कुछ भी कहा उसका महत्व सार्वकालिक है।
इसी कारण उनकी वाणी का और उनके कार्यों का युगों-युगों तक, असंख्य पीढ़ियों तक स्थायी महत्व है। जिस प्रकार हर अन्धकार के लिये प्रकाश का मूल्य सदैव एक समान होता है, ठीक उसी प्रकार आगे आने वाली पीढ़ियाँ जब भी अन्धकार के साये में ग्रस्त हो पड़ती हैं, इन महापुरुषों की दिव्य प्रभापूर्ण वाणियाँ ही, उनके लिये प्रकाशस्तंभ बनती हैं, उनका मार्ग प्रशस्त करती हैं।
आज के संत्रास, कुण्ठा एवं अगणित अभावों से ग्रस्त युग के बीच भगवान महावीर की वाणी का बड़ा ही महत्वपूर्ण स्थान है। आज की इस घुटन भरी परिस्थिति में भगवान महावीर की वाणी त्राण का अमोद्य अस्त्र है। अतः आज के युग के लिये यह नितान्त आवश्यक है कि यह भगवान महावीर की वाणियों को जीवन व्यवहार में अपनाकर विश्वबन्धुत्व वसुधैवकुटुम्बकम् एवं समता किंवा समाजवादी आदर्श सिद्धान्त को सफल बनाएँ। इसके बिना वर्तमान युग का कल्याण सम्भव नहीं।
२५००वा
महावीर
निर्वाण
महोत्सब
परस्परोपग्रहो जीवानाम्
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क्या महावीर का युग कभी लौटेगा ?
-डा० देवेन्द्र कुमार शास्त्री
भगवान महावीर दीर्घ तपस्वी थे । वे गौतम बुद्ध की भाँति मृदुमार्गी नहीं थे। उनका जीवन कोई समझौतावादी नहीं था । वे निर्भय और पूर्ण अहिंसक थे। चरित्र के अन्तिम उत्कर्ष वीतरागता को वे प्राप्त कर चुके थे। इसलिए उन्होंने अपने समय में प्रचलित सत्, असत् , अवक्तव्य, क्रिया, अक्रिया, नियति, यदृच्छा, काल आदि वादों का यथार्थज्ञान व धर्म का वास्तविक मार्ग लोगों को बताया । प्रत्येक विषय का ज्ञान उनकी वाणी से प्रस्फुटित हुआ। अवक्तव्य कह कर वे मौन नहीं हुए। अपनी प्रथम देशना में आत्मा का स्वरूप समझाते हुए उन्होंने बताया कि
"उन्नइ वा विमेइ वा धुवेइ वा" ।-स्थानांगसूत्र स्थान १०
-आत्मा उत्पन्न होती है, नष्ट होती है और मूल में ज्यों की त्यों कायम रहती है। परमार्थ से आत्मा नित्य व शाश्वत है, किन्तु सूक्ष्म तथा स्थूल शरीर की उपस्थिति में एवं संयोगीवान होने के कारण स्थल शरीर, पर्याय के नाश होने पर व्यय या परिवर्तन होने पर इसे नाशवान या अनित्य कहा जाता है। यह ठीक उसी प्रकार से हैं जैसे कि उत्प्रेरक (कैटेलिस्ट) अपनी उपस्थिति मात्र से, निजी कुछ भी खोये बिना अन्य पदार्थों में (सक्ष्म शरीरों में) परिवर्तन क्रिया उत्पन्न कर देते हैं । कभी यह क्रिया मन्द, मन्दतर और मन्दतम होती है और कभी तीव्र, तीव्रतर और तीव्रतम होती है। इन सभी प्रक्रियाओं में उत्प्रेरकों की रचना तथा गुणधर्मों में कोई परिवर्तन नहीं होता और न उनकी रासायनिक स्थिति में विशेष परिवर्तन होता है, जैसे कि ठोस न तो चूर्ण हो जाते हैं और न द्रव सघन हो जाते हैं ।
___ इस प्रकार आत्मा और जगत् के सम्बन्ध में पूर्व तीर्थकरों तथा भगवान महावीर का उपदेश परम वैज्ञानिक सत्य की भाँति कार्य-कारण, सत्-असत् आदि की विभिन्न अवस्थाओं को अनेकांत-धर्म के रूप में विवेचित करता है। एक ही वस्तु में "स्वभावी और वैभाविक" विरोधी अनेक धर्म रहते हैं । किन्तु हम अपनी इंद्रियों के द्वारा जिस समय उसमें शीतलता देखते हैं, उस समय उष्णता लक्षित नहीं होती और जिस समय उष्णता दिखायी पडती है उस समय शीतलता लक्षित नहीं होती। वास्तव में ये सभी पर्यायवान अवस्थाएं हैं। इनका विस्तृत और सक्ष्म विश्लेषण विज्ञान की अत्याधुनिक पद्धतियों के आधार पर किया जा सकता है । जब तक द्रव्य की इन सभी अवस्थाओं और स्थितियों का ठीक से अध्ययन और विश्लेषण न हो, तब तक जीव और जीव की संयोगी अवस्था का वास्तविक ज्ञान नहीं हो सकता है। किन्तु एक बार ठीक से सम्यक् विश्लेषण और अध्ययन होने के पश्चात जो विश्वास होगा, वह सम्यक श्रद्धान कहा जायेगा, जो धर्म की प्रथम भूमिका है। अतः एक धर्म को समझने में भौतिक विज्ञान भी हमारी सहायता कर सकता है।
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भारतीय वास्तु कला के विकास में जैनधर्म
का योगदान
-प्रो० कृष्णदत्त वाजपेयी
भारत में जैन धर्म के विकास की जानकारी के लिए प्राचीन जैन मन्दिरों तथा मूर्तियों का ज्ञान बहुत जरूरी है। जैन धर्भ के प्रसार के लिए यह आवश्यक था कि देश के विभिन्न भागों में मन्दिरों तथा मूर्तियों का निर्माण किया जाता। उनके माध्यम से जैनधर्भ को जनसाधारण में फैलाने में बड़ी सहायता मिली। भारतीय ललित कला के इतिहास पर भी जैन स्मारकों तथा कलाकृतियों से बड़ा प्रकाश पड़ा है।
जैनधर्भ के अन्तिम तीर्थंकर महावीरस्वामी थे। उनकी तथा उनके पहले के अनेक तीर्थंकरों की जन्मभूमि तथा कार्यक्षेत्र होने का गौरव बिहार के मगध प्रदेश को प्राप्त हुआ। वैदिक धर्भ की मान्यताओं के प्रति अनास्था का बीजारोपण भारत में मुख्यतः मगध में हुआ। उस क्षेत्र में जैन, बौद्ध, आजीविक आदि अनेक संप्रदायों का उदय तथा विकास हुआ। पाटलिपुत्र, राजगृह तथा उसके आस-पास का भूभाग इस दृष्टि से विशेष उल्लेखनीय है । धीरे-धीरे जैन तथा बौद्ध विचारधाराओं ने सुसंगठित धर्मों का रूप प्राप्त कर लिया और उनका व्यापक प्रसार मगध के बाहर भी हुआ ।
भारतीय स्थापत्य का ऐतिहासिक विवेचन करने से ज्ञात होता है कि जैन देवालयों का निर्माण मौर्य शासनकाल में होने लगा था। बिहार में गया के समीप बराबर नामक पर्वत-गुफाओं में कई शिलालेख मिले हैं। उनसे ज्ञात हुआ है कि मौर्य सम्राट अशोक ने आजीविक सम्प्रदाय के सन्यासियों के लिए शैलगृहों का निर्माण कराया। उसके वंशज दशरथ नामक शासक ने भी इस कार्य को आगे बढ़ाया । आजीविक सम्प्रदाय के प्रारम्भ कर्ता आचार्य, तीर्थंकर महावीर के समकालीन थे। बराबर पहाड़ी से कुछ दूर नागार्जुनी नामक पहाड़ी है। वहां भी मौर्यकाल में साधुओं के निवास के लिए कई शैलगृह बनाये गये । भारतीय साहित्य में पर्णशालाओं के उल्लेख मिलते हैं । उन्हीं के ढंग पर इन शैल गृहों का निर्माण किया गया । जैन साधुओं के लिए शैलगृह बनाने के उदाहरण तमिलनाडु में भी किले हैं।
ईसवी पूर्व दूसरी और पहली शती में उड़ीसा तथा पश्चिमी भारत में पर्वतों को काटकर देवालय बनाने की परम्परा विकसित हुई । उड़ीसा में भुवनेश्वर के समीप कई बड़ी गुफाएं पत्थर की चट्टानों को काटकर बनाई गई। यहां खण्डगिरि तथा उदयगिरि नामक जैन गुफाएं बहुत प्रसिद्ध है। तीसरी गुफा का नाम हाथीगुंफा है।
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-उसमें कलिंग के जैन शासक खारवेल का एक शिलालेख खुदा हुआ है। लेख से ज्ञात हुआ है कि ईसवीपूर्व चौथी शती में मगध के राजा महापद्मनन्द तीर्थंकर की एक मूर्ति कलिंग से अपनी राजधानी पाटलिपुत्र उठा ले गये थे। खारवेल ने ईसवी पूर्व दूसरी शती के मध्य में उस प्रतिमा को मगध से अपने राज्य में लौटाकर पुनः प्रतिष्ठापित किया। इस शिलालेख से पता चलता है कि तीर्थंकर मूर्तियों का निर्माण नंदराज महापद्मनन्द के पहले प्रारम्भ हो चुका था। जैन साहित्यिक अनुभूति से भी पता चलता है कि चन्दन की तीर्थकर मूर्तियां भगवान महावीर के समय से या उनके निर्वाण के पश्चात् ही बनने लगी थीं ।
उत्तर भारत में जैन कला के जितने प्राचीन केन्द्र थे उनमें मथुरा का स्थान महत्वपूर्ण है । मौर्यकाल से लेकर आगामी लगभग सोलह शताब्दियों से ऊपर के दीर्घकाल में मथुरा में जैनधर्म का विकास होता रहा। वहां के चित्तीदार लाल बलुए पत्थर की बनी हुई कई हजार जैन कलाकृतियां अब मथुरा और उसके आसपास के जिलों से प्राप्त हो चुकी हैं। इनमें तीर्थकर प्रतिमाओं के अतिरिक्त चौकोर 'आयागपट', वेदिका स्तम्भ सूची, तोरण तथा द्वार स्तम्भ आदि हैं । मथुरा के जैन आयागपट ( पूजा के शिलाखण्ड) विशेषरूप से उल्लेखनीय हैं । उन पर प्रायः बीच में तीर्थंकर मूर्ति तथा उसके चारों ओर विविध प्रकार के मनोहर अलंकरण मिलते हैं। स्वस्तिक, नन्दयावर्त, धर्ममानक्य, श्रीवत्स, भद्रासन, दर्पण, कलश और मीन युगल इन अष्टमंगल द्रव्यों का आयागपट्टों पर सुन्दरता के साथ चित्रण किया गया है। एक आयागपट्ट पर आठ दिक्कुमारियां एक-दूसरे का हाथ पकड़े हुए आकर्षक ढंग से मण्डल नृत्य में संलग्न दिखाई गई हैं। मण्डल या 'चक्रवाल' अभिनय का उल्लेख 'रायपसेनियसूत' नामक जैन ग्रंथ में भी मिलता है। एक दूसरे आयागपट्ट पर तोरणद्वार तथा वेदिका का अत्यन्त सुन्दर अंकन है। वास्तव में वे आयागपट्ट प्राचीन जैन कला के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। इनमें से अधिकांश अभिलिखित हैं, उन पर ब्राह्मी लिपि में लगभग ई० पू० एक सौ से लेकर ईसवी प्रथम शती के मध्य तक के लेख हैं ।
पश्चिमी भारत, मध्य भारत तथा दक्षिण में पर्वतों को काटकर जैन देवालय बनाने की परम्परा दीर्घ काल तक मिलती है। विदिशा के समीप उदयगिरि की पहाड़ी में दो जैन गुफाएं हैं। संख्या एक की गुफा में गुप्तकालीन जैन मन्दिर के अवशेष उपलब्ध हैं। उदयगिरि की संख्या २० बाली गुफा भी जैन मन्दिर है उसमें गुप्तसम्राट कुमारगुप्त प्रथम के समय में निर्मित कलापूर्ण तीर्थंकर प्रतिमा मिली है ।
गुजरात, महाराष्ट्र तथा कर्नाटक में पर्वतों को काटकर बनाये गये अनेक मन्दिर विद्यमान हैं। बादामी के चालुक्य राजवंश तथा मान्यखेट के राष्ट्रकूट राजवंश के शासनकाल में शिलाओं को काटकर मन्दिर स्थापत्य बनाने की परम्परा बहुत विकसित हुई ईसवी ५५० और ८०० के मध्य में कर्नाटक में बादामी, पट्टदकल तथा ऐहोले में अनेक जैन मन्दिरों का निर्माण हुआ। इनमें से कई मन्दिर शिलाओं को काटकर बनाये गये। शेष समतल भूमि पर पत्थरों द्वारा बनाये गये भारतीय स्थापत्य कला के विकास के अध्ययन हेतु कर्नाटक के इन मन्दिरों का विशेष महत्व है । उत्तर भारत में 'नागर शैली' के मन्दिर बनाये जाते थे, जिनका मुख्य लक्षण ऊंचा शिखर था । चालुक्यों के समय में कर्नाटक के अनेक मन्दिर 'बेसर शैली' के बनाये गये इस शैली की विशेषता यह है कि उसमें उत्तर भारत की शिखर प्रणाली तथा दक्षिण की विमान शैली का सम्मिश्रण है ।
दक्षिण भारत का मन्दिर वास्तु 'द्रविड़ शैली' के नाम से प्रसिद्ध हैं। चालुक्यों के समय में कर्नाटक में निर्मित अनेक मन्दिरों में द्रविड़ स्थापत्य का रूप मिलता है। बादामी पर्वत को काटकर बनाया गया एक विशाल जौन मन्दिर उल्लेखनीय है । इस मन्दिर में विभिन्न अलंकरणों को तथा जैन देवी देवताओं की प्रतिमाओं को प्रभाव
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पूर्ण ढंग से प्रदर्शित किया गया है। बादामी तथा पट्टदकल के अनेक जैन मन्दिर अठपहल शीर्ष वाले हैं । द्रविड़ स्थापत्य की यह एक विशेषता है । कर्णाटक के कुछ मन्दिरों में नागर-शैली वाले उच्च शिखर हैं। ऐहोले में एक मन्दिर में भारत की तीनों मन्दिर शैलियों का समन्वय दृष्टिगोचर है।
राष्ट्रकूटों के शासनकाल में ऐलोरा का प्रख्यात् शिवमन्दिर एक विशाल पर्वत को काटकर बनाया गया है। इस मन्दिर का अलंकरण तथा मूर्तिविधान अत्यन्त कलापूर्ण है। इस मन्दिर के अनुकरण पर ऐलोरा में कई
जैन मन्दिरों का निर्माण किया गया। वहां इंद्रसभा नामक जैन प्रासाद विशेषरूप से उल्लेखनीय है। निर्माण लगभग ८०० ईसवी में हुआ। चट्टान को काटकर बनाए गये दरवाजे से इस प्रासाद में प्रवेश करते हैं। प्रासाद का प्रांगण ५० फुट वर्गाकार है। प्रांगण के मध्य में एकाश्म या इकहरे पत्थर का बना हुआ द्रविड़ शैली का मन्दिर है। पास में ऊंचा 'ध्वज-स्तम्भ' है । जैन मन्दिर में ध्वज-स्तम्भ बनाने की परम्परा दीर्घकाल तक मिलती है। उत्तर तथा दक्षिण भारत के मन्दिरों में इस प्रकार के ध्वज-स्तम्भ दर्शनीय हैं । कतिपय ध्वज-स्तम्भों को चांदी या सोने से मढ़ दिया जाता था।
जैन मन्दिर स्थापत्य का दूसरा रूप 'भूमिज मन्दिरों' में मिलता है। इन मन्दिरों का निर्माण प्रायः समतल भूमि पर पत्थर और ईंटों द्वारा किया जाता था। उत्तर प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, बंगाल और मध्य प्रदेश में समतल भूमि पर बनाये गये जैन मन्दिरों की संख्या बहुत बड़ी है। कभी-कभी ये मन्दिर जैन स्तूपों के साथ बनाये जाते थे।
जैन स्तूपों के सम्बन्ध में प्रचुर साहित्यिक तथा अभिलेखीय प्रमाण उपलब्ध हैं। उनसे ज्ञात होता है कि अनेक प्रचीन स्थलों पर उनका निर्माण हुआ। मथुरा, कौशाम्बी आदि कई स्थानों में प्रचीन जैन स्तूपों के भी अवशेष मिले हैं। उनसे यह बात स्पष्ट है कि इन स्तूपों का निर्माण ईसवी पूर्व दूसरी शती से व्यवस्थित रूप में होने लगा था। प्रारम्भिक स्तूप अर्धवृत्ताकार होते थे। उनके चारों ओर पत्थर का बाड़ा बनाया जाता था। उसे 'वेदिका' कहते थे । वेदिका के स्तम्भों पर आकर्षण मुद्राओं में स्त्रियों की मूर्तियों को विशेष रूप से अंकित करना प्रशस्त माना जाता था । गुप्त-काल से जैन स्तूपों का आकार लम्बोतरा होता गया । बौद्ध स्तूपों की तरह जैन स्तूप भी परवर्तीकाल में अधिक ऊंचे आकार के बनाये जाने लगे।
___ मध्यकाल मैं जैन मन्दिरों का निर्माण व्यापक रूप में होने लगा। भारत के सभी भागों में विविध प्रतिमाओं से अलंकृत जैन मन्दिरों का निर्माण हआ। इस कार्य में विभिन्न राजवंशों के अतिरिक्त व्यापारी वर्ग तथा जनसाधारण ने भी प्रभूत योग दिया।
चन्देलों के समय में खजुराहो में निर्मित जैन मन्दिर प्रसिद्ध हैं। इन मन्दिरों के बहिर्भाग एक विशिष्ट शैली में उकेरे गये हैं। मन्दिरों के बाहरी भागों पर समान्तर अलंकरण पट्टिकाएं उत्खचित हैं। उनमें देवी-देवताओं तथा मानव और प्रकृतिजगत को अत्यन्त सजीवता के साथ आलेखित किया गया है। खजुराहों के जैन मन्दिरों में पार्श्वनाथ मन्दिर अत्यधिक विशाल है। उसकी ऊंचाई ६८ फुट है । मन्दिर के भीतर का भाग महामन्डप, अन्तराल तथा गर्भगृह-इन तीन मुख्य भागों में विभक्त है। उनके चारों ओर प्रदक्षिणा-मार्ग है। इस मन्दिर की छत का कटाव विशेष कलात्मक है और खजुराहों के स्थापत्य विशेषज्ञों की दक्षता का परिचायक है। मन्दिर के प्रवेशद्वार पर गरुड पर दसभुजी जैन देवी आरूढ़ हैं । गर्भगृह की द्वारशाखा पर पद्मासन तथा खड्गासन में तीर्थंकरों की प्रतिमाएं उकेरी गयी हैं । खजुराहों के इन मन्दिरों में विविध आकर्षक मुद्राओं में सुर-सुन्दरियों या अप्सराओं की भी
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मूर्तियां उत्कीर्ण हैं । इन मूर्तियों में देवांगनाओं के अंग प्रत्यंगों के चारु - विन्यास तथा उनकी भावभंगिमाएं विशेषरूप से दर्शनीय हैं । खजुराहो का दूसरा मुख्य जैन मन्दिर आदिनाथ का है । इसका स्थापत्य पार्श्वनाथ मन्दिर के समान है ।
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विदिशा जिले के ग्यारसपुर नामक स्थान में मालादेवी मन्दिर है । उसके बहिर्भाग की सज्जा तथा गर्भगृह की विशाल प्रतिमाएं कलात्मक अभिरुचि की द्योतक हैं। मध्य भारत में मध्यकाल में ग्वालियर, देवगढ़, चन्देरी, अजयगढ़, अहार आदि स्थानों में स्थापत्य तथा मूर्तिकला का प्रचुर विकास हुआ।
राजस्थान में ओसिया, राणकपुर, सादरी, आबू पर्वत आदि अनेक स्थानों में जैन स्थापत्य के अनेक उत्तम उदाहरण विद्यमान हैं। उनमें भव्यता के साथ कलात्मक अभिरुचि का सामंजस्य है । आबू पर्वत के जैन स्मारकों में संगमर्मर का अत्यन्त बारीक कटाव दृष्टव्य है । उत्तर मध्यकालीन भारतीय स्थापत्य का रोचक स्वरूप यहां देखने को मिलता है ।
गुजरात, कर्नाटक तथा आंध्र प्रदेश के अनेक भागों में मध्यकालीन जैन स्थापत्य का विकास द्रष्टव्य है । दक्षिण में विजयनगर राज्य के समय तक स्थापत्य और मूर्तिकला का विकास साथ-साथ होता रहा ।
जैन स्थापत्य कला का प्राचुर्य 'देवालय - नगरों में देखने को मिलता है । ऐसे स्थलों पर सैकड़ों मन्दिर पास-पास बने हुए हैं ।
गिरनार, शत्रुंजय, आबू, पपौरा, अहार, थूबोन, कुण्डलपुर, सोनागिरि आदि अनेक स्थलों पर जैन मन्दिर नगर विद्यमान हैं। ऐसे मन्दिर-नगरों के लिए पर्वत श्रृंखलाए विशेष रूप से चुनी गयीं ।
आधुनिक युग में जैन स्थापत्य की परम्परा जारी मिलती है। वास्तु के अनेक प्राचीन लक्षणों को आधुनिक कला में भी हम रूपायित पाते हैं । भारतीय संस्कृति तथा ललितकलाओं के इतिहास के अध्ययन में जैन स्थापत्य कला का निस्संदेह महत्वपूर्ण स्थान है ।
भगवान
२५००८
महावीर
वां
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निर्वाण
परस्परोपग्रहो जीवानाम
महोत्सव
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आगलागी
जवावधान
की
'पूर्णभद्र' शैली का दि. जैन मंदिर (७वीं-८वीं शती ई०), देवगढ़
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खण्ड-५०
शाकाहार
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१
शाकाहार बनाम मांसाहार
२
शाकाहार-तन्त्र
३ प्राकृतिक भोजन : शाकाहार
४ वास्तविक दया और अहिंसा ही शाकाहार का
सही आधार
शाकाहारी सिद्धान्त के विभिन्न पक्ष
मैं शाकाहारी क्यों हुआ ?
७ मांसाहार : अनिवार्यता जैसी कोई बात नहीं
८
वैज्ञानिक दृष्टि से हमारा आहार
मांसाहार त्याग का सामाजिक मूल्य
५
६
क्या कहाँ है ?
११
१२
१० मांसाहार का दुष्परिणाम
मछली व मांस में विष
मांस भक्षण से हड्डियाँ कमजोर होती हैं।
१३ अण्डे कितने घातक, कितने भयानक १४ मांसाहार निषेधक विश्व-मनीषा १५ शाकाहारी सिद्धान्त का इतिहास १६ पश्चिमी देशों में शाकाहार प्रचार करने
वाली प्रमुख संस्थाएं
१७ संसार के विभिन्न देशों में शाकाहार प्रचार १८ तालिकाएं :
१ - शाकाहार एवं मांसाहार के पौष्टिक तत्वों
की तुलनात्मक तालिका
(अ) शाकाहारी खाद्य
(ब) मांसाहारी खाद्य
२ - भारतवासियों के लिए विभिन्न पौष्टिक
तत्वों की दैनिक आवश्यकता
३ - संतुलित भोजन
( अ ) वयस्क पुरुष का संतुलित भोजन
( ब ) वयस्क स्त्री का संतुलित भोजन
( स ) किशोरावस्था वाले लड़के व लड़कियों का संतुलित भोजन
***
(द) बच्चों के लिए संतुलित भोजन
४ - संतुलित भोजन, खाद्य पदार्थों का प्रति
स संविभाग
...
डा० ज्योति प्रसाद जैन
डा० इन्दुभूषण जिंदल, एम. बी. बी. एस.
श्री प्रताप चन्द्र जैन
कविराज पं. शिव शर्मा डा. जे. एम. जस्सावाला महामहिम दलाई लामा श्री रामेश्वरः दयाल दुबे
श्री जवाहर लाल लोढा मिस कैथरीन हिलमैन
डा. मोहन बोरा
डा. एलेग्जेंडर हेग
ज्योफ्री एल. रूड
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२८
२८
२८
३१
३८
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४०
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४६
५०
५१
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शाकाहार बनाम मांसाहार मांसाहार त्याग के विभिन्न आधार
मांसाहार के लिये मनुष्य के पास कोई आधार नहीं है। मांसाहार एक अलाभकारी उपक्रम है । ऐसे निराधार उपक्रम के प्रति आखिर किसी का आग्रह क्यों ?
-डा० ज्योति प्रसाद जैन
संसार में जितने भी देहधारी प्राणी हैं, मनुष्य ही नहीं पशु-पक्षी, छोटे-मोटे जीव-जन्तु कीड़े-मकोड़े तक, सुख-शांति चाहते हैं, दुःख से घबराते हैं, सभी जीना चाहते हैं और प्राण रक्षा या जीवन संरक्षण के लिए प्रयत्नशील रहते हैं । इस प्रयत्न में वे आहार, भय, मेंथुन और परिग्रह नामक चार सहज-संज्ञाओं से सतत प्रेरित रहते हैं । इनमें सर्वप्रथम एवं प्रधान संज्ञा आहार है जो भूख और प्यास की बाधाओं को दूर करने के लिए किया जाता है । प्राणी सब कुछ सहन कर सकता है, बड़े से बड़ा कष्ट, अभाव, संकट और आपत्ति - विपत्ति का सामना कर सकता है, किन्तु भूखा और प्यासा रहकर जीवित नहीं रह सकता । भूखा और प्यासा रहने की सीमाएँ और कालावधियाँ व्यक्ति-व्यक्ति और प्राणी प्राणी के साथ अल्पाधिक हो सकती हैं और इन बाधाओं को शान्त करने के लिए ग्रहण की गई सामग्री की मात्रा, रूप और प्रकार भी भिन्न-भिन्न हो सकते हैं, परन्तु ऐसा कोई प्राणी नहीं जो भूखा-प्यासा रहकर जीवित रह सके । अतएव उपयुक्त भोजन और जल जीवन एवं प्राणों के संरक्षण के लिए अनिवार्य हैं । जन सामान्य की तो बात ही क्या, ऐसे गृह एवं आरम्भ-परिग्रह त्यागी तपस्वी साधुसंन्यासी भी, जिनका एकमात्र उद्देश्य धर्मसाधन है, शरीर का संरक्षण करते ही हैं, क्योंकि धर्मसाधन का मूलाधार भी तो शरीर ही है, और शरीरको सक्षम बनाए रखने के लिए उपयुक्त आहार का ग्रहण करना अत्यन्त
आवश्यक 1
प्रश्न यह होता है कि मनुष्य की उस प्राकृतिक क्षुधा तृषा की तुष्टि और उसके शरीर का आवश्यक संरक्षण-पोषण किस रूप में हो - उसका, खान-पान क्या और कैसा हो ? इस सम्बन्ध में प्राकृतिक चिकित्साशास्त्रीय, आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक और नैतिक, विविध दृष्टियों से विचार किया जा सकता है ।
मनुष्य शरीर की संरचना, उसके मुँह, दातों, हाथ की अंगुलियों एवं नखों और पाचन तन्त्र की बनावट के आधार पर प्रसिद्ध शरीर रचना शास्त्री एवं वैज्ञानिक मनुष्य को तृण-कुशाचारी पशुओं की भाँति वनस्पत्याहारी अथवा शाकाहारी (फगीवोरस) प्राणियों में परिगणित करते हैं, मांसाहारी ( कार्नीवोरस) प्राणियों में नहीं । किंग्सफोर्ड, पौशेट, वैश्न, कुवियर, लिन्नयस, लारेन्स, लंकास्टर प्रभृति अनेक पाश्चात्य विशेषज्ञों का मत है कि मात्र शाकाहार ही मनुष्य की प्रकृति और उसके शरीर तंत्र की भीतरी एवं बाहरी संरचना के सर्वथा अनुकूल है । इसके विपरीत, मांसाहार मनुष्य प्रकृति के प्रतिकूल है, उसके द्वारा कुछ अंशों में वह अपनी शारीरिक एवं मानसिक
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शक्तियों के संरक्षण में भले ही समर्थ हो जाये, किन्तु मांसाहार उसके शरीर, मन और आत्मा के स्वास्थ्य के लिए हानिप्रद ही सिद्ध होता है। डॉ० अलेक्जेंडर हेग के अनुसार जबकि भेड़िया, चीता, सिंह आदि मांसाहारी पशुओं का पाचनतंत्र मांसाहार को पचाकर विषाक्त द्रव्यों को शरीर से निष्कासित करने की क्षमता रखता है, मनुष्य का पाचनतंत्र वैसा नहीं करसकता, न वह उस प्रकार मांस भोजन को उपयुक्त रस-रक्त आदि सप्त-धातुओं में भली प्रकार परिवर्तित कर सकता है।
इसके अतिरिक्त मांसाहार के फलस्वरूप मनुष्य अनेक आसाध्य रोगों का शिकार हो जाता है। प्रथम तो भोज्य मांस प्राप्ति के निमित्य बूचड़खानों में जिन पशुओं का. वध किया जाता है, उनमें आधे से अधिक यक्ष्मा आदि अनेक रोगों से ग्रस्त होते हैं और उक्त मांस में उन रोगों के जीवाणु रहते हैं, जो मनुष्य शरीर को भी उनसे ग्रस्त कर देते हैं। यह एक तथ्य है कि बूचड़खानों में यदि ऐसे रोगी पशुओं के 'वध पर रोक लगा दी जाय तो अधिकांश बूचड़खाने बन्द ही करने पड़ जायें। कसाईयों की दुकान पर रखा हुआ मांस भी बहुधा दूषित और विकृत हो जाता है, और यह बात उसे देखकर जानी नहीं जा सकती। अनेक चिकित्सा-शास्त्रियों के मतानुसार गठिया, कैन्सर, पक्षावात, राजयक्ष्मा, मृगी, रक्ताम्ल, कुष्ठ, इनफ्लुएंजा आदि कितने ही भयंकर रोगों का कारण मांसाहार है-कम से कम शाकाहारियों की अपेक्षा मांसाहारियों को वे शीघ्र ही पकड़ते हैं और अधिक सताते हैं। प्रत्यूत इसके, फलशाक आदि वनस्पत्याहार से ये रोग शीघ्र ही दूर हो सकते हैं।
बहधा यह कहा जाता है कि शाकाहारियों की अपेक्षा मांसाहारियों में शारीरिक बल और साहस अधिक होता है, किंतु जैसा कि प्रो० लारेन्स का कहना है, शाकाहार साथ शारीरिक दौर्बल्य एवं कायरता का उतना ही कम सम्बन्ध है, जितना कि मांसाहार के साथ शारीरिक के बल और साहस का । वस्तुत: शाकाहारी की अपेक्षा मांसाहारी में सहन शक्ति, शौर्य और साहस कहीं अधिक कम होता है। पशु जगत में हाथी, दरियाई घोड़ा, घोड़ा, ऊँट, गेंडा, वृषभ, महिष आदि शक्तिशाली एवं दीर्घजीवी पशु शुद्ध शाकाहारी ही होते हैं ।
आर्थिक दृष्टि से मांसाहार की अपेक्षा शाकाहार अधिक सहज सुलभ, सस्ता एवं प्रचुर होता है, और वह रचनात्मक उत्पादन का परिणाम होता है। मनुष्य जाति का अधिकांश भाग कृषि उद्योग में ही लगा है। प्रत्येक वर्ष विभिन्न ऋतुओं में माँ धरती विविध अन्न, फल, शाक, सब्जी आदि इतनी प्रचुर मात्रा में प्रदान करती है. और कहीं अधिक उत्पन्न करने की क्षमता रखती है कि मनुष्य की आवश्यकताओं की निर्बाध पूति हो सकती है। इसके अतिरिक्त दुधारू पशुओं के संरक्षण से इतना अधिक दुग्ध एवं दुग्ध से बने दही, छाछ, नवनीत, पनीर, खोआ, घत आदि पदार्थ उपलब्ध होते हैं या हो सकते हैं कि शुद्ध शाकाहार या फलाहार: में जिन प्रोटीन, वसा आदि अन्य पोषक तत्त्वों की कमी रहती है उनकी भी सहज पूर्ति हो जाये।
सामाजिक दृष्टि से देखें तो युद्ध, कलह, रक्तपात एवं भीषण अपराध शाकाहारियों की अपेक्षा मांसाहारियों में अधिक पाये जाते हैं । मांसाहारी व्यक्ति शीघ्र ही उत्तेजित हो जाता है। जबकि शाकाहारी औसतन शान्तिप्रिय होता है। मांसाहार के साथ मद्यपान प्राय: अविनाभावी रूप से पाया जाता है, और मद्यमांस के सेवन करनेवालों का विषय सेवन एवं ऐयाशी की ओर अधिक झुकाव देखा जाता है। फलस्वरूप अनेक लैंगिक या यौन अपराधों एवं रोगों की वृद्धि होती है । बहुधा मांसाहार के लिए ही निरीह पशुओं का शिकार किया जाता है, जिसके परिणामस्वरूप अदया एवं क्रूरता की प्रवृत्ति को तो प्रोत्साहन मिलता ही है, अनेक पशु-पक्षी जातियां सर्वथा समाप्त होती जा रही हैं। अतएव सामाजिक सुख-शान्ति एवं व्यवस्था की दष्टि से भी मांसाहार वर्जनीय है।
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धार्मिक दृष्टि से, संसार का कोई धर्म या धर्मोपदेष्टा ऐसा नहीं हुआ, जिसने प्राणियों का वध करके उनका मांस खाने का खुला प्रचार किया हो, वरन् प्रायः सबने ही जीव-दया का उपदेश दिया और मांसाहार प्रवृत्ति को हतोत्साहित किया। प्राचीन यूनान में महान दार्शनिक पाईथेगोरस तथा तत्कालीन स्टोइक सम्प्रदाय के अनुयायी शुद्ध शाकाहारी थे और मांसाहार का सर्वथा निषेध करते थे । यही महावीर और बुद्ध का युग था। प्रायः उसी काल में ईरान के जरथुश्त और चीन के कनफ्यूशस एवं लाओत्से ने जीवदया का प्रचार किया। ईसामसीह की पांचवीं आज्ञा थी कि किसी प्राणी की हत्या न करो' 'ईसाईयों की जिनेसिस में भी परमेश्वर की ओर से यह कहा गया है कि 'कन्दमूल, बीज, फल, शाक आदि पदार्थ खाओ, वही तुम्हारे लिए मांस का काम देंगे।' हजरत मुहम्मद ने भी जीवदया का उपदेश दिया। उनके पवित्र मक्का स्थित काबे के चारों ओर कई मील की परिधि में किसी भी पशु-पक्षी की हत्या नहीं की जाती और हजकाल में प्रत्येक हाजी मद्यमांस का सर्वथा त्यागी रहता है। मुगल सम्राट अकबर ने स्वयं तो मांसाहार का त्याग कर ही दिया था, अपने दीने-इलाही में भी मांसाहार को हतोत्साहित किया। गुरू नानक के अनुयायी सिक्ख प्रायः मांसभोजी हैं, किन्तु गुरु महाराज ने गुरुग्रन्थ-साहिब में स्थान-स्थान पर उसका निषेध किया और एक स्थल पर तो लिखा है कि 'जो व्यक्ति मांस, मछली और शराब सेवन का करते हैं, उनके धर्म, कर्म, जप, तप सब कुछ नष्ट हो जाते हैं।"
प्राचीन वैदिकधर्म में याज्ञिक हिंसा चलती थी और वैदिक आर्य उन्मुक्त मांसभोजी थे, ऐसा कहा जाता है। किंतु उसी परम्परा की आत्मविाद्यवादी उपनिषदों, व्यासकृत महाभारत और मनुस्मृति में मांसाहार की निंदा एवं निषेध किया गया है। आगे चल कर श्रीशैव, वैष्णव, लिंगायत इत्यादि अनेक सम्प्रदायों में भी शुद्ध शाकाहार का प्रचलन हुआ । वर्तमान हिन्दू समुदाय में जो व्यक्ति धर्म, समाज, जाति या प्रथा की आड़ लेकर मद्य मांस का सेवन करते भी हैं वे भी प्रायः गुपचुप ही करते हैं. खुले आम उसका अनुमोदन करने में वे भी बहुधा संकोच करते हैं। महात्मा बुद्ध तो दयामूर्ति थे, उन्होंने तो अहिंसा और शाकाहार का ही उपदेश दिया था। किंतु, उनके अनुयायियों ने उनके कतिपय संदिग्ध कथनों की अपने मनोनुकूल व्याख्या करके मांसाहार का प्रचलन कर लिया, यहाँ तक कि उस महापुरुष पर भी मांसाहार का मिथ्या आरोप लगा डाला।
जैनधर्म एक ऐसा धर्म है जो अपने इतिहास के प्रारम्भ से ही अहिंसा प्राधान है । उसका सम्पूर्ण आचारविचार अहिंसा की धुरी पर ही घूमता है। जैनी होने की पहली शर्त यह है कि मांस और मद्य का सर्वथा त्यागी हो। इस विषय में किसी अपवाद की इस परम्परा में कोई गंजाइश ही नहीं है । धर्म का लक्षण ही वस्तु-स्वभाव है, अर्थात् आत्मा का स्वभाव ही उसका धर्म है और वह है अहिंसा-सर्वप्रकार की हिंसा से विरति । उस अहिंसक आत्मस्वभाव के साधन का मार्ग संयम है, जो प्राणिसंयम और इन्द्रियसंयम के रूप में द्विविध है। अपनी मानसिक, वाचनिक एवं कायिक सभी प्रवृत्तियों पर, इन्द्रियों पर और इच्छाओं पर नियंत्रण रखना तथा संयमित-नियमित जीवन व्यतीत करना संयम है। और प्रत्येक प्राणी के प्रति इस प्रकार यत्नाचारपूर्वक बर्तना कि उसे किसी प्रकार का मानसिक अथवा शारीरिक कष्ट या पीड़ा न हो, प्राणीसंयम है। अतएव सर्वप्रकार का अभक्ष्य-भक्षण वजित है । अभक्ष्यों में सभी अनुपसेव्य (मल, मूत्र, मिट्टी आदि), अनिष्ट (विष एवं विषाक्त तथा अपनी प्रकृति के प्रतिकूल पदार्थ), वसघात (त्रसजीवों की हत्या से प्राप्त रक्त-मांस, मछली, अण्डे आदि) तथा बहुघात (ऐसी वनस्पति भी जिनमें बहुत से सूक्ष्म जीवों का घात हो) का सेवन निषिद्ध है । सामान्यतया तामसिक एवं राजसिक पदार्थों का भी निषेध है । शुद्ध, स्वच्छ, स्वास्थ्यकर, सात्विक अन्न, फल , शाक, मेवे, दुग्ध एवं शुद्ध निर्मल जल के सेवन का ही विधान है । ऐसे उत्तम भाजन-पान से ही शरीर का स्वास्थ्य, चित्त की प्रसन्नता, बुद्धि की निर्मलता एवं अत्मिक जागरूकता सधते हैं। "जीवो जीवस्य भोजनम" की दलील देने वालों को तीर्थंकरों का उत्तर है। 'परस्परोपगृहोजीवानाम्' ।
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भौतिकता और मानवीयता की दृष्टि से भी जीबदवा एवं मूक पशुपक्षियों के प्रति करुणा भाव को सभी चिन्तक एवं विचारक स्तुत्य घोषित करते हैं। जैनों का तो यह धर्म ही है, जो उनके विचार एवं आचार में प्रत्यक्ष होता है-यदि कहीं ऐसा नहीं होता तो वह जैन कहलाने का अधिकारी नहीं है। जैनों के अतिरिक्त, भारतवर्ष में तथा यूरोप, अमरीका आदि अनेक पश्चिमी देशों में भी कई सशक्त संगठन जीवदया, पशुवर्ग व रुग्णों के प्रति करुणा पूर्ण बर्ताव और शाकाहार का विधिवत-व्यवस्थित प्रचार करते हैं। १९५७ में भारत में एक विश्व-शाकाहार सम्मे-- लन हुआ था जिसके अधिवेशन बम्बई, दिल्ली, वाराणसी, पटना आदि कई नगरों में हुए थे। जनवरी १९६४ में शाकाहार एवं जीवदया सम्बन्धी भारतीय संगठनों ने मिलकर बम्बई में प्रथम राष्ट्रीय शाकाहार सम्मेलन संयोजित किया था। गत १६ अगस्त १९७५ को उत्तरी अमरीका के ओरोनो प्रदेश के मुन विश्वविद्यालय में २३ वां विश्वशाकाहार सम्मेलन हआ था, जिसमें विभिन्न देशों के शाकाहारी संगठनों के लगभग १५०० प्रतिनिधियों ने भाग लिया था। उत्तरी अमरीका में इस प्रकार का यह प्रथम सम्मेलन था, जो पर्याप्त सफल रहा । वैज्ञानिक प्रयोगों के निमित्त पशु-पक्षी आदि की चीर-फाड़ करने के विरुद्ध भी पश्चिमी देशों में जोरदार आन्दोलन चल रहा है। ली और गुडमेन नाम के उस आन्दोलन के दो नेताओं को तो पशुओं की उक्त स्थूल एवं इरादतन की जाने वाली निर्दयतापूर्ण हिंसा से रक्षा करने के अपराध के लिए इंग्लैंड में अभी हाल में तीन-तीन वर्ष की सख्त कैद की सजा दी गई है, किन्तु जनमत उनके पक्ष में तेजी से बढ़ रहा है। इसमें सन्देह नहीं है कि दिन-प्रतिदिन शाकाहार के पक्ष में विश्व-मानव की रुचि और मत वृद्धिगत होता जा रहा है। एक आधुनिक जर्मन महिला ने १९३३ में स्व० चम्पतराय जी बैरिष्टर की प्रेरणा से मांसाहार का त्याग कर दिया था। उसके लगभग बीस वर्ष पश्चात् उसने अपने अनुभव के आधार पर लिखा था कि यदि कोई व्यति केवल एक वर्ष के लिए ही सब प्रकार के मांस, मछली, अण्डे आदि के भक्षण का त्याग कर दे और उसके फलस्वरूप अपने स्वभाव, भावनाओं, स्वास्थ्य, बौद्धिक तीक्ष्णता तथा शुद्धि-स्वच्छता के सामान्य भाव में कितना अन्तर पड़ गया है, यह देखे तो फिर वह कभी मांसाहार का नाम भी न लेगा।
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* शाकाहार तन्त्र
-डा० इन्दु भूषण जिन्दल, ___डी० पी० एच०, एम० एस० सी०, राज्य पोषण अधिकारी, उ० प्र०
भोजन सब जीवित प्राणियों के लिए आवश्यक है और इसको प्राप्त करने के लिए हरेक प्राणी भरसक प्रयत्न करता है। पेड़ पौधे अपना भोजन मामूली रासायनिक तत्त्वों से प्राप्त कर लेते हैं, जो कि उन्हें जमीन पानी और वायु मण्डल की कार्बन डाई आक्साइड से प्राप्त हो जाता है। मानव और पशुओं में यह क्षमता नहीं होती कि वह साधारण रसायनिक तत्त्वो से भोजन प्राप्त करलें, इसीलिए उनको पेड़ पौधों या अन्य पशुओं से भोजन प्राप्त करना होता है।
मानव शरीर के निर्माण के लिए निम्नलिखित पौष्टिक तत्त्व आवश्यक हैं१. प्रोटीन २. कार्बोज ३. वसा ४. जीवन तत्त्व (विटामिन) ५. खनिजलवण ६. जल भोजन के शरीर में तीन मुख्य कार्य हैं(१) शरीर की बढ़ोतरी और टूट फूट की मरम्मत-यह प्रोटीन युक्त भोजनो के द्वारा पूर्ण होता है। (२) शरीर को ऊर्जा प्रदान करना-यह कार्बोज और वसा युक्त भोजनों के द्वारा पूर्ण होता है।
(३) शरीर की बीमारियों से रक्षा करना—यह खनिज लवण और प्रोटीन युक्त भोजन द्वारा पूर्ण होता है।
यह सब पौष्टिक तत्त्व हमको शाकाहारी भोजन से प्राप्त हो जाते हैं।
प्रोटीन युक्त भोजन के शाकाहारी स्रोत-विभिन्न प्रकार की दालें-उड़द, मूंग, अरहर, मसूर, लोभिया, लजमा, चना, मोठ और सोयाबीन-यह प्रमुख हैं, क्योकि इसमें प्रोटीन की मात्रा बहुत अधिक है । दूध और दूध से बने पदार्थों से भी थोड़ी.मात्रा में अच्छे प्रकार का प्रोटीन प्राप्त होता है । मूंगफली और तिल भी प्रोटीन का अच्छा स्रोत हैं।
कार्बोज युक्त भोजन के शाकाहारी स्रोत-विविध प्रकार के अनाज-गेहूं, जौ, बाजरा, मक्का और चावल इत्यादि । इसके अतिरिक्त आलू, बंडा, अरवी, शकरकंदी, सूरन से भी कार्बोज प्राप्त होता है। चीनी और गुड़ तो शत प्रतिशत कार्बोज हैं।
वसायुक्त भोजन-मक्खन, देशी घी, वनस्पति घी, तिल का तेल, मूंगफली का तेल, कड़वातेल (सरसों) का कुसुम्भ का तेल, नारियल का तेल, बिनौले का तेल, सोयाबीन का तेल इत्यादि ।
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६]
विटामिन और खनिज लवण युक्त भोजन
हरे पत्ते वाले साग - उदाहरणतः पालक, मेथी, बथुआ, चौलाई, हरा धनिया, पोदीना, मूली के पत्ते,
सहजन ।
मौसम के फल - अमरूद, टमाटर, गाजर, आवला, नीबू, आम, संतरा, खरबूजा, खीरा ।
दूध और दूध से बने पदार्थ- दही, मट्ठा, पनीर, खोया इत्यादि ।
अन्य साग - लौकी, तुरई, भिन्डी, करेला, कट्टु, टिन्डा, बैंगन ।
शाकाहारी भोजन से शरीर की सारी आवश्यकताएँ पूर्ण हो जाती हैं । पशु जगत से प्राप्त भोजन की तरफ दौड़ने की कोई आवश्यकता नहीं है ।
संक्षिप्त में शाकाहारी भोजनों की विशेषता की जानकारी आवश्यक है ।
गेहूं
पंजाब और पच्छिम उत्तर प्रदेश में गेहूं अधिक खाया अंश है और ७१ % कार्बोज । कुछ मात्रा में खनिज लवण जैसे प्रदान करता है ।
जाता है। गेहूं में करीब ११% प्रोटीन का चूना और लोहा भी होता है। गेहूं मुख्यतः ऊर्जा
चावल
चावल संसार के बहुत से भागो में खाया जाता है। भोजन है। चावल से अधिक मात्रा में कार्बोज प्राप्त होता है, भी पाया जाता है । यह अच्छी किस्म का प्रोटीन होता है। चावल में विटामिन बी (थाइमीन) भी होता है जो
भारतवर्ष में भी कुछ प्रान्तों में चावल ही मुख्य जो कि करीब ७८% होता है और ७०% प्रोटीन
ज्यादा दफे न धोएँ, क्योंकि बी पानी में
कि उसकी ऊपरी परत में पाया जाता है। जब चावल बनाएँ तो उसको घ. लनशील है और धोने से निकल जाता है। जब चावल बनाए तो उसका मांड न फेंकें, बल्कि उसे चावल में ही सुखा ले। अगर उसे निकालें तो अलग से इस्तेमाल करलें । विटामिन बी, शरीर के स्नायु संस्थान के लिए आवश्यक है। चावल अगर हाथ का कुटा इस्तेमाल किया जाए तो बी अधिक मात्रा में प्राप्त होता है। पौष्टिक दृष्टिकोण से सेहला चावल भी अच्छा है । चावल मुख्यतः ऊर्जा प्रदान करता है ।
दालें
शाकाहारी भोजन में दालों का बड़ा महत्व है क्योंकि इनसे अच्छी मात्रा में प्रोटीन प्राप्त होता है।
२० से ३०% तक प्रोटीन दालों से मिलता है। दालों को गरीब आदमी के लिए मांस की उपाधि दी गई है
०
क्योंकि दालों का मूल्य मांस से कम है और दालें प्रोटीन की कमी पूरी करती हैं। इसके अतिरिक्त खनिज लवण, चूना और लोहा भी दालों से प्राप्त होता है।
दालों में प्रमुख स्थान सोयाबीन का है जिसमें प्रोटीन का अंश ४३०/० है, वसा १६५० /° खनिज लवण
1
४.६ / सोयाबीन को भाड़ में भुनवाने के बाद उसको पिसवाकर आटा बनवा लें और बेसन या गेहूं के आटे में आवश्यकता और स्वाद के अनुसार मिलाकर रोटी के रूप में इस्तेमाल कर सकते हैं। इसके अलावा पकौड़ी, छोले, कढ़ी, दोराई इत्यादि भी बना सकते हैं ।
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चना भी दालो मे बहुत उत्तम है। इसके लिए कहा गया है कि खाए चना, रहे बना । चने में १७°/ प्रोटीन है, ६०% कार्बोज, लोहा और चूना भी प्राप्त होता है । चने में एक गुण और है कि वह रक्त में कोलेस्ट्रौल का अंश कम करता है । कोलेस्ट्रोल रक्त में अधिक होने से हृदय रोग की संभावना अधिक रहती है।
मानव दूध बच्चे के लिए ६ माह की उम्र तक पर्याप्त रहता है, उसके बाद कुछ और भोजन बच्चे को देना चाहिए।
गाय के दूध से सब पौष्टिक तत्त्व प्राप्त हो जाते हैं, केवल विटामिन 'सी' और लोहा नहीं प्राप्त होता । प्रोटीन करीब ३०/ अच्छी किस्म का मिलता है, वसा ४०, चूना, फासफोरस और विटामिन 'ए' और 'डी' मिलते हैं। दूध से बने पदार्थ-दही, खोआ, पनीर और मट्ठा भी पौष्टिक होते हैं।
आल
आजकल आलू का बड़ा जोर है । आलू से २२% कार्बोज प्राप्त होता है, कुछ मात्रा में विटामिन 'सी' भी प्राप्त होता है । अगर किसी समय अनाज की कमी हो तो केवल आलू पर ही निर्वाह हो सकता है । अकाल की स्थिति में आल अनाज का काम करता है। आलू को कई प्रकार से बना सकते हैं इसलिए इसको खाने से कभी तबियत नहीं ऊबती ।
चीनी और गुड़ चीनी तो शत प्रतिशत कार्बोज है और ऊर्जा प्रदान करती है । गुड़ में ६५% कार्बोज है और कुछ मात्रा में लोहा भी मिलता है जो कि शरीर में खून बनाने के लिए आवश्यक है। चीनी का ज्यादा इस्तेमाल दाँतो के लिए नुकसानदेह है।
देशी घी और अन्य तेल घी के द्वारा वसा में घ लनशील विटामिन प्राप्त होते हैं जैसे 'ए' और 'डी'। शरीर की वसा की दैनिक आवश्यकता ५० ग्राम है। इसमें से १/३ तेलों से प्राप्त होना चाहिए जैसे मंगफली का तेल, तिल्ली का तेल, सरसो का तेल इत्यादि । चिकनाई का भोजन में बड़ा महत्त्व है। इसके कारण भोजन में स्वाद आता है। परन्तु साथ ही साथ यह भी ध्यान रखा जाए कि घी या तेल को आवश्यकतानुसार मात्रा में ही कढ़ाई में डाले, ढ्ढेल उतरी हुई चिकनाई इस्तेमाल करने से उसके पौष्टिक तत्त्व नष्ट हो जाते हैं।
वसा दो प्रकार के हैं, एक जो कि साधारण तापक्रम पर ठोस रहते हैं वह संतृप्त कहलाते हैं, जैसे देशी घी, वनस्पति घी और नारियल का तेल । दूसरे जो कि साधारण तापक्रम पर तरल रहते हैं, वह असंतृप्त कहलाते हैं जैसे तिल्ली का तेल, मंगफली का तेल, सरसों का तेल, बिनौले का तेल, कुसुम्भ का तेल इत्यादि।
संतृप्त वसा अधिक खाने से हृदय रोग की संभावना अधिक रहती है, इसलिए अधिक घी नही खाना चाहिए।
असंतृप्त वसा अधिक इस्तेमाल करे, उससे आवश्यक वसा अम्ल भी प्राप्त होते हैं जो कि त्वचा के स्वास्थ्य के लिए आवश्यक हैं।
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मूंगफली मूंगफली गरीब आदमी का बादाम कहा गया है। इससे २५°/ प्रोटीन और ४००]. वसा प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त खनिज लवण और विटामिन 'बी' भी प्राप्त होता है।
मुंगफली को थोड़ा भूनने से पौष्टिक तत्त्व नष्ट नहीं होते।
हरे पत्ते वाले साग तथा अन्य साग हरे पत्ते वाले सागों से विटामिन 'ए' अच्छी मात्रा में मिलता है जो कि हमारी आंखो के स्वास्थ्य के लिए जरूरी है । विटामिन 'ए' की कमी से रतौधी होती है । खासतौर से गहरे हरे रंग के पत्ते वाले सागों से और पीले साग व फलों से विटामिन 'ए' केरोटीन के रूप में प्राप्त होता है जैसे पत्तागोभी, पालक, बथुआ, कद्दू, गाजर, पपीता, आम, संतरा, खरबूजा।
हरे सागों से बिटामिन 'बी' और 'सी' भी मिलते हैं। खनिज लवण भी प्राप्त होते हैं। हरे सागों का मूल्य भी अधिक नहीं देना पड़ता । कुछ न मिले तो मूली के पत्ते ही इस्तेमाल किए जा सकते हैं।
पत्तों से रेशे वाले पदार्थ भी मिलते हैं, जिनपर पाचन क्रिया के रसो का कोई असर नहीं होता । रेशे वाले पदार्थ आंतो की क्रिया में मदद करते हैं और मलावरोध रोकते हैं।
हरे सागों से लोहे की काफी मात्रा मिलती है जो कि खून बनाने में मदद करता है ।
मीठे फलों से कार्बोज और रेशे वाले पदार्थ मिलते हैं। यह आवश्यक नहीं है कि अंगूर सेब या अनार ही इस्तेमाल किए जाएँ। मौसम के सस्ते फल इस्तेमाल किए जा सकते हैं जैसे अमरूद, गाजर, केला, टमाटर, आंवला, नींबू इत्यादि । खट्टे फलो से विटामिन 'सी' और रेशे वाले पदार्थ मिलते हैं। आंवले में विटामिन 'सी' की मात्रा अधिक है।
शाकाहारी भोजनों को अगर निम्नलिखित बातों को ध्यान में रख कर इस्तेमाल किया जाए तो अधिक पौष्टिक तत्त्व प्राप्त होते हैं।
अनाज मिले जुले खाए, जौ-गेहूं, गेहूं-चना, मक्का-गेहूं इससे पौष्टिकता बढ़ जाती है।
दालें भी मिली जुली खाए। दालों को अगर अंकुरित करलें तो उसमें विटामिन 'बी' और 'सी' का अंश बढ़ जाता है । चना, मूंग और मोठ तो अकसर अंकुरित करके ही खाए जाते हैं।
दाल की अगर पिछी बना ली जाए तो उसमें से रेशे वाले पदार्थ हट जाते हैं और पाचन क्रिया के रस आसानी से कार्य करते हैं। पिट्ठी से बड़े, कचौड़ी इत्यादि बनाए जा सकते हैं । यह आसानी से पच जाते हैं।
दाल को पीस कर रख दे और खमीर करले जैसे दक्षिण भारत में इडली और दोसइ बनाते हैं। खमीर से विटामिन 'बी' का अंश बढ़ जाता है।
दाल या छोला पकाते समय खाने के सोडे का इस्तेमाल न करे, उससे विटामिन 'बी' नष्ट हो जाता है।
दूध को ढक कर उबालें, खुला उबालने से विटामिने 'ए' नष्ट हो जाता हैं। दूध को मुख्य भोजन के साथ ही लें इससे सब पौष्टिक तत्त्व इकट्ठे मिलते हैं और ज्यादा लाभदायक रहता है। दूध को खाने के साथ नहीं ले सकते हैं तो दही या मट्ठा खाने के साथ लें लें।
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सब्जियों को काटने से पहले धो लें, बाद मे धोने से पानी में घुलनशील विटामिन निकल जाते हैं । सब्जी के बड़े टुकड़े काटें । सब्जियो को अधिक चिकनाई डाल कर देर तक न भूने, इससे पौष्टिक तत्त्व नष्ट हो जाते हैं ।
पत्तागोभी के बाहरी हरे पत्ते न फेके वह ज्यादा पौष्टिक 1
आलू को सुखी आग में भूने और छिलके सहित खाए । पानी मे उबालने से कुछ आलू फूट जाते हैं और पानी में घुलनशील विटामिन निकल जाते हैं ।
आजकल विदेशो में भी शाकाहार का प्रचार हो रहा है । ब्रिटेन में एक वेजिटेरियन सोसाइटी है । वह लोग तो दूध का भी इस्तेमाल नहीं करते । कहते है कि यह पशु जगत से प्राप्त होता है । वह लोग एक अखबार वेजिटेरियन-न्यूज निकालते हैं ।
'हरे राम हरे कृष्ण' कल्ट जो स्वामी प्रभुपादजी ने चलाया है, जिसके अनुयायी अमेरिका में हैं और अन्य देशो में भी हैं, यह सब शाकाहारी हैं । अभी इनकी एक टोली लखनऊ आई थी, उन्होने अपना कीर्तन रवीन्द्रालय में किया और उनके बारे में जानकर प्रसन्नता हुई कि वह ब्रह्म महूर्त में उठते हैं, शाकाहारी भोजन खाते हैं, कोई नशीली वस्तु का सेवन नहीं करते, यहाँ तक की चाय भी नहीं पीते ।
अपने भारतवर्ष की बातें जब पच्छिम सभ्यता के लोग सीख रहे हैं तो हम लोग अपनी सभ्यता को क्यों भूले रहे हैं ? माँसाहार, मदिरा या नशीली वस्तुओं की ओर क्यों जा रहे हैं ?
अधिकतर बुद्धिमान और तपस्वी लोग शाकाहारी ही थे । माँसाहारी व्यक्ति तपस्वी नहीं हो सकते ।
अंत प्रश्न उठता है कि क्या माँसाहार जरूरी है ? माँसाहारी भोजन से अच्छी किस्म का प्रोटीन जरूर मिलता है। मगर मिले-जुले शाकाहारी भोजन से यह कमी पूर्ण हो जाती है और अच्छा प्रोटीन मिल जाता है । जो मांस खा रहे हैं वह खाएँ, उनकी प्रवृत्ति और परस्थितियां ही ऐसी हैं । अगर आर्थिक दृष्टि कोण से देखा जाए तो भी मांसाहारी भोजन का मूल्य अधिक देना पड़ता है । शाकाहारी दूध का इस्तेमाल बढ़ाते हैं। शाकाहारी भोजनो में एक दूसरे की कमी पूरी करने की क्षमता है यानी एक भोजन दूसरे भोजन का पूरक है । उदाहरणतः अनाजो की प्रोटीन में वाइसीन एमेनोअम्ल की कमी होती है, उसे दाले पूरा कर देती हैं। दालों के प्रोटीन में मिथ्योनीन एमीनी अम्ल की कमी होती है यह हरे पत्ते वाले सागों से पूरी हो जाती है । शाकाहारी का भोजन मिला-जुला होता है। ग्रामीण दाल में साग डालकर बनाता है। मक्का की रोटी या मिस्सी रोटी बनाता है और साथ में मट्ठा रहता है और एक गुड़ की डली । उसमें सारे पौष्टिक तत्त्व आ गए ।
कौन मजबूत है हाथी और गैंडा जो कि शाकाहारी हैं या शेर और चीता जो कि माँसाहारी हैं ? मजबूत तो दोनो हैं मगर एक अंहिसावादी है दूसरा हिंसक ।
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प्राकतिक भोजन : शाकाहार
भगवान ऋषभदेव ने त्रस्त मानव को वाण देने के लिए पुरुषार्थ और समाज-व्यवस्था का महामन्त्र दिया। उन्होंने कहा-"हाथों का उपयोग केवल खाने के लिए मत करो, उत्पादन और उर्पाजन के लिए भी करो ।" तब मनुष्य के मन में श्रम के प्रति उच्च भावना जगी। वह खेती करके पैदा करने लगा व श्रम के द्वारा उपार्जन करने लगा। इस प्रकार उपभोक्ता और उत्पादन में सन्तुलन कायम हुआ। शान्ति स्थापित हुई, सभी का जीवन आनन्दपूर्वक व्यतीत होने लगा।
कर्मयुग में भी जब मनुष्य की लालसा बढ़ी तब वह उसकी पूर्ति के लिए एक-दूसरे पर दबाव डालने लगा और परस्पर झगड़ने लगा। वह पाषाण और काष्ठ के हथियार बनाकर उनका आक्रामक और रक्षात्मक दोनों प्रकार से उपयोग करने लगा। निशाना ठीक बैठे और प्रहार खाली न जाय इसके लिए उसने पशु-पक्षियों पर अभ्यास करना शुरू कर दिया तथा क्रूर बनकर उनका भक्षण भी करने लगा। इस प्रकार शुरुआत हुई मांस-भक्षण की।
मनुष्य स्वार्थ में यहां तक निर्दयी हो गया कि जिन पशुओं से वह कर्मयुग में सेवा लेने लगा था, उन्हीं को वह मारने, सताने और आधा पेट खाने को देने लगा। तब वे भक्ष्य-अभक्ष्य जो कुछ मिलता उसे खाने लगे। गौ को माता कहने वाले और उसकी रक्षा का शोर मचाने वाले उसका दूध निचोड़ कर उसे लावारिस बनाकर छोड़ देते हैं और वह गन्दे चिथड़े, विष्ठा खाते और गन्दी नालियों का पानी पीते देखी जाती हैं। तभी तो आज से पांच हजार वर्ष पूर्व कर्मयोगी श्रीकृष्ण ने गोपालन और गौसेवा का व्यापक आन्दोलन छेड़ा था। वे स्वयं ग्वाला बने । कितने हैं आज कृष्ण और महावीर के भक्त जो गऊ को पालते-पोसते हैं ? उनका काम तो केवल उसका दूध पी लेना है। ऐसे लोग भी गोहत्या और बूचड़खानों के लिए कम दोषी नहीं हैं।
विषधर सर्प मिट्टी, पवन और दूध पर अपना निर्वाह कर लेता है। दीवान अमरचन्द जी के हाथों भूखा शेर जलेबी खा गया । नारायणी (राजस्थान) में जब गुरु गोविन्द सिंह पधारे तब सन्त दादू के डाले जुआर-बाजरा के दाने उनके बाज ने बड़े चाव से पेट भर खाये। यदि ये जीव प्रकृति स्वभाव से मांस-भक्षी होते तो जलेबी और जुआर कैसे खा लेते ? बर्नार्ड शा ने एक शाही भोज में मांस खाने को पेट में जानवरों का कब्रिस्तान बनाना कहा था। अजरबेजान (रूस) के १६८ वर्षीय शिराली मिसालिनोव ने शाकाहार और मदिरा ग्रहण न करने को अपने दीर्घ और चुस्त जीवन का रहस्य बतलाया ।।
जैन मनीषियों ने आज से सदियों पूर्व आहार के सम्बन्ध में जो प्राकृतिक खोज की, वह आज की वैज्ञानिक दृष्टि से भी सही और खरी उतरी है । कोन सी चीज खानी चाहिए, कौन सी चीज नहीं और क्यों ? एवं उनके गुण और दोष विस्तार से बतलाये हैं। कौन सी चीज कितने समय तक खाने योग्य रहती है और किसमें किसका मिश्रण करने से विष बन जाता है ? आदि सूक्ष्म बातों तक का उन्होंने विशद वर्णन किया है । इसके फलस्वरूप विश्व का विवेकशील तबका मांसाहार त्यागकर शाकाहार की ओर आ रहा है।
___ मनुष्य ने ही पशु-पक्षी को मांस आदि गन्दे पदार्थ खाने के लिए मजबूर किया। मनुष्य द्वारा उनका शिकार किये जाने के फलस्वरूप ही वे जिन दांतों और पंजों को हमला होने पर अपना बचाव करने के काम में लाते थे उनसे वे खुद हमला करने लगे और दांतों में खून का स्वाद लगने से मांस-भक्षी हो गये । यदि वे स्वभाव से हिंसक होते तो बिल्ली और शेरनी अपने शावकों को जब उन्हीं दांतों से दबाकर उठा लेती हैं और उन्हीं पंजों से पूचकारती और थपथपाती है तब वे दाँत इतना बोझ उठाने पर भी क्यों नहीं गड़ जाते तथा उनके खूख्वार पंजे क्यों नहीं उनका अनिष्ट कर देते ?
मनुष्य में स्वार्थ बुद्धि, परिग्रहप्रेम और अपने जीवन के लिए दूसरों के जीवन का खात्मा कर डालना आदि कुछ ऐसी कुत्सित और दूषित मनोवृत्तियां घर कर गईं कि उसने मांस भक्षण की शुरुआत की ओर निरीह पशुओं को भी ऐसा करने के लिए विवश किया । जबकि वास्तव में शाकाहार ही प्राणी का प्राकृतिक और स्वाभाविक भोजन था और है।
-प्रतापचन्द जैन, प्रागरा
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वास्तविक दया और अहिंसा ही शाकाहार का सही आधार
-कविराज पं० शिव शर्मा, आयुर्वेदाचार्य, बम्बई
निर्ममता के विपरीत बयालता, गन्दगी के विपरीत स्वच्छता, कुरूपता के. विरोध में सौन्दर्य, कठोरता के विपरीत संवेदनशीलता, कष्ट देने के विपरीत क्षमा, जीने का तर्क एवं मानसिक शांति को प्रोत्साहित करता है। शाकाहारी सिद्धान्त का सही आधार यही है ।
प्रत्येक शाकाहारी गुण, दया और अहिंसा का सर्वोत्कृष्ट आदर्श नहीं होता। शाकाहारियों में भी हृदयहीन, चोर-बाजारिये, ब्याज पर ऋण देने वाले, कर चुराने वाले और हत्या-डकैती और बलात्कार के अपराधी होते हैं, पर इतिहास ऐसी किसी घटना को उद्घाटित नहीं करता जहाँ शाकाहारी समुदाय अमानवीय हत्याकाण्ड, सामूहिक कत्ल और बलात्कार में संलग्न रहे हों। शाकाहारी पथ्यों के प्रभावों का तभी अध्ययन किया जाना चाहिए जबकि दो अलग समुदाय अनुरूप प्रभावों और दीर्घकालीन पृष्ठभूमि से संबंधित हों।
___यह विश्वास करना भारी भूल होगी कि वनस्पतियों का भोजन ही शाकाहारी जीवन पद्धति का प्रतिनिधित्व करता है। भारतीय जीवन-विज्ञान-आयुर्वेद में मानसी-देहि मनुष्य जाति की दैहिक-मानसिक गतिविधि के आकारों पर उनके प्रभाव को दष्टिगत रखते हए वनस्पति-खाद्य को अलग-अलग वर्गों में विभाजित किया गया है। अधिक मिर्च-मसाले, तीखे और तले हुए भोजन का निरन्तर उपयोग मस्तिष्क को श्रेष्ठ और उच्च भावनाओं और गतिविधिक सांचों से विकसित जड़ता की ओर ले जाता है। यहां तक कि भिन्न-भिन्न प्रकार के पशुओं का दूध-पथ्य भी शरीर और मस्तिष्क को अलग-अलग प्रभावित करता है। इस प्रकार गाय का दूध उत्तम ज्ञान विकसित करता है। जबकि भैंस का दूध केवल बलिष्ठ शरीर ही बनाता है। शरीर और मस्तिष्क के विकास के लिए सर्वाधिक वांछित लक्षण बनाने वाले पथ्य का गुण बताने के लिए आयुर्वेद 'सात्विक' शब्द का उपयोग करता है।
तामसिक भोजन आलस्य, मूढ़ता और जड़ता देता है, राजसी केवल शक्ति और तेजी जो कि सात्विक के साथ जुड़कर वांछित और तामसिक के साथ जुड़कर मस्तिष्क और शरीर को अवांछित लक्षण देता है।
मनुष्य का मस्तिष्क परिपक्व हो रहा है पर धीरे-धीरे शाकाहार का सिद्धांत बहुधा विवाद का विषय बन जाता है क्योंकि अनुरागी शाकाहारी, शाकाहारी सिद्धान्त के अभ्यास के आर्थिक और शारीरिक पक्षों पर अधिक बल देते हैं। इस तरह के तर्क वनस्पतियों-फलों की तुलना में मांस-पथ्य में अधिक प्रचुरता से उपलब्ध क्षार-अम्लों और पोषकतत्वों की ओर उन्मुख करते हैं। कुछ विशेषज्ञों ने शरीरिक शक्ति के रूप में क्षार अम्लों को अनुचित महत्ता दे दी है जो उन्हें स्पष्ट लगेगी जिन्होंने हाथी को पेड़ उखाड़ते या भीमकाय मनुष्य को घड़ियाल की थूथन चीरते देख
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१२ ] लिया है । यदि हम इन पशुओं और मनुष्य जाति में परिवर्तनशील चयापचयशील भेद उपस्थित करें, हमें मानवीय परिवर्तनशीलता में सामंजस्य की सामर्थ्य स्वीकारनी पड़ती है।
कई आजीवन मांसाहारी दुर्बलता और उददार-पीड़ा के लक्षणों को अनुभव करते हैं मगर एक निश्चित संघर्ष के पश्चात् चयापचय की प्रक्रिया अन्ततोगत्वा नई पथ्य-विधि से सामंजस्य स्थापित कर लेती है।
दूध और दूध-पदार्थों से युक्त उचित रूप से सन्तुलित पथ्य प्रफुल्लित शारीरिक स्वास्थ्य, लचीलेपन, सजगता और दीर्घायु का ही नहीं, व्यक्ति के मस्तिष्क की परिपक्वता का भी निर्वाह करता है। शाकाहारी सिद्धान्त का आर्थिक पक्ष सहजता से समझ लिया जाएगा, जब यह स्वीकार किया जाए कि कि मांसाहारियों को मांस देते रहने के उद्देश्य से पोषित पशुओं के लिए धान उपजाने की आवश्यक जमीन उतनी ही संख्या के मनुष्यों के लिए धान उपजाने के आवश्यक क्षेत्रफल की तुलना में कई गुना बड़ी होती है।
'रिकवरी आफ कल्चर' के लेखक और एक्सटेंसन सर्विस एमेरिटस विश्वविद्यालय, हेम्पशायर, के निर्देशक हेनरी बेले स्टीवेन्सन के अनुसार मांस भक्षण की दुराचारी आदत निःसन्देह रूप से जड़-युग की अवशेष है जो सारे आचार और सौंदर्यपरक प्रामाणिकों का ही उल्लंघन नहीं करती, वरन् जितनी कि मनुष्य के लिए सीधे रूप में फसल पैदा करें उससे छह गुना अधिक जमीन इसके लिए आवश्यक होगी।
शाकाहारी सिद्धान्त को शरीर विस्तार और आर्थिक आधार पर लेना शाकाहारी सिद्धान्त का सही दर्शन नहीं है। हालांकि फिर भी जो शाकाहारी सिद्धान्त का समर्थन ही करता है, जो कि प्रायः अमैत्रीपूर्ण विवाद
और अनिर्णीत विमर्श का विषय बन जाता है । नैतिक, आचारिक और आध्यात्मिक व्यवहार के आधार पर ही शाकाहारी जीवन के अभ्यास की आवश्यकता को बल दिया जाना चाहिए । निर्ममता के विपरीत दयालुता, गंदगी के विपरीत स्वच्छता, कुरूपता के विरोध में सौन्दर्य, कठोरता के विपरीत संवेदनशीलता, दण्ड देने के विपरीत क्षमा जीने का तर्क और शाकाहारी सिद्धान्त का आधार निर्मित करती है। यहीं मानसिक और शारीरिक कौशल और मानसिक शांति को प्रोत्साहित करता है । शाकाहारी सिद्धान्त का सही आधार है अपने 'स्व' की अपेक्षा दूसरे 'पर' विचार-असहायों में दुख और भय का कारण बनने में अरुचि-दूसरे को मारने की अस्वीकृति ताकि कोई अपने आप जी सकें, संक्षेप में गहराई और वास्तविकता तक दया और अहिंसा ।
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शाकाहारी सिद्धान्त के विभिन्न पक्ष
- डा० जे० एम० जस्सावाला, बम्बई
सामान्य नैतिक कारणों से मांसाहार जीवन के विनाश का सूचक है, जिसमें नैतिकता के विपरीत कोई भी गंभीरतम दुष्कर्म किया जा सकता है ।
आचारिक पक्ष - पूर्व में शाकाहारी सिद्धान्त आचारिक आधारों पर मान्य हुआ था, शाकाहारी सिद्धान्त आचारिक दृष्टि के अतिरिक्त भी कुछ है, यह एक जैवी विधि है । यह महत्वपूर्ण सत्यों में से धर्म की तरह ही हो जाती है । सम्पूर्ण जीवन का एक ही उद्गम है । यह विधि इस मान्यता की स्वीकृति है । मांस ऐसा उत्तेजक है जो धूम्र और मद्यपान की ललक पैदा करता है और इससे जीवन नष्ट होता है । सामान्य नैतिक कारणों से भी मांसाहार जीवन के विनाश का सूचक है जिससे नैतिकता के विपरीत कोई भी गम्भीरतम दुष्कर्म कर सकता है जबकि पशु का जीवन भी उसी तरह दिव्य है जैसे सम्पूर्ण जीवन दिव्य है ।
मांस देखने और सूंघने में भी अप्रिय है । यदि एक ओर हमारे सामने फलों और सब्जियों का कटोरा हो और दूसरी ओर कच्चे मांस के टुकड़े हों तो हमारे देखने का भाव, स्पर्श करने का भाव, सूंघने का भाव अविलम्ब पहले का ही चयन करेगा, क्योंकि सौन्दर्यपरक दृष्टि से यही सर्वाधिक सन्तोषप्रद होता है । मृत और छिन्न मांस के आहार पर रहने का विचार सौन्दर्य की रुचि पर आघात करता है। मांस और अण्डे रसोईघर में ले जाये जाने से पूर्व कई दिनों यहां तक कि महीनों रेफ्रिजेटर में रखे जाते हैं, हरे और नीले दिखने वालों की सन्देहात्मक गन्धों के कारण जिनकी रसायनों और द्रव्यों से चिकित्सा कर ली जाती है। यहां तक कि अप्राकृतिक विधि से चर्बी बनाने की विधि जिससे वजन और लाभप्रद बाजार कीमत बढ़ाने में जानवरों का उपयोग किया जाता है, इससे उनके कतल के बाद मांस के उत्पादनों पर भी घातक प्रभाव होते हैं । यह तो अच्छी तरह से ज्ञातव्य तथ्य है कि सर्वाधिक उदाहरणों में मनुष्य प्राणी पर मांस का आधिक्य व्यवस्थित विष और प्रारम्भिक बीमारियों का पर्याववाची ही है ।
बिना किसी प्रश्न के लाभप्रद होते हुए भी इस अप्राकृत और क्यों करें ? मनुष्य के लिए भोजन में बदल जाने से हम तुच्छ व्यवहार आरोपित करें ही क्यों ? हत्या और मांसाहार की विधि महज गंवारपन है ।
अमानवीय कार्य से हम श्रेष्ठ परिणामों की प्रत्याशा कुछ ही पूर्व सूअरों मुर्गियों और दूसरे प्राणियों पर
मानववादी पक्ष-तालस्ताय ने बड़ी सादगी से कहा है, 'शाकाहारी पय्य मानवतावाद का तीखा परीक्षण है' । यह सभी शाकाहारियों पर लागू नहीं होता, क्योंकि पिछली कई शताब्दियों में शाकाहारी सिद्धान्त भारत में नैतिक, धार्मिक अथवा मानवतावादी उपासना की अपेक्षा परम्परागत रीति और आदत हो गई है ।
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ख - ५
कोई व्यक्ति, जो शाकाहारी है, आवश्यक नहीं है कि वह श्रेष्ठ व्यक्ति हो । वह निर्दयी भी हो सकता है। और यहां तक कि पशुओं के प्रति होने वाली निर्ममताओं और पीड़ाओं से उदासीन होता हुआ हृदयहीन भी हो सकता है, परन्तु शाकाहारी सिद्धान्त अपने व्यापक पक्षों में जीवन की श्रेष्ठ पद्धति है। पशुओं को मृत्यु और खतरे का पूर्वाभास हो जाता है। कसाईपर में ले जाए जाने हेतु उन्हें बहुत ही जंगलीपन से पीटा जाता है और लहू की दुर्गन्ध में वे आतंकित और भयभीत हो जाते हैं । मठों में निरीह प्राणी मठोंठ दिया जाता है अथवा होश की अवस्था में उसका गला काट दिया जाता है तब रक्त प्रवाह होता है, खाल शूलती है, अन्तड़ियां बाहर निकाली जाती हैं, और चीर-फाड़ की जाती है। यह सारी प्रक्रिया तब की जाती है जब कि पशु गर्म रहता है । कोई भी दया और भावना का व्यक्ति इस प्रकार की निर्मम हत्या और कष्टदायक चीखों को शायद ही सहन करे ।
धार्मिक पक्ष - हम पवित्र आलेखों में पाते हैं — ठहरिये, मैंने आपको हर प्रकार का भोजन देने वाला बीज दिया है और प्रत्येक वृक्ष जिसमें फल हैं आपके लिए मांस की तरह ही होगा। जोरास्टर और बुद्ध का अनुयायी भोजन के रूप में मांस शायद ही ले सके। इसी तरह एक कर्मयोगी या प्रबुद्ध आत्मा कभी मांस को नहीं लेगी। एक प्रबुद्ध और सभ्य व्यक्ति का शाकाहारी सिद्धान्त को जीवन के धर्म के रूप में स्वीकार लेना परम कर्तव्य है जिससे आचारिक और धार्मिक विश्वास प्राप्त किए जा सकते हैं। इसलिए शाकाहारी सिद्धान्त मात्र धार्मिक क्रिया नहीं है,
मात्र एक आदत नहीं है, वरन् जीवन की एक विधि है ।
आर्थिक पक्ष क्या संसार आबादी से भर नहीं जायगा ? विचारिए, मनुष्य अपना व्यवसाय बढ़ाने, स्वार्थी उद्देश्य की पूर्ति करने के लिए 'पशु मांस' का पोषण करता है ।
किसी को यह तथ्य नहीं भुलाना चाहिए कि मांस के लिए विशेष रूप से पोषक पशु को अपने भोजन के लिए मनुष्य की अपेक्षा अधिक जमीन की आवश्यकता पड़ती है । थोड़े से पशु बढ़ाने में जमीन का बहुत बड़ा हिस्सा काम आता है और जमीन खाली हो जाती है । जितनी एकड़ जमीन पशुओं को बढ़ाने के लिए चरागाह के काम में ली जाती है, उस मांस से बहुत थोड़े से व्यक्तियों को ही खिलाया जा सकता है, यदि धान, दाना, फल, सब्जियां उगाई जाँय उससे अनेक परिवारों को ही तृप्त नहीं किया जायगा, वरन उसी समय, उच्च गुणात्मकता और पोषण का भोजन भी पैदा किया जा सकता है।
नैतिक पक्ष नैतिक क्षेत्र में आने पर हमें लगता है कि मांसाहार धूम्रपान, मद्यपान और अन्य बाधक आदतों की ओर ले जाता है। व्यक्ति जो भोजन लेता है, उसका एक निश्चित प्रभाव होता है— केवल शारीरिक दृष्टि से ही नहीं मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी राजसी भोजन व्यक्ति को लोभी, व्याकुल और विनाशकारी बनाता है जबकि सात्विक भोजन रचनात्मकता और ध्यानावस्था देता है ।
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मैं शाकाहारी क्यों हुआ ?
–महामहिम दलाईलामा
"आप दूसरों को नुकसान न पहुँचाएं, यदि आप नहीं चाहते कि दूसरे प्राणी दुःखों से पीड़ित होते हैं । मनुष्य जितना अपने निकट और प्रियजनों और अपनी सम्पत्ति से सम्बद्ध रहता है, उतना ही अधिक वह स्वयं से भी जुड़ा रहता है । अपने आनन्द और सुख के पूजा-स्थलों की बाह्य खतरों से रक्षा करने, उनका प्रतिकार करने की उसमें स्वाभाविक वृत्ति होती है। ठीक इसी प्रकार का चारित्रिक गुण पशु साम्राज्य में भी विद्यमान रहता है । जबकि छली आधुनिक संसार का बहुत बड़ा भाग गूंगे प्राणियों के संसार की रक्षा को अरुचि का कर्म ही मानता है। उच्च कोटि के प्राणियों को ही नहीं तुच्छ से तुच्छ प्राणियों को भी अनुभूति होती है, इसलिए वे भी दुःखों से छुटकारा चाहते हैं और सुख व आनन्द की खोज करते हैं । इन प्राणियों को जीवित रहने के प्राकृतिक अधिकार से वंचित करना नीतिशास्त्र के मूल्यों का अतिक्रमण करना है । बुद्ध की शिक्षा प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से मनुष्य से लेकर छोटे से छोटे जीवित प्राणी का जीवन लेने का निषेध करती है। “पवितात्मा द्वारा घोषित पहला निषेध" किसी का जीवन न लेने की ही शिक्षा है।
जैसा कि मैंने कहा, शाकाहारी होने का मेरा निर्णय नितान्त वैयक्तिक कारणों से प्रभावित था। इसका संबंध न निश्चित शाकाहारी सिद्धान्त से है और न इसलिए कि विशेष मनुष्य समाज ऐसा करता है, इससे मैंने कोई प्रतिस्पर्धा की है। जीवन सभी को प्रिय है
जिनके कारण मेरे भोजन की आदत में परिवर्तन आया, उन सहायक तथ्यों में आश्चर्यजनक या दर्शनीय कुछ भी नहीं था । घटनाएँ अवश्य महत्वपूर्ण थीं जिनका संयोगवश मुझे दर्शक होना पड़ा। १९६५ के भारत-पाक युद्ध के समय मैंने बसन्त ऋतु का अधिकांश भाग भारत के दक्षिणी राज्यों की यात्रा में बिताया। मोटर से शहरी कस्बई क्षेत्रों की यात्रा के बीच भागते हुए मुर्गों, बिल्लियों और कुत्तों को देखना सामान्य बात थी। इतनी शक्ति भर भागते हुए जैसे कि वे मृत्यु के भय से शंकित हों। इसे कोई नहीं नकारेगा कि मृत्यु एक पीड़ा है।
इन दृश्यों से उत्पन्न भावना एक प्रकार से दया और मानसिक यातना की होती थी। और फिर केरल में अपने पड़ाव के समय संयोग से मुझे किसी के भोजन के शिष्टाचार के लिए मुर्गे की हत्या होते भी देखना पड़ा।
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१६ ]
निर्दोष मुर्गे द्वारा अद्भूत भयंकर भय, पीड़ा और अत्याचार को महसूस करना भी भयंकर रूप में कठिन था। जीवन सभी को प्रिय होता है। उस गरीब और असहाय पक्षी ने कैसा भय और संताप सहा, जब उसका जीवन नष्ट किया जा रहा था। मैं यह सोच कर ही काँप जाता हूँ। उसी क्षण मैंने किसी का जीवन न लेने की नैतिक महत्ता की संपूर्ण क्षमता को कठोर वास्तविकता और सर्वांगीण गम्भीरता के साथ महसूस किया । मैं मार दिये गये मुर्गे के प्रति करुणा और दया से व्याकुल था—दूसरी बात जिसके कारण मैं मांस के भोजन से दूर हुआ, इस तथ्य की जानकारी से कि जहां-जहां भी हम जाते हैं, उस स्थान विशेष के मेजवान विशेष रूप से मेरे दल के सदस्यों के भोजन के लिए ही मुर्गों और भेड़ों का बध करते हैं । निःसन्देह यह मेरे सन्तोष के लिए शुभेच्छा से ही किया जाता था, मगर मै मुर्गा खाना सहन नहीं कर सका, जिसे विशेष रूप से मेरे ही लिए वध किया गया था। इन्हीं सब कारणों ने मुझे सभी प्रकार का मांस निषेधक वनस्पति-खाद्य को अपने भोजन का एकमात्र अथवा मुख्य भाग बनाने का निश्चय करने को निर्देशित किया । मनुष्य बिना मांस के जीवित रह सकता है । मनुष्य बिना मांस के जीवित रह सकता है।
विज्ञान और यांत्रिकी के विकास से मनुष्य की सुख-सुविधाओं में अनेक स्तरों पर वृद्धि हुई है। मनुष्य प्रतिभा और विवेकपूर्णता की उस सीमा तक पहुँच गया है कि वह वास्तव में अपनी आवश्यकताओं की तुष्टि के लिए हर वस्तु का उत्पादन करने में सक्षम है। मैं मानवीय भोजन के लिए पशुओं का वध किए जाने का कोई तर्क नहीं देख पाता, इसलिए कि अनेकों प्रकार के विकल्प उपलब्ध हैं। इस पर भी मनुष्य बिना मांस के जीवित रह सकता है । कुछ ही मांसाहारी पशु हैं जो केवल मांस पर ही जीवित रहते हैं। आमोद-प्रमोद और साहस के लिए पशुओं को मारने का विचार ही अरुचिकर और कष्टकर है। इस प्रकार के क्रूर कार्य व्यापारों में लगना न्यायसंगत नहीं होता। यह विवेक और बौद्धिक तरीके से सोचने की क्षमता, जिससे हर व्यक्ति सम्पन्न होता है, की अवमानना है।
साधारणतः यह कहा जाता है कि तिब्बत के लोग मांसाहारी होते हैं । वे अपने घोषित धर्मों की ऐच्छिक प्रतिकूलता के बजाय आवश्यकतावश ही हैं । तिब्बत की भौगोलिक जलवायविक परिस्थितियाँ इस प्रकार की हैं कि बहुत बडे भाग में वनस्पति की फसल विकसित कर पाना संभव ही नहीं होता। वनस्पति का स्पष्ट अभाव ही यहाँ के लोगों को मांस और तत्संबंधी वस्तुओं की अधिकाधिक खपत करने की ओर झुकाता है । तिब्बत के तेज हवाओं वालें विस्तृत उत्तरी पठार में तो वनस्पति एक विरल शिष्टाचार है। फिर भी तिब्बत के लोग वैसाखी पूर्णिमा के पूरे माह और प्रत्येक तिब्बती माह के 5वें, १५वें दिन मांस नहीं छूते हैं। भारतवर्ष की स्थितियां नितान्त भिन्न हैं । वनस्पति फसलों की प्रचुरता के कारण लोगों के लिए मांस-भोजन का निषेध सम्भव होता है।
प्रकृति ही प्राणियों की आजीविका का एकमात्र साधन है, मगर उनकी संरक्षक नहीं- इस संदर्भ में कि प्रकृति बाहरी आक्रमण और खतरे से ही उनकी रक्षा कर सकती है । मनुष्य श्रेष्ठ प्राणी है, क्योंकि वह विवेक और तर्क की क्षमता से सम्पन्न होता है। इसलिए मेरा विश्वास है कि मानवीय प्राणी ही वे प्रतिनिधि हैं जो जिनका
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[ १७ मर्यादित कर्तव्य न होते हुए भी, पशुओं की रक्षा करने में सक्षम हैं । पशुओं को वध किए जाने की बनिस्बत रक्षा, देखभाल और प्यार किया जाना चाहिये। सूख रहे तालाब से मछली को बचा लेने जैसे छोटे-छोटे दया कार्यों पर हमारा कुछ खर्च नहीं होता।
हमारी विशेष सुविधायें सम्पूर्ण जगत बौद्ध सभ्यता के अनुसार संसार कई खण्डों में विभाजित है, जिसका एक खण्ड पशु आकारों से निर्मित है। अज्ञान, गूंगेपन और विचार शक्ति के अभाव में पशुओं के दुःख बने रहते हैं जबकि मनुष्य ऐसा नहीं हैं। मनुष्य का जन्म लेने की इस विशेष सुविधा का हमें उत्तम उपयोग करना चाहिए । जीवित प्राणी मात्र के लिए दया और प्यार जगाकर संसार-सागर से प्राणिमात्र को मुक्त रखने की भावना के साथ हमें बुद्ध-स्थिति को प्राप्त करना है ।
सभी तथ्यों से अधिक मुझे प्रतिदान के तत्व ने प्रभावित किया । जैसा आप बोयेंगे, वैसा ही फल पायेंगे। प्रत्येक प्रकार के कार्य का परिणाम भी तद्रूप होता है। अगर कोई दूसरे को नुकसान या आघात पहुंचाता है तो उसको भी वही अन्त सहना होता है-यह कर्म और फल के सम्बन्ध का सार्वलौकिक नियम है । भगवान बुद्ध ने सभी चेतन प्राणियों के लिए निर्देशित किया है कि प्यार और दया की भावना ही शान्तिपूर्ण संसार के निर्माण के लिए अधिक महत्वपूर्ण है । मनुष्य मात्र के कार्य-व्यापारों पर विशेष महत्व दिया है जो हमारे गूंगे पशु मित्रों की वास्तविकता से सम्बन्धित हैं । लंकावतारसूत्र में कहा गया है । कि सभी प्राणी-वे मनुष्य हो, पशु हों, बन्धु-बांधुवों की भांति और सनातन कर्मविधि के प्रभाव में आंतरिक रूप से जुड़े हैं। जैसे एक व्यक्ति अपने संबंधी का मांस नहीं खाएगा, उसी तरह मांसाहार से भी परहेज किया जाना चाहिये । सभी पशुओं के साथ भाई-बहनों जैसा व्यवहार करना है । सभी साधु-सन्यासियों ने मांसाहार को पूर्ण गुणात्मकता की दया और प्यार उपजाने में बाधक मानते हुए मांसाहार से परहेज किया है। इसी प्रकार मांस-भोजन तांत्रिक-शक्ति की सिद्धि प्राप्त करने में भी बाधक है।
हमारे पशु-मित्र देखभाल और प्यार के लिए हैं। वे हमारे अथवा हमारी आजीविका के लिए ही जीवित नहीं रहते वरन इस संसार के सौन्दर्य और सूख में विशिष्ट जैवी विधि से अपनी भूमिका का निर्वाह करते हैं।
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मांसाहार : अनिवार्यता जैसी कोई बात नहीं
-श्री रामेश्वर दयाल दुबे
सम्भव है, कमी यह तर्क सही रहा हो कि किसी क्षेत्र विशेष के लोग प्रकृति द्वारा मांसाहार के लिए विवश हैं। आज की विकासशील स्थिति में जबकि यातायात के साधन हर एक चीज सलम बना सकते हैं व वैज्ञानिक प्रगति के बल पर किसी क्षेत्र में न उगने वाली चीज भी उपजाई जा सकती हैं, तब इस तर्क को परे रखकर मनुष्य बर्बरता त्यागे, यही अपेक्षा है।
प्राणिमात्र को भोजन की अपेक्षा रहती है। छोटे से छोटे कीड़े-मकोड़े से लेकर बड़े से बड़े जीवधारी को, यहां तक कि सभी प्रकार की वनस्पति तक को अपने जीवन की रक्षा के लिए, अपनी वृद्धि के लिए भोजन की आवश्यकता होती है । जीवन क्रिया में निरन्तर शक्ति का ह्रास होता है। शरीर की इस शक्ति क्षय की पूर्ति के लिये भोजन की आवश्यकता होती है । सम्पूर्ण जीवधारियों के बल तथा ओज का मूलाधार भोजन हुआ करता है । यदि प्राणी को भोजन प्राप्त न हो, तो उसकी जीवन-क्रिया ही शीघ्र समाप्त हो जावे, अतः प्राणिमान के लिये भोजन का विशेष महत्व है।
वैज्ञानिकों के अनुसार भोजन की आवश्यकता के तीन प्रधान कारण हैं
(१) शरीर निर्माण तथा तन्तु-क्षय की पूर्ति (२) जीवनोष्मा और जीवन-क्रिया का आधार (३) स्वास्थ्य की रक्षा और रोगों को दूर अखने की शक्ति का संचयन
शरीर सम्बन्धी इन्हीं आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये प्राणी संसार में उपलब्ध सामग्री में से अपने भोजन को प्राप्त करता है । देश-काल के अनुसार जब जिसे जो वस्तु भोजन के रूप में आसानी से प्राप्त हो जाती है, उसका भोजन हो जाता है । इसका प्रमाण हमें इतिहास और भूगोल के ग्रन्थों से मिल जाता है। देश और काल का प्रभाव भोजन पर पड़ता है।
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ख-५
[ १९ भोजन का एक तत्व उसका स्वाद भी है। जीभ रस ग्रहण करती है और वह स्वाद को चखती है । जीभ यह भी निर्णय करती है कि कौन वस्तु खाने के योग्य है और कौन नहीं, किन्तु जिस प्रकार मनुष्य अपनी सभी इन्द्रियों का दुरुपयोग करने लगा, उसने जीभ की स्वाद लेने की प्रवृत्ति को बहुत महत्व दे दिया, फल यह हुआ कि आज शरीर के लिये उपयोगी न होने वाला भोजन भी मात्र स्वाद के कारण खाया जाता है। अहिंसा पर विशेष श्रद्धा रखने वाले भी जीभ के स्वाद के लिये मांसाहार के लिये मार्ग निकाल लेते हैं ।
___ 'मांसाहार अधिक बलवर्द्धक है' इससे भ्रांतिपूर्ण और कोई धारणा नहीं। कर्नल कर्कब्राइड ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'हमारा भोजन और विश्वशांति' में ऐसे अनेक उदाहरण प्रस्तुत किये हैं, जिनसे यह सिद्ध होता है कि यह धारणा नितान्त निराधार है कि मांस खाने से प्राणी बलवान बनता है । कर्नल ने अनेक पशुओं को पालकर उन्हें शाकाहारी और मांसाहारी बनाकर तरह-तरह के प्रयोग किये हैं। अन्त में वे इसी निष्कर्ष पर पहुँचे कि शाकाहारी मांसाहारी से कमजोर नहीं होता है ।
इसी सम्बन्ध में किसी प्रसिद्ध मासिक पत्रिका में एक संस्मरण पढ़ने को मिला था जो इस प्रकार था
पेशवा के शासन काल में महाराष्ट्र में बहुत से पहलवान तैयार किये जाते थे। ये पहलवान दूसरे प्रान्त के पहलवानों को पछाड़ देते थे, किन्तु जब कोई पंजाबी पहलवान आता था तो वे उससे हार जाते थे। यह बात महाराष्ट्र के पहलवानों के बहुत खटकती थी। अतः उनमें से एक पहलवान पंजाब गया और उनके अधिक ताकतवर होने का पता लगाया । उसने देखा, यहां के पहलवान अधिकतर मांसाहारी होते हैं। इसीलिये वे अधिक ताकतवर होते हैं। साथ ही उसने यह भी समझ लिया कि वे जल्दी थक जाते हैं। पता लगाकर वह महाराष्ट्र लौट आया । बाद में जब कोई पहलवान आता, उसके साथ वे पहले जोर नहीं लगाते । पंजाबी पहलवानों की पहली धसान तेज होती थी, फिर थक जाते थे, अतः अपनी तरकीब से महाराष्ट्र के पहलवान पहले उन्हें थका लेते थे, बाद में उनको पछाड़ देते थे । अतः पंजाबी पहलवान हारने लगे। फिर तो पांच साल बाद पंजाबी पहलवानों ने महाराष्ट्र में आने का नाम छोड़ दिया, और कोई पंजाबी पहलवान महाराष्ट्र में नहीं आया।
उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि यह धारणा गलत ही है कि मांसाहार से बल में वृद्धि होती है । प्रयोग से यह भी सिद्ध हो चुका है कि मांसाहार से मनुष्य की तामसी वृत्ति बढ़ती है। यह प्रत्यक्ष अनुभव की बात है कि जो मांस-भोजन नहीं करते उनमें सात्विकता अधिक दिखाई देती है। कर्नल कर्कब्राइड ने अपनी प्रयोगशाला में अनेक प्रयोग किये हैं । उन्होंने अपनी पुस्तक में लिखा है 'अनेक प्रयोगों के पश्चात् मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि भोजन का प्राणी जीवन में निर्णायक महत्व है। भोजन हमारे मन एवं प्रवृतियों का निर्माता है। मैंने देखा है कि जिन जानवरों का भोजन मांस रहता हैं, वे प्रायः हिंसक और तामसी प्रकृति के होते हैं। जीवन के कोमल उदारभाव उनमें नहीं पनपते । बिना भूख, बिना जरूरत के भी वे हिंसा करते हैं। दूसरों को हानि पहुँचाते हैं । इसके विपरीत शाकाहारी पशु-पक्षी स्वभाव से ही जीवन के कल्याणकर पक्ष की तरफ प्रवृत्त पाये जाते हैं । क्षमा, सहिष्णुता, करुणा, परदुखकातरता आदि गुण उनमें अनायास ही विकसित होते रहते हैं।
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२० ]
ख-५ जो बात पशु-पक्षियों के सम्बन्ध में ऊपर कही गई है, वही बात मनुष्यों के बारे में भी सत्य है। मांसाहारी व्यक्ति प्रायः तामसी वृत्ति के पाये जाते हैं। इस दृष्टि से भी मांसाहार त्याज्य ही समझना चाहिये।
किसी भी दृष्टि से मांसाहार का पक्ष सबल नहीं ठहरता है, फिर भी अनेक देशों में मांसाहार प्रचलित है और कुछ देश तो सर्वथा आमिषभोजी ही हैं । जो देश पूर्णतः मांसाहार पर निर्भर हैं, उनकी भौगोलिक परिस्थितियों ने वहां के लोगों को मांसाहार करने पर विवश कर दिया है, फिर भी ऐसे देशों में ऐसे लोग पाये जाते हैं जो पूर्णरूप से शाकाहारी हैं और शाकाहार पर विश्वास रखते हैं।
कहते हैं कि हिटलर पक्का शाकाहारी था । विदेशों में भी ऐसे व्यक्तियों की संख्या काफी है, जो शाकाहार के पक्षपाती हैं । खलील जिब्रान ने एक बार कहा था-हे ईश्वर, खरगोश को पेट में भेजने के पहले खुद मुझे ही शेर के पेट में भेज दे।
भारत शस्य-श्यामलाभूमि है। विविध प्रकार के अन्नों की यहां कमी नहीं है। कन्द-मूल फल-फूल भी यहाँ पर्याप्त मात्रा में प्राप्त होते हैं । दूध-दही की भी कमी नहीं । इन सभी पदार्थों का उत्पादन यहां बढ़ाया भी जा सकता है। भारत की भौगोलिक परिस्थितियां भी मांसाहार करने के लिये विवश नहीं करती। तब कोई कारण नहीं कि हमारी प्रवृत्ति मांसाहार की हो । और अन्यत्र भी भौगोलिक बाधाएं शेष नहीं रहीं। यातायात विकास से अब किसी स्थान पर भी सभी चीज सुलभ की जा सकती हैं ।
भारतीय संस्कृति सात्विक संस्कार प्राप्त करने की ओर प्रेरित करती है। हमारा प्रयास दानव नहीं, देव बनने का होना चाहिये इसलिए तामसी भोजन मांस त्याज्य रहना ही चाहिये ।
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वैज्ञानिक दृष्टि से हमारा आहार
जैन-शास्त्रों ने भक्ष्य आहार और अभक्ष्य आहार पर एवं आगे बढ़कर उसकी शुद्धि - अशुद्धि पर जितना विचार-विमर्श किया है, उतना अन्य किसी धर्मशास्त्र अथवा धर्मनायकों ने नहीं किया है, यह निर्विवाद हकीकत है क्योंकि जैन धर्म में आहार शुद्धि पर अनेक ग्रन्थों में विचार किया गया । यहां तक कि इसके लिए 'पिण्डनिर्युक्ति' 'पिण्डविशुद्धि' जैसे शास्त्र प्रन्थ रचे गये हैं । पिण्ड का अर्थ यहां आहार समझना है ।
- श्री जवाहर लाल लोढा
यद्यपि आहार-शुद्धि के सम्बन्ध में विचार मुख्यतः जैनश्रमण-साधुओं को उद्देश्य में रखकर किया है, फिर भी उपलक्ष से जो बात श्रमणों-साधुओं को स्पर्श करती है, वही बात कम अंशों में ही सही, गृहस्थवर्ग को भी स्पर्श करती है ।
शुद्ध अन्न का भोजन शरीर को निरोग रखता है । निरोगी शरीर मन को निरोग रखने में प्रबल सहायक होता है । अंग्रेजी में कहावत भी है 'स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मन रहता है ।'
इन सारी बातों का निष्कर्ष है कि आहार का मन और आत्मा के साथ सम्बन्ध होने से मानव शरीर में आहार का बहुत महत्व है ।
आहार में मांसाहार तो मनुष्य के लिए निर्विवाद रूप से अभक्ष्य है । खेद है कि आर्य-भूमि भारत में भी मांसाहार का प्रचार बढ़ रहा है। मांसाहार को बन्द करने तथा मांसाहार को रोकने के लिए उपदेश एवं प्रचार, इन दोनों साधनों का पूरा प्रयोग करना चाहिए ।
प्रत्येक प्राणी का आहार शरीर की रचना से घनिष्ठ सम्बन्ध रखता है । यह सभी जानते हैं कि पशु और पक्षियों से मनुष्य का भोजन सर्वथा भिन्न है । केवल बाह्य रचना या वेश-भूषा ही नहीं, शारीरिक रचना, सोचने विचारने की पद्धति और वाणी के द्वारा व्यक्त करने का ढंग भी अन्य प्राणियों से मनुष्य का सर्वथा भिन्न और विशिष्ट है । मन, वचन और काया से मनुष्य अन्य प्राणियों से भिन्न है । मनुष्य की शरीर रचना को ध्यान से देखें तो पता लगेगा कि मुखकी बनावट, दांतों की संरचना, आहार नलिका और लघु व वृहद अंतयंत्र, सभी कुछ पशुओं से भिन्न है । आधुनिक चिकित्सकों के अनुसार प्राणी शरीर के अंग उसके उचित प्राकृतिक रहन-सहन एवं भोजन के अनुरूप ही संचालित होते हैं । मनुष्य की आहार नलिका शाकाहारी प्राणियों की भांति पर्याप्त लम्बी है । सम्पूर्ण पाचक रस तथा आंतरिक संरचना शाकाहार के लिए ही उचित है । मनुष्य की प्राकृतिक बनावट के अनुसार ही हमें दांत और आंत मिली है । मनुष्य की अंगों की परिचालित प्रक्रिया में दांत से लेकर आंत तक आहार प्रेषण क्रिया और अवयवों में रक्त-मांसादि निर्माण की क्रियाएं जुड़ी हुई हैं। इनसे ही शरीर को ऊर्जा प्राप्त होती है । ऊर्जा की खोज एक
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महत्वपूर्ण वैज्ञानिक उपलब्धि है। प्रत्येक संयंत्र में ऊर्जा का विश्लेषण करना और उसकी रासायनिक क्रियाओं का पता लगाना ही विज्ञान का मुख्य कार्य है। इस विधि से ही ऊर्जा के रूपों तथा मापों का निश्चय किया जाता है।
पुराने लोग दांतों से आंतों का परिज्ञान करते थे। जहां तक शारीरिक रचना-प्रक्रिया का सम्बन्ध है, यह देखने में आता है कि हिंसक-प्राणियों की जैसी आंतें होती हैं, प्रकृति के अनुसार उनके दांत भी वैसे ही चीर-फाड़ करने वाले नुकीले होते हैं। मनुष्य की आंतड़िया और उसके दांत केवल शाकाहार के लिए उपयुक्त हैं । आधुनिक चिकित्सकों के अनुसार भारतीय वातावरण और जीवन मांसाहार के सर्वथा प्रतिकूल हैं।
प्रायः लोग यह समझते हैं कि मांस खाने से हमारे शरीर की मांस एवं शक्ति बढ़ती है। मांस से मांस बढ़ता है, पर शक्ति-वृद्धि होती है यह कहना उचित नहीं है । मांस बढ़ने से शक्ति में वृद्धि नहीं होती। भारीशरीर बनाने मात्र से कोई पहलवान नहीं हो जाता। शरीर में शक्ति की वृद्धि के साथ-साथ उसका स्फुरण होना भी आवश्यक है । शाकाहार से स्फुरण-शक्ति का विकास होता है । शरीर की वास्तविक शक्ति को आयुर्वेद में 'ओज' नाम से अभिहित किया गया है। मांसाहार से ओज विशेष प्रगट नहीं होता। दूध, दही और घी से विशेष रूप से
और तत्काल ओज शक्ति का स्फुरण होता है । अतएव घायल, बीमार, अशक्त और गर्भिणी तथा प्रसूता को दुग्धाहार दिया जाता है । शिशु का तो मुख्य आहार ही दुग्ध-पान है। माता के दुग्ध से बढ़कर उसका अन्य आहार नहीं हो सकता । गर्भ में भी शिशु माता से ओज-आहार ग्रहण कर जीवित रहता है। जिन गर्भस्थ शिशुओं को यह ओजआहार नहीं मिल पाता है अथवा उसके ग्रहण करने में किसी प्रकार का अवरोध उत्पन्न हो जाता है उसकी तत्काल मृत्यु हो जाती है । इससे स्पष्ट है कि स्थूल आहार की अपेक्षा सूक्ष्म आहार का वैशिष्ट्य है, जो मांसाहार करने में प्राप्त नहीं होता । अतएव मांसाहार को शक्तिवर्द्धक कहना उचित नहीं है।
यदि मांसाहार मनुष्य के लिए उपयुक्त नहीं है तो यह प्रश्न उत्पन्न होना स्वाभाविक है कि क्या शाकाहार उचित है ? मानवता, नैतिकता और किसी बौद्धिक नियम की दृष्टि से मांसाहार उचित नहीं हैं । क्योंकि बिना किसी के बध किए अथवा मृत्यु को प्राप्त हए उसका मांस नहीं मिल सकता । दूसरे, उसके शरीर के साथ सम्बद्ध तरह-तरह के रोग और विषले कीटाण भी हमारे भीतर प्रविष्ट हो जाते हैं जो अनेक रोगों के घर होते हैं।
चरक के सूत्रस्थान अ० २ में कहा गया है कि 'प्राणाः प्राणभूतामन्नम्' अर्थात अन्न प्राणियों का प्राण है। अन्न मनुष्य का उचित आहार है । इसकी प्रथम अन्वेषणा भारत में की गई थी। आदि तीर्थंकर ऋषभदेव ने जो 'कृषि के देवता' भी कहे जाते हैं, उन्होंने संसार को खेती करना और निर्जीव शाकाहार को ग्रहण करना मनुष्य का वास्तविक एवं उचित आहार निरूपित कर बताया था । यही कारण है कि मनुष्य कच्चे तथा वन-उपवनों से तोड़ कर लाये हुए शाक-फलों आदि को ज्यों का त्यों ग्रहण नहीं करता । उसे सुधारकर, पकाकर, उबालकर तथा संस्कार कर विविध रूपों में उनका सेवन किया करता है, जिससे उसके अवशिष्ट दोष नष्ट हो जाते हैं। ऐसा भोजन ही हमारे शरीर को मानसिक और शारीरिक निर्माण के लिए सभी प्रकार के पोषक तत्व प्रदान करता है। शुद्ध सात्विक और स्वच्छ भोजन के ग्रहण करने से मनुष्य का जीवन भी शुद्ध सात्विक बनता है । जीवन को शुद्ध और साविक बनाना ही स्वस्थता का उत्तम लक्षण है । अतएव मनुष्य अपने जीवन को पवित्र और अच्छा बनाना चाहता है तो उसे अपने प्राकृतिक भोजन शाकाहार को अपनाना ही चाहिए।
हमें शरीर को स्वस्थ एवं पुष्ट बनाने के लिए निम्नलिखित तत्वों वाले खाद्यों का प्रयोग प्रतिदिन करना चाहिए :
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ख -५
[ २३ १. प्रोटीन-शारीरिक विकास, फुर्तीलापन, उत्साह और शक्ति पैदा करता है । शरीर की क्षति पूर्ति करता है। यह दालों, आनाजों, चना, मटर, दूध, दही, छाँछ, सप्रेटा दूध, फल, मेवों आदि में काफी पाया जाता है।
२. फैट (चिव नाई)-शरीर में गर्मी और शक्ति पैदा करता है । यह दूध, दही, घी, मक्खन, तेल, बादाम, अखरोट, काजू, मूंगफली आदि में पाया जाता है ।
३. खनिज लवण-भोजन शक्ति को अच्छा रखते हैं। हड्डियों को मजबूत बनाते हैं । रोगों से शरीर की रक्षा करते हैं । यह ताजी साग-सब्जी, फल, गेहूँ, चावल, दूध आदि में पाये जाते हैं ।
४. कार्बोहाइड्रेटस-शरीर में शक्ति और गर्मी प्रदान करते हैं। यह चावल, गेहं, मक्का, ज्वार, बाजरा, गन्ना, खजूर, मीठे फल, केला आदि में विशेष पाये जाते हैं ।
५. पानी (नमी)-शरीर की सफाई करके गन्दे पदार्थों (पसीना, मल मूवादि) को शरीर से बाहर निकालता है। भोजन को पचने में और खून के दौरे में मदद देता है। शरीर के तापक्रम को समान रखता है।
६. कैलशियम हड्डियों और दांतों को मजबूत करता है। शरीर का रंग निखारता है। बाल घने और मजबूत करता है । यह हरी सब्जियों, दूध, दही, छाछ आदि में पाया जाता है।
७. लोहा-इसकी कमी से खून की लाली कम हो जाती है । इसके अभाव में खून प्रत्येक तन्तु तक आक्सीजन नहीं पहुंचा सकता है। इसी कारण खून की कमी की बीमारी हो जाती है । यह हरी सब्जियों, अनाज, रोटी, सेम, मटर, हरी फलियों और सूखे मेवों में पाया जाता है।
८. विटामिन-शरीर को स्वस्थ और रोगों से मुक्त रखते हैं । ये चावल, गेहूं, दूध, दूध से बने पदार्थ, मक्खन, फल, ताजी पत्तियों वाली व बिना पत्तों वाली सब्जियों, नींबू, टमाटर, सेम, दाल आदि में पाये जाते हैं ।
९. कैलोरी-यह शरीर में शक्ति व गरमी मापने का पैमाना है । जैसे इंजन में कोयले के जलने से गरमी व शक्ति पैदा होती है और इंजन चलता है, उसी प्रकार भोजन करने से शरीर में गरमी और शक्ति पैदा होती है, उसी के माप को कैलोरी कहते हैं । एक ग्राम प्रोटीन में लगभग ४ कैलोरी, १ ग्राम वसा (चिकनाई) में ९ कैलोरी और १ ग्राम कार्बोहाड्रेट्स में ४ कैलोरी पाई जाती हैं।
अंडे-अंडा खाना कितना हानिकर है यह बताने के पहिले एक बात पर विचार कर लीजिये कि आजकल कुछ लोग अंडों को निर्जीव बतलाकर उसे शाकाहार के अन्तर्गत बताकर खाने लगे हैं और दूसरों को खाने की सलाह देते हैं। वे कहते हैं कि अंडे में न मांस होता है, न हड्डी; केवल पानी होता है। उनसे मैं नम्रतापूर्वक निवेदन करना चाहता हूं कि आप शान्ति से और गहरी दृष्टि से विचार करें कि जिस प्रकार गर्भाधान के आरम्भ में तरल पदार्थ के सिवाय मांस या हड्डी कुछ नहीं होता और फिर क्रमश: बच्चा बनता रहता है। उसी प्रकार अंडे के आरम्भ में भी उसमें तरल पदार्थ ही रहता है और यथाविधि रहने पर बच्चा उत्पन्न होता है । आप अंडा खाकर भ्रूण हत्या के दोषी बनते हैं।
इसके आगे यह देखें कि अंडे खाने से आपके शरीर को लाभ होता है या हानि ? डाक्टरों के मतानुसार अंडे की जरदी अंडे का बड़ा खतरनाक भाग है। एक अंडे की जरदी में कोलेस्ट्रोल नामक भयानक विष एक चिकना एलकोहल होता है, जो जिगर में पहुँचकर जमा होता है और हृदय से रक्त ले जाने वाली नाड़ियों में रुकावट पैदा करता है । इससे दिल की बीमारी, हाई ब्लड प्रेशर, गुरदे की बीमारी, पित्त की थैली में पथरी और जोड़ों में दर्द हो जाता है। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि वर्तमान में ज्यों-ज्यों अण्डे खाने का प्रचार बढ़ता जाता है
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त्यों-त्यों हृदय की धड़कन बन्द होने के कारण मौतें भी बढ़ती जाती हैं। हार्ट फेल होने से मरण होने के समाचार नित्य मिलते ही रहते हैं । खेद है कि इस बात पर न सरकार ध्यान देती है, न जनता । भारत का दुर्भाग्य है कि अहिंसा से स्वराज्य प्राप्त करने वाली हमारी सरकार भी अंडों और मछली के खाने के लिए प्रोत्साहन दे रही है। जनता को सावधान होकर यह देखना चाहिए, समझना चाहिए कि कोई कुछ कहे परन्तु हम स्वयं सोचें कि हम क्या खावें? हमें शाकाहार से लाभ होगा या अंडों और मांस से?
इंगलैंड के डाक्टर राबर्ट ग्राम का लिखना है कि-मुर्गी के बच्चे में बहुत सी बीमारियां होती हैं। अंडे उन बीमारियों को विशेषतया टी० बी०, पेचिश आदि के कीटाणुओं को अपने साथ लाते हैं और इनको खाने वालों में पैदा कर देते हैं।
___ डा. गोविन्दराज का कहना है कि-अण्डों में नाइट्रोजन, फास्फोरिक एसिड और चरबी की अधिक माना होती है। इस कारण शरीर में ये तेजाबी मादा पैदा करते हैं और मनुष्य को रोगी बनाते हैं।
डा० इ० बी० मैक्कलिम का लिखना है कि-अण्डों में कैलशियम की कमी और कार्बोहाइड्रेटस का बिल्कूल अभाव होता है। इस कारण ये बड़ी आंतों में जाकर सड़ान मारते हैं। सारांश यह है कि मनुष्य को अण्डे का प्रयोग कदापि नहीं करना चाहिए।
लन्दन के डाक्टर एलेक्जेण्डर हेग के वैज्ञानिक परीक्षण के अनुसार मछली और मांस में यूरिक एसिड विष होता है । यह विष जब खून में मिलता है तब दिल की बीमारी, टी० बी०, जिगर की खराबी, श्वांस रोग, खून की कमी, गठिया, हिस्टीरिया, सुस्ती, अजीर्ण और तरह-तरह के दर्द पैदा कर देता है।
विद्वान पाठक देखें और गौर करें कि वैज्ञानिक दृष्टि से मांसाहार मनुष्यों को हानिकर और शाकाहार कितना लाभकारी है। भगवान महावीर के इस २५०० वें निर्वाण वर्ष में हमारा, हमारे मुनिराजों का, साध्वीजी महाराज का यह परम कर्तव्य है कि ग्रामों ग्राम में विचरकर भगवान महावीर के अहिंसा सन्देश को सुनावें और राष्ट्रहित के लिए जनता को बतायें कि केवल धार्मिक दृष्टि से ही नहीं, वैज्ञानिक ष्टि से भी सोचें और समझें कि शक्ति और बुद्धि बढ़ाने के लिए मांसाहार नहीं, शाकाहार ही आपकी इच्छा पूरी कर सकेगा । आप प्रत्यक्ष देख लेवें कि मांसाहारी पशुओं से शाकाहारी पशु हाथी और घोड़े कितने बलवान होते हैं।
सत्य तो यह है कि मांसाहारी वस्तुओं की अपेक्षा शाकाहारी वस्तुओं में पोषक तत्व अधिक पाये जाते हैं। यह आप निम्नलिखित तालिका से भलीभांति समझ सकेंगे। तुलनात्मक दृष्टि से देखिये कि किस पदार्थ में प्रतिशत कितना पोषक तत्व है :वस्तु
पोषक अंशों की मात्रा बादाम
९१ प्रतिशत चना, मटर चावल
८६ , जो
८४ , घी दूध मांस
२८ , मछली
१३ , अतः यह सिद्ध हो जाता कि धार्मिक, आर्थिक या शारीरिक हित, किसी भी दृष्टि से देखा जाय तो मनुष्य के लिए मांसाहार कदापि उचित नहीं है।
।। || ||
८७ ,
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ख - ५
शाकाहार से ही अहिंसक समाजरचना :
अहिंसक समाजरचना का अर्थ ही यह है कि जिस समाज में मनुष्यों को ही नहीं, दूसरे प्राणियों को भी सुखशांति से जीने का अवसर मिले, सबको रोटी, रोजी, सुरक्षा शान्ति प्राप्त हो, सबका जीवन सहअस्तित्व की भावना पर टिका हो । और ऐसा तभी हो सकता है, जब समाज में शाकाहार का अधिकाधिक प्रचार-प्रसार हो । शाकाहार से ही समाज में सहअस्तित्व, न्याय, सुरक्षा और शान्तिपूर्वक जीने की मनोवृत्ति बन सकती है ।
भारत के भूतपूर्व राष्ट्रपति डा० राजेन्द्रप्रसाद ने कहा था - "यदि दुनिया से युद्धों को मिटाना है तो मांसाहार को मिटाना होगा ।" एडवर्ड एच० किरबी ( चेयरमैन वेजीटेरियन सोसायटी) ने इस बात का समर्थन किया है - " शाकाहारी नीति का अनुसरण करने से ही पृथ्वी पर शान्ति, प्रेम और आनन्द चिरकाल तक बने रहेंगे ।" अतः दुनिया की सबसे बेहतर समाजरचना अहिंसक है और उसे स्थापित करना है तो सामाजिकता के इस पहलू की दृष्टि से शाकाहार को अपनाए बिना कोई चारा नहीं । मांसाहार स्वयं ही हिंसा की बुनियाद पर टिका है, उससे अहिंसक समाजरचना कदापि नहीं हो सकती । इसलिए पाश्चात्य विद्वान मोरिस सी० कोघली ने लिखा है कि यदि पृथ्वी पर स्वर्ग का साम्राज्य स्थापित करना है तो पहले कदम के रूप में मांस भोजन करना सर्वथा वर्जनीय करना होगा । इसलिए यह निःसंदेह कहा जा सकता है कि मांसाहार से अहिंसक समाजरचना नहीं हो सकेगी, वह सो शाकाहार से ही संभव है ।
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मांसाहार - त्याग का सामाजिक मूल्य
- मिस कैथरीन हिलमैन ( सरला देवी )
महावीर और बुद्ध के जमाने से भारत में अहिंसा के सिद्धान्त की वजह से काफी जमातों ने मांसहार का faषेध किया था लेकिन मांसाहार को औसत में सामाजिक मान्यता नहीं मिली थी। उसका मूल्य नैतिक और आध्यात्मिक विचार तथा भूत दया पर आधारित था। उसका प्रभाव सिर्फ व्यक्तिगत चरित्र पर नहीं, बल्कि हमारे राष्ट्रीय चरित्र पर भी पड़ा था । यह हमारे दर्शन शास्त्र के विकास के लिए एक आवश्यक तत्व था । भूतविद्या के विकास के लिये भी वह आवश्यक था। यह हमारे देश की संस्कृति का एक बहुत महत्वपूर्ण अंग था, जिसकी वजह भारत का तत्व दर्शन पश्चिम में भी मान्यता प्राप्त कर सका है ।
लेकिन आजकल का शिक्षित वर्ग दकियानूस बनने से बहुत घबड़ाता है, इसलिये आजकल भारत की सांस्कृतिक मान्यताओं के बदले में, पश्चिमी मान्यताओं की ओर झुकाव ज्यादा है । अतः हर प्रकार के संयम को तिलांजलि देने के साथ ही साथ हमारे शिक्षित वर्ग में बहुत लोग अहिंसा के भी सिद्धांत को छोड़कर, मांसाहार करने में अपनी आधुनिकता समझने लगे हैं ।
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लेकिन अब मांसाहार करने में एक नया आर्थिक और सामाजिक सवाल पैदा हो रहा है। आजकल, लगभग सभी देशों में, लोग मानने लगे हैं कि जिन्दा रहने के लिये न्यूनतम खुराक सबको मिलनी चाहिये । यह भी मानी हुई बात है कि अब दुनिया की आबादी तेजी से बढ़ रही है, उसी अनुपात में अन्न का उत्पादन नहीं बढ़ रहा है और निकट भविष्य में वह उचित अनुपात में बढ़े, ऐसी उम्मीद नहीं है। अतः हर एक को सोचना चाहिए क्या हमारी खुराक में ऐसा कोई पदार्थ तो नहीं है, जिसकी वजह से अन्य लोगों के लिए अनाज कम मिलने की संभावना है ? यह देखने की दृष्टि दकियानूसी नहीं, आधुनिकतम है। वह उस नारे के सिद्धांत से मिलता है-हर एक को अपनी आवश्यकताओं के अनुसार ।
इसलिए गोश्त के उत्पादन से अनाज के उत्पादन पर क्या प्रभाव पड़ता है, इस बात को सोचने की अति आवश्यकता है। इसके लिए एक वैज्ञानिक नजर इस दिशा के अर्थशास्त्र पर डालने की आवश्यकता है।
यह मानी हुई बात है, यदि एक आदमी को पेट भर अनाज खिलाने के लिए एक एकड़ भूमि की आवश्यकता है तो दुग्ध पदार्थों को खिलाने के लिये दो एकड़ भूमि की जरूरत होगी और गोश्त खिलाने के लिए चार एकड़ की आवश्यकता होगी। लेकिन इन आंकड़ों को जरा ज्यादा गहराई से समझने का प्रयत्न करने पर उसका असली अर्थ ज्यादा स्पष्टता से समझ में आएगा।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से, गोश्त का उत्पादन बढ़ाने के लिए पश्चिम में लोग पशुओं को ज्यादा ठोस खुराक खिलाने लगे। विभिन्न प्रकार के अनाज के दाने उस ठोस खुराक का एक मुख्य अंग हैं। १९६१-६२ से १९७०-७१ तक, पशुओं को खिलाये जाने वाले अनाज में हर साल औसत में ६.३ प्रगिशत की वृद्धि हुई थी। अब विश्व के अन्नोत्पादन के ३१ प्रतिशत (यानी ३७ करोड़ टन) अनाज हर साल पशुओं को खिलाया जा रहा है। यदि हम मान लें कि औसत आदमी को सिर्फ आधा किलो अनाज रोज चाहिये, तो वह लगभग ढाई अरब लोगों की खुराक होगी।
जापान में १९६० से लेकर १९७३ तक गोश्त की खपत चौगुनी हो गई थी, क्योंकि गोश्त का आयात नहीं होता था, इसलिये ऊपर से ऐसा दीखता था कि गोश्त के मामले में जापान स्वावलम्बी है। लेकिन गहराई से देखने से एक दूसरा तथ्य समझ में आयेगा कि १९६० से लेकर १९७० तक के दरमियान जापान में सोयाबीन की आयात तिगुनी हो गई थी और मक्का की आयात चौगुनी हो गयी थी।
१९७२ में, गोश्त का उत्पादन बढ़ाने के लिए, रूस ने अन्न का उत्पादन कम किया था। आजकल रूस जैसे महान कृषि प्रधान देश में हर साल दो करोड़ टन गेहूं और एक करोड़ पशुओं के दाने की आयात होती है।
ब्रिटेन में १९७२ में औसत आदमी ने ७७.४ किलोग्राम गोश्त खाया था। उस गोश्त का तिहाई हिस्सा विदेशों से आयात से मिला, जिसकी कीमत ७१.५ अरब पौंड थी। अपने पशुओं को खिलाने के लिए ३६ लाख टन अनाज की आयात भी हुई और वहाँ की एक तिहाई कृषि भूमि में पशुओं को खिलाने के लिए दाने बोये गये थे। १९७२ में विलायत में प्रोटीनों की खपत में ५७ प्रतिशत प्राणिज प्रोटीन थी।
इन आंकड़ों को देखने से स्पष्ट होता है कि आजकल जो गोश्त खाने वाला होता है, वह गोश्त खाकर अन्य गरीब लोगों के अनाज को कम करता है जो आजकल भी बहुधा आधा पेट खाकर या भूखा रहता है। इसलिए अब मांसाहार त्याग के लिए सिर्फ अहिंसा तथा भूतदया नहीं, बल्कि सामाजिक और आर्थिक न्याय भी प्रेरणा देता है। आजकल मांसाहार त्याग का बहुत आवश्यक सामाजिक मूल्य भी है ।
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मांसाहार का दुष्परिणाम
-डा. मोहन बोरा
यह एक नितान्त थोथी धारणा है कि मांस-भक्षण से शरीर बलवान होता है। प्रोटीन और चर्बी की पूर्ति में इसे अनिवार्य तक माना जाने लगा है। किन्तु एक प्राकृतिक चिकित्सक के नाते मैं इसे बिल्कुल आवश्यक नहीं मानता तथा इसे हेय और घृणित मानता हूँ। मनुष्य को इतने अधिक प्रोटीन व चर्बी की आवश्यकता नहीं होती जितनी मांस में होती है । इस तरह प्रोटीन और चर्बी की अधिकता पाचन क्षेत्र में विखण्डन और दुर्गन्ध पैदा करती है और इस तरह अपच होता है । परन्तु शाकाहार यदि उचित रूप से लिया गया हो तो शरीर के लिए पर्याप्त प्रोटीन और चर्बी दे सकता है । संसार के बहुत से मनुष्य जिनका आहार शाक-शब्जी है, मांसाहार पर जीवित रहने वाले व्यक्तियों की तुलना में शारीरिक और मानसिक दोनों ही तरह से अधिक स्वस्थ रहते हैं। मांसाहारी होने की अपेक्षा शाकाहारी होना अधिक स्वास्थप्रद और मितव्ययी भी है।
जो भोजन हम करते हैं उससे शरीर बनता है, इसलिए ऐसे भोजन का गुण नम्र और संयमित होना चाहिए। यदि भोजन पशु के मांस से संग्रहित किया जाता है तो निश्चित रूप से उसका प्रभाव भी विपरीत होत है। इस सन्दर्भ में मेरा विचार यह है कि हमें अपने बच्चों के आहार में किसी पशु का दूध भी नहीं रखना चाहिए। भावी पीढ़ी के नैतिक पतन को रोकने के लिए उनके मस्तिष्कों का निर्माण पशूओं (गाय, भैंस, भेड़, बकरी) के प्रोटीन से निर्मित न होने पाए। यद्यपि असीम काल से उत्तम गुणों के कारण दूध को शाकाहार माना जाता है पर यह भी मांसाहार जैसी अज्ञानता से मुक्त नहीं हो सकता । निःसन्देह यह समुचित शोध का विषय है। निश्चित रूप से कुछ शाकाहारियों के लिए यह एक भयावह और दुखद प्राकट्य है।
भलाई और न्याय की भावना वाला सभ्य समाज का आदमी अपने मन में भोजन के लिए निरीह प्राणी को मारने की अनैतिकता नहीं पोष सकता। वह बहत ही प्रिय पशु का गला नहीं काट सकता। अगर ऐसा करने के लिए किसी पर दबाव डाला जाता है तो मांसाहारी स्वयं को दोषी अनुभव करेगा और मांस खाना छोड़ देगा। जहां तक परिणाम और मानवी चेतना पर प्रभाव का सम्बन्ध है, हत्या और कत्ल में कोई अन्तर नहीं है। पशुओं के भी मांस, हड्डियां और नाड़ी संस्थान आदि होते हैं, ठीक मनुष्य की तरह और इस तरह भोजन के लिए पशु का कत्ल और आदमी की हत्या में क्या अन्तर है ?
पालतू सुअर जमीन की हर गन्दी चीज खाते हैं यहां तक कि आदमी और पशुओं का मलमू अपने गन्दे भोजन के कारण सूअर संसार में सबसे गन्दा पशु माना जाता है। उसकी कोशिकाएँ परान्नभोजी होती हैं, यह गिद्धों से भी अधम होता है, पर कुछ मांसाहारी इन सूअरों के मांस को भोजन में सम्मिलित करते हैं।
पशु के मांस के पित्त सम्बन्धी तत्व रक्तचाप, कैंसर, गठिया और रक्तनलियों में रक्त का जमाव आदि बीमारियां पैदा करते हैं । मांसाहार का यही परिणाम होता है। पश्चिमी देशों में भी शाकाहारी संस्थाएँ हैं और वहां भी शाकाहारी आन्दोलन प्रगति कर रहा है। यहां यह कहना हास्यास्पद है कि महावीर, बुद्ध, गांधी व अन्य शाकाहारी ऋषियों की हमारी धरती पर मांसाहारी दिन-ब-दिन बढ़ रहे हैं। हमारी राष्ट्रीय सरकार भी बेकारी और खाद्य समस्याओं का हल निकालने के लिए देश में मुर्गी-फार्म, सूअर-फार्म, चरागाह-फार्म खोलने का प्रचार करती हैं।.
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मछली व माँस में विष
९ ग्रेन
गाय
लन्दन के डा० एलेग्जेंडर हेग के वैज्ञानिक परीक्षण-मछली व मांस में यूरिक एसिड विष खाद्य पदार्थ का नाम
एक पौंड में यूरिक एसिड विष की मात्रा मछली
५ ग्रेन भेड़-बकरी
६ ग्रेन बछला
८ ग्रेन सुअर
८ ग्रेन चूजा
९ ग्रेन गाय की भुनी बोटी
१४ ग्रेन गाय का जिगर
१९ ग्रेन मांस का शोरबा
५० ग्रेन विष का प्रमाव-यह विष जब खून में मिलता है तब दिल की बीमारी, टी० बी०, जिगर की खराबी, साँस रोग, खून की कमी, गठिया, हिस्टीरिया, सुस्ती, नीद का अधिक आना, अजीर्ण, तरह-तरह के दर्द, इनफ्लूएंजा, अनेक प्रकार के बुखार आदि सैकड़ों रोग पैदा होते हैं ।।
अमेरिका में १९६८ में डाक्टरों की खोज
मांस-भक्षण से हड्डियां कमजोर होती हैं हार्वर्ड मैडिकल स्कूल अमेरिका के डा० ए० बाचमैन और डा० डी० एस० बर्नस्टीन लैंसेंट, १९६८ वोल्यूम, पृष्ठ ९५८ में अपनी महत्वपूर्ण वैज्ञानिक खोजों का परिणाम लिखते हैं
"मांसाहारी लोगों का पेशाब प्रायः तेजाब युक्त होता है इस कारण शरीर के रक्त का तेजाब और क्षार का अनुपात ठीक रखने के लिए हड्डियों में से क्षार के नमक खून में मिलते हैं, और इसके विपरीत शाकाहारियों का पेशाब क्षार वाला होता है इसलिए उनकी हड्डियों का क्षार खून में नहीं जाता और हड्डियाँ मजबूत रहती हैं । उनकी राय में जिन व्यक्तियों की हड्डियाँ कमजोर हों उनको विशेष तौर पर अधिक फल, सब्जियों के प्रोटीन और दूध का सेवन करना चाहिए और मांस एक दम छोड़ देना चाहिए।"
-साइंस न्यूज (दिल्ली विज्ञान शिक्षक संघ) से उद्धृत
अण्डे
अण्डे कितने घातक, कितने भयानक डी०डी०टी० विष १८ माह के परीक्षण के बाद ३० प्रतिशत अण्डों में डी० डी० टी० पाया गया।
-कृषि विभाग, फ्लोरिडा (अमेरिका) हेल्थ बुलेटिन, अक्टूबर ६७
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[ २९ हृदयरोग
एक अण्डे में लगभग ४ ग्रेन कोलेस्टरोल की मात्रा पाई जाती है। कोलेस्टरोल की इतनी अधिक मात्रा से अण्डे दिल की बीमारी, हाई ब्लडप्रेशर, गुर्दो के रोग, पित्त की थैली में पथरी आदि रोगों को पैदा करते हैं।
--डा. रोबर्ट ग्रांस, प्रो. इरविंग डेविडसन पेट को सड़न
अण्डों में कार्बोहाइडेट्स बिल्कुल नहीं होते और कैल्शियम भी बहुत कम होता है। अतः इनसे पेट में सड़न पैदा होती है।
-डा० इ० वी०, मेल्कालम (न्यूअर नालेज आफ़, न्यूट्रिशन) एग्जिमा और लकवा
अण्डे की सफेदी में एवीडिन नामक भयानक तत्व होता है, जो एग्जमा पैदा करता है। जिन जानवरों को अण्डे की सफेदी खिलाई गई उनको लकवा मार गया और चमड़ी सूज गई।
___---डा० आर० जे विलियन्स, डा० रोबर्ट ग्रांस टी० बी० और पेचिश
मुर्गियों में बहुत सी बीमारियाँ होती हैं, अण्डे उन बीमारियां को विशेषतया टी० बी०, पेचिश आदि को अपने साथ ले जाते हैं और इनको खाने वालों में पैदा करते हैं।
-डा० रोबर्ट ग्रांस अण्डों के विरुद्ध बड़ें डाक्टरों की राय
अण्डों में चूने की कमी होती है और उनमें शर्करा भी नहीं होती है । अतः अण्डों में आंत के अन्दर सड़ाने की रुझान होती है वनिस्बत कि हाजमा दुरुस्त रखने की।
जब बन्दरों को अण्डों पर ही रखा गया तो सड़ाने वाले कीटाणु अधिक होने लगे और जानवर सोते हुए से रहते थे और कभी अपने सिरों को झुका हुआ सा रखते थे। वे सुस्त थे और बाहरी तरीकों से जब उन्हें उकसाया जाता था तो उनमें फर्तीलापन की कमी पाई गई। पेशाब मात्रा में कम होती थी और गहरे रंग की होती थी। और पेशाब में सड़ान की वस्तुओं की मात्रा ज्यादा बढ़ गयी थी। जब जानवरों को दूध व अंगूर की शर्करा दी गई तो मानसिक व शारीरिक दोनों परिवर्तन उनमें पुनः लौट आये और वे ठीक हो गये। इससे यह परिणाम निकाला जा सकता है कि मांस और अण्डों का अधिक प्रयोग विषाक्त तत्वों को शरीर में पैदा कर देता है जो कि सुस्ती लाते हैं।
-डा० इ०व० मैककोलम अण्डे खाना हानिकारक है।
___ अण्डे खाना नुकसानदायक भी है । अण्डा अव्यक्त मुर्गी का बच्चा है। अण्डा खाना एक प्रकार का गर्भ में डकैती डालने के समान है या यों कहिए कि मुर्गी के बच्चे की हत्या के बराबर है। परन्तु यह ही अण्डे खाने का एकमात्र अभिप्राय नहीं है। आप का यह कहना केवल कथन मान ही है कि मैं और अण्डे सलामत रहें तो जीवन के स्वास्थ्य की गाड़ी चलती रहेगी, परन्तु रासायनिक अन्वेषण कुछ और ही बताता है जो कि इस कथन के विरुद्ध गवाही देता है। अण्डे की सफेद जर्दी मुख्यतया एलबुमिन ही है जो कि प्रोटीन की एक किस्म ही है। शरीर अलबुमिन को नष्ट तत्व के रूप में बाहर निकालता है। अण्डे का पीला भाग कोलस्टरोल नामक पदार्थ अपने अन्दर रखता है जो कि एक प्रकार की चिपचिपी शराब है और जो यकृत और खून की रगों में जमा हो जाता है और खून की धमनियों (रगों) में जख्म और कड़ापन पैदा कर देता है।
--डा० जे० एम० बिलकिस
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३० ] अण्डे खाना हिंसा है
हम सबको यह सूचना देना चाहते हैं कि अण्डों में बहुत से बच्चे निकलते हैं, उममें सबसे अच्छे बच्चों को छोड़कर बाकी मार दिये जाते हैं। एक या दो साल बाद जबकि इन अच्छी नस्ल की मुर्गियों की अण्डे देने की शक्ति क्षीण हो जाती है, तो उन्हें भी मारकर पेट में कब्रिस्तान बनाया जाता है। केवल इतने ही से पीछा नहीं छूटता, आधुनिक दरबों के फर्श पर तार लगे रहते हैं, जिनसे मुर्गियों के पैर दर्द करने लगते हैं और रात में बीचबीच में बिजली का प्रकाश आ जाता है और फिर चला जाता है जिससे कि मुर्गियां समझे कि दिन हो गया है और ताकि वे कुछ खायें और अण्डे ज्यादा दें। मुर्गियों को पृथ्वी तक का स्पर्श नहीं कराया जाता है। इस प्रकार सब प्रकार की सूचनायें जानने के बाद कोई भी व्यक्ति अण्डे खाना पसन्द नहीं करेगा। केवल इसलिए ही नहीं कि इन जानवरों के साथ कितनी निर्दयता बर्ती जाती है बल्कि इसलिये भी कि स्वास्थ्य को हानि पहुँचती है। इस प्रकार की मुर्गियों से निकले अण्डे जिनमें मुर्गी को बिना दबाये हुए ही कृत्रिम उपायों से अण्डे मुगियों ने दिये हों किसी प्रकार भी मनुष्य के लिये हितकर नहीं हो सकते हैं। यदि इस प्रकार कृत्रिम उपायों से अच्छे अण्डे हम निकाल भी लें तो हम बिना अण्डों के ज्यादा अच्छे रहेंगे बनिस्वत् इसके कि हम ऐसे अण्डों को खायें क्योंकि ऐसे अण्डों में कोलेस्टरोल की मात्रा बहुत अधिक होती है जो कि धमनियां, दिल, दिमाग और गुर्दे की बीमारियों और पिताशय में पथरी का मुख्य कारण है। फल, शाक और शाक से निकले तेल कोलस्टरौल नहीं होता।
-डा० कैथैराइन निम्मों अण्डे मनुष्य का प्राकृतिक प्राहार नहीं
अण्डे जो कि मुर्गियों के बीज रूप हैं उनको अण्डों से निकले मुर्गी के बच्चों से अलग नहीं समझना चाहिये क्योंकि बच्चे उसे उसी अण्डे के तत्व से निकलते हैं। जानवरों का बीज मानव से ज्यादा संख्या में पैदायश करता है क्योंकि कच्चा अण्डा मनुष्य में वीर्य विकार पैदा करता है। बहुधा अण्डे को मुर्गी से निकला हुआ फल कहा जाता है जो कि एक विचित्र कथन है, क्योंकि अण्डे में एक सच्चे बीज के सब गुण मौजूद हैं। यदि हम इसकी तुलना एकोन के वक्ष के फल से करें तो दोनों बहुत कुछ मिलते-जुलते हैं। दोनों में बाह्य रक्षा हेतु एक प्रकार की कड़ी खाल सी रहती है जो कि अन्दर की चीजों की रक्षा करती है और दोनों में एक प्रकार की जीवनी शक्ति रहती है। जिससे पैदा होने वाले प्राणी की उत्पत्ति हो सके एकोन में पूर्ण रूप से एक अव्यक्त ओक है और अण्डे में मुर्गी का बच्चा अव्यक्त रूप में है। प्रत्येक को गर्मी, नमी और वायु को आवश्यकता है ताकि प्राणी की उत्पत्ति हो सके। एकोन के अन्दर सैलुलोस व शर्करा होती है जो कि बीज के मुख्य तत्व हैं और जिनसे कि खुराक पैदा होने वाले प्राणी को मिलती है। इसी प्रकार अण्डे में पीला भाग पैदा होने वाले मर्गी के बच्चे को कई दिन तक प इसके अतिरिक्त अण्डे तेजाब अधिक पैदा करते हैं और उनमें नाइटोजन चर्बी और फासफोरिस एसिड अधिक मात्रा में होती है और इस कारण से मनुष्य का प्राकृतिक आहार अन्डा नहीं हो सकता।
-डा. गोविन्द राज इस निश्चय पर पहुँचने के बाद कि मुर्गी के बच्चे में बीमारियां अधिक हो रही हैं जिसका कारण यह है कि आजकल कृत्रिम अप्राकृतिक उपायों से मुर्गियों को अत्यधिक अण्डे देने पर बाध्य किया जाता है तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि मुर्गियों का मांस खाने से मनुष्य की बड़ी आंत में हानिरहित जो वैसिलस कोलाई कमुनिस नामक कीटाणु रहते हैं उनमें से कुछ हानिकारक रूप धारण कर लेते हैं। यह सत्य हो या न हो पर इस बात पर विचार करना आवश्यक है, जबकि मुर्गियों के अत्यधिक उत्पादन पर हम सब ओर से विचार विमर्श करते हैं क्योंकि इसी परिस्थिति में पालतू जानवरों में जो रोग हो जाते हैं मनुष्य इसका उत्तरदायी है और एक दिन इसका प्रभाव मनुष्य पर बिना पड़े नहीं रह सकता।
-ज. ई०, र० मैकडोनल
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मांसाहार निषेधक विश्व-मनीषा
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जिस प्रकार तुम्हें दुख प्रिय नहीं है, वैसा ही दूसरे प्राणियों के सम्बन्ध में जानो ।
किसी भी प्राणी का घात करना स्वयं अपना घात करना है। दूसरों पर दया करना, स्वयं अपने ऊपर दया करना है।
भोजन जिह्वा के स्वाद के लिए नहीं खाया जाता-शरीर की रक्षा के लिए खाया जाता है।
मांस-भक्षण, मद्यपान, पशु-पक्षियों का शिकार, चोरी, द्यूतक्रीड़ा (जुआ खेलना) और व्यभिचार भारी पाप हैं, जो मनुष्य की दुर्गति कराते हैं ।
-जिनागम हे मित्र ! जो पशु का मांस खाते हैं, उनके सिर फोड़ डालो। हे अग्नि ! मांस भक्षण करने वालों को अपने मुंह में रख लो।
-ऋग्वेद
जो लोग अण्डे और मांस खाते हैं, मैं उन दृष्टों का नाश करता हूं।
-अथर्ववेद पशु-पक्षी आदि का बध करने वाला, उनके शरीर को काटने वाला, मांस का बेचने वाला, पकाने वाला, परोसने वाला, खरीदने वाला, दूसरों को देने वाला, खाने वाला और ऐसे कार्यों का अनुमोदन करने वाला ये सब घातक, दुष्ट और पापी हैं।
--मनुस्मृति जो लोग नाना प्रकार के अमृतोपम शाकाहारी पदार्थों को छोड़कर मांस आदि घृणित पदार्थों को खाते हैं, वे सचमुच राक्षसों जैसे लगते हैं। जो व्यक्ति दूसरों के मांस से अपना शरीर बढ़ाना चाहता है, उस निर्दयी से बढ़कर शूद्र अन्य कोई नहीं है।
-महामारत अनु० पर्व मांस दुर्गन्धित पदार्थ है, म्लेच्छों द्वारा सेवित है, आर्यजनों द्वारा त्याज्य है । आर्य (श्रेष्ठ) जन मांस एवं रक्त का आहार नहीं करते, क्योंकि वह अभक्ष्य और घृणित पदार्थ हैं। मांस-भक्षण से साधुत्व अथवा ब्राह्मणत्व नष्ट हो जाता है। मांसाहारी दूसरों के प्राणों को बलपूर्वक लेने के कारण डाकू के समान है। जो व्यक्ति लोभवश दूसरों के प्राण हरते हैं अथवा मांस के उत्पादन में धनादिक से योग देते हैं, वे पापी हैं, दुष्ट हैं, घोर नरक में जाकर महादुःख उठाते हैं । मैं मानता है कि जो व्यक्ति दूसरे प्राणियों का मांस खाता है, वह वास्तव में अपने पुत्र का मांस खाता है।
-भगवान बुद्ध, लंकावतारसूत्र जो कोई किसी जानवर को मारेगा, उसे परमात्मा क्षमा नहीं करेगा। हे पवित्र मानव ! परमात्मा की यह आज्ञा है कि धरती का मुख रुधिर, मैल और मांस से अपवित्र न किया जाय ।
-जरथुश्त ईसा पूर्व छठी शती के लगभग यूनान में पाइथेगोरस नामक मनीषी ने अहिंसा और शाकाहार का प्रचार किया था । पाइथेगोरस और उसके अनुयायी पूर्णतया शाकाहारी थे। .
-पाइथेगोरस
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ख - ५
पारस्यदेश का शाह सावरसमहान ( ईसापूर्व ५२९) भारी विजेता और एक महान साम्राज्य का संस्थापक था । वह स्वयं तो शाकाहारी था ही, उसने अपने सैनिकों को भी शाकाहारी भोजन करने का आदेश दिया था, जिसका दृढ़तापूर्वक पालन कराया जाता था। सेनोफेन नामक इतिहासकार के अनुसार १५ वर्ष की आयु तकसायरस का पालन पोषण रोटी शाक-जल पर ही हुआ था, तदुपरान्त उसे शहद और मुनक्का खाने के लिए दिये गये थे ।
- सायरस
३२ ]
जैसे ही आवश्यकताओं की सीमाओं का उल्लंघन किया जाता है, मांस को पथ्य बनाया जाने लगता है और धनसंग्रह सर्वोच्च प्रयत्न का लक्ष्य होता जाता है।
—सुकरात
मांसभक्षी, मद्यपायी, अपढ़ और मूर्ख मनुष्य पशुओं के समान हैं उनसे धरती माता सदैव दुःखी रहती है।
— चाणक्यनीति
।
मानव सीधा-सादा जीवन यापन करे, और जो गेहूं आदि से अपनी भूख मिटाये ऐसे भोजन से मनुष्य दीर्घकाल तक शान्ति से वृद्ध अवस्था का उपभोग कर सकता है, और अपनी सन्तान को उत्तराधिकार में सुखीजीवन दे सकता है।
- प्लेटो (यूनानी वर्शनिक अफलातून)
देखो मैंने पृथ्वी पर सब प्रकार की जड़ी बूटियां तथा उनके बीज दिये हैं। साथ ही, तरह-तरह के फलों से लदे पेड़-पौधे भी दिये हैं तथा उनके बीज भी इन सब शाकाहारी पदार्थों को खाओ। वे तुम्हारे लिए मांस से अधिक लाभप्रद हैं । तुम मेरे निकट सदैव एक पवित्र आत्मा बने रहोगे, यदि तुम किसी का भी मांस न खाओ । - ईसा मसीह सहस्रों सम्पन्न बलि यज्ञों को करने से कहीं श्रेयस्कर है वध किये गये प्राणियों के मांसाहार से विरत
रहना ।
तुम कहते हो, 'हम किसी जीवित प्राणी की हिंसा नहीं करते, केवल वध किये हुए प्राणी का मांस खाते हैं।' मैं कहता हूं यदि कोई मांस क्रय करने ही न आवे तो कौन किसी जीव की हत्या करेगा और उसका मांस बेचेगा ।
-तिदक्कुरल
किसी भी प्रकार का मांस ईश्वर को नहीं पहुंचता, न किसी का रक्त ही परन्तु जितनी कुछ दया तुम पालोगे वही अल्लाहताला को कबूल होगी ।
पैगम्बर मोहम्मद (कुरआन शरीफ) ऐ इन्सान ! पशु-पक्षियों की कब्र तू अपने पेट में मत बना |
- हजरत अली
कसाई को छुरी चलाते देख बकरी ने कहा- हरी घास खाने की मुझे यह सजा मिल रही है, तब मेरा मांस खाने वाले कसाई का क्या हाल होगा ?"
- सूफ़ी सन्त अबुल अला
मांस अहारी मानवा, परतछ राक्षस अंग । तिनकी संगत मत करो, परत भजन में भंग ॥ जोरि कर जिबह करें, कहते रहें हलाल जब दफ्तर देखेगा दई, तब होगा कौन हवाल ॥
-महात्मा कबीरवास
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[ ३३ जे रत्त लगे कापड़े, जामा होवे पलित्त । जो रत्त पीवे मानुषा, तिन क्यों निर्मल चित्त ॥
-गुरु नानकदेव मेरे लिए कितने सुख की बात होती, यदि मेरा शरीर इतना बड़ा होता कि मांसाहारी लोग केवल मेरे शरीर को ही खाकर संतुष्ट हो जाते, ताकि वे फिर दूसरों को मार कर न खाते । अथवा ऐसा होता कि मेरे शरीर का एक-एक अंश काटकर मांसाहारियों को खिला दिया जाता और वह अंश फिर वापस हो जाता, तो मैं बहुत प्रसन्न होता । उस प्रकार मैं अपने शरीर से ही मांसाहारियों को तृप्त कर सकता।
-सम्राट अकबर मांस का प्रचार करने वाले सब राक्षस के समान हैं । वेदों में कहीं भी मांस खाने का उल्लेख नहीं हैं।... शराबी और मांसाहारी के हाथ का खाने में भी मांसादि के खाने-पाने का दोष लगता है। जो लोग मांस और शराब का सेवन करते हैं, उनके शरीर, वीर्य आदि धातु दुर्गन्ध के कारण दूषित हो जाते हैं।"हे मांसाहारियों ! जब कुछ काल पश्चात पशु न मिलेंगे तब तुम मनुष्यों का मांस भी छोड़ोगे या नहीं ?...
गऊ आदि पशुओं का नाश होने से राजा और प्रजा दोनों का नाश हो जाता है । गैगो-रक्षा राष्ट्ररक्षा है।
-स्वामी दयानन्द सरस्वती मांस खाना असभ्यता है, धार्मिक जीवन के लिये निरामिष भोजन ही ठीक है।
-स्वामी विवेकानन्द क्या मांस खाना अनिवार्य है ? कुछ लोग कहते है कि यह अनिवार्य तो नहीं लेकिन कुछ बातों के लिए जरूरी है। मैं कहता हूं कि यह जरूरी नहीं।
जिन लोगों को इस बात पर सन्देह हो, वह बड़े-बड़े विद्वान डाक्टरों की पुस्तकें पढ़ें जिनमें यह दिखाया गया है कि मांस का खाना मनुष्य के लिए आवश्यक नहीं है।
मांस खाने से पाशविक प्रवृत्तियां बढ़ती हैं, काम उत्तेजित होता है, व्यभिचार करने और मदिरा पीने की इच्छा होती है। इन सब बातों के प्रमाण सच्चे शुद्ध और सदाचारी नवयुवक हैं । विशेषकर स्त्रियां और जवान लडकियां है जो इस बात को साफ-साफ कहती हैं कि मांस खाने के बाद काम की उत्तेजना और अन्य पाशविक प्रवृत्तियां आप ही आप प्रबल हो जाती हैं । मांस खाकर सदाचारी बनना असम्भव है।
हमारे जीवन में सदाचारी और उपकारी जीवन के पहिले जीने की तह में अर्थात हमारे भोजन में इतनी असभ्य और पापपूर्ण चीजें घुस गयी हैं और इस पर इतने कम आदमियों ने विचार किया है कि हमारे लिए इस बात को समझना ही असम्भव हो रहा है कि गोश्त-रोटी खाकर आदमी धार्मिक या सदाचारी कदापि नहीं हो सकता है।
गोश्त-रोटी खाते हुए धार्मिक या सदाचारी होने का दावा सुन हमें इसलिए आश्चर्य नहीं होता कि हममें एक असाधारण बात पाई जाती है। हमारी आँख है लेकिन हम देख नहीं सकते, कान है लेकिन हम नहीं सुनते । आदमी बदबूदार से बदबूदार चीज, बुरी से बुरी आवाज और बदसूरत से बदसूरत वस्तु का आदी बन सकता है, जिसके कारण वह आदमी उन चीजों से प्रभावित नहीं होता जिससे कि अन्य आदमी प्रभावित हो जाते हैं।
-टाल्स्टाय प्राचीन काल में मनुष्य बड़ी भारी संख्या में शाकाहारी ही थे। (Descent of Man, p. 156) और मैं विस्मित हूं कि ऐसे असाधारण मजदूर मेरे देखने में कभी नहीं आये, जैसे कि चिली (Chili) की कानों में काम करते हैं। वे बड़े दृढ़ और बलवान हैं, और वे सब शाकाहारी हैं।
-चार्ल्स डारविन
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१४ ] मेरा अनुभव है कि मांसहार की अपेक्षा शाकाहारी १० वर्ष अधिक जी सकता है ।
-मि० होरेस ग्रीले
सन् १९०८ ई० में प्रसिद्ध विद्युत-शास्त्रज्ञ ए. ई० वेरिस ने २५ वर्ष लगातार अपनी प्रयोगशाला में परिश्रम करने के अनन्तर सिद्ध किया है कि सब प्रकार के फल और मेवों में एक प्रकार की बिजली भरी हुई है, जिससे शरीर का पूर्ण रूप से पोषण होता है।
-ए० ई० वेरिस (हम सौ वर्ष कैसे जीवें) मनुष्य के जीवन पालन-पोषण के लिए जिस वस्तु की आवश्यकता है, वह सब बनस्पति द्वारा प्राप्त हो सकती हैं।
-प्रो० जोहन रे, एफ. आर. एस.
आप यह निश्चित रूप से समझ लीजिए कि 'मांस' मनुष्य का भोजन नहीं है । प्राचीन ग्रन्थों में राक्षसों व दैत्यों आदि को मांसाहारी बताया है। इससे यह सूचित होता है कि 'मांसभोजी' की अन्तरवृत्तियां राक्षसी हो जाती हैं । क्रूरता, लोलुपता, कठोरता और प्रतिक्षण उग्रता, ये सब मांसाहार के दुष्परिणाम हैं जो मन पर होते हैं । संसार में अगर अहिंसा, प्रेम, सत्य, दया एवं ब्रह्मचर्य तथा मैत्री का प्रचार करना है, तो सबसे पहले मनुष्य को शाकाहारी बनना होगा । शाकाहार के प्रचार के बिना अहिंसा और दया कैसे फल-फल सकेगी ?
-आचार्य श्री विजयबल्लमसूरि "आपको अपनी धारणा बनानी चाहिए कि मै आपके विश्वास का पात्र हूँ या नहीं। मैं इसे विश्वास कहता हूँ क्योंकि मैं शरीरविज्ञान सम्बन्धी तर्कों का कम आदर करता हूँ जिन्हें हम जड़वादी सिद्धान्त से शिक्षित युग को सम्बोधित करते हैं । जब तक हम शुद्ध मनोविज्ञान का विज्ञान विकसित नहीं कर लेते हम अध्यात्म-विधा तक नहीं पहुँचेंगे।
वह प्रत्येक वस्तु, जो कभी मनुष्य ने खाई है, कल धरती से हटा ली जाए, यहां तक कि मनुष्य भक्षण भी वाधित हो...."हम भूख से नहीं मरेंगे। लाशों को खाना कितना अनावश्यक और मूर्खतापूर्ण हैं। सब पर विचारें जो इसमें अन्तनिहित है...७० वर्ष से भी अधिक शाकाहारी रहने के विषय में मुझे कुछ भी नहीं कहना है। परिणाम लोगों के सामने हैं।"
-जार्ज बर्नार्डशा
"मैं नदी की ओर देख रहा था, अचानक मैंने देखा "बहुत गहरे विक्षोभ से भरी एक भद्दी-सी चिड़िया पानी में सामने के किनारे का रास्ता बना रही थी। मैंने मालूम किया वह एक पालतू मुर्गी थी जो कि छोटी किश्ती में त्रासदायक भय से मुक्त होने के लिए तख्ते पर से कूद गई थी और अब उन्मत्त होकर पार जाने का यत्न कर रही थी। वह लगभग किनारे पर पहुंच गई थी, तभी अपने निर्दयी पीछा करने वाले के पंजों में दबोच ली गई । गर्दन से पकड़ कर प्रसन्नता के साथ वापिस लाई गई। मैंने रसोइये से कहा- मैं भोजन में कोई मांस नहीं लूंगा। हम मांस निगल जाते हैं, क्योंकि निर्दय और पापपूर्ण कार्य जो हम करते हैं, उस पर सोचते नहीं। अनेक दुष्कर्म ऐसे हैं जो स्वयं मनुष्य द्वारा निर्मित हैं जिसका अन्याय उन्हें अपने स्वभाव, रियाज और परम्परा से भिन्न करता है।"
-रवीन्द्रनाथ टैगोर
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[ ३५ संसार के महान गणितज्ञ और भौतिक विद् आइंस्टीन "वेजिटेरियन वाच टावर" के सम्पादक को प्रेषित २७ दिसम्बर ३० के अपने पत्र में लिखते हैं-"हालांकि वाह्य परिस्थितियां शाकाहारी पथ्य के कठोर निर्वाह करने में मुझे रोकती रहीं, मैं लम्बे समय से सैद्धान्तिक रूप से आपके उद्देश्य का अनुचर रहा हूँ। आपके सौन्दर्य शास्त्रीय
और नैतिक उद्देश्यों से सहमत होते हुए भी मेरा विचार यह है कि शाकाहारी जीवन पद्धति मनुष्य स्वभाव पर अपने पूर्ण शारीरिक प्रभाव द्वारा सर्वाधिक लाभप्रद रूप में मानव समुदाय को प्रभावित करेगी।"
-अल्बर्ट आईन्स्टीन
अल्पाहारी कामगार, प्राणी चीर-फाड़ विरोधी, शान्ति के समर्थक, माताएँ और संसार के अच्छे अभिप्राय वाले लाखों कार्यकर्ता सभी शून्य पर आघात करते हुए अपनी शक्ति का अपव्यय कर रहे हैं जब तक कि वे उस बात की जड़ को लक्ष्य न बना लें जो आज हमारे संसार को किसी भी अन्य चीज की अपेक्षा मांस के उपयोग से अधिक दूषित कर रही हैं।
ये सभी बुराइयां मांसाहारी की शरीर-प्रक्रिया में विद्यमान जहर से पोषित होती हैं और उनके द्वारा प्रोत्साहित की जाती हैं जो इन बुराईयों को व्यावसायिक रूप देते हैं। शराबी अपने भीतर की लिप्सा द्वारा ही शराबी बनाया जाता है। कोई कह सकता है..."नहीं, वह साथियों द्वारा शराबी बनाया गया है।" उसके अधिक ऊँचे आदर्श जो थे, वह तथ्य रहता है, उसके अपने साथी उसे प्रभावित करने में असमर्थ रहेंगे। वह अपनी मूर्खता में मद्यसार और उत्तेजक पदार्थों का व्यवसाय करने वालों द्वारा ही प्रोत्साहित किया जाता है, जिनका वह उपयोग करता है। इच्छा-शक्ति से उसकी लिप्सा वश में करनी पड़ती है, जो पशु-विष लेने से शरीर-प्रक्रिया में उत्पन्न हुई और खुलेपन और उस जैसे साथियों के कारण ही विस्तृत हुई। मगर यह भोजन उसकी इच्छा-शक्ति छीन लेता है। ये विष लेते रहें और ये प्रलोभन बने रहते हैं। तब ये मूर्खता और नुकसानप्रद रूप में प्रकट होते हैं जैसे कि वे होते हैं जब तक कि प्राण-नाशक कारण दूर नहीं किया जाता। कम से कम नब्बे प्रतिशत घटनाओं में प्रार्थना, आंसू और भय का किसी भी तरह का कोई उपयोग नहीं होता है और शेष दस प्रतिशत में नौ पर ही अस्थाई असर होता है। -२० एल० प्रेट (सम्पारकर अमेरिकन वेजिटेरियन)
दस आदमियों के निर्वाह योग्य मांस की प्राप्ति के लिए पशुओं को पालने और उन्हें हृष्ट-पुष्ट बनाने के लिए जितनी जमीन में यदि मटर, जौ, बाजरा, अनाज आदि की खेती की जाये तो सौ आदमियों के निर्वाह योग्य भोजन प्राप्त हो सकता है।
-हमबोल्ट
हमारी नस्ल (मनुष्य-जाति) के लिए मांसाहार अनुपयुक्त है। अगर हम पशुओं से अपने को ऊँचा मानते हैं, तो फिर उनकी नकल करने में भूल करते हैं। यह बात अनुभव-सिद्ध है कि जिन्हें आत्म-संयम इष्ट हो उनके लिए मांसाहार अनुपयुक्त है-नश्वर शरीर को सजाने के लिए, उसकी उम्र बढ़ाने के लिए हम अनेक प्राणियों की बलि देते हैं। उससे शरीर और आत्मा दोनों का हनन होता है। धर्म मुझे मांस अथवा अण्डे खाने की आज्ञा नहीं देता।
- सही या गलत हो, पर मेरा धार्मिक विश्वास यही है कि मनुष्य मांस, अण्डा व अन्य प्रकार के मांस न खायें। यहां तक कि मनुष्य को अपने को जीवित रखने के लिये भी एक हद से ज्यादा गैर जुम्मेदारी के साधन इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। जीवन को सुरक्षित रखने के लिए भी निकृष्ट उपायों का अवलम्बन नहीं करना
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चाहिये । जहाँ तक मैं धर्म को समझ पाया हूँ वह यही है कि धर्म मुझकों ऐसे अवसरों पर भी जबकि जीवनमरण का संकट उपस्थित हो मांस अथवा अण्डा खाने की आज्ञा नहीं देता। मांस मिश्रित खराक खाने वालों के पीछे अनेक रोग लगे रहते हैं। बहुतेरे बाहर से देखने में नीरोग भी जान पड़ते हैं। हमारे शरीर के सब अवयव और गठन देखने से यह प्रत्यक्ष हो जाता है कि हम मांस खाने के लिये पैदा नहीं हुए।
डाक्टर किंग्सफोर्ड और हेग ने मांस की खुराक से शरीर पर होने वाले बुरे असर को बहुत ही स्पष्ट रूप से बतलाया है। इन दोनों ने यह बात साबित कर दी है कि दाल खाने से जो एसिड पैदा होता है, वहीं एसिड मांस खाने से बनता या पैदा होता है। मांस खाने से दातों को हानि पहुँचती है, संधिवात हो जाता है। यहीं तक बस नहीं, इसके खाने से मनुष्यों में क्रोध उत्पन्न होता है। हमारी आरोग्यता की व्याख्या अनुसार क्रोधी मनुष्य निरोग नहीं गिना जा सकता। केवल मांसभोजियों के भोजन पर विचार करने की जरूरत नहीं, उनकी दशा ऐसी अधम है कि उसका ख्याल कर हम मांस खाना कभी पसन्द नहीं कर सकते। मांसाहारी कभी नीरोग नहीं कहे जा सकते।
-महात्मा गांधी
फिर से कहता हूँ कि मुझे निरामिष आहार ही पसन्द है। हम लोगों ने (मैंने, मेरे पिता श्री ने, या उनके पिताजी ने) कभी मांस नहीं खाया। पशु-पक्षी का मांस तो छोड दीजिये. मछलियाँ भी नहीं खायी हैं. न: हैं। आइंदा भी ऐसा आहार खाने की न इच्छा है, न संभावना। प्राणियों को मार कर उनका मांस खाने की उपेक्षा मैं भूखे मर जाना पसन्द करूँगा। यह है मेरी निष्ठा ।
-काका कालेलकर
मेरा विश्वास है कि आज भारतवर्ष में यदि सभी लोग मांस भक्षण छोड़ दें तो ये साम्प्रदायिक और जातीय कलह एक दम दूर हो जायें। भारतीयों के लिये मांस भक्षण कभी कल्याण कारक नहीं हो सकता, सात्विक अन्नाहार और फलाहार से मस्तिष्क जितना ही शान्त होकर कार्य करता है मांसाहार से उतना ही उत्तेजित रहता है।
-वैध हनुमान प्रसाद शर्मा
प्राकृतिक नियम समय-समय नहीं बदले जा सकते। एक अच्छे काम का अच्छा फल मिलता है और बुरे काम का बुरा फल मिलता है । यह कर्म सिद्धान्त है । इस कर्म सिद्धान्त के अनुसार प्रकृति का यह नियम भी लागू होता है कि यदि कोई किसी जीव की इतिश्री करता है, यानी उसके जीवन का अन्त कर देता है तो उस पाप का भागी वही कुकर्म करने वाला होता है। अतः प्रकृति के इस नियम को दृष्टि में रखते हुए मांस और अण्डे मत खाओ जिससे कि जीवन का अन्त ही हो जाता है यानी मार डाला जाता है।
-डा. व. ज. जयसूर्य, सीलोन सिलवेस्टर, ग्रेहम, प्रो० एस० फोलर, जे. एफ-न्यूटन, जे० स्मिथ, डा० ओ० ए० अलवर हिडकलेन्ड, चीन, लेम्ब वकान, ट्रेजी, ओ० लास, पेम्वर्टन, ह्यईटेला इत्यादि कई डाक्टरों, प्रवीण चिकित्सकों ने अनेक दृढ़तर प्रमाणों से सिद्ध किया है कि मांस मछली खाने से शरीर व्याधि मंदिर हो जाता है। यकृत, यक्ष्मा, राज यक्ष्मा, मगी, पादशोथ, वातरोग, संधिवात (Rheumatism), नासूर (Caneer) और क्षय रोग (Consumption) आदि रोग उत्पन्न हो जाते हैं, जिससे मनुष्य को दारुण दुःख भोगना पड़ता है। प्रशंसित डाक्टरों ने प्रत्यक्ष उदाहरण द्वारा यह प्रगट किया है कि मांस मछली खाना छोड़ देने से मनुष्य के उत्कट रोग समूल नष्ट हो गये हैं, वे हृष्ट-पुष्ट हो
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[ ३७ जाते हैं । डा० एस० ग्रहेमन, डब्ल्यू० एस० फूलर, डा० पार्मली, लेम्ब, ब्यानिस्टर, ब्रेलर जे० पोटर्र, ए० जे० नाइट और जे० स्मिथ इत्यादि डाक्टर स्वयं मांस खाना छोड़ा देने पर यक्ष्मा, अतिसार, अजीर्णता और मृगी आदि रोगों से विमुक्त होकर सबल और परिश्रमी हुए हैं । इमी प्रकार उन्होंने अन्य रोगियों को मांस छुड़ा कर अच्छा तन्दुरुस्त किया है एवं कई डाक्टरों ने अपने परिवार में मांस खाना छुड़ा दिया है।
जापान सरकार ने अपनी प्रजा के लिए आरोग्यवर्धक नियम प्रकाशित किये । उसके दूसरे नियम में यह लिखा है कि-अच्छा अनाज, फल, शाक और गाय का ताजा दूध तुम अपनी नित्य की खुराक में इस्तेमाल करो। मांस बिल्कुल नहीं खाना, गाय का दूध जहां तक हो सके उसका अधिक उपयोग करना, और अन्न खूब चबाकर गले से नीचे उतारना।
इंग्लैण्ड सरकार की ओर से ब्रिटिश बोर्ड आफ एग्रीकल्चर ने ता० ११-११-१५ के टाइम्स आफ इण्डिया द्वारा अन्न, फल और शाक के महत्व सम्बन्धी एक लेख से अंग्रेजी प्रजा को चेतावनी दी थी कि
'मांसाहार छोड़कर उसके बदले दूध, पनीर, आलू, और मसूर की दाल ग्रहण करो, जो मांस की खुराक की तरह ही शरीर में मांस पैदा करते हैं । मांसाहार जैसे शरीर की शक्ति और हिम्मत कम करता है, एवं तरह-तरह की बीमारियों का मूल कारण है वैसे ही बनस्पत्याहार के साथ कमताकती डरपोकपन और बीमारियों का कोई सम्बन्ध नहीं है।'
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शाकाहारी सिद्धान्त का इतिहास
ज्योफ्री एल० रूड
जनरल सेक्रेटरी, इण्टरनेशनल वेजीटेरियन यूनियन
जहाँ तक लिखित आलेखों का सम्बन्ध है, ऐतिहासिक शाकाहारी सिद्धान्त समय की अस्पष्टता तक जाता है और विश्व के सर्वाधिक असाधारण बौद्धिकों और सुधारकों ने सिद्धान्त रूप में मांस रहित पथ्य का प्रतिपादन किया है ।
अलक्जेंड्रिया के विलमेंट के अनुसार प्राचीन मिश्र के पुजारियों ने मांस खाद्य का त्याग कर दिया था। ब्राह्मण, जैन और जरथुसियन धर्मों की भी, जिनकी उत्पत्ति की तिथि अज्ञात है, यही मान्यता है ।
पश्चिमी संसार में शाकाहारियों का प्रथम समूह निश्चित रूप से पेथागोरस के अनुयायियों से बना, जिसने ईसा पूर्व छठी शताब्दी के ग्रीस को अद्वितीय रूप से झकझोरा । हावर्ड विलियम्स ने अपनी 'एपिक्स आफ डाइट' नामक विद्वत्तापूर्ण पुस्तक में शाकाहारी साहित्य की खोज से ईसा पूर्व आठवीं शताब्दी में मांस रहित पथ्य का मूल्यांकन ज्ञापित किया ।
ईसा पूर्व पांचवी शताब्दी में एम्पीडोकस ने पैथागोरस की परम्पराओं को बनाए रखा। प्लेटो के दर्शन को पैथागोरथ के दर्शन की अगली श्रृंखला माना जा सकता है ।
ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में बुद्धधर्म के अनुयायी भारतीय सम्राट अशोक ने अपने राज्य में मनुष्य और पशुओं के लिए समान चिकित्सा की व्यवस्था करवा दी थी। ईसा के समय तक अनेक धार्मिक संस्थाओं और समूहों ने तपस्वी जीवन अपना कर मांसाहार का त्याग किया था, प्लोटिनस, अपोलोनियस, पोरफयरी, सेनेका, ओविड, डायोजेनिस, सुकरात, प्लूटार्क आदि विशिष्ट व्यक्तियों को महत्वपूर्ण शाकाहारियों में माना जाता है । इसके बाद मिल्टन, पोप, शेले, रूसो, थोरो, वाल्टेयर, आइजक न्यूटन के अनुसार भी मांसाहार विकसित विचार प्रक्रिया के लिए अनावश्यक ही नहीं, बाधक रहा है ।
सन् १८४२ ई० में 'वेजेटेरियन' शब्द के प्रकाश में आने के बाद पूर्णरूप से मांसरहित आहार के प्रसार के लिए सन् १८४७ ई० में मांचेस्टर में एक धर्मनिरपेक्ष संगठन 'द वेजेटेरियन सोसाइटी' की स्थापना हुई, परन्तु इसका श्रेय भी सन् १८०९ में रेवरेंड विलियम्स काउहर्ड द्वारा स्थापित 'बाइबल क्रिश्चियन चर्च सालफोर्ड' को दिया जाना चाहिए ।
द वेजेटेरियन सोसायटी की हीरक जयन्ती के अवसर पर नीस के डी० अनजोड की प्रेरणा से १९०८ ई० में नीस में ही प्रथम अन्तर्राष्ट्रीय शाकाहारी संस्था की कान्फ्रेंस सम्पन्न हुई । १९५० ई० तक इन्टरनेशनल वेजिटेरियन यूनियन' का कार्य मानदरूप में होता रहा पर केलिफोर्निया की श्रीमती क्लेरेन्स गास्व्यू की उदारता स्वरूप
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लन्दन में इसका स्थायी कार्यालय बना और अफ्रीका, अर्जेंटाइना, डेन्मार्क, फ्रांस, भारत, मलाया, न्यूजीलैंड, अमेरिका, कनाडा, स्विटजरलैंड आदि अनेक देशों में इसकी शाखाएँ स्थापित हुई और अब यह एक नियमित आन्दोल के रूप में चल रहा है। 'इन्टरनेशनल वेजिटेरियन यूनियन' को संयुक्तराष्ट्र संघ के महत्वपूर्ण विभाग 'यूनेस्को' और 'एफ० ए० ओ.' से मान्यता प्राप्त है।
पश्चिमी देशों में शाकाहार प्रचार करने वाली प्रमुख संस्थाएँ :
१. दी आर्डर आफ़ दी गोल्डेन एज, लन्दन (इंग्लैंड) २. दी वेजिटेरियन सोसाइटी (इंग्लंड) ३. दी नेशनल एन्टी-विविसेक्शन लीग, लन्दन (इंग्लैंड) . ४. दी लन्दन वेजिटेरियन सोसाइटी, लन्दन (इंग्लैंड) ५. दी फूड एजुकेशन सोसाइटी, लन्दन (इंग्लैंड) ६. दी लिवरपूल वेजिटेरियन सोसाइटी (इंग्लैंड) ७. दी स्काटिश वेजिटेरियन सोसाइटी, ग्लासगो (स्काटलैंड) ८. दी नाटिंघम वेजिटेरियन सोसाइटी, नाटिंघम (इंग्लैंड) ९. दी जर्मन वेजिटेरियन सोसाइटी फ्रैंकफर्न (जरमनी) १०. दी अमरीकन ह्यूमेन एजुकेशन सोसाइटी, संयुक्त राज्य अमरीका ११. दी टोरेन्टो रेसक्यू लीग, बोस्टन (अमरीका) १२. दी अमरीकत ह्यूमेन एसोसियेशन, सं० रा. (अमरीका) १३. दी नार्थ अमरीकन वेजिटेरियन सोसाइटी १४. दी वर्ल्ड वेजिटेरियन कांग्रेस १५. इन्टरनेशनल वेजिटेरियन यूनियन
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संसार के विभिन्न देशों में शाकाहार प्रचार
अन्तर्राष्ट्रीय शाकाहारी संघ
१९०८ ई० में इण्टरनेशनल शाकाहारी यूनियन की प्रथम बैठक जोर्जेस आजाऊ के प्रस्ताव पर ड्रेसडन में हुई थी। वेजिटेरियन सोसायटी' इंग्लैंड के सचिव अल्बर्ट ब्रोडवेट द्वारा संचालित इस बैठक में फ्रांस, नार्वे, हालैंड और जरमनी के प्रतिनिधि उपस्थित थे। १९१० ई० में ब्रसेल्स में हई तीसरी कांग्रेस में प्रति तीसरे वर्ष आयोजित करने का निश्चय किया गया। इसी के फलस्वरूप १९१३ ई० में हेग में अधिवेशन सम्पन्न हुआ। पर सन् १९१४-१८ ई. के प्रथम महायुद्ध के काल में इसकी कोई गतिविधि नहीं रही। यूं कहना उपयुक्त होगा, युद्ध के कारण दो भागों में विभाजित हो गई यूरोपीय संस्था, जिसका अब तक जुड़ाव नहीं हो पाया है। युद्ध और यूद्धांतर परिणामों से त्रस्त रही और दस वर्ष तक इस सभ्यता का कोई कार्य नहीं हो पाया । स्वीडन के प्रबुद्ध शाकाहारी जे. एल० सेक्शन के प्रधान आतिथ्य में १९२३ में स्टाक होम में फिर कांग्रेस हई। १९२७ ई० में लन्दन में, १९२९ में चेकोस्लोविया में, १९३२ ई० में हैम्बर्ग में, १९३५ ई० डेन्मार्क और १९३८ ई० में नार्वे में हुए अधिवेशनों से यूरोप में यह आन्दोलन फिर फैला । दूसरे महायुद्ध के कारण पुनः ९ वर्ष का व्यवधान आया। 'मजदाज' आन्दोलन की नेता श्रीमती गी-क्य के प्रभूत अनुदान के फलस्वरूप संस्था के प्रधान कार्यालय में पूर्णकालिक सचिव की व्यवस्था हुई। जान हनवर्थ वाकर के प्रयत्नों से संस्था को संयुक्त राष्ट्रसंघ और खाद्य एवं कृषि संगठन से मान्यता मिली।
२२वां अन्तर्राष्ट्रीय शाकाहारी सम्मेलन २८ जुलाई १९७३ से ४ अगस्त १९७३ तक रोनबी (स्वीडन) में सम्पन्न हुआ।
प्रश्न उठ सकता है कि आखिर अन्तर्राष्ट्रीय शाकाहारी संघ क्या उपलब्ध करना चाहता है ? निःसन्देह वह एक ऐसे वातावरण का निर्माण करना चाहता है जिसमें वे लोग परस्पर जुड़ते हैं
जो जन्म अथवा स्थान की सुविधा के कारण अनायास ही मिन्न नहीं बन जाते; जो बहुधा भिन्न भाषा-भाषी व विभिन्न राष्ट्रों के वासी होते हैं; किन्तु जो एक लक्ष्य के लिए जूझे हुए हैं; और । जिनकी आशा, भय व भावनाओं में एकरूपता है।
इसका प्रमुख कार्य है शाकाहारी आचरण, जानकारी व आदर्शों के विस्तार को सम्भव बनाना । इस आंदोलन ने निश्चय ही कुछ महान सुधारों को पोषित किया है और यह उन संगठित प्रयासों का निरन्तर गवाह रहा है, जो अच्छे स्वास्थ्य, आरोग्य, अविचल सन्तोष, करुणा एवं शान्ति के लिए किये जाते रहे हैं । इसकी प्रमुख उपयोगिता में से एक है, अन्तर्राष्ट्रीय मैत्री को और अन्तर्जातीय सम्बन्धों को प्रगाढ़ बनाना । अमेरिका
यदि शाकाहार का अर्थ है, शाक-सब्जियों, फलों आदि का प्रमुख उपयोग किया जाना, तो कहा जा सकता है कि अमेरिका गति से इस दिशा में बढ़ रहा है । यद्यपि मांस यहां का प्रमुख खाद्य है फिर भी अमेरिकी स्वेच्छा से कई दिन मांस का प्रयोग नहीं करते।
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डा० डी० इ० लेन व डा० एम० एस० रोज ने विकल्प के रूप में "लेक्टी -ओबुलो-वेजीटेरियन" आहार प्रस्तुत करने के लिए काफी श्रम किया है । यह पूर्णतः 'वेगन' आहार है । अमेरिकन मेडीकल जनरल व धर्म सम्बन्धी पत्रिकाओं में वैज्ञानिक शोधकर्ताओं की इस सन्दर्भ की खोजों का विवरण प्रकाशित किया जाता है । अतः डाक्टर लेन का शिशु आहार व बालकों के लिए दुग्धाहार जो सोयाबीन के आटे से व अन्य अन्न से प्राप्त किया जाता है औषधि व्यवसाय में बहुत प्रचारित है ।
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इसी प्रकार एक विशिष्ट प्रयोग का हवाला 'रीडर्स डाइजेस्ट' में दिया गया है, जिसके अन्तर्गत कृत्रिम मांस बनाये जाने की व्यवस्था है । कई स्वास्थ्यप्रद आहार के निर्माता 'नट रोस्ट' आदि बनाते हैं जिसे मांस की ही तरह परोसा जा सकता है । शाकाहार की पाक - विधियों का साहित्य बड़ी तादाद में बिकता है ।
यह दर्शाता है कि अमेरिका के लोग सब्जियों के सलाद, फलाहार आदि की ओर प्रवृत्त हो रहे हैं और मांस का उपयोग कम होता जा रहा है । शाकाहार इतना विस्तार पा चुका है कि मांस विक्रेता अपने उत्पादनों के लिए अधिक विज्ञापन व प्रलोभन देने को बाध्य हो रहे हैं।
यूँ तो अमेरिका में एक शाकाहारी संघ शुरू में लगभग १५ वर्ष तक न्यूयार्क में कार्य करता रहा, किन्तु व्यवस्थित रूप से आयरलैंड की श्रीमती मार्गरेट कजिन ने श्री मेनवेक के सहयोग से १९३२ में शाकाहारी संघ की विधिवत स्थापना की। श्री जुल्स एच० ब्लजेस, हेनरी राफ्यू, मेटा परीरा आदि अमेरिका में शाकाहार प्रचार हेतु सक्रिय हैं। रेवरेंड विलियम मैटकाम इस आन्दोलन के संस्थापक के रूप में जाने जाते हैं ।
तब का बोया बीज अब पल्लवित पुष्पित होकर देश भर में अपनी सुरभि फैला रहा है । अमेरिका के लोग अब स्वास्थ्य सन्दर्भ में काफी जागरूक हो चुके हैं ।
- डेनियल पी. आफर्मन
कनाडा
टोरेण्टो वेजिटेरियन असोसियेशन १९४५ में गठित हुआ । यह गठन प्रो० आर्थर एफ० स्टीवेन्सन के आवास पर एकत्रित शाकाहारियों के मध्य सम्पन्न हुआ । केफेटोरिया व रेस्त्राओंों में आयोजित होने वाली इसकी बैठकों में शाकाहार के समर्थक विभिन्न पहलुओं पर चर्चा करते हैं । १९४९ में कनाडियन वेजिटेरियन यूनियन की स्थापना हुई
कनाडियन व अमेरिकन शाकाहारी समर्थकों में पारस्परिक मेलजोल है । इनके बीच विस्तृत पत्राचार होता है। कनाडियन नियमित रूप से अमेरिकन नेचरल हाइजिन सोसाइटी के सम्मेलनों में भाग लेते हैं । प्रख्यात आहार - शास्त्रज्ञों के सारगर्भित प्रवचनों से कनाडावासी लाभान्वित होते हैं ।
पत्र-पत्रिकाओं में शाकाहार के प्रति लोगों की रुझान उनके लिखे पत्नों से झलकती है। जिन क्षेत्रों में व्यवस्थित शाकाहारी संघ नहीं हैं वहां व्यापक प्रचार किया जाता है व पूँछ-परख करने वालों को साहित्य आदि भेजा जाता है । स्वास्थ्यप्रद वस्तुओं के स्टोर्स हैं ।
कनाडियन वेजिटेरियन यूनियन के सदस्य विश्व भर में अपने मित्रों, परिचितों के साथ मिलकर शाकाहार के विस्तार में संलग्न हैं । वे इसे निर्दयता, युद्ध व अन्याय को रोकने तथा बन्धुत्व व शान्ति की प्रतिस्थापना के लिए आवश्यक कदम मानते हैं ।
- इवा एम. बड
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ग्रेट ब्रिटेन
१९०८ ई. के लगभग मांचेस्टर में शाकाहारी आन्दोलन प्रारम्भ हआ। यद्यपि प्रारम्भिक आधार धार्मिक आचारिक ही रहे, परन्तु कुछ समय पश्चात् शाकाहारी आन्दोलन के समर्थकों ने इसे स्वास्थ्य और अर्थ सम्बन्धी आधारों पर विकास दिया। इसका सारा श्रेय १८०९ में स्थापित बाइबल क्रिश्चियन चर्च को दिया हैं। १८४७ ई० और १८८८ ई० से शाकाहारी आन्दोलन की दो संस्थाएं अपने-अपने ढंग से कार्य कर रही हैं तथा ७ जनवरी १८८८ ई० को वेजिटेरियन पत्रिका का पहला अंक प्रकाशित हुआ था, जिसकी घोषणा थी
- "इस पत्र का नाम ही खानपान के आदर्श की घोषणा का सूचक है पर इसका क्षेत्र मान पथ्याचार के सुधार के सिद्धांतों की घोषणा तक ही सीमिति नहीं रहेगा, यह उन आवश्यक स्थितियों का भी सृजन करता रहेगा, जिनसे आदर्श की प्राप्ति हो, पहले शारीरिक फिर मानसिक और तब आध्यात्मिक जीवन की।" यह अपने लेखों, गम्भीर विचारों, रोचक वार्ताओं के माध्यम से शाकाहार का प्रचार करता रहा है।
ब्रिटेन के सुप्रसिद्ध दैनिक समाचारपत्र "मिरर" ने शाकाहार के आन्दोलन पर निम्न शब्दों में अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की थी
"कुलीन परिवारों के सदस्यों में शाकाहारी सिद्धांत इस तरह लोकप्रिय हो गया है कि कोई भी शानदार भोजन अलग भोजन सूची "फेड डिसेज" के बिना पूरा नहीं होता।"
--जेम्स हो
स्काट लैण्ड
स्काटिश शाकाहारी संघ की स्थापना १८९२ में हुई । अरनाल्ड एफ हिल्स ने इसमें बहुत सहयोग दिया, और १८९७ में जान पी० एलन ने एच० एस० बाथगेट व दुगाल्ड सेम्पल के सहयोग से इसमें अद्वितीय अभि
वृद्धि की।
-जेम्स हो आयरलैण्ड
यहां शाकाहार प्रचार का कार्य बहुत जटिल था। ऐसे अधिकारी जो समय दे सकें, अनुभवी व उत्साही हों, मिल पाना मुश्किल था, किन्तु अब यहां यह आन्दोलन जोर पकड़ चुका है । जेम्स दम्पति द्वारा भारत में डा. एनीबिसेन्ट के साथ १९१५ में कार्य करने के पूर्व डबलिन में इनकी संघर्षमय शुरुआत की गई व बेलफास्ट में इसके प्रसार का श्रेय विलियम डा० काजिन्स को दिया जाता है।
अब तो ब्रिटेन में शाकाहारी प्रचार आधुनिकतम साधनों द्वारा किया जाता है, जिनमें टी. वी. भी सम्मिलित है । लोगों में इसके बारे में जानने की उत्सुकता है व इस बाबत प्रयोग करने की तत्परता भी है। कई रेस्तरां व आहार संस्थान खुल चुके हैं। इसके लिए विभिन्न समितियां कार्यरत हैं।
-जेम्स हो
जापान
शाकाहारी सिद्धांत अप्राकृत हो गई सभ्यता का उपचार है । 'जीने के लिए संघर्ष' मुक्तउद्योगी समाज का नारा रहा है और सुदूर पूर्व में पिछले अस्सी बर्षों से मुक्त उद्योग के लिए जापान अगली पांत में रहा है, विशेष
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रूप से द्वितीय महायुद्ध के बाद से । पच्चीस वर्षों में इस तेजी से वह एक आर्थिक शक्ति हो गया है कि उसके अपने ही लोग कुछ समय पूर्व तक भी औद्योगिक और प्रकृतिपर दूषण से जो परिवर्तन होगा उस पक्ष के प्रभावों पर गहराई से नहीं सोच पाये हैं।
जापान अब जागृत हो रहा है। वह 'जीवन के लिए संघर्ष' के नारे के स्थान पर 'जीवन के लिए संतुलन' के नारे की स्थापना को १९८० की सभ्यता का लक्ष्य मानकर उठ रहा है।
यूरोप मांसाहार का प्रभाव केन्द्र रहा है और एशिया की तथाकथित प्रगति का अगुआ होने के कारण जापान ने भी यूरोप की आदतों का अनुकरण किया है। पहले जापानी मुख्य रूप से शाकाहारी पे और अमेरिकन एडमिरल परी के पहुंचने तक अधिक मात्रा में शाक-सब्जी की कृषि में प्रचुरता से स्वनिर्भर थे। उसी शताब्दी में जापान यूरोप और उत्तरी अमेरिका के लोगों के मांसाहार के तरीके की नकल करने वाले देश में बदल गया । मगर तब भी जीवन्त दर्शन के दो स्वरूप देश में अपना सह-अस्तित्व बनाए हुए हैं-एक शहरवासियों में दिखाई देता है जो सामान्यतः सतही-छलपूर्ण तरीकों से आर्थिक लाभ के पिछलग्गू होते हैं, दूसरा चरवाही जीवन में विशेष रूप से स्त्री जाति में दिखाई देता है जहां शान्त गृह-स्वामी शाकाहारी होते हैं । इस कारण शहरी क्षेत्र में किसी विदेशी पर्यटक को शाकाहारी आवास अथवा आहार प्रतिष्ठान प्राप्त करने में कठिनाई हो सकती है, परन्तु ग्रामीण जिलों में जापानी पद्धति के अतिथि-घर और सराय प्राप्त कर लेना बहुत सहज है।
___ जापान में शाकाहारी सिद्धान्त (धार्मिक और आचारिक भी) का व्यापक स्तर पर साधारण जन में तो थोड़ा ही झुकाव है, मगर बौद्धिकों द्वारा मानसिक, पोषणिक और चिकित्सा विज्ञान के लिए विशेष रूप से उपचारात्मक गुणों के लिए इसकी शोध की जाती है। ऐसे अनेकों स्वास्थ्यालय हैं जहां शाकाहारी सुविधाएं चिकित्सकों द्वारा प्राकृतिक चिकित्सा के आधार पर उपलब्ध कराई जाती हैं।
-डा. मसाकाजु टटाडा
नीदर लण्ड (हालैण्ड)
एक करोड़ तीन लाख की आबादी वाले इस देश में शाकाहारी होना कोई कठिन काम नहीं है । हालैण्ड में दूध की बनी वस्तुएं,फल और शाक-सब्जियाँ प्रचुरता से उपलब्ध हैं। वहां के अधिकांश चिकित्सक भी यह स्वीकार करते हैं कि दूध आदि के शाकाहारी पथ्य से स्वास्थ्य को किसी भी प्रकार का खतरा नहीं होता। . इस देश में बारह हजार शाकाहारी हैं । डच शाकाहारी समाज की सदस्य संख्या भी दो हजार पाँच सौ है। इनमें अनेक ऐसे भी हैं जो दूध की बनी किसी भी वस्तू अथवा अण्डे का भी उपयोग नहीं करते। इसके अतिरिक्त लगभग अस्सी शाकाहारी लोगों का एक और समूह है जो स्वतन्त्र रूप से कार्य करता है और एक मासिक पत्रिका का प्रकाशन भी करता है।
हालैण्ड के पूर्वी भाग में कस्बे के करीब खूबसूरत जंगली वातावरण में वृद्धों के लिए एक सुन्दर आवास गृह भी है जिसमें अस्सी और नब्बे वर्ष की आयु के वृद्ध लोग रहते हैं। हर एक के लिए अलग फ्लेट है । भोजन केन्द्रीय रसोई घर में बनता है। सभी एक-दूसरे के प्रति सद्भाव रखते हैं। छोटे-छोटे कार्य भी करते हैं। ये सब सामाजिक कार्यों में भी भाग लेते हैं । सन् १८९४ ई० में स्थापित इस संस्था ने १९६८ ई. में वृद्धों के लिए नये आवास गृह का निर्माण करवाया। .
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इसी संस्था के तत्वावधान में सन् १९७१ में हालैण्ड में २१वीं शाकाहारी कांग्रेस सम्पन्न हुई, जिसमें २७ देशों के तीन सो प्रतिनिधियों ने भाग लिया । यह संस्था अपनी मासिक पत्रिका द्वारा शाकाहारी सिद्धान्त का प्रसार करती है । स्वास्थ्य, आचार और आर्थिक पक्षों से सम्बन्धित गम्भीर लेख नियमित रूप से प्रकाशित किये जाते हैं ।
यह संस्था अनेक कार्यों के अतिरिक्त सुरक्षा विभाग से भी व्यापक पत्राचार करती है ताकि सेना से सम्बन्धित लोगों को जो अपने अन्तर की आवाज मानते हैं, शाकाहार नियमित मिलता रहे । हालैण्ड का शाकाहारी संगठन पशुओं की चीर-फाड़ विरोधी, पशु-संरक्षण, प्राकृतिक जीवन सम्बन्धी अनेक संगठनों से सम्बन्धित है ।
- श्रीमती डबल्यू. आइकन म ब्र. कमेन
इटली
इटली में शाकाहारी सिद्धान्त का आरम्भ पथागोरस के काल में ही हो जाता है । मध्ययुग में असीसी के सन्त फ्रांसिस ने स्वयं मांसाहार से परहेज किया ही, साथ ही भोजन के लिए पशुओं की हत्या रुकवाने का भी महत्वपूर्ण कार्य किया ।
फासिष्ट हिंसा के समय में गांधी के उदाहरण की प्रेरणा से पुनः अहिंसा और शाकाहार का आन्दोलन शुरू हुआ । फासिस्ट आतंक से मुक्ति के बाद इटली में सभाओं और साहित्य द्वारा हिंसा के विपरीत वातावरण बना और " ए नान वायलेट इटली" नामक पुस्तक प्रकाशित हुई। गांधी जी के निर्वाण दिवस ३० जनवरी १९५२ को पगिया में अहिंसा के समर्थकों की अन्तर्राष्ट्रीय बैठक हुई और परिणाम स्वरूप 'सेन्टर आफ इण्टरनेशनल कोआर्डीनेशन फार नान वायलेन्स' की स्थापना हुई, और इसी केन्द्र द्वारा आयोजित - प्रेरित बैठक के परिणाम स्वरूप १४ सितम्बर १९५२ ई० में “इटालियन वेजिटेरियन सोसायटी” की स्थापना हुई। यह सोसायटी दो मूल आधारों पर कार्य करती है - शाकाहारी सिद्धान्त के अभ्यास के लिए आधारभूत कारणों की खोज और परीक्षण तथा बच्चों को शिक्षा ।
आधारभूत कारणों की खोज और परीक्षण - यह सभा शाकाहार को सभी जीवित प्राणियों के प्रति अपने प्रेम और भावना की अभिव्यक्ति मानती है। इसका दैनन्दिन अभ्यास और निर्वाह ही व्यक्ति को आन्तरिक प्रकाश की ओर ले जाता है और मानवीय विचार और कर्म के इस दर्शन की प्रतीति करवाता है ।
मांसाहार की सार्वजनीन आदत के परित्याग और अहिंसा और पशुमान के प्रति प्यार की भावना जागृत करने के लिए यह सोसायटी अप्रत्यक्ष रूप से प्रारम्भ से ही कार्य करना चाहती है । यह संस्था बच्चों के लिए एक ऐसा केन्द्र बनाना चाहती है जहां बच्चों को इन सब बातों का क्रियात्मक शिक्षण दिया जा सके ।
इस सभा ने शाकाहार की सूची, उनके चयन, उनके उपयोग, विधि आदि के सम्बन्ध में परिचय भी प्रकाशित किए हैं, जिसके परिणामस्वरूप अनेक व्यावसायिक संस्थानों ने भी शाक-सब्जियों का उत्पादन बढ़ाने की ओर ध्यान दिया है । शाकाहारी सिद्धान्त के प्रचार-प्रसार और अभ्यास की अन्य संस्थाओं के भी सम्पर्क में यह संस्था है ।
डेन्मार्क
कोपेनहेगन के चिकित्सक डा० माइकेल लार्सन ने १८९६ में डेनिश वेजिटेरियन सोसायटी की स्थापना की । पेशेवर चिकित्सकों और मांसाहारियों के विरोध के बावजूद इस संस्था को सफलता मिली और १९०७ में
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इसकी ओर से मासिक पत्रिका का प्रकाशन हुआ, जिसे कुछ काल बाद प्रसिद्धि मिली। एक समय अन्तर्राष्ट्रीय Saffron यूनियन के मानद् सचिव श्री ओलफ इजिरोड ने वर्षों तक भाषण मालाओं, प्रचार-पत्रों और पकवान के प्रदर्शनों से शाकाहार के आन्दोलन को गतिशील बनाये रखा । डा० मिक्वल हिँडहेडे ने भी शाकाहार का प्रबल प्रचार किया । डा० क्रिस्टीन नाल्फी ने तो किसी भी प्रकार पके हुए भोजन को अस्वीकारते हुए कच्चे भोजन की पैरवी की। इसके अनेक व्यक्ति अनुयायी हुए, पर पके हुए भोजन को पूरी तरह अस्वीकार किये जाने के कारण यह आन्दोलन अधिक नहीं बढ़ सका, फिर भी कुल मिलाकर साधारण व्यक्ति की शाकाहार के प्रति रुचि बढ़ी ।
हालैण्ड
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बोर्ड आप सेन्ट्रल इन्स्टीट्यूट के राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय कार्य माना जाता है
अध्यक्ष श्री जी० वान नेडरबीन के शब्दों में हालैंड में शाकाहार को यही कारण हैं कि हालैंड के शाकाहारी संसार के सभी शाकाहारियों
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से समन्वय और सम्बन्ध बनाए रखने का प्रयत्न करते हैं ।
वर्तमान उच्च अधिकारियों की भी यही धारणा है कि दुग्ध शाकाहार के रूप में कच्चे फलों का आहार पर्याप्त पथ्य होता है ।
कुछ वर्ष पूर्व केन्द्रीय संस्थान की परिस्थापना से यहां के शाकाहारी प्रसन्न हैं, जहाँ कि शाकाहार 'सम्बन्धी विषयों का अध्ययन किया जाता है और अनुभवों का आदान-प्रदान व समन्वय किया जाता है और दूसरे देशों के साथ मिलकर इस क्षेत्र में अधिक कार्य करने और मूलभूत समस्याओं पर विचार और उनका हल निकालने की उत्सुकता को क्रियान्वित रूप देने का यत्न किया जाता है । हालैण्ड के शाकाहारी मानते हैं कि इस तरह शाकाहारी सिद्धान्त को वैज्ञानिक आधार दिया जा सकता है।
नावें
नार्वे की शाकाहारी गतिविधियों के विषय में अमेरिकन मेडीकल जर्नल के लन्दन स्थित संवाददाता ने इस प्रकार लिखा है - कुछ वर्ष पूर्व बच्चों को भोजन देने का नया तरीका प्रस्तुत किया गया । प्रयोग के रूप में ओसलो के स्कूल में सामान्य प्रकार का गर्म भोजन देने से अलग घरेलू भोजन में न रहने वाले तत्वों को पूरा करने वाला चुनिन्दा खाद्य-पदार्थों से बना नाश्ता बच्चों को दिया गया। पशु-प्रोटीन के अभाव की पूर्ति बकरी के दूध व मक्खन से की गई, जिससे खनिज पदार्थ और प्रोटीन प्राप्त हुए। विटामिन 'वी' नमक की पूर्ति के लिए पूर्ण रूप से गेहूं की रोटी दी गई। रक्त रोग जो कि उत्तरी देशों में सामान्य रूप से होता है, से बचाव स्वरूप आधा सेब और सन्तरा दिया गया। विटामिन 'ए' और 'डी' के लिए मक्खन, और गाजर चुकन्दर भी दिये गये ।
यह प्रयोग नितान्त सफल रहा। यह 'ओस्लोनाश्ता' इंगलैंड में भी दिया गया जो पूर्णरूपेण सन्तोषजनक पाया गया - 'छोटा बच्चा दिशा दिखाएगा' की कहावत के अनुसार आशा की जाती है कि इस प्रकार के प्रयोग और अभ्यास घरों में भी नियमित होंगे और बच्चे और बूढ़े दोनों ही स्वस्थ रहेंगे ।
अर्जेण्टाइना
ब्यूनस आयर्स अर्जेण्टाइना में शाकाहारी सिद्धान्त का संचालन शाकाहारी संगठनों के सम्मिलित संघ द्वारा सम्पन्न हुआ । ब्यूनर्स आयर्स के प्राकृतिक संस्थान के लगभग एक हजार सदस्य हैं । ये सभी सदस्य क्रियाशील हैं । इसका अपना सभागृह है । प्राकृतिक विधि-विधान के लिए भी स्थान है । पाठ्यक्रम द्वारा शाकाहारी
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पथ्य के निदेशक प्रशिक्षित किये जाते हैं। शाकाहार सम्बन्धी पुस्तकों का अच्छा पुस्तकालय है। ब्यूनस आयर्स के पास मेरलो नगर के निकट खेलकुद का क्लब है। इनका शाकाहारी भोजन एवं स्नानागार से युक्त एक हेल्थ हाउस भी बन रहा है । इस संस्थान का सहकारी आधार पर कृषि-फार्म भी है जो अदूषित धान प्राप्त करता है।
यूनियन नेचरलिस्टा अरजेंटाइना (यू० एन० ए०) संस्थान शाकाहार सम्बन्धी पत्रिका का प्रकाशन भी करता है। उक्त निर्माण कार्य में इस संस्थान को अनेक चिकित्सकों, विचारकों का सहयोग प्राप्त है। सुप्रसिद्ध चिकित्सक डा० अतुरों केपडिविला सक्रिय रूप से संलग्न हैं।
इजराइल
इजराइल में शनैः-शनैः किन्तु दृढ़तापूर्वक शाकाहारी पद्धति का जीवन अपनी जड़े जमा रहा है । इजरायली स्वस्थ रहना चाहते हैं और लगभग प्रत्येक व्यक्ति स्वस्थ रहने हेतु साहित्य का अध्ययन करता है। वहां के प्राकृतिक चिकित्सक ट्यूमर, पथरी आदि कई जटिल रोगों के निदान में पर्याप्त सफलता पा चुके हैं और ये शाकाहार के श्रेष्ठ प्रचारक हैं।
सौभाग्य से यहां की जलवायु फल और शाक-सब्जी प्रचुर मात्रा में उत्पन्न करने के लिए बहुत अनुकूल है और इसीलिए इन्हें लोग अधिक पसन्द करते हैं, उपयोग में लाते हैं। मांस का आयात किया जाता है परन्तु उसके प्रति लोगों की रुझान नहीं है, क्योंकि उसके निर्माण में हत्या का आधार लिया जाता है । इजराइलियों को इस बात का फख्य है कि दो हजार वर्ष पूर्व उनके पुरखे विशुद्ध शाकाहारी थे।
इजराइलियों का बर्मा व भारत के प्रति सद्भावना पूर्ण मेल जोल है। भारतीय अहिंसक संस्कृति के प्रति उनमें काफी सम्मान की भावना है। इस पारस्परिकता का इजरायलियों पर काफी प्रभाव पड़ा है।
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पदार्थ
गेहूं का आटा मकई
चावल
मूंग
उड़द
अरहर
मसूर
भुना मटर
भुना चना
लोबिया बड़ा सोयाबीन
भटबांस
वाल
मेथी
जीरा
धनिया
बादाम
तालिकाएँ
१. शाकाहार एवं मांसाहार के पौष्टिक तत्वों की तुलनात्मक तालिका (अ) शाकाहारी खाद्य
प्रोटीन वसा ( स्नेह ) खनिज लवण कार्बोहाइड्रेट्स कैलशियम लोहा ( मि.ग्रा.) पानी
१२.१
१.७
६९.४
०.०४
१२.२
११.१
३.६
६६.२
१४.९
८.५
०.६
१२.६
२४.०
१.३
१०.४
२४.०
१.४
१०.९
२२.३
१.७
१५.२
२५.१
०.७
१२.४
२२.९
१.४
९.९
२२.५
५. २
११.२
२४.६
०.६
१२.०
४३.२
१९.५
८. १
४१.३
१७.०
२४.९
२६.२
१८.७
१४. १
२८.८
०.८
५. ८
१५.०
१६.१
५८.९
२.८
१.५
०.९
३.६
३.४
३.६
२.१
२.३
२.२
३.२
४.६
४.५
३.२
३.०
५.८
४.४
२.८
७७.४
५६.६
६०.३
५७.२
५९.७
६२.५
५८.९
५५.७
२०.९
२४.१
६०.१
४४.१
३६.६
२१.६
१०.५
०.०१
०.०१
०.१४
०.२०
०.१४
०.१३
०.०३
०.०७
०.०७
०.२४
०.२१
०.०६
०.१६
१.०८.
०.६३
०.२३
११.५
२.१
२.८
८.५
९८
5.5
२.०
५.०
८.९
३.
११.५
९.९
२.०
१४. १
३१.०
१७.९
३.५
९.६
१३.७
११.२
११.२
५.२
फासफोरस कैलोरी
०.३२
३५२
०.३३
३४३
०.२८
०.२८
०.३७
०.२६
०.२५
०.३६
०.३१
०.४९
०.६९
०.३७
०.४९
०.३७
०.४९
३४९
३३४
३५०
३३३
३४६
३५८
३७२
३२७
४३२ -
४१५
३४७
३३३
३५६
२८८
६५५
ख -५
[ ४७
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________________
पदार्थ
फासफोरस कैलोरी
४८
o
०.४५
]
६२६
or.d
काजू भुनी मूंगफली पिस्ता अखरोट मक्खन घी . पनीर
प्रोटीन वसा (स्नेह) खनिज-लवण कार्बोहाड्रेट्स कैलशियम लोहा (मि.ग्रा.) पानी २१.२ ४६.९ २.४ २२.३ ०.०५ ३१.५ ३९.८ १९.३ ०.०५
४.० १९.८
१६.२ ०.१४ १३.७ १५.५ ६४.५ १.८ ११.० ०.१० ४.८ __४.५
८०.८
१००.० २४.१ २५.१
२.१ ४०.३ १४.६ ३१.२
२०.५ ३८.० ०.१ ६.८ ५१.० १.३७ १.४ ४.१
०.४३ ०.३८
.
६८७ ७३० ९०० ३४८ ४२०
खोया
३०.६
०.५२ ०.४२ १.००
सप्रेटा दूध पावडर
प्रोटीन
पानी ७३.७ ७१.०
कैलोरी १७३ १८० १५०
(ब) मांसाहारी खाद्य फेट्स खनिज-लवण कार्बोहाइड्रेट्स लोहा (मि.ग्रा.) कैलशियम १.०
२.१% ०.०६ १३.७ १.० ०.७
०.०७ ६.३
०.०१
०.१५ ४.४ १..
०.०३ २.६
०.०१ ०.६ ०.८
०.०१
पदार्थ मुर्गी का अंडा बत्तख का अंडा कलेजी (भेड़) बकरी का गोश्त सुअर का गोश्त गाय का गोश्त मछली
७०.४
१३.३
७१.५
१३.५ १९.३ १८.५ १८.७ २२.६ २२.६
१९४
७७.४
११४ ११४
१.०
| | |
७३.४ . ७८.४
९१
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________________
खण्ड-६.000000000
-
उत्तर-प्रदेश
और
जैनधर्म
CARHWAY
NAINTTAL
MEERUT 1
BAREILLY
GOR
HPUT
LUCKNOW
FAIZABAD
ALLAHABAD
HABADD
VARANASI
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________________
क्या कहाँ है ?
१ उत्तर प्रदेश में जैनधर्म का उदय और विकास ... २ उत्तर प्रदेश के जैन तीर्थ एवं सांस्कृतिक
डा. ज्योति प्रसाद जैन
केन्द्र
.
(क) तीर्थंकर जन्मभूमियां (ख) अन्य कल्याणक क्षेत्र (ग) तपोभूमियां एवं सिद्धभूमियां (घ) भ० महावीर के विहार स्थल (च) अतिशय क्षेत्र एवं कलाधाम
(छ) अर्वाचीन प्रसिद्ध जैन मन्दिर ३ उत्तर प्रदेश के जैन सन्त ४ उत्तर प्रदेश के जैन साहित्यकार ५ उत्तर प्रदेश के जैन पत्र और पत्रकार ६ उत्तर प्रदेश के जैन स्वतन्त्रता सेनानी ७ उत्तर प्रदेश की जैन संस्थाएँ ८ उत्तर प्रदेश में जैनों की वर्तमान स्थिति
उत्तर प्रदेश में तीर्थंकर महावीर उत्तर प्रदेश के उत्कीर्ण लेख और उनका महत्व राज्य संग्रहालय लखनऊ की महावीर
प्रतिमाएँ १२ नीलांजना-नृत्य पट १३ मथुरा संग्रहालय की कुषाणकालीन जैन
मूर्तियाँ १४ उत्तर भारत के तीन प्राचीन जैनतीर्थ
स्वतन्त्रता संग्राम में उत्तर प्रदेश के जैनों का योगदान
.
श्री रमाकान्त जैन डा० शशिकान्त
श्री शैलेन्द्र रस्तोगी
१
.
डा० नीलकण्ठ पुरुषोत्तम जोशी श्री वी०एन० श्रीवास्तव
११७
११८
११६
श्री रमेश चन्द्र शर्मा मुनि जयानन्द विजय
१२६
बा० रतनलाल जैन वकील
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उत्तर प्रदेश में जैन धर्म
का
उदय और विकास
प्रदेश
'उत्तर प्रदेश' सर्वतन्त्र, जनतन्त्रीय गणतन्त्र भारतीय संघ का एक प्रमुख राज्य है । उत्तर में तिब्बती पठार एवं नेपाल राज्य, दक्षिण में राजस्थान एवं मध्य प्रदेश, पूर्व में बिहार राज्य और पश्चिम में हिमाचल प्रदेश, दिल्ली ( केन्द्र प्रशासित क्षेत्र ), हरयाणा और पंजाब राज्यों से परिसीमित लगभग नौ करोड़ जनसंख्या का यह प्रदेश लगभग तीन लाख वर्ग किलो मीटर में फैला हुआ है । जनसंख्या की दृष्टि से वह भारतीय संघ की सभी इकाइयों से बड़ा है, गृहसंख्या एवं ग्राम संख्या में भी वह सर्वप्रथम है, किन्तु नगरों की संख्या की दृष्टि से उसका दूसरा तथा क्षेत्रफल की दृष्टि से चौथा स्थान है । जलवायु समशीतोष्ण है, भूमि बहुधा उर्वरा है, वन्य सम्पत्ति प्रभूत है और खनिज भी अपर्याप्त नहीं हैं | राजनैतिक, आर्थिक एवं सामाजिक ही नहीं, नृतात्त्विक, भाषयिक एवं सांस्कृतिक दृष्टियों से प्रायः एकसूत्रता है । प्राचीन भारत की दो प्रधान सांस्कृतिक धाराओं, श्रमण और ब्राह्मण का ही नहीं, उनकी प्रमुख उप-धाराओं, जैन और बौद्ध तथा वैदिक एवं पौराणिक (शैव, वैष्णवादि) का भी तथा कालान्तर में मुस्लिम और ईसाई जैसी विदेशी संस्कृतियों का भी सुखद संगमस्थल यह प्रदेश रहा है ।
मस्तक पर हिमकिरीट से सुशोभित और वक्षस्थल पर पुण्यतोया भागीरथी गंगा एव सूर्यतनया यमुना तथा उन दोनों के परिवार की दसियों सहायक सरिताओं से सिंचित भारतवर्ष का यह हृतप्रदेश, भारतीय धर्म, दर्शन, संस्कृति और सभ्यता का उद्गम स्थल, उनके विकास का क्रीडाक्षेत्र और भारतीय इतिहास का चिरकालीन केन्द्र बिन्दु रहा है । प्राचीन काल में इसे आर्यावर्त, ब्रह्मावर्त, ब्रह्मर्षि देश, मध्यदेश जैसी संज्ञाएं दी गयीं । आर्यावर्त की सीमाएं पूर्वी समुद्र से लेकर पश्चिमी समुद्र और हिमालय से विन्ध्याचल पर्यन्त बताई गयी हैं, और उसके अंतर्गत मध्यदेश की सीमाएँ पूर्ण में पारियात्र या प्रयाग से लेकर पश्चिम में विनशन अथवा कुरुक्षेत्र पर्यन्त बताई गई हैं । वैदिक आर्य सभ्यताका प्रधान केन्द्र ब्रह्मावर्त या ब्रह्मर्षि देश उक्त मध्यदेश के पश्चिमार्ध से सूचित होता था । ये मध्यदेशादि नाम किसी भौगोलिक या राजनैतिक इकाई के सूचक नहीं थे, वरन् सांस्कृतिक एकसूत्रता के द्योतक थे । मुसलमानों के भारत प्रवेश के उपरान्त उनके द्वारा प्रायः उक्त मध्यदेश ही 'हिन्दुस्तान' कहलाया । पूरे मध्यकाल में सामान्यतया पूरे उत्तर भारत के लिए और विशेषतया गंगा-यमुना अन्तर्वेद ( दोआब ) से व्याप्त, अब के बहुभाग ऊत्तर प्रदेश के लिए हिन्दुस्थान या हिन्दुस्तान शब्द ही प्रयुक्त होता रहा । आज भी बंगाली हो या पंजाबी अथवा दक्षिण भारतीय हो, इस प्रदेश को हिन्दुस्तान तथा इसकी भाषा और निवासियों को हिन्दुस्तानी ही प्राय: कहता है । अठारहवीं शताब्दी के मध्य के लगभग जब व्यापारी अंग्रेज भारत में अपना राज्य जमाने के लिए प्रयत्नशील हुए तो बंगाल को उन्होंने अपना केन्द्र बनाया था - कलकत्ता ही उनके गवर्नर जनरल की राजधानी थी । सन् १७६४ ई० की की संधि के परिणामस्वरूप उन्होंने जब पूर्वी उत्तर प्रदेश के कुछ जिले दिल्ली के मुग़ल बादशाह शाहआलम और
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२.
]
ख-६
अवध के नवाब वजीर शुजाउदौला से प्राप्त किये तो उन्हें उन्होंने अपने पश्चिमी प्रांत' के रूप में गठित किया । उन्नीसवीं शती के दूसरे दशक के प्रारम्भ तक उन्होंने इस प्रदेश के पर्याप्त भाग पर अधिकार करके इसे 'आगरा प्रेसीडेन्सी' का नाम दिया, तदनन्तर अवधराज्य भी जब उनके अधिकार में आ गया तो प्रान्त के नाम क्रमशः 'पश्चिमोत्तर प्रांत' (१८७७ में), संयुक्त प्रांत आगरा और अबध (१९०२ ई० में) तथा मात्र 'संयुक्त प्रांत' (१९३७ ई० में) हुए, और स्वतन्त्रता प्राप्ति के उपरान्त भारतीय संघ के राज्यों का वैधानिक गठन होने पर इसे 'उत्तर प्रदेश राज्य' नाम दिया गया, जिसमें अब ग्यारह आयुक्त मंडलों (कमिश्नरियों) में विभाजित पचपन जिले हैं। जैनधर्म
जैनधर्म भारतवर्ष की एक सर्वप्राचीन धार्मिक एवं सांस्कृतिक परम्परा का प्रतिनिधित्व करता है। विभिन्न कालों एवं प्रदेशों में उसे आहत,व्रात्य, श्रमण, निर्ग्रन्थ, अनेकान्ती, स्याद्वादी, भव्य आदि अन्य नाम भी प्राप्त रहे । समस्त आत्मिक विकारों पर पूर्ण विजय प्राप्त करने वाले महान आध्यात्मिक विजेता 'जिन', 'जिनदेव' या 'जिनेन्द्र' कहलाते हैं। जन्म-मरण रूप दुःखपूर्ण संसार सागर से पार करने वाले धर्मतीर्थ की स्थापना एवं प्रवर्तन करने के कारण वे 'तीर्थंकर' कहलाते हैं । नियम पूर्वक आत्मसाधन के हित व्रतों का पालन करने के कारण 'व्रात्य', समत्व के साधक होने से 'समण', श्रमपूर्वक स्वपुरुषार्थं द्वारा आत्मशोधन का मार्ग अपनाने के कारण 'श्रमण' और सम्पूर्ण अन्तरंग एवं बाह्य परिग्रह के त्यागी होने के कारण वे निर्ग्रन्थ कहलाते हैं। निर्ग्रन्थ श्रमण तीर्थंकरों, अर्हतों या जिनदेवों द्वारा स्वयं अनुभूत, आचरित एवं संसार के सभी प्राणियों के हित-सुख के लिए (सर्व सत्त्वानां हिताय -सर्व सत्त्वानां सुखाय) उपदेशित और प्रवत्तित धर्म व्यवस्था का नाम ही जिनधर्म या जैनधर्म है। इसका अपना तत्वज्ञान है, अपना दर्शन है, अपनी सुसमृद्ध संस्कृति है और इतिहास है। यह सर्वथा स्वतन्त्र, मौलिक एवं विशुद्ध भारतीय परम्परा है।
उत्तर प्रदेश के साथ जैनधर्म और संस्कृति का अटूट सम्बन्ध है, बल्कि उसका उद्भव-स्थल एवं अनेक उत्थान-पतनों के बावजूद अविच्छिन्न क्रीडाक्षेत्र यह प्रदेश रहता आया है।।
जैन मान्यता के अनुसार यह विश्व अपने समस्त उपादानों सहित सत्ताभूत, वास्तविक और अनादि-निधन है। विश्व में विद्यमान पदार्थों में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष परिवर्तन निरन्तर होते रहते हैं, जिनका हेतु काल द्रव्य है। व्यवहार काल की सबसे बड़ी इकाई 'कल्प' कहलाती है। विश्व के जीवन में अनन्त कल्प बीत चुके हैं, और वह अनन्त कल्पों तक चलता रहेगा । प्रत्येक कल्प के दो विभाग होते हैं—एक अवसर्पिणी (अधोमुख या अवनतिशील) और दूसरा उत्सर्पिणी (उर्ध्वमुख या उन्नतिशील)। इनमें से प्रत्येक के छः आरक (आरे) होते हैं, जो पहला, दूसरा, तीसरा, चौथा, पांचवां और छठा काल कहलाते हैं । अवसर्पिणी में पहले से छठे तक क्रम से चलते हैं, और उत्सर्पिणी में क्रम उल्टा हो जाता है, अर्थात् छठा, पांचवा आदि पहले तक । इस प्रकार प्रत्येक कल्प में दो बार चौथा आरा या काल आता है-एक अवसर्पिणी में और एक उत्सर्पिणी में । प्रत्येक चौथे काल में एक के अनन्तर एक २४ तीर्थङ्कर जन्म लेते हैं और अपने-अपने समय में धर्म का साधन, उद्धार और प्रचार करते हैं। तीर्थंकरों के अतिरिक्त १२ चक्रवर्ती, ९ नारायण, ९ प्रतिनारायण और ९ बलभद्र भी उसी चौथे काल में उत्पन्न होते हैं। सब मिलाकर ये तिरसठ-शलाका पुरुष कहलाते हैं, जो अपने-अपने क्षेत्र में सर्वोपरि महत्व के श्लाघनीय पुरुषपुगब होते हैं । जैन परम्परा की यह निविरोध मान्यता है कि प्रत्येक चौथेकाल के चौबीसों तीर्थकर लोक के मध्य भाग में स्थिति जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्रवर्ती आर्यखण्ड के मध्यदेश के प्रायः केन्द्र में स्थित जिस स्थान में जन्म लेते हैं वह वही है जहां वर्तमान उत्तर प्रदेश के अवध प्रान्त के फैजाबाद जिले में स्थित प्रसिद्ध अयोध्या नगर बसा हुआ है।
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इस प्रकार अयोध्या उस प्राचीन पावन स्थल की सूचक है जहाँ सदैव से तीर्थंकरों का जन्म होता रहा है, और भविष्य में भी होता रहेगा।
वर्तमान काल की अवसर्पिणी उसमें होने वाले कतिपय अपवादों के कारण हुंडावसर्पिणी कहलाती है। इसका चौथा काल लगभग २५०० वर्ष पूर्व इसके चौबीसवें तीर्थंकर वर्द्धमान महावीर के निर्वाण के ३ वर्ष ८॥ मास पश्चात समाप्त हुआ था, और तब से पांचवा आरा या काल चल रहा है, जिस में अभी साढ़े अठारह हजार वर्ष शेष हैं । उक्त हंडा दोष के कारण उसकी चौबीसी में से केवल पांच तीर्थंकरों का जन्म अयोध्या में हआ, किन्तु शेष १९ में से १३ तीर्थंकरों का जन्म भी उत्तर प्रदेश के ही विभिन्न स्थानों, 'यथा श्रावस्ती, कौशाम्बी, वाराणसी, चन्द्रपुरी, काकंदी, सिंहपुरी, रत्नपुरी, हस्तिनापुर और शौरीपुर में हुआ। इस प्रकार वर्तमान काल के २४ तीर्थंकरों में से १८ को जन्म देने का सौभाग्य उत्तर-प्रदेश को ही है। उन सब का प्रधान कार्यक्षेत्र भी प्रायः यही प्रदेश रहा, यों शेष छः तीर्थंकरों का विहार भी इस प्रदेश में हुआ और उन्होंने अपने-अपने समय में यहां सद्धर्म का प्रचार किया। इस काल के चक्रवर्ती आदि अन्य शलाका पुरुषों में से भी अधिकतर इसी प्रदेश में हुए। जैन परम्परा की सोलह सतियों तथा अन्य विशिष्ट व्यक्तियों में से अनेक भी यहीं हए ।
कुलकर (मनु)-इस भू-भाग में वर्तमान अवसर्पिणी के प्रथम तीनों कालों में आदिम युग की स्थिति थी: जीवन अत्यन्त सरल, स्वच्छ, स्वतन्त्र, प्रकृत्याश्रित एवं भोगप्रधान था। तीसरे काल के अन्त के लगभग स्थिति में परिवर्तन हुआ, प्रकृति पर निर्भर करना पर्याप्त नहीं रहा, लोग भयभीत और शंकित होने लगे, तो उनका समाधान, मार्गदर्शन एवं नेतृत्व करने के लिए एक के बाद एक चौदह कुलकरों या मनुओं का यहीं प्रादुर्भाव हुआ। उन्होंने मनुष्यों को कुलों (जनों, समूहों या कबीलों) में संगठित किया, आवश्यक आदेश-निर्देश दिये, मर्यादाएं निर्धारित की और व्यवस्थाएं दीं। उन्हीं मनुओं की सन्तति होने के कारण इस देश के निवासी मानव कहलाए। इनमें से अन्तिम कुलकर नाभिराय थे, जिनके नाम पर इस देश का प्राचीनतम नाम अंजनाम प्रसिद्ध हआ। तीर्थकर युग
मावि तीर्थंकर ऋषम-नाभिराय की चिरसंगिनी मरुदेवी की कुक्षि से प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव का जन्म चैत्र कृष्णा नवमी के दिन हुआ था। उनके जन्मस्थान, भारतवर्ष की सर्वप्रथम नगरी अयोध्या का देवताओं ने निर्माण किया था। वृषभनाथ, आदिनाथ, आदीश्वर, आदिब्रह्म, पुरुदेव, हिरण्यगर्भ, स्वयंभु, प्रजापति, इक्ष्वाकु, कश्यप आदि इनके अन्य अनेक नाम थे। अन्तिम दो नाम उनकी संतति के वंश एवं गोत्र-नामों के रूप में प्रचलित हुए । वयस्क होने पर उन्होंने पैतृक मानव कुलों की व्यवस्था अपने हाथ में ली और जनता को असि-मसि-कृषिशिल्प-वाणिज्य-विद्या नामक षटकर्मों द्वारा जीविकोपार्जन की शिक्षा देकर कर्मयुग एवं मानवी सभ्यता का ऊँ नमः किया। कहा जाता है कि सर्वप्रथम इन आदिपुरुष ने ही लोगों को खेती करना, इक्षु से रस निकालना व उसका भोज्य पदार्थ के रूप में उपयोग करना, आग जलाना, आग में अन्न भूनना-पकाना, मिट्टी के बर्तन बनाना, कपड़ा बुनना, ग्राम नगर आदि बसाना, सिखाया था। उन्होंने पुरुषों की बहत्तर और स्त्रियों की चौंसठ कलाओं का ज्ञान तत्कालीन जनता की बुद्धि, ग्रहणशीलता एवं लोकदशा के अनुरूप दिया बताया जाता है। समाज व्यवस्था के लिए उन्होंने मनुष्यों को उनके कर्म, रुचि एवं प्रवृत्ति के अनुसार क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र, इन तीन वर्षों में विभाजित किया। यह वर्णभेद वर्ण या प्रतिष्ठा के भेद का सूचक नहीं था, मान कर्मभेद सूचक था, और अपरिवर्तनीय भी - नहीं था। भगवान ऋषभ ने कच्छ और सुकच्छ की सुपुत्रियों नंदा (अपर नाम सुमंगला या यशस्वती) और सुनन्दा से विवाह करके समाज में सर्वप्रथम विवाह प्रथा प्रचलित की। इन पत्नियों से उनके अनेक पुत्र और ब्राह्मी एवं
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सुन्दरी नाम की दो कन्याएं उत्पन्न हुई। उन्होंने पुत्रियों को भी पुत्रों के समान शिक्षा दी-ब्राह्मी को अक्षर ज्ञान की शिक्षा देने के निमित्त से ही प्राचीन ब्राह्मी लिपि का आविष्कार हुआ, और सुन्दरी को अंकज्ञान दिया। इस प्रकार चिरकाल पर्यन्त आदिदेव ने प्रजा का पालन एवं पथप्रदर्शन किया।
एकदा अपनी राजसभा में नर्तकी नीलांजना की नृत्य के बीच में ही मत्यु हो जाने पर भगवान को संसारदेह-भोगों की क्षणभंगुरता का भान-हुआ, और उन्होंने सब कुछ त्यागकर वन की राह ली। सर्व परिग्रह विमुक्त यह निर्ग्रन्थ मुनिश्रेष्ठ दुर्धर तपश्चरण द्वारा आत्मसाधन में लीन हुआ। एक स्थान पर ही कायोत्सर्ग योग से खड़े रहकर उस योगीश्वर ने छः मास की समाधि लगाई, जिसके उपरान्त वह अगले छः मास पर्यन्त यत्र-तत्र विचरते रहे, किन्तु पारणा नहीं हुआ। अन्ततः गजपुर (उ. प्र. के मेरठ जिले में हस्तिनापुर) में वहां के राजा सोमयश के अनुज कुमार श्रेयांस ने उन्हें वैशाख शुक्ल तृतीया के दिन इक्षुरस का आहार दिया। अतः वह दिन 'अक्षयतृतीया' के नाम से लोक प्रसिद्ध हुआ। श्रेयांस ने दान-स्थल पर एक स्तूप का निर्माण कराया । अपने मुनिजीवन में गढ़वाल हिमालय के पर्वतशिखरों पर योगीश्वर ऋषभ ने तप किया और प्रयाग में त्रिवेणी संगम के निकट एक वटवृक्ष (जो इसीलिए अक्षयवट कहलाया) के नीचे उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ। तभी और वहीं उन्होंने अपना धर्मचक्र प्रवर्तन किया-इस कल्पकाल में अहिंसामयी आत्मधर्म का उपदेश लोक को सर्वप्रथम दिया। इस प्रकार धर्म के भी आदि पुरस्कर्ता प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव हुए। पौराणिक हिन्दू परम्परा में उन्हे विष्णु का आठवां अवतार बताया गया है, और भागवत आदि मुख्य पुराणों में उनका वर्णन जैन अनुश्रुति से प्रायः मिलता जुलता ही मिलता है। ऋग्वेदादि वेद ग्रन्थों में भी उनके स्पष्ट उल्लेख मिलते हैं तथा प्रागऐतिहासिक सिन्धुघाटी सभ्यता के अवशेषों में उन दिगम्बर-कायोत्सर्ग-ध्यानस्थ योगीश्वर के अंकन से युक्त मृण्मुद्राएं मिली हैं। कई विद्वान तो शिव (महादेव, शंकर) और ऋषभदेव को अभिन्न रहा मानते हैं। सेमेटिक परम्परा के आद्यमानव 'बाबा आदम' से भी आदिपुरुष ऋषभ का ही अभिप्राय रहा हो तो आश्चर्य नहीं।
चक्रवर्ती भरत--ऋषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र महाराज भरत सभ्य संसार के प्रथम चक्रवर्ती सम्राट थे। उन्हीं के नाम पर यह महादेश भारत या भारतवर्ष कहलाया, इस विषय में जैन एवं ब्राह्मणीय पौराणिक अनुश्रुतियां एकमत हैं। भरत ने धर्मात्मा, सन्तोषी एवं ज्ञान-ध्यान रत व्यक्तियों को ब्राह्मण संज्ञा देकर चतुर्थ वर्ण की स्थापना की थी। भरत चक्रवर्ती की राजधानी अयोध्या ही थी। अन्त में राज्य त्यागकर उन्होंने भी अपने पिता तीर्थंकर के मार्ग का अनुसरण किया और मुक्ति प्राप्त की। उनके अनुज बाहुबली भी अद्भुत तपस्वी योगिराज हुए। उन्हीं के पुन सोमयश हस्तिनापुर के प्रथम नरेश थे, जिनसे प्राचीन क्षत्रियों का चन्द्रवंश चला-अयोध्या में स्वयं भरत के पूत्र एवं उत्तराधिकारी अर्ककीति से सूर्यवंश चला। सोमयश के एक वंशज कुरु के नाम पर कुरुवंश चला और हस्तिनापुर के आस-पास का प्रदेश कुरुदेश कहलाया, तथा एक अन्य वंशज महाराज हस्तिन के समय से गजपुर का नाम हस्तिनापुर प्रसिद्ध हुआ। कुरुवंश की ही एक शाखा पांचाल कहलाई, जिसकी उत्तरी शाखा की राजधानी अहिच्छत्रा (बरेली जिले में) तथा दक्षिणी शाखा की राजधानी काम्पिल्य (फरुखाबाद जिले में) हुई।
अन्य तीर्थकर-ऋषभ निर्वाण के बहत समय उपरान्त अयोध्या में ही इक्ष्वाकुवंशी-काश्यपगोत्रीय राजा जितशत्रु की रानी विजया की कुक्षि से दूसरे तीर्थकर अजितनाथ का जन्म हुआ। उनके निर्वाण के कुछ समय पश्चात इसी नगर एवं नंश में जैन अनुश्रुति के अनुसार दूसरा चक्रवर्ती सगर हुआ। तीसरें तीर्थंकर भी इसी वंश के थे, किन्तु उनका जन्म श्रावस्ती (उ. प्र. के बहराइच जिले का सहेट-महेट) में हुआ था। चोथे तीर्थंकर अभिनन्दन नाथ और पांचवें तीर्थंकर सुमतिनाथ का जन्म भी अयोध्या में हआ। छठे तीर्थकर पद्मप्रभु का जन्म
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कौशाम्बी (इलाहाबाद जिले का कोसम) में हुआ था और पभोसा नाम की निकटवर्ती पहाड़ी पर उन्होंने तपस्या की थी तथा केवलज्ञान प्राप्त किया था। सातने तीर्थकर सुपार्श्व का जन्म स्थान वाराणसी नगरी के भदैनी क्षेत्र से चीन्हा जाता है। मथुरा के कंकाली टीले का प्राचीन देवनिर्मित जैन स्तुप इन्हीं तीर्थंकर के उक्त नगर में पधारने की स्मृति में मूलतः निर्मित हुआ माना जाता है। आठवें तीर्थंकर चन्द्रप्रभु के जन्म स्थान चन्द्रपुरी या चन्द्रावती की पहिचान वाराणसी से लगभग २३ कि. मी. पर गंगा के किनारे स्थित तन्नाम गांव से की जाती है । नौवें तीर्थंकर पुष्पदंत अपर नाम सुविधिनाथ की जन्मभूमि काकंदी (देवरिया जिले का खुखुन्दो) है। कुछ विद्वानों ने इन तीर्थंकर का समीकरण पौराणिक महाराज ककुदि या ककुत्स्थ के साथ किया है। तीसरे से नौवें पर्यन्त सात तीर्थकर इस प्रदेश में वैदिक धर्म और संस्कृति के उदय से पूर्व, सिन्धुघाटी सभ्यता के उत्कर्षकाल के समसामयिक रहे प्रतीत होते हैं। जैन अनुश्रुतियों से ऐसा इंगित मिलता है कि उनके उपरान्त, दशमें तीर्थंकर शीतलनाथ के समय से ब्राह्मण नैदिक संस्कृति का प्रभाव वृद्धिंगत हुआ। ग्यारहों तीर्थंकर श्रेयांसनाथ का जन्म सिंहपुरी में हुआ था, जिसकी पहिचान वाराणसी के निकट सारनाथ क्षेत्र से की जाती है। तेरहवें तीर्थंकर विमलनाथ का जन्म काम्पिल्य (फरुखाबाद जिले का कम्पिल) में हुआ था। इनके समय में कई अन्य शलाका पुरुष भी इस प्रदेश में हए। चौदहमें तीर्थकर अनन्तनाथ का जन्म अयोध्या में हुआ, इनके समय में भी कई शलाकापुरुष हए । तीर्थंकर धर्मनाम कुरूवंशी थे और इनका जन्म रत्नपुरी (फैजाबाद जिले का रौनाई) में हुआ था। इनके समय में भी कई शलाकापुरुष हुए और थोड़े समय उपरान्त एक-एक करके मघवा एवं सनत्कुमार नाम के दो सूर्यवंशी चक्रवर्ती सम्राट अयोध्या में हुए। इसके पश्चात कुछ काल के लिए श्रमणधर्म एवं मुनिमार्ग का विच्छेद रहा बताया जाता है। तदनन्तर शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ और अरनाथ नाम के तीन तीर्थंकर हस्तिनापुर (मेरठ जिले में) क्रमशः हुए। ये तीनों चन्द्रगंश की कुरुशाखा में उत्पन्न हए थे और अपने-अपने समय में चक्रवर्ती सम्राट भी रहे थे। इनके समय में फिर से जैनधर्म का उत्कर्ष इस प्रदेश में रहा। अरनाथ के निर्वाणोपरान्त सुभौम नामक चक्रवर्ती तथा नन्दी, पुण्डरीक एघं निशुंभ नाम के अन्य शलाकापुरुष इसी प्रदेश में हुए। सुभौम के प्रसंग में परशुराम और कार्तवीर्य सहस्रवाह के भीषण संघर्ष की जैन अनुश्रुति मिलती है। बीसमें तर्थकर मुनिसुव्रत के तीर्थ में हए अयोध्यापति रघुवंशी महाराज रामचन्द्र, उनके अनुज लक्ष्मण और महासती सीता आदि का जैन परम्परा में अत्यन्त सम्माननीय स्थान है। भगवान राम ने दीक्षा लेकर पद्ममुनि नाम से तपश्चर्या की, अर्हत् केवलि पद प्राप्त किया और अन्त में वह निर्वाण प्राप्त कर सिद्ध परमात्मा हुए। जैन पद्मपुराण अथवा जैन रामायणों में इन महापुरुषों के पुण्यचरित्र विस्तार के साथ वणित हैं। इसके कुछ समय उपरान्त हस्तिनापुर में मुनि विष्णुकुमार द्वारा बलिबंधन, सात सौ मुनियों की रक्षा एवं रक्षाबन्धन पर्व की प्रवृत्ति का प्रसंग आता है। इक्कीसमें तीर्थंकर नमिनाथ के तीर्थ में वत्सदेश की कौशाम्बी नगरी में जयसेन नाम का चक्रवर्ती सम्राट हुआ।
तीर्थकर अरिष्टनेमि-या नेमिनाथ (२२वें तीर्थकर) का जन्म हरिवंश की यादव शाखा में शोरिपुर में (आगरा जिले में बटेश्वर के निकट) हुआ था। उनकी जननी शिवादेवी और पिता यदुवंशी राजा शूरसेन के वंशज महाराज समुद्रविजय थे, जिनके अनुज वसुदेव अत्यन्त साहसिक एवं कामदेवोपम रूपवान थे। उनके साहसिक भ्रमणों एवं कार्यकलापों का रोचक वर्णन जैन हरिवंश पुराण में प्राप्त होता है। इन्हीं वसुदेव के पुत्र कृष्ण और बलराम थे, जो अपने समय के नारायण एवं बलभद्र संज्ञक शलाकापुरुष थे, बड़े शूरवीर, प्रतापी और विचक्षण बुद्धि थे। अपने प्रबल प्रतिद्वन्द्वी जरासंध के आतंक से त्रस्त होकर यादवगण शौरिपुर एवं मथुरा का परित्याग करके पश्चिमी समुद्रतटवर्ती द्वारिका नगरी में जा बसे थे। हस्तिनापुर के कुरुवंशी कौरव-पाण्डवों का पारस्परिक संघर्ष एवं कुरुक्षेत्र का सुप्रसिद्ध महाभारत युद्ध इसी काल की घटनाएं हैं। उस युग की राजनीति के प्रधान सूत्रधार नारायण कृष्ण ही थे। वे पाण्डवों के मित्र थे और उनकी विजय में प्रधान निमित्त हुए थे। यदि कृष्ण उस युग के
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राजनीतिक एवं सामाजिक नेता थे तो उनके ताऊजात भाई अरिष्टनेमि धार्मिक एवं आध्यात्मिक नेता थे । उन्होंने मनुष्य के भोजन के लिए पशुपक्षियों के बध को एक अधार्मिक अनैतिक कृत्य और घोर पाप घोषित किया था । मांसाहार का निषेध करके और निवृत्तिरूप तपः साधना का आदर्श प्रस्तुत करके उन्होंने भारी क्रान्ति की थी तथा श्रमणधर्म पुनरुत्थान किया था । जैन परम्परा में वसुदेव, कृष्ण, बलराम, कृष्णपुत्र प्रद्युम्न, आदि को तथा पांडवों को जिनमार्ग का अनुसर्त्ता प्रतिपादित किया है । नेमिनाथ के निर्वाणोपरान्त काशी में ब्रह्मदत्त नाम का शक्तिशाली नरेश हुआ जो जैन परम्परा के बारह चक्रवर्तियों में अन्तिम था — उसकी ऐतिहासिकता भी मान्य की जाती है ।
आधुनिक इतिहासकार महाभारत युद्ध के उपरान्त भारतवर्ष का नियमित इतिहास प्रारम्भ करते हैं तथा उसके पूर्वकाल के इतिहास को अनुश्रुतिगम्य इतिहास कहते हैं । उक्त अनुश्रुतिगम्य इतिहास काल में - सुदूर अस्पष्ट प्रागऐतिहासिक एवं प्राग्वेदिक अतीत से लेकर महाभारत युद्ध के उपरान्त काल तक उत्तर प्रदेश में जैनधर्म एवं उसकी संस्कृति का प्रायः अविच्छिन्न प्रवाह रहता रहा, जैसा कि उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है ।
तीर्थंकर पार्श्व ( ईसापूर्व ८७७ ७७७ ) – जैन परम्परा के २३ वें तीर्थंकर हैं । इनका जन्म व्रात्यक्षत्रियों की नाग जाति के उरगवंश में हुआ था, गोल काश्यप था। इनके पिता काशिनरेश अश्वसेन थे और जननी वामादेवी थीं । इनका जन्मस्थान वाराणसी का भेलूपुर क्षेत्र रहा माना जाता है। राजकुमार पार्श्व शैशवावस्था से ही अत्यन्त शान्तचित्त, दयालु, मेधावी और चिन्तनशील थे, साथ ही अतुल वीर्य शौर्य के धनी एवं परम पराक्रमी भी थे । उनके मातुल कुशस्थलनुर 'कान्यकुब्ज - फर्रुखाबाद जिले का कन्नौज' नरेश पर जब कालयवन नामक एक प्रबल आतताई ने आक्रमण किया तो कुमार पार्श्व तुरन्त सेना लेकर उनकी सहायता के लिए गये और भीषण युद्ध करके उन्होंने शत्रु को पराजित किया तथा बन्दी बनाया । कृतज्ञ मातुल अपनी सुपुत्नी का विवाह इनके साथ करना चाहता था, किन्तु इसी बीच गंगातटवर्ती एक तापसी आश्रम में उन्होंने तापसी प्रमुख द्वारा प्रज्वलित अग्नि में जलाये जाते नाग-नागिन युगल की रक्षा की, इस घटना को देखकर पार्श्व को वैराग्य हुआ और वह बालब्रह्मचारी आत्मशोधनार्थं तपश्चरण करने के लिए बन में चले गये । अपनी कठोर साधना के बीच वह एकदा हस्तिनापुर पहुंचे और वहाँ उपवास का पारणा करके गंगा के किनारे-किनारे बिजनौर जिले के उस स्थान पर पहुँचे जो बाद में 'पारसनाथ किला' के नाम से प्रसिद्ध हुआ । वहाँ से चलकर वह उत्तर पांचाल की राजधानी (जो कालान्तर में अहिच्छत्रा नाम से प्रसिद्ध हुई और बरेली जिले के रामनगर से चीन्ही जाती है) के निकटवर्ती भीमाटवी नामक महावन में पहुँचे । वहाँ शंवर नामक दुष्ट असुर ने उन पर भीषण उपसर्ग किये । नागराज धरणीन्द्र और यक्षेश्वरी पद्मावती ने
उपसर्ग निवारण का यथाशक्य प्रयत्न किया । नागराज ( अहि) ने योगिराज पा का छत्राकार मंडप बना दिया था, जिस कारण वह स्थान अहिच्छता नाम से पार्श्व को केवलज्ञान प्राप्त हुआ, उनकी समवसरण सभा जुड़ी और उन्होंने अपने
तीर्थंकर पार्श्व की ऐतिहासिकता असन्दिग्ध है। जैन तीर्थंकरों में वह प्राय: सर्वाधिक लोकप्रिय रहे हैं । भारत वर्ष के कोने-कोने में अनगिनत मूर्तियाँ, मंदिर एवं तीर्थस्थान उनके नाम से सम्बद्ध पाये जाते हैं । हस्तिनापुर नरेश स्वयंभू, कन्नौज के राजा रविकीर्ति आदि अनेक भूपति उनके परम भक्त थे । नाग, यक्ष, असुर आदि अनार्य देशी जातियों में, जिनका ब्राह्मणीय साहित्य में बहुधा व्रात्यक्षत्रियों के रूप में उल्लेख हुआ है, तीर्थंकर पार्श्व का प्रभाव विशेष रहा प्रतीत होता है । उत्तर प्रदेश के बाहर बंगाल, बिहार, उड़ीसा, आन्ध्र प्रदेश पर उनका प्रत्यक्ष प्रभाव था । भारत की प्रश्चिमोत्तर सीमाओं को पार करके मध्य एशियाई देशों एवं यूनान पर्यन्त उनकी कीर्तिगाथा एवं विचार प्रसारित हुए लगते हैं। साथ ही, तीर्थंकर महावीर के समय तक उनकी धर्म परम्परा अविच्छिन्न चलती रही - महावीर का पितृकुल एवं मातृकुल तीर्थंकर पार्श्व के 'अनुयायी थे । अनेक पाश्र्वापत्य (पार्श्व की आम्नाय
के शिर के ऊपर अपने फणों प्रसिद्ध हुआ । उसी समय भगवान धर्मचक्र का प्रवर्तन किया ।
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h) साधु और गृहस्थ उत्तर प्रदेश में भी यत्र-तत्र उस समय तक विद्यमान थे । महावीर द्वारा धर्मचक्र प्रवर्तन के उपरान्त वे लोग महावीर के अनुयायियों में सम्मिलित हो गये । पार्श्व द्वारा उपदेशित मार्ग का बहुधा चातुर्याम धर्म के नाम से उल्लेख हुआ है । कहा जाता है कि उन्होंने अहिंसा, सत्य, अस्तेय, और अपरिग्रह पर ही विशेष बल दिया था - ब्रह्मचर्य नाम के किसी व्रत का पृथक से विधान नहीं किया था, उसे अपरिग्रह का ही अंग प्रतिपादित किया था। भगवान पार्श्व चारित्रिक नैतिकता पर ही विशेष बल देते थे और तत्कालीन जनमानस पर अपने विचारों का महत्त्व जमाने में बहुत कुछ सफल हुए थे । इसके अतिरिक्त पंचाग्नि जैसे कृश तपों और हठयोगादि की निरर्थकता एवं निर्दयता की ओर उन्होंने लोक का ध्यान आकर्षित किया। अपने समय में वह 'पुरिसदानिय' ( पुरुष श्रेष्ठ ) उपाधि से प्रसिद्ध हुए । वह उत्तर वैदिक काल के उस श्रमणधर्म पुनरुत्थान के सर्वमहान एवं सफल नेता थे, जिसका प्रारम्भ नेमिनाथ ने किया था और जो वर्द्धमान महावीर द्वारा निष्पन्न हुआ । वर्द्धमान महावीर (५९९-५२७ ई० पू० ) - चौबीसवें एवं अन्तिम तीर्थंकर महावीर का जन्म तो बिहार राज्य में हुए था, वहीं उनका कुमारकाल एवं तपस्वी जीवन का बहुभाग भी व्यतीत हुआ, उसी प्रदेश में उन्हें केवल ज्ञान प्राप्त हुआ और वहीं उनका निर्वाण हुआ माना जाना जाता है, किन्तु अपने तपस्याकाल में भी अनेक बार तथा तीर्थंकर के रूप में धर्मोपदेशार्थ उत्तर प्रदेश में प्रायः सर्वत्र उनका विहार हुआ था। उस काल के इस प्रदेश के प्रसिद्ध नगरों वाराणसी, श्रावस्ती, कौशाम्बी, प्रयाग या पुरिमताल, मथुरा और हस्तिनापुर में वह पधारे थे । इस प्रदेश के जिन अन्य स्थानों में भगवान महावीर के विहार करने के संकेत मिलते हैं, उनमें से श्वेतांबिका की पहचान कुछ विद्वान बलरामपुर के निकटस्थ बसेदिला नामक स्थान से करते हैं और कुछ सीतामढ़ी से । इसी प्रकार आलभिका की पहचान उन्नाव जिले के नवलगाँव अथवा इटावा जिले के ऐरवा नामक ग्राम से की जाती है । विसाखा की पहचान
कुछ विद्वान लखनऊ से करते हैं । कयंगला श्रावस्ती के निकट स्थित था और नंगला भी कोसल प्रदेश में ही था तथा हलिग कोलियगण की राजधानी रामनगर के निकट स्थित था । भोगपुर देवरिया जिले में कुशिनगर के निकट रहा प्रतीत होता है और कुछ विद्वानों की तो यह भी धारणा है कि भगवान महावीर का निर्वाणस्थल (पावा) बिहार में न होकर देवरिया जिले का सठियांव डिह - फाजिलनगर है, जिसे इधर कुछ समय से पावानगर नाम दे दिया गया गया है । इनके अतिरिक्त, महावीर के भ्रमण सम्बन्धी अनुश्रुतियों में लिखित उत्तर वाचाला और दक्षिण वाचाला क्रमशः उत्तर पांचाल ( राजधानी अहिच्छता) और दक्षिण पांचाल ( राजधानी कम्पिला ) से तथा कनखल आश्रम से हरिद्वार के निकट स्थित कन्खल से अभिप्राय रहा हो सकता है। अनुश्रुतियों में प्राप्त नामों में अनेक ऐसे भी हैं, जिनकी पहचान नहीं हो पाई है। जिनका उल्लेख नहीं हुआ किन्तु जहाँ महावीर पधारे थे, ऐसे भी स्थान रहे हो सकते हैं ।
भगवान महावीर के समय में वर्तमान उत्तर प्रदेश काशि, कोसल, वत्स, चेदि, कुरु, पांचाल और शूरसेन नामके सात महाजनपदों या राज्यों में विभाजित था, जिनके अतिरिक्त शाक्य, मल्ल, मोरिय, कोलिय, लिच्छवि आदि जातियों के कई गणतन्त्र तथा अन्य कुछ छोटे-छोटे राज्य भी थे । उक्त सभी जनपदों में भगवान ने बिहार करके धर्मोपदेश दिया था । जनसामान्य में से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्रादि प्रायः सभी वर्णों एवं जातियों के अनगिनत स्त्री-पुरुष, अनेक विशिष्टजन, कई राज परिवारों के व्यक्ति तथा स्वयं कई राजे-महाराजे तीर्थंकर महावीर के भक्त हुए । इनमें विशेष उल्लेखनीय हैं वत्स ( कौशाम्बी) नरेश शतानीक और उसकी पट्टराणी मृगावती जो पति की मृत्यु के उपरान्त पुत्र उदयन की स्थिति राज्यसिंहासन पर सुदृढ़ करके साध्वी बन गई थी और महावीर
आर्यिका संघ में सम्मिलित हो गयी थी । उसकी ननद, राजकुमारी जयन्ती बड़ी विदुषी और महावीर की परमभक्त थी । वत्सराज उदयन और रानी वासवदत्ता भी तीर्थंकर के भक्त थे । श्रावस्ती नरेश कोसलाधिपति प्रसेनजित एवं उनकी पट्टराणी मल्लिकादेवी महावीर और बुद्ध का ही नहीं, मक्खलि गोशाल आदि अन्य तत्कालीन श्रमण
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एवं ब्रह्मण धर्माचार्यों का समान रूप से आदर करते थे। उन्होंने श्रावस्ती में विभिन्न धर्मों की तत्त्वचर्चा के लिए एक विशाल सभाभवन भी बनवाया था। वाराणसी के राजा जितशत्रु, राजपुत्री मुण्डिका, कपिलवस्तु के शाक्य बप्प (गौतम बुद्ध के चाचा), मथुरा नरेश उदितोदय एवं अवन्तिपत्र तथा उनका राज्य सेठ, पांचाल नरेश जय, हस्तिना पुर के नृप शिवराज और नगरसेठ पोत्तलि, पलाशपुर के राजा विजयसेन और राजकुमार ऐमत्त, इत्यादि महावीर भक्त थे। महावीर के दस प्रसिद्ध गृहस्थ उपासकों में पलाशपुर का कोट्याधीश कुंभकार शब्दालपुत्र, जो वर्ण से शूद्र था, व उसकी पत्नी अग्निमित्रा, वाराणसी का चौबीस कोटि मुद्राओं का धनी सेठ चुलिमीपिता और उसकी पनि श्यामा, काशि का ही श्रेष्ठि सुरादेव व उसकी पत्नी धन्या, आलंभिका का चुल्लशतक व पत्नी बहुला, काम्पिल्य का गृहपति कुण्डकोलिक व उसकी भार्या पुष्पा, और श्रावस्ती के सेठ सालिहिपिता एवं नन्दिनीपिता अपनी-अपनी पत्नियों अश्विनी एवं फाल्गुणी सहित, परिगणित हैं। श्रावस्ती का धनाधीश मिगार या अनाथपिण्डक भी, जिसकी बुद्धभक्त पुत्रवधु विशाखा ने प्रसिद्ध जेतवन विहार बनवाया था, महावीर का अनुयायी था।
अन्तिम केवलि जम्बूस्वामि ने वीर निर्वाण संवत् ६२ (ई. पू. ४६५) में मथुरा नगर के चौरासी नामक स्थान पर निर्वाण लाभ किया था। मथुरा में ही उनके द्वारा मुनिधर्म में दीक्षित दस्यराज विद्युच्चर और उसके पांच सौ साथियों ने तपस्या करके सद्गति प्राप्त की थी, जिनके स्मारक रूप से ५०१ स्तूप वहां निर्मित हुए थे, ऐसी अनुश्रुति है। महावीर निर्वाणोपरान्त-प्राचीन युग
ईसापूर्व ५वीं शती के मध्य के लगभग से ई. पू. २री शती के प्रायः प्रारम्भ तक उत्तर प्रदेश पर क्रमशः मगध के नन्द वंशी नरेशों और मौर्य सम्राटों का आधिपत्य रहा। इन दोनों वंशों के अधिकांश राजे जनधर्मानुयायी थे अथवा जैनधर्म के प्रति अत्यन्त सहिष्णु थे। अतएव प्रदेश में जैनधर्म फलता फूलता रहा। अशोक के शासनकाल में बौद्धधर्म का प्रभाव एवं प्रसार बहुत बढ़ा अनुमान किया जाता है, किन्तु जैनधर्म को विशेष क्षति नहीं पहुंची। स्वयं अशोक के शिलालेखों से स्पष्ट है कि वह निर्ग्रन्थों (जैनों) का आदर करता था और जीवहिंसा निषेध एवं मांसाहार त्याग के उनके सिद्धान्तों का स्वयं भी पालन करता था तथा अपनी प्रजा को भी उनका पालन करने की प्रेरणा देता था। कुछ विद्वानों का तो यह मत है कि अशोक कम से कम अपने जीवन के पूर्वार्ध में तो जैन ही रहा था। अशोक के उत्तराधिकारी सम्प्रति की गणना तो आदर्श जैन नरेशों में है। उसने अनेक स्थानों में अनगिनत जैन मंदिर बनवाये कहे जाते हैं ।
नन्द-मौर्य युग में जैन इतिहास की विशेष महत्वपूर्ण घटना द्वादशवर्षीय भीषण दुष्काल के कारण जैन मनियों के बहभाग का दक्षिण पक्ष की ओर विहार कर जाना था।
मौर्यवंश के उपरान्त मगध में क्रमशः शुंगों और कण्वों का शासन रहा, जिन्होंने ब्राह्मण धर्म पुनरुत्थान के लिए अपूर्ण उद्योग किया, और परिणामस्वरूप जैन, बौद्धादि श्रमण धर्मों को हानि भी पहुंची। किन्तु उत्तर प्रदेश के बहभाग पर उनका अधिकार नाम मात्र का ही रहा प्रतीत होता है। कौशाम्बी, अहिच्छन्न में स्थानीय राज्यवंश, जो बहधा 'मित्रनंश' कहलाते हैं, स्थापित हुए । इनमें परस्पर सम्बन्ध भी थे और इन प्रायः सभी राज्यों के मित्रगंशी राजे जैनधर्म के प्रति आदर भाव रखते थे । मथुरा के राजा पूतिमुख की एक रानी बौद्ध थी और दूसरी जैन, जिन्हें अपना-अपना नेता बनाकर बौद्धों और जैनों के बीच मथुरा के प्राचीन देवनिर्मित स्तप के अधिकार को लेकर झगड़ा चला। उसका निर्णय अन्ततः जैनों के पक्ष में हआ। अहिच्छत्रा के महाराज आषाढसेन ने अपने भानजे कौशाम्बी नरेश बृहस्पतिमिन के राज्य में स्थित तीर्थकर पद्मप्रभ की तप-ज्ञान भूमि
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पभोसा (प्रभासगिरि) पर जैन मुनियों के लिए गुफाएँ निर्माण कराई थीं, जैसाकि वहां से प्राप्त उसके शिलालेखों से पता चलता है।
ईसापूर्व प्रथमशती के मध्य के लगभग से लेकर प्राय एक शताब्दी तक मथुरा में शक क्षत्रपों का अधिकार रहा और तदनन्तर अगले लगभग दो सौ वर्ष तक कुषाण सम्राटों का शासन रहा। मथुरा के इन विदेशी शासकों का. कम से कम कुषाणों का तो प्रायः पूरे उत्तर प्रदेश पर अधिकार था। ये शासक सर्वधर्मसमभावी थे और जैनधर्म के प्रति पर्याप्त सहिष्णु रहे । मगध (बिहार) से जैन मुनियों का दक्षिणापथ की ओर सामूहिक विहार (४ थी शती ई० पू० के मध्य के लगभग) हो जाने के उपरान्त उत्तर भारत में मथुरा जैनधर्म का प्रमुख केन्द्र बन चला और मित्र-शक-कुषाण काल में मथुरा का जैनसंघ बड़ा सुगठित, विस्तृत एवं प्रभावशाली था। मथुरा के कंकाली टीले से जिस प्राचीन देवनिर्मित जैन स्तूप के अवशेष पुरातात्त्विक उत्खनन में प्राप्त हुए हैं, उसी के चारों ओर एक विशाल जैन संस्थान विकसित हो गया था जहां अनेक जैन साधु एवं साध्वियां निवास करते थे । काष्ठा, उच्चनगर या वरण (वर्तमान बुलन्दशहर), कोल, हस्तिनापुर, वजनगरी, संकिसा आदि में उसकी शाखाएँ स्थापित थीं। संभवतया मथरा के जैनों की प्रार्थना पर ही कलिंग के सुप्रसिद्ध जैन सम्राट खारवेल ने इतनी दर आकर यवन राज दिमित्र को मथुरा तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश से निकाल भगाया था । उस सम्राट द्वारा कलिंग में आयोजित महामुनि सम्मेलन में भी मथुरा के जैनमुनि सम्मिलित हुए थे, और उन्होंने वह 'सरस्वती आन्दोलन' चलाया था जिसके फलस्वरूप जैनसंघ में श्रुतागम के लिपिबद्ध करने की तथा पुस्तक साहित्य के प्रणयन की प्रबत्ति शुरू हई। मथुरा के इन जैन साधुओं की एक विशेषता यह थी कि उन्होंने एक दूसरे से कटकर दूर होती हई दक्षिणी एवं पश्चिमी शाखाओं से, जो कालान्तर में क्रमशः दिगम्बर और श्वेताम्बर नामों से प्रसिद्ध हईं, स्वयं. को पृथक रक्खा तथा उन दोनों के समन्वय का ही प्रयत्न किया। वस्तुतः, मथुरा के तत्कालीन जैन गृहस्थ और साधु अपेक्षाकृत कहीं अधिक उदार और विशाल दृष्टि वाले थे। यही कारण है कि विभिन्न वर्गों और जातियों के भारतीय ही नहीं, अनेक यवन, शक, पलव, कुषाण आदि विदेशी स्त्री पुरुषों ने भी जैनधर्म अङ्गीकार किया था।
शक महाक्षत्रप शोडास (ई० पू० प्रथम शती) के शासनकाल में मथुरा में प्रसिद्ध जैन सिंहध्वज (तीर्थंकर महावीर का प्रतीक) स्थापित हुआ, श्रमण महारक्षित के शिष्य वात्सीमुन श्रावक उत्तरदासक ने जिनेन्द्र के प्रासाद का तोरण निर्माण कराया, हारीतिपुत्र पाल की भार्या श्रमण श्राविका कौत्सी अमोहिनी ने अपने पूनों पालघोष, प्रोस्थघोष एवं धनघोष के सहयोग से अर्हत् वर्षमान के नमस्कारपूर्वक आर्यावती (भगवान की माता) की प्रतिमा प्रतिष्ठापित की, तथा गणिका लवणशोभिका ने अपनी माता, बहनों, पुत्रियों, पुत्रों तथा अन्य सर्व परिजनों के साथ श्रेष्ठियों की निगम के अर्हतायतन (जिनमन्दिर) में वर्धमान भगवान की पूजा के लिए वेदीग्रह, पूजामंडप, प्रपा, शिलापट्ट आदि निर्माण कराकर समर्पित किये थे। नगर की यह प्रयुख गणिका भी श्रमण-श्राविका थी। एक शिलालेख के अनुसार जिस कौशिकी शिवमिना ने अर्हतपूजार्थ मथरा में एक आयागपट प्रतिष्ठापित किया था, उसका पति वीर गोतीपुत्र (गौप्तीपुत्र) पोठय (पलव या पार्थियन) और शक लोगों के लिए काल-व्याल (कालानाग या साक्षात काल) था। इस गौप्तिपुत्र वीर इन्द्रपाल ने स्वयं भी एक जिन प्रतिमा प्रतिष्ठापित की थी। ऐसा लगता है कि इसी पराक्रमीवीर को प्रथमशती ईस्वी में मथुरा में शक क्षत्रयों की सत्ता समाप्त कराने का तथा पुराने अथवा एक नवीन राज्यवंश की स्थापना का श्रेय है। इस काल के अन्य शिलालेखों में श्राविका धर्मघोषा, बलहस्तिनी, फल्गुयश नर्तक की भार्या शिवयशा, मथुरावासी लवाडनामक एक विदेशी की भार्या आदि के धार्मिक निर्माणों का उल्लेख है। मथुरा से प्राप्त क्षत्रपकालीन शिलालेखों में जैन शिलालेखों की संख्या अन्य सबसे
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अधिक है । इस काल में जैनाचार्य लोहार्य, शिवार्य, स्वामीकुमार, विमलसूरि आदि की इस प्रदेश के साथ अल्पाधिक रूप में सम्बद्ध होने की सम्भावना है।
कुषाण सम्राटों के शासनकाल (लगभग ७५-२५० ई०) में तो इस प्रदेश में, विशेषकर मथुरा जनपद में जैनधर्म पर्याप्त उन्नत एवं प्राणवान रहा, जैसा कि उस काल के साधिक एक सौ शिलालेखों से प्रकट है। इन अभिलेखों में साधु-साध्वियों के नामों के अतिरिक्त कनिष्क, हविष्क, वशिष्क, वासुदेव आदि कुषाण सम्राटों के तथा सैकड़ों धर्म भक्त श्रावकों एवं धर्मप्राण महिलाओं के नाम प्राप्त होते हैं। विविध प्रकार के धर्मकार्य, निर्माण एवं दान पूजादि करने वाले उक्त स्त्री-पुरुषों में विभिन्न जातियों, वर्गों एवं व्यवसायों से सम्बन्धित व्यक्तियों के नाम हैं, जिनमें कई एक यवन, शक, पलव आदि विदेशी भी हैं । श्रेष्ठि, मानिकर (जौहरी), हैरण्यक (स्वर्णकार या सर्राफ), काष्ठवणिक, लोहवणिक, लोहिककारुक, गन्धिक, रंगरेज, वणिक, सार्थवाह, ग्रामिक, गोष्ठिक, नर्तक, पूजारी, माली, शस्त्रोपजीवि आदि विभिन्न व्यवसायों में रत स्त्री-पुरुषों के नाम उस काल में जैनधर्म की व्यापकता के सूचक हैं । मथुरा आदि में ही ईस्वी सन के प्रारम्भ के लगभग जैन संघ संभवतया सर्वप्रथम गण-कुलशाखा आदि में व्यवस्थित हआ-कम से कम उसके पूर्व वैसा होने के कोई सुनिश्चित सामयिक प्रमाण नहीं हैं। यह भी स्पष्ट है कि ईस्वी सन के प्रारम्भ से पूर्व ही उत्तर प्रदेश के मथुरा आदि नगरों में जैन स्तूप, मन्दिर, जैन सांस्कृतिक प्रतीकों के अंकन से युक्त कलापूर्ण आयागपट, चौबीसों तीथंकरों में से प्रायः सभी की खड़गासन या पद्मासन दिगम्बर प्रतिमाएं, आर्यावती, सरस्वती आदि की मूर्तियां, कई जैन पौराणिक दृष्यों के अंकन आदि निर्मित एवं 'सर्ग सत्त्वांनां हिताय-सन सत्त्वानां सुखाय' प्रतिष्ठापित होने लगे थे।
तीसरी शती ई० के मध्य के लगभग कुषाणों का पराभव होने पर मथुरा, कौशाम्बी, अहिच्छना आदि में स्थानीय मित्रवंशी राज्य, कई प्रदेशों में यौधेय, मद्रक, अर्जुनायन आदि युद्धोपजीवि गणराज्य और अनेक क्षेत्रों में भारशिव नागों की स्वतन्त्र सत्ताएं स्थापित हुई। इनमें से शायद कोई भी जैनधर्म के अनुयायी नहीं थे, किन्तु धर्म के विषय में प्रायः सभी उदार और सहिष्णु थे। मथुरा, कोशाम्वी, अहिच्छत्रा वाराणसी, हस्तिनापुर आदि जैन धर्म के पवित्र तीर्थ उसके अच्छे केन्द्र अब भी चलते रहे । दूसरी शती ई० के उत्तरार्ध के लगभग हुए दिग्गज जैनाचार्य समन्तभद्र स्वामी के उत्तर प्रदेश की वाराणसी आदि में दक्षिण देश से आकर शास्त्रार्थ करने के संकेत मिलते हैं। यतिवृषभाचार्य भी संभव है कि इस प्रदेश से सम्बद्ध रहे हों। अयोध्या के इक्ष्वाकु वंशी राजा गंगदत्त का एक वंशज विष्णुगुप्त, अच्छिना का राजा था। उसके वंशज पझनाभ के दो पुत्र, ददिदग और माधव, दक्षिण देश चले गये थे, जहाँ २री शती ई० के अन्त के लगभग जैनाचार्य सिंहनंदि की प्रेरणा और सहायता से उन्होंने कर्णाटक के प्रसिद्ध गंगराज्य की स्थापना की थी।
गुप्त एवं गुप्तोत्तर काल-३२० ई. के लगभग गुप्त राज्य की स्थापना हुई और कुछ ही दशकों में उसने एक शक्तिशाली साम्राज्य का रूप ले लिया, जो छठी शताब्दी के प्रायः मध्य पर्यन्त उत्तर एवं मध्य भारत की प्रायः सर्वोपरि राज्य सत्ता रहा । यह युग भारतीय साहित्य और कला का स्वर्णयुग माना जाता है। देश समृद्ध और सुखी था। संभवतया रामगुप्त (३७५-३७९ ई०) को छोड़कर प्रायः सभी गुप्त नरेश वैष्णव धर्मानुयायी परम भागवत थे और पौराणिक हिन्दू धर्म के विकास के साधक तथा उसके प्रबल पोषक थे। जैनधर्म के प्रति वे असहिष्णु नहीं थे, किन्तु उसे राज्याश्रय भी प्राप्त नहीं था। तथापि प्रदेश में अनेक पुराने जैन केन्द्र फलते फलते रहे। दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही जैन सम्प्रदायों के साधुओं का प्रदेश में सर्वत्र स्वच्छन्द विहार था।
___ चीनी यात्री फाह्यान, (४०९-४१३ ई.) के यात्रा वतान्त से तो प्रकट है कि उस काल में जनसामान्य पर खान-पान विषयक जैनी अहिंसा का पूरा प्रभाव था-मद्य-मांस सेवन का प्रचार अत्यन्त विरल था। संभवतया गुप्त संवत् ५७ (३७६ ई०) में मथुरा में एक जिन प्रतिमा प्रतष्ठित हुई थी। वहीं
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एक अन्य जिनप्रतिमा कोटेयगण की वेर शाखा के किसी साधु के उपदेश से वर्ष ९७ ( ४१६ ई० ) में, तथा एक अन्य वर्ष ११३ (४३२ ई० ) में सम्राट कुमारगुप्त के शासन काल में कोट्टिय गण की विद्याधरी शाखा के दतिलाचार्य के उपदेश से भट्टिभव की पुत्री और प्रातारिक गृहमितपालित की कुटुम्बिनी ( भार्या) शामाया ने प्रतिष्ठित कराई थी । गुप्त सं० १४१ (४६० ई०) में सम्राट स्कंदगुप्त के शासनकाल में ब्राह्मण सोमिल के प्रपौत, महात्मा भट्टिसोम के पौत्र यशस्वी रुद्रसोम के पुत्र, संसार चक्र से भयभीत पुण्यात्मा भद्र ने ककुभ ( गोरखपुर जिले का कहाऊँ) नामक स्थान में पञ्च- जिनेन्द्र स्तंभ की स्थापना की थी। इसी पांचवीं शती ई० के जैन शिलालेख राजगृह (विहार) की सोन भंडार गुफा ( लगभग ४०० ई० ) में, विदिशा (मध्यप्रदेश ) की उदयगिरि गुफा ( ४२५ ई० )
और पहाड़पुर ( बंगाल ) के ताम्रपत्र ( ४७९ ई०), आदि में प्राप्त हुए हैं। पहाड़पुर ताम्रपत्र से तो विदित होता है कि इस काल में काशि निवासी निर्ग्रन्थ श्रमणाचार्य गुहनन्दि विशेष प्रभावशाली थे - उत्तर प्रदेश ही नहीं, बिहार और बंगाल में भी उनके शिष्य-प्रशिष्य फैले थे । वह स्वयं पंचस्तूप निकाय के साधु थे । इस जैन संघ का निकास संभवतया हस्तिनापुर (जहां प्राचीन पांच जैन स्तूप थे ) अथवा मथुरा से हुआ था और कालान्तर में इसका विस्तार दक्षिण भारत के महाराष्ट्र, कर्णाटक एव तमिल प्रदेशों तक हुआ था । गुप्तकाल के जैन मंदिरों, मूर्तियों आदि के भाजन शेष उत्तर प्रदेश में मथुरा, हस्तिनापुर, देवगढ़, कहाऊँ, श्रावस्ती, कौशाम्बी, वाराणसी, अहिछता आदि में प्राप्त हुए हैं, जो उस काल में भी प्रसिद्ध केन्द्र रहे । सुप्रसिद्ध जैन तार्किक आचार्यं सिद्धसेन के भी इस प्रदेश में रहे होने की सम्भावना है ।
गुप्तत्तर काल में कन्नौज के प्रतापी सम्राट हर्षवर्धन ( ६०६- ६४७ ई०) का विशेष झुकाव यद्यपि बौद्ध धर्म की ओर था, वह प्रायः सर्वधर्म समदर्शी, विद्वानों का आदर करने वाला, उदार और दानी नरेश था । वह राजधानी कन्नौज तथा प्रयाग में जो आवधिक विद्वत्सम्मेलन किया करता था उनमें विभिन्न धर्मों के साधुओं एवं विद्वानों को आमन्त्रित करता था, जिनमें निर्ग्रन्थ (जैन) साधु और विद्वान भी होते थे । उन सबको वह दान-मान से सन्तुष्ट करता था । उसके शासनकाल में चीनी बौद्ध यात्री ह्वेनसांग इस प्रदेश में आया था, और उसके यात्रा वृत्तान्त से पता चलता कि प्रदेश के विभिन्न भागों में जैन साधु, उनके अनुयायी और देवायतन उस काल में विद्यमान थे । वीरदेव क्षपणक नामक जैन विद्वान हर्ष के राजकवि बाणभट्ट का मित्र था और सुप्रसिद्ध भक्तामर स्तोत्र के रचयिता जैनाचार्य मानतुंग भी इसी काल और प्रदेश में हुए माने जाते हैं ।
वशती ई० के पूर्वार्ध में कन्नौज के प्रतापी विजेता एवं विद्यारसिक नरेश यशोवर्मन का राजकवि और प्राकृत काव्य 'गौड़वहो' का रचियता वाक्पति जैन था । उसी शती के उत्तरार्ध में कन्नौज के आयुधबंशी नरेशों में से इन्द्रायुध का उल्लेख पुन्नाटसंघी जैनाचार्य जिनसेन ने अपनी हरिवंश पुराण ( ७८३ ई० ) में किया है । वह स्वयं भी उत्तर प्रदेश में विचरे प्रतीत होते हैं । इसी समय के लगभग अपभ्रंश के प्रसिद्ध महाकवि स्वयंभू हुए जिन्होंने अपभ्रंश भाषा में जैन रामायण तथा अन्य काव्यों की रचना की थी। वह मूलतः उत्तर प्रदेश, सम्भवतया कन्नौज के ही निवासी थे और वहां से चलकर दक्षिणा पथ में राष्ट्रकूट सम्राटों की राजधानी में जा बसे थे । कर्णाटक के सान्तर आदि कई सामन्त वंशों का पूर्वपुरुष जिनदत्तराय ( लगभग ८०० ई०) भी मूलतः उत्तर प्रदेश के मथुरा नगर का निवासी था । मथुरा के उग्रवंशी नरेश राह उपनाम मथुरा- भुजंग का वंशज सहकार एक दुष्ट प्रकृति का राजा था, जो अन्ततः नरमांसभक्षी हो गया था । उसकी धर्मात्मा जैन पत्नी से जिनदत्तराय का जन्म हुआ था, जिसे अपने पिता के आचरण पर बड़ी ग्लानि हुई । अतएव अपनी माता की सहमति से वह दक्षिण देश चला गया जहां उसने बड़ा पराक्रम दिखाया और कनकपुर अपरनाम पोम्बुर्च्चपुर (हुमच्च) में अपने राज्य की स्थापना की । जिनदत्तराय और उसके वंशज अपने नाम के साथ 'मथुराधीश्वर' विरुद का प्रयोग चिरकाल तक करते रहे । कालान्तर में इस बंश की कई शाखाएं - प्रशाखाएं हुईं ।
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कन्नौज के गुर्जर-प्रतिहार-इस वंश का मूल स्थान मारवाड़ का भिन्नमाल (श्रीमाल) नगर था, और उसके नागभट प्रथम, कक्कुक, वत्सराज (७७५-८००ई.) आदि प्रारम्भिक राजे जैनधर्म के अनुयायी थे। 'रणहस्ति', 'परभट-भृकुटि-भंजक' आदि विरुदधारी वत्सराज ही कन्नौज के गुर्जर-प्रतिहार साम्राज्य का संस्थापक था और प्रायः पूरे उत्तर प्रदेश पर उसका शासन था। वह जैनधर्म का समर्थक एवं पोषक था। जैनयति बप्पभट्रिसूरि का वह बड़ा सम्मान करता था। जिनसेन ने हरिवंश में और उद्योतन सूरि ने कुवलयमाला में उसका उल्लेख किया है। अपने साम्राज्य के कई स्थानों में उसने जिनमंदिर और मूत्तियाँ स्थापित कराई थीं। कहा जाता है कि स्वयं राजधानी कन्नौज में उसने एक सौ हाथ ऊँचा भव्य जिनमंदिर बनवाया था, जिसमें भगवान महावीर की स्वर्णमयी प्रतिमा प्रतिष्ठापित की थी। वत्सराज का पुत्र एवं उत्तराधिकारी नागभट द्वितीय नागावलोक 'आम' (८००-८३३ ई.) भी बड़ा प्रतापी, विजेता और जैनधर्म का भारी प्रश्रयदाता था। जैन साहित्य एवं प्रभूत प्रशंसा पाई जाती है। आचार्य बप्पभट्रिसूरि उसके गुरु रहे बताये जाते हैं। अनेक विद्वानों के अनुसार बप्पभट्टिचरित्र में उल्लिखित ग्वालियर नरेश 'आम' यह गुर्जर-प्रतिहार नागभट द्वि० ही था; कुछ अन्य विद्वान कन्नौज नरेश यशोवर्मन के पुत्र एवं उत्तराधिकारी के साथ उक्त 'आम' का समीकरण करते हैं। प्रभावकचरित्र के अनुसार इस नरेश की मृत्यु ८३३ ई० में गंगा में जलसमाधि द्वारा हुई थी। मथुरा के प्राचीन 'देवनिर्मित' जैन स्तूप का जीर्णोद्धार भी इसी के समय में हुआ बताया जाता है। यह धर्मात्मा राजा जिनेन्द्रदेव की भांति विष्णु, शिव, सूर्य और भगवती का भी उपासक था। नागभट द्वि. का पौत्र एवं उत्तराधिकारी मिहिर भोज (८३६-८८५ ई०) कन्नौज के गुर्जर-प्रतिहार वंश का सर्वमहान नरेश था। अपनी कुलदेवी भगवती का वह भक्त था, किन्तु बड़ा उदार और सहिष्णु था और जैनधर्म का भी प्रश्रयदाता था। इस काल में प्रदेश में जैनधर्म की सन्तोषजनक स्थिति थी। सन् ८६२ ई० में इस परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्री भोजदेव के शासनकाल में उसके महासामन्त विष्णुराम के प्रश्रय में लुअच्छगिरि (ललितपुर जिले के देवगढ़) में आचार्य कमलदेव के शिष्य श्रीदेव ने श्रावक बाज और गंगा नामक दो भाइयों द्वारा भगवान शान्तिनाथ के प्राचीन मंदिर का जीर्णोद्धार कराके उसके सन्मुख कलापूर्ण मुखमंडप तथा सुन्दर मानस्तंभ निर्मापित एवं प्रतिष्ठापित कराया था। इन धर्मात्मा भ्रातृद्वय की उपाधि 'गोष्ठिक' थी, जिससे लगता है कि वे किसी व्यापारिक निगम के सम्भ्रान्त पदाधिकारी थे और उक्त शान्तिनाथ जिनालय के ट्रस्टी थे। भोज का एक वंशज महेन्द्रपाल द्वितीय (९४०-९४६ ई०) भी भारी विद्या प्रेमी, एवं उदार था। उसके लिए जैनाचार्य सोमदेव ने राजनीतिशास्त्र के अपने महान ग्रन्थों, नीतिवाक्यामृत एवं महेन्द्र-मातलि-संजल्प की रचना की थी, ऐसा विश्वास करने के कारण हैं।
११वीं शती के प्रथम पाद के अन्त के लगभग महमूद गजनवी के आक्रमणों ने गुर्जर-प्रतिहारों की सत्ता पर मारणान्तिक आधात किया। कुछ दशकों के उपरान्त कन्नौज में गाहडवाल रजपूतों की सत्ता स्थापित हुई, जिसके अंतिम राजा जयचंद को व उसके राज्य को १२वीं शती के अन्त के लगभग मुहम्मदगोरी ने समाप्त कर दिया । इस काल में उत्तर प्रदेश मुख्यतया कन्नौज-वाराणसी के गाहडवालों, महोबा के चन्देलों और दिल्ली के तोमरों तथा उनके उपरान्त चौहानों के बीच बँटा रहा। अनेक छोटी-छोटी राज्यसत्ताएं भी थीं। ये सब छोटे-बड़े राजे परस्पर नित्य लड़ते-भिड़ते रहते और अपनी शक्ति का ह्रास करते रहते थे। जिसका परिणाम यह हुआ कि मुसल्मान आक्रमणकारी उनका दमन करके सहज ही इस प्रदेश पर अधिकार करने में सफल हो गये।
९वीं-१०वीं शताब्दी में ही मथुरा आदि में दिगम्बर और श्वेताम्बर उभय सम्प्रदायों के पृथक-पृथक मंदिर सर्वप्रथम बनने प्रारम्भ हुए। दोनों के ही साधुओं ने अपने-अपने माथुर संघ या माथुरगच्छ भी गठित किये। दिगम्बर परम्परा का माथुर संघ और काष्ठासंघ, जिसकी एक प्रमुख शाखा माथुरगच्छ तथा एक दूसरी नदीतटगच्छ थी, इसी काल में उदय में आये। श्वेताम्बर माथुर संघ के सर्वप्रथम उल्लेख भी मथुरा से प्राप्त ९८१ ई. और
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१०७७ ई० के प्रतिमालेखों में ही मिलते हैं। उक्त दोनों प्रतिमाओं के अतिरिक्त १०वीं शती में एक पार्श्व प्रतिमा, १००६ ई० में एक तीर्थकर प्रतिमा, १०१४ में पार्श्वप्रतिमा, १०२३ में एक वर्धमान चतुबिब तथा एक अन्य प्रतिमा सर्वतोभद्रिका, १०४७ में नेमिनाथ प्रतिमा, ११५० में आदिनाथ प्रतिमा, आदि के मथुरा, आगरा, नौगाव आदि में निर्मित एवं प्रतिष्ठित होने के उल्लेख मिलते हैं।
लगभग ८३० से १३१० ई० पर्यन्त उत्तर प्रदेश के बुन्देलखंड भूभाग (झांसी, ललितपुर, बांदा, हमीरपुर और जालौन जिलों) पर चन्देलवंशी नरेशों का शासन रहा। उनकी प्रारम्भिक राजधानियाँ, जुझौती और खजुराहो, तो मध्यप्रदेश में हैं, किन्तु परवर्ती राजधानियाँ, कालिंजर और महोबा, उत्तर प्रदेश में ही स्थित थीं। चन्देलनरेश प्रायः सब शिवभक्त थे और मनिया उनकी कुलदेवी थी, तथापि वे सर्वधर्म सहिष्णु थे और उनके राज्य में जैनधर्म को पर्याप्त प्रश्रय प्राप्त था। उनके राज्य के वर्तमान में मध्यप्रदेश में स्थित खजुराहो, अजयगढ़, चन्देरी, ग्यारसपुर, विलासपुर, अहार, पपोरा आदि प्रमुख नगरों में ही नहीं, उत्तरप्रदेश के महोबा, कालंजर, देवगढ़, करगवां, बानपुर, चन्दपुरा, दूदाही, सरोन, आदि स्थानों में भी समृद्ध जैनों की बड़ी-बड़ी बस्तियां थीं, जहाँ उस काल में अनेक जैन मंदिरों एवं मूत्तियों आदि का निर्माण हुआ। जैन कला के चन्देलकालीन अवशेषों की तत्कालीन भारतीय मूत्ति एवं स्थापत्य शिल्प के सर्वोत्कृष्ट उदाहरणों में गणना है। राज्य के जैनों ने उस राज्य की सर्वतोमुखी उन्नति में पूरा योगदान दिया था। कमलदेव, श्रीदेव, वासवचन्द्र, कुमुदचन्द्र, शुभचन्द्र, गुणभद्र आदि अनेक प्रभावक दिगम्बर जैन मुनियों एवं विद्वान आचार्यों का राज्य में उन्मुक्त विहार होता था। जहांतक उत्तरप्रदेश का सम्बन्ध है, १०६३ ई० में. कीत्तिवर्मन चन्देल के शासनकाल में देवगढ़ में एक सहस्रकूट चैत्यालय का निर्माण हुआ था, १०९७ ई० में कीत्तिवर्मन के मन्त्री वत्सराज ने देवगढ़ का नवीन दुर्ग बनवाकार उसका नाम कीर्तिगिरि रखा था और उस समय एक जिनमन्दिर भी वहाँ बना था । जयवर्मा चन्देल के समय में, १११२ ई० में महोबा में कई जिन प्रतिमाएं प्रतिष्ठित हई थीं। मदनवर्मा के शासनकाल में ११४५ ई० से ११६३ ई० तक की एक दर्जन के लगभग जैन प्रतिमाएँ महोबा में प्राप्त हुई हैं, जिनमें ११५४ ई० की नेमिनाथ और ११५६ ई० की सुमतिनाथ प्रतिमाएँ रूपकार लाखन द्वारा निर्मित हैं, तथा ११६३ ई० की तीर्थकर अजितनाथ आदि कई प्रतिमाएँ महोबा के प्रसिद्ध जैन सेठ रत्नपाल एवं उसके पुत्रों, कीर्तिपाल, अजयपाल, वस्तुपाल और त्रिभुवनपाल ने एक जिनमंदिर बनवाकर प्रतिष्ठित की थीं। मण्डलिपर में गहपतिवंशी श्रेष्ठ महीपति के परिवार ने ११५१ ई० में नेमिनाथ जिनालय बनावाकर उसकी प्रतिष्ठा करायी थी। चन्देल परमाल (११६५-१२०३ ई.) के समय में अनेक जिनमंदिर एवं जिन-प्रतिमाए प्रतिष्ठित हई स्वयं राजधानी महोबा में ११६७ ई० में राज्याश्रय में एक जैनमंदिर का निर्माण हुआ था। वीरवर्मन चन्देल के समय की १२७४-१२७८ ई० की लेखांकित जैन मूत्तियां मिली हैं। अकेले देवगढ़ में ९५९ से १२५० ई० तक के डेढ़ दर्जन से अधिक जैन शिलालेख, प्रतिमालेख, आदि प्राप्त हुए हैं। उस युग में पाड़ाशाह (भैसाशाह) नाम का एक बड़ा उदार दानी अग्रवाल जैन धनकुबेर हुआ जिसे प्रचलित किम्बदंतियाँ बुन्देलखंड में सैकड़ों जैनमंदिरों, कूप, बावड़ी, तड़ाग आदि के निर्माण का श्रेय देती हैं।
८वीं शती के अन्त से लेकर १२वीं शती के मध्य पर्यन्त दिल्ली राज्य पर तोमर वंश का शासन था, जिनके राज्य में उत्तर प्रदेश के पश्चिमी जिले (वर्तमान मेरठ कमिश्नरी) सम्मिलित थे। तोमर वंश के राजे जैनधर्म के प्रति अति सहिष्णु थे। अनंगपाल तृतीय (११३२ ई०) का राज्य-मन्त्री नटलसाहु बड़ा धनवान एवं धर्मात्मा जैन श्रावक था। उसने दिल्ली में तथा अन्यत्न अनेक जैन मंदिर बनवाये और कई विद्वानों एवं कवियों को प्रश्रय देकर उनसे अपभ्रंश भाषा के कई जैन काव्य रचवायें थे।
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तोमरों के उपरान्त दिल्ली राज्य पर सांभर-अजमेर के चौहानों का अधिकार हआ। प्रसिद्ध राय पिथौरा (पृथ्वीराज) का पिता 'प्रतापलंकेश्वर' सोमेश्वर चौहान तो जैनधर्म का भारी प्रश्रयदाता था। जब वह अजमेर से दिल्ली आया तो अपने नगर सेठ देवपाल को भी अपने साथ लाया था। दोनों ने हस्तिनापुर जैन तीर्थ की यात्रा की और वहाँ देवपाल ने ११७६ ई० में तीर्थंकर शान्तिनाथ की एक खड्गासन विशाल पुरुषाकार मनोज्ञ प्रतिमा प्रतिष्ठापित की थी?
आगरा और इटावा के मध्य चन्द्रपाठदुर्ग (चन्दवाड, वर्तमान फिरोजाबाद) में १० वीं शती के अन्तिम पाद में चन्द्रपाल नामक एक चौहान ने अपना राज्य स्थापित किया था। वह स्वयं तथा उसका दीवान रामसिंहहारूल जैन धर्मानुयायी थे । चन्द्रपाठदुर्ग का निर्माण करके उनदोनों ने ९९६-९९९ ई० में वहाँ मुख्य जैनमंदिर बनवाया और उसमें अपने इष्टदेव तीर्थंकर चन्द्रप्रभु की मनोज्ञ स्फटिकमयी प्रतिमा प्रतिष्ठित की थी। चन्द्रपाल के वंश में ११-१२वीं शती में क्रमश: भरतपाल, अभयपाल, जाहड और श्रीबल्लाल नाम के राजे हुए जो सब जैन थे या नहीं, जैनधर्म के पोषक अवश्य थे, और उनके मन्त्री तो जैन ही होते रहे। अभयपाल के मंत्री अमृतपाल ने चन्दवाड में एक जैनमंदिर बनवाया था, और संभवतया जाहड के मंत्री सोडूसाहु ने भी। वहीं ११७३ ई० में माथुरवंशी नारायण साहु की देव-शास्त्र-गुरुभक्त भार्या रूपिणी ने श्रुतपंचमीव्रत के फल को प्रकट करने वाली भविष्यदत्त कथा अपभ्रंश भाषा के कवि श्रीधर से लिखवाई थी। इटावा जिले के असाइखेड़ा में भी इसी चौहान वंश की एक शाखा स्थापित थी-उस स्थान से भी उस काल की अनेक जिनमुत्तियाँ प्राप्त हुई हैं।
__ मथुरा (महावन) में यदुवंशी राजपूतों का छोटा सा राज्य था, महमूद गजनवी के आक्रमण में मथुरा के ध्वस्त हो जाने पर ये लोग बयाना (जिला भरतपुर) में जा बसे थे। उस काल की (९८१,१००६, १०१४ ई० आदि की) मथुरा से प्राप्त जैन मूत्तियों से प्रकट है कि ये यदुवंशी राजे भी जैनधर्म के प्रति सहिष्णु थे।
इलाहबाद जिले के कौशाम्बी, जसो आदि स्थानों से भी उस काल की तीर्थंकर प्रतिमाएं मिली हैं। अकेले जसो में लगभग एक दर्जन मूत्तियाँ मिली हैं जिन से, प्रयाग संग्रहालय के अध्यक्ष डा. सतीशचन्द काला के मतानुसार, प्रकट है कि किसी समय जसो जैनधर्म का एक अच्छा केन्द्र रहा है, यद्यपि अब चिरकाल से वहाँ किसी जैनी का निवास नहीं है ।
श्रावस्ती (बहराइच-गोंडा) में ९वीं-११वीं शती में जैनधर्मानुयायी ध्वजवंशी नरेशों का राज्य था, जिनमें क्रमशः सुधन्वध्वज, मकरध्वज, हंसध्वज, मोरध्वज, सुहिलध्वज और हरसिंहदेव नाम के राजा हुए। इसवंश का सम्बंध सरयूपारवर्ती कलचुरियों (चेदियों) की किसी शाखा से अथवा प्राचीन भरजाति से रहा प्रतीत होता है। उन दोनों में ही जैनधर्म की प्रवृत्ति थी। मोरध्वज का उत्तराधिकारी सुहिलध्वज या सुहेलदेव बड़ा वीर, पराक्रमी और जिनभक्त था। उसने १०३३ ई० के लगभग महमूद गजनवी के पुत्र के सिपहसालार सैयद मसऊद गाजी को बहराइच के भीषण युद्ध में बुरीतरह पराजित करके ससैन्य समाप्त कर दिया बताया जाता है। स्थानीय लोककथाओं में वीर सुहेलदेव प्रसिद्ध है और उनसे उसका जैन रहा होना भी प्रकट है।
उत्तर प्रदेश के अवध आदि पूर्वी भागों में बहलता के साथ पायी जाने वाली कायस्थों की उपजाति श्रीवास्तव का निवास मूलतः श्रावस्ती नगरी से हुआ बताया जाता है। इनके एक नेता, चन्द्रसेनीय श्रीवास्तव त्रिलोकचन्द्र ने ९१८ई० में सरयू नदी को पार करके अयोध्या में अपना राज्य स्थापित किया, जिसका अन्त १२९४ ई० में मुहम्मद गोरी के भाई मखदूम शाह जूरन गोरी ने अयोध्या पर आक्रमण करके किया था। उसी ने वहां आदिदेव ऋषभ के जन्मस्थान के प्राचीन मंदिर को ध्वस्त करके उस स्थान पर एक मस्जिद बनवाई थी। वह स्थान आज भी
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'शाहजरन का टीला' कहलाता है, और भग्न मस्जिद के पीछे की ओर ऋषम जन्मस्थान की सूचक टौंक विद्यमान है। पी० कारनेगी (१८७० ई०) के अनुसार अयोध्या का यह सरयूपारी श्रीवास्तव राज्यवंश जैनधर्मानुयायी था और उन्हीं के द्वारा बनवाये हुए अनेक प्राचीन देहुरे (जिनायतन) अभी भी विद्यमान है। इनमें से जो बच रहे उनका जैनों द्वारा जीर्णोद्धार हो चुका है। अवध गजेटियर (१८७७ ई०) से भी उक्त श्रीवास्तव राजाओं के जैन रहा होने की पुष्टि होती है, और ला० सीताराम कृत 'अयोध्या के इतिहास' में भी लिखा है कि 'अयोध्या के श्रीवास्तव अन्य कायस्थों के संसर्ग से बचे रहे तो मद्य नहीं पीते और बहुत कम मांसाहारी हैं। इसी से अनुमान किया जा सकता है कि ये लोग पहले जैन ही थे।'
उसी काल में अवध के रायबरेली, सुल्तानपुर, उन्नाव आदि कुछ जिलों में अनेक स्थानों पर छोटे-छोटे भर राज्य स्थापित थे। ये भर लोग वीर, स्वतन्त्रता के उपासक और ब्राह्मण विद्वेषी थे। राजपूत भी उनसे घणा करते थे, और अन्ततः राजपूतों एवं मुसलमानों ने मिलकर १४वीं शती में उन्हें समाप्त कर दिया। उक्त जिलों में भरों के समय की अनेक जिन मूत्तियाँ मिली हैं । कारनेगी, कनिंघम आदि सर्वेक्षकों का मत है कि भर लोग जैनधर्मानुयायी थे। प्रायः यही बात हापुड़-बरन-कोल के धोर राजपूतों के विषय में है।
इस प्रकार पूर्व-मध्यकाल (लगभग ८००-१२०० ई०) में उत्तर प्रदेश के प्रायः सभी भागों में अल्पाधिक संख्या में जैनों का निवास था, उनके साधु-सन्त निर्द्वन्द्व विचरते थे, और प्रदेश में स्थित उनके प्रमुख तीर्थक्षेत्रों के अतिरिक्त अन्य अनेक नगरों, कस्बों और ग्रामों में उनके देवालय विद्यमान थे। प्रदेश के कई जैन अतिशय क्षेत्र एवं कलाधाम तो संभवतया इसी युग में उदय में आये । साहित्य सृजन भी हुआ। उस पूरे काल में इस प्रदेश में जैनधर्म को शायद कभी भी सुनिश्चित या उल्लेखनीय राज्याश्रय प्राप्त नहीं रहा-किसी भी बड़े राज्यवंश का कुलधर्म, या किसी भी राज्य का राज्यधर्म वह नहीं रहा लगता तथापि उस युग में पौराणिक ब्राह्मण धर्म के पश्चात प्रदेश का दूसरा प्रधान धर्म जैनधर्म ही था। प्राचीन भारत के तीसरे प्रधान धर्म, बौद्धधर्म का, प्रदेश के बहुभाग पर उस युग में प्रायः कोई प्रभाव दृष्टिगोचर नहीं होता। वैश्यवर्ण का तो बहुभाग जैनधर्म का अनुयायी था और ब्राह्मण, राजपूत, भर, कायस्थ आदि वर्णों एवं जातियों में भी उसके अनुयायी पाये जाते थे। कालान्तर में (१५वीं-१६वीं शताब्दियों में) दक्षिणाचार्यों के प्रयत्नों से प्रदेश में वैष्णव धर्म की राम एवं कृष्ण भक्ति शाखाओं के प्रचार-प्रसार के परिणाम स्वरूप जैनपैश्यों का बहभाग शनैः-शनैः गैष्णवधर्म में दीक्षित होता गया, क्योंकि इन सम्प्रदायों का आचार-विचार जैन अचार-विचार से निकटतम था।
वस्तुतः, प्रदेश में जैन जनता की संख्या एवं स्थिति जैसी उक्त पूर्वमध्यकाल में रही, उसके पूर्ववर्ती गुप्त एवं गुप्तोत्तर कालों में उससे विशेष भिन्न नहीं थी। यदि उक्त कालों से सम्बन्धित पुरातात्त्विक आदि प्रमाण अति विरल हैं, तो कोई ऐसा संकेत भी नहीं है कि प्रदेश में कहीं भी और कभी भी जैनों पर कोई भीषण अत्याचार हुआ हो, उनका सामूहिक संहार हुआ हो, अथवा प्रदेश से बड़ी संख्या में उनका निष्कासन हुआ हो।
जहाँ तक जैनधर्म के आन्तरिक विकास और स्वरूप का सम्बन्ध है, दिगम्बर-श्वेताम्बर संघभेद होने के समय (प्रथमशती ई० का अन्त) से लेकर मध्ययुग के प्रारम्भ (लगभग १२०० ई०) पर्यन्त उत्तर प्रदेश में दिगम्बर सम्प्रदाय का बाहुल्य रहा-यही स्थिति उसके उपरान्त भी प्रायः वर्तमान काल तक चली आ रही है। किन्तु उस पूर्णकाल की यह विशेषता थी कि सम्प्रदायभेद साधुओं तक ही सीमित था, जनता में दिगम्बर-श्वेताम्बर जैसा कोई भेद प्रायः नहीं था। प्रदेश में दोनों ही आम्नायों के तीर्थस्थान, मन्दिर, अन्य धार्मिक स्मारक तथा देवमूत्तियाँ अभिन्न यीं। उस काल की समस्त उपलब्ध अर्हत या तीर्थंकर मूत्तियाँ दिगम्बर हैं। जनता दोनों ही आम्नायों के साधु
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साध्वियों का समान रूप से आदर करती थी। नौंवी-दसवीं शती में ही सर्वप्रथम दिगम्बरों और श्वेताम्बरों के मंदिर पृथक-पृथक बनना प्रारम्भ हुए, और प्रतिमाओं में भिन्नता तो और भी बहुत बाद में आई। दूसरे, यद्यपि तत्कालीन तान्त्रिक मतों एवं वाममार्गों के प्रभावों से जैनधर्म ने स्वयं को सावधानीपूर्वक बचाये रक्खा, उसमें यक्ष-यक्षियों (शासनदेवियों), क्षेत्रपाल आदि की पूजा और उनके आश्रय से मन्त्र-तन्त्रों का प्रचार, अहिंसा एवं सदाचार की सीमा में रहते हुए, बढ़ा । तत्कालीन नाथपंथ के प्रभाव में कतिपय जैनसाधुओं ने आदिनाथी, नेमिनाथी, पारसनाथी जैसे योग प्रधान पंथ भी चलाये जो जोगी पन्थों में अन्तर्भूत हो गये लगते हैं। जोइन्दु, रामसिंह, देनसेन प्रभृति कई
ने अपने सरल अपभ्रंश दोहों के माध्यम से जैन धर्म का वह आध्यात्मिक रूप प्रस्तुत किया जो प्रारंभिक
रख, कबीर, नानक, दाद आदि निर्गण धारा के रहस्यवाद का आधार बना लगता है। तीसरे, पूर्णमध्यकाल का जैनधर्म तत्कालीन पौराणिक ब्राह्मणधर्म, विशेषकर भागवत तथा उससे उद्भूत नैष्णव धर्म से भी पर्याप्त प्रभावित हुआ । विशेषकर गृहस्थ के षोडश संस्कारों, पूजा-अनुष्ठान आदि के आडम्बर और वर्ण एवं जाति प्रथा के क्षेत्रों में जैनधर्म की मौलिक जातिभेद विरोधी नीति के विपरीत जैनसमाज में भी जातिवाद आने लगा और जातियाँ रूढ़ होने लगी। मध्ययुग
मध्ययग के प्रारंभ में ऊपरी दृष्टि से देखने वाले किसी विदेशी को एक स्थान में साथ-साथ रहने वाले, बहधा एक जातीय, समान भाषा, नामादि, वेशभूषा, खान-पान, रहन-सहन एवं रीति-रिवाजों वाले जैनों और वैष्णवादि हिन्दुओं के मध्य कोई भेद न दिखाई पड़ना या न किया जाना स्वाभाविक था। बहुधा एक ही परिवार के विभिन्न स्त्री-पुरुष सदस्य जैन, वैष्णव, शैव, नाथपंथी आदि होते थे। उनके विभिन्न धार्मिक विश्वासों का उनके पारिवारिक सम्बन्धों एवं पारिवारिक एकसूत्रता पर भी प्राय: विशेष प्रभाव नहीं पड़ता था। यहां तक होने लगा कि एक जैन अपने सजातीय वैष्णव के साथ तो रोटी-बेटी व्यवहार निस्संकोच कर लेता था, किन्तु भिन्न-जातीय जैन के साथ वैसा करने में झिझकता था-यथा एक अग्रवाल जैन स्वयं को खंडेलवाल जैनों की अपेक्षा अग्रवाल वैष्णवों के अधिक निकट समझता था-कम से कम जातीय एवं सामाजिक दृष्टि से । यही बात अन्य जैन जातियों के विषय में थी। मध्यकाल में विदेशी शासन से उत्पन्न विषम परिस्थितियों के कारण परदा प्रथा, बाल विवाह, अनमेल विवाह, विधवा विवाह पर प्रतिबन्ध, सतीप्रथा, जातिप्रथा की रूढ़ता, आदि उदय में आईं और उत्तरोत्तर बढ़ती गयीं। साथ ही गृहस्थों के धर्म-कर्म पर साधुओं, यातियों, भट्टारकों, श्रीपूज्यों आदि महंतशाही धर्मगुरुओं और ब्राह्मण पुरोहितों का प्रभाव एवं नियन्त्रण भी उत्तरोत्तर बढ़ता गया । संख्या, शक्ति और प्रभाव में भी हानि होती गयी। जातीय एवं धार्मिक जीवन के ह्रास का ही वह युग था।
१२वीं शती के अन्त से लेकर १८वीं शती के अन्त पर्यन्त, लगभग ६०० वर्ष के इस मध्यकाल की सबसे बड़ी ऐतिहासिक विशेषता इस देश में मध्य एशियाई मुसलमानों के आक्रमण और स्वदेशी राजसत्ताओं को धीरे-धीरे समाप्त करके अथवा पराधीनता की बेड़ियों में जकड़ कर अपने राज्यों की स्थापना है। भारतीय राजनीति, अर्थ व्यवस्था, सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन में एक नवीन, अपरिचित, प्रबल एवं विरोधी या प्रतिकूल तत्व का प्रवेश हआ, जिसने विविध प्रकार की उथल-पुथल, क्रान्तियों और आन्दोलनों को जन्म दिया, और देश का स्वरूप बहुत कुछ बदल डाला।
उत्तर प्रदेश की जनता को मुसलमानों का प्रथम साक्षात् परिचय ११वीं शती ई० के प्रथम पाद में मंदिरमूर्ति-भंजक महमूद ग़ज़नवी के लुटेरे आक्रमणों के माध्यम से हुआ था। महमूद ने १०१८ई० में बरन (बुलन्दशहर) के राजा के हरदत्त पर आक्रमण करके उसे पराधीन किया, महावन और मथुरा को लूटा, वहाँ स्थित विशाल एवं कलापूर्ण
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देवमन्दिरों को जलाकर भस्म कर डाला, तदनन्तर कन्नौज को लूटा और फिर चन्देलों के राज्य पर आक्रमण किये । न जाने कैसे महमूद की विध्वंसलीला से मथुरा के कंकाली एवं चौरासी पर स्थित जैन मन्दिर और मूत्तियाँ बच गई। या तो ये स्थान उसके मार्ग से हटकर पड़ते थे, अथवा इतने जीर्ण-शीर्ण एवं धन सम्पत्ति विहीन थे कि उनकी ओर लुटेरों का ध्यान ही नहीं गया । महमूद के उत्तराधिकारी के सिपहसालार मसऊद ने भी १०३३ ई० में प्रायः समस्त उत्तर प्रदेश को रौंद डाला था, ऐसी किंवदन्तियां हैं, और यह भी कि अन्ततः बहराइच के युद्ध में आवस्ती के जैन नरेश सुहिलदेव ने उसे पराजित करके ससैन्य मार डाला था। उसके बाद भी दो एक बार गजनी के सुल्तानों के सेनानियों ने इस प्रदेश पर लुटेरे आक्रमण किये । धन, जन, मंदिरों और मूर्तियों की बहुत कुछ क्षति होने पर भी इन आक्रमणों का प्रदेश पर विशेष या स्थायी कोई प्रभाव नहीं हुआ ।
१२वीं शती के अंतिम दशक में गज़नी के ही सुलतान मुहम्मद गोरी ने भारी सेना लेकर प्रदेश पर आक्रमण किये, तलावड़ी के युद्ध (११९२ ई०) में दिल्लीश्वर पृथ्वीराज और उसके राज्य को समाप्त किया, तदनन्तर चन्द्रवाद के युद्ध में कन्नौज नरेश जयचन्द और उसके राज्य का अन्त किया। दो-तीन वर्ष के भीतर ही गोरी और उसके गुलाम एवं सेनापति कुतुबुद्दीन ऐबक ने मेरठ से वाराणसी पर्यन्त प्रायः पूरे उत्तर प्रदेश पर अपना फौजी शासन स्थापित कर दिया। आगे के लगभग ३०० वर्ष पर्यन्त क्रमशः गुलाम, खिलजी, तुगलक, सैयद और लोदी वंशों के मुसल्मान सुल्तानों ने दिल्ली को अपनी राजधानी बनाकर प्रायः पूरे उत्तर प्रदेश पर शासन किया। वस्तुतः गंगायमुना के दोआबे का यह धन-जनपूर्ण प्रदेश ही दिल्ली के सुलतानों की शक्ति एवं समृद्धि का प्रधान स्रोत था, और इसे ही वे हिन्दुस्तान कहते थे। प्रदेश की देशी राज्य सत्ताएँ, दो-एक छोटे-मोटे अपवादों को छोड़कर सब शनैः शनैः समाप्त कर दी गई। जिन राजधानियों, नगरों, दुर्गों आदि पर सुलतानों ने अधिकार किया उन्हें तो जी भर के लूटा और ध्वस्त किया। मंदिरों और मूर्तियों को तोड़ना, मंदिरों को मस्जिदों में पंडितों और धर्मात्माओं को काफिर कह कर उनका अपमान करना, तास देना, हत्या काल के 'मुसलमान शासक और इनके साधर्मी अनुचर सबाब का काम समझते थे । उनके प्रदेशों में स्वभावतः भारतीय धर्मों और उनके अनुयायियों की शोचनीय स्थिति थी । प्रत्येक व्यक्ति, वर्ग या समुदाय के लिए अपने जान, माल, इज्जत, धर्म और संस्कृति की रक्षा की समस्या सतत् और सर्वोपरि थी। और यदि वे हिन्दू, जैन आदि तथा उनका धर्म और संस्कृति जैसे-तैसे बचे रहे तो इसीलिए कि उन्हें सर्वथा समाप्त कर देना
अथवा मुसलमान बना डालना उन शासकों के लिए भी अशक्यानुष्ठान था । वैसा करना उनके राजनीतिक, प्रशासनिक और आर्थिक हितों में भी नहीं था। इसके अतिरिक्त बाहरी दबाव एवं अरक्षाभय की प्रतिक्रिया भीतरी संगठन एवं आत्मरक्षा की प्रवृत्ति को बल देती है । इन्हीं कारणों से उस काल में प्रदेश में जैनीजन, उनका धर्म और संस्कृति जीवित रह सके। संख्या अवश्य घटती गई और व्यापारप्रधान वैश्य वर्ग में सीमित होती गई। उत्तरमध्यकाल में प्रदेश के अनेक जैन समजातीय एवं प्रायः समान आचार-विचार वाले वैष्णवों में परिवर्तित हुए ।
दिल्ली के सुलतानों में कोई-कोई अपेक्षाकृत उदार और विभिन्न धर्मो के विद्वानों का आदर करने वाले भी हुए अलाउद्दीन खिलजी (१२९६ १३१६ ई०) के शासनकाल में दिल्ली का नगर सेठ पूर्णचन्द्र नामक अग्रवाल जैन था। बादशाह के संकेत पर उसने दक्षिणापथ से दिगम्बराचार्य माधवसेन से दिल्ली पधारने की प्रार्थना की। आचार्य आये और उन्होंने दिल्ली में काष्ठासंघ का पट्ट स्थापित किया, जो गत शताब्दी के अन्त तक चलता रहा। उत्तर प्रदेश के अग्रवाल जैनों में मुख्यतया इसी पट्ट के भट्टारकों की आम्नाय चलती रही। कुछ ही वर्षों बाद आचार्य प्रभाचन्द्र ने दिल्ली में नन्दिसंघ का पट्ट स्थापित किया, सेनसंघ की भी गद्दी स्थापित हुई और श्वेताम्बर पट्ट भी स्थापित हुआ। सुलतान मुहम्मद तुगलक ने दिगम्बराचार्य प्रभाचन्द्र का और श्वेताम्बराचार्य जिनप्रभसूरि
परिवर्तित करना, साधु-संतों,
करने में भी न चूकना उस
द्वारा अधिकृत एवं शासित
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का सम्मान किया बताया जाता है। इन आचार्यों ने, विशेषकर जिन प्रभसूरि ने सुलतान से फरमान प्राप्त करके संघसहित उत्तर प्रदेश के मथुरा, हस्तिनापुर आदि जैन तीर्थों की यात्रा की थी। उस काल की फारसी तवारीखों में जैनों का उल्लेख सयूरगान (सरावगान-श्रावक का अपभ्रन्श) नाम से हुआ है। फिरोज तुगलुक ने भी इन सयूरगान के पंडितों से अशोकस्तंभ-लेखों को पढ़ने में सहायता ली थी। इन स्तंभों में से एक तो वह सुलतान मेरठ से ही उठवाकर दिल्ली ले गया था।
१४२४ ई० में संघपति साहु होलिचन्द्र नामक धनवान, दानशील एवं धर्मात्मा श्रावक ने देवगढ़ आदि में अनेक जिनमन्दिरों का निर्माण कराया था और धर्मोत्सव किये थे। नन्दिसंघ के आचार्य प्रभाचन्द्र के प्रशिष्य
और आचार्य पद्मनन्दि के शिष्य भट्टारक शुभचन्द्र उसके गुरु थे । उनकी प्रेरणा से उसने उक्त वर्ष देवगढ़ में मुनि वसन्तकीति और मुनि पद्मनन्दि की तथा कई तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित कराई थीं। उसके द्वारा किये गये धर्मोत्सवों में उसके स्वयं के पुत्र-पौत्रों आदि का तथा अन्य अनेक श्रावक श्रेष्ठियों का भी सहयोग रहा। देवगढ़ में १४३६ ई० में भी एक जिन मन्दिर-मूर्ति प्रतिष्ठा हुई थी।
आगरा के पूर्व-दक्षिण और ग्वालियर के उतर में, यमुना और चम्बल के मध्यवर्ती प्रदेश में असाईखेड़ा (जिला इटावा) के भरों का राज्य पूर्वकाल में था। असाईखेड़ा के भर जैन धर्मानुयायी थे, जैसा कि वहां से प्राप्त ९वी-१०वीं शती की जैन मूर्तियों एवं मन्दिरों के भग्नावशेषों से विदित होता है। उन भरों के उपरान्त चन्द्रपाल चौहान ने चन्द्रवाड़ (फिरोजाबाद) में अपना राज्य जमाया था। उसका तथा उसके निकट उत्तराधिकारियों और उनके जैन मंत्रियों का उल्लेख पीछे किया जा चुका है। चन्द्रपाल के इस चौहान राज्य में रायबद्दिय, रपरी, हथिकन्त, शौरिपुर, आगरा आदि अन्य प्रसिद्ध नगर या दुर्ग थे। कालान्तर (१५वीं-१६वीं शती) में अटेर, हथिकन्त और शौरिपुर (ये सब स्थान आगरा जिले में हैं) में नन्दिसंघ के दिगम्बर जैन भट्टारकों की गद्दियां भी स्थापित हो गई। चन्द्रवाड़ के चौहान नरेश बल्लाल के उत्तराधिकारी आहवमल्ल (लगभग १२५७) के समय में उसके पिता के मन्त्री सोडू साहु का ज्येष्ठ पुत्र रत्नपाल (रल्हण) राज्य का नगरसेठ था और कनिष्ठ पुत्र कृष्णादित्य (कण्ह) प्रधान मन्त्री एवं सेनापति था। दिल्ली के गुलामवंशी सुलतानों के विरुद्ध इस जैन वीर ने कई सफल युद्ध किये थे। उसने राज्य में अनेक जिनमन्दिरों का भी निर्माण कराया था और १२५६ ई० में त्रिभुवनगिरि (बयाना जिला) निवासी जैसवाल जैन कवि लक्ष्मण (लाखू) से अपभ्रंश भाषा में 'अणुव्रतरत्नप्रदीप' नामक धर्मग्रंथ की रचना कराई थी। कवि ने इस धर्मप्राण वीर राजमंत्री के सद्गुणों की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। कृष्णादित्य का भतीजा शिवदेव भी श्रेष्ठ विद्वान एवं कलामर्मज्ञ था और अपने पिता रत्नपाल के पश्चात् राज्य का नगरसेठ नियुक्त हुआ था। कई पीढ़ी पर्यन्त राज्यमान्य बना रहने वाला सम्पन्न एवं धर्मधुरन्धर सेठों और कुशल राज मंत्रियों का यह परिवार चन्द्रवाड़ के चौहान राज्य का प्रमुख स्तम्भ था। इस समय तक सम्भवतया रायवद्दिय मुख्य राजधानी रही और चन्द्रवाड़ उपराजधानी, तदनन्तर चन्द्रवाड़ ही मुख्य राजधानी हो गई। कहा जाता है कि चन्द्रवाड़ में ५१ जिनप्रतिष्ठाएं हुई थीं। राजा संभरिराय का मंत्री यदुवंशी-जैसवाल जैन साहु जसधर या जसरथ (दशरथ) था और राजा सारंगदेव का मंत्री दशरथ का पुत्र गोकर्ण था जिसने 'सूपकारसार' नामक पाकशास्त्र की रचना की थी। गोकर्ण का पुत्र सोमदेव राजा अभयचन्द (अभयपाल द्वितीय) तौर उसके उत्तराधिकारी जयचन्द का प्रधान मंत्री था । इसी काल में (१३७१या १३८१ ई० में) चन्द्रपाठदुर्ग निवासी महाराजपुत्र रावत गओ के पौत्र और रावत होतमी के पुत्र चुन्नीददेव ने अपनी पत्नी भट्टो तथा पुन साधुसिंह सहित काष्ठासंधी भट्टारक अनन्तकीर्तिदेव से एक जिनालय की प्रतिष्ठा कराई थी। राजा जयचन्द का उत्तराधिकारी राजा रामचन्द्र था जिसके प्रधान मन्त्री सोमदेव के पुत्र साहु बासाधर थे। उनके छह अन्य भाई तथा जसपाल, रत्नपाल, पुण्यपाल,
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चन्द्रपाल आदि आठ पुत्र भी सुयोग्य, धर्मात्मा एवं राज्य की सेवा में तत्पर थे। वासाधार की भार्या उदयश्री पतिव्रता, सुशील और चतुर्विध संघ के लिए कल्पद्रुम थी। स्वयं मन्त्रीश्वर वासाधर परम जिनभक्त, देवपूजादि षटकर्मों में रत, अष्टमूलगुणों के पालन में तत्पर, विशुद्ध चित्तवाले, परोपकारी, दयालु, उदारदानी, बहुलोक मित्र, राजनीति पटु एवं स्वामीभक्त थे। चन्द्रवाड़ में उन्होंने एक विशाल एवं कलापूर्ण जिनमन्दिर बनवाया था तथा अनेक पुराने मन्दिरों का जीर्णोद्धार कराया था। उन्होंने १३९७ ई० में गुजरात निवासी कवि धनपाल से अपभ्रंश भाषा में बाहुबलिचरित्न नामक काव्य की रचना कराई थी। यह कवि भट्टारक प्रभाचन्द्र के भक्त-शिष्य थे और उन्हीं के साथ तीर्थयात्रा करते हुए चन्द्रवाड़ आ पहुँचे थे। वासाधर ने उक्त प्रभाचन्द्र के पट्टधर दिल्ली-पट्टाचार्य भट्टारक पद्मनन्दि से संस्कृत भाषा में 'श्रावकाचारसारोद्धार' नामक ग्रंथ की रचना कराई थी। इस ग्रन्थ में वासाधर को लम्बकंचुक (लमेचु) वंशी लिखा है-सम्भव है कि जैसवालों की ही एक शाखा लमेचु नाम से प्रसिद्ध हई हो। इसी काल में चन्द्रवाड़ के पद्मावतपुरवाल जातीय धनकुबेर सेठ कुन्थुदास हुए, जिन्होंने राजा रामचन्द्र और उनके पुत्र रुद्रप्रताप के समय में अपनी अपार सम्पत्ति से राज्य की आड़े वक्त में प्रशंसनीय सहायता की थी। उन्होंने चन्द्रवाड़ में एक भव्य जिनालय बनवाकर उसमें हीरा, पन्ना, माणिक्य, स्फटिक आदि की अनेकों बहमूल्य प्रतिमाएं प्रतिष्ठित कराई थीं तथा अपभ्रंश भाषा के ग्वालियर निवासी महाकवि र ईन्धु से 'पुण्यास्रवकथा' एवं 'वेसठ-महापुरुष-गुणालंकार' नामक महत्त्वपूर्ण ग्रंथों की रचना कराई थी। राजा रुद्रप्रताप द्वारा सम्मानित चन्द्रवाड़ के एक अन्य जैन सेठ साह तोसउ के पुत्र साह नेमिदास थे जिन्होंने धातु, स्फटिक, मुंगे आदि की अनेक प्रतिमाएं बनवाकर प्रतिष्ठित कराई थीं।
इटावा जिले के करहल नामक स्थान में चौहान सामन्त राजा भोजराज का राज्य था। उसके मन्त्री यदुवंशी अमरसिंह जैनधर्म संपालक थे। उन्होंने १४१४ ई० में वहां रत्नमयी जिनबिंब निर्माण कराके महत प्रतिष्ठोत्सव किया धा । उनके चार भाई, पत्नी कमलश्री और नन्दन, सोणिग एवं लोणासाहु नाम के तीनों पुत्र भी उदार, धर्मात्मा और विद्यारसिक थे। विशेषकर साह लोणा मल्लिनाथचरित्र के रचयिता कवि जयमित्र हल्ल और 'पार्श्वनाथचरित्र' के कर्ता कवि असवाल के प्रशंसक एवं प्रश्रयदाता थे । उन्होंने १४२२ ई० में, भोजराज के पुत्र राजा संसारचंद (पृथ्वीसिंह) के शासनकाल में, अपने भाई सोणिग के लिए उक्त कवि असवाल से 'पार्श्वनाथ चरित्र' की रचना कराई थी।
१४वीं शती के अन्त और १५वीं के प्रारम्म में, लगभग दो दशक पर्यन्त दिल्ली में फिरोज तुगलक के अयोग्य वंशजों का शासन था, जिसे तैमूरलंग के लुटेरे आक्रमण (१३९८ ई०) ने ध्वस्त प्रायः कर दिया। उसने उत्तर प्रदेश के मेरठ आदि पश्चिमी जिलों को भी रौंद डाला था। तदनन्तर दिल्ली में लगभग : सैयद सुलतानों का और तत्पश्चात् पौन शती पर्यन्त लोदी सुलतानों का शासन रहा। इस काल में प्रायः सभी प्रांतों में स्वतन्त्र सुलतानी शासन स्थापित हो गये थे । उत्तर प्रदेश के पूर्वी भाग में भी जौनपुर के शर्की सुलतानों का शासन था। इस काल से ही जौनपुर में जैन जौहरियों व व्यापारियों की अच्छी बस्ती थी। सुलतान महमूदशाह शर्की ने तो १४५० ई. के लगभग कर्णाटक के जैनाचार्य सिंहकीति को अपने दर्बार में सम्मानित भी किया प्रतीत होता है । दिल्ली के सुलतानों का शासन क्षेत्र बहुत संकुचित हो गया था, किन्तु बहुभाग उत्तर प्रदेश पर फिर भी उनका अधिकार बना रहा । इन सुलतानों में स्यात् सिकन्दर लोदी (१४८९-१५१७ ई०) सर्वाधिक शक्तिशाली था । उसने वर्तमान आगरा नगर बसाकर वहां दुर्ग बनवाया और उसे अपनी उपराजधानी बनाया। इसमें उसका मुख्य उद्देश्य आगरा के आसपास फैले चन्द्रवाड़, असाईखेड़ा, करहल आदि के चौहानों और अटेर, हथिकंत आदि के भदौरिया राजाओं को नियन्त्रण में रखना तथा दोआब की आय को सुरक्षित रखना था। सिकन्दर लोदी के राज्य
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में अपेक्षाकृत अत्यधिक सुकाल था, चीजें सस्ती थीं और प्रजा में सुख-शान्ति थी, किन्तु वह अपने धर्म का कट्टर पक्षपाती और हिन्दू, जैन आदि के प्रति असहिष्णु भी था। मथुरा आदि के मन्दिरों को तोड़कर उसने उनके स्थान में मसजिदें भी बनवाई थीं।
विचिन्न संयोग है कि उसी युग में, १४९०-१४९२ ई० में एक राजस्थानी जैन धनकुबेर शाह जीवराज पापड़ीवाल ने दिल्लीपट्टाधीश भट्टारक शुभचन्द्र के उत्तराधिकारी आचार्य जिनचन्द्र से अनगिनत जिन-प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित कराई थीं और छकड़ों में उक्त प्रतिमाओं को भरकर वह सेठ तथा उसके गुरु एक विशाल संघ के साथ समस्त जैनतीर्थों की यात्रा को निकले थे। मार्ग में पड़ने वाले प्रत्येक जिनमन्दिर में वे यथावश्यक प्रतिमाएँ पधराते गये थे। जहां कोई मन्दिर नहीं था वहां नवीन चैत्यालय स्थापित करते गये । आज भी उत्तर प्रदेश के प्रायः प्रत्येक दिगम्बर जैन मन्दिर में एक या अधिक श्वेत संगमर्मर की प्रतिमाएं वि० सं० १५४८ (१४९१ ई०) में शाहजीवराज पापड़ीवाल के लिए उक्त भट्टारक जिनचन्द्र द्वारा प्रतिष्ठत पाई जाती हैं। प्रायः उसी युग में, दूसरी ओर कई जैन सन्तों ने सूधारक आन्दोलन उठाये, जिनमें मध्य प्रदेश के तारणस्वामी का तारणपंथ, गुजरात में कड़वाशाह का श्रावकपंथ और लौंकाशाह का लौकागच्छ, जो कालान्तर में स्थानकवासी सम्प्रदाय के नाम से प्रसिद्ध हआ, प्रमुख थे। ये नवीन जैन पंथ अधिकांशतः साधुमार्गी थे और मूर्तिपूजा एवं मन्दिरों का विरोध करते थे। उत्तर प्रदेश में इन पंथों का जो कुछ थोड़ा सा प्रभाव हुआ, वह तत्काल नहीं, बहुत पीछे हुआ।
प्रायः इसी काल में हथिकन्त (हस्तिकांत)-शौरिपुर में नन्दिसंघ के दिगम्बर भट्टारकों की गद्दी स्थापित हुई । उक्त दोनों स्थान आगरा जिले में हैं और उन दोनों में ही उक्त पट्ट के पीठ थे । इस पट्ट में क्रमशः ललित कीर्ति, धर्मकीति (१५५४ ई०), शील भूषण, ज्ञानभूषण (१६३० ई.), जगतभूषण, विश्वभूषण (१६६५ ई०), देवेन्द्रभूषण (१६७७ ई०), सुरेन्द्र भूषण (१७०३-३४ई०), जिनेन्द्र भूषण (१७७१ ई०), महेन्द्र भूषण (१८१८ ई०), राजेन्द्र भूषण (१८६३ ई०), और हरेन्द्र भूषण (१८८८ ई०) नाम के भट्टारक १६वीं शती के प्रारम्भ से १९वीं के अन्त पर्यन्त हुए । इन भट्टारकों ने शौरिपुर आदि तीर्थों का संरक्षण एवं प्रभावना तो की ही, अपने पीठ को एक उत्तम सांस्कृतिक एवं ज्ञान केन्द्र बनाये रक्खा और स्वयं तथा अपने अनेक त्यागी एवं गृहस्थ शिष्यों से पर्याप्त साहित्य की रचना भी कराई। प्रायः पूरी आगरा कमिश्नरी (वर्तमान) के जैन जन उनके सीधे प्रभावक्षेत्र में थे, उत्तर प्रदेश के शेष भाग में दिल्ली के विभिन्न पदों से सम्बन्धित भट्रारकों और यतियों की आमनायें चलती थीं।
पूर्व मुगलकाल या मध्ययुग के पूर्वार्ध के मुनियों, भट्टारकों, यतियों, ब्रह्मचारियों आदि जैन साध-सन्तों ने प्राकृत और संस्कृत जैसी प्रतिष्ठित भाषाओं को छोड़कर अपभ्रंश तथा उससे बिकसित हई देशभाषा हिन्दी को अपने उपदेशों एवं रचनाओं का माध्यम बनाया और इस प्रकार न केवल हिन्दी के प्रारम्भिक विकास को प्रोत्साहन दिया वरन आने वाली शताब्दियों के गहस्थ जैन कवियों एवं साहित्यकारों का मार्ग भी प्रशस्त किया। उन्होंने अपनी धर्मसंस्था में समयानुकूल परिवर्तन भी किये, साम्प्रदायिक नैमनस्य (हिन्दू-मुस्लिम आदि) को कम करने में योग दिया, अपने प्रभाव से जनता एवं कभी-कभी शासकों को प्रभावित करके अपने धर्म और संस्कृति की सुरक्षा की, जनता में स्फूर्ति, धर्मभाव एवं नैतिकता को सजग बनाये रखने में योग दिया। तथापि आतताइयों की कुदष्टि से अपनी बहूबेटियों की रक्षा करने के लिए परदा, बाल विवाह, अनमेल विवाह, सती, छूतछात, जातिपाँति की कठोरता आदि कुप्रथाएँ भी सामान्य हिन्दुओं की भाँति जैन समाज में भी घर करती गईं।
१५२६ ई० में पानीपत के युद्ध में इब्राहीम लोदी को हराकर मुगल बादशाह बाबर ने आगरा और दिल्ली पर अधिकार किया और मुगल राज्य की नींव डाली। किन्तु इतिहास प्रसिद्ध मुगल साम्राज्य का वास्तविक
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संस्थापक, निर्माता और उसका सर्वमहान, प्रतापी एवं शक्तिशाली नरेश अकबर महान ( १५५६ - १६०५ ई० ) था । न्यायप्रिय, उदारनीति, धार्मिक सहिष्णुता, गुणग्राहकता, वीरों, विद्वानों एवं कलाकारों का समादर आदि गुणों के लिए यह सम्राट प्रसिद्ध है। उसने हिन्दू और जैन तीर्थों पर पूर्णवर्ती सुलतानों द्वारा लगाये गये करों और जजिया कर को समाप्त कर दिया । हिन्दुओं की भाँति अनेक जैन भी राजकीय पदों पर नियुक्त हुए और राज्य मान्य हुए।
कट्टर मुल्ला-मौलवियों के प्रभाव से शासन को मुक्त करने के लिए १५७९ ई० में सम्राट ने धर्माध्यक्ष का पद भी स्वयं ग्रहण कर लिया । उसी वर्ष राजधानी आगरा के जैनों ने वहां एक दिगम्बर जैन मन्दिर का निर्माण करके बड़े समारोह के साथ बिम्बप्रतिष्ठा महोत्सव किया ।
अकबर के राज्यकाल में इस प्रदेश में लगभग दो दर्जन जैन साहित्यकारों एवं कवियों ने साहित्य सृजन किया, कई प्रभावक जैन सन्त हुए, यत्र-तत्र जिन मन्दिरों का निर्माण हुआ, जैन तीर्थयात्रा संघ चले, और जैन जनता ने कई शतियों के पश्चात पुनः धार्मिक संतोष एवं शान्ति की सांस ली। स्वयं सम्राट ने प्रयत्न पूर्वक तत्कालीन जैन गुरुओं से सम्पर्क किया और उनके उपदेशों का लाभ उठाया ।
उसके आमन्त्रण पर आचार्य हीरविजयसूरि १५८२ ई० में गुजरात से चलकर आगरा पधारे । सम्राट ने धूमधाम के साथ उनका स्वागत किया और उनकी विद्वत्ता एवं उपदेशों से प्रभावित होकर उन्हें 'जगद्गुरु' की उपाधि दी । विजयसेनगणि ने अकबरी दर्बार में 'ईश्वर कर्त्ता हर्त्ता नहीं है' विषय पर भट्टनामक ब्राह्मण पंडित को शास्त्रार्थ में पराजित करके बादशाह से 'सवाई' उपाधि प्राप्त की । यति भानुचन्द्र सूर्य-सहस्रनाम की रचना करके 'पातशाह अकबर जलालुद्दीन सूर्य-सहस्रनामाध्यापक' कहलाए और अपने फारसी भाषा के ज्ञान के लिए सम्राट से 'खुशफहम' उपाधि प्राप्त की । उनके निवेदन पर बादशाह ने अपने नीरोग होने की खुशी में की जाने वाली कुर्बानी को बन्द करवा दिया था । इसी प्रकार मुनि शान्तिचन्द्र के उपदेश से सम्राट ने ईदुज्जुहा (बकरीद) पर होने वाली कुर्बानी बन्द करा दी थी। मुनिजी ने कुरान की आयतों तथा मुसलमानों के अन्य अनेक धर्मग्रंथों के आधार से शाही दर्बार में यह सिद्ध कर दिया था कि 'कुर्बानी का मांस और रक्त ख़ुदा को नहीं पहुंचता, वह रहीमुलरहमान इस हिंसा से प्रसन्न नहीं होता, बल्कि परहेजगारी से प्रसन्न होता है, रोटी और शाक खाने से ही रोजे कबूल होते हैं ।' बीकानेर के निर्वासित राज्यमंत्री कर्मचन्द बच्छावत की प्रेरणा से खम्भात के मुनि जिनचन्द्र सूरि को सम्राट ने आमन्त्रित किया। मुनि जी ने 'अकबर - प्रतिबोधरास' लिखा और 'युगप्रधान ' उपाधि प्राप्त की । उनके साथ उनके कई शिष्य साधु भी आये थे । मुनि पद्मसुन्दर ने बादशाह के लिए 'अकबर शाही श्रंगारदर्पण' की रचना की। कहा जाता है कि जब शाहजादे सलीम के घर मूलनक्षत्र में कन्या का जन्म हुआ तो ज्योतिषियों ने उसे बड़ा अनिष्टकर बताया । बादशाह ने अपने प्रमुख आमात्यों से परामर्श करके कर्मचन्द बच्छावत को जैनधर्मानुसार ग्रहशान्ति का उपाय करने का आदेश दिया । अस्तु, चैत्र शुक्ल पूर्णिमा के दिन स्वर्ण रजत कलशों से तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ की प्रतिमा का बड़े समारोहपूर्वक अभिषेक और शान्ति-विधान किया गया। अनुष्ठान की समाप्ति पर सम्राट अपने पुत्रों एवं दरबारियों सहित वहां आया, अभिषेक का गन्धोदक विनयपूर्वक मस्तक पर चढ़ाया, अन्तःपुर में बेगमों के लिए भी भिजवाया, और उक्त जिन मन्दिर को दस सहस्र मुद्राएँ भेंट कीं ।
सम्राट अकबर ने गुजरात आदि प्रान्तों के सूबेदारों को इस आशय के फरमान भी जारी किये कि मेरे राज्य में जैनों के तीर्थों, मन्दिरों और मूर्तियों को जो तनिक भी क्षति पहुंचायेगा वह भीषण दण्ड का भागी होगा । उसने जैन तीर्थों को राज्यकर से मुक्त किया, खम्भात की खाड़ी में मछलियों के शिकार पर प्रतिबन्ध लगाया, अष्टान्हा के जैन पर्व में अमारि घोषणा की, वर्ष में सब मिलाकर डेढ़-पौने दो सौ दिनों में सम्पूर्ण राज्य में पशुबध बन्द किया, गोरक्षा को प्रोत्साहन दिया ।
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उस काल के शिलालेखों, फरमानों आदि के अतिरिक्त तत्कालीन जैन साहित्यकारों ने भी सम्राट की भूरि-भूरि प्रशंसा की है-पाण्डे राजमल्ल (१५७५ ई.) ने लिखा है कि 'धर्म के प्रभाव से सम्राट अकबर ने जजियाकर बन्द करके यश का उपार्जन किया है, हिंसक वचन उसके मुख से भी नहीं निकलते थे, जीवहिंसा से वह सदा दूर रहता था, अपने धर्म राज्य में उसने द्यूतक्रीड़ा और मद्यपान का भी निषेध कर दिया था क्योंकि मद्यपान से मनुष्य की बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है और वह कुमार्ग में प्रवृत्ति करता है।' पाण्डे जिनदास ने भी 'जम्बूस्वामीचरित्र' (१५८५ ई०) में अकबर की सुनीति और सुराज्य की प्रशंसा की। कवि परिमल ने 'श्रीपालचरित्र' (१५९४ ई०) में सम्राट की प्रशंसा, उसके द्वारा गोरक्षा के लिए किये गये प्रयत्नों, आगरा नगर की सुन्दरता, वहां जैनविद्वानों के सत्समागम और उनकी नित्य होने वाली विद्वद्गोष्ठियों का वर्णन किया है । विद्याहर्षसूरि ने 'अंजनासुन्दरीरास' (१६०४ ई.) में जैन गुरुओं के प्रभाव से सम्राट द्वारा गाय, भैंस, बैल, बकरी आदि पशुओं के बध का निषेध, पुराने कैदियों की बन्दीगृह से मुक्ति, जैन संतों के प्रति आदर भाव, दान-पुण्य के कार्यों में उत्साह आदि का उल्लेख किया है। महाकवि बनारसीदास ने अपने आत्मचरित्र में लिखा है कि जब जौनपुर में अपनी किशोरावस्था में उन्होंने सम्राट अकबर की मृत्यु का समाचार सुना था तो वह मूछित होकर गिर पड़े थे तथा जनता में सर्वत्न नाहि त्राहि मच गई थी।
सम्राट के मित्र एवं अमात्य अबुलफजल ने अपनी सुप्रसिद्ध 'आईने-अकबरी' में भी जैनों और उनके धर्म का विवरण दिया है। इस ग्रन्थ के निर्माण में उसने जैन विद्वानों का भी सहयोग लिया था-बंगाल आदि की राज्यवंशावली उन्हीं की सहायता से संकलित की गयी बताई जाती है। हीरविजयसूरि आदि कई जैन गुरुओं का उल्लेख भी उस ग्रन्थ में हआ है। फतेहपुर सीकरी के महलों में अपने जैन गरुओं के बैठने विशिष्ट जैन कलापूर्ण पाषाणनिमित छतरी बनवाई थी जो 'ज्योतिषी की बैठक' कहलाती है। 'आईने-अकबरी' में सम्राट अकबर की कुछ उक्तियाँ भी संकलित हैं जो उसके जीवदया, शाकाहार, सामाजिक नैतिकता आदि विषयक मनोभावों की परिचायक हैं। पूर्तगाली जेसुइट पादरी पिन्हेरो ने १५९५ ई० में अपने बादशाह को आगरा से भेजे गये पत्र में लिखा था कि अकबर जैनधर्म का अनुयायी हो गया है, वह जैन नियमों का पालन करता है, जैन विधि से आत्मचिन्तन और आत्माराधन में बहुधा लीन रहता है, मद्य-मांस और चूत के निषेध की उसने आज्ञा प्रचारित कर दी है, इत्यादि । स्मिथ आदि अनेक आधुनिक इतिहासकार भी स्वीकार करते हैं कि सम्राट अकबर जैनधर्म पर बड़ी श्रद्धा रखता था और जैनगुरुओं का बड़ा आदर करता था तथा यह कि उसके अहिंसा धर्म का पालन करने के कारण मुल्ला-मौलवी और अनेक मुसलमान सर्दार उससे असन्तुष्ट हो गये थे।
अस्तू, जैनधर्म के साथ इस सर्वधर्म समदर्शी उदार नरेश के क्या और कितने, कम या अधिक, सम्बन्ध रहे, यह विवादास्पद हो सकता है, तथापि जैन इतिहास में उसका उल्लेखनीय स्थान है, और वह इसलिए कि किसी भी जैनेतर, विशेषकर मुसलमान, सम्राट से जैनधर्म, जैन गरुओं और जैन जनता को उस यग में जो संरक्षण, पोषण और सन्मान प्राप्त हो सकता था वह सम्राट अकबर के शासनकाल में जितना हुआ, उतना किसी भी अन्य शासन काल में नहीं हुआ। यहां तक कहा जाता है कि कई स्थानों में उसने जिन मन्दिरों को तोड कर उनके स्थान में बनाई गयी मस्जिदों को भी तुड़वाकर फिर से जिन मन्दिर बनवाने की आज्ञा दे दी थी। स्वयं उत्तर प्रदेश के सहारनपुर नगर के प्रसिद्ध सिंधियान जैन मन्दिर के विषय में ऐसी ही किंवदंती है। इसमें सन्देह नहीं है कि मुगल सम्राट अकबर के समय में उत्तर प्रदेश में जैनधर्म भली प्रकार फल-फूल रहा था। प्रायः सभी प्रमुख नगरों एवं कस्बों में धनी जैनों की अच्छी बस्तियाँ थीं और उनके धर्मायतन विद्यमान थे।
अकबर के उत्तराधिकारी जहांगीर (१६०५-२७ ई.) ने सामान्यतया अपने पिता की धार्मिक नीति का अनुसरण किया, अपने पूरे जन्ममानस में, सप्ताह में प्रत्येक गुरुवार एवं रविवार के दिन और अपने राज्याभिषेक
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के दिन सम्पूर्ण राज्य में मांसाहार एवं प्राणिबध का निषेध कर दिया । यति मानसिंह को उसने 'युगप्रधान' उपाधि दी और उनके तथा अन्य जैन गुरुओं के साथ जब-तब दार्शनिक चर्चा भी करता था। उसके शासनकाल में प्रदेश में कई नवीन जिनमन्दिर भी बने, अपने धर्मोत्सव मनाने और तीर्थयात्रा करने की भी जैनों को स्वतन्त्रता थी। राजा भारमल, हीरानन्द मुकीम जैसे कई जैन सेठ सम्राट के कृपापात्र थे। ब्रह्मरायमल्ल, बनवारीलाल, विद्या कमल, ब्रह्मगुलाल, गुणसागर, त्रिभुवनकीर्ति, भानुकीर्ति, सुन्दरदास, भगवतीदास, कवि विष्णु, कवि नन्द, कवि जगत् आदि अनेक जैन साधु एवं गृहस्थ विद्वानों ने उस युग में निराकुलतापूर्वक साहित्य सेवा की, कवि जगत ने तो 'यशोधर चरित' में आगरा नगर की सुन्दरता, 'नृपति नूरदीशाहि' (जहांगीर) के चरित्र एवं प्रताप का तथा उसके सुख-शान्ति पूर्ण राज्य में हुए धर्मकार्यों का अच्छा वर्णन किया है । पण्डित बनारसीदास की विद्वद्गोष्ठी उस काल में आगरा नगर में जम रही थी और यह जैन महाकवि अपनी उदार काव्यधारा द्वारा हिन्दू-मुस्लिम एकता को प्रोत्साहन दे रहे थे तथा अध्यात्मरस प्रवाहित कर रहे थे । ऐसी अनुश्रुति है कि यह पण्डित प्रवर जौनपुर के नवाब चिनकलीचखां के हिन्दी-संस्कृत के शिक्षक रहे थे, और जहांगीर के उत्तराधिकारी शाहजहां (१६२८-५८ई०) के मुसाहब भी रहे तथा बहुधा उसके साथ शतरंज खेला करते थे। जब चित्तवृत्ति राज्यसम्पर्क आदि लौकिक कार्यों से और अधिक विरक्ति हई तो उन्होंने बादशाह की मुसाहबी से छद्री ले ली। उनकी विद्वदगोष्ठी उत्साह के साथ चलती रही, जिसमें उच्च कोटि के दसियों विद्वान सम्मिलित होते थे। दिल्ली, लाहौर, मुल्तान आदि सुदूरस्थ प्रमुख नगरों के जैन विद्वानों से भी इस सत्संग का सम्पर्क बना रहता था। श्वेताम्बर यति एवं दिगम्बर भट्टारक, ऐल्लक, क्षुल्लक, ब्रह्मचारी आदि राजधानी आगरा एवं प्रदेश में विचरते रहते थे। शीतल (या शान्ति) नामक एक नग्न जैन मुनि का भी उस काल में आगरा में आना पाया जाता है। संभवतया यह वही शीतलमुनि हैं जिनका १६४७ ई० में अयोध्या में समाधिमरण हुआ था-वहां एक टोंक में उनके लेखांकित चरणचिन्ह स्थापित हैं। उस काल में स्वयं बनारसीदास, भगवतीदास, पाण्डे हेमराज, पाण्डे रूपचन्द, पाण्डे हरिकृष्ण, भट्टारक कवि सालिवाहन, यतिलूणसागर, पृथ्वीपाल, वीरदास, कवि सधारू, मनोहरलाल, खरगसेन, रायचन्द्र, जगजीवन
| विद्वानों ने विपुल साहित्य सृजन किया। स्वयं पं० बनारसीदास के 'अर्धकथानक' (१६४१ ई.) नामक अद्वितीय आत्मचरित्र में तो तत्कालीन केन्द्रीय एवं प्रान्तीय व स्थानीय शासन, वाणिज्य-व्यापार, लोकदशा राज्य में जैनों की स्थिति आदि का सजीव चित्रण प्राप्त होता है, जो ऐतिहासिक दृष्टि से भी अमूल्य है। उससे यह भी विदित होता है कि प्रदेश के अयोध्या, वाराणसी, मथुरा, हस्तिनापुर, अहिच्छा आदि जैन तीर्थों पर
गमनागमन होता रहता था, और प्रायः सभी नगरों में अल्पाधिक संख्या में अग्रवाल, ओसवाल, श्रीमाल आदि जैन सेठ एवं व्यापारी पाये जाते थे। आगरा, फिरोजाबाद, जौनपुर, खैराबाद, शाहजहांपुर, इलाहाबाद, मेरठ, इटावा, कोल (अलीगढ़), सहारनपुर, वाराणसी, आदि जैनों के अच्छे केन्द्र थे।
___ शाहजहां का उत्तराधिकारी औरंगजेब (१६५८-१७०७ ई०) कट्टर मुसलमान और धार्मिक दृष्टि से अत्यन्त असहिष्ण था, अतएव उसके समय में राज्य की नीति में भारी परिवर्तन हुआ। किन्तु प्रायः सम्पूर्ण भारतवर्ष पर उसका प्रभुत्व था, उसकी शक्ति और समृद्धि सर्वोपरि थी, शासनतन्त्र भी सुदृढ़ रहा और सामान्यतया साम्राज्य के केन्द्रीय भागों में अराजकता नहीं थी। उसके शासनकाल में जैनों को भी पहले जैसी धार्मिक स्वतन्त्रता तो नहीं थी, फिर भी उपाध्याय यशोविजय, आनन्दघन, देवब्रह्मचारी, भैया भगौतीदास, जगतराय, शिरोमणिदास, जीवराज, लक्ष्मीचन्द्र, भट्टारक विश्वभूषण, सुरेन्द्र भूषण, कवि विनोदीलाल आदि श्रेष्ठ जैन साहित्यकार हुए। अलाहाबाद के निकट शहजादपुर के निवासी कवि विनोदीलाल ने तो 'श्रीपाल चरित्र' (१६९० ई०) में लिखा है कि 'इस समय औरंगशाह बली का राज्य है, जिसने स्वयं अपने पिता को बन्दी बनाकर सिंहासन प्राप्त किया था और चक्रवर्ती के समान समुद्र से समुद्र पर्यन्त अपने साम्राज्य का विस्तार कर लिया।'
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१५५६-१७०७ ई०, लगभग १५० वर्ष का अकबर आदि चार बादशाहों का समय मुगल साम्राज्य का उत्कर्षकाल एवं स्वर्णयुग था। मध्यकालीन उत्तर प्रदेश के जैन धर्म का भी वह स्वर्णयुग था। उस काल में प्रदेश में अनेक प्रसिद्ध धर्मप्राण एवं लौकिक अभ्युदय प्राप्त करने वाले जैन हुए, जिनमें से कई विशेष उल्लेखनीय हैं। भटानियाकोल (अलीगढ़) से आकर अर्गलपुर (आगरा) में बसने वाले अग्रवाल जैन पासा साहु के सुपुत्र टोडर साहु सम्राट अकबर के कृष्ण मंगल चौधरी नामक एक उच्चपदस्थ अधिकारी के विश्वस्त मन्त्री थे। आगरा की शाही टकसाल के अधीक्षक थे। स्वयं सम्राट तक उनकी पहुँच थी। उनकी धर्मात्मा भार्या का नाम कसूम्भी था, और ऋषभदास, मोहनदास, रूपचन्द एवं लछमनदास नाम के चार सुयोग्य पुत्र थे। सारा परिवार धार्मिक, विद्यारसिक और दानशील था। साहु टोडर ने राजाज्ञा लेकर मथुरा नगर के प्राचीन जैन तीर्थ का उद्धार किया था, प्राचीन स्तूपों के जीर्ण-शीर्ण हो जाने के कारण वहां ५१४ नवीन स्तूप निर्माण कराये, द्वादश दिकपाल आदि की स्थापना की और १५७३ ई० में बड़े समारोह के साथ वहां प्रतिष्ठोत्सव किया जिसमें चतुर्विध संघ को आमन्त्रित किया था। आगरा नगर में भी उन्होंने एक भव्य जिनमंदिर बनवाया था, जिसमें १५९४ ई० में हमीरीबाई नाम की आत्मसाधिका ब्रह्मचारिणी रहती थी। मथुरातीर्थ के उद्धार के उपलक्ष्य में साहु टोडर ने पांडे राजमल्ल से संस्कृत में और पं० जिनदास से हिन्दी में 'जम्बूस्वामीचरित्र' की रचना कराई थी। उनके सुपुत्र साह ऋषभदास ने पंडित नयविलास से आचार्य शुभचन्द्र के 'ज्ञानार्णव' नामक प्रसिद्ध जैन योगशास्त्र की संस्कृत टीका लिखाई थी।
सम्राट अकबर के एक शाही खजांची, शाही टकसाल के एक अधिकारी तथा कृपापात्र अनुचर अग्रवाल जैन साहरनवीरसिंह थे, जिनकी सेवाओं से प्रसन्न होकर सम्राट ने उन्हें पश्चिमी उत्तर प्रदेश में एक जागीर प्रदान की थी। वहां उन्होंने सहारनपुर नगर बसाया, जिसकी शाही टकसाल के अध्यक्ष भी वही नियुक्त हुए। उन्होंने कई स्थानों में जैन मंदिर बनवाये । उनके पिता राजा रामसिंह भी राज्यमान्य व्यक्ति थे और सुपुत्र सेठ गुलाबराय भी।
कर्मचन्द बच्छावत बीकानेर राज्य के मन्त्री थे, किन्तु राजा रामसिंह किसी कारण उनसे रुष्ट हो गया तो वह आगरा सम्राट अकबर की शरण में चले आये और मृत्यु पर्यन्त यहीं रहे। सम्राट उनका बहुत मान करता था और मुख्यतया उन्हीं के माध्यम से उसका गुजरात के श्वेताम्बराचार्यों से सम्पर्क हुआ। आगरा के ओसवाल जैन सेठ हीरानन्द मुकीम अत्यन्त धनवान एवं धर्मात्मा सज्जन थे। शाहजादा सलीम (जहांगीर) के तो वह खास जौहरी
और विशेष कृपापात्र थे। सन् १६०४ ई० में वह सम्राट एवं शाहजादे की अनुमतिपूर्वक एक विशाल जैन यात्रा संघ समोद शिखर ले गये। इस संघ में अनेक स्थानों के जैन सम्मिलित हुए, जिनमें जौनपुर से पं० बनारसीदास के
बरगसेन जौहरी भी थे। बड़े ठाठ-बाट से यह तीर्थ यात्रा हुई, विपूल द्रव्य व्यय हुआ और पूरा एक वर्ष लग गया। जहांगीर के राज्याभिषेक के उपरान्त उनके उपलक्ष्य में सेठ हीरानन्द ने १६१० ई० में सम्राट को दरबारियों सहित अपने घर आमन्त्रित किया और बड़ी शानदार दावत दी। सेठ के आश्रित कवि जगत् ने इस समारोह का वड़ा आलंकारिक एवं आकर्षक वर्णन किया है। अगले वर्ष सेठ ने आगरा में यति लब्धिवर्धनसूरि से एक बिम्ब प्रतिष्ठा कराई। उनके पुत्र साह निहालचन्द्र ने भी १६३१ ई० में आगरा में एक प्रतिष्ठा कराई थी।
जहाँगीर के शासनकाल में ही आगरा में एक अन्य जैन धनकुबेर संघपति सबल सिंह मोठिया थे, जिनके राजसी वैभव और शाही ठाठ का पं० बनारसीदास ने आँखोदेखा वर्णन किया है । उससे प्रकट है कि उस काल के प्रमुख जैन साहूकार स्वयं मुगलों की राजधानी में भी कितने धन-वैभव सम्पन्न एवं प्रभावशाली थे। आगरा के जैन संघ की ओर से आचार्य विजयसेन को १६१० ई० में जो विज्ञप्तिपत्र भेजा गया था, उस पर वहां के जिन ८८ श्रावक-प्रमुखों और संघपतियों के हस्ताक्षर थे, उनमें सबलसिंह का भी नाम था। अन्य हस्ताक्षर करने वालों में वर्धमान कुँवरजी दलाल, जिनके साथ बनारसीदास आदि ने १६१८ ई० में अहिच्छता और हस्तिनापुर की यात्रा
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की थी, आगरा के मोतीकटरे में मोतियों का व्यापार करने वाले साह बन्दीदास, ताराचन्द्र साहु आदि सेठ थे । पं० बनारसीदास ने भी प्रारम्भ में जौनपुर में पिता के साथ जवाहरात का पैतृक व्यापार किया, फिर इलाहाबाद में भी कुछ दिन किया और अन्त में आगरा में आकर बस गये- वहीं अन्त तक व्यापार भी करते रहे और धर्म एवं साहित्य की साधना भी करते रहे ।
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आगरा जिले के टापू या टप्पल ग्राम के निवासी पद्मावती पुरवाल जैन ब्रह्मगुलाल चन्द्रवाड़ के चौहान राजा कीर्तिसिंह के दरबारी, सिद्धहस्त अभिनेता और कुशल लोक कवि थे - बाद में जैन मुनि हो गये थे । आगरा के अग्रवाल जैन सेठ तिहुना साहु ने एक विशाल जिनमंदिर ( देहरा) बनवाया था जिसमें १६३५ ई० में प्रसिद्ध सिद्धान्त-मर्मज्ञ पं० रूपचन्द्र कुछ दिन रहे थे - पं० बनारसीदास और उनके साथियों ने इन्हें गुरु मान्य किया था । स्वयं पं० रूपचन्द कुहदेशस्थ सलेमपुर (शायद फर्रुखाबाद जिले में ) के निवासी थे और वाराणसी में उन्होंने शिक्षा प्राप्त की थी, कुछ दिन दरियापुर ( बाराबंकी जिले का दरियाबाद) में भी रहे, दिल्ली और आगरा में भी रहे - अधिकतर समय उनका यत्र-तत्र भ्रमण, साहित्य सृजन और ज्ञान प्रसार में व्यतीत हुआ । शौरिपुर के भट्टारक जगत्भूषण की आम्नाय के गोला पूर्ववंशी श्रावक दिव्यनयन के पौत्र और मित्रसेन के पुत्र संघपति भगवानदास ने, जो बड़े धन सम्पन्न एवं धर्मात्मा थे, इन्हीं पंडितजी से १६३५ ई० में 'भगवत् समवसरणाचंन विधान' की संस्कृत भाषा में रचना कराई थी ।
१६७१ ई० फतेहपुर के नवाब अलफख के दीवान ताराचन्द्र ने यति लक्ष्मीचन्द्र से शुभचन्द्राचार्यकृत 'ज्ञानार्णव' का ब्रजभाषा में पद्यानुवाद कराया था । कुँवरपाल एवं सोनपाल दो ओसवाल जैन सहोदर थे और कुशल व्यापारी थे । ये आगरा के निवासी थे, किन्तु पटना जा बसे । उन्होंने मिर्जापुर में एक जिन मंदिर बनवाया था । बंगाल-बिहार के सुप्रसिद्ध जगत्सेठ घराने के पूर्वपुरुष हीरानन्द शाह भी आगरा के ही निवासी थे, जो १६६१ ई० के लगभग पटना में जा बसे थे ।
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१७०७ ई० में औरंगजेब की मृत्यु के उपरान्त मुग़ल साम्राज्य की शक्ति, विस्तार, समृद्धि और प्रतिष्ठा का द्रुतवेग से ह्रास होने लगा । नादिरशाह दुर्रानी और अहमदशाह अब्दाली के भयंकर आक्रमणों, लूटमार और नरसंहार ने उसे मृतप्राय कर दिया। रही-सही कसर मराठों और सिक्खों की लूट-पाट ने पूरी कर दी । साम्राज्य के सभी प्रान्तों के सूबेदार स्वतन्त्र हो गये, और स्वयं उत्तर प्रदेश में, अवध के नवाब, रुहेलखण्ड के रुहेले पठान और फर्रुखाबाद के बंगश पठान प्रायः स्वतन्त्र शासक बन गये । इस दुरावस्था का लाभ अंग्रेज व्यापारियों ने उठाया और बंगाल, कर्नाटक-मद्रास, बम्बई से शुरू करके अपनी राज्यसत्ता जमानी और उसका विस्तार करना प्रारम्भ कर दिया । परिणाम यह हुआ कि एक सौ वर्ष के भीतर ही देश का राजनैतिक मानचित्र सर्वथा बदल गया, और १८५७ ई० के स्वातन्त्र्य समर की सफलता के बाद तो अंग्रेज ही पूरे देश के निष्कंटक शासक बन गये । इस प्रकार डेढ़ सौ वर्ष ( १७०७ - १८५७ ) का यह काल भारतीय इतिहास का अन्धयुग है और उसका इतिहास अराजकता, विशृंखलता, अशान्ति, नैतिक पतन तथा थोड़े से सर्वथा अपरिचित विदेशियों द्वारा इस महादेश को पराधीनता की बेड़ियों में जकड़ते जाने का ही लज्जाजनक इतिहास है । उस युग में घोर अराजकता, अशान्ति, मारकाट, लूटखसोट, ईर्ष्या-द्वेष, वैर-विरोध एवं सर्वव्यापी पतन के बीच, जब छोटे-बड़े किसी की भी मान-मर्यादा, प्राण और धन सुरक्षित नहीं थे, धर्म और संस्कृति जैसे प्रकाशपुंजों की बात उठाना ही व्यर्थ है- उनकी ओर ध्यान देने का किसे अवकाश था। भारतवर्ष के अन्य भागों की अपेक्षा भी उत्तर प्रदेश में स्थिति अधिक शोचनीय थी । उस काल के बादशाह, राजे, रईस, नवाब, सामन्त और सरदार अधिकतर या तो निर्मम लुटेरे एवं क्रूर अत्याचारी थे, अथवा कायर, आलसी, विलासी और दुराचारी थे । किसी को भी अपनी स्थिति के स्थायित्व का
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भरोसा न था। प्रदेश में उस काल में किसी भी तेजस्वी महात्मा, सन्त, समाज सुधारक या निस्पृह जननेता के हुए होने का पता नहीं चलता। लोगों की समस्त उच्च एवं शुभ या सद्प्रवृत्तियां लुंठित-कुंठित हो गई थीं। जनजीवन सत्त्वविहीन सा था । सार्वजनिक शिक्षा का अभाव, रूढ़िवादिता, संकीर्णता, अंधविश्वास और कुरीतियाँ प्रायः प्रत्येक समाज में घर कर गई थीं। प्रदेश की जैन जनता भी इन दुष्प्रभावों से अछूती नहीं बची। पंथवाद और साम्प्रदायिक वैमनस्य भी उभरने लगे।
जैनों की संख्या, समृद्धि और धार्मिकता पर भी विपरीत प्रभाव पड़े ही। तथापि प्रदेश के जिन नगरों, कस्बों और ग्रामों में वे बसे हुए थे, वहाँ-वहाँ बने भी रहे, और जब कभी तथा जहाँ-कहीं कुछ शान्ति या सुशासन रहा तो उन्होंने उसका लाभ भी उठाया। जब १७२२ ई. में सादतखाँ अवध का सूबेदार नियुक्त हुआ, जो अवध की नवाबी का संस्थापक भी हुआ, तो उसके साथ दिल्ली से उसके खजांची लाला केशरीसिंह भी साथ आये, जो अग्रवाल जैन थे। अयोध्या ही उस समय सूबे की राजधानी थी। उन्होंने १७२४ ई० में ही उक्त तीर्थ के पाँच प्राचीन जिनमंदिरों एवं टोंकों का जीर्णोद्धार कराया और इस आदि जैन तीर्थ के विकास एवं जैनों के लिए उसकी यात्रा का मार्ग प्रशस्त किया। इस समय के लगभग झांसी जिले के निवासी मंजु चौधरी उड़ीसा प्रान्त के कटक नगर में जा बसे और थोड़े ही वर्षों में वहाँ अत्यधिक मान और प्रतिष्ठा प्राप्त कर ली। अवध के नवाब आसफूटौला (१७७५-१७९७ ई.) के समय में नवाब के खास जौहरी लखनऊ के ओसवाल जैन बच्छराज नाहटा थे जिन्हें नवाब ने 'राजा' की उपाधि दी थी। उसी समय खरतरगच्छाचार्य जिनअक्षयसूरि ने लखनऊ के सोंधी टोला स्थित यतिछत्ता में अपनी गद्दी स्थापित की और पार्श्वनाथ स्वामी का मन्दिर बनवाया, जो इस नगर का सर्वप्राचीन श्वेताम्बर मन्दिर है। दिगम्बर मन्दिर मच्छीभवन (लछमन टीला) के निकट, जहाँ विक्टोरिया पार्क है, पहले से ही विद्यमान था। राजा बच्छराज नाहटा आदि लखनऊ निवासी ३६ श्वेताम्बर श्रावक-श्राविकओं ने एक सचिन विज्ञप्तिपन भेज कर दिल्ली से भट्टारक जिनचन्द्रसूरि को भी आमन्त्रित किया था। सन् १८०० ई. के लगभग दिल्ली के शाही खजांची राजा हरसुखराय एवं उनके सुपुत्र राजा सुगनचन्द्र ने हस्तिनापुर तीर्थ का पुनरुद्धार किया
और वहाँ एक अति विशाल दिगम्बर जैन मन्दिर निर्माण कराया था। उन्होंने अन्य अनेक स्थानों में भी जिनमन्दिर बनवाये थे। प्रयाग (इलाहाबाद) के साह होरीलाल ने १८२४ ई० में कौशाम्बी के निकट प्रभास पर्वत (पभोसा) पर जिनमन्दिर बनवाया था। प्रायः इसी समय सहारनपुर के संस्थापक साह रनवीरसिंह के वंशज सालिगराम अंग्रेज सरकार की ओर से दिल्ली के खजांची नियुक्त हुए थे। मथुरा के प्रसिद्ध सेठ धराने का उदयकाल भी प्रायः यही है । इस घराने के प्रथम पुरुष सेठ मनीराम ने मथुरा के चौरासी टीले पर जम्बूस्वामी का मन्दिर बनवाया और नगर में द्वारकाधीश का सुप्रसिद्ध मन्दिर भी बनवाया। अलीगढ़ निवासी आध्यात्मिक संतकवि पं० दौलतराम जी का सेठ मनीराम बड़ा आदर करते थे और उन्हें कुछ समय अपने पास बुलाकर भी रखा था। मनीराम के सुपूत्र सेठ लक्ष्मीचन्द के समय में मथुरा का यह सेठ घराना अपने चरमोत्कर्ष पर था और वे अंग्रेजों द्वारा भी सम्पूर्ण भारत के अग्रणी साहूकारों में मान्य किये जाते थे। तदनन्तर, सेठ रघुनाथ दास एवं उनके पुत्र राजा लक्ष्मणदास के समय तक भी इस सेठ घराने की- आन-बान बहुत कुछ बनी रही। कलकत्ता के विश्वविश्रुत उद्यानमन्दिर (शीतलनाथ जिनालय) के निर्माता राय बद्रीदास मूलत: लखनऊ के ही निवासी थे जो १९वीं शती के मध्य के लगभग कलकत्ता जा बसे थे और वहीं जवाहरात का अपना पैतृक व्यापार अपूर्व सफलता के साथ चलाया था।
इस अराजकता काल में उत्तर प्रदेश में कई जैन विद्वान, साहित्यकार एवं कवि भी हुए, यथा हथिकन्त के भट्टारक विश्वभूषण, पं० जिनदास, पं. हेमराज (इटावा), कवि बुलाकीदास (आगरा), कविवर द्यानतराय
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[ २७ (आगरा), कवि भूधरमल्ल या भूधरदास (आगरा), जयपुर के सुप्रसिद्ध वचनिकाकार पं० दौलतराम भी कुछ समय आगरा में रहे, भट्टारक ललितकीर्ति, भ० सुरेन्द्र भूषण, पांडे हरिकृष्ण, केशोदास, पांडे लालचन्द, नथमल बिलाला, विलासराय, कवि देवदत्त, इन्द्रजीत, गुलाबराइ, झुनकलाल, प्रागदास, मनसुखसागर, भूधर मिश्र, कमल नयन, सदानन्द, हीरालाल, सन्तकवि पं० दौलतराम, नन्दराम, छत्रपति आदि ।
आधुनिक युग
१८५७ से १९४७ ई० पर्यन्त के समय को आधुनिक युग ही कह सकते हैं, जिसका प्रारम्भ १८५७ ई० के स्वातन्त्र्य समर की विफलता के परिणामस्वरूप प्रदेश में अंग्रेजी शासन की पूर्णतया स्थापना से होता है । उक्त समर का, जिसे इतिहास पुस्तकों में बहुधा गदर या सिपाहीविद्रोह कहा गया है, प्रधान रणक्षेत्र उत्तर प्रदेश ही था, और प्रदेश के निवासी जैनों ने भी उसके कुफल एवं सुफल भोगे तथा उसमें योग भी दिया। एक ओर देश विदेशी दासता में बंधा और शासकों ने अपने देश और जाति के हित में उसका भरपूर शोषण किया, तो दूसरी
ओर चिरकाल के उपरान्त पुनः जनता ने सुख-शान्ति की सांस ली। सुचारु शासन व्यवस्था, न्याय प्रशासन, धनजन की सुरक्षा, व्यापार आदि की उन्नति, शिक्षा का प्रचार-प्रसार, धार्मिक स्वतन्त्रता, सामाजिक सुधार, राष्ट्रीय भावना की जागृति और स्वतन्त्रता के लिए छिड़ा चिरकालीन संघर्ष- इस युग की प्रयुख विशेषताएं रहीं। उद्योगधन्धों और यातायात एवं संचार के साधनों में द्रुत विकास, छापेखाने का प्रचार, समाचार पत्रों का प्रकाशन और राष्ट्रीय, सामाजिक एवं धार्मिक जागृति के उद्भावक प्रायः प्रत्येक क्षेत्र में अनेक सच्चे नेताओं का उदय सबने मिलकर देश के सर्वतोमुखी पुनरुत्थान की साधना में योग दिया।
उत्तर प्रदेश की जैन समाज ने भी उपरोक्त सभी सद्प्रवृत्तियों में अपने आन्तरिक उत्थान के हित भी, और प्रदेश एवं राष्ट्र के सार्व उत्थान के लिए भी, अपनी संख्या एवं शक्ति के अनुपात में पर्याप्त योग दिया और परिणामों का लाभ उठाया। विविध प्रकार के अनेक संगठन, सभाएँ, संस्थाएँ स्थापित की, सुधार आन्दोलन चलाकर अनेक सामाजिक कुरीतियां दूर की। जहाँ कहीं भी जैनों की तनिक भी अच्छी बस्ती रही, एकाधिक समाजसेवी, धर्मप्रेमी, शिक्षा प्रचारक नेता और कार्यकर्ता हुए। उनमें त्यागी संत भी थे यथा यति नयनसुखदास, ब्र० भगवानदास, ब्र० शीतल प्रसाद, पं० गणेश प्रसाद वर्णी, बाबा भागीरथ वर्णी, बाबा लालमनदास, महात्मा भगवान पुरानी शैली के शास्त्री पं० भी थे, यथा पं० वृन्दावनदास, पं० बलदेवदास पाटनी, गुरु गोपालदास बरैया, पं० पन्ना लाल न्यायदिवाकर, पं० उमराव सिंह, पं० माणिक चन्द्र, पं० नरसिंहदास, पं० श्रीलाल आदि; पाश्चात्य शिक्षा प्राप्त समाजचेता यथा राजा शिवप्रसाद सितारेहिंद, बाबू दयाचन्द गोयलीय, बैरिस्टर जगमन्दर लाल जैनी, बैरिस्टर चम्पतराय, मास्टर चेतन लाल, मुंशी मुकुन्दराय, बाबा सूरजभान वकील, पं० जुगल किशोर मुख्तार, जोती प्रसाद 'प्रेमी', भोलानाथ दरख्शा, बाबू सुल्तान सिंह वकील, बाबू ऋषभदास वकील, बाबू अजित प्रसाद वकील, रा० ब० द्वारका प्रसाद इंजीनियर, डिप्टी कालेराय, डिप्टी नन्दकिशोर, डिप्टी उजागरमल आदि; सेठों में मथुरादास टड़या ललितपुर, मथुरा के सेठ रघुनाथदास और राजा लक्ष्मणदास, साहु चंडी प्रसाद धामपुर, लाला
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जम्बूप्रसाद सहारनपुर, साहु सलेखचन्द एवं रा०ब० जुगमन्दर दास नजीबाबाद इत्यादि । विभिन्न क्षेत्रों के अनगिनत महानुभाव रहे । उत्तर प्रदेश के जैनधर्म, संस्कृति और समाज का जैसा कुछ भवन वर्तमान है, इस युग में उसकी नींव बनकर उसके पुननिर्माण का श्रेय उपरोक्त तथा तद्प्रभृति सज्जनों को ही है।
अस्तु सभ्य युग के आदिम काल से वर्तमान पर्यन्त महादेश भारतवर्ष के सांस्कृतिक हृत्प्रदेश इस उत्तर प्रदेश का जैन धर्म और उसकी संस्कृति के साथ अविच्छिन्न घनिष्ठतम सम्बन्ध रहता आया है। प्रदेश के सौभाग्यदुर्भाग्य, उत्थान-पतन, सुख-दुख को प्रदेश के जैनों ने सदैव से उसके अभिन्न अंग के रूप में भोगा है और सदैव भोगेंगे। प्रदेश के जनजीवन और राष्ट्रीय जीवन के वे अभिन्न अंग हैं और रहेंगे। उनकी संस्कृति समृद्ध है और धर्म एवं दर्शन प्राणवान हैं
पत्ता-पत्ता बूटा-बूटा हाल हमारा जाने है। जाने न जाने गुल ही न जाने, बाग तो सारा जाने है ।।
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उत्तर प्रदेश के जैन तीर्थ एवं साँस्कृतिक केन्द्र
" सिद्धक्षेत्रे महातीर्थे पुराणपुरुषाधिते ।
कल्याणकलिते पुण्ये ध्यान सिद्धिः प्रजायते ॥" -- ज्ञानार्णवः
अमरकोषकार ने 'निपान-आगमयोस्तीर्थम् ऋषि जुष्टे जलेगुरी' सूत्र द्वारा 'तीर्थ' शब्द के अनेक अर्थ किये हैं । मूलतः सागरतीरवर्ती वह स्थान अथवा नदी का वह घाट जहाँ से उसे पार किया जाता है, 'तीर्थ' कहलाता है । अतएव जो तिरादे या पार करा दे, अथवा तिरने या पार हो जाने में जो सहायक हो, साधक हो वही 'तीर्थ' है । प्रतीकार्थ में, जिस धर्मशासन के आश्रय से जन्म-मरण रूप दुःखार्णव से पार होकर समस्त आत्मविकारों से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है, उसे भी 'तीर्थ' कहते हैं, और तब वह 'धर्म' का पर्यायवाची होता है । उस धर्म - तीर्थ के प्रवर्त्तक, उद्धारक एवं व्यवस्थापक 'तीर्थंकर' कहलाते हैं । वे तथा उनके अनुसर्त्ता, मोक्षमार्ग के एकनिष्ठ साधक मुनि, आर्यिका आदि गुरु जंगमतीर्थ कहलाते हैं - इसीलिए उन्हें 'तिन्नाणं तारयाणं' अर्थात् तरण तारण कहा जाता है । उनसे सम्बद्ध भूमियाँ, स्थल आदि स्थावर तीर्थ कहलाते हैं ।
ऋषभादि चौवीस तीर्थंकरों में से अंतिम, वर्धमान महावीर के उदय से पूर्व प्रबुद्ध जगत में एक बेचैनी थी, जिसकी अभिव्यक्ति पार्श्वपरम्परा के महावीरकालीन केशिमुनि के शब्दों में ध्वनित है
अंधियारे तमे घोरे, चिट्ठति पाणिणो बहू । को करिस्सेइ उज्जोयं सव्व लोगंमि पाणिणं ॥
और उसका उत्तर महावीर के प्रधान शिष्य, गौतम गणधर ने तत्काल दिया थाउगओ विमलो माणू, सव्वलोगप्पमकरो | सो करिएसइ उज्जोयं, सव्व लोगंमि पाणिणं ॥ !
और समस्त लोक के हृदय को आलोकित करने वाला वह विमल भास्कर थानिस्संसयकरो महावीरो जिणुत्तमो ।) रागबोस- भयावीवो धम्मतीत्थस्सकारओ || !
इस प्रकार, महावीर प्रभृति तीर्थंकरों ने सर्वज्ञ- वीतराग सर्वहितंकर बनकर धर्म तीर्थ की स्थापना द्वारा प्राणियों के अभ्युदय एवं निःश्रेयस का पथ प्रशस्त किया था। डूबती उतराती चेतनाओं से ओत-प्रोत विश्व-प्रवाह को अपनी साधना से काटकर जो आत्मानुभूति में स्थित हो रहता है, ऐसा परम साधक और सिद्ध ही तीर्थंकर होता है
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मनुष्य से ईश्वर बनने की प्रक्रिया ही तीर्थकरत्व है, और संसार-प्रवाह से बचने की प्रक्रिया ही 'तीर्थ' है। इस धर्मतीर्थ और संस्कृति का अविनाभावी सम्बंध है-एक दूसरे का पूरक है। धर्म संस्कृति को ऐतिहासिकता एवं विशिष्टता प्रदान करता है तथा उसे अवगाहन योग्य बनाता है, तो संस्कृति अपने गतिशील आंतरिक संस्पर्श से धर्म को संवेदनशील, सप्राण एवं परिस्थितियों में सक्षम बनाये रखती है।
उक्त भाव-तीर्थ के भौतिक प्रतीक वे पावन स्थल हैं जहाँ तीर्थंकरों को गर्भावतरण, जन्मोत्सव, दीक्षाग्रहण, केवलज्ञान प्राप्ति और निर्वाणलाभ हुआ था, जहाँ अन्य मोक्षगामी महापुरुषों ने तप किया या सिद्धि प्राप्त की, अन्य विशिष्ट धार्मिक घटनाओं, अतिशय आदि से सम्बद्ध पवित्र स्थान, तथा प्राचीन कलाधाम जो अपने विविध एवं महत्त्वपूर्ण मंदिरों, मूत्तियों या अन्य धार्मिक कलाकृतियों के लिए प्रसिद्ध हैं।
ये प्रायः सब जैन संस्कृति के केन्द्र चिरकाल से रहते आये हैं, और प्रत्येक वर्ष विभिन्न समयों में सहस्त्रों जैन तीर्थयात्री इन तीर्थक्षेत्रों की यात्रार्थ देश के कोने-कोने से आते रहते हैं। उत्तर प्रदेश जैनधर्म और संस्कृति का उद्गम स्थान एवं उनका सहस्त्राब्दियों से लीलाक्षेत्र रहा आया, अतएव इस प्रदेश में पचासों जैन तीर्थ सप्राण बने हए हैं। एक प्रसिद्ध पाश्चात्य पुरातत्त्व सर्वेक्षक ने कहा है कि भारतवर्ष के किसी भी स्थान को केन्द्र मानकर यदि बारह मील अर्धव्यास का वृत्त खींचा जाय तो उसके भीतर एकाधिक प्राचीन, मध्यकालीन अथवा अर्वाचीन जैन मंदिर, स्मारक या भग्नावशेष अवश्य प्राप्त हो जायेंगे। उत्तर प्रदेश के विषय में भी यह बात पूरी तरह लागू है। प्रदेश में अनेक स्थान आज ऐसे भी हैं जहाँ वर्तमान में आस-पास भी कोई जैन नहीं रहता, किन्तु पूर्वकाल में कभी वह अच्छा जैन केन्द्र या धार्मिक स्थल रहा था, और इसीलिए पुराने मकानों, हवेलियों आदि के खंडहरों में से, खेतों, कुओं और बावड़ियों में से, नदियों के तल से भी, प्राचीन जैन मूत्तियाँ आदि जब-तब निकलती रहती हैं। यह तथ्य भी ध्यातव्य है कि उत्तर प्रदेश के अनेक प्राचीन ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक केन्द्र, यथा श्रावस्ती, अहिच्छत्रा, कौशाम्बी, शौरिपुर, हस्तिनापुर, देवगढ़, काकंदी आदि विस्मृति के गर्भ में समाजाने से इसी कारण सुरक्षित रह सके क्योंकि जैनीजन उन्हें अपने पवित्र तीर्थस्थान मानते रहे और मध्यकाल में भी उनकी यात्रार्थ बराबर आते रहे।
उत्तर प्रदेश के जैन तीर्थों एवं सांस्कृतिक केन्द्रों को स्थूलतया छः वर्गों में विभाजित किया जा सकता है(क) तीर्थंकर जन्मभूमियाँ,
(घ) महावीर विहार स्थल, (ख) अन्य कल्याणक क्षेत्र,
(च) अतिशय क्षेत्र एवं कलाधाम, और (ग) तपोभूमियाँ एवं सिद्धभूमियाँ, (छ) अर्वाचीन प्रसिद्ध एवं दर्शनीय मंदिर । (क) तीर्थकर जन्मभूमियां
उत्तर प्रदेश में अयोध्या, श्रावस्ती, कौशाम्बी, वाराणसी, चन्द्रपुरी, काकंदी, सिंहपुरी, काम्पिल्य, रत्नपुरी, हस्तिनापुर और शौरिपुर विभिन्न तीर्थंकरों की जन्मभूमियाँ रही हैं।
अयोध्या
फैजाबाद जिले में फ़ैज़ाबाद नगर से ५ मील तथा अयोध्या रेलवे स्टेशन से एक मील की दूरी पर, सरयू (घाघरा) नदी के तट पर स्थित अयोध्या भारतवर्ष की प्राचीनतम महानगरियों एवं परम पुनीत धर्मतीर्थों में परिगणित है। जैन, वैष्णव और बौद्ध ही नहीं, मुसल्मान भी इस नगरी को अपना पवित्र तीर्थ मानते आये हैं। इस नगरी का सांस्कृतिक महत्त्व इतना अधिक रहा कि सुदूर पूर्व बर्मा, स्याम आदि देशों में भी अबसे डेढ़-दो सहस्त्र वर्ष
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पूर्व इस नाम के (अयोध्या, जूथिया आदि) नगर बसे । परन्तु इस नगर से सम्बंधित उक्त विभिन्न धर्मों की अनुश्रुतियों एवं उनके साहित्यों में प्राप्त इसके उल्लेखों से प्रतीत होता है कि इस नगर का मूलतः सम्बंध जैन परम्परा के साथ ही रहा ओर उसकी तत्सम्बंधी मान्यताएँ ही प्रकारान्तर से उक्त अन्य धर्मों की अनुश्रुतियों में अल्पाधिक प्रतिबिम्बित हुईं।
जैन मान्यता के अनुसार अयोध्या एक शाश्वत तीर्थ है। प्रत्येक कल्पकाल में सर्वप्रथम इसी नगर का देवताओं द्वारा निर्माण होता है और यहीं उस कल्पकाल के चौबीसों तीर्थंकरों का जन्म होता है। वर्तमान कल्पकाल में भी जिस स्थान पर अयोध्या विद्यमान है, वहीं चौदह में से विमलवाहन आदि सात कुलकरों या मनुओं ने जन्म लिया था और अपने समकालीन मानवों का पथ प्रदर्शन किया था। अंतिम मनु नाभिराय अपनी संगिनी मरुदेवी के साथ यहीं निवास करते थे, और यहीं उनके पुत्र, आदि-तीर्थंकर ऋषभदेव का जन्म हुआ था, जिनके अपरनाम आदिदेव, आदिनाथ, आदिपुरुष, स्वयंभु, प्रजापति, पुरुदेव, कश्यप और इक्ष्वाकु थे। इन्हीं के जन्म के उपलक्ष्य में देवराज इन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने भारतवर्ष की इस आद्य नगरी का निर्माण किया था। मनुपुत्र ऋषभदेव इक्ष्वाकु ही इस नगर के प्रथम नरेश थे, और इसी नगर में उन्होंने मानवों को लोकधर्म एवं आत्मधर्म का सर्वप्रथम उपदेश दिया था। उनके उपरान्त हुए अन्य २३ तीर्थंकरों में से २२ उन्हीं के इक्ष्वाकुवंश में उत्पन्न हुए थे, जिनमें से अजितनाथ, अभिनन्दनाथ, सुमतिनाथ और अनन्तनाथ, क्रमशः दूसरे, चौथे, पांचवे और चौदहवें तीर्थंकरों के गर्भ, जन्म, तप और ज्ञान नामक चार-चार कल्याणक अयोध्या में ही हुए। इस प्रकार अयोध्या इस कल्पकाल के पांच तीर्थंकरों की जन्मभूमि रही।
ऋषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र भरत इस महादेश के प्रथम चक्रवर्ती संम्राट थे और उन्हीं के नाम पर देश का भारतवर्ष नाम प्रसिद्ध हुआ-इस विषय में जैन एवं ब्राह्मणीय पुराण प्रन्थ एकमत हैं। अनुश्रुति है कि भगवान ऋषभदेव के निर्वाणोपलक्ष में भरत चक्रवर्ती ने अयोध्या में एक उत्तुंग सिंह-निषद्या निर्माण कराई थी तथा नगर के चारों महाद्वारों पर २४ तीर्थंकरों की निज-निज शरीर प्रमाण प्रतिमाएं स्थापित की थीं—पूर्व द्वार पर ऋषभ और अजित की, दक्षिण द्वार पर संभवादि चार की, पश्चिम द्वार पर सुपाादि आठ की, और उत्तर द्वार पर धर्मनाथादि देश की। उन्होंने एक सौ स्तूप एवं जिनमंदिर भी इस नगर में निर्माण कराये थे। भरत के उपरान्त सुभौम, सगर, मघवा आदि कई अन्य चक्रवर्ती सम्राट भी अयोध्या में हुए और महाराज रामचन्द्र एवं लक्ष्मण जैसे शलाकापुरुषों को जन्म देने का श्रेय भी अयोध्या को ही है । रामचन्द्र दीक्षा लेने के बाद पद्ममुनि के नाम से प्रसिद्ध हुए और अर्हत् परमेश्वर बनकर मोक्ष गये । महारानी सीता की गणना जैन परम्परा की सोलह आदर्श महासतियों में है। यज्ञों में पशुबलि के प्रश्न को लेकर नारद और पर्वत के बीच राजा वसु की राजसभा में होने वाला विवाद भी एक अनुश्रुति के अनुसार अयोध्या में ही हुआ था। राजनर्तकी बुद्धिषेणा और प्रीतंकर एवं विचित्रमति नामक मुनियों की कथा का तथा अन्य अनेक जैन पुराण-कथाओं का घटनास्थल यह नगर रहा । अन्तिम तीर्थंकर महावीर अपने एक पूर्ण भव में भगवान ऋषभदेव के पौत्र एवं भरत चक्री के पुत्र मरीचि के रूप में अयोध्या में जन्म ले चुके थे, और
तीर्थकर महावीर के रूप में भी वह अयोध्या पधारे, यहां के सुभूमिभाग उद्यान में उन्होंने मुमुक्षुओं को धर्मामृत पान कराया तथा कोटिवर्ष के राजा चिलाति को जिनदीक्षा दी थी। उनके नवम गणधर अचलभव का जन्म भी अयोध्या में ही हुआ था।
वस्तुतः, प्राचीन कोसल महाराज्य अथवा महाजनपद का केन्द्र, प्राचीन भारत की दश महाराजधानियों एवं उत्तरापथ की पांच महानगरियों में परिगणित, अयोध्या अपरनाम साकेत, इक्ष्वाकुभूमि, विनीता, सुकोशला, कोशलपुरी, अवध या अवधपुरी के जितने सुन्दर, विशद और अधिक उल्लेख एवं वर्णन प्राचीन जैन साहित्य में प्राप्त हैं,
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उतने अन्यत्र नहीं हैं। पउमचरिउ, पद्मपुराण, स्वयंभू रामायण, आदिपुराण, उत्तरपुराण, वृहत्कथाकोष, तिलकमंजरी, त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, पंपरामायण विविधतीर्थकल्प आदि जैन ग्रन्थों के अनेक पृष्ठ तीर्थकरों की इस जन्मभूमि की प्रशंसा में रंगे पड़े हैं। देवों द्वारा निर्मित, शत्रुविहीन, विनीत सभ्यों का निवासस्थान, भव्य भवनों से सुशोभित, सुनियोजित, भारतवर्ष के मध्य देश का शिरोभूषण, वसुंधरा की मुकुटमणि, समस्त आश्चर्यों का निधान (सर्वाश्चर्य निधानमुत्तर कौसलेष्वयोध्येति यर्थाथभिधाना नगरी-धनपालकृत तिलकमंजरी) यथानाम तथा गुण इस परम पावन आद्यतीर्थस्थली अयोध्या का महात्म्य बखानते जैन ग्रन्थकार अघाते नहीं और धार्मिक जन इसकी यात्रा का सौभाग्य प्राप्त करने के लिए सदा लालायित रहते आये हैं।
महावीर निर्वाण के लगभग एक सौ वर्ष पश्चात मगधनरेश नन्दिवर्धन ने इस नगर में मणिपर्वत नामक उत्तुंग जैन स्तूप बनवाया था, जिसकी स्थिति वर्तमान मणिपर्वत टीला सूचित करता है। मौर्य सम्राट सम्प्रति और वीर विक्रमादित्य ने इस क्षेत्र के पुराने जिन मंदिरों का जीर्णोद्धार एवं नवीनों का निर्माण कराया था। गुजरात नरेश कुमारपाल चौलुम्य (सोलंकी) ने भी यहां जिनमंदिर बनवाये बताये जाते हैं। दसवीं-ग्यारहवी शती ई० में यहाँ जैन धर्मावलंबी श्रीवास्तव्य कायस्थ राजाओं का शासन था, जिन्होंने सैयद सालार मसउद गाजी को, जो अवध प्रान्त पर आक्रमण करने वाला संभवतया सर्व प्रथम मुसल्मान था, वीरता पूर्वक लड़कर खदेड़ भगाया था। सन् ११९४ ई. के लगभग दिल्ली विजेता मुहम्मद गोरी के भाई मखदूमशाह जूरन गोरी ने अयोध्या पर आक्रमण किया और ऋषभदेव जन्मस्थान के विशाल जिनमंदिर को ध्वस्त करके उसके स्थान पर मसजिद बना दी, किन्तु स्वयं भी युद्ध में मारा गया और उसी स्थान पर दफनाया गया जो अब शाहजूरन का टीला कहलाता है। उसी टीले पर,
पीछे की ओर, आदिनाथ का एक छोटा सा जिनमंदिर तो थोड़े समय पश्चात ही पुनः बनगया किन्तु चिरकाल तक उसका चढ़ावा अयोध्या के बकसरिया टोले में रहने वाले शाहजूरन के वंशज ही लेते रहे।
सन् १३३० ई. के लगभग जैनाचार्य जिनप्रभसूरि ने दिल्ली के सुलतान मुहम्मद बिन तुगलुक से फर्मान प्राप्त करके संघ सहित अयोध्या तीर्थ की यात्रा की थी। उन्होंने अपने विविधतीर्थकल्प के अन्तर्गत अयोध्यापुरीकल्प में लिखा है कि उस समय वहाँ जन्म लेने वाले पांचों तीर्थकरों के मंदिरों के अतिरिक्त, राजा नाभिराय (ऋषभदेव के पिता) का मंदिर, पार्श्वनाथ की बाड़ी, चक्रेश्वरी (ऋषभदेव की यक्षि) की रत्नमयी प्रतिमा, इसके संगी गोमुख यक्ष की मूर्ति, सीताकुंड, सहस्त्रधारा, स्वर्गद्वार आदि जैनधर्मायतन विद्यमान थे, तथा नगर के प्राकार पर मत्तगयंद यक्ष का निवास था, जिसके आगे उस समय भी हाथी नहीं आते थे, जो आते भी थे वे तत्काल मृत्यु को प्राप्त हो जाते थे।
१५२८ ई० में मुगल बादशाह बाबर ने अयोध्या पर आक्रमण करके रामकोट में स्थित रामजन्मस्थान के मंदिर को तोड़ कर मसजिद बनाई लौर उपरोक्त जैन मंदिरों में से भी कुछ को तुड़वाया लगता है। अकबर के उदार शासन में अयोध्या में जैन और हिन्दू मंदिरों का पुनः निर्माण हुआ और तीर्थयात्री भी आने लगे। वस्तुतः मध्यकाल में अयोध्या तीर्थ की यात्रार्थ आनेवाले अनेक जैन यतियों, मुनियों, भट्टारकों, अन्य त्यागियों एवं गहस्थों के उल्लेख प्राप्त होते हैं। नगर के मुहल्ला कटरा में एक टोंक में एक जैन महात्मा के चरणचिन्ह स्थापित हैं, जिन पर अंकित लेख से विदित होना है कि वहाँ सीतल नाम के दिगम्बर जैन मुनिराज ने समाधिमरण किया था, जिसकी स्मृति में ब्रह्मचारी मानसिंह के पुत्र ने बैसाख सुदी ८ सोमवार, संवत् १७०४ (सन् १६४७ ई०-शाहजहाँ के राज्यकाल) में उक्त चरणचिन्हों को प्रतिष्ठापित किया था। यह सीतलमुनि वही प्रतीत होते हैं जो कविवर बनारसीदास के समय में आगरा पधारे थे। स्वयं बनारसीदास अपनी युवावस्था में अपने कई साथियों सहित जौनपुर
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१०- आदि तीर्थंकर भ० ऋषभदेव, अयोध्या
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११–तीर्थंकर सम्भवनाथ का प्राचीन मन्दिर, श्रावस्ती
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१२-नवीन संभव-जिनालय, श्रावस्ती
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से अयोध्या की यात्रा करने आये थे । औरंगजेब के शासनकान में अयोध्या के मंदिरों का पुनः विध्वंस हुआ। अतएव सन् १७२२-२३ ई० में जब सादत खाँ बुरहानुल्मुल्क अवध का सुबेदार नियुक्त हुआ और उसके साथ दिल्ली से आये उसके खजांची ला० केशरीसिंह ने, जो कि अग्रवाल जातीय दिगम्बर जैन थे, अयोध्या के जिनायतनों की दुर्दशा देखी तो उन्होने उनका जीर्णोद्धार कराकर मार्गशीर्ष मुक्ल पूर्णिमा सम्वत् १७८१ (सन् १७२४ ई०) में उनकी पुनः प्रतिष्ठा कराई। इस प्रकार, स्वर्गद्वारी मुहल्ले में आदिनाथ, बकसरिया टोले में अजितनाथ, कटरा मुहल्ला में अभिनन्दननाथ और सुमतिनाथ, तथा राजघाट पर अनन्तनाथ के टोंकों का उक्त ला० केशरी सिंह ने पूननिर्माण कराया था। उसके कुछ वर्ष पश्चात (संभवतया संवत् १९३६-४१ में) कटरा मुहल्ला की सुमतिनाथ टोंक को बीच में लेकर एक अच्छा शिखरबंद मंदिर भी बन गया।
१८९९ में (कार्तिक सुदी १३ सं० १९५६) में लखनऊ के ला० देवीदास गोटेवाले आदि जैन पंचों ने मिलकर उक्त सब टोंकों और कटरा के मंदिर का जीर्णोद्धार कराया तथा मंदिर के सामने एक विशाल धर्मशाला बनाने की नींव भी डाल दी। तदुपरान्त अवध के लखनऊ, बाराबंकी, फैजाबाद आदि जिलों के जैन अयोध्या तीर्थ के रखरखाव एवं विकास में योग देते रहे हैं।
कटरा में दुमंजली धर्मशाला है और उसके सम्मुख स्थित मंदिर में चार बेदियां हैं, जिनमें से एक में भगवान आदिनाथ और उनके दो पुत्रों, भरत और बाहुबलि की खड़गासन मनोज्ञ प्रतिमाएं विराजमान हैं। उसी मुहल्ले में एक चहारदीवारी में बन्द बगीचे के मध्य सुन्दर श्वेताम्बर मंदिर है। राजघाट के अनन्तनाथ मंदिर की स्थिति प्राकृतिक दृष्टि में दर्शनीय है। सन् १९६५ ई० में आचार्य देशभूषण की प्रेरणा और दिल्ली आदि विभिन्न स्यानों के धर्मात्मा जैनों के उत्साह एवं सहयोग से मुहल्ला रायगंज में रियासती बाग के मध्य में एक नवीन भव्य मंदिर का निर्माण हुआ है जिसमें मूलनायक के रूप में एक ३१ फीट ऊँची विशाल एवं मनोज्ञ कायोत्सर्ग प्रतिमा भगवान आदिनाथ की अपूर्व समारोह के साथ प्रतिष्ठित की गई है। अन्य भी कई प्रतिमाएं हैं एवं सुविधाओं से युक्त धर्मशाला भी है। प्रतिवर्ष ऋषभजयन्ति (चैन बदि नवमी) के अवसर पर यहाँ भारी जैन मेला और रथोत्सव भी होता है।
. इस प्रकार आदि जैन तीर्थ अयोध्या के जैन धर्मायतन मात्र जैनों के लिए ही नहीं, सामान्य पर्यटकों के लिए भी दर्शनीय एवं प्रेरणाप्रद हैं। अयोध्या और उसके जैन स्मारक जैन संस्कृति के इतिहास के एक बड़े अंश को अपने में समोये हुए हैं।
एसा पुरी अउज्मा सरऊ-जलसिच्चमाणगढ़मित्ती।। जिणसमयसत्ततित्थीजत्त पवित्तिअ जणा जय ॥ -(वि. ती. कल्प)
श्रावस्ती उत्तर प्रदेश के बहराइच जिले में, बहराइच-बलरामपुर राजमार्ग पर, बहराइच से लगभग ४० कि० मी. तथा बलरामपुर से १८ कि० मी० की दूरी पर स्थित, ४-५ कि० मी० के विस्तार में फैले हुए खंडहरों से प्राचीन महानगरी श्रावस्ती की पहचान की जाती है। चिरकाल से यह स्थान सहेट-महेट के नाम से विख्यात रहता आया है। खंडहरों के मध्य से जाने वाली पक्की सड़क के एक ओर का भूभाग सहेट कहलाता है, जिसमें बौद्ध स्तूप, संघाराम आदि के अवशेष पाये गये हैं और एक नवीन बौद्ध संस्थान विकसित हुआ है। सड़क के दूसरी ओर का भाग महेट कहलाता है, और उसी में जंगल के बीच ऊँचे टीलों से घिरा हुआ, जो मूलतः परकोटा रहा होगा, एक अर्धभग्न प्राचीन जैन मंदिर है, जो भगवान सम्भवनाथ के जन्म स्थान के रूप में प्रसिद्ध है। उसके आसपास
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चन्द्रनाथ और शान्तिनाथ नाम के तीर्थंकरों के मंदिर भी रहे प्रतीत होते हैं। राजमार्ग के सिरे पर, जंगल में प्रवेश करने के पहिले ही दि० जैन तीर्थ क्षेत्र कमिटी श्रावस्ती ने एक नवीन जिनमंदिर का, जिसमें तीर्थंकर सम्भवनाथ की श्वेतपाषाण की चार प्रतिमाएं विराजमान हैं, तथा एक धर्मशाला का निर्माण कराया है।
अचिरावती (राप्ती) तीरवर्ती यह श्रावस्ती भारतवर्ष की एक अत्यन्त प्राचीन महानगरी रही है । प्राचीन साहित्य में कुणाल देश की राजधानी के रूप में उसका उल्लेख बहुधा हुआ है, कभी-कभी उसे कोसल जनपद की राजधानी भी बताया गया है। वस्तुतः कुणाल नाम प्राचीनतर है। जब अयोध्यापति महाराज रामचन्द्र के उपरान्त उनके पुत्रों के बीच कोसल राज्य विभक्त हुआ तो उनके पुत्र लव के गंशजों ने राज्य के उत्तरी भाग पर अधिकृत होकर श्रावस्ती को अपनी राजधानी बनाया, और दूसरे पुत्र कुश के वंशज राज्य के दक्षिणी भाग अयोध्या (साकेत)
राज्य करते रहे। सम्भवतया तभी से श्रावस्ती कोसल या उत्तरी कोसल की राजधानी कहलाने लगी।
महाराज रामचन्द्र से सुदीर्घकाल पूर्ण, श्रावस्ती में जैन परम्परा के तीसरे तीर्थंकर सम्भवनाथ के गर्भ जन्म, तप और ज्ञान नामक चार कल्याणक हुए, कार्तिकी पूर्णिमा को उनका जन्म हुआ था । इक्ष्वाकुगंशी, काश्यप गोत्री श्रावस्तीनरेश महाराज दृढ़रथराय अपरनाम जितारि उनके पिता थे और जननी महारानी सुषेणा थीं। वयस्क होने पर सम्भवनाथ का विवाह हुआ और पिता का उत्तराधिकार प्राप्त करके चिरकाल राज्य का उपभोग किया था। एकदा आकाश में बादलों को छिन्न-भिन्न होते देख उन्हें संसार की क्षणभंगुरता का अहसास हुआ और उन्होंने समस्त राज्य श्वर्य का परित्याग करके श्रावस्ती के निकटवर्ती सहेतुक बन में (संभवतया 'सहेतुक' का ही बिगड़कर 'सहेट' हो गया) १४ वर्ष तक दुर्द्धर तपश्चरण किया। उनका प्रथम पारणा भी श्रावस्ती नरेश सुरेन्द्रदत्त (जो सम्भवतया उनके पुत्र एवं उत्तराधिकारी थे) के घर हुआ। अन्ततः उसी सहेतुक वन में, एक शालवक्ष के नीचे उन्हें केवल ज्ञान प्राप्त हुआ, जिसके उपरान्त उन्होंने शेष जीवन लोक-कल्याण में व्यतीत किया। उनका प्रथम समवसरण एवं धर्म देशना भी श्रावस्ती में ही हुई, चारुषेण उनके प्रधान गणधर थे और आर्यिका धर्मा प्रधान शिष्या थीं।
तदनन्तर, चन्द्रप्रभु, पाश्वनाथ आदि अनेक तीर्थंकरों के समवसरण श्रावस्ती में आये, अनेक जैन कथाओं में इस नगर के उल्लेख आते हैं। महावीर-बुद्ध युग में महाराज रामचन्द्र के वंशज सूर्यवंशी नरेश प्रसेनजित का शासन श्रावस्ती में था । यह नरेश और उसकी महारानी मल्लिकादेवी अत्यन्त उदार, सर्वधर्म-सहिष्णु एवं विद्यारसिक थे । वे तीर्थंकर महावीर और गौतमबुद्ध दोनों का ही समान रूप से आदर करते थे। मक्खलि गोशाल के आजीविक सम्प्रदाय का प्रधान केन्द्र भी यही नगर था। जनता को मनचाहे धर्म का अनुयायी होने की पूरी स्वतन्त्रता थी। भगवान महावीर अपने तपस्याकाल में भी और तीर्थंकर रूप में भी कई बार श्रावस्ती पधारे, यहां उन्होंने वर्षावास भी किये।
प्रसेनजित के उपरान्त श्रावस्ती धीरे-धीरे पतनोन्मुख होती गई, तथापि गुप्तकाल में भी वह कोसलदेश की प्रधान नगरी समझी जाती थी, और हर्षवर्धन के राज्य की श्रावस्ती मुक्ति का केन्द्रालय थी। चीनी यात्रियों फाह्यान और युवानच्वांग ने भी इस नगर की यात्रा की थी। दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दियों में श्रावस्ती में जैनधर्मावलम्बी ध्वजवंशी नरेशों का शासन था। इसी वंश के प्रसिद्ध राजा सुहिलध्वज अपरनाम वीर सुहेलदेव ने १०३२ ई० के लगभग गजनी के सैयद सालार मसऊद गाजी को बहराइच के भीषण युद्ध में ससैन्य समाप्त कर दिया था। सुहेलदेव के पौत्र हरसिंहदेव के समय (११३४ ई०) तक यह राज्य चलता रहा, जब कि कन्नौज के चन्द्रदेव गाहडवाल ने श्रावस्ती पर आक्रमण करके उसे तहस-नहस कर डाला। गाहडवालों के उपरांत यहां १३वीं
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[ ३५ शती के प्रारम्भ से मुसलमानों का अधिकार हो गया, और श्रावस्ती खंडहर होती चली गयी, किन्तु एक महत्वपूर्ण 'धर्म-पत्तन' (त्रिकांड शेष में श्रावस्ती का यह नाम दिया है) के रूप में चलती रही ।
१४ वीं शती ई० के पूर्वार्ध में प्रसिद्ध जैनाचार्य जिनप्रभसूरि ने ससंघ श्रावस्ती की यात्रा की थी और अपने श्रावस्तीनगरी-कल्प में उसका वर्णन किया---'अगण्य गुणगण वाले दक्षिणार्ध भारत में कुणाला विषय (जनपद) की श्रावस्ती नगरी अब 'महेठ' कहलाती है । यहां आज भी गहन घन वन के मध्य श्री सम्भवनाथ विभूषित, गगनचुम्बी शिखर एवं पाश्वंस्थित जिनबिम्बमण्डित देवकुलिका से अलंकृत, प्राकार परिवृत्त, जिनालय विद्यमान है। उस चैत्य के द्वार से अनतिदूर वल्लि-उल्लसित, अतुल्य पल्लवों की स्निग्ध छाया वाले तथा बड़ी बड़ी शाखाओं वाले अभिराम रक्त-अशोक वृक्ष दीख पड़ते हैं। इस जिनालय की प्रतोली के कपाट-सम्पुट मणिभद्र यक्ष के प्रभाव से सर्यास्त होते ही स्वयमेव बन्द हो जाते हैं और सूर्योदय के साथ ही खल जाते हैं। सुलतान अलाउदीन (खलजी) के सर्दार मलिक हवस ने बहराइच से यहां आकर मन्दिर के प्राकार, दीवारों, कपाटों तथा अनेक जिन प्रतिमाओं को भग्न कर डाला था। श्रावस्ती तीर्थ में यात्री संघ के आने पर स्नान महोत्सव के समय चैत्य शिखर पर एक चीता आकर बैठ जाता है, जो किसी को भय नहीं करता और मंगलदीप होने पर स्वतः चला जाता है।' इसी नगर में पूर्वकाल में कौशाम्बी राज्य के मन्त्रीपुत्र कपिल ने अपने पिता के मिन इन्द्रदत्त से शिक्षा प्राप्त की और शालिभद्र सेठ की दासी के वचनों से प्रभावित हो तप किया, पांच सौ दस्युओं को प्रतिबोध दिया और सिद्धि प्राप्त की। जामालि-निन्हव भी इसी नगर के तिर्दुक उद्यान में हुआ था, और वहीं पार्श्वपरम्परा के प्रतिनिधि के शिमुनि और महावीर के गणधर गौतम के बीच इतिहास प्रसिद्ध संवाद हुआ था। स्कन्दाचार्य, भद्रमुनि, ब्रह्मदत्त आदि कई प्रसिद्ध मुनियों का सम्बन्ध इस नगर से रहा । जिनप्रभसूरि कहते हैं कि 'इस प्रकार अनेक संविधानक रत्नों की उत्पत्ति रूप इस श्रावस्ती महातीर्थ की भूमि रोहणाचल जैसी है।'
इसके उपरान्त शनैः शनैः यह तीर्थ खंडहरों से भरे वनखण्ड में परिणत होता गया। सन् १८६२ ई० में जनरल कनिंघम ने यहां पुरातात्त्विक सर्वेक्षण एवं खुदाई प्रारम्भ की। प्रारम्भ में विद्वानों को इस स्थान के श्रावस्ती होने में सन्देह रहा, किन्तु १८७५ ई० में डा० हे द्वारा एक शिलालेख की तथा १९०९ में सर जान मार्शल द्वारा एक ताम्रपत्न की प्राप्ति ने यह तथ्य असंदिग्ध कर दिया कि 'सहेट-महेट' ही प्राचीन श्रावस्ती है ।
स्वयं जैनों को तो अपने इस पवित्र तीर्थ की स्थिति में कोई सन्देह नहीं रहा और वे उसे उसी रूप में मानते आ रहे हैं। महेठ के जैन भग्नावशेषों में अनेक प्राचीन मनोज्ञ जिन प्रतिमाएं मिली हैं जिनमें से कुछ तो दिल्ली, लखनऊ, मथुरा आदि के राज्य संग्रहालयों में पहुंचगई और कुछ बहराइच के जिन मन्दिरों में। नवीन मन्दिर एवं धर्मशाला बन जाने से यात्रियों की सुविधा एवं आकर्षण पर्याप्त बढ़े हैं, किन्तु धराशायी होते जा रहे प्राचीन सम्भवनाथ मन्दिर के जीर्णोद्धार एवं सुरक्षा और उसके आस-पास प्राचीन जैन कलावशेषों की विधिवत खोज की आवश्यकता है। बौद्ध संस्थान एवं स्मारकों के कारण यह स्थान देश-विदेश के पर्यटकों को भी आकर्षित करता है।
कौशाम्बी
उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद जिले की तहसील मंझनपुर परगना किरारी में, इलाहाबाद नगर से लगभग ५० कि० मी० दक्षिण-पश्चिम में, यमुना नदी के उत्तरी तट पर स्थित कोसम इनाम और कोसम खिराज नाम के संयुक्त महालों (गांवों) से प्राचीन इतिहास प्रसिद्ध महानगरी कौशाम्बी की पहिचान की गई है। इलाहाबाद से सराय आकिल तक पक्की सड़क है जिस पर मोटर बसें चलती हैं, उससे आगे कच्ची सड़क है जिस पर तांगे द्वारा
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जाया जा सकता है। प्राचीन नगरी के भग्नावशेष मीलों के विस्तार में फैले हुए हैं। सन् १९६१ में सुप्रसिद्ध पुरातात्त्विक सर्वेक्षक जनरल कनिंघम को बाबू शिवप्रसाद से यह सूचना प्राप्त हुई थी कि 'इलाहाबाद से ३० मील पर स्थित कोसम नाम का गांव अभी तक कौशाम्बी-नगर के नाम से प्रसिद्ध है, यह अब तक भी जैनों का महान तीर्थ है और एक सौ वर्ष पहले तक यह एक बड़ा समृद्ध नगर था।' इसी सूचना से बल प्राप्त करके कनिंघम ने अन्ततः १८७१ ई० में कोसम के साथ कौशाम्बी का सुनिश्चित समीकरण घोषित कर दिया था।
प्राचीन वत्सदेश या वत्स महाजनपद की राजधानी इस कौशाम्बी नगर का सर्वप्राचीन जैन प्रसंग छठे तीर्थकर पद्मप्रभु के साथ है। वह कौशाम्बी के इक्ष्वाकुवंशी, काश्यपगोत्री राजा धरण और उनकी रानी सुसीमा के पुत्र थे। इसी नगरी में उनके गर्भ और जन्म कल्याणक हुए, जिससे वह पवित्र महातीर्थ बनी (सा कोसम्बी नगरी जिणजन्म पवित्तिउ महातित्थं) । भगवान नमिनाथ (२१ वें तीर्थंकर) के तीर्थ में इसी नगरी के इक्ष्वाकुवंशी राजा विजय और रानी प्रभाकरी का पुत्र, ११ वां चक्रवर्ती जयसेन हुआ था। तीर्थंकर पार्श्वनाथ भी कौशाम्बी में धर्मदेशनार्थ पधारे थे।
अन्तिम तीर्थंकर वर्धमान महावीर का तो कौशाम्बी के साथ घनिष्ट सम्बन्ध रहा । उसकाल में कुरुवंश की एक शाखा में उत्पन्न सहस्रानीक का पुत्र शतानीक कौशाम्बी नरेश था। उसकी पटरान
की मृगावती नैशाली के अधिपति चेटक की पुत्री और भगवान महावीर की मौसी तथा उनकी परम भक्त थी। राजा शतानीक भी महावीर का बड़ा आदर करता था । इन्हीं दोनों का पुत्र ही वह सुप्रसिद्ध वत्सराज उदयन था जो गजविद्याविशारद, अपनी हस्तिकान्त वीणा पर प्रियकान्त स्वरों का अप्रतिम साधक, प्रद्योतपुत्री वासवदत्ता का रोमांचक प्रेमी और अनेक लोककथाओं का नायक रहा। उदयन भी महावीर का समादर करता था और उसकी प्रिया वासवदत्ता उनकी उपासिका थी। उदयन के जन्म के कुछ पूर्ण की घटना है कि भगवान महावीर अपने द्वादशवर्षीय तपकाल के अन्तिम वर्ष में, चार मास के उपवास के उपरान्त पारणा करने के लिए कौशाम्बी पधारे । उन्होंने एक बड़ा अटपटा अभिग्रह (वज्र संकल्प) किया था, जिसके कारण ५ मास २४ दिन तक वह नित्य नगर में आहार के लिए आते रहे, किन्तु क्योंकि ली हुई आखड़ी पूरी नहीं होती थी, नित्य निराहार ही वापस लौट जाते थे। अन्ततः अज्ञात कुलशील, क्रीतदासी चन्दना के हाथों से, जो उस समय कई दिन की भूखी-प्यासी, मलिन तन, जीर्ण-शीर्ण वस्त्र, हथकड़ी-बेड़ियों में बंधी, अपने स्वामी के घर की देहली पर, हाथ में सूप में अधपके उड़द के बाकले लिए, विषाद एवं दीनता की साक्षात् मूर्ति बनी खड़ी थी, भगवान का अभिग्रह पूरा हुआ । उन्होंने वही आहार ग्रहण करके अपने सुदीर्घ उपवास का पारणा किया। पंचाश्चर्य की वृष्टि हुई, राजा-प्रजा समस्त जन उमड़ पड़े, चतुदिक जयजयकार गंज उठा। चन्दना-उद्धार की इस अभतपूर्ण घटना द्वारा तीर्थंकर महावीर ने कुत्सित दास प्रथा का उन्मूलन एग एक महान सामाजिक क्रान्ति का सूत्रपात इस कौशाम्बी नगरी में ही किया था। कालान्तर में यह महाभाग चन्दनबाला ही महावीर के आर्यिका संघ की अध्यक्षा के पद पर प्रतिष्ठित हुई। महावीर के एक गणधर, मेतार्य, का जन्म भी कौशाम्बी के तुंगिय संनिवेश में हुआ था।
कौशाम्बी नरेश शतानीक की मृत्यु के उपरान्त जब अवन्ति नरेश चंड प्रद्योत ने वत्स देश पर आक्रमण किया तो, भगवान महाबीर नगर के बाहर समवसरण में विराजमान थे। उनके प्रभाव से दोनों राज्यों में सद्भाव स्थापित हुआ। उक्त संकटकाल में राजमाता मृगावती ने बड़े धैर्य, बुद्धिमत्ता एवं वीरता के साथ अपने राज्य, पूत्र एवं सतीत्व की रक्षा की थी-प्रद्योत की उस पर लोलुप दृष्टि थी। अपने पुत्र उदयन के जीवन, स्थिति और राज्य को निष्कंटक करके तथा कुशल मन्त्री युगन्धर के हाथों में सौंप कर सती मृगावती ने जिनदीक्षा ले ली और
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आर्या चन्दना के संघ में सम्मिलित होकर शेष जीवन आत्मसाधनार्थं तपस्या में व्यतीत किया। उसी के साथ चंडप्रद्योत की रानी अंगारवती भी आर्यिका बन गई।
भगवान महावीर के निर्वाणोपरान्त भी चिरकाल पर्यन्त कौशाम्बी जैन संस्कृति का महत्वपूर्ण केन्द्र बनी रही, और यहाँ अनेक जैन मुनियों का उन्मुक्त विहार होता रहा। तीसरी शती ई० पूर्व में आर्य महागिरि और सम्प्रति मौर्य प्रबोधक आर्य सुहस्ति का यहां आगमन हुआ था। उत्तर बलिस्सह गण के जैन साधुओं की एक शाखा भी कोसंबिया कहलाई थी।
कौशाम्बी के खंडहरों में अनेक जैन अवशेष प्राप्त हुए हैं, जिनमें ईस्वी सन् के प्रारम्भ का लाल बलुए पत्थर का, मथुरा की ही शैली में निर्मित, एक जैन आयागपत्र, २री शती ई० में राजा भद्रमघ के शासनकाल में कौशाम्बी के पत्तनकार (नगर-नियोजक) शपर तथा मांगनी द्वारा निर्मापित मन्दिर तोरण (१६४ ई.) और उन्हीं के द्वारा एक पुष्करिणी के तट पर आचार्य आर्यदेव के लिए निर्मापित दो प्रस्तरमयी आसनपट (१६५ ई०) विशेष उल्लेखनीय हैं। कुषाण एवं गुप्तकालों की अनेक खंडित जिनप्रतिमाएँ भी मिली हैं। ध्वंसावशेषों में देवड़ा टीले पर नये मंदिर से लगभग ५० गज की दूरी पर ११वीं शती ई० की अनेक जैन मूर्तियां प्राप्त हुई हैं, जो उस काल में वहाँ एक विशाल मन्दिर के विद्यमान रहने की सूचक हैं । जिनप्रभसूरि (१४वीं शती) ने भी कौशाम्बी की यात्रा की थी और कौशाम्बी के निकटवर्ती बसुहार गाँव में एक प्रसिद्ध जैन मंदिर के होने का उल्लेख किया था। चीनी यात्री युवानच्चांग ने (७वीं शती में) कौशाम्बी के जिन ५० देवमंदिरों का उल्लेख किया है, उनमें से न जाने कितने जैन मंदिर रहे होंगे।
१८३४ ई० में कौशाम्बी के देवड़ा टीले पर प्राचीन मन्दिर की स्मृति को पुनरुज्जीवित करने के लिए एक नवीन मन्दिर का निर्माण इलाहाबाद आदि के जैनों ने कराया था। अभी हाल में कौशाम्बी में एक श्वेताम्बर मंदिर और धर्मशाला का निर्माण प्रारम्भ हुआ है। पभोसा तीर्थ भी कौशाम्बी के निकट ही है (आगे देखें)।
वाराणसी
गंगमांहि आइ धसी दै नदी बरूना असी,
बीच बसी बनारसी नगरी बखानी है। कसिवार देस मध्य गांउ तात कासी नांउ,
श्री सुपास-पास की जनमभूमि मानी है। तहां दुहूं जिन सिवमारग प्रकट कीनों,
तब सेती शिवपुरी जगत में जानी है।
-कविवर बनारसीदास
वाराणसी, काशी, शिवपुरी, विश्वनाथपुरी आदि नामों से प्रसिद्ध, पुण्यतोया भागीरथी के तट पर. वरुणा एवं असी नामक सरिताद्वय के मध्य स्थित महानगरी भारतवर्ष की सर्वप्राचीन एवं सर्वाधिक महत्वपर्ण नगरियों में ही नहीं है, वरन् चिरकाल से धर्म, संस्कृति एवं विद्या का सर्वोपरि केन्द्र रहती आई है। वस्तुतः काशि देश या जनपद का नाम था और उसकी राजधानी यह वाराणसी (अपभ्रष्ट-बनारस) थी। भगवान आदिनाथ ऋषभदेव के समय में ही इस नगर की स्थापना हो चुकी थी। उस समय काशि राज्य के अधिपति अकंपन थे.
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३८ ]
जिनकी सुन्दरी पुत्री सुलोचना के लिये भरत चक्रवर्ती के पुत्र अर्ककीति और सेनापति मेघेश्वर जयकुमार के बीच संघर्ष हुआ। द्वन्द्व के समाधान के लिए सुलोचना का स्वयंवर रचा गया और उसमें उसने चक्रवर्ती पुत्र की उपेक्षा करके वीर जयकुमार का वरण किया। सुलोचना की गणना जैन परम्परा की सोलह आदर्श सतियों में की जाती है।
इसी नगर में, कलान्तर में, ७वें तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ के गर्भ-जन्म-तप-ज्ञान, चार कल्याणक हुए। उनके जन्म स्थान की पहचान वाराणसी के भदैनी क्षेत्र से की जाती है, जहाँ गंगातट पर उनके नाम का जिनालय बना है। उससे लगा हुआ ही स्याद्वाद महाविद्यालय का भवन एवं छात्रावास है। भगवान सुपार्श्वनाथ इक्ष्वाकुवंश में उत्पन्न काशि नरेश सुप्रतिष्ठ तथा महारानी पृथिवीषेणा के सुपुत्र थे। उन्होंने वाराणसी में चिरकाल राज्यभोग करके संसार का त्याग किया, निकटवर्ती वन में तपस्या की और वहीं केवलज्ञान प्राप्त किया तथा अपने धर्मतीर्थ का प्रवर्तन किया था।
२३वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ (ईसापूर्व ८७७-७७७) का जन्म भी काशिदेश की इसी मुकुटमणि वाराणसी नगरी में उरगवंशी, काश्यपगोत्री महाराज अश्वसेन (मतान्तर से विश्वसेन) की महारानी वामादेवी की कुक्षि से हुआ था। राजकुमार पाव प्रारंभ से ही अत्वन्त शूरवीर, रणकुशल, मेधावी, चिन्तनशील एवं दयालु मनोवृत्ति के थे। कुमारावस्था में ही उन्होंने संसार का परित्याग करके दुर्द्धर तपश्चरण किया था, और केवलज्ञान प्राप्त करके अपना धर्मचक्र प्रवर्तन किया था । वाराणसी के भेलपुर क्षेत्र से उनके जन्मस्थान की पहचान की जाती है, जहाँ एक विशाल जिनमंदिर उनकी स्मति में विद्यमान है। उनके जन्म के कुछ काल पूर्व जैन परम्परा का १२वां चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त भी काशी में हुआ था।
जैन साहित्य में महावीर युग में काशि और कोसल के १८ गणराजाओं का उल्लेख आता है, जो सब महावीर के भक्त थे और उनका निर्वाणोत्सव मनाने के लिए पावा में एकत्रित हुए थे। काशि के राजा जितशत्रु ने भगवान महावीर का अपने नगर में भारी स्वागत किया, इसी नगर के एक अन्य राजा शंख ने तो उनसे जिनदीक्षा ली थी। वाराणसी की राजकुमारी मुण्डिका महावीर की परम भक्त थी। वाराणसी में ही चौबीस कोटि मुद्राओं के धनी सेठ चलिनीपिता, उसकी भार्या श्यामा, सेठ सुरादेव और उसकी पत्नी धन्या, आदि भगवान महावीर के आदर्श उपासक-उपासिका थे । अनेक जैन पुराणकथाओं के साथ काशि देश और वाराणसी नगरी जुड़े हैं।
२री शती ई० में दक्षिण के महान जैनाचार्य समन्तभद्र स्वामी ने वाराणसी में आकर वादभेरी बजाई थी और ५वीं शती में पंचस्तूपनिकाय के काशिवासी आचार्य गुहनन्दि दूर-दूर तक प्रसिद्ध थे-सुदूर बंगाल में भी उनके शिष्य-प्रशिष्य फैले थे। सुपार्श्व एवं पाव की इस पवित्र जन्मभूमि की यात्रा करने के लिए देश के कोने-कोने से जैनीजन बराबर आते रहे हैं । विद्या का महान केन्द्र होने के कारण अनेक जैन विद्वानों ने दुर-दूर से आकर वाराणसी में शिक्षा प्राप्त की। मध्यकाल में जिनप्रभसूरि, पं० बनारसीदास, यशोविजयजी आदि यहाँ पधारे और वर्तमान शताब्दी के प्रारंभ में पं० गणेश प्रसाद वर्णी, बाबा भागीरथ वर्णी आदि जैन सन्तों ने यहीं स्याद्वाद महाविद्यालय की स्थापना की। आचार्य यशोविजय पाठशाला भी चलती थी, और अब पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वर्णी शोध संस्थान, वर्णी ग्रन्थ माला आदि अनेक जैन सांस्कृतिक प्रवृत्तियों का यह महानगरी केन्द्र है। अनेक जैन मंदिर धर्मशालाएँ आदि यहाँ हैं और दर्जनों जैन विद्वान भी निवास करते हैं । राजघाट आदि से खुदाई में प्राचीन जैन मूत्तियां भी मिली हैं।
गद्धोदकेन च जिनम जन्मना च प्राकाशि काशिमगरी न गरीयसी कैः ।।
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चन्द्रपुरी
चन्द्रपुरी अपरनाम चन्द्रपुर, चन्द्रावती, चन्द्रानन और चन्द्रमाधव की वाराणसी से लगभग २० कि० मी. दूर गंगातट पर बसे हुए तन्नाम गांव से पहचान की जाती है। इस नगर के इक्ष्वाकुवंशी, काश्यपगोत्री महाराज महासेन की महादेवी लक्ष्मणा के गर्भ से आठवें तीर्थंकर चन्द्रनाथ (चन्द्रप्रभु) का जन्म हुआ था। इसी स्थान में उनके गर्भ, जन्म, तप और ज्ञान कल्याणक हुए थे। गंगातट पर सुरम्य प्राकृतिक वातावरण के मध्य भगवान चन्द्रनाथ का मंदिर बना है, पास ही चन्द्रावती गाँव में भी उनका एक मंदिर है। प्रतिवर्ष हजारों जैन तीर्थयात्री यहाँ दर्शनार्थ आते रहते हैं । वाराणसी से बस द्वारा चन्द्रपुरी पहुंचा जाता है।
काकंदी
नवम् तीर्थंकर पुष्पदन्त की पवित्र जन्मभूमि की पहचान पूर्वी उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले में नौनखार रेल स्टेशन से लगभग ३ कि० मी० दक्षिण-पश्चिम की ओर स्थित खुखुन्दो नामक छोटे से ग्राम से की जाती है। गांव के बाहर घने जंगल के बीच कई बड़े-बड़े तालाब और तीस छोटे-बड़े टीले लगभग २ कि. मी० के विस्तार में फैले पड़े हैं, जो प्राचीनकालीन महानगरी काकंदी के ही मन्दिरों, भवनों आदि के भग्नावशेष हैं। खखन्दों के निवासी एवं शिवाजी इण्टर कालेज के प्रवक्ता पं. रामपूजन पाण्डेय ने अपनी पुस्तक 'अथ ककुत्स्थ-चरित्र' में यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि तीर्थंकर पुष्पदन्त का ही अपर नाम ककुत्स्थ था, वह मनुपुत्र इक्ष्वाकु के निकट गंशज थे, उन्होंने यह काकुत्स्थनगरी, जो काकंद नगरी भी कहलाई, बसाई थी, और यही राजा दशरथ (महाराज रामचन्द्र के पिता) पर्यन्त उनके गंशजों की जन्मभूमि रही । अपने मत की पुष्टि पाण्डेय जी ने ब्राह्मणीय पुराणों एवं अन्य ग्रन्थों से की है। इस नगरी का एक अन्य नाम किष्किधापुर भी मिलता है। किन्तु मूल एवं लोकप्रिय नाम काकन्दी या काकंदनगर ही रहा प्रतीत होता है-उसी का बिगड़कर खुखुन्द या खुखुन्दो बन गया।
जैन मान्यता के अनुसार काकंदी नगरी के इक्ष्वाकुवंशी काश्यपगोत्री क्षत्रिय नृप सुग्रीव की पटरानी जयरामा की कुक्षि से मार्गशीर्ष शुक्ल प्रतिपदा के दिन भगवान पुष्पदन्त का जन्म हुआ था, वहीं उन्होंने चिरकाल ,पर्यन्त राज्य किया, और एक दिन उल्कापात के दृश्य को देखकर संसार से विरक्त हुए तथा पुत्र सुमति को राज्य भार सौंपकर निकटवर्ती पुष्पकवन में तपश्चरण किया। उनका प्रथम पारणा शैलपुर के राजा पुष्पमित्र के घर हुआ, और तदनन्तर उसी दीक्षावन में एक नागवृक्ष के नीचे उन्हें केवलज्ञान हुआ था। तिलोयपण्णति, वरांगचरित, उत्तरपुराण, आशाधरकृत त्रिषष्टिस्मृतिशास्त्र आदि ग्रन्थों से उपरोक्त तथ्य प्रमाणित हैं। भगवती आराधना और बृहत्कथाकोष में अभयघोषमुनि की कथा प्राप्त होती है, जिन्हें काकंदी नगरी में उनके गैरी चण्डवेग ने सर्वांग छेदछेदकर मारणान्तक उपसर्ग किया था, और फलस्वरूप उक्त मुनिराज ने सिद्धत्त्व प्राप्त किया था। नायधम्मकहा में काकंदी नगरी के एक व्यापारी की कथा आती है जो बड़े-बड़े जलपोतों को लेकर व्यापारार्थ रत्नद्वीप गया था. किन्तु भयंकर समुद्री तूफान में उसके जहाज नष्ट हो गये थे और वह जैसे-तैसे प्राण बचाकर घर वापस लौटा था। इन उल्लेखों से पता चलता है कि किसी समय काकंदी एक अत्यन्त समृद्ध नगरी थी; न तीर्थंकर के चार कल्याणकों की पुण्यस्थली होने के कारण पवित्र तीर्थस्थान एवं सांस्कृतिक केन्द्र भी बन गई।
खुखुन्दो के उपरोक्त टीलों एवं खण्डहरों का पुरातात्त्विक सर्वेक्षण १८६१-६२ ई० में जनरल कनिंघम ने किया था, जिसमें उसे यहां के प्राचीन जैन एवं शैव चैष्णवादि मन्दिरों की विपुल सामग्री प्राप्त हुई थी। जैन अवशेषों में टीले-बी० से प्राप्त शिशु तीर्थंकर आदिनाथ सहित कल्पवृक्ष के नीचे बैठे नाभिराय एवं मरुदेवी की
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मूर्ति तथा चतुर्भुजा चक्रेश्वरी की मूर्ति, टीले-डी. पर मृगलांछन तीर्थंकर शान्तिनाथ चौबीसी-पट (खंडित), नाभिरायमरुदेवी की पूर्वोक्ता जैसी मूर्ति (ऐसी मूत्तियाँ अहिच्छत्रा, मथुरा, देवगढ़ आदि अन्य जैन केन्द्रों में भी प्राप्त हुई हैं); टीले जी. एनं एच. पर भी जैन मन्दिरों के कुछ अवशेष मिले थे; टीले-जे. पर एक छोटा सा प्राचीन जैन मन्दिर प्रायः सुरक्षित था जहां, कनिंघम के कथनानुसार, अग्रवाल श्रावक, बनिये और साहुकार पटना, गोरखपुर आदि आस-पास के जिलों से दर्शनार्थ बहुधा आते रहते थे। इस मन्दिर में वृषभलांछन तीर्थंकर ऋषभनाथ की नील पाषाण की विशाल एवं मनोज्ञ पद्मासनस्थ प्रतिमा तब विद्यमान थी-प्रतिमा के सिर के ऊपर त्रिछत्र, पीछे भामंडल, इधर-उधर देवदुन्दुभि आदि परिकर अंकित थे। लोग भ्रमवश इस प्रतिमा को 'नाथ' या पार्श्वनाथ नाम से जानते थे । वस्तुतः, मन्दिर के बाहर एक खंडित प्रतिमा पार्श्वनाथ की भी थी, जो सम्भवतया मूलत: मंदिर की मूलनायक रही हो किन्नु किसी कारण खण्डित हो जाने से उसे बाहर पधरा दिया गया और वेदी में ऋषभनाथ की प्रतिमा विराजमान कर दी गई। इस टीले पर पूर्वोक्त जैसी एक युगलिया मूर्ति भी पाई गई थी। टीला-के. पर विशाल भवनों के अवशेष पाये गये औरटीला-एन. पर 'जुगवीर' (युगवीर) नाम से प्रसिद्ध एक मूर्ति मिली थी, जो संभवतया भगवान महावीर की होगी। टीला-जेड. पर अनेक भग्नावशेष प्राप्त हुए, जिनमें से एक तीर्थंकर की गन्धकूटी में विराजित सर्वतोभद्र प्रतिमा का था, और सम्भवतया भगवान पुष्पदंत का ही स्मारक हो।
कनिघम साहब ने स्वीकार किया था कि उन्होंने खुखन्दों का केवल प्राथमिक ऊपरी सर्वेक्षण किया था और भग्नावशेषों को देखते हए वहाँ विपूल पुरातात्त्विक सामग्री मिलने की संभावना है, और यह कि नालन्दा के अतिरिक्त थोड़े ही स्थान ऐसे होंगे जहाँ काकंदी जैसी सामग्री मिले। कनिंघम के उक्त सर्वेक्षण की रिपोर्ट १८७१ ई० में प्रकाशित हुई थी । तब से और भी जैन अवशेष वहाँ निकलते रहे हैं, किन्तु उचित सुरक्षा के अभाव में पुरानी कलाकृतियाँ लुप्त भी होती रही हैं। कनिंघम के अनुसार जनता में खुखुन्दों के ये टीले 'देउरा' नाम से प्रसिद्ध थे, और यह नाम जिनमंदिरों के लिए विशेषरूप से प्रयुक्त होता है।
अस्तु, तीर्थंकर की जन्मभूमि, कल्याणकभूमि, जैन संस्कृति का प्राचीन केन्द्र और कलाधाम काकंदी, उपनाम खुखुन्दों, एक अच्छा पर्यटक स्थल बन सकता है यदि वहाँ समुचित उत्खनन, खोज, अवशेषों की सुरक्षा एवं जिनका संभव हो उनके जीर्णोद्धार का प्रयत्न किया जाय और गाँव को रेल स्टेशन से जोड़ने वाले मार्ग को पक्का करा दिया जाय ।
सिंहपुरी
११वें तीर्थंकर श्रेयांसनाथ के जन्मस्थान सिंहपुरी या सिंहपुर की पहचान वाराणसी नगर से लगभग १० कि० मी० उत्तर की ओर स्थित सारनाथ (सारङ्गनाथ) अपरनाम इसिपत्तन (ऋषिपत्तन) से की जाती है। इसी सिंहपुर में इक्ष्वाकुवंशी नरेश विष्णु की वल्लभा रानी नन्दा के गर्भ से फाल्गुन कृष्ण एकादशी के दिन तीर्थंकर श्रेयोनाथ या श्रेयांसनाथ का जन्म हुआ था। चिरकाल राज भोग कर उन्होंने नगर के निकटवर्ती मनोहर नामक उद्यान में तप किया और वहीं केवलज्ञान प्राप्त किया था। सिंहपुरी (सारनाथ) में तीर्थंकर श्रेयांसनाथ का एक विशाल एवं दर्शनीय जिनमंदिर विद्यमान है, जहाँ सैकड़ों यात्री दर्शनार्थ आते रहते हैं । मन्दिर के निकट ही सारनाथ के सुप्रसिद्ध बौद्ध स्तूप, बुद्धमंदिर, विहार आदि अवस्थित हैं।
इसी सिंहपुर में राजा सिंहसेन के समय में उत्तरपुराण में वर्णित भद्रमित्र और सत्यघोष की कथा घटित
हुई थी।
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काम्पिल्य
१३वें तीर्थंकर, वराहलांछन विमलनाथ के गर्भ एवं जन्म की पवित्र भूमि और प्राचीन दक्षिण-पांचाल जनपद की राजधानी, महानगरी काम्पिल्य की पहचान प्रदेश के फर्रुखाबाद जिले की कायमगंज तहसील में, कायमगंज रेलवे स्टेशन से लगभग ८ कि. मी. की दूरी पर, पक्की सड़क के किनारे स्थित वर्तमान कपिल नामक गांव से की जाती है। गंगा की एक पुरानी धारा गांव के पास से बहती थी। जैन अनुश्रुतियों के अनुसार काम्पिल्य या कंपिला भी भारत की अत्यन्त प्राचीन नगरियों में से है । भगवान ऋषभदेव का विहार यहां हुआ था, तथा जब ऋषभपुत्र बाहुबलि ने मुनिदीक्षा ली थी तो उन्हीं के साथ उनके सहचर काम्पिल्य के राजकुमार ने भी दीक्षा ले ली थी।
इसी महानगरी में भगवान ऋषभदेव के वंशज महाराज कृतवर्मा की महादेवी जयश्यामा ने माघ शुक्ल चतर्थी के दिन तीर्थकर विमलनाथ (विमलवाहन) को जन्म दिया था। राज्यभोग के उपरान्त उन्होंने नगर के निकटवर्ती वन में जाकर दीक्षा ली, तप किया, केवलज्ञान प्राप्त किया और तदनन्तर अपने उपदेश द्वारा लोक कल्याण किया।
कालान्तर में इसी नगर में हरिषेण नाम का चक्रवर्ती सम्रटि हुआ, जिसकी जननी भी परम जिनभक्त आदर्श श्रविका थी। महाभारत काल में पांचाल अरेश द्रुपद इस नगर का राजा था-कहीं-कहीं द्रुपद की राजधानी का नाम माकंदी लिखा है, संभव है कि यह कम्पिला का ही अपर नाम रहा हो। द्रुपददुहिता द्रौपदी हस्तिनापुर के करुवंशी पंचपांडवों की पत्नी थी, उसकी गणना आदर्श सतियों में की जाती है। भगवान पार्श्वनाथ और महावीर का आगमन भी कम्पिला में हुआ था। एक अनुश्रुति के अनुसार ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती भी इसी नगर में हुआ था । जैन पराणों एवं कथाग्रन्थों में कम्पिला के धर्मवीरों, धनकुबेरों एवं मनीषियों के अनेक प्रसंग मिलते हैं।
वर्तमान में यहाँ एक पर्याप्त प्राचीन दिगम्बर जैन मंदिर विद्यमान है जिसमें श्यामल मंगिया पाषाण की पुरुषाकार पद्मासनस्थ प्रतिमा भगवान विमलनाथ की मूलनायक के पद पर विराजमान है। यह प्रतिमा लगभग सत्तरह-अठारह सौ वर्ष प्राचीन अनुमान की जाती है और जमीन में दबी पड़ी थी जहाँ से संयोग से उसका उद्घाटन इक्षा । प्रतिमा बडी मनोज्ञ एवं अतिशयपूर्ण हैं। आसपास के खंडहरों, गंगा के खादर व टीलों आदि से अन्य भी कई खंडित-अखंडित जिनप्रतिमाएं प्राप्त हुई हैं। मंदिर में और भी कई मनोज्ञ प्रतिमाएँ हैं । एक अच्छी धर्मशाला भी है। तीर्थ का प्रबन्ध एक तीर्थक्षेत्र कमेटी करती है। यहाँ द्रुपदटीले के निकट एक पुराना श्वेताम्बर मंदिर भी वर्णनीय है। मध्यकाल में भी अनेक जैन तीर्थ यात्री कम्पिला जी के दर्शनार्थ आते रहे, और इसी कारण इस प्राचीन महानगरी की स्थिति, स्मृति आदि सुरक्षित रही आयी । इस क्षेत्र पर प्रतिवर्ष चैत्रवदि १५ से चैत्रसुदी ४ तक, पांच दिन का जैन मेला, रथोत्सवादि होते हैं, और अश्विन बदि २ से ४ तक भी एक मेला होता है।
रत्नपुरी फ़ैजाबाद जिले में, फैजाबाद-लखनऊ रेल मार्ग के सोहावल स्टेशन से लगभग २ कि० मी० उत्तर की ओर स्थित रोनाई (नौराइ) नामक गांव से १५वें तीर्थंकर धर्मनाथ की जन्मभूमि रत्नपुरी, रत्नपुर या रत्नवाह की पहचान की जाती है। यहाँ दो दिगम्बर एवं एक श्वेताम्बर, तीन पुराने जैन मंदिर हैं, एक धर्मशाला भी है। अयोध्या तीर्थ क्षेत्र कमिटी ही रत्नपुरी का भी प्रबन्ध करती है, किन्तु व्यवस्था सन्तोषजनक नहीं रहती। मंदिरों में मूर्तियाँ मनोज्ञ हैं।
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इसी रत्नपुर के कुरुवंशी नरेश भानु की महादेवी सुप्रभा ने माघ शुक्ल १३ के शुभ दिन तीर्थंकर धर्मनाथ को जन्म दिया था। इन्होंने भी राज्य का उपभोग किया, वैराग्य लिया, तप किया और केवल ज्ञान प्राप्त करके धर्म प्रचार किया था। इनका तप एवं ज्ञान स्थान रत्नपुरी का निकटवर्ती शालवन नामक उद्यान था।
धर्म यस्मिन समुद्भूता धर्मदश सुनिर्मलाः । स धर्मः शर्म मे दद्यावधर्मपहत्य मः॥
हस्तिनापुर अथास्मिन मारतेवर्षे विषयः कुरुजाङ्गलः । आर्यक्षेत्रस्य मध्यस्थः सर्वधान्याकरो महान् ॥ हास्तिनाख्यापुरी तस्य शुमा नामिरिवावमौ । भृशं देशस्य देहस्य महती मध्यवतिनी ।।
-उत्तरपुराण
मागीरथी सलिल संग पवित्रमेतत् । जीयाच्चिरं गजपुरं भुवितीर्थरत्नम् ॥ हस्तिनापुर मित्याहुरनेकाश्चर्य सेवधिम् ।।
-वि० ती० कल्प
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मेरठ जिले की मवाना तहसील में, मेरठ नगर से लगभग २० कि० मी. उत्तर तथा मवाना से ८ कि० मी० दूर स्थित, वनखंड के मध्य ऊँचे-नीचे टीलों की श्वखला तथा जैन मंदिरों से युक्त वर्तमान हस्तिनापुर उस प्राचीन पुराण एवं इतिहास प्रसिद्ध महानगरी का प्रतिनिधित्व करता है जो भारत की आद्य महानगरियों में परिगणित, सोम-पुरु-भारत-कुरु आदि क्षत्रियवंशों की रङ्गस्थली, तीर्थंकरों की जन्म एवं तपोभूमि, अनेक चक्रवर्ती सम्राटों के साम्राज्य का हृत्स्थल, कौरव-पांडव द्वन्द्व की रंगभूमि, विविध संस्कृतियों का पावन संगम, आर्यक्षेत्र के मध्यभाग में भारतवर्ष के कुरुजांगल विषय (कुरु महाजनपद) की नाभिरूप, पुण्तोया भागीरथी-गंगा के तीर पर स्थित, सर्वप्रकार के धन-धान्य से पूर्ण, अनेक आश्चर्यों का आगार और तीर्थरत्न रही है । इसके अपर नाम गजपुर, नागपुर, ब्रह्मस्थल और आसंदीवत प्राप्त होते हैं, किन्तु लोकप्रिय एवं प्रचलित नाम हस्तिनापुर ही है। वर्तमान शती के पुरातात्त्विक उत्खनन एवं खोज-शोध ने इस नगरी के अस्तित्त्व तथा उसकी संस्कृति के ज्ञात प्राथमिक चरणों को प्राग्गैदिक ताम्रयुगीन सिन्धुघाटी सभ्यता का समसामयिक सिद्ध कर दिया है । कम से कम महाभारत काल के उपरान्त वर्तमान पर्यन्त यह नगरी कई बार उजड़ी, फिर बसी और पुनः उजड़ी, किन्तु जैनों ने इसे अपना पवित्र तीर्थ स्थान मानकर इसके साथ अपना सम्पर्क प्रायः अविच्छिन्न रूप से बनाये रखा।
जैन परम्परा के अनुसार युग के आदि में अयोध्या और काशी के साथ ही गजपुर (हस्तिनापुर) की रचना देवों द्वारा हुई थी-इस क्षेत्र में हाथियों का बाहुल्य होने कारण इस नगर का नाम गजपुर रखा गया। ऋषभदेव के गंशज कुरु के नाम से यह प्रदेश कुरुजांगल देश कहलाया, और भारतवर्ष के आदि चक्रवर्ती सम्राट 'भरत (ऋषभपुत्र) के अनुज बाहुबलि का पुत्र सोमयश (सोमप्रभ) गजपुर का प्रथम नरेश हुआ-उसी से क्षत्रियों का चन्द्रवंश चला। कहा जाता है कि इस सोमयश को ही भगवान ने कुरु नाम प्रदान किया था। दीक्षा लेने के
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उपरान्त भगवान ऋषभदेव ने छः मास का उपवास किया, तदनन्तर पारण के लिए यत्र-तत्र विहार किया, किन्तु छः मास और निराहार बीत गये, पारणा नहीं हुआ । अन्ततः हस्तिनापुर में राजा सोमयश के अनुज श्रेयांसकुमार ने उन्हें इक्षुरस का आहार दिया। वह दिन बैसाख शुक्ल तृतीया का था अतः लोक में 'अक्षयतृतीया' के नाम से प्रसिद्ध हुआ । भगवान और उनके वंशज भी इसी कारण इक्ष्वाकु कहलाए । हस्तिनापुर में ही सर्वप्रथम मुनि आहारदान देकर श्रावक धर्म का प्रवर्त्तन करने के उपलक्ष्य में वहाँ एक रत्नमयी स्तूप का निर्माण किया गया ।
राजा सोमयश के पुत्र मेघस्वर जयकुमार भरतचक्रवर्ती के प्रधान सेनापति थे और उन्होंने काशी की राजकुमारी सुलोचना को स्वयंवर में प्राप्त किया था । सोमयश के एक वंशज हस्तिन के नाम पर गजपुर का अपर नाम हस्तिनापुर प्रसिद्ध हुआ । इसी नगर में सनत्कुमार, शान्ति, कुन्थु, अर और सुभूम नाम के पाँच चक्रवर्ती सम्राट, जो जैन धर्म के पालक थे, विभिन्न समयों में हुए । इनमें से शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ और अरनाथ तो क्रमशः १६वें, १७ और १८वें तीर्थंकर भी थे। इन तीनों तीर्थंकरों के गर्भ जन्म-तप-ज्ञान नामक चार चार कल्याणक इसी नगर में हुए, जिनकी स्मृति में यहाँ तीन स्तूप निर्मित हुए, और एक स्तूप १९वें तीर्थंकर मल्लिनाथ के समवसरण के आगमन की स्मृति में निर्मित हुआ। बीसवें तीर्थंकर मुनिसुव्रत के दो प्रमुख श्रावक, गंगदत्त और कार्तिक श्रेष्ठि हस्तिनापुर के ही निवासी थे । रक्षाबंधन पर्व की उत्पत्ति विषयक घटना – अकम्पनाचार्यादि ७०० मुनियों पर बलि द्वारा किया गया उपसर्ग तथा मुनि विष्णुमार द्वारा बलि का बांधा जाना एवं उपसर्ग का निवारण - इसी नगर में घटित हुई थी । भविसदत्त नामक धर्मात्मा व्यापारी की, पंच-पांडवों की, तथा अन्य अनेक जैन सांस्कृतिक घटनाओं, पुराण एवं लोक कथाओं का सम्बंध हस्तिनापुर से रहा है ।
२३वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ का विहार भी हस्तिनापुर में हुआ, यहाँ उनके अनेक अनुयायी हुए, गजपुर नरेश स्वयंभू तो दीक्षा लेकर उनका मुख्य गणधर बना था। अंतिम तीर्थंकर महावीर भी यहाँ पधारे और इस नगर का तत्कालीन राजा शिवराज अपने कुटुम्बीजनों एवं अनुचरों सहित उनका भक्त शिष्य हुआ था । उनके पदार्पण की स्मृति में भी हस्तिनापुर में एक स्तूप बना। द्रोणमति पर्वत का महातपस्वी मुनि गुरुदत्त, राजकुमार महाबल, श्रावकोत्तम बल, पोत्तलि एवं सुमूह, भयंकर व्याध भीमकूटग्रह, उसकी स्त्री उप्पला और पुत्र गौतम, तथा अन्य अनेक प्रसिद्ध जैन व्यक्ति हस्तिनापुर के निवासी थे ।
प्राचीन इतिहासकाल में जैन मुनियों का एक प्रसिद्ध पंचस्तूपनिकाय कहलाया, जिसका पूर्व में वाराणसी एवं और आगे बंगाल पर्यन्त तथा दक्षिण में कर्णाटक देश पर्यन्त प्रसार हुआ । उसका मूल निकास हस्तिनापुर के पंचस्तूपों से ही हुआ प्रतीत होता है ।
वर्तमान में हस्तिनापुर में एक ऊँचे टीले पर १८०० ई० के लगभग दिल्ली के शाही खजांची लाला हरसुखराय एवं उनके सुपुत्र राजा सुगनचन्द्र द्वारा निर्माणित, बड़ा दिगम्बर जैन मंदिर है, जो पुराने मन्दिरों के अवशेषों पर निर्मित हुआ प्रतीत होता है । मंदिर का भव्य उत्तंग सिंहद्वार है, आंगन में एक भव्य मानस्तंभ है, अनेक वेदियां हैं और कई बड़ी-बड़ी धर्मशालाएं हैं । यहाँ एक गुरुकुल, धर्मार्थ औषधालय, स्कूल, शास्त्र भंडार, औषधालय, त्रिलोक शोध संस्थान आदि संस्थाएँ भी हैं । तीर्थक्षेत्र कमेटी के सुचारु प्रबन्ध में तीर्थक्षेत्र का उत्तम विकास हो रहा है, अनेक नवीन निर्माण भी हो रहे हैं । इस बड़े मंदिर के सामने, सड़क के उस पार छोटा मंदिर ( श्वेताम्बर ) १०० वर्ष पुराना है, जिसका कुछ वर्ष पूर्व सुन्दर नवीनीकरण एवं विस्तार हुआ है । मंदिरों से उत्तर दिशा में लगभग ५ कि० मी० की दूरी के बीच विभिन्न टीलों पर पूर्वोक्त पांच स्तूप बने हुए थे, जिनके स्थान में जीर्णोद्धार के मिस संगमर्मर की निषद्याएँ या निशियां ( छतरियाँ) बना दी गई हैं। एक टीले पर श्वेताम्बर निशियां बनी हैं- उसी टीले से
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लगभग ३०-४० वर्ष पूर्व, तीर्थंकर शान्तिनाथ की एक विशाल खड्गासन मनोज्ञ प्रतिमा, जो अजमेर निवासी किन्हीं सेठ देवपाल ने यहाँ आकर ११७६ ई० में प्रतिष्ठापित की थी, निकली थी। पहली और दूसरी निशि के मध्य स्थित एक अन्य टीले से, जो बारहदरी वाला टीला कहला सकता है, अभी हाल में एक खंडित त्रितीर्थी (शान्ति-कुन्थु-अर) की प्रतिमा निकली है। परातत्त्व विभाग की ओर से २०-२५ वर्ष पर्व विदर के टीले की खदाई हुई थी-उसमें भी कई जैन मूर्तियाँ निकली थीं, पहले भी निकलती रही हैं । एक दिगम्बर मुनि की श्वेत पाषाण की प्रतिमा तो वहीं से लगभग ६० वर्ष पूर्व प्राप्त हुई थी, जी बीच में खो गई लगती है और अब शायद पुनः प्राप्त हो गई है।
इस प्रकार पवित्र जैन तीर्थक्षेत्र हस्तिनापुर एक विकासशील उत्तम स्थान है, यातायात एवं आवास की सुविधाएँ हैं और एक अच्छा पर्यटक केन्द्र होने की क्षमता रखता है। हस्तिनापुर में कात्तिकी पूर्णिमा के अवसर पर अष्टदिवसीय विशाल मेला प्रतिवर्ष होता है। जेठ बदि १४ को भी एक छोटा सा मेला लगता है और फाल्गुनि अष्टान्हिका में भी बहुत से यात्री इकट्ठे हो जाते हैं।
शौरिपुर २२वें तीर्थकर नेमिनाथ (अरिष्टनेमि) के जन्मस्थान शौरिपुर की पहचान आगरा जिले की बाह तहसील के यमुनातट स्थित कस्बे बटेश्वर से ५ कि० मी० (पैदलमार्ग से केवल २ कि० मी०) दूर, यमुना के खारों में फैले हुए खंडहरों से की जाती है । आगरा से बटेश्वर ७० कि० मी० की दूरी पर दक्षिण-पूर्व दिशा में है, पक्की सड़क है, जिस पर बसें चलती हैं। स्वयं बाह से यह स्थान ८ कि. मी. और शिकोहाबाद से २५ कि० मी. है। बटेश्वर से शौरिपुर का मार्ग कच्चा है, किन्तु तांगा, कार आदि जा सकते हैं ।
१९वीं शती ई० के प्रथम पाद में कर्नल टाड ने शौरिपुर की प्राचीनता की ख्याति सुनी थी, यहां हीरे आदि रत्नों के जब-तब मिल जाने की बात भी सुनी थी और कई यूनानी एवं पार्थियन सिक्के भी यहाँ से प्राप्त किये
सती के अन्तिम याद में जनरल कनिंघम के सहकारी कार्लाइल ने शौरिपुर के खंडहरों का सर्वेक्षण किया था, जिससे सिद्ध हआ कि प्राचीन समय में यह अत्यन्त समृद्ध नगरी रही थी, दो हजार वर्ष पूर्व भी यह व्यापार का अच्छा केन्द्र थी, और जैनों के साथ उसका घनिष्ट सम्बन्ध रहा । वस्तुतः, जैनों ने उसके साथ अपना सम्पर्क कभी नहीं छोडा, सदैव से उसे अपना पवित्र तीर्थ मानते और उसकी यात्रा करते आये हैं। बल्कि मध्यकाल में तो १६वीं शती से लेकर १९वीं के प्रायः अन्त तक शौरिपुरि में दिगम्बर भट्टारकों की गद्दी रही-उनके पीठ का मुख्यालय सम्भवतया निकटवर्ती हथिकत में था, किन्तु वे बहुधा शौरिपुर के भट्टारकों के रूप में ही प्रसिद्ध थे, और इस तीर्थ की व्यवस्था भी वही करते थे । सन् १९२४ ई० के लगभग उनके अन्तिम उत्तराधिकारी यति रामपाल की हत्या हो जाने के उपरात आगरा के जैनों ने एक शौरिपुर तीर्थक्षेत्र कमेटी गठित की, और वही तब से इस क्षेत्र की देखभाल करती आ रही है।
शौरिपुर में कई प्राचीन जैन मन्दिर, अनेक जिन मूर्तियों एवं जैन कलाकृतियों के खंडित-अखंडित अवशेष मिले हैं। वर्तमान मन्दिरों में जो ठीक दशा में है और तीर्थ का मुख्य मन्दिर है, १६६७ ई० में शौरिपुर के भट्टारक
द्वारा निर्मापित एवं प्रतिष्ठापित है। वह स्वयं मूलसंघ-बलात्कारगण-सरस्वतीगच्छ-कुन्दकुन्दान्वय के भट्रारक जनतभूषण के शिष्य एवं पट्टधर थे। दसरा मन्दिर बरुवामठ है जो यहाँ का सर्नप्राचीन जैन मन्दिर समझा जाता है। इसकी पुरानी प्रतिमाएँ चोरी चली जाने पर, १९५३ ई० में कृष्ण पाषाण की ८ फुट उत्तंग नेमिनाथ की मनोज्ञ प्रतिमा प्रतिष्ठित की गयी थी। इस क्षेत्र के जैन यादव राजपूत किसी आत्मीय की मृत्यु होने
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१३-भव्य सिंहद्वार, दिगम्बर बड़ा मन्दिर, हस्तिनापुर
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१४-चौबीस तीर्थंकरों की टोंके, हस्तिनापुर
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१५- जल-मन्दिर, हस्तिनापुर
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१६-मानस्तंभयूत दि. जैन मन्दिर, हस्तिनापुर
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पर इस मन्दिर से लगे चबूतरे पर दीपदान करते हैं। तीसरा मन्दिर शंखध्वज नाम का है जिसमें चार वेदियां हैं, मूलनायक नेमिनाथ हैं, अन्य भी कई कलापूर्ण मध्यकालीन मूत्तियाँ हैं । बाईं ओर के गर्भालय में पार्श्वनाथ, श्रेयांसनाथ (गेंडा लांछन ) और चन्द्रप्रभु की प्रतिमाएँ हैं, जिनमें से मध्यवर्ती प्रतिमा पर सं० १३५७ ( ई० १३०० ) का प्रतिष्ठा लेख अंकित है । दाईं ओर के गर्भगृह में एक प्रतिमा १२५१ ई० की है। यहाँ पंचबालयति, चतुर्तीर्थी आदि शिला फलक भी हैं, यक्ष-यक्षि मूर्तियां भी हैं। इनमें से कई एक हतकान्त ( हस्तिकान्तपुर) के भट्टारकीय मन्दिर से लाकर विराजमान की गई हैं । स्वयं हतकान्त में, कहा जाता है कि, ५१ प्रतिष्ठाओं के वहां हुए होने का पता चलता है । यह भी कहा जाता कि फिरोज तुगलक ने हतकान्त पर आक्रमण करके यहाँ के मन्दिरों का भी ध्वंस किया था जो मन्दिर विद्यमान है वह पक्का दुमन्जिला और विशाल है, बाद में भट्टारकों द्वारा बनवाया हुआ है । इस क्षेत्र में डाकुओं का आतंक अधिक है, अत: वहाँ अब कोई जैन नहीं रहता और मन्दिर अरक्षित पड़ा है ।
उपरोक्त शंखध्वज मन्दिर के बाईं ओर मैदान में एक परकोटे के भीतर कई प्राचीन टोंकें, छतरियां आदि बनी हुई हैं । यह स्थान पंचमढ़ी कहलाता है । इसमें ११वीं - १२वीं शती के लगभग की दो भ० महावीर की और एक नमिनाथ की प्रतिमाएं हैं। छतरियों में यम आदि कई मुनियों के चरण चिन्ह बने हैं, तथा धन्य नामक अन्तकृत safe की अत्यन्त प्राचीन टोंक है । एक मन्दिर पर श्वेताम्बरों का भी अधिकार है, उसमें भ० नेमिनाथ की प्रतिमा विराजमान है । शौरिपुर में एक १६ फुट चौड़ा अति प्राचीन कुंआ है, जिसका जल बड़ा स्वादिष्ट एवं स्वास्थ्यवर्धक है । दिगम्बर तीर्थ क्षेत्र कमेटी ने एक धर्मशाला तथा एक कुँआ भी बनवाया है । निकटवर्ती बटेश्वर मुख्यतया शैव तीर्थ है, किन्तु वहाँ भी शौरिपुर के भट्टारकों द्वारा बनवाया हुआ एक विशाल जैन मन्दिर और धर्मशाला है । इस मन्दिर में परिमाल चन्देल के प्रसिद्ध सेनानी आल्हा या ऊदल के पुत्र जल्हण द्वारा बैसाख वदि ७ सं० १२२४ ( ई० ११७६) में प्रतिष्ठापित अजितनाथ की मनोज्ञ मूर्ति है, जो महोबा से लाई गई बताई जाती है और लोक में मनियादेव के नाम से प्रसिद्ध है । इस के आसपास २२धातु प्रतिमाएं विराजमान हैं । इस मन्दिर में एक अति कलापूर्ण शांतिनाथ शिलापट है जिस पर सं० ११२५ ( ई० १०६८ ) की तिथि अंकित है । अन्य भी अनेक पाषाण एवं धातु की मध्यकालीन कलापूर्ण जिन प्रतिमाएँ हैं । ऐसी किवदंती है कि किसी मुसलमान सर्दार की सेना ने शौरिपुर के प्राचीन मन्दिरों को ध्वस्त कर दिया था ।
शौरिपुरि की स्थापना का श्रेय महाराज शूर या शूरसेन को है। अति प्राचीन क्षत्रिय राजा हरि से हरिवंश की उत्पत्ति हुई थी, उसी के वंश में २०वें तीर्थंकर मुनिसुव्रत हुए, और आगे चलकर वसु नामका प्रसिद्ध राजा हुआ । वसु की सन्तति में यदुवंश का संस्थापक यदु हुआ, जिसके पुत्र नरपति के शूर और सुवीर नाम के दो पुत्र हुए। शूर के नाम पर ही इस पूरे महाजनपद का नाम शूरसेन पड़ा - मथुरा और शौरिपुर इसके मुख्य नगर थे । शूर ने मथुरा में तो अपने अनुज सुवीर को स्थापित किया और स्वयं महाजनपद के एक भाग में, जो कुशार्थ, कुशार्त या कुशद्य विषय कहलाता था, शौरिपुरि या शौर्यपुर नगर की स्थापना की। इसी नगर में शूर के उपरान्त उसके पुत्र अन्धकवृष्णि ने राज्य किया । अन्धक वृष्णि के दशपुत्र थे जिनमें सबसे बड़े समुद्रविजय थे और सबसे छोटे वसुदेव थे । शौरिपुर में ही महाराज समुद्रविजय की महादेवी शिवादेवी की कुक्षि से २२वें तीर्थंकर नेमिनाथ का जन्म हुआ था । उनके वीर, साहसी एवं कामदेवोपम सुन्दर चाचा वसुदेव के पुत्र बलराम और त्रिखंड चक्रवर्ती नारायण कृष्ण थे, तथा बुआ कुन्ती के पुत्र हस्तिनापुर के युधिष्ठिरादि पांडव और कर्ण थे। मथुरा में सुवीर के पौत्र और भोजकवृष्णि के पुत्र उग्रसेन की पुत्री देवकी कृष्ण की जननी थीं, और पुत्र कंस मथुरा का अत्याचारी शासक हुआ । राजगृह नरेश जरासन्ध के निरन्तर आक्रमणों से तस्त होकर यादवगण शौरिपुरि का परित्याग करके पश्चिमी समुद्रतटवर्ती द्वारिका नगरी में जा बसे थे । यह घटना नेमिनाथ की बाल्यावस्था में हो घटित हुई प्रतीत होती है । फलस्वरूप शौरिपुर की
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४६ ] नगरी उजाड़ प्रायः हो गई, किन्तु गौणरूप में बनी भी रही और तीर्थंकर की गर्भ-जन्मभूमि के रूप में पूजी भी जाती रही।
नेमिनाथ के जन्म से कुछ पूर्व ही शौरिपुर के निकटवर्ती गंधमादन पर्वत पर मुनिराज सुप्रतिष्ठित ने केवलज्ञान प्राप्त किया था और उन्हीं के निकट शौरिपुर नरेश अन्धकवृष्णि और मथुरा नरेश भोजकवृष्णि ने मुनिदीक्षा ली थी। शौरिपुर में ही अमलकंठपुर नरेश निष्ठसेन के पुत्र राजकुमार धन्य ने जब भ० नेमिनाथ से मुनिदीक्षा लेकर विहार किया था तो वह एक शिकारी राजा के बाणों से बिद्ध होकर अन्तकृत केवलि हए थे। मुनिराज अलसत्कुमार ने भी इसी नगर में केवलज्ञान एवं मोक्ष प्राप्त किया था। भ० महावीर के समय में इसी नगर में यम नामक मुनि अन्तकृति केवलि हुये थे। वसुदेव की प्रथम पत्नी और बलराम की माता रोहिणी के सतीत्व की परीक्षा भी इसी शौरिपुर में हुई थी।
मध्ययुग के प्रारंभ में इस नगर का सम्बन्ध मुनि लोकचन्द्र से रहा, और कालान्तर में यहाँ जो भट्टारकीय पट्ट स्थापित हआ उसमें १६वीं शती ई० के प्रारम्भ से लेकर २०वीं शती के प्रारम्भ पर्यन्त क्रमशः ललितकीर्ति, धर्मकीति, शील भूषण, ज्ञानभूषण, जगत्भूषण, विश्वभूषण, देवेन्द्रभूषण, सुरेन्द्रभूषण, लक्ष्मीभूषण, जिनेन्द्रभूषण, महेन्द्रभूषण, राजेन्द्रभूषण, हरेन्द्रभूषण और यति रामपाल नाम के भट्टारक हुए, जिन्होंने शौरिपुर, बटेश्वर,हथिकान्त तथा आसपास के अन्य नगरों एवं ग्रामों में पचासों मन्दिर बनवाये, सैकड़ों प्रतिष्ठाएं कराईं, स्वयं तथा अपने शिष्यों एवं आश्रित विद्वानों से विपुल साहित्य की रचना कराई, और अपनी सिद्धियों एवं चमत्कारों से भी जनता को प्रभावित किया।
(ख) अन्य कल्याणक क्षेत्र
उ० प्र० में स्थित तीर्थंकरों की जन्मभूमियों के अतिरिक्त अन्य कल्याणक क्षेत्रों में प्रयाग, पभोसा, संकिसा, अहिच्छत्रा और पावानगर हैं।
प्रयाग इलाहाबाद नगर का प्राचीन भाग, जो त्रिवेणी-संगम के निकट प्रयाग नाम से प्रसिद्ध है, भारतवर्ष का महान तीर्थ स्थान रहता आया है। जैन साहित्य में भी उसे एक तीर्थक्षेत्र माना गया है, और वहां उसके अपरनाम प्रजाग, पुरिमताल एवं पूर्वतालपुर प्राप्त होते हैं । इस नगर में आदि तीर्थंकर ऋषभदेव के एक छोटे पुत्र वृषभसेन का राज्य था, जो बाद में उनका गणधर भी हुआ । यही सिद्धार्थ नामक वन में भगवान ऋषभदेव ने जिनदीक्षा ली थी और उसके उपलक्ष में प्रजा ने उनकी पूजा की थी, इसीलिए वह स्थान प्रजाग या प्रयाग नाम से प्रसिद्ध हआ।
एवमुक्त्वा प्रजा यत्र प्रजापतिमपूजयन । प्रदेशः स प्रजागाख्यो यतः पूजार्थयोगतः ॥ -हरिवंश, IX, ९६
आगे चलकर इसी पूर्वतालपुर, पुरिमताल या प्रयाग में, संगम के निकट वटवृक्ष के नीचे उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ था, जिसके कारण यह वृक्ष लोक में 'अक्षयवट' के नाम से प्रसिद्ध हुआ। और इसी प्रयाग की पवित्र भूमि पर आदि तीर्थंकर का सर्वप्रथम धर्मचक्र प्रवर्तन हुआ था। इसी स्थान में अण्णिकापुन को गंगा पार करते समय केवल ज्ञान हुआ बताया जाता है।
पभोसा
पभोसा, पफोसा या प्रभासगिरि इलाहाबाद जिले में प्राचीन महानगरी कौशाम्बी के लगभग ४ कि० मी० उत्तर-पश्चिम में स्थित है और जैनों का परम पवित्र तीर्थ है। इस पहाड़ी पर कौशाम्बी में जन्मे छठे तीर्थंकर
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पद्मप्रभु के तप और ज्ञान कल्याणक हुए थे। इस तपोभूमि पर ईसापूर्व दूसरी शती में अहिच्छत्रा के राजा आषाढ़सेन ने काश्यपीय अरहंतों (जैन मुनियों) के निवास के लिए गुफाएं बनवाई थीं, जैसाकि वहां प्राप्त उसके शिलालेख से प्रगट है । उस समय कौशाम्बी का राजा बहसतिमित्र था जो उक्त आषाढ़सेन का भानजा था । पहाड़ी पर अन्य भी प्राचीन जैन अवशेष प्राप्त हैं, और प्रयाग निवासी हीरालाल गोयल द्वारा १८२४ ई० में बनवाया हुआ पद्मप्रभु का भव्य मन्दिर है, तथा एक धर्मशाला भी है । यह स्थान अवश्य ही प्राचीनकाल में जैन मुनियों की तपोभूमि रहा है।
संकिसा
फर्रुखाबाद जिले में, मोटा रेल स्टेशन से लगभग ८ कि० मी० पर प्राचीन संकिसा, संकास्स या संकाश्य नामक प्राचीन सांस्कृतिक केन्द्र के अवशेष हैं । वर्तमान कम्पिल से यह स्थान लगभग ३० कि०मी० दूर है, किन्तु प्राचीन समय में सम्भवतया महानगरी काम्पिल्य का ही एक संनिवेश था। यहां मौर्यकाल जितने प्राचीन पुरातत्त्वावशेष मिले हैं, जिनमें जैनमन्दिरों और मतियों के अवशेष भी मिले हैं। जनरल कनिंघम को निकटवर्ती पिलखना टीले के ऊपर भी एक जिनमन्दिर के ध्वंसावशेष मिले थे। यह स्थान कम्पिल्य में जन्मे १३७ तीर्थकर विमलनाथ की तप और केवल ज्ञान भूमि है। मध्यकाल में जैन कवि धनपाल एवं भगवतीदास इसी स्थान के निवासी थे, और मुनि ब्रह्मगुलाल ने भी यहां निवास किया था। संकिसा बौद्ध धर्म का भी तीर्थ है, और इधर सैकड़ों वर्षों से उसी रूप में उसकी अधिक प्रसिद्धि रही है।
अहिच्छत्रा
बरेली जिले की आंवला तहसील के कस्बे रामनगर के बाह्य भाग में सुप्रसिद्ध जैनतीर्थ अहिच्छता है। इस स्थान पर २३७ तीर्थकर पानाथ पर पुराणप्रसिद्ध महा उपसर्ग हुआ था और उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति हुई थी। यहीं भगवान पानाथ के प्रथम समवसरण की रचना हुई थी । किसी समय यहां एक विशाल एवं रमणीक नगर था, किन्तु अब जंगल में यत्र-तत्र फैले प्राचीन टीले और ध्वस्त खण्डहर ही शेष हैं। इनके अतिरिक्त एक भव्य एवं विशाल जैन मन्दिर है जिसमें पांच वेदियां हैं । एक वेदी 'तिखाल वाले बाबा' की कहलाती है जिसमें भ० पानाथ की प्रतिमा तथा चरण चिन्ह स्थापित हैं । अन्य वेदियों में भी मनोज्ञ जैन प्रतिमाएँ विराजमान हैं। उपसर्ग स्थान पर एक दर्शनीय छत्री (निषीधिका) का भी निर्माण हो चुका है। एक शिखरबन्द मन्दिर रामनगर कस्बे में भी है। क्षेत्र पर एक विशाल धर्मशाला भी है, जिसमें यात्रियों के लिए आवश्यक सुविधाएं उपलब्ध हैं। बिजली भी आ गई है और रेवती बहोडाखेड़ा से, जहां निकटतम रेल स्टेशन है, क्षेत्र तक पक्की सड़क भी बन गई है। आंवला रेल स्टेशन से क्षेत्र लगभग ६ मील है। क्षेत्र के निकट ही एक राजकीय विकास खण्ड की भी स्थापना हो चुकी है। प्रतिवर्ष चैत्र वदी ८ से १२ तक इस क्षेत्र पर भारी जैन मेला होता है । इस तीर्थ क्षेत्र की व्यवस्था एक प्रबन्धकारिणी कमेटी करती है, जिसने तथा रामपुर आदि निकटवर्ती स्थानों के जैनों ने गत वर्षों में इस क्षेत्र के संरक्षण, उन्नति, विकास और प्रचार में प्रभूत योग दिया है। फलस्वरूप सहस्त्रों यात्री प्रतिवर्ष इस तीर्थ की यात्रा करने आते हैं।
यह स्थान २३वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ की ज्ञानकल्याण भूमि है। ई०पू० ८७७ में जन्मे और ७७७ में निर्वाण प्राप्त भ० पार्श्वनाथ की ऐतिहासिकता को अब प्रायः सभी देशी एवं विदेशी विद्वानों ने मान्य कर लिया है । अपने तप काल में, हस्तिनापुर में पारणा करके वह गंगा के किनारे-किनारे जि० बिजनौर के उस स्थान पर
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आये थे जो बाद में 'पोरसनाथ किला' कहलाया। वहां से विहार करके वह उतर पांचाल राज्य की राजधानी पांचालपूरी, अपरनाम परिचक्रा एवं शंखावली, के निकटवर्ती भीमाटवी नामक गहन वन में पहुंचे। जब वह वहां कायोत्सर्ग ध्यान में लीन थे तो शम्बर नामक दुष्ट असुर ने उन पर भीषण उपसर्ग किये । नागराज धरणेन्द्र और यक्षेश्वरी पद्मावती ने उन उपसर्गों के निवारण का यथाशक्ति प्रयत्न किया। नागराज (अहि) ने तो भगवान के सिर के ऊपर छत्राकार सहस्रफण मंडप बनाया था। इसी कारण वह नगरी (पांचालपुरी) भी लोक में 'अहिच्छता' नाम से प्रसिद्ध हई। भगवान को वहीं उसी समय केवलज्ञान प्राप्त हुआ, उनका समवसरण जुड़ा और उनके धर्मचक्र का प्रवर्तन हुआ।
इस प्रकार अहिच्छत्रा जैनों का परम पुनीत तीर्थ बना, और वे उसके दर्शनार्थ बराबर आते रहे, यद्यपि यह स्थान चिरकाल से उजाड़ एनं वनाच्छादित पड़ा हुआ है। प्राचीन मन्दिरों एवं भवनों के भग्नावशेषों के रूप में कई टीले यहां बिखरे पड़े हैं, और एक प्राचीन दुर्ग की प्राचीर के अवशेष भी दृष्टिगोचर होते हैं । कनिंघम, एटकिन्सन, फुहरर, नेविल आदि की रिपोर्टों एवं गजेटियरों से प्रकट है कि इस स्थान के एक जैनतीर्थ होने की तथा भ० पार्श्वनाथ के साथ उसका सम्बन्ध होने की मान्यता मध्यकाल में भी बनी रही और अविच्छिन्न रूप में वर्तमान पर्यन्त चली आई है। इस शताब्दी में हुए पुरातात्त्विक उत्खनन एवं शोध खोज से जहां विविध विपूल सामग्री प्रकाश में आई है वहां उसने यह भी सिद्ध कर दिया कि कम से कम गत दो हजार वर्ष से यह स्थान अहिच्छत्रा नाम से ही प्रसिद्ध रहा है। अनेक जैन पुराण एवं कथा ग्रंथों में अहिच्छता के उल्लेख प्राप्त होते हैं। ई० पू० २री शती के लगभग हुए अहिच्छत्रा के राजा आषाढ़सेन ने अपने भानजे कौशाम्बी के राजा बहसतिमित्र के राज्य में स्थित प्रभासगिरि (प्रभोसा) पर जैन मुनियों के लिए गुफायें बनवाई थी। उसके निकट वंशज राजा वसुपाल ने अहिच्छत्रा में भगवान पार्श्वनाथ का भव्य मन्दिर बनवाया था। दूसरी शती ई० में अहिच्छना का राजा पद्मनाभ जैन था और उसी के पुत्रों दद्दिग और माधव ने सुदूर दक्षिण में जाकर मैसूर के प्रसिद्ध गंगराज्य की स्थापना की थी। अहिच्छत्रा के कोत्तरी (कटारी) खेड़ापर प्राचीन जैन मन्दिर और मूर्तियों के अवशेष मिले हैं जिनमें २री शती ई० के एक लेख में 'अहिच्छत्रा' नाम भी स्पष्ट रूप में अंकित है। छठी-सातवीं शती में इसी नगर के पार्श्व जिनालय में अपनी दार्शनिक शंका का समाधान प्राप्त करके ब्राह्मण विद्वान पात्रकेसरि ने सम्यक दष्टि प्राप्त की थी तथा पात्रकेसरि-स्तोत्र की रचना की थी और ११वीं शताब्दी के प्रारम्भ में इसी नगर में जैन महाकवि वाग्भट ने अपने नेमिनिर्वाण-काव्य की रचना की थी। चौदहवीं शती में आचार्य जिनप्रभसरि ने इस तीर्थ की यात्रा की थी और उसका वर्णन अपने विविध तीर्थंकल्प के अन्तर्गत अहिच्छन्ना-कल्प में किया था, जिसमें उन्होंने यहां के स्मारकों, अतिशयों, आश्चर्यों और अनुश्रुतियों का उल्लेख किया है। आगरा के पं० बनारसीदास ने १७वी शताब्दी में अहिच्छता की यात्रा की थी और १७४८ ई. में कवि आसाराम ने अहिच्छत्र-पार्श्वनाथस्तोत्र की रचना की थी।
इस प्रकार तीर्थंकर पार्श्व की ज्ञान-कल्याण भूमि, जैनों का पावनतीर्थ, उत्तर प्रदेश का एक प्राचीन सांस्कृतिक केन्द्र एवं कलाधाम और प्राचीन भारत की एक समृद्ध राजधानी यह अहिच्छना नगरी रही है जो अपने महत्व एवं अवशेषों के लिए आज भी दर्शनीय है।
पावानगर
उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले में स्थित संठियावडीह फाजिलनगर का समीकरण अनेक विद्वान बौद्ध साहित्य में उल्लिखित मल्लों की पापा से करते हैं और कई एक उसे ही भगवान महावीर की निर्वाण भूमि पावा,
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१७-भगवान पार्श्वनाथ मन्दिर, अहिच्छत्रा
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१९-'तिखाल वाले बाया', अहिच्छत्रा
१९-दि० जैन धर्मशाला, अहिच्छत्रा
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मध्यमापावा या अपापापुरी मानने लगे हैं । अतएव उक्त संठियावडीह को नवीन नाम पावानगर दे दिया गया है । लगभग २६ वर्ष पूर्व वहां एक विद्यालय भी 'पावानगर महावीर इंटर कालेज' नाम से स्थापित हुआ था, जो इस वर्ष श्री महावीर निर्वाण समिति उ० प्र० के प्रयत्न से डिग्री कालेज हो गया है । एक जिनालय और धर्मशाला बनाने का भी प्रयत्न किया जा रहा है, श्री पावानगर निर्वाण क्षेत्र समिति नाम की एक कमिटी भी गठित हो गई है। यह स्थान गोरखपुर से ४५ मील, देवरिया से ३५ मील, कसया से १० मी०, कुशीनगर से १२ मील और तमकही रोड से १२ मील पर स्थित है। यों जैनों में चिर प्रचलित लोक विश्वास के अनुसार भ० महावीर की निर्वाणभूमि बिहार राज्य के पटना जिले में बिहार शरीफ रेल स्टेशन से नातिदूर स्थित पावापुर है जहां कई प्राचीन एवं अर्वाचीन भव्य और विशाल जिन मन्दिर, धर्मशालाएँ आदि हैं तथा निर्वाण का स्मा जल-मन्दिर है। अतएव देवरिया जिले के पावानगर का महावीर की निर्वाणभमि होना निर्विवाद नहीं है, तथापि यह स्थान भी प्राचीन प्रतीत होता है, यहां अनेक पुराने टीले भी हैं जिनके पुरातात्त्विक उत्खनन से, सम्भव है, कुछ तथ्य प्रकाश में आयें जो उक्त विवाद के समाधान में सहायक हों।
(ग) तपोभूमियां एवं सिद्धभूमियां
इस वर्ग में उत्तर प्रदेश में स्थित प्रयाग, गढ़वाल-हिमालय के श्रीनगर तथा नर, नारायण, बद्रीनाथ, आदि पर्वत शिखर, पभोसा, हस्तिनापुर, पारसनाथ किला, शौरिपुर और मथुरा हैं। इनमें से प्रयाग, पमोसा, हस्तिनापुर और शौरिपुर का परिचय ऊपर दिया जा चुका है।
गढ़वाल-हिमालय
युगादिजिन भगवान ऋषभदेव ने अपने मुनि जीवन में मध्य-हिमालय के पार्वतीय प्रदेशों में तपश्चरण किया और केवल ज्ञान की प्राप्ति के उपरान्त वहां विहार करके धर्मोपदेश भी दिया था, ऐसा आदिपुरण आदि प्राचीन ग्रन्थों से प्रगट होता है। गढ़वाल का परमधाम बद्रीनाथ जिस पर्वतशिखर पर स्थित है, उसके एक ओर 'नर' पर्वत है और दूसरी ओर 'नारायण' पर्वत है-नरपर्वत भगवान ऋषभदेव की तपोभूमि है और नारायण पर्वत देशना भूमि । वह नर से नारायण, आत्मा से परमात्मा हो गये थे, इसी तथ्य के प्रतीक रूप में उक्त पर्नतों के ये नाम प्रसिद्ध हुए लगते हैं। स्वयं बद्रीनाथ की मूर्ति को जैनीजन तीर्थंकर प्रतिमा ही जानते-मानते रहे हैं और दर्शनार्थ उस धाम की यात्रा भी करते रहे हैं। उत्तरी हिमशृंखला को पार करके पर्वतराज कैलास, अपरनाम अष्टापद, के शिखर से ही उन ऋषभलांछन, जटाधारी, महादेव ऋषभनाथ ने निर्वाण, सिद्धत्व एवं शिवत्व प्राप्त किया था। अन्य अनेक मुनियों ने भी भगवान के साथ मुक्ति लाभ की थी। पौड़ीगढ़वाल की राजधानी श्रीनगर में भगवान का समवसरण आया लगता है। वहाँ मध्यकाल में अलकनंदा के तट पर एक भव्य आदिनाथ मन्दिर विद्यमान था, जो १८९२ ई० की गौना की बाढ़ में ध्वस्त हो गया। वर्तमान शती के प्रारम्भ में नवीन मन्दिर बना। वह भी भव्य है और उसमें पुराने मन्दिर की, बाढ़ से बची, कुछ अति प्राचीन प्रतिमाएं भी हैं। इसमें सन्देह नहीं कि मध्य हिमालय के ये पानतीय प्रदेश जैन मुनियों की बहुधा तपोभूमि रहे हैं।
पारसनाथ किला
बिजनौर जिले के नगीना नामक कस्बे के उत्तर-पूर्व ९ मील पर बढ़ापुर नाम का छोटा सा कस्बा है. जिसके ३ मील पूर्व दिशा में किसी अति प्राचीन बस्ती के खण्डहरों से युक्त कई टीले हैं। ये टीले दो डेढ़ वर्ग मील
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ख -- ६
के क्षेत्र में फैले हैं, और ये खण्डहर ही 'पारसनाथ किला' नाम से प्रसिद्ध हैं । इनमें से मुख्य बड़े टीले पर एक सुदृढ़ प्राचीन दुर्ग के भग्नावशेष प्राप्त हुए हैं और विशेषरूप से यह किला ही पारसनाथ - किला कहलाता रहा है ।
इस स्थान की व्यवस्थित रूप से पुरातात्विक शोध-खोज तो अभी नहीं हुई है, किन्तु जितनी कुछ भी हुई उसके फलस्वरूप यहां से अनेक खंडित अखंडित तीर्थंकर प्रतिमाएँ, कलापूर्ण तीर्थंकर पट्ट, मानस्तम्भ, जिनमूर्तियों से अलंकृत दरवाजों के सिरदल, तथा अन्य अनेक कलाकृतियां प्राप्त हुई हैं । एकाकी तीर्थंकर प्रतिमाओं में भगवान पार्श्वनाथ की एक विशालकाय भग्न प्रतिमा है जो बढ़ापुर गांव में प्राप्त हुई थी, तथा तीर्थंकर ऋषभदेव, सम्भवनाथ, चन्द्रप्रभु, शान्तिनाथ, नेमिनाथ, और महावीर की भी प्रतिमाएँ हैं । एक खण्डित किन्तु अत्यन्त कलापूर्ण शिलापट्ट पर केन्द्र में एक तीर्थंकर पद्मासनस्थ हैं । उसके बायें ओर कोष्ठक में दो खड्गासन तीर्थंकर प्रतिमाएं हैं जिनमें से एक सप्तफणालंकृत है बतएव निश्चित रूप से तीर्थंकर पार्श्वनाथ की प्रतिमा है । दूसरी सम्भव है नेमिनाथ की हो। दायें भाग में उसी प्रकार दो प्रतिमाएँ होंगी, किन्तु वह भाग टूट गया है । पूरा पट्ट पंचजिनेन्द्र पट्ट अथवा पंचबालयति पट्ट रहा होगा । एक अन्य अत्यन्त कलापूर्ण पट्ट पर मध्य में कमलांकित आसन पर भ० महावीर विराजमान हैं, उनके एक ओर नेमिनाथ की तथा दूसरी ओर चन्द्रप्रभु की खड्गासन प्रतिमाएँ हैं । उत्फुल्ल कमलों से मंडित प्रभामंडल, सिर के ऊपर छत्ततय, आजू-बाजू सुसज्जित गजयुगल, कल्पवृक्ष, चौरीवाहक, मालावाहक, पीठ पीछे कलापूर्ण स्तम्भ, कुबेर, अम्बिका आदि से समन्वित यह मूत्तकन अत्यन्त मनोज्ञ एवं दर्शनीय हैं। पट्ट के पादमूल में एक पंक्ति का लेख भी है- 'श्री विरद्धमान सामिदेव सम १०६७ राणलसुत भरत प्रतिमा प्रठपि । लेख की भाषा अपभ्रष्ट संस्कृत अथवा प्राकृत जैसी और लिपि ब्राह्मी है ।
प्रो० कृष्णदत्त वाजपेयी ने इसे वि० सं० १०६७ अर्थात सन् १०१० ई० का अनुमान किया है । किन्तु लेख को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि संभव है वह महावीर निर्वाण संवत् हो, जिसके अनुसार यह लेख एवं प्रतिमापट्ट सन् ५४० ई० का होना चाहिए। लेख की भाषा और लिपि भी ११वीं शती की न होकर गुप्तोत्तर काल, ६-७वीं शती की जैसी प्रतीत होती है । इस स्थान से गंगा-यमुना की मूर्ति युक्त द्वार की चौखट के अंश भी मिले हैं, जिनका प्रचलन गुप्तकाल में हुआ था । गुप्त शैली की अन्य कई कलाकृतियां भी इस स्थान में प्राप्त हुई हैं । अतएव यह स्थान गुप्तकाल जितना प्राचीन तो है ही, और ११-१२वीं शती तक यहां अच्छी बस्ती रही प्रतीत होती है । ये विविध तथा उनके जैन कलाकृतियां, कई जैन मन्दिरों के तथा एक अच्छे जैन अधिष्ठान (मठ
या विहार) के चिन्ह यह सूचित करते हैं कि गुप्तोत्तर काल में यह स्थान एक समृद्ध एवं प्रसिद्ध जैन केन्द्र रहा होगा । इस स्थान से प्राप्त तीर्थंकर प्रतिमाएँ भी सभी दिगम्बर हैं, जैसा कि मध्यकाल से पूर्व प्रायः सभी जिनप्रतिमाएँ होती थीं । पूर्वोक्त बढ़ापुर वाली विशालकाय पार्श्व प्रतिमा धरणेन्द्र - पद्मावती समन्वित हैं, उसका घटाटोप
मण्डल भी दर्शनीय है और सिंहासन पर भी सर्प की एड़दार कुंडलियां दिखाई गई हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि पारसनाथ - किला के मुख्य जिनप्रासाद की मूलनायक प्रतिमा यही होगी, और जिस समय यह प्रतिष्ठित की गई होगी उस समय तक भ० पार्श्वनाथ के उपसर्ग की घटना तथा इस स्थान के साथ भी उनका सम्बन्ध रहे होने की बात स्थानीय जनता की स्मृति में सुरक्षित थी । सम्भव है कि भ० पार्श्वनाथ के समय से ही यह स्थान उनके नाम से प्रसिद्ध हो चला हो ।
ऐसा प्रतीत होता है कि अहिच्छत्रा से विहार करके स्थान पर पुनः आये थे । वहाँ उनका समवसरण तो आया ही
तीर्थंकर पार्श्वनाथ निकटवर्ती बिजनौर जिले के इस लगता है, केवलज्ञान के पूर्व हस्तिनापुर से पारणो
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परान्त विहार करके अहिच्छता की भीमाटवी में पहुंचने के पूर्व भी वह कुछ समय इस स्थान पर तिष्ठे और तपस्या की थी । अतएव यह उनकी तपोभूमि और देशनाभूमि रही प्रतीत होती है ।
मथुरा 'भविमाण पुण्णरिद्धी जा जायइ महरतित्थ जत्ताए'
-विविध तीर्थ कल्प
उत्तर प्रदेश में यमुनातटवर्ती मथुरा ब्रजमण्डल की मुकुटमणि है। हिन्दू, जैन और बौद्ध अनुश्रुतियों में जिन प्राचीनकालीन सोलह महाजनपदों, या अट्ठारह महाराज्यों अथवा साढ़े पच्चीस आर्यदेशों के उल्लेख मिलते हैं उन सब में शूरसेन या शौरसेन देश की भी गणना की गयी है। मथुरा इसी शौरसेन जनपद की राजधानी थी, इतना ही नहीं, वह प्राचीन भारतवर्व की प्रसिद्ध दश राजधानियों अथवा प्रमुख महानगरियों में गिनी जाती थी। इस मथुरा के अनुकरण पर ही दक्षिण भारत के पाण्ड्य देश की राजधानी मदुरा या मधुरा कहलाई। इन दोनों में परस्पर भेद करने के लिए प्राचीन जैन साहित्य में बहुधा उन्हें उत्तर मथुरा एवं दक्षिण मथुरा नामों से सूचित किया गया है।
__पौराणिक अनुश्रुतियों के अनुसार अति प्राचीन काल में सुप्रसिद्ध हरिवंश का इस प्रदेश पर आधिपत्य था । इसी वंश के शूर या शूरसेन नामक राजा के नाम से इस देश का शौरसेन नाम प्रसिद्ध हुआ और इस प्रदेश की भाषा भी शौरसेनी कहलाई। मयुरा नगर का वास्तविक निर्माता भी सम्भवतया यही नरेश था। हरिवंश की एक प्रधान शाखा यदुवंश थी । कालान्तर में इस शाखा का ही शौरसेन प्रदेश से घनिष्ठ सम्बन्ध रहा । महाभारतकाल में यदुवंशियों की प्रधान राजधानी वर्तमान आगरा के निकट शौरीपुर में थी । यद्यपि कुछ समय पश्चात् उसका परित्याग करके यादव लोग पश्चिम तटवर्ती द्वारकापुरी में जा बसे थे, किन्तु इस देश के साथ उनका सम्बन्ध बना रहा । मथुरा में शूर के अनुज सुवीर के पौत्र और भोजकवृष्णि के पुत्र उग्रसेन का राज्य था। यह राजा नारायण कृष्ण का मातामह था। स्वयं कृष्ण की जन्मभूमि एवं बाललीला भूमि भी मथुरा ही थी। उग्रसेन के आततायी पुत्र कंस का उच्छेद करके कृष्ण ने ही उग्रसेन को फिर से मथुरा के सिंहासन पर स्थापित किया था, और उग्रसेन के वंशज जो उग्रवंशी भी कहलाये, मथरा में मौर्यकाल पर्यन्त राज्य करते रहे।
मगध साम्राज्य के उत्कर्ष काल में मथुरा का राज्य नन्दों और मौर्यों का करद राज्य रहा प्रतीत होता है। शंगकाल में पश्चिमोत्तर दिशा से यवनों (यूनानियों) के आक्रमण प्रारम्भ हो गये और उनके शासक दमिन एवं मिनेन्दर ने २री शती ई०पू० में सम्भवतया मथुरा पर भी अधिकार कर लिया था। प्रथम शती ई०पू० के मध्य के लगभग शक जाति ने इस नगर पर अधिकार कर लिया और लगभग एक सौ वर्ष पर्यन्त शक महाक्षत्रप मेवकि, रज्जुबल, शोडास आदि ने यहां शासन किया। उनके उपरान्त पहलवों (पार्थियनों) का भी कुछ काल
र रहा हो सकता है । प्रथम शताब्दी ईस्वी के अन्तिम पाद से लेकर लगभग ३री शती ई० के मध्य तक कुषाण नरेशों का मथुरा में शासन रहा । तदनन्तर नागों एवं वकाटकों का प्रभुत्व रहा और ४थी शती ई० के मध्य से लेकर ७वीं शती ई० के प्रारम्भ तक मथुरा गुप्त साम्राज्य का अंग रही, जिसके पश्चात् कुछ दिन हूणों का भी अधिकार रहा । सन् ५३१ ई० के लगभग मालवा नरेश यशोधर्मन के हाथों हूण नरेश मिहिरकुल की पराजय के उपरान्त मथुरा में फिर से किसी प्राचीन भारतीय वंश का, सम्भवतया उग्रवंश की किसी शाखा का, राज्य स्थापित हो गया और ७वीं शताब्दी में इस वंश के जिनदत्तराय नामक एक राजकुमार के दक्षिण भारत में चले
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जाने और कर्णाटक देश के एक भाग में सान्तार वंश की स्थापना करने के प्रमाण मिलते हैं । दक्षिण कर्णाटक का यह जैन राजवंश कालान्तर में कई शाखा-प्रशाखाओं में विभक्त होता हुआ हुम्बच, कार्क आदि स्थानों में उत्तर मध्यकाल पर्यन्त चलता रहा। मथुरा में इस वंश के मूल पुरुषाओं के वंशज स्थानेश्वर के वर्धनवंशी नरेशों और तदनन्तर कन्नौज के गुर्जर प्रतिहारों की अधीनता में आस-पास के प्रदेश पर राज्य करते रहे । राजपूत युग में भी ग्वालियर, कन्नौज और दिल्ली के राज्यों के बीच मथुरा का छोटा सा राज्य दबा रहा तथा १३वीं शती ई० में दिल्ली पर मुसलमानों का अधिकार होने के उपरान्त मथुरा पर भी उनका शासन स्थापित हो गया। उत्तर मुगलकाल में कुछ समय के लिए भरतपुर के जाट राजाओं ने भी इस नगर पर अधिकार रक्खा किन्तु शीघ्र ही वह अंग्रेजी शासन के अन्तर्गत आ गया और आगरा कमिश्नरी का एक जिला बना दिया गया।
अपने इस दीर्घकालीन इतिहास में मथुरा नगर यद्यपि कभी भी पूरे देश या पूरे उत्तरापथ का तो प्रश्न ही क्या, किसी बड़े राज्य की भी राजधानी नहीं रहा, तथापि वह प्रायः सदैव एक सर्वप्रसिद्ध, सामान्यतः समृद्ध एवं दर्शनीय नगर बना रहा । इसके कई कारण रहे-एक तो यह नगर भारत के एक प्राचीन एवं प्रधान राजपथ तथा उत्तरापथ की एक प्रमुख नदी के किनारे स्थित है, जलवायु स्वास्थ्यकर है और आस-पास का प्रदेश उपजाऊ एवं धन-धान्य बहुल है । बड़ी-बड़ी राजधानियों से दूर रहने के कारण राजनीतिक क्रान्तियों, उथल-पुथल एवं युद्धादि के प्रत्यक्ष प्रभावों से भी बचा रहा । अति प्राचीन काल से ही यूनानी, शक, पलव, कुषाण, हूण आदि विदेशी जातियों के यहां आते रहने, शासन करते रहने तथा बसते रहने से यह भारतीयों एवं विदेशियों का एक अच्छा मिलन स्थल रहा, अत: यहां देशी और विदेशी विभिन्न संस्कृतियों का आदान-प्रदान एवं सम्मिश्रण भी हआ। इसका फल यह हुआ कि मथुरा का व्यापार एवं व्यवसाय प्राचीन काल में सदैव बढ़ा-चढ़ा रहा, और साथ ही वह एक नवीन कला शैली के, विशेषकर मूर्तिकला के क्षेत्र में, विकास का भी प्रधान केन्द्र बन गया । आस-पास में लाल बलुए पत्थर की बहुलता भी यहां इस कला के प्रोत्साहन में बड़ी सहायक हुई। विभिन्न विचारधाराओं के सम्पर्क एवं सम्मिश्रण से इस नगर में विचार स्वातन्त्र्य एवं उदार सहिष्णुता का भी संचार रहा । कुछ प्राचीन जैन ग्रंथों में इस नगर को 'पाखण्डिगर्भ' कहा है और इस विशेषता का हेतु यह बताया है कि इस नगर में अनेक विभिन्न धर्म-धर्मान्तरों के साधु, तपस्वी एवं विद्वान बहुलता के साथ पाये जाते थे ।
__वस्तुतः मथुरापुरी जैन, बौद्ध एवं हिन्दू तीनों ही प्रधान भारतीय धर्मों और उनकी संस्कृतियों का सुखद मिलन स्थल शताब्दियों ही नहीं सहस्त्राब्दियों पर्यन्त बनी रही। जैनधर्म के साथ तो इस नगर का अत्यन्त प्राचीन काल से लेकर प्रायः वर्तमान पर्यन्त घनिष्ठ सम्बन्ध बना रहा है, और उसके प्रसिद्ध धर्मतीर्थों में उसकी गणना है। सातवीं-आठवीं शताब्दी ई० पूर्व से लेकर मुगल शासनकाल पर्यन्त, लगभग ढाई हजार वर्ष तक मथुरा में जैनधर्म उन्नत अवस्था में रहा और यह नगर जैनों का एक प्रमुख सांस्कृतिक केन्द्र बना रहा। इसके बीच भी, शंगकाल (दूसरी शती ई०पू०) से लेकर गुप्तकाल (६ठीं शती ई०) पर्यन्त तो जैनी मथुरा का चरमोत्कर्ष रहा है ।
जैन पुराणों, चरित्र ग्रंथों, आगमिक साहित्य, कथा-कोषों एवं आख्यायिकाओं आदि में मथुरा के अनगिनत उल्लेख मिलते हैं और उसकी गणना प्राचीन, प्रसिद्ध एवं प्रमुख तीर्थों में की जाती है। कतिपय जैन अनश्रतियों के अनुसार सातवें तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ का इस नगर में पदार्पण हुआ था और उस समय उनकी पूजा के लिए यक्षादि देवों ने रातोंरात स्वर्ण के एक विशाल रत्नजटित स्तूप की यहां स्थापना की थी। सुपार्श्व के उपरान्त अन्य कई तीर्थंकरों का भी शुभागमन इस नगर में हुआ और तेइसमें तीर्थंकर पार्श्वनाथ (८७७-७७७ ई०१०) का भी समवसरण यहां आया था तथा उस स्थान पर कल्पद्रुम की स्थापना की गयी थी। पार्श्वनाथ के समय में उपर्यक्त देवनिर्मित स्तूप को ईटों से आच्छादित कर दिया गया था। इसका कारण यह बताया जाता है कि
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तत्कालीन राजा के हृदय में स्तूप में लगे स्वर्ण एवं रत्नों को हस्तगत करने की दुर्भावना उत्पन्न हो गयी थी। गत शताब्दी में मथुरा के कंकाली टीले की खुदाई में इस प्राचीन जैन स्तूप के भग्नावशेष प्रकाश में आये । वहीं से प्राप्त ई० सन् के प्रारम्भिककाल के कुछ शिलालेखों में इस स्तूप के लिए 'देवनिर्मित' विशेषण प्रयुक्त है। पुरातत्वज्ञो का अनुमान है कि यह स्तूप लगभग सातवीं शताब्दी ई० पू० में बना होगा, और न केवल मथुरा का यह देवनिर्मित जैन स्तूप सम्पूर्ण भारतवर्ष में उपलब्ध जैनों एवं बौद्धों के समस्त स्तूपों में सर्वप्राचीन है, वरन् इतिहास-कालीन भारत का सर्वप्राचीन उपलब्ध स्थापत्य भी है।
अन्तिम तीर्थंकर वर्धमान महावीर (५९९-५२७ ई० पू०) का भी इस नगर में पदार्पण हुआ था। मथुरा का तत्कालीन राजा उदयादित्य अथवा भीदाम उनका परम भक्त था, और उसके अनेक प्रजाजन उनके अनुयायी थे। भगवान महावीर के उपरान्त अन्तिम केवली जम्बूस्वामी ने, जिनका कि निर्वाण ४६५ ई० पू० में हुआ था, मथुरा के चौरासी क्षेत्र पर चिरकाल तपस्या की थी। एक अनुश्रुति के अनुसार तो जम्बूस्वामी का निर्वाण भी इसी स्थान से हुआ था और इसी कारण मथुरा की गणना जैन परम्परा के सिद्धक्षेत्रों में भी की जाती है। इसी स्थान पर जम्बूस्वामी ने अञ्जन चोर नामक दस्युराज को उसके पांच सौ साथियों सहित अपने तप तेज से प्रभावित करके अपना अनुयायी बनाया था। इन दस्युओं ने अपने दस्युकर्म का परित्याग करके मुनि दीक्षा ली और उसी वन में घोर तपस्या करके सद्गति प्राप्त की। इन मुनियों की स्मृति में उक्त स्थान पर ५०० स्तूप निर्माण किये गये थे । भिन्न-भिन्न अनुश्रुतियों के अनुसार मथुरा में प्राचीन देवनिर्मित स्तूप के अतिरिक्त ५००,५०१ या ५१४ जैन स्तुप और विद्यमान थे । इन स्तूपों के १६वीं शताब्दी ई. तक विद्यमान रहने और उस समय मुगल सम्राट अकबर के एक कृपापात्र मुसाहिब, भटानिया कोल निवासी एवं अग्रवाल वंशी जैन सेठ साहू टोडर द्वारा उनके जीर्णोद्धार एवं प्रतिष्ठा कराने के उल्लेख तत्कालीन पांडे राजमल्ल के संस्कृत जम्बूचरित्र एवं पांडे जिनदास के हिन्दी जम्बूस्वामी चरित्र में प्राप्त होते हैं । उसके पूर्व भी दो एक बार इन स्तूपों के जीर्णोद्धार किये जाने के ऐतिहासिक प्रमाण मिलते हैं।
कहा जाता हैं कि जैनों के प्राचीन देवनिर्मित स्तूप पर बौद्धों ने भी कुछ समय के लिए अधिकार कर लिया था और ब्राह्मणों एवं विष्णु, सूर्य आदि के उपासकों ने भी स्तूप पर अपना दावा जताया था। काफी समय तक यह वाद-विवाद चला। इस विवाद की सूचना पाकर दक्षिण आदि सुदूर देशों से भी प्रभावशाली जैनी मथरा आये । मथुरा का तत्कालीन राजा न्यायपरायण था और उसने जैनों के पक्ष में ही निर्णय दिया। स्तुप पर जैनों का पुनः अधिकार हो गया। इस घटना के उल्लेख हरिषेण के वृहत्कथाकोष (९५९ ई०) तथा जिन प्रभसूरि के विविध तीर्थकल्प (१४वीं शती) के अन्तर्गत मथुरापुरीकल्प में मिलते हैं । इस घटना का एक सुफल यह हुआ कि उसके उपरान्त मथुरा के जनसंघ की शक्ति उत्तरोत्तर बढ़ती गयी । उपरोक्त घटना सम्भवतया अशोक के समय (३री शती ई०पू०) की है।
___ जैन साहित्य में प्राचीन मथुरा के प्रसिद्ध बारह बनों, वहां के देवनिर्मित स्तूप, कल्पद्रुम, अम्बिका का मन्दिर आदि विभिन्न जैन धर्मायतनों, भंडीर यक्ष की यात्रा, कौमुदी महोत्सव, पट महोत्सव आदि उत्सवों, वस्त्र व्यवसाय, मूर्ति निर्माण कला, आदि के अनेक उल्लेख पाये जाते हैं।
इस जैनी मथुरा और उसके संघ का चरमोत्कर्ष काल उत्तरमौर्य काल से लेकर गुप्तकाल के अन्त पर्यन्त, लगभग सात आठ-सौ वर्ष तक रहा । इसमें भी शुंग-शक-कुषाण काल ( लगभग १५० ई० पू०-२०० ई० ) में वह अपनी उन्नति के चरम शिखर पर था। मथुरा के यवन, शक, कुषाण आदि वंशों के तत्कालीन नरेश जैनधर्म
। काल ( लगभग १५० ६० ५०-२००६०
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के प्रति अत्यन्त उदार एवं सहिष्णु रहे और मथुरा एवं उसके आसपास बसने वाली विभिन्न जातियों, वर्गों एवं व्यवसायों के अनगिनत स्त्री पुरुष उसके उत्साही अनुयायी बने। मथुरा और उसके आसपास से प्राप्त अनगिनत तत्कालीन जैन कलाकृतियां एवं सैकड़ों शिलालेख इस बात को भली भांति प्रमाणित कर देते हैं कि उस काल के मथुरा के जैन गुरु न केवल संघभेद के विरोधी तथा समन्वय एवं मेल के सक्रिय समर्थक थे वरन् वे अत्यन्त उदारचेता एवं प्रगतिशील भी थे।
मथुरा जनसंघ की इस उदाराशयता एवं प्रगतिशीलता का ज्वलन्त उदाहरण वह महान सरस्वती आंदोलन ' है जिसने तत्कालीन जैन संसार में भारी क्रान्ति मचा दी थी। उन्होंने अवशिष्ट आगमज्ञान के संकलन एवं लिपिबद्ध करने और जैन साधुओं में लिखने की प्रवत्ति का प्रचार करने के लिए एक व्यवस्थित आन्दोलन चला दिया था । उन्होंने पुस्तकधारिणी सरस्वती देवी की प्रतिमाएँ निर्माण कराकर प्रतिष्ठित की और ज्ञान की उस देवी को अपने आन्दोलन की अधिष्ठात्री बनाया। पुस्तक साहित्य विरोधी जैन साधुओं के लिए स्वयं वाग्देवी सरस्वती का प्रस्तकिन एक चुनौती था। मथुरा के जैन साधु ही इस आन्दोलन के पुरस्कर्ता, प्रवर्तक एवं आद्य नेता थे। मूर्तियों, स्मारकों एवं अन्य धामिक कलाकृतियों पर शिलालेख अंकित कराना प्रारम्भ करके उन्होंने इस आन्दोलन को सक्रिय रूप दिया।
मथुरा के जैन गुरुओं ने जैनधर्म को न केवल वर्ण, जाति, लिंग आदि के भेदभावों से उन्मुक्त रखा और ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, विभिन्न व्यवसायों को करने वाले उच्च जातीय, नीच जातीय, विविध वर्गीय, देशीविदेशी, स्त्री-पुरुष, सभी को समान अधिकारों के साथ स्वधर्म में दीक्षित किया, वरन अपनी धर्माश्रित कला को भी विविध प्रकारों एवं रूपों में अत्यन्त उदारता एवं मनस्विता के साथ विकसित किया । भारतवर्ष में लेखन प्रवृत्ति को लोकप्रिय एवं जनता की चीज बनाने वाले सर्वप्रथम लोग सम्भवतया इस काल के मथुरा के जैन साधु ही थे। और इस काल की मथुरा में ही सर्वप्रथम एक सुगठित जैन साधु संघ के साथ-साथ एक सुव्यवस्थित एवं विशाल जोन साध्वी संघ के भी दर्शन होते हैं।
३री शताब्दी ई० में मथुरा में कुषाण शक्ति का पराभव प्रारम्भ हो गया और समस्त उत्तरापथ में शनैः शनैः नाग राज्यों का जाल फैल गया । ये नागराज्य गणसंघ प्रणाली पर व्यवस्थित हुए। नागों के उत्तराधिकारी वकाटक हुए और तदन्तर चौथी शती ई० के अन्तिम पाद तक समस्त उत्तरापथ गुप्त साम्राज्य की छत्रच्छाया में आ गया । इन नाग, वकाटक एवं गुप्त वंशों के प्रायः सभी नरेश सर्वधर्म सहिष्णु थे । मथुरा का जनसंघ उनके शासनकालों में सुखपूर्वक फलता फूलता रहा, किन्तु उसका मध्यान्ह व्यतीत हो चुका था, पहिले जैसा तेज और प्रभाव, संख्या और शक्ति अब न रह गयी थी-उनमें धीरे-धीरे ह्रास होता चला गया। सन् ईस्वी की ८वी-९वीं शताब्दी में गुर्जर प्रतिहार नरेश आमराज के गुरु बप्प भट्टिसूरि ने मथुरा के अनेक प्राचीन धर्मायतनों का जीर्णोद्धार कराया बताया जाता है । उसी काल में एक दक्षिणाचार्य ने वहां माथुर संघ की स्थापना की थी। आमराज का पौत्र प्रसिद्ध भोजराज भी जैनधर्म का भारी प्रश्रयदाता था। इस प्रकार उत्तर-गुप्तकाल में अथवा कन्नौज साम्राज्य काल में मथरा में जैन धर्म अच्छी दशा में तो रहा किन्तु इसी काल में (९वीं-१०वीं शती ई०) में वहां सर्वप्रथम दिगम्बर-श्वेताम्बर भेद भी उत्पन्न हो गया। दोनों ही सम्प्रदायों ने अलग-अलग कतिपय प्राचीन धर्मायतनों पर भी अपना-अपना अधिकार कर लिया और अपने नवीन भन्दिर भी पृथक-पृथक बनाने प्रारम्भ कर दिये तथा ११वीं१२वीं शताब्दी में मूर्तियां भी पृथक-पृथक बनानी प्रारम्भ कर दी।
तथापि १३वीं शती ई० तक मथुरा का जैन क्षेत्र, जिसका प्रधान केन्द्र कंकाली टीले (देवनिर्मित स्तूप की स्थिति) से लेकर चौरासी पर्यन्त था, समुन्नत एवं सुरक्षित दशा में रहा। इस काल के अनेक प्रतिमालेख इस
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[ ५५ तथ्य के साक्षी हैं । उनसे यह भी स्पष्ट है कि महमूद गजनवी की मथुरा की भयंकर लूट (१०१८ ई०) एवं मन्दिर-मूति-विध्वंस से मथुरा का यह जैनकेन्द्र और उसके धर्मायतन सुरक्षित बचे रहे। इस तथ्य पर हतिहासज्ञों को निरन्तर आश्चर्य होता है । तेरहवीं शताब्दी से ही उत्तर भारत में मुसलमानी शासन स्थापित हो गया और सम्पूर्ण मध्यकाल में मथुरा की स्थिति प्रायः करके एक धर्मतीर्थ की ही रही। दक्षिण, पूर्व पश्चिम तथा अन्य प्रदेशों से मथुरा की यात्रा के लिए आने वाले जैन विद्वानों, साधुओं एवं गृहस्थों के उल्लेख १३वीं से लेकर १९वीं शताब्दी पर्यन्त अनेकों मिलते हैं । १८वीं शताब्दी में भरतपुर के जाट नरेश हीरासिंह के प्रश्रय में पल्लीवाल वंशी चौधरी जोधराज ने भट्टारक महानन्दसागर द्वारा मथुरा में मन्दिर एवं मूर्ति प्रतिष्ठा कराई थी। १९वीं शताब्दी के प्रारम्भ में चौरासी क्षेत्र का वर्तमान मन्दिर प्राचीन मन्दिर के भग्नावशेषों के ऊपर निर्मित किया गया था । इसी शताब्दी में मथुरा के प्रसिद्ध जैन सेठ रघुनाथ दास और उनके सुपुत्र राजा लक्षमणदास मथुरा के ही नहीं, अखिल भारतवर्षीय जैन समाज के स्तम्भ थे। राजा लक्ष्मणदास भारतवर्षीय दिगम्बर जैन महासभा के संस्थापकों में से भी एक थे । गत शताब्दी में ही मथुरा के कंकाली टीले की युगान्तरकारी खुदाई राजकीय पुरातत्व विभाग की ओर से की गयी, जिसके फलस्वरूप प्राचीन जैन नगरी मथुरा का नैभव प्रकाश में आया और इस नगर के साथ ही साथ जैनधर्म एवं भारतवर्ष के भी प्राचीन इतिहास के निर्माण में परम सहायक हुआ। वर्तमान शताब्दी में चौरासी क्षेत्र पर ऋषभ-ब्रह्मचर्याश्रम स्थापित हुआ और तदनन्तर उसी के निकट अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जनसंघ का भवन बना एवं कार्यालय स्थापित हुआ। संघ का मुखपन जैनसन्देश और उसका शोधांक भी इसी स्थान से निकलते हैं। चौरासी क्षेत्र पर प्रतिवर्ष कार्तिक मास में मेला होता है।
[विशेष विस्तृत जानकारी के लिए देखें हमारे लेख-मथुरा (जै० सि० भास्कर, भा० २२, कि० २, पृ० २३-३२); मथुरा में जैनधर्म का उदय और विकास (ब्रजभारती, व २५, अं० २, पृ० २-२३); जैनसाहित्य में मथुरा (अनेकांत, जून १९६२, पृ० ६५-६७); मथुरा का जैन पुरातत्व एवं शिलालेख (शोधांक १९, पृ० २९६३०१): मथुरा की जैनकला (शोधांक २०, पृ० ३३८-३४०); मथुरा के जैन शिलालेख (शोधांक २१, पृ० २-१०); मथुरा के प्राचीन जैन मुनियों की संघ व्यवस्था (शोधांक २३, पृ० ७२-८३), इत्यादि ।] (घ) भगवान महावीर के विहार स्थल
हरिवंशकार आचार्य जिनसेन ने जिन देश-प्रदेशों में भगवान महावीर का विहार हआ बताया है, उनमें से काशि (बनारस कमिश्नरी), कौशल (अवध प्रान्त), वत्स (इलाहाबाद कमिश्नरी), शौरसेन और कुशात (आगरा कमिश्नरी-ब्रजमंडल एवं भदावर प्रान्त), पांचाल (रूहेलखंड एवं गंगापार के फर्रुखाबाद आदि जिले), कुरुजांगल (मेरठ कमिश्नरी), वर्तमान उत्तर प्रदेश के ही विभिन्नभूभाग थे। वर्तमान बुन्देलखंड के जिलों में भी उनका विहार हुआ लगता है। इस प्रकार प्राय: सम्पूर्ण उत्तर प्रदेश में वह विचरे थे।
प्रसिद्ध नगरियों एवं स्थानों में, वाराणसी, श्रावस्ति, कौशाम्बी, काकंदी, साकेत (अयोध्या), प्रयाग (पुरिमताल), मथुरा, हस्तिनापुर आदि में वह विचरे थे। अन्य स्थानों में सेयंविया (श्वेताम्बिका) की पहचान श्रावस्ती के निकटस्थ सीतामढ़ी से की जाती है, कयंगला भी श्रावस्ती के निकट स्थित था। हलिङ्ग उत्तर-पूर्वी उत्तर प्रदेश में कोलियों की राजधानी रामगाम के निकट था। वेदशास्त्री पंडितों का निवास स्थान नंगला कोशल देश (अवध) में स्थित था, आलभिका की पहचान उन्नाव जिले के नवलगांव से अथवा इटावा जिले के एरवा नामक स्थान से की जाती है। विसाखा की पहवान कुछ विद्वान उत्तर प्रदेश की वर्तमान राजधानी लखनऊ से करते हैं। उत्तर वाचाला से उत्तर पांचाल और उसकी राजधानी अहिच्छता का, दक्षिण वाचाला से दक्षिण पांचाल और उसकी
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राजधानी काम्पिल्य का तथा कनखल आश्रमपद से हरिद्वार के निकटस्थ कंखल से अभिप्राय हो सकता है। पोदनपुर या पोत्तनपुर की पहचान इलाहाबाद जिले में गंगापार स्थित वर्तमान झसी से की जाती है, जिसका प्राचीन नाम सुप्रतिष्ठान या प्रतिष्ठानपुर भी था-ऋषभपुत्र बाहुबलि का पोदनपुर भी संभवतया यही था, और भ० महावीर का यहाँ समवसरण आया था। अन्य अनेक जैन पुराण कथाओं के साथ इस नगर का सम्बन्ध है।
(च) अतिशयक्षेत्र एवं कलाधाम
इस वर्ग में ऐसे स्थान सम्मिलित हैं जहाँ से प्राचीन एवं मध्यकालीन विपुल जैन पुरातत्त्व एवं कलाकृतियाँ प्राप्त हुई, अथवा जो किसी प्रतिमा, मन्दिर या चमत्कारी अतिशय के कारण तीर्थरूप में प्रसिद्ध हो गये। मथुरा प्रभृति जिन कलाधामों का परिचय पीछे दिया जा चुका है, उन्हें इस वर्ग में सम्मिलित नहीं किया गया है।
देवगढ़
देवगढ़ चिरकाल पर्यन्त जैनों का एक प्रसिद्ध सांस्कृतिक केन्द्र रहा है। वर्तमान में इस नाम का एक छोटा सा गाँव ललितपुर जिले में बेतवा नदी के कल पर, पहाड़ियों के अन्तिम छोर पर घने जंगल के बीच बसा हुआ है, जो देहली से बम्बई जाने वाली रेलवे के ललितपुर स्टेशन से १९ मील तथा जाखलौन स्टेशन से लगभग ८ मील दक्षिण-पश्चिमोत्तर स्थित है। जंगल में यत्र-तत्र बिखरी हई अनगिनत प्राचीन खण्डित मूर्तियाँ एवं भवनों के प्रस्तर खण्ड कल्पनाशील यात्रियों को इस प्रदेश के अतीत गौरव की मूक गाथा सुनाते हैं।
देवगढ़ का प्राचीन चतुष्कोण दुर्ग गाँव के निकट ही एक गोलाकार पहाड़ पर बना हुआ है। पर्वत के ऊपर पहुंचने पर एक भग्न तोरण द्वार मिलता है जो पर्वत की परिधि को आवृत्त करने वाले दुर्गकोट का प्रमुख द्वार प्रतीत होता है। इसे कुंजद्वार भी कहते हैं। इसकी कारीगरी दर्शनीय है। इस द्वार को पार करने पर एक के बाद एक दो जीर्ण कोट और मिलते हैं। इन्हीं दोनों कोटों के भीतर अधिकांश जैनमन्दिर अवस्थित हैं। इन कलापूर्ण प्राचीन देवालयों के कारण ही देवगढ़ की इतनी प्रसिद्धि है।
देवगढ़ जिस स्थान में स्थित है वह भूभाग प्राकृतिक शोभा की दृष्टि से अत्यन्त मनोरम एवं अप्रतिम है। दुर्ग को तीन ओर से आवृत्त करती हुई बेतवा ने विन्ध्यपर्वतश्रेणी को काटकर यहाँ कुछ एक अत्यन्त चित्ताकर्षक दृश्य निर्माण किये हैं। दक्षिण दिशा में देवगढ़ दुर्ग की सीढ़ियां नदी के जल को स्पर्श करती हैं। इसी ओर देव मूर्तियों एवं अन्य कलाकृतियों से युक्त कतिपय गुहा मन्दिरों को अपने अंकों में लिए हुए नाहरघाटी एवं राजघाटी स्थित हैं। वैलहाउस, फर्ग्युसन, बरजेस आदि कलामर्मज्ञों ने यह अनुभव किया है कि अपने तीर्थ स्थान एवं सांस्कृतिक केन्द्र स्थापित करने के लिए प्राकृतिक सौन्दर्य से पूर्ण स्थलों के चुनने में जैनीजन सदैव बेजोड़ रहे हैं। देवगढ़ इस तथ्य को भली प्रकार चरितार्थ करता है। प्रकृति की सुषमापूर्ण गोद में सुषुप्त देवगढ़ का वैभव आज भी अपनी प्राकृतिक एवं कलात्मक द्विविध सौन्दर्य राशि से दर्शकों की सौन्दर्यानुभूति के लिए अनुपम प्रेरक बना हुआ है।
इस स्थान के भग्नावशेषों को देखकर इसमें तनिक भी सन्देह नहीं रहता कि किसी समय चिरकाल पर्यन्त वह एक सुन्दर सुदृढ़ दुर्ग से युक्त भरापूरा विशाल रमणीक नगर एवं धर्म और संस्कृति का महत्वपूर्ण केन्द्र रहा होगा । देवगढ़ के अवशेष आज भी प्राचीन भारतीय कला और उसके विकास के अध्ययन के लिए प्रचुर सामग्री प्रदान करते हैं।
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२०-कलापूर्ण शिखरयुत बड़ा शान्तिनाथ जिनालय, देवगढ़
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SExcera Rameemiewerest
२१-मन्दिर नं०१२का भब्य अद्ध मण्डप, देवगढ़
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२२-रोचक दृश्यांकनों से युक्त मन्दिर नं० १२ के प्रदक्षिणापथ के द्वार का
दायां पक्ष, देवगढ़
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२३-सहस्रकूट चैत्य, देवगढ़
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२४-कलापूर्ण मानस्तम्भ-शौर्ष, देवगढ़
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२५-मानस्तम्भ नं. ११ का अलंकृत शीर्ष, देवगढ़
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२६–कल्पवृक्ष के नीचे युगलिया, देवगढ़
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२७-धरणेन्द्र-पद्मावती, देवगढ़
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२० बीस भुजा पत्रेश्वरी देवी, देवगढ़
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२९- शुचिस्मिता देवगढ
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३०-कायोत्सर्ग तीर्थङ्कर, देवगढ़
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३१-भगवान बाहुबलि, देवगढ़
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३२-भ० चन्द्रनाथ पंच-तीर्थी, देवगढ़
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३३-भ० ऋषभदेव-त्रितीर्थी, देवगढ़
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गुप्त नरेशों के काल से देवगढ़ का वास्तविक अभ्युदय प्रारम्भ हुआ। उस समय यह एक प्रसिद्ध राजमार्ग पर स्थित था और गुप्त साम्राज्य का एक प्रमुख जनपद था-संभवतया तत्प्रदेशीय भुक्ति का केन्द्रीय स्थान था। गुप्तकाल के कई जैन एवं वैष्णव देवालय, मूर्तियाँ तथा भवनों के अवशेष यहाँ प्राप्त हैं। ८वीं से १०वीं श कन्नौज के गुर्जरप्रतिहारों का देवमढ़ पर प्रभुत्व रहा और यह नगर एक महत्वपूर्ण प्रान्तीय केन्द्र एवं एक महासामन्त की राजधानी था। ऐसा प्रतीत होता है कि गुप्तों और गुर्जर प्रतिहारों के मध्य की शताब्दियों में इस स्थान पर किसी राज्यवंश या उपराज्यवंश का शासन रहा, उन्होंने ही इस सुरम्य पर्वत पर यह सुन्दर सुदृढ़ त्रिकूट दुर्ग निर्माण कराया और उसे अनेक जैन देवालयों एवं कलाकृतियों से अलंकृत किया। पर्वत के ऊपर और दुर्गकोट के भीतर अन्य किसी धर्म के या उसके देवालयों आदि के अवशेष नहीं मिलते। इसके विपरीत, ९वीं शती ई. के एक शिलालेख से सिद्ध होता है कि उसके पूर्व भी यह दुर्ग और उसके भीतर कई प्रमुख जिन मन्दिर विद्यमान थे। एक विद्वान का अनुमान है कि ८वीं-९वीं शती ई० में यहाँ किसी 'देववंश' का शासन रहा है। गुर्जर प्रतिहारों के उपरान्त जेजाकभुक्ति के चन्देल नरेशों का इस स्थान पर अधिकार रहा। उनके राज्य की यह एक उपराजधानी ही थी। उनके शासन में देवगढ़ के धार्मिक एवं कला वैभव की अभिवृद्धि ही हुई। यहां के अधिकांश महत्वपूर्ण अवशेष चंदेलकाल के ही हैं। मुस्लिम काल में यह स्थान प्रमुख राजपथ से दूर पड़ गया और धीरे-धीरे घने वन से वेष्टित होने लगा, फलस्वरूप उनकी कुदृष्टि देवगढ़ के देवालयों पर न पड़ पाई और विध्वंस किये जाने से उनकी रक्षा हो गयी। फिर भी १९वीं शताब्दी के प्रारंम्भ तक देवगढ़ का दुर्ग एक सुदृढ़ एवं सुरक्षित दुर्ग था। सन् १८११ ई० में जब सिंधिया की ओर से उसके सेनापति कर्नल फिलोज ने बुन्देलों से देवगढ़ को छीनना चाहा तो वह लगातार तीन दिन तक युद्ध करने के उपरान्त ही उस पर अधिकार कर पाया था।
देवगढ़ का प्राचीन नाम लुअच्छगिरि था। चन्देल नरेश कीर्तिवर्मन (११वीं शती का अन्त) के मन्त्री वत्सराज ने इस स्थान पर एक नवीन दुर्ग निर्माण कराके, अथवा प्राचीन दुर्ग का ही जीर्णोद्वार कराकर इसका नाम कीर्तिगिरि रक्खा था। सन् ८६२ ई० का शिलालेख जिस जैन स्तम्भ पर मंकित है उसके प्रतिष्ठापक आचार्य कमलदेव के शिष्य आचार्य श्रीदेव थे। संभव है वे देवसंघ के आचार्य हों और इस स्थान पर अपनी भट्टारकीय गद्दी स्थापित की हो तथा यहां के प्रसिद्ध धर्माचार्य रहे हों, उनके अपने या उनके संघ के नाम से यह दुर्ग देवगढ़ कहलाने लगा हो । इस प्रदेश में प्रचलित एक जनश्रुति भी है कि प्राचीन काल में किसीसमय देवपत और क्षेमपत नाम के दो जैन भ्राता इस नगर में रहते थे। देवकृपा से उन्हें पारस पथरी प्राप्त हो गई, जिसके प्रभाव से वे विपुल धन ऐश्वर्य के स्वामी बन गये । उस धन का सदुपयोग उन्होंने इस स्थान पर अनेक भव्य जिनायतनों का निर्माण कराने तथा दुर्ग एवं नगर का सौन्दर्य तथा वैभव बढ़ाने में किया। तत्कालीन राजा ने उन पर आक्रमण करके वह पथरी उनसे बरबस छीनना चाही, किन्तु देवपत ने उस पथरी को इसके पूर्व ही बेतवा के गम्भीर जल में विसर्जित कर दिया था। कहा जाता है कि उक्त देवपत के कारण ही यह स्थान देवगढ़ कहलाया। यह भी संभव है कि अनगिनत देवमूर्तियों एवं देवायतनों के कारण ही उसका देवगढ़ नाम प्रसिद्ध हुआ। कम से कम जैनों की दृष्टि में तो अपने बहसंख्यक प्राचीन देवमंदिरों एवं देव प्रतिमाओं के कारण वह एक सच्चा देवगढ़ बना चला आया है और किसी तीर्थंकर की कल्याणक भूमि न होते हुए भी एक पवित्र धर्मतीर्थ के रूप में दर्शनीय एवं वन्दनीय रहता आया है। इसके साथ कई अतिशय या चमत्कार भी जुड़ गये हैं।
देवगढ़ के पुरातत्वावशेषों में से अधिकांश जैन मन्दिरों, मूर्तियों और भवनों के ही भग्न-अभग्न अवशेष हैं, और उनमें से भी अधिकांश उसके केन्द्रीय स्थान दुर्गकोट के भीतर ही हैं। इन में कुछ बहत छोटे-छोटे धर्मायतनों को छोड़कर शेष लगभग ३०-३१ भव्य जिनमन्दिरों के स्पष्ट चिन्ह मिलते हैं, और इनमें भी लगभग १६-१७ बहुत कुछ
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अच्छी हालत में हैं। इन मन्दिरों में से अधिकांश ८वीं से १२वीं शताब्दा के मध्य बने प्रतीत होते हैं, जबकि कई मन्दिर १५वीं से १८वीं शती के मध्य भी निर्मित हुए हैं। दूसरे कोट के भीतर केवल दो मन्दिर हैं जिनमें से एक तो सोलह स्तंभों पर आधारित सुन्दर मंडप से युक्त विशाल एवं भव्य जिनालय का खंडहर है। मंडप के अवशिष्टांश में पूर्वाभिमुख पद्मासन एवं खड्गासन जिन मूर्तियां, चमर वाहक, यक्ष-यक्षी, पुष्पवृष्टि आदि विविध लक्षणों से युक्त दो पंक्तियों में उत्कीर्ण हैं। मंडप की बाहरी दीवार में भी कई मूर्तियां उत्कीर्ण हैं, उनके सामने ही एक छोटा सा मानस्तंभ बना हुआ है। कुछ छोटी-छोटी मूर्तियां मन्दिर के सामने भी विराजमान हैं। दूसरा मन्दिर अधिक जीर्ण शीर्ण दशा में है, इसमें भी कलापूर्ण पद्मासन एवं खड्गासन मूर्तियां विद्यमान हैं। इस मन्दिर के बाहिर दक्षिण की ओर खंडित मूर्तियों का एक ढेर लगा हुआ है। इनके अतिरिक्त शेष समस्त मन्दिर तीसरे कोट के भीतर हैं।
तीसरे कोट के मन्दिरों में सर्वाधिक विशाल एवं महत्वपूर्ण मन्दिर १६में तीर्थंकर भ० शान्तिनाथ का है। मन्दिर के गर्भगृह में भ० शान्तिनाथ की १२ फुट ३ इंच की खड्गासन प्रतिमा अत्यन्त चित्ताकर्षक है। शान्तिनाथ ही देवगढ़ के अधिष्ठाता देव प्रतीत होते हैं, यह प्रतिमा भी पर्याप्त प्राचीन है। गर्भगृह के आगे लगभग ४२ फुट लम्बा चौड़ा वर्गाकार मण्डप है जो छ:-छः स्तम्भों की छः पंक्तियों पर आधारित है। मण्डप के मध्य एक विशाल बेदिका पर कई मूर्तियां विराजमान हैं जिनमें से एक बाहुबलि की है । यह मूर्ति गोम्मटेश्वर बाहुबलि की दक्षिणात्य मूर्तियों से कई अंशों में विलक्षण है । बामी, कुक्कुटसर्प, लता आदि के अतिरिक्त इस मूर्ति पर बिच्छू, छिपकली आदि अन्य जन्तु भी रेंगते हुए अंकित किये गये हैं और साथ ही इन उपसर्गकारी जन्तुओं आदि का निवारण करते हुए देव युगल का दृश्य भी अंकित है । मन्दिर के सामने १६-१७ फुट की दूरी पर चार सुन्दर खम्भों पर आधारित एक अन्य भव्य मंडप है। इन्हीं स्तम्भों में से एक पर सन् ८६२ ई० का गुर्जर प्रतिहार सम्राट भोजदेव के समय का प्रसिद्ध लेख उत्कीर्ण है । इस मन्दिर में तीन अन्य दस-दस फुट ऊँची खड्गासन प्रतिमाएँ भी विराजमान हैं, छोटी अन्य अनेक प्रतिमाएँ भी हैं। इस मन्दिर के आस-पास अन्य अनेक छोटे-बड़े मन्दिर विद्यमान हैं। इनमें से लाखी मन्दिर के नाम से प्रसिद्ध है । एक अन्य मन्दिर अपने कलापूर्ण प्रवेश द्वार के लिए दर्शनीय हैं। उसके नीचे की ओर करों में जलयान और सिर पर नाग-फण धारण किये हुए संभवतः गंगा यमुना की युगल मूर्तियां हैं। यहाँ १००८ जिन मूर्तियों से युक्त पाषाण का एक सुन्दर सहस्रकूट चैत्यालय भी अवस्थित है । एक मन्दिर की दीवार पर भगवान की माता की पांच फुट उत्तुंग मनोहर मूर्ति उत्कीर्ण है । एक स्थान पर पार्श्वनाथ की मूर्ति के सिर पर नागफण न बनाकर उसके बगल में दोनों और विशालकाय सर्प बना दिये हैं, तथा ऋषभदेव की मूर्ति के शिर पर जटाएँ दिखाई हैं । एक मन्दिर में चरण चिन्ह ही हैं । एक दूसरे में तीर्थकर मूर्तियों के अतिरिक्त मुनि, आर्यिका आदि की मूर्तियां भी उत्कीर्ण हैं । एक मन्दिर के बाहरी बरामदे में विराजमान चतुर्भुजी सरस्वती की, षोडषभुजा गरुड वाहना चक्रेश्वरी की, अष्टभुजा वृषभवाहना ज्वालमालिनी की एवं कमलासना पद्मावती की मूर्तियां अत्यन्त कलापूर्ण एवं चित्ताकर्षक हैं । इनमें से एक पर वि० सं० १२२६ उत्कीर्ण है, संभव है ये चारों मूर्तियां एक ही कलाकार की कृतियां हों। शान्तिनाथ के उपरोक्त बड़े मन्दिर के मंडप की एक दीवार पर भी २४ शासन देवियों में से २० की सून्दर मूर्तियां उनके नाम सहित उत्कीर्ण हैं, जो रा० ब० दयाराम साहनी के मतानुसार उत्तर भारत में प्राप्त यक्षि मूर्तियों में सर्वथा विलक्षण एवं अद्वितीय हैं। कहीं-कहीं गृहस्थ श्रावक श्राविकाओं की मूर्तियां भी पाई जाती हैं। देवगढ़ ही एक स्थान है जहाँ अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु, पाँचों ही परमेष्ठियों होती हैं। तीर्थंकरों में से तो चौबीसों ही तीर्थंकरों की मूर्तियाँ यहाँ मिलती हैं। कई स्थानों में विशेषकर अजितनाथ और चन्द्रप्रभु के आठ-आठ या चार-चार अन्य जिनमूर्तियों से युक्त पट भी दर्शनीय हैं । कहीं-कहीं एक वृक्ष के नीचे गोद में एक-एक बच्चा लिए हुए दम्पति युगल की मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। श्री दयाराम साहनी के मतानुसार ये दृश्य 'भोगभूमि के हैं, जिनमें कल्पवृक्ष के नीचे तिष्ठते हुए युगलिया सन्तान युक्त प्रसन्न युगल प्रदर्शित किये गये हैं।
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देवगढ़ के समस्त जैन प्रस्तराङ्कनों का विधिवत अध्ययन करने से उनमें अनेक अनुभूतियों एवं पौराणिक आख्यानों का चित्रण मिलने की संभावना है।
सभी मूर्तियां प्रस्तर निर्मित हैं या प्रस्तराङ्कनों के रूप में है । अधिकांश खड्गासन हैं, जिनकी ऊंचाई दोढाई फुट से लेकर बारह फुट तक हैं। मूर्तियों के केशों की बनावट भिन्न-भिन्न प्रकार की है । अरहन्तों एवं मुनियों की दिगम्बर प्रतिमाओं के अतिरिक्त सरागी देवी-देवताओं एवं गृहस्थ स्त्री-पुरुषों की भावभंगी, परिधान, अलङ्करण आदि के चित्रण में कलाकार ने कमाल किया है। अनेक जैन सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक प्रतीक यत्र-तत्व उत्कीर्ण मिलते हैं और लोक जीवन के दृश्य भी उपलब्ध हैं। इस प्रकार देवगढ़ का रूप शिल्प न केवल धार्मिक एवं कलात्मक दृष्टि से ही वरन सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है।
देवगढ़ के मन्दिरों का निर्माण उत्तर भारत में विकसित नागर शैली में हुआ है, जिसे पंचरत्न शैली भी कहते हैं | शान्तिनाथ आदि मंदिरों के शिखर अत्यन्त सुन्दर हैं। सभी मन्दिर प्रस्तर निर्मित हैं और उनका कटाव एवं कारीगरी दर्शनीय है। मन्दिरों के गर्भगृह प्रायः अन्धकारमय हैं और उनके द्वार बहुत छोटे-छोटे हैं किन्तु गर्भगृहों के आगे के सभा मंडप खुले और विशाल हैं जिन स्तम्भों पर वे आधारित हैं उनकी तथा छतों एवं दीवारों की कारीगरी और उनपर उत्कीर्ण मूर्त दृश्य एवं अलंकरण चित्ताकर्षक हैं। मन्दिरों के तोरणद्वार भी सुन्दर एवं कलापूर्ण हैं। चरण चिन्हों से युक्त शिखरबंद खुली छतरियां भी हैं और जिनमूर्तियों एवं मंगल प्रतीकों से अलंकृत कई सुन्दर उत्तुंग मानस्तम्भ भी हैं। स्वयं दुर्गकोट, उसका तोरणद्वार घाट और सीढ़ियां, विशाल पाषाण में काटकर बनाई बावड़ी आदि भी प्राचीन स्थापत्य के अच्छे नमूने हैं । वस्तुतः उपरोक्त नागर शैली के स्थापत्य का विकास गुप्तकाल से और वह भी मुख्यतया देवगढ़ के जिनायतनों द्वारा ही प्रारम्भ हुआ प्रतीत होता है, यही कारण है कि देवगढ़ और उसके उपरान्त खजुराहों, चन्देरी, अजयगढ़, महोबा, अहार, पपौरा आदि के प्राचीन जैन मन्दिर प्राग्मुस्लिम कालीन सम्पूर्ण भारतीय कला का सफल प्रतिनिधित्व करते हैं। गुप्त गुर्जर-प्रतिहार और चन्देल वंशों के सहिष्णु नरेशों के आश्रय में उत्तर भारत की धर्माधित कला, विशेषकर जैनों के प्रयत्न से खूब फली फूली ।
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शिलालेखीय सामग्री की भी देवगढ़ में प्रचुरता है । उत्तर भारतीय पुरातत्व विभाग की सन् १९१८ ई० की वार्षिक रिपोर्ट में इस स्थान से प्राप्त लगभग २०० शिलालेखों की सूचना दी हुई थी उसके बाद भी एक सौ अन्य लेख मिले हैं । फिर भी देवगढ़ में तथा उसके आसपास जंगल में यत्र-तत्र बिखरी हुई खंडित अखंडित अनेक जैन प्रतिमाओं पर उत्कीर्ण सभी लेखों का अभी तक संग्रह और सूचना नहीं हो पाई है। रिपोर्ट में सूचित लेखों में से लगभग डेढ़ सौ लेख ऐतिहासिक महत्व के हैं, कुछ एक तो अत्यधिक महत्वपूर्ण है। लगभग साठ लेख ऐसे हैं जिनमें उनके अंकित किये जाने की तिथि का भी उल्लेख है । ये लेख प्रायः वि० सं० ९१९ से १८७६ पर्यन्त के हैं । ये शिलालेख न केवल देवगढ़ के तत्कालीन जैन धर्मावलम्बियों के धार्मिक जीवन, सामाजिक संगठन तथा तत्सम्बन्धी राजनैतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास पर विकास का अध्ययन करने के लिए भी ये
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इतिहास ज्ञान के लिए ही उपयोगी है, वरन् भारतवर्ष के सामान्य भी पुष्कल प्रकाश डालते हैं। साथ ही नागरी अक्षरों एवं लिपि के क्रमिक अत्यधिक उपयोगी हैं।
भोजदेव के समय के स्तम्भ लेख के अनुसार उक्त सम्राट के पंचमहाशब्दप्राप्त महासामन्त श्री विष्णुराम के शासन में आचार्य कमलदेव के शिष्य आचार्य श्रीदेव ने इस लुअच्छगिरि के प्रचीन शान्त्यायतन ( शान्तिनाथ के मन्दिर) के निकट गोष्ठिक बाजुआ गागा द्वारा मानस्तम्भ निर्माण कराकर वि० सं० ९१९ शककाल ७८४ की आश्विन शुक्ल चतुर्दशी वृहस्पतिवार को उत्तराभाद्रपद नक्षत्र में प्रतिष्ठापित किया था। अपने ऐतिहासिक एवं धार्मिक
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महत्व के अतिरिक्त सन् ८६२ ई० के इस अभिलेख की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें विक्रम एवं शक दोनों ही संवतों के एक साथ उल्लेख का प्रायः सर्व प्राचीन उदाहरण मिलता है। एक विचिन्न शि० ले. १८ लिपियों में
जाता है कि आदि तीर्थंकर ऋषभदेव की पत्नी ब्राह्मी ने उक्त अठारह लिपियों का सर्व प्रथम आविष्कार किया था। इसी मन्दिर के निकट एक अन्य जैन मन्दिर में ११वीं-१२वीं शती की लिपि में एक लेख है जिसमें एक दानशाला के वनाये जाने का वर्णन है।
इन जैन शिलालेखों में विभिन्न जैनाचार्यों, साध्वियों, विद्वानों, श्रावक-श्राविकाओं, राजा महाराजाओं आदि के नाम आये हैं।
इस प्रकार अपने आकर्षक प्राकृतिक वातावरण एवं असंख्य अप्रतिम कलाकृतियों, ऐतिहासिक शिलालेखों, आदि के लिए देवगढ़ सामान्य दर्शकों, कलाप्रेमियों, पुरातत्वज्ञों, इतिहास के विद्यार्थियों तथा धार्मिक जनसाधारण, सभी के लिए एक दर्शनीय एवं अध्ययनीय स्थल है। प्राचीन भारत का वैभव देवगढ़ आज भी भारतीय राष्ट का गौरव है।
देवगढ़ में यात्रियों की सुविधा के लिए पर्वत से नीचे वन्य विभाग का एक डाक बंगला और एक जैन धर्मशाला है, तथा दि. जैन देवगढ़ तीर्थ कमेटी की ओर से एक प्रदर्शक भी नियुक्त है। प्रतिवर्ष मार्च मास के अंतिम सप्ताह के लगभग देवगढ़ में एक भारी जैन मेला भरता है।
बानपुर ललितपुर जिले की महरौनी तहसील में, महरौनी से ९ मील (पक्की सड़क पर) और ललितपुर से ३२ मील पर बानपुर नाम का गांव स्थित है, जिसे महाभारतकालीन बाणासुर दैत्य की राजधानी बाणपुर का सूचक माना जाता है । गांव के उत्तरी भाग में गणेश जी की २२ भुजाओं से युक्त अद्वितीय विशालकाय मूर्ति स्थित है, और पास बहने वाली जामनेर नदी पर दैत्यसूता उषा के नाम पर उषाघाट प्रसिद्ध है।
गांव की दक्षिणी दिशा में, बानपुर-महरौनी मार्ग पर २८०x२०० फुट की एक चहारदिवारी के भीतर पांच प्राचीन जिनमन्दिर हैं । प्राकृतिक सुषमा से परिवेष्टित यह स्थल ही दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र बानपुर के नाम से प्रसिद्ध है, जो धार्मिक महत्व के अतिरिक्त एक श्रेष्ठ कलाधाम भी है।
उपरोक्त मन्दिरों में से नं० १ में सं० ११४२ (सन् १०८५ ई०) की प्रतिष्ठित संगमरमर की तीर्थंकर ऋषभदेव की भव्य प्रतिमा है, तथा एक अन्य देशी प्रस्तर की ५ फु० ४ इ० ऊँची तीर्थकर मूर्ति कायोत्सर्ग मुद्रा में है, जिसके साथ शासनदेवों का अंकन है । मन्दिर न०२ में ८-८।। फुट ऊँची दो खडिण्त तीर्थंकर मूर्तियां हैं । मन्दिर नं० ३, जो सम्भवतया इस अधिष्ठान का मुख्य मन्दिर था, के द्वार के ऊपर क्षेत्रपाल की मूर्ति बनी है, अन्दर एक वेदी में, मन्दिर के भौंहरे की खुदाई में प्राप्त, प्राचीन चरणचिन्ह स्थापित हैं, तथा एक अन्य वेदी में १४८४ ई० में प्रतिष्ठित पद्मासन जिनप्रतिमा विराजमान है। मन्दिर की बाहरी दीवार पर युगादिदेव, यक्ष-यक्षि, युगलिया, मिथुन तथा कतिपय पौराणिक दृश्यों के १९ कलापूर्ण अंकन हैं। मन्दिर न० ४ शिखर विहीन है और शान्तिनाथ जिनालय अथवा 'बड़े बाबा का मन्दिर' कहलाता है। इस मन्दिर में देशीपाषाण की १८ फुट ऊँची बड़ी मनोज्ञ, किन्तु नासिका आदि से खण्डित, शान्तिनाथ भगवान की प्रतिमा है जिसकी चरण चौकी पर प्रतिष्ठा का सं० १००१ (सन १४४ ई०) अंकित है। शिलालेख के इधर-उधर छोटी-छोटी आकृतियाँ उपासकों आदि की बनी हैं। शन्तिनाथ के
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३४- चौमुखा सहस्रकूट कलापूर्ण प्राचीन मन्दिर, बानपुर
(जि. ललितपुर)
३५- धातुमयी पंचतीर्थी, राज्य संग्रहालय लखनऊ
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AAS
३६-दिगम्बर जैन मन्दिर, श्रीनगर (गढ़वाल)
३७-लेखांकित 'चिन्तामणि' पाश्व-प्रतिमा, राज्य संग्रहालय लखनऊ
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३८ - लेखयुक्त महावीर प्रतिमा, महोबा, राज्य संग्रहालय लखनऊ
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३९-वीरनाथ-पंचजिनेन्द्र पट, श्रावस्ती, राज्य संग्रहालय लखनऊ
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[ ६१ बांयी ओर ७ फुट ऊंची कुन्युनाथ की और दांयी ओर उतनी ही अरनाथ की प्रतिमाएं स्थित हैं। जिनालय की बाहरी पार्श्वभित्ति पर भी एक कलापूर्ण पद्मासन जिनमूर्ति उत्कीर्ण है। उपरोक्त चारों मन्दिर एक विशाल चबूतरे के ऊपर बने हैं, और उसके सामने क्षेत्र का विशेष आकर्षण मन्दिर न. ५ है, जो अत्यन्त कलापूर्ण चतुर्मख सहस्रकूट चैत्यालय है । लगभग ५० फीट ऊँचा यह मनोरम जिनालय २२ फीट चौड़ी पीठिका पर निर्मित है, और चन्देलकालीन खजुराहो कला का ही एक सुन्दर नमूना है । शिखर का शिल्प, बाह्यभित्तियों के प्रस्तरान, आदि की दृष्टि से यह मन्दिर उच्चकोटि की कलाकृति है । अहार क्षेत्र में प्राप्त एक शिलालेख के अनुसार बानपुर के इस सहस्रकुट चैत्यालय का निर्माता गृहपतिवंशी सेठ देवपाल था (गृहपति वंशसरोरुह सहस्ररश्मिः सहस्रकुटयः। वाणपुरे वधितासीत श्रीमानिह देवपाल इति ॥)। उसी के प्रपौत्र ने ११८० ई० में अहार क्षेत्र की विशालकाय शान्तिनाथ प्रतिमा की स्थापना की थी, अतएव बाणपुर का उक्त चैत्यालय ११वीं शती का होना चाहिए । मन्दिर के भीतर एक ४ फुट चौड़े एवं ८ फुट ऊँचे शिलास्तम्भ पर १००८ जिनमूर्तियाँ सुष्ठुरीत्या अंकित हैं— इन्हीं के कारण यह सहस्रकूट चैत्यालय कहलाता है । उपरोक्त मन्दिरों एवं मूर्तियों आदि के अतिरिक्त भी इस स्थान में अनेक खण्डित-अखण्डित मूर्तियां एवं कलावशेष बिखरे पड़े हैं, जिनमें से ६८ मूर्ताकनों से युक्त एक शिलाखंड, जिसके मध्य में फणावलिमण्डित पद्मासन पार्ण प्रतिमा है, उल्लेखनीय है। एक कमेटी इस तीर्थ की देखभाल करती है। क्षेत्र के जीर्णोद्धार एवं विकास की आवश्यकता है।
शूमेका पर्वत ललितपुर जिले में जाखलौन रेलस्टेशन से ५ मील की दूरी पर शूमेका नाम की छोटी सी पहाड़ी है जिसके ऊपर पाषाण का गुम्बजदार-शिखरबन्द मन्दिर स्थिति है, और उसमें भगवान शान्तिनाथ के चरणचिन्ह स्थापित हैं। चारों ओर जंगल है, दृश्य रमणीय है, स्थान प्राचीन है, और अतिशय क्षेत्र के रूप में इसकी प्रसिद्धि है।
नवागढ़
ललितपुर जिले की महरौनी तहसील के सोजना ग्राम से ३ मील पर स्थित नावई (नवागढ़) के दक्षिणपूर्व कोने पर पुराने जैनमन्दिरों खण्डहरों से बना टीला है। उसमें एक भौंहरे में तीर्थकर अरनाथ ५ फुट ऊँची बड़ी मनोज्ञ मूर्ति है जो सं० १२०२ (सन् ११४५ ई०) की प्रतिष्ठित है। अन्य भी कलाकृतियाँ हैं । एक धर्मशाला और संग्रहालय भी है । अतिशय क्षेत्र के रूप में प्रसिद्धि है।
चाँदपुर ललितपुर जिले में जाखलौन स्टेशन से ५ मील की दूरी पर, शूमेकापर्णत की तलहटी के निकट चाँदपुर नाम का ग्राम बसा है, इसके निकट ही जहाजपुर गांव है । उक्त पहाड़ के नीचे एक पुराने सरोवर के किनारे १२वीं शती के प्रस्तर निर्मित दो कलापूर्ण जिनमन्दिर स्थित हैं, जिनमें से एक में भगवान शान्तिनाथ की दस हाथ ऊँची खड़गासन श्यामवर्ण मनोज्ञ प्रतिमा, तथा अन्य २० छोटी-छोटी पद्मासन प्रतिमाएँ हैं। दूसरे मन्दिर में भी नैसी ही २० प्रतिमाएं हैं।
पवाजी पवा या पवागिरि नाम की पहाड़ी ललितपुर जिले में तालबेहट रेल स्टेशन से ६ मील की दूरी पर स्थित पवा नामक ग्राम के निकट है। ग्राम में एक पुराना चैत्यालय है । ग्राम से १ मील पर स्थित पवागिरि पर एक
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परकोटे के भीतर दो मढियां हैं, जिनमें से एक के नीचे स्थित भौंहरे में पत्थर की वेदी पर छः पद्मासनस्थ तीर्थंकर प्रतिमाएँ अढ़ाई से तीन फुट ऊँची विराजमान हैं—दो शीतलनाथ की हैं और एक-एक ऋषभनाथ, सम्भवनाथ, सुमतिनाथ और पार्श्वनाथ की हैं। एक प्रतिमा १२४२ ई० की और शेष १२८८ ई० की प्रतिष्ठित हैं । प्रतिमा सब मनोज्ञ हैं, और इस स्थान की अतिशय क्षेत्र के रूप में मान्यता है । अगहन के प्रारम्भ में ८ दिन का मेला होता | स्थान रमणीक है ।
बालाबेहट
ललितपुर जिले में ललितपुर से लगभग ४० कि० मी० पर बालाबेहट नाम का गांव है, जहां एक प्राचीन चन्देल कालीन शिखरबन्द मन्दिर में तीन वेदी हैं, जिनमें से मुख्य वेदी में दो फुट ऊँची कृष्ण पाषाण की अतिमनोज्ञ पद्मासनस्थ पार्श्व प्रतिमा है जो देवातिशय के लिए प्रसिद्ध है । पासपड़ोस की ग्रामीण जनता इन शामलिया पार्श्व नाथ की दुहाई देती है । एक धर्मशाला भी यहां है और फाल्गुनमास में रथोत्सव एवं मेला होता है । अन्य दो वेदियों में पाषाण एवं धातुनिर्मित कई-कई प्रतिमाएँ विराजमान हैं ।
दुधई
ललितपुर जिले में बालाबेहट के पास ही दुधई नाम का प्राचीन स्थान है जहां अनेक प्राचीन जैन कलावशेष बिखरे पड़े हैं जो पूर्ण मध्यकालीन प्रतीत हुए हैं। इनमें विशेष उल्लेखनीय एक कलापूर्ण विशाल प्रस्तरांकन है जो २२वें तीर्थंकर नेमिनाथ की बारात के जलूस का माना जाता है ।
सिरौनजी
ललितपुर जिले में जखौरा रेलस्टेशन से १२ मील की दूरी पर स्थित सिरीन ग्राम में एक पुराना शिखरबन्द जैन मन्दिर है | ग्राम से थोड़ी दूर पर ५ प्राचीन मन्दिर हैं, जिनमें तीन एक ही खण्डहर के भीतर स्थित हैं । इनमें से बड़े मन्दिर की वेदी में कृष्ण पाषाण की दो-दो फुट ऊँची शान्तिनाथ की तीन मनोज्ञ प्रतिमाएं हैं । दूसरे मन्दिर की वेदी में वैसी ही दो प्रतिमाएँ हैं तथा वेदी के आगे दोनों कोनों पर दो इन्द्र खड़े हैं। तीसरा मन्दिर है तो छोटा किन्तु उसके भीतर दीवार पर भगवान शान्तिनाथ की १६ फुट ऊँची खड्गासन प्रतिमा उत्कीर्ण है । इस प्रतिमा के अगल-बगल तीन-तीन फुट ऊंची दो प्रतिमाएँ तथा उनके ऊपर दो-दो फूटी ऊँची दो प्रतिमाएँ उत्कीर्णं । चौथा मन्दिर गुम्बजदार है, वेदी में ४ फुट ऊंची प्रतिमा विराजमान है तथा चारों ओर दीवारों पर अनेक मूर्तियां उत्कीर्ण हैं | पांचों मन्दिर में भीतर वेदी में तो दो प्रतिमाएँ हैं, किन्तु बाहर आंगन में लगभग १०० खण्डित मूर्तियां छः-छः फुट ऊँची तथा अन्य अनेक ४ या ५ फुट ऊँची पड़ी हैं। आंगन के चबूतरे पर सं० १००८ (सन् ९५१ ई० ) का लेख अंकित है । यह स्थान भी अतिशयक्षेत्र के रूप में प्रसिद्ध है, कलाधाम तो है ही । फाल्गुन मास में यहां वार्षिक रथोत्सव होता है ।
ललितपुर
स्वयं ललितपुर शहर में, बस्ती से लगभग १ मील पर एक भारी ऊँचेगढ़ के भीतर सात मन्दिर व धर्मशाला हैं । यह स्थान क्षेत्रपाल के नाम से प्रसिद्ध है, और आस-पास में इसकी बड़ी मान्यता है । मन्दिर आदि सुन्दर हैं । क्षेत्रपाल मन्दिर ११वीं - १२वीं शती का अनुमान किया जाता है ।
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कुरगमा
झांसी जिले में, झांसी रेलवे स्टेशन से लगभग ८ कि० मी० की दूरी पर कुरगमा नाम का छोटा सा गांव है, जिसके बाहर एक बाग में एक पुराना मठ । इस मठ के भौंहरे में १५-१६ प्राचीन मनोज्ञ पाषाण निर्मित तीर्थंकर प्रतिमाएँ हैं, जिनमें से कुछ पार्श्वनाथ की और कुछ भगवान महावीर की हैं, और अधिकतर १२८६ एवं १२८७ ई० की प्रतिष्ठित हैं । स्थान अतिशयपूर्ण है और तीर्थरूप में मान्य किया जाता है ।
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महोबा
हम्मीरपुर जिले में स्थित परमाल चन्देल की प्रसिद्ध राजधानी और लोककथा के वीरों अल्हा ऊदल की क्रीड़ास्थली महोबानगर में प्राचीन जैनमन्दिरों एवं कलापूर्ण जैन मूर्तियों के अनेक अवशेष प्राप्त हुए हैं । चन्देल काल में यह स्थान एक अच्छा जैन केन्द्र रहा है ।
कहाॐ
७५ कि० मी०, खुखुन्दो ( काकंदी) प्राचीन नाम ककुभ था । यह स्थान प्रसिद्ध है । सर्वप्रथम १९वीं शती के
देवरिया जिले में, देवरिया - सलेमपुर मार्ग पर गोरखपुर से लगभग से १३ कि० मी०, सलेमपुर के निकट कहाऊँ नाम का छोटा ग्राम है, जिसका अपने गुप्तकालीन कलापूर्ण पंचजिनेन्द्र-स्तम्भ एवं अन्य जैन अवशेषों के लिए प्रारम्भ में बुचानन का ध्यान इस ओर आकर्षित हुआ था । १८३७ ई० में लिस्टन ने इस स्थान का परिचय प्रकाशित किया और १८६१-६२ में कनिंघम ने सर्वेक्षण करके पूरा विवरण प्रकाशित किया था। उस समय उक्त स्तम्भ के अतिरिक्त दो वस्तप्रायः जैनमन्दिर, कई पुराने कुएँ और सरोवर वहां विद्यमान थे, तथा कहाऊँ गांव सहित ये सब भग्नावशेष एक लगभग ५०० गज लम्बे-चौड़े विस्तृत टीले पर स्थित थे । एक मन्दिर में तीर्थंकर पार्श्वनाथ की पुरुषाकार खड्गासन प्रतिमा थी। गांव के उत्तर की ओर एक ऊँचे स्थल पर भूरे बलुए पत्थर का यह अखंड स्तंभ लगभग २५ फुट ऊँचा था और साढ़े चार फुट ऊँचे आधार पर स्थित था। स्तंभ पर भगवान पार्श्वनाथ की तथा अन्य प्रतिमाएँ उत्कीर्ण है, अन्य मूर्त्ताङ्कनभां हैं, और एक लेख भी अंकित है, जिसके अनुसार 'गुप्त सं० १४१ ( सन् ४६० ई० ) के ज्येष्ठ मास में, सम्राट स्कंदगुप्त के पूवें राज्यवर्ष में, जैनमुनिविहार से पावन हुए ककुभ ग्राम में ब्राह्मणश्रेष्ठ सोमिल के प्रपोत्र, भट्टिसोम के पौत्र और रुद्रसोम के संसार से भयभीत, गुरुभक्त, धर्मात्मा पुत्र मद्र ने अर्हतदेवों के सर्व कल्याणकारी मार्ग का अनुसरण करते हुए यह यशःपुञ्ज उत्तुंग 'पञ्चेन्द्र' स्तंभ स्थापित किया था ।' [विशेष जानकारी के लिए देखें जैना एंटीक्वेरी में प्रकाशित हमारा लेख 'खुखुन्दो एण्ड कहाऊँ' ] ।
कन्नौज
फ़र्रुखाबाद जिले का कस्बा कन्नौज उत्तर भारत की एक प्राचीन महानगरी का सूचक है, जो शताब्दियों तक बड़े-बड़े साम्राज्यों की राजधानी रही । कान्यकुब्ज, गाधिपुर, कुशस्थलपुर, इन्द्रपुर आदि इसके विभिन्न नाम प्राचीन साहित्य में मिलते हैं । जैनधर्म के साथ भी इस नगर का घनिष्ट सम्बंध रहा - अनेक तीर्थंकरों के यहाँ समवसरण आये, अनेक जैन पुराणकथाओं में इस नगर के उल्लेख प्राप्त होते हैं, भगवान पार्श्वनाथ ने कुमारावस्था में एक बर्बर आक्रमणकारी के साथ भीषण युद्ध करके इस नगर की रक्षा की थी । अनेक प्राचीन जैन मन्दिरों और मूर्तियों के अवशेष भी नगर में यत्र-तत्र मिलते रहे हैं ।
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एक इन्द्रपुर बुलन्दशहर जिले में भी है और जैनधर्म का उसके साथ सम्बंध रहा है। स्वयं बुलन्दशहर के प्राचीन नाम बरन (या वरण) और उच्चनगर थे, और मथुरा के शिलालेखों में जैनमुनियों के वारण गण तथा उच्यनागरी शाखा के अनेक उल्लेख सूचित करते हैं कि दो हजार वर्ष पूर्व भी ये स्थान जैनमुनियों के केन्द्र रहे थे। वर्तमान अलीगढ़ का पुराना नाम भी कोल या कोइल है-इस नाम का एक छोटा सा गाँव अलीगढ़ के निकट अब भी विद्यमान है । यह स्थान भी प्रचीन काल में जैन केन्द्र रहा । सीतापुर जिले का खैराबाद मध्यकाल में एक प्रसिद्ध जैन केन्द्र रहा और प्रायः तीर्थरूप में उसकी मान्यता रही।
चण्द्रवाड
अतिशयक्षेत्र चन्द्रवाड की पहचान आगरा जिले में फिरोजाबाद नगर से ४ मील दक्षिण की ओर, यमुनातट के निकट, फैले हुए खंडहरों से होती है । इस नगर का मूलनिर्माता जैनधर्मानुयायी चौहान वीर चन्द्रपाल था, जिसने नगर निर्माण के साथ ही यहां अपने इष्टदेव चन्द्रप्रभु का भव्य जिनालल बनवाकर उसमें उनकी स्फटिक मणि की पुरुषाकार प्रतिमा प्रतिष्ठापिन की थी। उस राजा ने तथा उसके बाद उसके वंशजों ने १०वीं से १६वीं शती पर्यन्त इस भूभाग पर शासन किया था । वंश के अधिकांश राजे जैनधर्म पोषक थे और उसके मन्त्री तो प्रायः सभी जैन हुए। उपरोक्त प्रतिमा बड़ी अतिशयपूर्ण मानी जाती रही है। कालदोष से चन्द्रवाड नगर उजड़गया, उसके स्थान में फिरोजाबाद बस गया-पुराने नगर की स्मृति के रूप में चौहानों के दुर्ग, जैन मन्दिर तथा कुछ अन्य भवनों के भग्नाव शेष बचे हैं। कुछ वर्ष हुए यमुना के तल से स्फटिक की चन्द्रप्रभु प्रतिमा प्राप्त हुई थी। उसे ही मूल प्रतिमा माना जाता है। तीर्थ नहीं रहा, किन्तु तीर्थ का अतिशय बना हुआ है।
मरसलगंज
आगरा जिले में, फिरोजाबाद से १२ मील उत्तर की ओर फरिहा गांव के निकट स्थित अतिशयक्षेत्र मरसलगंज अपनी आदिनाथ भगवान की विशाल, कलापूर्ण, पद्मासनस्थ प्रतिमा के लिए प्रसिद्ध है। दर्शनीय स्थान है, तीर्थरूप में मान्यता है, मेला भी भरता है।
असाईखेड़ा
इटावा जिला में, इटावा नगर से ९ मील की दूरी पर स्थित असाईखेड़ा या आसंईखेड़ा एक प्राचीन स्थान है । पहले यहाँ भरों का राज्य था, जो जैनधर्मानुयायी रहे प्रतीत होते हैं । चन्द्रवाड के चौहान राज्य संस्थापक चन्द्रपाल ने १०वीं शती में इस क्षेत्र पर अपना अधिकार जमाया और यहाँ भी एक दुर्ग बनवाया। इस स्थान से जैन मन्दिरों एवं मूत्तियों के अनेक अवशेष मिले हैं जो १०वी से १४वीं शती तक के हैं इनमें से कुछ मूत्तियां राज्य संग्रहालय लखनऊ में भी आई बताई जाती हैं जो सं० १०१८ से १२३० (सन् ९६१ से ११७३ ई०) तक की हैं ।
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राजमल
यह अतिशय क्षेत्र एटा जिले में है । अवागढ़ भी उसी जिले में है। राजमल टूण्डला-एटा मार्ग पर स्थित 'बीचकानगला' गांव से ३ मील पर स्थित है। यहां नेमिनाथ भगवान की सातिशय प्रतिमा है, एक धर्मशाला भी है, मेला भी होता है।
तिलोकपुर
अवध प्रान्त के बाराबंकी जिले में वाराबंकी से १० मील और बिन्दौरा से ४ मील पर स्थित यह बड़ा गांव है । यहाँ लगभग दो-ढाई सौ वर्ष पुराना एक अच्छा शिखरबंद जैन मन्दिर है, जिसके शिखर की बनावट में लखनऊ की नवाबी स्थापत्य शैली का प्रभाव रहा प्रतीत होता है। इसी गांव में एक वैष्णव वैरागी परिवार के अधिकार में तीर्थंकर नेमिनाथ की एक ३ फुट ऊँची, श्यामवर्ण अति मनोज्ञ एवं अतिशयपूर्ण प्रतिमा रही चली आती है। उस प्रतिमा के कारण ही तिलोकपुर की प्रसिद्धि है।
बहसूमा
मेरठ जिले में, हस्तिनापुर के निकट बहसूमा नाम का कस्बा है, जो किसी समय गूजर राजाओं की राजधानी रहा। वहाँ के जैन मंदिर में एक प्राचीन प्रतिमा है, जिसे लोग बहुधा चौथे काल की कह देते हैं । संभावना यह है कि किसी समय हस्तिनापुर के जंगलों एवं खण्डहरों में से ही वह कभी किसी को प्राप्त हुई होगी।
बड़ागांव
मेरठ जिले की बागपत तहसील में कस्बा खेखड़ा के निकट बड़ागांव नाम का एक पुराना ग्राम है। लगभग ५०-५५ वर्ष पूर्व वहाँ एक चमत्कार के फलस्वरूप भूगर्भस्थ जैनमंदिर और मूत्तियां प्रकट हुई थीं। तभी से उस स्थान की अतिशय क्षेत्र के रूप में प्रसिद्धि हो गई।
वहलना
पश्चिमी प्रत्तर प्रदेश में मुजफ्फरनगर के निकट स्थित बहलना ग्राम में एक सुन्दर प्राचीन जिनप्रतिमा की भूगर्भ से प्राप्ति होने से एक अच्छा मंदिर व धर्मशालाएँ आदि बन गई हैं। इधर कुछ वर्षों से इस अतिशय क्षेत्र की बड़ी प्रसिद्धि हुई है, और अक्तूबर में प्रतिवर्ष होनेवाले इसके रथोत्सव में लाखों व्यक्तियों की भीड़ एकत्र होने लगी है।
द्वाराहाट
कुमायूं-हिमालय में अल्मोड़ा जिले के द्वाराहाट नामक स्थान में १०वीं से १५वीं शती तक की कई सुन्दर जैन मूर्तियां प्राप्त हुई हैं, जो उसी स्थान में निर्मित हुई प्रतीत होती हैं। अतएव इससे प्रकट है कि पूर्व मध्यकाल में उस सुदूर पार्वतीय प्रदेश में भी एक अच्छी जैन बस्ती, जैन मंदिर और केन्द्र रहा होगा।
नैनीताल में भी नैनादेवी के मंदिर में कुछ वर्ष पूर्व तक कई प्राचीन जैन मत्तियां थीं।
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(छ) अर्वाचीन प्रसिद्ध जैन मंदिर
यों तो उत्तर प्रदेश के जिस भी नगर, कस्बे या ग्राम में जैनों के दस-पांच भी घर हैं, वहाँ एक न एक जैन मंदिर या चैत्यालय बहुधा पाया जाता है । ऐसे भी कई स्थान हैं, यथा शाहजहांपुर, खैराबाद, गोरखपुर आदि जहाँ पूर्णकाल में जैनों की अच्छी बस्ती थी और अब नहीं के बराबर है, अतएव पुराने मंदिर बने हैं। जहां वर्तमान में भी अच्छी बस्तियाँ हैं वहाँ एकाधिक मंदिर तथा अन्य धार्मिक एवं सांस्कृतिक संस्थाएँ हैं। आगरा, फिरोजाबाद, लखनऊ, मेरठ, सहारनपुर, वाराणसी, ललितपुर, कानपुर, इलाहाबाद आदि नगरों में तो प्रत्येक में १०-१५ से लेकर ३०-३५ तक जैन मंदिर हैं । इनमें से फिरोजाबाद, आगरा, खुर्जा, सहारनपुर, ललितपुर, लखनऊ, मेरठ, वाराणसी, अलीगढ़, मिर्जापुर, इटावा, हाथरस, बाराबंकी, कानपुर आदि नगरों में कई-कई मंदिर अति भव्य, विशाल एवं दर्शनीय हैं। फिरोजाबाद के जैन नगर में सेठ छदामीलाल द्वारा निर्मापित विशाल एवं सुन्दर मंदिर अति आकर्षक हैं । उसी मंदिर में एक लगभग ४० फुट उत्तुंग भगवान बाहुबलि की अप्रतिम प्रतिमा की स्थापना होने जा रही है।
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उत्तर प्रदेश के जैन सन्त
जैनधर्म निवृत्ति प्रधान धर्म है । उसका सम्पूर्ण बल तप-त्याग संयम द्वारा आत्मशोधन एवं आत्मसाधना पर है, और लक्ष्य है इस प्रक्रिया द्वारा आत्मा को परमात्मा बना देना । किन्तु सभी स्त्री-पुरुष संसार त्यागी होकर ऐसी दुष्कर साधना नहीं कर सकते, इसीलिए जैन परम्परा में दो मार्ग विहित हैं- एक सामान्य गृहस्थजनों (श्रावक श्राविकाओं) का मार्ग है जो यथाशक्ति नियम-संयम का आंशिक पालन करते हुए न्यायपूर्वक अथवा धर्मतः अपने अर्थ और काम पुरुषार्थों का साधन करते हैं, सद्नागरिक बनकर अपने दुनियावी कर्त्तव्यों का पालन करते हैं और शनैः-शनैः आत्मोत्कर्ष साधन की ओर अग्रसर होते हैं। दूसरा मार्ग मोक्षमार्ग के उन एकनिष्ठ साधकों का हैं जो संसार - देह-भोगों से विरक्त होकर, गृहत्यागी, निरारम्भी, निष्परिग्रही साधु-साध्वियों के रूप में आत्मसाधना करते हुए तथा यथासम्भव लोकहित करते हुए अपने समय का सदुपयोग करते हैं । अतएव जैन शास्त्रों में साधु की परिभाषा की गई है कि जिसका मन इन्द्रियविषयों की आशा के वशीभूत नहीं है, जो किसी प्रकार का आरम्भ नहीं करता, अपने पास कोई भी अन्तरंग या बहिरंग परिग्रह नहीं रखता, तथा सदैव ज्ञान, ध्यान और तप में अनुरक्त या लीन रहता है, वही साधु कहलाता है—
विषयाशावशातीतो
ज्ञान-ध्यान- तपोरक्तस्तपस्वी
उसकी दृष्टि में
निरारम्भोऽपरिग्रहः । प्रशस्यते ॥
अहिंसा-सत्य-अस्तेय-ब्रह्मचर्य - अपरिग्रह रूप पंच महाव्रत का धारी, मात्र भिक्षा में प्राप्त अन्न ग्रहण करने वाला, आत्मोपम्य का साधक, धर्म का उपदेश देने वाला धीर साधु ही गुरु रूप में मान्य होता है
स
महाव्रतधराधीरा भैक्षमात्रोपजीविनः । सामायिकस्था धर्मोपदेशका गुरवोमताः ॥
त्यागो हि परमोधर्मः त्यागएव परमतपः । त्यागात् इह यशोलाभः परत्रभ्योदयो महान ||
वह इस त्यागरूपी परमधर्म का स्वयं तो पूर्णतया पालन करता ही है, अपने अनुयायी श्रावक-श्राविकाओं को भी, इस लोक में यशोलाभ और परलोक में अभ्युदय का दाता प्रतिपादित करके उक्त त्यागधर्म का जीवदया, परसेवा, परोपकार एवं उदार दानशीलता के रूप में यथाशक्ति पालन करने की निरन्तर शिक्षा देता है । ये साधुसवियाँ अपनी आयु बढ़ाने, शरीर को पुष्ट करने या उसका बल और तेज बढ़ाने, अथवा जिह्वा के स्वाद के लिए भोजन नहीं करते, वरन् देने वाले को तनिक कष्ट न हो ऐसी भ्रामरीवृत्ति से और जैसा भी आहार मिले उसमें समभाव वाली गोचरीवृत्ति से मिला शुद्ध, प्राशुक, सात्त्विक आहार, वह भी भूख से कम मात्रा में, दिन में केवल एक बार करते हैं । चातुर्मास के अतिरिक्त किसी एक स्थान में जमकर ८-१० दिन से
अधिक नहीं रहते, द्रव्यादि
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६८ ]
ख - ६
कोई परिग्रह अपने पास नहीं रखते, शत्रु-मित्र में समभाव रहते हैं । जैन आगमों में, सदैव परमपद का अन्वेषण करते रहने वाले इन अनगार साधुओं कि सिंहवत पराक्रमी, गजवत् कर्म-युद्ध विजयी, वृषभवत् संयमवाहक, मृगवत यथालाभ सन्तुष्ट, पशुवत निरीह भिक्षाचारी, पवनवत् निर्लेप, सूर्यवत् तपस्वी, सागरवत् गम्भीर, मेरुवत् अकम्प, चन्द्रवत् सौम्य, मणिवत् प्रभापुंज, क्षितिवत् तितिक्षु, सर्पवत् अनिश्चित स्थानवासी, तथा आकाशवत् निरालम्ब बताया है | श्रमण, संयत, ऋषि, मुनि, साधु, अनगार, भदन्त, दान्त, यति आदि उनके लिए प्रयुक्त एकार्थवाची विशेषण हैं । नारी संतनी आर्थिका, क्षुल्लिका, साध्वी, आर्या, ब्रह्मचारिणी आदि कहलाती हैं । जो गृहत्यागी धर्मसेवी एवं जनसेवी महानुभाव पूर्ण मुनिधर्म पालन नहीं करते, किन्तु सामान्य श्रावकों की भाँति गृहस्थ अवस्था में भी नहीं रहते, वे ऐल्लक, क्षुल्लक, ब्रह्मचारी, वर्णी आदि कहलाते हैं । मध्यकाल में कुछ साधु तत्कालिक विविध परिस्थितियों के कारण वस्त्रधारी होकर मठों में भी रहने लगे । वे भट्टारक, श्री पूज्य, गृहस्थाचार्य आदि भी कहलाये । ये सभी स्त्री-पुरुष जैन सन्त 'तिन्नाणं तारयाणं' - स्वयं तिरें और दूसरों को तारें, ऐसे स्व-पर कल्याणकारी होते हैं। जहां वे विचरते हैं वह क्षेत्र धन्य होता है, और जो गृहस्थ इन सन्तों के समागम का लाभ उठाते हैं और उनकी सेवा का अवसर प्राप्त करते हैं, वे भी धन्य हो जाते हैं। सच्चे वास्तविक आदर्श सन्तों का समागम अति दुर्लभ होता है ।
उत्तर प्रदेश का परम सौभाग्य रहा है कि यहां ऐसे सन्त सदैव से होते रहे हैं । युग के आदि में भगवान ऋषभदेव ने इसी प्रदेश में सर्वप्रथम साधु मार्ग का प्रवर्तन स्वयं अपने आदर्श द्वारा तथा अनेक पुरुषों एवं नारी शिष्यों को साधु धर्म में दीक्षित करके किया था । तदनन्तर अन्य तेईस तीर्थंकर स्वयं तथा उनके अपने-अपने तीर्थ के साधु-साध्वियाँ इस प्रदेश में विचरते रहे । भगवान महावीर के समय में पूर्ववर्ती तीर्थंकर पार्श्व की परम्परा के केशि कुमार आदि अनेक साधु इस प्रदेश में विचर रहे थे । भगवान महावीर, उनके गौतमादि गणधरों तथा उनके संघ के अनेकों मुनि एवं आर्यिकाएँ इस प्रदेश में विचरे । महावीर के उपरान्त अन्तिम केवलि जम्बूस्वामी और उनके साधिक पांचसौ शिष्य सन्तों ने मथुरा के चौरासी क्षेत्र पर तप किया और सद्गति प्राप्त की । तदनन्तर, २री शती ई० पू० से लगभग ५वीं शती ई० पर्यन्त मथुरा जैन सन्तों का इस प्रदेश में प्रधान एवं बृहत् केन्द्र था । वहां से प्राप्त तत्कालीन शिलालेखों में ८५ विभिन्न जैन मुनियों ओर २५ आर्यिकाओं के तो नाम भी प्राप्त होते हैं, जिनमें कुमार या कुमारनन्दि, कण्हश्रमण, आर्यमंखु, नागहस्ति, महारक्षित, भदन्त जयसेन, नागनन्दि, आर्यबलदिन, महानन्दि, वाचक वृद्धहस्ति वाचक भगिनन्दि, गणीनागसेन, वाचक ओघनन्दि, वाचक आर्य हस्तहस्ति वाचक आर्यदेव, मुनि कुमार दत्त, आर्यिका जीवा, आर्या दत्ता, आर्या षष्ठिसिंहा, ऋषिदास, पुष्यमित्र, आर्य मिहिल, आर्या श्यामा, आर्य ज्येष्ठहस्ति, आर्य नागभूति, वाचक सन्धिक, आर्या जया, आर्या संगमिका, आर्या वसुला, आर्य जयभूति, आर्य गृहरक्षित, वाचक मातृदिन, वाचक संघसिंह, आर्य बलनात आदि सन्त सन्तनियाँ शुंग-शक- कुषाणकाल (लगभग २००ई० पू० - २००ई०) के चार सौ वर्षों में विशेष महत्वपूर्ण रहे प्रतीत होते हैं । मथुरा के अतिरिक्त उच्चनगर एवं वरण ( बुलन्दशहर), कोल (अलीगढ़), अहिच्छत्रा, संकिसा हस्तिनापुर, कौशाम्बी, श्वेताम्बिका, वज्रनगरी आदि उस युग में, इस प्रदेश में जैन मुनियों के प्रसिद्ध केन्द्र थे । उस काल के उक्त जैन साधुओं ने स्वयं को विभिन्न गण-शाख-कुलों आदि में व्यवस्थित रूप से संगठित किया हुआ था, और उन्होंने अपने धर्मात्मा श्रावक-श्राविकाओं से 'सर्व सत्त्वानां हिताय, सर्व सात्त्वानां सुखाय' अनगिनत विविध धार्मिक कृत्य एवं निर्माण कराये थे । दक्षिण के आचार्य समन्तभद्र स्वामी भी काशी आये थे, ऐसी एक अनुश्रुति है ।
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गुप्तकाल ( ५वीं शती ई०) में मथुरा के दतिलाचार्य और पंचस्तूपनिकाय के काशिवासी निर्ग्रन्थ श्रमणाचार्य गुहनन्दि अति प्रसिद्ध थे । इन गुहनन्दि के शिष्य-प्रशिष्य उत्तर प्रदेश में ही नहीं, बिहार और बंगाल में
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भी फैले हुए थे । आचार्य सिद्धसेन भी उत्तर प्रदेश में विचरे प्रतीत होते हैं, ७वीं शती में आचार्य मानतुंग और ८वीं-९वीं शती में बप्पभट्टिसूरि उत्तर प्रदेश के प्रसिद्ध जैन सन्त थे। देवगढ़ के आचार्य कमलदेव और श्रीदेव भी ९वीं शती के प्रभावक सन्त थे। मथुरा में ११वीं शती में जिनदेवसूरि, भावदेवसूरि और आचार्य विजयसिंह द्वारा (१०२३ ई०) में बिंब प्रतिष्ठा आदि धर्मकार्य कराने के उल्लेख हैं।
__ इसके उपरान्त मुस्लिम शासनकाल में उत्तर प्रदेश में जैन सन्तों का निवास एवं विहार विरल होता चला गया । दिगम्बर मुनि तो इस काल में अधिकांशतः वस्त्रधारी भट्टारक होने लगे और स्थानविशेषों में अपनी गद्दियां स्थापित करके उनके माध्यम से साहित्य सृजन, शिक्षा, मन्दिर-मूर्ति निर्माण एवं प्रतिष्ठा, पूजा-अनुष्ठान करने कराने लगे और गृहस्थजनों को धार्मिक लाभ पहुँचाने लगे। श्वेताम्बरों में भी उन्हीं की भांति मठाधीश यतियों एवं श्रीपज्यों की संस्था विकसित हुई। १४वीं शती में ही दिल्ली में दिगम्बर परम्परा के नन्दि, सेन और काष्ठासंघ की तथा श्वेताम्बर खरतर गच्छ की गद्दियां स्थापित हो चुकी थीं। दिल्ली को केन्द्र बनाकर ये भट्टारक एवं यति पूरे उत्तर प्रदेश में गमनागमन करके श्रावकों को धर्मलाभ देते थे। उसी शती में उत्तर प्रदेश में विचरण एवं धर्म कार्य करने वाले जैन सन्तों में भट्टारक माधवसेन, प्रभाचन्द्र एवं पद्मनन्दि के तथा आचार्य जिनप्रभसूरि के नाम उल्लेखनीय हैं। १५वीं शती में हुए तारणस्वामी इस प्रदेश के बुन्देलखण्ड में बिचरे प्रतीत होते हैं और १६वीं शती में आगरा जिले के शौरिपुर-हथकन्त अटेर में दिगम्बर भट्टारकों का प्रसिद्ध पट्ट स्थापित हुआ, जो वर्तमान शताब्दी के प्रारम्भ तक चलता रहा, और जिसमें अनेक धर्मप्रभावक सन्त हुए। उसी शती में मुगल सम्राट अकबर के निमन्त्रण पर गुजरात के आचार्यप्रवर हीर विजयसूरि, जिन्नचन्द्र, शान्तिचन्द्र आदि अनेक जैन संत आगरा पधारे और उत्तर प्रदेश में बिचरे। १७वीं शती के प्रारम्भ में चन्दवाड के ब्रह्मगुलाल मुनि तथा उसके मध्य के लगभग शीतल मुनि नाम के दिगम्बर सन्त इस प्रदेश में विचर रहे थे। शीतलमुनि आगरा भी आये और अयोध्या में १६४७ ई० में उनका समाधिमरण हआ। बाद की दो शताब्दियां अराजकता काल की थीं, उस काल में किसी उल्लेखनीय जैन साधु के इस प्रदेश में निवास करने या विचरने का पता नहीं चलता। भट्टारकों के उपशाखापट् बाराबंकी, कांधला आदि कई स्थानों में थे तथा जिनकुशलसूरि प्रभृति कतिपय यतियों के लखनऊ आदि कुछ स्थानों से सम्बद्ध होने के प्रमाण मिलते हैं।
आधुनिक युग में, लगभग १८५० ई० से वर्तकान पर्यन्त अनेक ब्रह्मचारी, वर्णी, क्षुल्लक, ऐल्लक, दिगम्बर मनियों एवं आयिकाओं का तथा स्थानकवासी साध-साध्वियों का इस प्रदेश के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है। इन संतों ने जनता में धार्मिक भावना जागृत करने, उसका नैतिक उन्नयन करने में अपने-अपने ढंग से योग दिया है।
गत शताब्दी में अलीगढ़ के आध्यामिक सन्त त्यागी बाबा दौलतराम, कांधला के सन्त एवं भक्त कवि जयनानन्द (नैनसुखदास), आगरा के महाप्रभावक स्थानकवासी मुनि रत्नचन्द्र और मेरठ के महातपस्वी सिद्ध बाबा - लालमनदास हुए।
वर्तमान शताब्दी में दिवंगत हुए प्रदेश के जैन सन्तों में उल्लेखनीय हैं
महमूदाबाद (जिला सीतापुर) के ब्रह्मचारी भगवानसागर जो लखनऊ में कई वर्ष रहे और शिक्षा एवं साहित्य के प्रचार में योग देते रहे । काशी के आचार्य विजयधर्मसूरि जो व्याख्यान वाचस्पति, नवयुग प्रवर्तक एवं शास्त्र विशारद जैसे विरुदधारी थे । स्थानकवासी सन्त भरताजी (भरतमुनि) जो बड़े सरल स्वभावी साधु थेस्व० मुनि लालचन्द और सुखानन्द उनके शिष्य थे और वह स्वयं मुनि रत्नचन्द के शिष्य थे। पण्डापुर-मथुरा में जन्मे बाबा भागीरथ वर्णी (१८६८-१९४२ ई०) बड़े सरल परिणमी निर्भीक त्यागी, निस्पृही एवं शिक्षाप्रेमी
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सन्त थे । ब्रह्मचारी शीतल प्रसाद (१८७९-१९४२ ई०) का जन्म लखनऊ में हुआ था, यहीं अन्त में उनका समाधिमरण हुआ, किन्तु पूरा उत्तर प्रदेश ही नहीं सम्पूर्ण भारतवर्ष उनका कार्यक्षेत्र था। भारी समाजसुधारक, उत्कट शिक्षा प्रेमी, देशभक्त और इस युग के सबसे बड़े जैन मिशनरी थे। जैन समाज के ऐसे निःस्वार्थ हितचिंतक और उसे जागत करने के लिए अथक परिश्रम जीवनभर करने वाले संत भी विरले ही हुए हैं। क्ष वर्णी (१८७४-१९६१ ई०) का सम्पूर्ण जीवन धर्म और समाज की सेवा में समर्पित रहा। ग्राम हंसेरा (तहसील महरौनी, जिला ललितपुर) में जन्मे, विभिन्न स्थानों में विद्याध्ययन कर न्यायाचार्य हुए, स्याद्वाद महाविद्यालय वाराणसी की तथा अन्य अनेक संस्कृत विद्यालयों, पाठशालाओं आदि की स्थापना की, प्रायःप्ररंभ से ही 'वर्णी' विशेषणधारी ब्रह्मचारी रहे और अन्तिम १४ वर्षों में क्षुल्लक पद में रहे । बुन्देलखंड की जैन समाज को जागृत करने का श्रेय उन्हें ही है। यह वर्णीजी इस युग के महान आध्यात्मिक जैन संत थे। महात्मा भगवानदीन विलक्षण संत थे-उनका सम्पूर्ण जीवन देश और जनता जनार्दन की सेवा में व्यतीत हुआ। ग्राम चावली (जिला आगरा) में जन्मे पं० नन्दनलाल शास्त्री आचार्यप्रवर शान्तिसागर जी से दीक्षित होकर क्रमशः ब्रह्मचारी एवं क्षल्लक-ऐल्लक ज्ञानसागर हुए, फिर मुनि एवं अन्त में आचार्यसुधर्मसागर के रूप में प्रसिद्ध हुए । फिरोजाबाद (जिला आगरा) में जन्मे पं० महेन्द्रकुमार शास्त्री ३२ वर्ष की आयु में मुनि दीक्षा लेकर कालान्तर में आचार्य महावीरकीति (१९१०-७१ ई.) के रूप में प्रसिद्ध हुए
५० मुनि, आयिका, क्षुल्लक ब्रह्मचारी आदि त्यागि महात्माओं और साध्विवों के दीक्षा गुरु हुए। मुनिसागर (जिला आगरा), मेरठ की विद्यावती माताजी एवं साध्वी किरण, आगरा की शरबती देवी जिला मेरठ के मूनि स्वर्णसागर और विमल मुनि, आदि अन्य इस युग के कई संत-संतनिया दिवंगत हो चके हैं।
उत्तर प्रदेश के वर्तमान जैन संतों में उल्लेखनीय हैं-आचार्य विमलसागर (कोसमा, जिला आगरा), आचार्य सन्मतिसागर (फफूंद, जि० एटा), आचार्य पार्श्वसागर (समोना, जिला आगरा), उपाध्याय अमरमुनि एवं उनका शिष्यवर्ग, मुनि पार्श्वसागर (एटा), मुनि श्रुतसागर (आगरा), मुनि संभवसागर (एटा), मुनिशीतलसागर (फिरोजाबाद), टिकैतनगर (जिला बाराबंकी) की विदुषीरत्न ज्ञानमती माताजी, अभयमती, रत्नमती, सिद्धमती, बाराबंकी की कुंथमती, फिरोजाबाद की शान्तिमती आदि आर्यिकाएँ, क्षुल्लक दयासागर (आगरा) तथा अन्य कई ब्रह्मचारी, ब्रह्मचारिणी आदि। प्रदेश के बाहर के भी कई संतों, यथा उपाध्याय मुनि विद्यानंद, क्षुल्लक सहजानन्द (मनोहर लाल वर्णी) आदि का मुख्य कार्यक्षेत्र उत्तर प्रदेश है।
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C
४०- उपाध्याय परमेष्टि, देवगढ़
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४१-भारतवर्ष की सर्वप्राचीन सरस्वती-प्रतिमा, कंकाली टीला मथुरा,
(रा. सं. लखनऊ)
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उत्तर प्रदेश के जैन साहित्यकार
युग की आदि में जब आदिदेव ऋषभनाथ ने मानवी सभ्यता का ॐ नमः किया तो उन्होंने इसी उत्तर प्रदेश की अयोध्या नगरी में अपने प्रजाजन तत्कालीन मानवों को असि-मसि-कृषि-शिल्प-वाणिज्य-विद्या रूपी षट्कर्मों की शिक्षा दी, और स्त्रियों एवं पुरुषों को उनके लिए उपयुक्त क्रमशः ६४ एवं ७२ कलाएँ सिखाई थीं। मसिकर्म से लेखन का अभिप्राय है और लेखनकला की विविध विधाओं एवं प्रकारों का समावेश स्त्री-पुरुषों की उपरोक्त कलाओं में भी है। अनुश्रुति है कि उन प्रजापति स्वयंभू ने अपनी दो पुत्रियों में से कुमारी ब्राह्मी को अक्षरज्ञान सिखाया था, जिस कारण भारत की प्रचीन लिपि 'ब्राह्मीलिपि' के नाम से लोकप्रसिद्ध हुई। दूसरी पुत्री, कुमारी सुन्दरी को उन्होंने अंकज्ञान सिखाया था (देखिए-आदिपुराण, पर्व १६ श्लो-९८-११७)।
चिरकाल पर्यन्त प्रजा का सम्यकप से प्रतिपालन करने के उपरान्त भगवान ने संसार का परित्याग करके तपश्चरण द्वारा आत्मशोधन किया और प्रयाग में वटवृक्ष के नीचे केवलज्ञान प्राप्त करके वह आदि तीर्थकर हुए तथा सभी प्राणियों के हित-सुख के लिए उन्होंने अपना दिव्य उपदेश दिया, जिसे उनके वृषभसेन आदि गणधरों ने जनभाषा में गूंथा । उनके उपरान्त, समय-समय पर होने वाले अन्य २३ तीर्थंकरों ने भी उसी सद्धर्म का उपदेश इस प्रदेश की जनता को दिया-उनके अपने-अपने गणधरों ने उसे अपने-अपने समय की जनभाषा में निबद्ध किया। इस प्रकार इस प्रदेश में मौलिक जैन श्रुत का प्रवाह सतत् प्रवाहित होता रहा।
अंतिम तीर्थंकर वर्धमान महावीर (छठी शती ईसापूर्ग) का उपदेश भी उनके इन्द्रभूति गौतम प्रभृति गणधरों ने द्वादशांग श्रुत के रूप में निबद्ध किया, और जनभाषा अर्धमागधी में निबद्ध वह श्रुतज्ञान कई शताब्दियों तक समर्थ आचार्यों की परम्परा में मौखिक द्वार से प्रवाहित होता रहा। जैन संघ में वाचकाचार्य, उच्चारणाचार्य, पृच्छकाचार्य, उपाध्याय आदि की योजना उक्त श्रुतज्ञान के संरक्षण एवं उसकी मौलिकता को सुरक्षित रखने के लिए ही की गई थी। किन्तु जब कालदोषसे, अनेक परिस्थितियों के कारण, सब सावधानियों के बरतने पर.भी, उक्त श्रुतज्ञान में शनैःशनैः ह्रास होने लग, और मतभेद तथा पाठभेद भी उत्पन्न होने लगे, तो श्रुतविच्छेद की चिन्ता से अनेक आचार्य एवं प्रबुद्ध श्रावक चिन्तित होने लगे। कठिनाई यह थी कि जैन मुनि निर्ग्रन्थ, निष्परिग्रही होते थे, किसी प्रकार का परिग्रह वह रख नहीं सकते थे, वर्षावास के चार महिनों के अतिरिक्त किसी एक स्थान में, वह भी बस्ती के बाहर, चार-छह दिन से अधिक रह नहीं सकते थे, और अपने संघ की व्यवस्था तथा श्रुत-संरक्षण के तंत्र में उन्हें आस्था थी। तथापि, काल ने उन्हें विवश कर दिया कि यदि वे तीर्थंकरों की वाणी को, जितना कुछ भी और जिस रूप में भी वह बची है, सुरक्षित रखना चाहते हैं तो उसे लिपिबद्ध करके पुस्तकारूढ़ कर दें।
___ और, यह कार्य भी इसी प्रदेश के मथुरा नगर में प्रतिष्ठित जैन संघ के दूरदर्शी प्रबुद्ध आचार्यों ने अपने प्रसिद्ध 'सरस्वती आंदोलन' द्वारा सुकर कर दिया। पुस्तकधारिणी सरस्वती की पाषाण प्रतिमाएं प्रतिष्ठित करके,
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धार्मिक कृत्यों की स्मृति सुरक्षित रखने के लिए अनेकों शिलालेख लिख या लिखाकर तथा जोरदार प्रचार द्वारा उन्होंने पुस्तक-साहित्य-प्रणयन के विषय में जो संकोच या विरोध था, उसे दूर किया।
मथुरा में चले इस 'सरस्वती आंदोलन' का सुफल यह हआ कि कलिंग चक्रवर्ती खारवेल द्वारा आयोजित महामुनि सम्मेलन में श्रुतवांचना हुई और वहीं से दक्षिणापथ के जो आचार्य वहाँ पधारे थे, साहित्यप्रणयन की प्रेरणा लेकर गये । इस प्रकार सन् ईस्वी के प्रारंभ के लगभग ही उत्तर भारत में लोहाचार्य, गुणधर, आर्यमंखु, नागहस्ति, शिवार्य और स्वामि कुमार ने तथा दक्षिण देश में कुन्दकुन्दाचार्य, वटकेरि, धरसेन, पुष्पदंत, भूतबलि आदि अनेक आचार्यों ने आगमश्रुत के विभिन्न अंशों को लिपिबद्ध करने, पुस्तकारूढ़ करने अथवा मूलागम पर आधारित स्वतन्त्र पाहुड़ग्रन्थों में आगमिक ज्ञान का सार प्रस्तुत करने का कार्य प्रारंभ कर दिया। इससे महावीरवाणी के महत्त्वपूर्ण अंश सुरक्षित हुए और उनके ज्ञान का प्रवाह बना रहा। किन्तु इस कारण अनेक मतभेदों ने भी जन्म लिया, और पश्चिमी भारत के आचार्यों ने आर्य स्कंदिल की अध्यक्षता में उनके द्वारा सम्मत आगमों की एक वांचना भी मथुरा में की।
हमारा अनुमान है कि आगमों को पुस्तकारूढ़ करने तथा अगमानुसारी पुस्तक साहित्यप्रणयन करने में उत्तर भारत के जिन आचार्यों का ऊपर उल्लेख किया गया है, प्रायः वे सब उत्तर प्रदेश तथा उसके मथुरा आदि प्रमुख केन्द्रों से सम्बद्ध रहे थे। इम प्रकार यद्यपि वर्तमान प्राचीनकालीन जैन साहित्य का बहभाग दक्षिणी एवं पश्चिमी भारत में रचा गया, उसके प्रणयन की प्रेरणा तथा प्रारम्भ उत्तर प्रदेश में ही हुआ था। इसके साथ ही यह तथ्य भी ध्यातव्य है कि अखिल भारतीय साहित्य एवं कला का प्रारम्भ और विकास, शद्ध ऐतिहासिक से, ब्राह्मण, जैन और बौद्ध, तीनों ही धर्मों के अनुयायियों ने ईसापूर्व प्रथम सहस्राब्द के उत्तरार्ध में प्रायः साथ ही साथ, समान उत्साह एवं मनोयोग के साथ किया था।
अत्यन्त विपुल, विभिन्न भाषयिक एवं विविध विषयक जैन साहित्य के निर्माण में, प्राचीन काल में कई कारणों से उत्तर प्रदेश का योग अत्यल्प रहा, तथापि प्रारम्भ से वर्तमान पर्यन्त इस प्रदेश का जो योगदान रहा है, उसका संक्षिप्त विवरण आगे दिया जा रहा है। इस सूची में उन साहित्यकारों का समावेश किया गया है जो उत्तर प्रदेश में जन्में, अल्पाधिक समय रहे या विचरे अथवा अन्य किसी रूप में उससे सम्बद्ध रहे। सूची में अज्ञानवश कतिपय भूलें भी हो सकती हैं, और यह दावा भी नहीं है कि वह पूर्ण है। प्रत्येक साहित्यकार के नाम के साथ कोष्ठक में, यदि ज्ञात हुआ, तो स्थान का निर्देश, तदनन्तर ईस्वी सन् में निश्चित या अनुमानित समय, ज्ञात रचनाओं का नाम, जिनके साथ कोष्ठक में भाषा का संकेत (प्रा०=प्राकृत, अप =अपभ्रंश, सं०- संस्कृत, हि. =हिन्दी) कर दिया गया है। जहाँ भाषा संकेत नहीं उसे हिन्दी-समझा जाय ।
ग्रन्थकार और उनके ग्रन्थ
ई० पूर्व १ली शती --आराहणा (प्रा.)
लोहाचार्य अप्पभूति गुणधराचार्य स्वामिकुमार विमलार्य शिवार्य
१ली शती ई०
-पेज्जदोसपाहुड (प्रा.) [पुस्तकारूढ़ आगरम] -बारस-आणुपेक्खा (प्रा.) -पउमचरिउ (प्रा.) -भगवती आराधना (प्रा.)
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sandha siha tha lihi
ख-६
[ ७३ आर्यमंखु
-कसाय पाहुड (प्रा.) नागहस्ति
२री शती ई० यतिवृषभ
–कसायपाहुड के चूणिसूत्र (प्रा.), तिलोयपण्णति (प्रा.),
करणसूत्र (प्रा.) पात्रकेसरि स्वामि (अहिच्छत्रा)
-विलक्षणकदर्थन (सं०), पात्रकेसरि स्तोत्र (सं.) मानतुंगाचार्य (कान्यकुब्ज)
-भक्तामर स्तोत्र (सं०) जोइन्दु (योगीन्दुदेव)
ल० ७०० ई० -परमात्म प्रकाश (अप०), योगसार (अप०) धनञ्जय
-राघव-पांडवीय-द्वियधानकाव्य (सं०), अनेकार्थ
नाममाला (सं०) स्वयंभू (कान्यकुब्ज-मूलतः) ल० ८०० ई० -रामायण (अप०), रिट्ठनेमिचरिउ (अप०), नागकुमार
चरिउ (अप०), स्वयंभू छन्द (अप०) वाक्पति (कान्यकुब्ज)
-गोडबहो (अप०) हरिचन्द्र
ल० ९०० ई० -धर्मश भ्युदय (सं०), जीवन्धर चम्पु (सं०) गोविन्द कवि .
-कथारत्न समुद्र (सं.) अमितगति प्रथम (माथुरसंघी)
-योगसार प्रांभृत (प्रा०) जयराम
-धर्मपरीक्षा (प्रा.) सोमदेव
ल० ९६० ई० –नीतिवाक्यामृत (सं०), महेन्द्र-मातलि-संजल्प (सं०),
., कन्नौज में रचे-जाने की संभावना, अन्य-ग्रन्थ दणिक्ष में
रचे। धनपाल (संकिसा)
ल० १००० ई० –पाइलच्छीनाममाला (प्रा.), तिलकमंजरी (सं०),
"आदि . . रामसिंह मुनि
-दोहापाहुड़ (अप०) वाग्भटकवि (अहिच्छत्रा)
-नेमिनिर्वाणकाव्य (सं०) कनकामर मुनि
१०६० ई० -करकंडुचरिउ (अप०), यदुचरिउ (अप०) रामसेन
१०७७ ई० -तत्त्वानुशासन (सं०) श्रीधर कवि
११३२-७३ ई० - -पाननाथ चरित्र, वर्धमान चरित्र, चन्द्रप्रभचरित्र,
शान्तिनाथ चरित्र, सुकुमाल चरित्र, भविष्यदत्त-चरित्र
सब अप० धनपाल पल्लीवाल
१२०४ ई० -तिलकमंजरी कथासार (सं.) गोकर्ण (चन्द्रवाड)
ल० १२५० ई० -सूपकार सार (सं०) प्रभाचन्द्र भट्टारक ल० १२९०-१३६० ई० -भगवती आराधना टीका (सं०), उपासकाध्ययन (सं०) जिनप्रभसुरि
ल० १२९५-१३३३ ई० -विविधतीर्थकल्प (सं० प्रा०) आदि अनेक ग्रंथ गंधर्वकवि-पंडित ठक्कर
१३०८ ई० -यशोधर चरित्र (अप०), उपदेशरत्नमाला (अप०) कवि घेल्ह
१३१४ ई० -चउबीसीगीत (हि.) ठक्कर फेरु
१३१५ ई० –वास्तुसार, ज्योतिषसार गणितसार, द्रव्य परीक्षा, रत्न
- परीक्षा, आदि (सं०) (मुख्यतः दिल्ली में रहें)
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साधारुकवि (झांसी जि०)
१३५४ ई० -प्रद्युम्नचरित्र (हि.) पद्मनंदि भट्टारक (चन्द्रवाड) ल० १३६०-९५ ई० -श्रावकाचार सारोद्धार (सं०), अन्य अनेक रचनाएँ नेमिचन्दकवि (माथुरसंघी) ल. १३७५ ई० -रविव्रतकथा (अप०) कमलकीति (चन्द्रवाड)
१३८६ ई० -अठारहनाते की कथा (हि.) जयमित्र हल्ल
१३८८-१४२५ ई० -वर्धमान काव्य, श्रेणिक चरित्न, मल्लिनाथ काव्य
सब अप० धनपाल पुरवाड (चन्द्रवाड)
१३९७ ई० –बाहुबलि चरित्र (अप०) हरिचन्द कवि
ल० १४०० ई० -पुण्यास्रवकथाकोश, वर्धमानकाव्य, श्रेणिक चरित्र
सब अप० लक्ष्मण कवि
-नेमिनाथ चरित्र (अप०) असवाल कवि
१४२२ ई० –पार्श्वनाथ चरित्र (अप०) रईधु महाकवि
ल० १४२३-५८ ई० -मूलतः ग्वालियर के थे, पचासों ग्रन्थों के रचयिता,
जिनमें से कई उ० प्र० में चन्द्रवाड आदि में रचे । विनयचन्द्रमुनि
ल० १४२५ ई० -इष्टोपदेश टीका (सं०) यशःकीर्ति भट्टारक ल० १४३०-५० ई० –मूलतः ग्वालियर के, अनेक रचनाएँ, उ० प्र० में भी
रहे और रचनाएँ की। प्रभाचन्द्र (काष्ठासंघी)
१४३२ ई० -पंचकल्याण पूजा (सं०), तत्त्वार्थ रत्न प्रभाकर (सं०) साधारण ब्रह्म (काष्ठासंघी) १४३५-५० ई० -पुरानी हिन्दी में रचित लगभग दस व्रतकथाएँ विजयासिंह बुध
ल० १४४५ ई० -अजितनाथ पुराण (अप०) पदमु कवि
ल० १४५० ई० -ध्यानामृत रास (हि.) बुध रल्हण
-प्रद्युम्नचरित्र (अप०) विमलकीति
-सुखसम्पत्तिविधान कथा (अप०) तेजपाल बुध
-वरांगचरित्र, संभवजिन चरित्र, संगीतसार-सब अप० गुणभद्र भट्टारक (काष्ठासंघी) ल० १४६३-१५२३ ई० -अप० में अनेक ब्रतकथाएँ रची। पुण्यदत्त
-सुकुमाल चरित्न (अप०) श्रीधर कवि
१४७३ ई० -भविष्यदत्त पंचमी कथा (अप०) कमलकीर्ति
१४८८ ई० -तत्त्वसार टीका (सं०) विद्याभूषण
ल. १५०० ई० -भविष्यदत्तरास, वसन्तनेमि फाग गंगादास पंडित
-महापुराण रास विनयचन्द्र भट्टारक
–अनेक व्रतकथाएँ, रासा काव्य और पूजाएँ प्रतापकीर्ति
१५१४ ई० -श्रावकाचार रास कवि चतुरु
-नेमीश्वर गीत कवि ठकुरसी
१५२३-२८ ई० -कृष्णचरित्र, पंचेन्द्रिय बेल, नेमिसुर की बेल,
मेघमाला ब्रत कथा गौरवदास
१५२४ ई० -यशोधर चरित्र कर्मचन्द
ल०१५२५ ई० -मृगावती चोपपाई
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[ ७५
ब्रह्म गोपाल अभयनंदि जिनदास पंडित बुध वीरु
मुनि कल्याणकीर्ति पं० अचलकीर्ति (फिरोजाबाद) महाचन्द कवि बूचिराज (बल्हकवि) गरीबदास दामोदर कवि कुमुद वन्द्र
पांडे राजमल्ल (आगरा)
फूलचंद पंडित
सूरदास
ब्रह्म रायमल्ल
-पंचकल्याण कोद्यापनविधि (सं०)
-षोडश भावना आरती १५२७ ई० -बृहसिद्धचक्र पूजा (प्र०) आदि कई पूजापाठ १५२९ ई० -धर्मचक्रपूजा, नवग्रह पूजा, सिद्धचक्र पूजा, ऋषिमंडल
पूजा-सब सं० ल. १५३० ई० -राजुल का बारहमासा
-अठारहनाते की कथा, विषापहार भाषा
-शान्तिनाथ चरित्र (अप०) १५३२ ई० -मदन जुद्ध (अप०) १५४३ ई० -यशोधर चरित्र १५४६ ई० -मदनकुमार रास १५५० ई० -भरत बाहुबलि छंद, ऋषभविवाहलो, महावीर स्वामी
का रास, त्रेपन क्रिया विनती-सब हि. १५४०-९० ई. -जम्बूस्वामीचरित्न (सं०), पंचाध्यायी (सं०), लाटी
संहिता (सं०), इत्यादि १५५५ ई० -रत्नकरंडश्रावकाचार-पद्यानुवाद
१५५९ ई० -हनुमान कथा १५५९-७६ ई० -हनुमंत कथा, भविष्यदत्त कथा, व्रतकथाएँ, नेमीश्वर
रास, प्रद्युम्नरास, श्रीपाल रास-सब हि. ल० १५७० ई० -आदिनाथ स्तुति १५८०-८५ ई० –कई पूजा पाठ (सं०) १५८५ ई० -जम्बूस्वामी चरित्र, ज्ञानसूर्योदय, जोगीरासा आदि कई
रचनाएँ १५८६-१६४४ ई० -अर्धकथानक, नाटक समयसार, बनारसी नाममाला
कोश, बनारसी विलास (६० रचनाओं का संग्रह),
इत्यादि अनेक कृतियाँ-सब हि० १५९४ ई० -श्रीपाल चरित्र, श्रेयांस रास ल० १६०० ई० -अष्टमीव्रत कथा रास ल० १६००-५० ई० -परमार्थी दोहा शतक, गीत परमार्थी, खटोलना गीत,
परमार्थ जकड़ी, नेमिनाथ रासा, अध्यात्मदोहा, पंच
मंगल पाठ, आदि-सब हि० १६०२-१० ई. -लक्ष्मी-सरस्वती संवाद, ज्येष्ठ जिनवर व्रतोद्यपन,
अनन्तव्रत पूजा १६०६-१३ ई० -सुदर्शनचरित्र, यशोधर चरित्र १६०९ ई० -यशोधर रास
-भविष्यदत्त चरित्न
कमलकीर्ति ज्ञानभूषण पांडे जिनदास (आगरा)
पं० बनारसीदास महाकवि
परिमल्ल कवि जोगीदास (सलेमगढ़) रूपचन्द पंडित जोगी
श्रीभूषण (हथकंत)
नन्दकवि (आमरा) "विमल कीर्ति बनवारी लाल (खतौली)
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ज्ञानसागर ब्रह्म
ज्ञानभूषण भ.
विना
जगभूषभ भट्टारक हीरानन्द श्रावक ब्रह्मगुलाल (चन्द्रवाड) भगौतीदास पंडित (संकिसा)
चन्द्रमणि अग्रवाल कुँअरपाल (आगरा) रावत सालिवाहन (हथकंत) जगजीवन (आगरा)
यति लक्ष्मीचन्द्र (फतहपुर) धर्मदास (आगरा) पं० मनोहरदास (आगरा) हेमराज पांडे (आगरा)
ल. १६१०-३५ ई० -अनेक सं० पूजापाठ, हि. व्रतकथाएँ, तीर्थावली एवं
. फुटकर पद आदि
-तत्त्वज्ञानतरगिणी, परमार्थोपदेश संग्रह, नेमिनिर्वाण
___ काव्य पंजिका-हि० ल० १६१०-४० ई० -कई सं० पूजापाठ व सम्मेदाष्टक काव्य
१६११ ई० -अध्यात्मबावनी
१६१४ ई० –कृपणजगावन चरित्र, समोसरण चौपई, वेपन क्रिया ल. १६२०-५५ ई० –अनेकार्थनाममाला, सीतासतु, मृगांकलेखाचरित्र, कई
रास, ढमाल, चूनड़ी, व्रतकथाएँ, गीत, रूपक,
विनती आदि लगभग २५ हि० रचनाएँ ल. १६२५ ई० –सीताचरित्न १६२५-५२ ई० -सूक्तमुक्तावली, समकितबत्तीसी
१६३८ ई० -हरिवंश पुराण १६४४ ई०
-नाटक समयसार की टीका, बनारसी विलास का
संकलन ल० १६४५ ई० –ज्ञानार्णव-पद्यानुवाद
-इष्टोपदेश-भाषानुवाद १६४८ ई० –धर्मपरीक्षा -हि० पद्यानुवाद १६५२-७० ई० -प्रवचनसार, समयसार, पंचास्तिकाय, गोम्मटसार,
नयचक्र आदि आगमिक ग्रंथों की भाषा वचनिकाएँ,
भक्तामर भाषा आदि १६५४ ई० -पंचास्तिकायसार-हि० पद्यानुवाद
१६५६ ई० -सीता चरित्न काव्य १६६०-६६ ई० -धर्मरासो, अठारह नाते की कथा आदि
१६६५ ई० –सम्यक्त्त्व कौमुदी, पद्मनंदि पच्चीसी, आगम विलास ल० १६६५-८५ ई० -करकडुकथा (सं०), जिन दत्त चरित्न, दशलक्षण उद्या
पन कथा, अष्टान्हिका कथा, भक्तामर कथा आदि १६६५ ई० -पद्मनंदिपंचविंशतिका, सम्यक्त्त्व कौमुदी
१६६९ ई० -शनिश्चर कथा १६७०-१७०० ई० -लगभग ६७ श्रेष्ठ पद्य रचनाएँ जो ब्रह्म विलास में
संग्रहीत हैं -श्रीपाल विनोद, सम्यक्त्व कौमुदी, सम्यक्त्व लीला विलास, राजुल पचीसी, कृष्ण पचीसी, भक्तामर चरित्न कथा, अठारहनाते की कथा आदि अनेक रचनाएँ
पं० हीरानन्द (आगरा) कविचन्द्र (आगरा) अचलकीर्ति कासिदास (आगरा) विश्व भूषण भ० (हथकंत)
जगतराम राजा. विंद्रावन (हथकंत) भैया भगवतीदास (आगरा)
विनोदी लाल (शहजादपुर)
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जुगतराइ (आगरा) ब्र० जिनदास (हथकंत) ब्र० विनय सागर (") पं० शिरोमणिदास द्यानतराय (आगरा)
बुलाकीचन्द जैसवाल हेमराज (गहेली-इटावा) बुलाकीदास पंडित (आगरा) मंगल कवि सुरेन्द्रभूषण भूधरमल्ल (आगरा) भावसिंह (आगरा) ललितकीर्ति
जगतराय पंडित (आगरा) जीवराज (आगरा) हरिकृष्ण पांडे (अटेर) भारामल्ल (फर्रुखाबाद)
[ ७७ १६७३ ई० -छन्दरत्नावली १६७५ ई० -हरिवंश पुराण
-रामायण रास
-धर्मसार, सिद्धान्त शिरोमणि, उर्वशी नाममाला १६७६-१७२४ ई० ~द्यानत विलास अपरनाम धर्म विलास में संकलित
सैकड़ों रचनाएँ १६८० ई० -वचनकोश १६८५-१७२०ई० -अनेक व्रतकथाएँ १६९०-९७ ई० -भारत भाषा (पांडव पुराण), प्रश्नोत्तर श्रावकाचार
१७०० ई० -कर्मविपाक १७०३-४३ ई० -ऋषिपंचमी और श्रुतपंचमी व्रतकथाएं १७१३-३२ ई० -पार्श्व पुराण, भूधर शतक, चरचा समाधान १७२५-४८ ई० -पुण्यास्रवकथा कोश, जीवचरित्र १७२६ ई० -अनेक व्रतकथाएं, सिद्धचक्र पाठ,
अष्टक धमारि . १७२७ ई० -आगम विलास, ज्ञानानंद श्रावकाचार आदि १७३५ ई० -पुण्यास्रवकथाकोश १७४२ ई० –अनेक व्रत कथाएँ १७५६ ई० । -चारुदत्त चरित्र, सप्तव्यसन चरित्र, दर्शन कथा, शील
कथा, रात्रि भोजन कथा १७६० ई० -हिंडोलना १७६५-७८ ई०
-सिद्धान्त सार दीपक, जिन गुण विलास, नागकुमार चरित्र, जीवंधर चरित्र, जम्बूस्वामि चरित्र, महीपाल
चरित्र, भक्तामर कथा आदि १७६८ ई० -वर्धमान पुराण महाकाव्य १७७०-७७ ई० -सिद्धांतसार दीपक, वरांगचरित्र १७७०-१८२५ ई० -जिनेन्द्रपुराण (महापुराण) १७७५ ई० -सिद्ध चक्र विधान आदि कई पूजापाठ
-सिंदूर प्रकरण की वचनिका
-यशोधर चरित्र १७८० ई० –पद्मनंदि पचीसी वचनिका, नयचक्र वचनिका १७८०-८५ ई० -सम्मेद शिखर महात्म्य, शिखर विलास
. १७८५ ई० -अहिच्छत पारसनाथ स्तोत्न और विधान १७८६-८७ ई० -नेमिनाथ जी के कवित्त, पारसनाथ जी के कवित्त १७८८ ई० –स्वर्णाचल महात्म्य (सं०),सम्मेदाचल महात्म्य (सं०),
तथा सात तीर्थकरें के हिन्दी पद्य में रचित पुराण चरित्र (अजित, संभव, अभिनन्दन, सुमति, पद्मप्रभ, चन्द्रप्रभ, वर्धमान)
केशोदास नथमल बिलाला
नवलशाह (खटोला ग्राम) लालचन्द्र पांडे (अटेर) जिनेन्द्रभूषण (अटेर) संतलाल सुन्दरलाल लमेचु (अटेर) भूरजी अग्रवाल विलासराय (इटावा) गुलाबराइ (इटावा) आसाराम झुनकलाल (शिकोहाबाद) देवदत्त दीक्षित (हथकंत-अटेर)
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इन्द्रजीत "
-चार तीर्थंकरों के भाषा पुराण (कंयु, अर, मल्लि,
मुनिसुवृत) मनसुखसागर ब्र०
१७८९ ई० -ऋषभ पुराण, यशोधर चरित्र, सम्मेदशिखर महात्म्य,
नवगृह विधान, रक्षाबन्धन पूजा, सोनागिर पूजा सुखसागर पंडित
१७९० ई० --सुगंध दशमी कथा जीवराज
--मौन एकादशी कथा दिलसुखराय
१७९४ ई० --सम्मेद शिखर पूजा चेतनकवि
१७९६ ई० --अध्यात्म बारह खड़ी, आत्मबोध नामावली सम्पतराम
१७९७ ई० -ज्ञानसूर्योदय नाटक-छन्दोबद्ध गोपीलाल परवार (मऊरानीपुर) १८०० ई० --नागकुमार चरित्र प्यारेलाल
--सद्भाषितावली-छन्दोबद्ध अतिसुखराय
--श्रीपाल चरित्र मनरंगलाल (कन्नौज)
१८००-३७ ई० --चौबौसी पाठ, नेमिचन्द्रिका, सप्तव्यसनचरित्र,
सम्मेदाचल महात्म्य, सप्तर्षि पूजा, चौरासी जाति
जयमाल विजयनाथ माथुर
१८०४ ई० --वर्धमान पुराण कमलनयन बुढेलवाल (मैनपुरी) १८०३-२० ई० --जिनदत्त चरित्र, वरांगचरित, सम्मेद शिखर यात्रा
वर्णन, अढ़ाईद्वीप पाठ, सहस्त्र नाम पाठ, पंच कल्याणक
पाठ, समवसरण पूजा वृन्दावन दास (वाराणसी, जन्म १७९१) १८१०-४८ई० --प्रवचन सार परमागम, छन्द शतक, अर्हत्पासाकेवलि,
सतसैया, धर्मबुद्धि मंत्री कथा, चतुर्विंशति-जिन पूजापाठ, तीस चौबीसी पाठ, वृन्दावन-विलास (फुटकर
रचनाओं का संग्रह) लालचन्द (काशि)
१८१३ ई० -अकृत्रिम चैत्यालय पूजा - भूधर मिश्र (आगरा)
१८१४ ई० --पुरुषार्थ सिद्धयुपाय वचनिका, चर्चा समाधान रत्नसागर ब्र० (हथकंत)
१८१८ ई० --पंच परमेष्टि पूजा महेन्द्रभूपण भ० (")
--जय कुमार चरित शिवप्रसाद, राजा, सितारेहिन्द (वाराणसा)
१८२३-९५ ई० -इतिहास तिमिर नाशक, राजाभोज का सपना आदि हीरालाल (बड़ौत)
१८२५ ई० -चन्द्रप्रभ पुराण बासीलाल
१८२७ ई० --वैराग्य शतक-भाषा पद्यानुवाद मनराखनलाल (जामसा)
-सुधारससार-छन्दोबद्ध सदानन्द (भोगांव)
ई० -कंपिलाजी की रथ यात्रा-छन्दोबद्ध हरकृष्णलाल (हसागढ़)
--पंच कल्याणक पूजा दौलतराम पं० (सासनी-अलीगढ़) १८३४ ई० --छहढाला, ग्यारह प्रतिमा स्वरूप, दंडक की चीपाई,
परमार्थ जकड़ी,, दौलत विलास या दौलत कवितावली (लगभग १२५ पदों आदि का संग्रह)
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ख - ६
नन्दराम (आगरा ) हरगुलाल (खतौली )
अतिदास (वाराणसी)
प्रागदास (मथुरा) गुलजारीलाल जैसवाल
तुलसीराम
बनवारी लाल
छत्रपति (फीरोजाबाद)
नयनसुखदास यति ( कांधला )
भैरूलाल (वाराणसी)
ज्ञानानन्द (वाराणसी)
शिखरचन्द (वाराणसी) छोटेलाल जैसवाल (अलीगढ़)
१८४७ ई० १८४९ ई०
१८५० ई०
11
21
7
17
१८५०-७७ ई०
१८५३ ई० १८५७ ई० १८७५-८५ ई० १८७५-९२ ई०
- योगसार, यशोधर चरित्र, तैलोक्यसार पूजा
- सज्जनचित्तवल्लभ - वचनिका
—— जैन रामायण - छन्दोबद्ध (अपूर्ण)
-- जम्बूस्वामी की पूजा
मिस्टर जैन वैद्य ( जवाहिरलाल ) १८८० - १९०९ ई०
बलदेवदास पाटनी (आगरा ) नाथूराम लमेचु
--आत्म विलास
- आदि पुराण, जैन विवाह विधि
१८५० - १९०० ई० अद्भुत राम चरित, गुणधर चरित्र, अठारहनाते की
कथा, मुनिवंश दीपिका, बारहमासा संग्रह, नयनानंद - विलास ( अनेक फुटकर रचनाओं का संग्रह )
[ ७९
- प्रश्न समाधान
-- मदन मोहन पंचशती, उद्यम प्रकाश, द्वादशानुप्रक्षा, ब्रह्म गुलाल मुनि चरित्र, बीस विहरमान तीर्थकर
पाठ
-- पंच कल्याणक पूजा
- समय तरंग, ज्ञान विलास
-- विद्यमान विशति जिन पूजा, जिनसहस्त्रनाम पूजा देवपूजा (सं०), पंच कल्याणक पाठ, चौबीसी पाठ, दशाध्यायिसूत्र भाषा, पद, रेखता, लावनी आदि - कमल मोहिनी भँवरसिंह नाटक, व्याख्यान प्रबोधक, ज्ञानवर्ण माला
१८९३ ई०
- आत्मासार प्रबोध शतक, ज्ञान शतक सवैया, ज्ञान वर्णमाला १८९५-१९०२ ई० - ज्ञानानंद रत्नाकर, स्वानुभवदर्पण सटीक, तत्त्वार्थं सूत्र का आशय, नेमीश्वर विवाह, जैन व्रत कथा रत्न, रक्षाबन्धन कथा, आदि
उत्तर प्रदेश के वर्तमान शताब्दी (२०वीं शती ई०) के उल्लेखनीय दिवंगत जैन साहियकार हैं-
पं० उमराव
पं० गोपालदास बरैया आगरा, पं० रिषभदास चिलकाना, ब्र० भगवान सागर महमूदाबाद, सिंह वाराणसी, बा० ऋषभदास वकील मेरठ, बा० रतनचन्द वकील इलाहाबाद, बा० सूरजभान वकील नुकुड़देवबंद, ला० जैनीलाल सहारनपुर, पं० पन्नालाल न्यायदिवाकर फ़ीरोजाबाद, पं० श्रीलाल एवं प्यारेलाल अलीगढ़, पं० गौरीलाल, पं० झुम्मनलाल, बा० नेमीदास वकील सहारनपुर, जोती प्रसाद 'प्रेमी' देवबंद, बा० मोतीलाल आगरा, बा० दयाचन्द गोयलीय, मा० बिहारीलाल 'चैतन्य' बुलन्दशहर, भोलानाथ 'दरख़शाँ' बुलन्दशहर, सेठ पदमराज रानीवाले खुर्जा, बा० मानिकचन्द, ब्र० सीतलप्रसाद लखनऊ, पं० गणेश प्रसाद वर्णी, महात्मा भगवानदीन, स्वामी कर्मानन्द, पं० जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर' सरसावा, बैरिस्टर जगमंदरलाल जैनी सहारनपुर, बैरिस्टर चम्पत राय जैन हरदोई, बा० अजित प्रसाद वकील लखनऊ, पं० चन्द्र सेन जैन वैद्य इटावा, पं० बनारसी दास उर्फ 'दास', मंगतराय 'साधु' बुलन्दशहर, डा० वेणी प्रसाद आगरा, डा० निहालकरण सेठी आगरा, पं० निद्धामल
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८० ]
ख - ६
सहारनपुर, पं० तुलसीराम वा० भू० बड़ीत, बा० जगरूपसहाय वकील एटा, मा० मुख्त्यारसिंह (मुक्त्यानंद) मुजफ्फरनगर, चावली (जिला आगरा) के पं० नृसिंहदास, पं० लालाराम, पं० माणिक्यचन्द्र न्या०आ०, पं० खूबचन्द सि०आ० और प्रो० विमलदास कौन्देय, आचार्य सुधर्मसागर, आचार्य महावीर कीर्ति, बा० कामता प्रसाद जैन अलीगंज (एटा), महेन्द्रजी आगरा, डा० पुष्यमित्र आगरा, डा० बूलचन्द जैन, भगवत् स्वरूप 'भगवत' ऐतमादपुर (आगरा), फूलचंद 'पुष्पेदु' लखनऊ, डा० महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य वाराणसी, पं० मक्खनलाल प्रचारक, हरिप्रसाद हरि, रामस्वरूप भारतीय, आदि ।
उत्तर प्रदेश के वर्तमान उल्लेखनीय जैन साहित्यकार हैं
पं० मक्खनलाल शास्त्री 'तिलक' (चावली), पं० फूलचन्द शास्त्री वाराणसी, पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री, डा० ज्योति प्रसाद जैन लखनऊ, पं० राजेन्द्र कुमार मथुरा, प्रो० घासीराम जैन मेरठ, कल्याण कुमार 'शशि' रामपुर, पं० परमेष्ठीदास ललितपुर, सहारनपुर के अयोध्या प्रसाद गोयलीय, दिगम्बरदास जैन एडवोकेट और पं० रत्नचन्द्र जैन मुख्तार, बा० रतनलाल जैन वकील बिजनौर, आगरा के सेठ अचलसिंह, श्री धन्यकुमार जैन, उपाध्याय अमर मुनि श्री जवाहर लाल लोढा, डा० बी०एम० टोंक, डा० राजकुमार जैन, श्री प्रताप चन्द जैन, श्रीचन्द सुराणा 'सरस', रामसिंह जैन, प्रो० कपूर चन्द जैन, डा० जयकिशन प्रसाद खंडेलवाल और पं० बलभद्र जैन, आर्यिकारत्न ज्ञानमती, क्षुल्लक मनोहर लाल ( सहजानंद) वर्णी, डा० जगदीश चन्द्र जैन, श्री अक्षय कुमार जैन, प्रो० अनन्त प्रसाद लोकपाल गोरखपुर, प्रो० ओ० पी० जैन रुड़की, वाराणसी के डा० दरबारी लाल कोठिया, डा० मोहनलाल मेहता, श्री जमनालाल, शरद कुमार 'साधक' प्रो० खुशालचन्द्र गोरावाला, पं० अमृतलाल शास्त्री, प्रो० उदयचन्द्र जैन, डा० गोकुलचन्द्र जैन, डा० कोमल प्रसाद जैन, डा० सुदर्शन लाल जैन, श्री फूलचन्द प्रेमी और श्री गणेश प्रसाद जैन, डा० विमल प्रकाश जैन, पं० बाबू लाल जैन रानीखेत, डा० चमनलाल जैन एटा, डा० श्याम सिंह जैन मिर्जापुर, श्री वीरेन्द्र प्रसाद जैन अलीगंज (एटा), बड़ौत के डा० प्रेम सागर जैन पं० सुखनंदन लाल जैन और पं० बाबूलाल जमादार, खतौली के पं० जयन्ती प्रसाद जैन शास्त्री, फीरोजाबाद के डा० लाल बहादुर शास्त्री, पं० श्याम सुन्दर लाल शास्त्री, पं कुंजीलाल शास्त्री और प्रो० नरेन्द्र प्रकाश जैन, अलीगढ़ के प्रो० जगवीर किशोर जैन एवं डा० महेन्द्र सागर प्रचंडिया, पं सुमेर चंद जैन बहराइच, कवि सुरेन्द्रसागर प्रचंडिया एटा, पं० सरमनलाल जैन सरधना, डा० प्रेमचन्द नजीबाबाद, मेरठ के श्री राजेन्द्र कुमार जैन और वसन्तलाल जैन, ललितपुर के हुकमचंद तन्मय बुखारिया, सकरार के सरमनलाल सरस एवं हजारी लाल 'काका', और लखनऊ के श्री ज्ञानचन्द्र जैन, श्री कैलाश भूषण जिन्दल, श्रीमती शशि जैन, डा० पूर्णचन्द जैन, डा० प्रद्युम्नकुमार जैन, डा० शशिकान्त, श्री रमाकान्त जैन, श्री नन्द किशोर जैन एवं डा० उमेदमल मुनोत, इत्यादि ।
इस प्रकार वर्तमान शती में अद्यावधि लगभग १५० जैन विद्वान, साहित्यकार, लेखक, कवि आदि उत्तर प्रदेश में हुए हैं, जिनमें से लगभग ७०-८० विद्यमान हैं और अपने-अपने क्षेत्रों में कार्यरत हैं। उपरोक्त सूचियों में अनभिज्ञता के कारण कई एक उल्लेखनीय नाम छूट गये भो हो सकते हैं-यदि ऐसा हुआ है तो उसके लिए संपादक क्षमाप्रार्थी है।
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उत्तर प्रदेश के जैन पत्र और पत्रकार
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गत लगभग डेढ़ शताब्दी के पुनरुत्थान युग में सांस्कृतिक, सामाजिक एवं राष्ट्रीय चेतना को जागृत करने का एक बहुत बड़ा साधन पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन एवं प्रचार रहा है । जैन समाज एक अति अल्पसंख्यक समाज होते हुए भी एक अधिकांशतः मध्य वित्त, शिक्षित एवं प्रबुद्ध समाज रही है, अतः इस आधुनिक प्रचार साधन का जैनों ने भी पर्याप्त प्रयोग एवं उपयोग किया है और स्वयं अपनी अनेक उत्तम पत्र-पत्रिकाएँ निकालने तथा सफलता पूर्वक उनके संचालन के अतिरिक्त सार्वजनिक क्षेत्र की पत्रकारिता को भी कई श्रेष्ठ पत्रकार प्रदान किये हैं ।
पत्रकारिता और छापेखाने ( मुद्रणकला) का प्रायः अविनाभावी सम्बन्ध है । सर्वप्रथम ज्ञात मुद्रित पुस्तक ८६८ ई० में चीन में छपी थी, १५वीं शती के मध्य के लगभग युरोप (जर्मनी) में मुद्रण का प्रारम्भ हुआ और भारतवर्ष का सर्वप्रथम छापाखाना गोआ में १५५६ ई० में स्थापित हुआ था, जिसमें उसी वर्ष लातीनी भाषा में ईसाई धर्म की एक पुस्तक छपी थी । भारतीय भाषाओं में १६१६ ई० में रायतूर के छापेखाने में छपी मराठी भाषा की क्राइस्टपुराण नामक पुस्तक थी, और हिन्दी की सर्वप्रथम छपी पुस्तक बम्बई के कुरियर प्रेस में १८२३ ई० में मुद्रित विदुरनीति थी । हिन्दी भाषा और नागरी लिपि में मुद्रित सर्वप्रथम जैन पुस्तक पं. बनारसीदास कृत साधुवन्दना १८५० ई० में आगरा में छपी थी।
सामयिक पत्र-पत्रिकाओं में भारतवर्ष का सर्वप्रथम समाचारपत्र १७०० ई० में प्रकाशित अंग्रेजी भाषा का बंगाल गजट था, उर्दू का सर्वप्रथम अखबार जाम- इ - जहांनुमा १८२२ में, और हिन्दी का उदन्त मार्त्तण्ड १८२६ में कानपुर से प्रकाशित हुआ था । जैनों का सर्वप्रथम ज्ञात समाचारपत्र गुजराती मासिक जैन- दिवाकर १८७५ ई० में अहमदाबाद से प्रकाशित हुआ, और हिन्दी का सर्वप्रथम जैन पत्र साप्ताहिक 'जैन' १८८४ ई० में फर्रुखनगर से प्रकाशित हुआ था । उत्तर प्रदेश का सर्वप्रथम जैन पत्र सम्भवतया दिगम्बर जैन महासभा द्वारा मथुरा से १८९४ ई० में प्रकाशित साप्ताहिक हिन्दी 'जैनगजट' था, जो अब तक बराबर चालू यद्यपि अब अनेक वर्षों से वह अजमेर से प्रकाशित होता है । उत्तर प्रदेश से ही अंग्रेजी की सर्वप्रथम पत्रिका 'जैन गजट' १९०४ ई० में निकलना प्रारम्भ हुई और लगभग ५० वर्षों तक चलती रही ।
इस प्रकार लगभग एक सौ वर्ष पूर्व जैन पत्र-पत्रिकाओं का निकलना जो प्रारम्भ हुआ तो उनकी संख्या एवं विविधता में उत्तरोत्तर वृद्धि होती गई । श्री अगरचन्द नाहटा ने १९३८ ई० ( जैन सिद्धान्त भास्कर, भा. ५ कि. १ पृ. ४२-४५ ) में जो सर्वेक्षण दिया था उसके अनुसार तब तक लगभग ११० जैन - पत्र-पत्रिकाएँ निकलकर भूतकालीन बन चुकी थीं और ६६ उस समय वर्तमान थीं। सन् १९५८ में प्रकाशित अपनी पुस्तक 'प्रकाशित जैन साहित्य' की प्रस्तावना (पृ.६३, ६५-६७ ) में हमने सूचित किया था कि तब तक लगभग २५० जैन सामायिक पत्रपत्रिकाएँ निकल चुकी थीं जिनमें से लगभग १५० तो अस्तगत हो चुकी थीं और लगभग १०० चालू थीं । वर्तमान में ऐसा अनुमान है कि गत सौ वर्षों के बीच हिन्दी, गुजराती, मराठी, कन्नड, तामिल, बंगला, उर्दू और अंग्रेजी
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८२ ]
ख-६ भाषाओं की, साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक, द्वैमासिक, त्रैमासिक, वार्षिक आदि लगभग तीन सौ जैन पत्र-पत्रिकाएँ भारतवर्ष के विभिन्न स्थानों से प्रकाशित हुई हैं। इनमें से लगभग१३० वर्तमान हैं, शेष अल्पाधिक काल तक चलकर बन्द हो चकी हैं । स्वयं उत्तर प्रदेश में वर्तमान में लगभग २५ जेन पत्र-पत्रिकाएँ निकल रहीं हैं, और प्रदेश की अस्तगत अथवा कालान्तर में अन्यत्र स्थानांतरित पत्र-पत्रिकाओं में कई विशेष उल्लेखनीय रही हैं, यथा जैनगजट (अंग्रेजी मासिक लखनऊ), जैनगजट (हिन्दी साप्ताहिक), जैन होस्टल मेगजीन (अंग्रेजी मासिक, इलाहाबाद), अनेकांत (हिन्दी मासिक, वीर सेवामन्दिर सरसावा), जैन प्रदीप (उर्दू पाक्षिक, देवबन्द), सनातन जैन (हि. मा., बुलन्दशहर), ज्ञानोदय (हि. मा., वाराणसी), ज्ञानपीठ-पत्रिका (हि. मा., वाराणसी), दिव्यध्वनि (हि. मा., आगरा), इत्यादि।
जैन पत्रकारिता के क्षेत्र में कार्य करने वाले उत्तर प्रदेश के दिवंगत महानुभावों में उल्लेखनीय रहे हैंबा० सूरजभान वकील देवबन्द (हि. ज्ञान प्रकाशक, उ. जैनहित उपदेशक, आदि), पं. गोपालदास बरैया आगरा (जैनमिन), आचार्य जुगल किशोर मुख्तार सरसावा (जैन हितैषी, जैनगजट, समन्तभद्र, अनेकान्त), ब्र. सीतल प्रसाद लखनऊ (जैनमित्र), बैरिस्टर जगमन्दरलाल जैनी सहारनपुर एवं बा. अजित प्रसाद वकील लखनऊ (अंग्रेजी जैन गजट), श्री ज्योति प्रसाद 'प्रेमी' देवबन्द (उर्दू जैन प्रदीप, आदि), मंगतराय मुख्तार 'साधु' बुलन्दशहर (सनातन जैन), ला. कपूरचन्द जैन आगरा (जैन सन्देश), सेठ पद्मराज रानीवाले खुर्जा (काव्याम्बुधि, जैन सिद्धान्त भास्कर, जैना एंटीक्वेरी), बा. कामता प्रसाद जैन अलीगंज (वीर, अहिंसावाणी, वायस आफ अहिंसा. आदि), पं. श्रीलाल अलीगढ़, चन्द्रसेन नैद्य इटावा,
प्रदेश के वर्तमान जैन पत्रकारों में उल्लेखनीय हैं-पं. कैलाशचन्द शास्त्री वाराणसी (जैन सन्देश). श्री जवाहर लाल लोढ़ा आगरा (श्वेताम्बर जैन), डा. ज्योतिप्रसाद जैन लखनऊ (जैन सिद्धान्त भास्कर-जैना एन्टीक्वेरी, जैन सन्देश-शोधांक, वायस आफ अहिंसा-वर्तमान, तथा भूतपूर्व-जैनकुमार, छात्र, मानसी, अनेकान्त, अहिंसावाणी आदि), पं. परमेष्ठीदास न्यायतीर्थ ललितपुर (वीर, जैनमिन), पं. राजेन्द्रकुमार न्यायतीर्थ मथरा (जैन संस्कृति), डा. मोहनलाल मेहता वाराणसी (श्रमण), श्री जमनालाल जैन वाराणसी (जैन जगत, श्रमण), पं.. बलभद्र जैन (जैन सन्देश, दिव्यध्वनि), श्री अयोध्या प्रसाद गोयलीय सहारनपुर (ज्ञानोदय), श्रीचन्द सराणा आगरा (अमर भारती), पं. परमानन्द शास्त्री दिल्ली (अनेकान्त), डा० लालबहादुर शास्त्री दिल्ली एवं श्री
काश जैन फिरोजाबाद (पद्मावती सन्देश), श्री वीरेन्द्र प्रसाद जैन अलीगंज (अहिंसावाणी एवं वायस आफ अहिंसा), श्री राजेन्द्र कुमार जैन मेरठ (वीर), श्री सुकुमार जैन मेरठ (महावीर निर्वाण बुलेटिन), श्री अक्षय कुमार जैन दिल्ली (वीर-परिनिर्वाण), श्री मोती चन्द सर्राफ (सम्यक्ज्ञान), श्री गोर्धनदास आगरा (दिग.-जैन), जिनेन्द्र प्रकाश जैन एटा (करुणादीप), पं. कैलाशचन्द्र पंचरत्न लखनऊ (सत्यार्थ एवं धर्मवाणी), श्री नन्दकिशोर जैन लखनऊ (ज्ञानकीर्ति), श्री प्रतापचन्द जैन आगरा (अमर भारती), आदि ।
उत्तर प्रदेश के निवासी जिन जैनों ने सार्वजनिक पत्रकारिता के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किया है या कर रहे हैं, वे हैं--स्व. श्री महेन्द्र जी आगरा (साहित्य सन्देश, आगरा पंच आदि), श्री अयोध्याप्रसाद गोयलीय (ज्ञानोदय), श्री अक्षयकुमार जैन प. वि. (नवभारत टाइम्स), श्री ज्ञानचन्दजैन (नवजीवन), श्री आनन्द प्रकाश जैन, श्री ज्ञानेन्द्र कुमार जैन, श्री शरदकुमार 'साधक' (चौराहा), आदि । उत्तर प्रदेश की वर्तमान जैन पत्र-पत्रिकाएं
भाषा प्रकार
प्रकाशन स्थान १. जैन सन्देश
हिन्दी
साप्ताहिक भा. दि. जैन संघ, चौरासी मथुरा
नाम
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[ ८३
२. श्वेताम्बर जैन ३. दिग-जैन ४. वीर
पाक्षिक
मोती कटरा, आगरा जौहरी बाजार, आगरा भा. दि. जैन परिषद, ६९, तीरगरान स्ट्रीट, मेरठ शहर दया प्रकाश जैन, एटा पुलगामा चौक, लखनऊ सन्मति ज्ञानपीठ, लोहामंडी, आगरा विश्व जैन मिशन, अलीगंज (एटा)
मासिक
५. करुणादीप ६. सत्यार्थ ७. अमर भारती ८. अहिंसावाणी ९. वायस आफ अहिंसा १०. ऋषभ सन्देश ११. सम्यग्ज्ञान
अंग्रेजी हिन्दी
१२. श्रमण १३. जैन संस्कृति १४. वर्णी सन्देश १५. पद्मावती सन्देश १६. ज्ञानकीर्ति १७. धर्मवाणी १८. अनेकान्त
ऋषभ ब्रह्मचर्याश्रम, चौरासी, मथुरा दि.जै. त्रिलोक शोध संस्थान,
हस्तिनापुर (मेरठ) पा.वि. शोध संस्थान, वाराणसी जै.सं.सेवक समाज, चौरासी, मथुरा धूलियागंज, आगरा फिरोजाबाद चौक, लखनऊ
द्वैमासिक
तैमासिक
१९. प्राच्यमुक्ता २०. जैन सन्देश-शोधाङ्क २१. दिशाबोध . २२. सत्संग सन्देश
मूलतः वीर सेवामन्दिर सरसवा का मुखपत्न, अब दिल्ली से प्रकाशित है प्रा.वि. शोध अकादमी, चुरारा, झांसी भा.दि. जे. संघ, चौरासी, मथुरा जैन सभा, रुड़की वि.वि., रुड़की जैन सत्संग मंडल, सादतगंज, लखनऊ
वार्षिक
उपरोक्त के अतिरिक्त प्रदेश के कई जैन विद्यालयों, कालिजों आदि की भी वार्षिक मेंगजीन निकलती हैं, जिनमें स्याद्वादविद्यालय की स्याद्वाद पत्रिका अच्छी निकलती है। कुछ अन्य पत्र-पत्रिकाएँ ऐसी भी हो सकती हैं जिनके विषय में अनभिज्ञता होने से उनका उल्लेख ऊपर नहीं किया जा सका।
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उत्तर प्रदेश के जैन स्वतन्त्रता सेनानी
वर्तमान शताब्दी के पूर्वार्ध में देश में राष्ट्रीय चेतना फंकने और राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के नेतृत्व में राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा स्वतन्त्रता प्राप्ति के हेतु विदेशी शासन के विरुद्ध किये गये चिरकालीन संघर्ष एवं स्वातन्त्र्य संग्राम में उत्तर प्रदेश के विभिन्न जिलों के निवासी जिन जैन स्त्री-पुरुषों ने सक्रिय भाग लिया है, उनमें से उल्लेखनीय स्वतन्त्रता सेनानियों का जिलेवार संक्षिप्त परिचय नीचे लिखे अनुसार है :
मेरठ जिला
बा० कीति प्रसाद वकील, मेरठ-महात्मा गांधी के आन्दोलन के प्रारम्भ से ही सक्रिय सहयोगी थे। अपनी अच्छी चलती वकालत छोड़ कर १९२१ के असहयोग आन्दोलन में कूद पड़े और जेल यात्रा भी की। वकालत फिर नहीं की, और शेष जीवन राष्ट्रसेवा, समाजसेवा तथा एक गुरुकुल की देख भाल में व्यतीत किया। उनके अनुज बा० रिसालसिंह वकील ने भी असहयोग आन्दोलन में सोत्साह भाग लिया था, किन्तु पारिवारिक परिस्थितियों के कारण वकालत नहीं छोड़ी थी।
ला० अतर सेन देशभक्त, मेरठ--बड़े गरम कांग्रेसी कार्यकर्ता थे, उर्दू में 'देशभक्त' अखबार निकालते थे जो कई बार सरकार द्वारा जब्त हुआ । सन् १९२१ और १९३० के आन्दोलनों में जेल यात्राएँ भी की।
बा० गिरिलाल मुख्तार, मेरठ--बड़े उत्साही कांग्रेसी कार्यकर्ता थे, १९३०-३१ के आन्दोलन में जेल यात्रा की।
ला० सुन्दर लाल जैन, मेरठ–ने १९३०-३१ में कांग्रेस सेवा दल में कार्य किया और १९४२ के आन्दोलन में सक्रिय भाग लेकर जेल यात्रा भी की।
मास्टर पृथ्वी सिंह जैन--भी प्रारम्भ में कांग्रेस सेवा दल के सदस्य रहे, तदनन्तर कांग्रेस के अच्छे कार्यकर्ताओं में रहते आये है। 'भारत छोड़ो आन्दोलन' में जेल यात्रा भी की।
ज्योति प्रसाद जैन, मेरठ--(प्र० सम्पादक प्रस्तुत ग्रन्थ) भी १९२९-३१ में कांग्रेस सेवा दल के सक्रिय सदस्य रहे, जिसके कारण एक वर्ष की पढ़ाई की भी हानि की। सेवादल के कार्य के अतिरिक्त समाज में खादी के प्रचार और जिनमन्दिर के रेशमी व मखमली वेष्ठन, परदे, चंदोयों आदि के स्थान में खादी के लगवाने में काफी योग दिया।
बा० सुखबीर सिंह मुख्तार--भी कांग्रेस के बड़े उत्साही कार्यकर्ता रहे और आंदोलनों में भाग लेने के 'लिए जेल यात्राएं की।
धर्मपत्नी बाबू उमराव सिंह मुख्तार-भी कांग्रेस की अच्छी कार्ययर्ता रहीं।
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[ ८५
१९२१-४२ राष्ट्रीयता की एक अजब लहर थी, जिसमें मेरठ शहर एवं सदर के अन्य अनेक जैन युवकों एवं प्रौढ़ों ने तथा कई महिलाओं ने भी उत्साह के साथ भाग लिया था।
बा० कामता प्रसाद मुख्तार बड़ौत--बड़े क्रान्तिकारी कार्यकर्ता थे-हिंसक आंदोलन में भी उनका सक्रिय योग रहा, जेल यात्रा भी की। कस्बे बड़ौत के कई अन्य जैनों ने भी कांग्रेस आंदोलन में भाग लिया।
पं० शीलचन्द न्यायतीर्थ, मवाना-ने १९४२ के भारत छोड़ो आंदोलन में डटकर भाग लिया और पुलिस को चकमा देने में सफल रहे । मवाना तहसील के आप तभी से प्रमुख कांग्रेसी कार्यकर्ता रहते आये हैं ।
ला० चतर सेन खदर वाले सरधना--भी शुद्ध खादीधारी एवं कांग्रेस के अच्छे कार्यकर्ता रहे हैं । सेठ भगवती प्रसाद जैन हापुड़-भी कांग्रेस के अच्छे कार्यकर्ता रहते आये हैं।
खेकड़ा के निकट बड़ा गांव के युवक शीतल प्रसाद ने स्याद्वाद विद्यालय वाराणसी के छात्रों द्वारा १९४२ में किये गये उग्र आंदोलन में अग्रणी भाग लिया था और पुलिस के हाथों भीषण यंत्रणाएं सही थीं।
__ महात्मा भगवानदीन जी-उत्तर प्रदेश के ही मूलतः निवासी पल्लीवाल जैन थे और हस्तिनापुर (जिला मेरठ) में श्री ऋषभ ब्रह्मचर्याश्रम की स्थापना (लगभग १९१४ ई०) के साथ ही उसके अधिष्ठाता हुए थे और तब भी 'महात्मा' कहलाते थे । भरी जवानी में ही गृहस्थी से विरक्त होकर राष्ट्र और जनता की सेवा का उन्होंने व्रत ले लिया था और सन् १९१८ में ही, शायद अन्य सब कांग्रेसियों से पहले, विदेशी शासन के विरोधी विचारों एवं कार्यों के लिए जेल गये थे। राष्ट्रपिता गांधी जी से शायद पहले से ही 'महात्मा' कहलाने वाले सार्वजनिक क्षेत्र के यह अपने ढंग के अनोखे त्यागी एवं निस्पृह महात्मा थे। उनका पूरा जीवन जन सामान्य की सेवा में बीता। उनके भागिनेय, प्रसिद्ध साहित्यकार जैनेन्द्र कुमार हस्तिनापुर के उक्त ब्रह्मचर्याश्रम के प्रारंभिक छात्रों में से थे और राष्ट्रभक्ति से ओत-प्रोत रहे हैं तथा उसके कारण जेल यात्रा भी की है।
सहारनपुर जिला
श्री ज्योति प्रसाद जैन 'प्रेमी' देवबन्द -'जैन प्रदीप' (उर्दू) के यशस्वी संपादक श्री ज्योति प्रसाद 'प्रेमी' ने १९२०-२१ के असहयोग आन्दोलन में बड़े उत्साह के साथ सक्रिय भाग लिया । काँग्रेस-संगठन को मजबूत बनाने, तिलक स्वराज्य फंड का चन्दा एकत्र करने और जोशीले भाषण देने में अपने क्षेत्र में अग्रणी थे। गिरफ्तार भी हए। १९३० के आन्दोलन को उनसे बल मिला। अपने पत्र 'जैन प्रदीप' में वे बराबर राष्ट्र के साथ रहे, 'भगवान महावीर और गान्धी' लेख पर मांगी जमानत के कारण ही 'जैन प्रदीप' बन्द हुआ था। मृत्यु पर्यन्त वे खादी पहनते रहे और उसके लिए सदैव युवकों को प्रोत्साहित करते रहे।
बाबू झूमन लाल जैन, सहारनपुर-१९२० में अपनी चमकती वकालत को छोड़कर वे राजनीति में आये, अन्त तक कांग्रेस के साथ रहे। स्पष्ट वक्ता, पैने लेखक और संयमी कार्यकर्ता थे । सन् १९३२ में उन्होंने जेल यात्रा भी की।
श्री हंस कुमार जैन-१७-१८ साल की उम्र में ही, १९३० में रुड़की छावनी में फोजों को भड़काने के अपराध में उन्हें ४ साल की सख्त कैद की सजा सुनाई गई। १९३२ और १९४२ में भी वे जेल गये और सदैव वहाँ का कठोर वातावरण उनकी बंशी-ध्वनि और मधुर रागों से थिरकता रहा। अपने पिता बाबू झूमन लाल जी की तरह वह भी निस्पृह और सरल रहे।
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८६ ]
ख - ६
बाबू अजित प्रसाद जैन वकील, सहारनपुर- आप का सहारनपुर ही नहीं, प्रान्त एवं केन्द्र की राजनीति में भी उल्लेखनीय स्थान रहा है। आप कांग्रेस की ओर से सन् १९३६ से एसेम्बली के सदस्य रहे और विधान निर्मात्री परिषद में एकमात्र जैन सदस्य थे। उत्तर प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष, केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल में खाद्यमंत्री एवं एक राज्य के राज्यपाल भी रहे। उत्तर प्रदेश के किसान कानून के प्रमुख विधाता रहे।
श्रीमती लक्ष्मीदेवी जैन, सहारनपुर, धर्मपत्नी श्री अजित प्रसाद जैन- अपने पति के राजनीतिक जीवन में प्रेरक और सहयोगिनी रहीं, कांग्रेस के कार्यों में सदा भाग लेती रहीं और प्रमाणित कांग्रेसी जेल यात्री भी हैं । आप के साथ आप की कुछ मास की पुत्री 'ढोई' भी जेल में रही।
श्री विशाल चन्द्र जैन - राष्ट्रीय विचारों के देशभक्त रहे। स्वतन्त्रता के उपरान्त वर्षो आनरेरी मजिस्ट्रेट रहकर जनता की सेवा की है ।
श्री हुलाश चन्द्र जैन, रामपुर (जि० सहारनपुर ) – १९२० से ही वे कांग्रेस के काम में दिलचस्पी लेने लगे थे । १९३० में देवबन्द तहसील को जलाने में उन्होंने रात-दिन मेहनत की और जेल गये । १९४२ में भी उन्हें काफी दिन जेल में रहना पड़ा ।
श्री मामचन्द जैन देवबन्द (जि० सहारनपुर ) - - १९३० में वे अपने गम्भीर नारों और मीठे एलानों के
के साथ कांग्रेस में आये । एक दिन हथकड़ियाँ पहने वे सहारनपुर जेल पहुंच गये ।
श्री त्रिलोक चन्द जैन, सहारनपुर- बी० ए० की सार्टीफिकेट ठुकराकर उन्होंने बागी सार्टीफिकेट लिया और तब से वे बराबर कांग्रेस के उत्साही कार्यकर्ता रहे।
श्री प्रकाशचन्द्र जैन, सहारनपुर --- १९४२ में कांग्रेस में आये और जेल गये। वहीं इस होनहार युवक की मृत्यु हो गयी ।
हड़ताल की आहुतियाँ -- ९ अगस्त १९४२ को सब नेता गिरफ्तार हो गये और सहारनपुर में हड़ताल हो गयी । परिणामस्वरूप अनेक लोगों को जेल में ठूंस दिया गया, जिसमें निम्नलिखित जैनों के नाम उल्लेखनीय हैंश्री शिखरचन्द मुनीम –६ मास सख्त कैद, श्री प्रकाशचन्द मुनीम ३ मास सख्त कंद व ३००) रु० का अर्थ- दण्ड, श्री बाबू राम जैन-६ मास सख्त कंद, श्री कैलास चन्द जैन-६ मास सख्त कैद
तोड़-फोड़ के अपराध में जैन समाज के यशस्वी तरुण कवि श्री शान्ति स्वरूप जैन 'कुसुम' १९४२ में जिले के उन तरुणों में थे जिन्होंने आन्दोलन के स्थान में क्रांति का रास्ता पकड़ा। कुछ दिनों में वे पुलिस की आंखों में गड़ गये और पकड़े गये ।
कौलाश प्रसाद, मंगलकिरण आदि अन्य कई अच्छे कार्यकर्त्ता सहारनपुर में रहे हैं । श्री अयोध्या प्रसाद गोयलीय, जो अब सहारनपुर में ही बस गये हैं, किसी समय उग्र स्वतन्त्रता सेनानी रहे और १९३२ के नमक सत्याग्रह में दो वर्ष का कारावास भुगत चुके हैं।
बिजनौर जिला
बा० रतनलाल जैन वकील, भूतपूर्व एम० एस० सी०बिजनौर जिले के किसानों के प्राण, ढाई हजार रुपये लगान के छोड़ दिये, अपने घर के लगभग २ हजार रुपये के मखमल तंजेब आदि के विदेशी कपड़ों की बिजनौर के बाजार में होली जला दी। जैन समाज के निस्वार्थ राष्ट्रभक्तों में बाबू रतनलाल प्रमुख रहे हैं । वह १९२१ में ही वकालत छोड़कर कांग्रेस के कार्य में जुट गये थे और गिरफ्तार हुए थे तथा ५०० रु० जुर्माना हुआ था, किंतु
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उनकी वीर पत्नी ने उस जुर्माने को नहीं दिया और न सरकार वसूल ही कर सकी। इसके बाद जब नमक कानून तोड़ा जा रहा था, इनके घर पर ही नमक बनाया गया, बिजनौर जिले के सभी कार्यकर्ता उपस्थित थे। तैयार किये गये नमक की बोली बा० राजेन्द्र कुमार जी की माता जी ने १२०० रु. में ली। बा० रतनलाल अपने साथियों के साथ गिरफ्तार हो गये और लगभग ३ साल की सजा भुगतकर वापस आये । आप के पिता ला. हीरालाल जी बीमार थे किन्तु गांधी जी द्वारा कांग्रेस आंदोलन की आज्ञा प्राप्त होते ही आप फिर से गिरफ्तार होकर २ वर्ष तक और जेल के अतिथि रहे। तदनन्तर यू०पी० एसेम्बली के सदस्य चुने गये । वह फिर जेल में बंद हुए। राष्ट्रीय जाग्रति और स्वतन्त्रता संग्राम में आप का बहुत बड़ा हाथ रहा है। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद वर्षों उ० प्र० विधान परिषद के सदस्य रहे।
बा० नेमीशरण जैन एडवोकेट-बा. रतनलाल जी के उत्साही साथी रहे। १९२१ तक तो आप 'अमन सभा' के वाइस चेयरमैन रहे और कांग्रेस के विरुद्ध कार्य किया। इसके बाद आप की रुचि कांग्रेस में हो गई। और जेल के मेहमान बने । सन् २२-२८-४२ में भी आपने जेल की यात्राएं की। कांग्रेस के टिकट पर एम. एल. सी. भी रहे । फूड कमेटी के चेयरमैन भी रहे ।
श्रीमती शीलवती देवी-धर्मपत्नी बा० नेमीशरण ने कांग्रेस के लिए अपने सुख को तिलांजलि दे दी और दो बार जेल गयीं। आप की सन्तान भी लगभग सभी राष्ट्रीय सेवा के लिए तत्पर रही। रविचन्द्र जैन शास्त्री की धर्मपत्नी प्रेमलता देवी भी उनकी सहयोगिनी रहीं।
बा० मुलेशचन्द्र, नजीबाबाद-साह परिवार के उत्साही युवक कांग्रेस कार्यकर्ता रहे। ३ बार जेल यात्रा की। बाद में नजीबाबाद फड कमेटी का प्रबन्ध किया।
कानपुर जिला
वैद्यराज कन्हैयालाल--आप भारत के प्रमुख वैद्यों में रहे हैं। युक्त प्रान्तीय वैद्य सम्मेलन के सभापति तथा भा. वैद्य सम्मेलन के कोषाध्यक्ष भी रहे। बाल गंगाधर तिलक द्वारा चलाये स्वदेशी आन्दोलन के समय आप
बम्बई में स्वदेशी व्रत धारण किया था। सन् ३० के आन्दोलन में ६ मास के लिए जेल गये । कांग्रेस की ओर से म्यूनिसिपल बोर्ड कानपुर के सदस्य भी रहे।
धर्मपत्नी वैद्यराज कन्हैयालाल--आप को स्वदेशी से बड़ा प्रेम था । आप के कारण जैन समाज की तथा नगर की स्त्रियों में स्वदेशी का काफी प्रचार हुआ था। १९३१ के आन्दोलन में जब कांग्रेस अवैध थी और कानपूर में य० पी० कांग्रेस का जलसा बा. पुरुषोत्तम दास टण्डन के सभापतित्व में हुआ तो उसकी स्वागताध्यक्ष बनने के कारण आप को ६ माह का कारावास हुआ था।
आयुर्वेदाचार्य महेशचन्द जैन-वैद्यराज के मझले पुन हैं। आप ने कानपुर के जैन अजैन नवयुवकों में कांग्रेस प्रेम उत्पन्न किया। सन् १९४० में आप ने २ माह का कारावास भुगता। ।
बा० सुन्दरलाल जैन-आप वैद्यराज कन्हैयालाल के सबसे बड़े पुत्र हैं, सन् १९४० के आन्दोलन में १ वर्ष के लिए जेल गये।
मुजफ्फरनगर जिला
बा० सुमति प्रसाद बी.ए. वकील--जिले के प्रमुख कांग्रेसी नेता रहे हैं । सन् १९२१ में आप ने दो वर्ष के लिए वकालत छोड़ी, सन् ३० व ३२ में कांग्रेस आंदोलनों में सजा पाई व जेल गये । १९४१-४२ में कांग्रेस
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आंदोलन में नजरबन्द रहे । स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद एम०एल०सी० और तदनन्तर वर्षों तक लोक सभा के सदस्य
लाला उग्रसेन--सन् १९१९ से कांग्रेस में कार्य किया है । गांधी जी के अनन्य भक्त रहे । आप के कुल परिवार में खादी का ही प्रयोग होता रहा । सन् ३० व ३२ में जेल यात्रा की और सन् ४१ व ४२ में नजर बन्द रहे।
ला. बनवारीलाल चरथावल--खादी के प्रयोग, सच्चाई व ईमानदारी के लिए अति प्रसिद्ध रहे। सन् १९३० में जेल यात्रा की।
ला. चुन्नीलाल चरथावल--आप लाला बनवारी लाल के सुपुत्र हैं । सन् ४१ व ४२ में जेलयात्रा की।
ला० उलफत राय--आप ने सदा शुद्ध खादी का प्रयोग किया। सन् ३० व ३२ व ४२ में जेल यात्राएँ की।
बा० दीपचन्द वकील--सन् ४२ में जेल यात्री रहे। बा० मारतचन्द--सन् ४२ के आंदोलन में कालेज छोड़ा व जेल यात्रा की। बा० अकलंक प्रसाद बी. ए.-सन् ४२ में जेल यात्रा की। बा. मामचन्द-ने सन् ४२ में जेल यात्रा की। लाला सुखवीर सिंह घी वाले ने सन् ४२ में जेल यात्रा की। बा० आनन्द प्रकाश--आप क्रांतिकारी दल के सदस्य थे, सन् १९४२ में जेल यात्रा की। ला. गेन्दनलाल--राष्ट्रीय विचार के व्यक्ति रहे और सदैव शुद्ध खादी का प्रयोग किया है। बा० प्रेमचन्द--ने सन् ४२ में कालेज छोड़ा और जेल यात्रा की।
देहरादून जिला
श्री नरेन्द्र कुमार जैन बी. ए.--जिला सहारनपुर के देवबन्द कस्बे के निवासी हैं । सार्वजनिक कार्यों में आप की प्रारम्भ से ही रुचि रही। सन् ४२ के आंदोलन में सहपाठियों के साथ स्वतन्त्रता संग्राम में कूद पड़े और हिरासत में ले लिये गये, जेल में भी रहे ।
रामपुर जिला
रामपुर के प्रसिद्ध कवि एवं गैद्य श्री कल्याणकुमार 'शशि' (जन्म १९०७ ई०) १९२४ से ही पक्के कांग्रेसी रहे और १९३० में ६ माह के लिए जेल यात्रा की, तथा कुछ काल तक सत्याग्रह आश्रम मुरादाबाद के अध्यक्ष भी रहे ।
मुरादाबाद जिला
मुंशी गेन्दनलाल, सम्मल-एक वकील के मुहरिर थे, व मुरादाबाद की जैन सेवा समिति के कैप्टन थे। वह देश के दीवाने थे। सन् २१ में राष्ट्रीय आंदोलन में कूद पड़े। सन् ३१ में जेल गये, जेल में बीमार हो गये, ६ मास के बाद बाहर आये तो चारपाई की शरण ली और भयंकर रोग यन्त्रणा से पीड़ित होकर केवल ४१ वर्ष की अवस्था में ही चल बसे ।
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श्रीमती गंगा देवी आप जैन समाज के ख्याति प्राप्त मुंशी मुकुन्दरामजी की पुत्री थीं और मुरादाबाद से राष्ट्रीय प्रोग्राम में भाग लेने वाली आप ही एकमात्र जैन महिला थीं । कांग्रेस प्लेटफार्म पर बड़े-बड़े व्याख्यान दिये और जेल यात्रा की ।
ख- ६
हकीम टेकचन्द, थोड़ी---आप सोलहों जाने गांधी बाबा के चेले रहे और ग्राम सेवा में लगे रहे।
श्री सिपाही लाला, राजयल— सन् ४१ से ही राष्ट्रीय विचार रखते हैं। सन् ४२ के आंदोलन में छिपे रहकर प्रचार किया और अपना सम्पूर्ण जीवन देश सेवा में लगाया।
लाल केशोशरण ग्राम हरियाना की, सन् ४२ के आंदोलन में स्थानीय कोर्ट में जाकर गिरफ्तार हुए और लम्बे समय तक कारावास में रहे और आप की पत्नी भी सख्त बीमार रहीं, पर आप ने
उत्कट देश सेवी और कांग्रेस कार्यकर्ता रहे। कई बार जेलयात्रा राष्ट्रीय ध्वजारोहण किया और आजादी का संदेश सुनाया, जेल जीवन में ही आप की प्रिय पुत्री का शरीरान्त हुआ, परवाह न की।
आगरा जिला
सेठ अचल सिंह - आप आगरे के प्रसिद्ध एवं सर्वप्रमुख राष्ट्रीय नेता रहते आये हैं और कांग्रेस की ओर से युक्तप्रान्तीय धारा सभा के सन १९३६ से सदस्य रहे तथा स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद से लोक सभा के सदस्य रहते आये हैं । अनेक बार जेल यात्रा की है। जिला कांग्रेस कमेटी के अनेक बार सभापति रहे । अंचल ग्राम सेवा संघ के संस्थापक हैं ।
बाबू चांदमल जैन वकील- आप श्वेताम्बरी ओसवाल जैन समाज के प्रमुख कार्यकर्ता थे। १९२१ के राष्ट्रीय आन्दोलन में भाग लिय था। उस समय की नोकरशाही नीच से नीच कार्य करने में नहीं चूकती थी, आपको इंटरों से पीटा गया था और कठिन कारावास भी भुगतना पड़ा था ।
सेठ रतन लाल जैन - आप स्थानकवासी अग्रवाल थे और लोहे के बहुत बड़े व्यापारी थे। आपने १९३६ से ही राष्ट्रीय सेवा में भाग लिया तथा १९४२ के आन्दोलन में नजरबन्द होकर कारागृह में भेज दिये गये थे, जहाँ से १ माह बाद छोड़े गये । आप वार्ड कांग्रेस कमेटी के सदस्य तथा अधिकारी अनेकों बार चुने गये ।
श्री महेन्द्र जी आपको बचपन से ही साहित्यिक होने का चाव था। आप अपने नाना जी के पास रहते थे और "जैसवाल जैन" के संपादक, साहित्यरत्न भंडार के मालिक और हिन्दी प्रचारणी सभा के प्रायः स्थायी मंत्री रहे । १९३० के आन्दोलन में 'सैनिक' की मैनेजरी की ओर आन्दोलन की विज्ञप्ति बड़े जोर-शोर से की। 'सैनिक' के बन्द करवा दिये जाने पर 'सिंहनाद' पत्र निकाला जो कि साइकिलोस्टाइल प्रकाशित होता था। गांधीइरविन पेवट होने से कुछ दिन पूर्व आप को गिरफ्तार कर लिया गया और ६ माह के लिए जेल भेज दिया गया । १९३४ में बागरे में आरती समाज के मामले में भी आपने अपने 'आगरा पंच' द्वारा जनता की सराहनीय सेवा की। १९४१ में आप सरकार द्वारा नजरबन्द कर लिये गये और ७ माह बाद छोड़े गये। पुनः १९४२ में जेल भेजे गये । इन दिनों आपका साहित्य प्रेस तथा मासिक 'साहित्य सन्देश' सरकार द्वारा बन्द कर दिये गये । आपको सरकार ने २ साल तक बन्द रखा ।
श्रीमती अंगूरी देवी (धर्मपत्नी श्री महेन्द्र जी ) – आप को सन १९३० के आन्दोलन में ६ मास की कड़ी सजा हुई थी। आप हर राष्ट्रीय आन्दोलन में सहयोग देती रही हैं, ४०-४२ के आन्दोलन में भी आपने रिलीफ आदि के कार्य में काफी सहयोग दिया था।
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ख–६
लाला नेमीचन्द जैन मीतल - आप १९३० के आन्दोलन में महेन्द्र जी के साथ कांग्रेस विज्ञप्ति के प्रकाशन का कार्य करते थे । 'आगरा पंच' के प्रकाशक भी रहे। वार्ड कांग्रेस कमेटी के कई बार अधिकारी व कांग्रेस कमेटी के मेम्बर रहे । १९४२ के आंदोलन में 'आजाद हिन्दुस्तान' और कांग्रेस की विज्ञप्तियाँ प्रकाशित की थीं। आप उन १४ आदमियों में से एक हैं जिन पर आगरा षडयन्त्र बम्ब केस चलाया गया था। किये गये और फतेहगढ़ जेल भेज दिये गये। आप २ साल के लगभग जेल में रहे।
दिसम्बर १९४२ में गिरफ्तार
श्री गोविन्द दास जैन - आप ने भी १९४२ के आंदोलन में भाग लिया था और श्री नेमीचन्द्र के सहयोगी थे । आप को २ माह नजरबन्द रखा गया ।
श्री बंगाली मल जैन - १९४२ में पुलिस ने आप को नजरबन्द किया था, संबोटेज आदि के केस में फांसा था। कांग्रेस मिनिस्ट्री आने पर आप छोड़ दिये गये ।
बाबू मानिकचन्द जैन - १९३० के आंदोलन में आप को ६ मास की सजा हुई थी तथा १९४१ में इस जुर्म में नजरबन्द किये गये कि 'आजाद हिन्दुस्तान' के काम में सहयोग देते रहे, ११ मास तक नजरबन्द रहे। आप बार्ड कांग्रेस कमेटी के सदस्य रहे ।
बाबू कपूर चन्द जैन- आपने १९३० में अपने महावीर प्रेस से 'हिन्दुस्तान समाचार' नामक राष्ट्रीय अखबार निकाला था। इस अंक के निकलने के बाद आप से २०००) ६० की जमानत मांग ली गयी तथा प्रेस से भी जमानत मांग ली गई। आप ने जमानत न देकर लगभग ६ मास तक अपना प्रेस बन्द रखा, १९४२ के आंदोलन में भी आप के प्रेस को 'आजाद हिन्दुस्तान' प्रकाशित करने के शक में बन्द कर दिया गया और २ साल तक बंद रखा गया। आप आंदोलन की हर कार्यवाही में पूरा-पूरा सहयोग देते थे।
बाबू निर्मल कुमार जैन-आप को सरकार ने १९४२ के आंदोलन में रोक्सी सिनेमा में बम्ब रखने के सन्देह में गिरफ्तार किया था। काफी समय तक जेल की हवालात भोगी ।
बाबू गोर्धनदास जैन आप १९३० के आंदोलन में जैन सेवा मण्डल के उपमंत्री थे। मंडल ने यह निश्चय किया था कि मंदिरों में खादी के वस्त्र पहिनकर लोग दर्शन करने जावें तथा खादी के वस्त्र ही वहाँ इस्तेमाल हों । आपने इस कार्य के लिए सत्याग्रह तक किया । १९४० के आंदोलन में भी आपने काफी भाग लिया था । १९४२ के आंदोलन में तो पुलिस ने आपको इस अभियोग में कि आप गुप्त रीति से आंदोलन का संचालन करते हैं तथा 'आजाद हिन्दुस्तान' का प्रकाशन और संपादन करते हैं, निरफ्तार कर लिया। डेढ़ साल तक नजरबन्द रखा गया । आप वार्ड एवं जिला कांग्रेस कमेटी के सदस्य एवं पदाधिकारी भी रहे हैं ।
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बाबू किशन लाल - १९३० के आंदोलन में आप को कारावास हुआ हार्डी बम्ब केस के आप भी । अभियुक्त रहे। आप १९४० के आंदोलन में नजरबन्द किये गये, फिर १९४२ में आप को ९ अगस्त से पूर्व ही क्रान्तिकारी होने के कारण पुलिस ने नजरबन्द कर दिया था तथा लगभग २ साल बाद आप को छोड़ा।
बाबू चिम्मन लाल – आप को १९४२ के आंदोलन में ध्वंसात्मक कार्य करने के अपराध में गिरफ्तार किया गया था। जब केस साबित नहीं हो सका तो नजरबन्द कर दिया गया। आप को सरकार ने क्रान्तिकारी माना था । आप वार्ड कांग्रेस कमेटी के उत्साही कार्यकर्ता रहे ।
श्री श्यामलाल सत्यार्थी — आपको १९३० के आंदोलन में ६ मास की कड़ी सजा हुई थी। आप की पत्नी तथा पुत्र इसी बीच में स्वर्ग सिधार गये थे।
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श्रीमती शरबती देवी - आप स्वर्गीय बाबू सांमलदासजी की सुपुत्री थीं, १९३० के आंदोलन में आपको कारावास में कठोर सजा भुगतनी पड़ी थी, बाद में अर्जिका हो गयीं।
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बाबू प्रतापचन्द – आप ने १९३० में कांग्रेस की आर्थिक सहायता के लिए बहुत उद्योग किया था । बाबू कपूरचंद व नेमीचंद जैन के मित्र होने के कारण आप सरकारी नोकरी से मुअत्तल कर दिये गये थे।
बाबू फूलचन्द बरवासिया – फूलचंद बजाज, प्यारेलाल बजाज आदि ने सन् १९३० के ही आंदोलन से राष्ट्रीय कार्य किया, खादी प्रचार के कार्य में तथा दिगम्बर जैन मंदिरों में खादी के प्रचार के लिए काफी उद्योग किया । सन १९४२ के आंदोलन में भी काफी सहयोग दिया था ।
लाला करोड़ी मल आप सन १९३० से कांग्रेस के मुख्य कार्यकर्ता रहे, उस आंदोलन में खादी के प्रचार के लिए सत्याग्रह किया था तथा १९४२ के आंदोलन में भी बहुत काम किया था।
सरकार के गुप्तचर विभाग ने
आपकी भी देखरेख की थी ।
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ला० मोतीलाल - आप कांग्रेस के कामों में बराबर सहयोग देते रहते हैं। सन १९४२ के आंदोलन में 'आजाद हिन्दुस्तान' पर्चे बांटने के संदेह में आप को ६ माह की सजा हुई थी।
श्री शीतला प्रसाद - सन १९४२ के आंदोलन में आपने बहुत सहयोग दिया था।
बाबू सन्त लाल फिरोजाबाद — आपको सरकार द्वारा डाकबंगला जलाने के अपराध में पकड़कर जेल भेजा गया था परंतु केस साबित न होने पर आपको नजरबन्द कर दिया गया। मई १९४३ में आपको इस शर्त पर छोड़ा गया कि आप थाने में हाजिरी दिया करें परन्तु आपने सरकार की इस आज्ञा को न माना अतः पुनः नजरबंद कर दिये गये और अक्टूबर १९४६ में छूटे ।
श्री राम बाबू फिरोजाबाद - आप और श्री संतलाल पर एक ही जुर्म लगाया गया था । उनके साथ ही साथ कारागृह में रहे ।
श्री वसन्त लाल फिरोजाबाद - आप भी सन्तलाज और राम बाबू की भांति डाक बंगला जलाने के अपराध में गिरफ्तार हुए थे परन्तु जुर्म न साबित होने पर नजरबन्द कर दिये गये थे और मई, ४३ में शर्त लगाकर छोड़ दिये गये थे । कुछ दिनों बाद पुनः शर्त तोड़ने के कारण गिरफ्तार किये गये ।
श्री नत्थी लाल जैन —- १९४२ के आन्दोलन में रिलीफ आदि के अनेक कार्यों में आपने बहुत सहयोग दिया था। आप की मित्र मंडली से भी आंदोलन को काफी सहयोग मिला था।
बाबू हुकुमचन्द जैन – आपने १९४२ के आन्दोलन में बहुत काम किया था।
बाबू दरबारीलाल जैन वकील - १९४२ के आन्दोलन में आपने सक्रिय भाग लिया था ।
बाबू रतनलाल बंसल - आप १९४२ के आन्दोलन में नजरबन्द किये गये थे। ।
बाबू मानिक चन्द जैन फिरोजाबाद- सरकार ने आप को १९४२ के आन्दोलन में भाग लेने के जुर्म में जेल भेजा था ।
श्री राजकुमार फिरोजाबाद - १९४२ के आन्दोलन में आप पर पुलिस ने यह अभियोग लगाया था कि इन्होंने डाक बंगला जलाया है । आप को नजरबन्द कर दिया गया और मई १९४३ में छोड़ा गया परन्तु पुनः शर्त तोड़ने पर गिरफ्तार कर अक्टूबर १९४३ तक नजरबन्द रखा गया ।
श्री धनपत सिंह जैन फिरोजाबाद- आप श्री राजकुमार जैन के ज्येष्ठ भ्राता थे, उनके ही केस में अभियुक्त ही नहीं, लीडर मानकर पुलिस ने गिरफ्तार किया था और सवा साल तक जेल में रखा था।
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श्री गुलजारी लाल-नगर के प्रतिष्ठित व्यक्तियों में से रहे हैं। आप को पुलिस ने १९४० के आन्दोलन में नजरबन्द कर लिया था। आप फिरोजाबाद म्यू० बोर्ड के चेयरमैन भी रहे।
बाबू नेमीचंद जैन--आप जोतराज वसैया आगरा के रहने वाले हैं और १९३० से राष्ट्रीय क्षेत्र में कार्य करते रहे। इस आन्दोलन में एक साल की सजा हुई थी। आप मंडल कांग्रेस कमेटी के प्रमुख कार्यकर्ता रहे। १९४० में आप नजरबन्द कर दिये गये । सन् १९४२ में आप पर यह जुर्म लगाया गया कि कागारोल का डाक बंगला आपने जलाया था।
बा० उत्तमचन्द वकील, बरार (आगरा)--१९३६ से आप राष्ट्रीय क्षेत्र में अधिक प्रकाश में आये और जिला कांग्रेस कमेटी के सदस्य तथा मंडल कांग्रेस कमेटी के पदाधिकारी बराबर रहे। आपने किसानों का संगठन बहत जोरों से किया। १९४० के आन्दोलन में आप नजरबन्द कर किये गये और लगभग एक साल जेल में रहना पड़ा। १९४२ के आन्दोलन में आप ९ अगस्त को ही गिरफ्तार कर लिये गये थे और मई १९४४ में छोड़े गये।
श्री पीतमचन्द जैन, रायमा (आगरा)-आप टेलीफोन के तार काटने के सिलसिले में गिरफ्तार किये गये थे और कई माह तक नजरबन्द रहे।
श्री श्याम लाल जैन, रायभा (आगरा)- आप भी श्री पीतमचन्द के साथ उसी अभियोग में गिरफ्तार किये गये थे, जेल में लकवा मार जाने के कारण बहुत कष्ट हुआ था।
श्री बाबूलाल जैन (आगरा)-आप अपने मंडल कांग्रेस कमेटी के मंत्री थे, अत: ९ अगस्त १९४२ के आन्दोलन में नजरबन्द कर लिये गये और दो मास बाद छोड़े गये।
बाबू रामस्वरूप 'भारतीय', जारखी, आगरा-आप जैन समाज के एक प्रमुख कार्यकर्ता रहे, सन् १९४२ के आन्दोलन में सरकार ने आप को गिरफ्तार करके नजरबन्द कर दिया, दो माह के बाद छोड़ा था।
चिरंजीलाल जैन वैद्य, बाह (आगरा)-१९३० से ही कांग्रेस के उत्साही कार्यकर्ता हैं, १९३२ में भी गिरफ्तार हुए, १९४१ में ६ माह जेल में रहे, और १९४२ से चार साल तक फरार रहे। जिला कांग्रेस कमिटि के मंत्री और ब्लाक कांग्रेस कमिटि के अध्यक्ष हैं।
श्री पन्ना लाल जैन 'सरल' जारखी (आगरा)-आप सन १९४२ के आंदोलन में जारखी मंडल से एकमात्र आंदोलन कर्ता और जेल यात्री थे। अपनी लोकप्रियता के कारण १९४६ में भी सर्व सम्मति से मंडल के प्रधान मंत्री निर्वाचित हए । सन १९४२ में निर्धन सेवा सदन स्थापित करके गांवों में फैली हई गल्ले की कमी को अपने खर्चे से मंगाकर पूरा किया। चोर बाजारी के सिद्धांतः विरोधी होने के कारण कपड़े के सुचारु रूप से चलते हुए अपने व्यवसाय को समाप्त कर दिया।
श्री कल्याणदास जैन, आगरा-भी पक्के कांग्रेसी कार्यकर्ता रहे, नगर निगम के कांग्रेसी मेयर भी रहे ।
एटा जिला
ला० सन्त कुमार जैन, अवागढ़, अपने नगर के प्रमुख राष्ट्रीय कार्यकर्ता रहे, १९४२ में ९ मास की जेल काटी, और छूटने पर स्थानीय कांग्रेस कमेटी के प्रधान हए ।
मैनपुरी जिला
बरामस्वरूप जैन खैरगढ़-आप फिरोजाबाद में १९४२ के आन्दोलन के समय गिरफ्तार किये गये थे। अपने मंडल के मन्त्री थे । अगस्त १९४२ से फरार हो गये थे। जनवरी १९४३ में फिरोजाबाद में गिरफ्तार कर लिए गये और लगभग सवा साल नजरबन्द रहे।
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श्री गुणधरलाल, कुरावली (जि० मैनपुरी ) - १९२९ ई० से कांग्रेस में कार्यरत रहे, नमक कानून-भंग आंदोलन में भाग लेने के कारण एक वर्ष का कठिन कारावास और १०० रु० जुर्माना हुआ, घर की आर्थिक स्थिति शोचनीय हो गई ।
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श्री देश दीपक जैन, कुरावली - श्री गुणधरलाल के सुपुत्र, १९४० ई० से ही स्वातन्त्र्य संग्राम में गये और १९४२ में १४ मास का कठोर कारावास तथा १५० रु० जुर्माना भुगता । जेल जाने से कपड़े की दुकान जो थी ठप होगई।
सेठ दरबारी लाल, कुरावली - श्री देशदीपक के सहयगी थे, कारावास और ५०० रु० जुर्माना हुआ । इनके पीछे कई आत्मीयों की हुई। जेल से छूटकर मंडल कांग्रेस कमेटी के कोषाध्यक्ष रहे ।
ललितपुर जिला
मथुरा प्रसाद वैद्य, ललितपुर ( जन्म मेहरोनी वि०स० १९५१) जेल यात्रा १९३० व १९४२ ई०, जिला कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष १९४१-१९४७ ई० ।
१९४२ के आन्दोलन में इन्हें १ वर्षं का मृत्यु हो गई तथा आर्थिक हानि भी बहुत
वृन्दावन इमालिया, ललितपुर (जन्म १९१२ ई०), जेल यात्रा १९३० एक वर्ष, १९३२ दिल्ली ६ सप्ताह, १९३२ जिला झांसी ६ माह । प्रथम पंक्ति के रण बांकुरों में हैं, जिन्होंने आजादी के संघर्ष में सब कुछ होम कर दिया था ।
हुकुमचन्द्र बुखारिया 'तन्मय', ललितपुर (जन्म १९२९ ई० ), १९४२ में ९ वर्ष का कठोर कारावास व १०० रु० आर्थिक दण्ड । १९-२० वर्ष की अवस्था में ही राष्ट्रीय संग्राम में भाग लेना प्रारम्भ कर दिया था ।
उत्तमचंद्र कठरया, ललितपुर, जेलयात्रा अगस्त १९४२ में १ वर्ष तथा १०० रु० अर्थ - दण्ड । गोविंददास सिंघई, ललितपुर (जन्म १९१३), जेलयात्रा १९३२ में १ वर्ष । गोविदास जैन, ललितपुर ( जन्म १९११ ई० ), जेलयात्रा १९४१ ६ माह । हुकुम चंद बड़धरिया, ललितपुर ( जन्म वि १९७८), जेलयात्रा
अर्थ दण्ड |
राम चंद्र जैन, ललितपुर, जेलयात्रा १९४२ में १ वर्ष व १०० रु० अर्थ - दण्ड ।
पं० परमेष्ठीवास जैन, ललितपुर, (जन्म १९०७ई० ) जेलयात्रा १९४२ में ४ माह | हिन्दी भाषा का प्रचार जिसमें आप पूरी तन्मयता से लगे रहे । सन्
कार्य महात्मा 'गान्धी के रचनात्मक कार्यों में एक महत्वपूर्ण कार्य था १९४२ के स्वाधीनता आन्दोलन में आपने अपने लेखों और भाषणों से की प्रेरणा दी, तथा स्वयं उस आन्दोलन में सक्रिय भाग बाद में साबरमती जेल में स्थानांतरित कर दिया गया। सहस्राधिक जेल - साथियों को राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा की परीक्षाओं में सम्मिलित करवाया ।
१९४२ में, १ वर्ष तथा १०० रु०
अनेक व्यक्तियों को सत्याग्रह आन्दोलन करने लेते हुए बन्दी बनाए गए । पहले सूरत जेल में रखे गये, जेल में भी स्व० श्री जी० वी० मावलंकर के सहयोग से
श्रीमती कमला देवी, ललितपुर, धर्मपत्नी पं० परमेष्ठी दास, (जन्म १९१६) जेलयात्रा १९४२ में ५ माह । सन १९४२ ई० के जन-आन्दोलन में सक्रिय भाग लेते हुए भारत रक्षा कानून की आप जेल में ५ माह रहीं । उस समय दफा १४४ को भंग करके जुलूसों का नेतृत्व किया था,
दफा ५६ के अन्तर्गत सभाबन्दी कानून भंग
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करके सभा में भाषण देने के कारण आप को साबरमती जेल में रहना पड़ा। इस समय आपका पुत्र जैनेन्द्र केवल ३ वर्ष का था, अतः वह भी अपनी मां के साथ जेल में रहा । वह जेल में अपने पति के राष्ट्रभाषा प्रचार के कार्य में भी सक्रिय योग देती रहीं।
सुखलाल इमलिया ललितपुर (जन्म १९१९ ई०), जेलयात्रा १९४२ में १ वर्ष की तथा १०० रु० अर्थ-दण्ड । अपने अग्रज श्री वृन्दावन इमालिया, जो स्वतन्त्रता संग्राम के प्रमुख प्रणेता थे से प्रभावित होकर परिवार के भरण-पोषण की परवाह न करते हुए भारत माता को स्वतन्त्र कराने हेतु स्वयं भी सेनानियों की कतार में खड़े हो गये ।
श्री पन्नालाल गुढ़ा, ललितपुर (जन्म १९१४ ई०), जेलयात्रा १९४२ में १ वर्ष की तथा १०० रु० अर्थ-दण्ड ।
श्री शिखरचंद सिंघई, ललितपुर (जन्म १९२१ ई०), जेलयात्रा अगस्त १९४२ में १ वर्ष की तथा १०० रु० अर्थ-दण्ड।
__ श्री बाबूलाल घी वाले, ललितपुर (जन्म सं० १९७२) जेलयात्रा १९४२ में १ वर्ष तथा १०० रु० अर्थ-दण्ड ।
श्रीमती केशरबाई, ललितपुर (जन्म १९१५ ई०), जेलयात्रा १९४१ में १ माह ।
श्री खूबचंद पुष्प, ललितपुर (जन्म १९८१ वि०), जेलयात्रा, १९४२ में १ वर्ष की तथा ५०० रु० अर्थ-दण्ड ।
श्री गोपालदास जैन, साढूमल, जिला ललितपुर (जन्म १९१२ ई०), जेलयात्रा १९४१ और १९४२ में क्रमशः १ माह व १ वर्ष की।
श्री कपूरचन्द जैन, सैदपुर, जि० ललितपुर (जन्म १९२१ ई०), जेलयात्रा १९३१ में ६ माह की तथा २५ रु. जुर्माना। श्री विजय कृष्ण शर्मा के साथ क्रान्तिकारी आन्दोलन में भी भाग लिया। १९४८-४९ में प्रान्तीय रक्षा दल में रहे। __ श्री घनश्याम दास, लुहरी जि० ललितपुर (जन्म १९४२ ई०), जेलयाना १९४२ में, ६ माह की कैद ।
पं० फलचन्द, सिलावन जि. ललितपुर (जन्म सं० १९५७), जेलयाना १९४१ में १ मास की सजा तथा १०० रु० जुर्माना ।
श्री अभिनन्दन कुमार टया, ललितपुर--जेलयात्रा १९४२ में १ वर्ष की तथा १००) अर्थ-दण्ड । आप ललितपुर-झांसी के प्रसिद्ध वकील भी हैं ।
श्री ताराचन्द कजिया वाले, ललितपुर--(जन्म १९२० ई०) जेल यात्रा, १९४२ में १ वर्ष की सजा तथा १०० रु. का अर्थ-दण्ड ।
प्रो० खुशाल चन्द, गोरा जि० ललितपुर--(जन्म १९१३ ई०) वर्तमान में प्राध्यापक काशी पिद्यापीठ, जेलयात्रा १९४१, १९४२ । अपने पूर्वज चिंतामणि शाह तथा उमराव शाह की भांति इन्होंने भी अंग्रेजों की दमनकारी नीतियों का सदैव के लिए अंत करने के लिए १९३० से ही बानर सेना के रूप में कार्य प्रारम्भ किया। तीसरे व्यक्तिगत सत्याग्रह के समय आप उत्तर प्रदेश कांग्रेस के संगठन मंत्री थे, ढाई मास तक हैलटशाही से जूझते हुए २५ जलाई १९४१ को नजरबंद हुए, १ फरवरी १९४२ में जेल से छुटने के बाद 'भारत छोड़ो आंदोलन' में सक्रिय भाग लेने पर पुनः जेल का पंक्षी जेल में ३ सितम्बर १९४२ को भेज दिया गया; जहाँ से अंत में १९४४ को छूटे।
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श्री कुन्दनलाल मलोया, साढूमल, ललितपुर-जेलयात्रा, सन् १९४१ में ६ माह की तथा १०० रु. का अर्थ दण्ड एवं १९४२ में १ वर्ष की सजा तथा १०० रु. का अर्थ-दण्ड । मलैया जी उन सपूतों में अग्रणी हैं जिन्होंने देश को आजाद कराने में अपना तन-मन-धन होम किया था।
श्री शिवप्रसाद जैन जाखलौन, जि० ललितपुर-सन् ४२ में ९ माह नजरबंद । श्री बलीचन्द जैन, तालबेहट, जिला ललितपुर-जेलयाना, १९४१ में ६ माह की सजा।
श्री मोतीलाल टडया, ललितपुर--जेलयाना, ९९४२ में १ वर्ष का कठोर कारावास व १०० रु० का आर्थिक-दण्ड ।
श्री डालचन्द जैन, मंडावरा, जि. ललितपुर--जेल यात्रा, १९४२ में १ वर्ष की कठोर सजा।
इनकी देशभक्त जननी अर्थाभाव के कारण स्वयं जीविकोपार्जन में तिल-तिल आहुती देती रहीं और पुत्र को सदैव देश पर प्राणोत्सर्ग करने की प्रेरणा में गति देती रहीं।
श्री भैयालाल परवार, सैदपुर, जि. ललितपुर-१९४१ में एक माह की सजा तथा सौ रु० का अर्थ-दण्ड ।
श्री गोकुलचन्द जेन, लड़बारी बार, जि. ललितपुर-१९४१ में १ माह की सजा तथा १०० रु० का अर्थ-दण्ड ।
श्री परमानन्द, बार, जि. ललितपुर-१९४१ में १ माह की सजा, ५० रु० का अर्थदण्ड ।
श्री शीतल प्रभाव, करोंवा जि० ललितपुर--१९३२ में ६ माह की सजा। ग्रामीण नेता के रूप में आप सदैव संघर्ष का नेतृत्व करते रहे ।
श्री हरिश्चन्द्र जैन, अध्यापक, ललितपुर--(जन्म १९१८) सन् १९४१ से मंडल कांग्रेस कमेटी के उत्साही एवं सक्रिय सदस्य रहे।
__ श्री ताराचन्द्र जैन, ललितपुर–ने भी स्वतन्त्रता संग्राम में भाग लिया।
हा
जिला झांसी
बा० शिव प्रसाद, जाखलौन-सन् ३४ ई० में कांग्रेस में आये, सन् ३७ ई० में जाखलौन के जमींदार ने बेगार नहीं देने की वजह से किसानों को तंग किया और उनके जलाने के लिए जंगल से लकड़ी देना भी बंद कर दिया तो शिव प्रसाद जी ने २०० किसानों को साथ लेकर आबादी जंगल कटवा दिया। जंगल पर जमींदार अपने सिपाहियों के साथ मय बंदूकों के गये, कलक्टर झांसी को भी तार दिया, किन्तु कांग्रेस की जीत हुई। कुम्हारों से भी जागीरदार ने बेगार में बर्तन मांगे तो उन्होंने मिट्टी खोदना बन्द कर दिया। शिवप्रसादजी ने कुम्हारों का साथ दिया, और इनकी ही जीत हुई । सन् ४० से सरकारी पंचायत बोर्ड के ३ साल तक सरपंच रहे । सन् ३४ ई० से ही स्थानीय कांग्रेस कमेटी के प्रेसीडेन्ट रहे।
भाई राजधर जैन, जाखलौन-सन् ३० ई० ले कांथ्रस में आये । यहां कांग्रेस की नींव आप ही ने डाली और सन ३२ से उक्त कांग्रेस कमेटी के मन्त्री रहे । सन् ४२ ई. के आन्दोलन में आप व बाबू शिवप्रसाद जी साथ ही साथ जेल गये और ११ माह बाद छुटे । सरकारी पंचायत बोर्ड के भी ३ साल तक पंच रहे । सन् ३७ ई. में जंगल कटवाने व कुम्हारों को मिट्टी खुदवाने में भी आपने अच्छा कार्य किया।
विशम्भर दास गार्गीय-झांसी नगर की जैन समाज के के नेता, उग्र समाज सुधारक और राष्ट्र सेवी सज्जन थे।
___पं. फूलचन्द्र सिद्धान्त शास्त्री-सन् १९४० के व्यक्तिगत सत्याग्रह के समय आप को एक जोरदार भाषण के सिलसिले में ललितपुर में गिरफ्तार कर लिया गया और ३ माह का कठोर कारावास तथा १००) का अर्थ-दण्ड हआ। जैन विद्यालय बनारस के छात्रों को उस आन्दोलन में काफ़ी स्फति देते रहे।
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वाराणसी जिला
प्रो० खुशाल चन्द एम० ए० 'साहित्याचार्य-२८ वर्ष का यह युवक सन् ४१ के व्यक्तिगत सत्याग्रह में तूफान की तरह प्रसिद्धि में आया और आते ही प्रान्तीय नेताओं की अगली पंक्ति में जा पहंचा। कांग्रेस के सत्याग्रह आन्दोलन के मुख्य संचालक और संयुक्त प्रान्तीय कांग्रेस कमेटी के सेक्रेटरी के रूप में प्रान्त की उल्लेखनीय राष्ट्रीय सेवा की। जुलाई सन् ४१ में पकड़े गये और दो माह नजरबन्द रहे तथा चार माह की सजा भुगती। सन् ४२ के आन्दोलन में नेताओं की गिरफ्तारी के समय भी गिरफ्तार कर लिये गये और कई वर्ष तक सरकार के मेहमान रहे । यहां से निकलने के बाद भी आप कांग्रेस में सक्रिय कार्य करते आ रहे हैं ।
श्री अमोलक चन्द्र वकील-सन् ३० का द्वितीय स्वतन्त्रता संग्राम प्रारम्भ होते ही इस युवक वकील ने सब ही राजनैतिक मुकदमे मुफ्त लड़े। फलतः नौकरशाही की नजरों में खटके । जेल में हए अत्याचारों के भण्डाफोड़ को लेकर सरकार ने इन पर मुकदमा चलाया और ५००) अर्थदण्ड दिया। सन् ३७ में श्री गोविन्द बल्लभ पन्त की अध्यक्षता में हुए जिला राजनैतिक सम्मेलन के प्रधान मंत्री हुए। इसके बाद सन् ३८-३९ में आप युक्त प्रान्त के शिक्षामंत्री बा० सम्पूर्णानन्द जी के प्राइवेट सेक्रेटरी रहे। सन् १९४२ में आपने व्यक्तिगत सत्याग्रह में भाग लिया और ६ मास का कारावास तथा १०० रुपया अर्थ दण्ड भोगा।
अगस्त आंदोलन और स्याद्वाद विद्यालय, काशी-सन् ४२ के अगस्त आन्दोलन में स्याद्वाद महाविद्यालय वाराणसी, जो अपने प्रकार का एक प्रमुख जैन विद्यालय है, के छात्रों ने प्रशंसनीय भूमिका अदा की, और जलसे, जुलूस, तोड़फोड़, हड़ताल, ग्रामीण क्षेत्रों में प्रचार--सभी प्रवृत्तियों में उत्साह के साथ सक्रिय भाग लिया। फलस्वरूप विद्यालय पर खुफिया पुलिस का कड़ा पहरा बैठ गया। इन छात्रों में प्रमुख थे शीतल प्रसाद (बड़ागाँव, जि० मेरठ), घनश्यामदास, रतन चन्द्र पहाड़ी, धन्य कुमार, हरीन्द्र भूषण, नाभि नन्दन, बालचन्द, दयाचन्द्र, सुगन चन्द, गुलाब चन्द, अमृत लाल आदि जिनमें से अनेकों ने पुलिस द्वारा दी गई कड़ी यातनाएं तथा कारावास आदि भुगते ।
लखनऊ जिला
लखनऊ नगर में श्री जिनेन्द्रचन्द्र कागजी कुछ समय तक कांग्रेस के कार्यकर्ता और खादी के प्रचारक रहे हैं।
ऊपर उत्तर प्रदेश के विभिन्न जिलों, नगरों, कस्बों या ग्रामों के निवासी जिन राष्ट्रसेवी देशभक्त स्वतन्त्रता सेनानियों का सांकेतिक परिचय दिया गया है, उनके अतिरिक्त भी प्रदेश के अन्य सहस्त्रों जैनों ने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में उक्त संग्राम में भाग लिया, स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए विविध त्याग किये, कष्ट और कठिनाइयाँ सहीं। जो विशेष उल्लेखनीय थे और जिनके विषय में कुछ निश्चित रूप से ज्ञात हो सका, उन्हीं का उल्लेख ऊपर किया गया है।
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उत्तर प्रदेश को जैन संस्थाएँ
अखिल भारतीय सामाजिक सांस्कृतिक संगठन
कार्यालय
१. भारतवर्षीय दिगम्बर जैन परिषद २. भारतीय दिगम्बर जैन संघ
--मथुरा ३. अखिल विश्व जैन मिशन (प्रधान संचालक डा. ज्योति प्रसाद जैन, लखनऊ)-अलीगंज ४. अखिल भारतीय दि० जे० विद्वत्परिषद
--वाराणसी ५. भा०दि०० शास्त्रि परिषद
-फिरोजाबाद ६. भारतीय जैन मिलन
--देहरादून ७. भाजीवदया प्रचारिणी सभा
-आगरा इनके अतिरिक्त प्रान्तीय, जातीय (जैसवाल सभा, पद्मावत पुरवाल सभा आदि), साम्प्रदायिक (श्वेताम्बर, स्थानकवासी आदि) जैसे संगठन भी प्रदेश में हैं, तथा प्रदेश के कई स्थानों में भा. दि. जैन परिषद, विश्व जैन मिशन, जैन मिलन, भा. जैन महामंडल जैसी अखिल भारतीय संस्थाओं की शाखाएं भी स्थापित हैं।
शिक्षा संस्थाएँ (क) संस्कृत विद्यालय-१. स्याद्वाद महाविद्यालय भदैनी, वाराणसी
२. संस्कृत विद्यालय, साढ़मल, जिला ललितपुर
३. संस्कृत जैन पाठशाला, बरवासागर, जिला झांसी (ख) गुरुकुल-आश्रम-१. ऋषभब्रह्मचर्याश्रम, चौरासी, मथुरा
२. दि० जैन गुरुकुल, हस्तिनापुर, जिला मेरठ (ग) शोष संस्थान--१. पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी
२. वर्णी शोध संस्थान, वाराणसी ३. जैन साहित्य शोध संस्थान, आगरा ४. अहिंसा शोध संस्थान, अलीगंज
५. जैन विद्या शोध संस्थान, लखनऊ (घ) डिग्री कालिज-बड़ौत, बिजनौर, नजीबाबाद (एक पुरुष एवं एक महिला कालेज), सहारनपुर, आगरा, फिरोजाबाद, खतौली और पावानगर में जैन डिग्री कालिज (स्नातक एवं स्नातकोत्तर महाविद्यालय) हैं।
(ङ) माध्यमिक एवं उच्च माध्यमिक विद्यालय-प्रदेश के विभिन्न स्थानों में लगभग २५-३० जैन हाई स्कूल एवं इण्टरमीडिएट कालिज हैं।
(च) प्राथमिक शालाएं--प्रदेश के विभिन्न स्थानों में लगभग एक सौ जनियर या प्राइमरी स्कल, मान्टेसरी या किन्डरगार्टन स्कूल, अथवा प्राथमिक पाठशालाएँ हैं।
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(छ) छात्रालय--पूर्वोक्त विद्यालयों, कालेजों और स्कूलों से सम्बद्ध छात्रावासों के अतिरिक्त जैन होस्टल इलाहाबाद, जैन बोडिंग हाउस मेरठ, जैन बोडिंग हाउस आगरा और सन्मति निकेतन वाराणसी उल्लेखनीय हैं।
(ज) छात्रवृत्ति फंड--मूलतः नजीबाबाद निवासी श्री साहू शान्तिप्रसाद जी एवं साहू रमेशचन्द्र जी द्वारा स्थापित बृहत्छात्रवृत्ति फंडों के अतिरिक्त मेरठ में दो छात्रवृत्ति फंड कार्य कर रहे हैं। अन्यत्र भी व्यक्तिगत रूप में अनेक सज्जन निर्धन छात्रों की सहायतार्थ छात्रवृत्तियाँ देते हैं।
(A) पुस्तकालय--प्रदेश में उच्च कोटि का केन्द्रीय अथवा प्रान्तीय कोई जैन पुस्तकालय नहीं है, किंतु प्रायः सभी नगरों एवं कस्बों में जहाँ जैनों की अच्छी बस्ती है, एक या अधिक सार्वजनिक जैन पुस्तकालय चल रहे हैं।
(अ) शास्त्र भंडार-प्रायः प्रत्येक बड़े तथा अपेक्षाकृत पुराने जैन मंदिर में एक छोटा या बड़ा शास्त्र भंडार रहता आया है। आगरा, मेरठ शहर, फिरोजाबाद, बाराबंकी, खुर्जा, सहारनपुर, लखनऊ आदि के मंदिरों में अच्छे शास्त्र भंडार हैं, जिनमें सैकड़ों हस्तलिखित ग्रन्थ संग्रहीत हैं-इनमें से कई तो अप्रकाशित ही नहीं अलभ्य एवं महत्वपूर्ण भी हैं।
(ट) ग्रन्थमालाएं एवं प्रकाशन संस्थाएं-श्री साहू शान्तिप्रसाद जैन द्वारा संस्थापित भारतीय ज्ञानपीठ और उसकी लोकोदय एवं मूर्तिदेवी जैन ग्रन्थमालाओं का मुख्य कार्यालय मूलतः वाराणसी में ही था । अब कार्यालय दिल्ली में स्थानान्तरित हो गया है किन्तु वाराणसी में भी उसका एक प्रधान अंग बना हुआ है । वाराणसी में ही वर्णी ग्रन्थमाला, वीर सेवा मन्दिर ट्रस्ट ग्रन्थमाला, पार्श्वनाथ विद्याश्रम ग्रन्थमाला स्थापित हैं। जैन मिशन कार्यालय अलीगंज, भा. दि. जैन संघ मथुरा व भा. दि. जैन शास्त्रि परिषद बड़ौत भी अच्छी प्रकाशन संस्था हैं। मेरठ सदर में सहजानन्दवर्णी ग्रन्थमाला का कार्यालय है तथा मेरठ शहर में वीर निर्वाण भारती ग्रन्थमाला स्थ है। आगरा में सन्मति ज्ञानपीठ लोहा मण्डी अच्छी प्रकाशन संस्था है। अन्यत्र भी कई छोटीएवं धर्मार्थ साहित्य प्रकाशन संस्थाएँ चल रही हैं । इनके अतिरिक्त प्रतिवर्ष व्यक्तिगत रूप से सैकड़ों पुस्तकें लोग प्रकाशित कराकर वितरित करते रहते हैं।
(1) धर्मशालएँ–प्रायः प्रत्येक बड़े नगर या कस्बे में, जहाँ जैनों की अच्छी बस्ती है, एक या अधिक जैन धर्मशालाएँ हैं, जिनमें यात्रियों से कोई किराया या फीस नहीं ली जाती और उनकी सुविधा का यथासम्भव ध्यान रक्खा जाता है।
(ड) औषधालय-चिकित्सालय--अनेक स्थानों में धर्मार्थ जैन औषधालय, चिकित्सालय आदि चल रहे हैं। इनमें से अधिकांश आयुर्वेदिक हैं, कुछ होम्योपैथिक हैं और दो एक एलोपेथिक भी हैं । ललितपुर में एक नेत्र चिकित्सालय स्थापित किया जा रहा है । अलीगढ़ में एक प्रसूतिग्रह स्थापित हुआ है।
(ढ) दीन-दुखियों, अपाहिजों, विधवाओं और बेरोजगारों की सहायता के लिए व्यक्तिगत रूप से कई स्थानों में व्यवस्था है, किन्तु कोई सुगठित एवं व्यापक महत्त्व का कार्य अभी इस दिशा में नहीं हो रहा है। मडा. वीर जन कल्याण निधि' जैसी योजना की ऐसे जनहित के कार्यों के लिए बड़ी आवश्यकता है।
(ण) कई नगरों में राहत कार्यों एवं विशेष अवसरों पर जनसेवा हित कार्य करने वाले युवकों के स्वयंसेवक दल भी गठित हैं, किन्तु ये भी जितने और जैसे होने चाहिए, नहीं हैं।
इस प्रकार सामाजिक चेतना, शिक्षा प्रचार एवं प्रसार और सार्वजनिक हित के कार्यों में प्रदेश के जैन, अपनी संख्या के अनुपात को देखते हुए, सन्तोषजनक रूप में प्रयत्नशील कहे जा सकते हैं।
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उत्तर प्रदेश में जैनों की वर्तमान स्थिति
-श्री रमाकान्त जैन
चौबीस में से अठारह तीर्थंकरों की जन्मभूमि होने का गौरव पाने वाला भारतीय गणतन्त्र का जनसंख्या की दृष्टि से सबसे विशाल यह राज्य उत्तर प्रदेश इतिहास काल के प्रारम्भ से ही आदि तीर्थंकर ऋषभनाथ और तदनन्तर हुए तेइस अन्य तीर्थंकरों के अनुयायियों से युक्त रहा है। वर्तमान में मुख्यतया वैश्य वर्ण में सीमित जैनमतावलम्बी इस प्रदेश में अग्रवाल, ओसवाल, खन्डेलवाल, खरौआ, जैसवाल, परवार, पल्लीवाल, गंगवाल, गंगेरवाल, गोलालारे, पद्मावती पुरवाल, बुढ़ेलवाल, लमेचू, श्रीमाल आदि विभिन्न जातियों के हैं। दिगम्बर, श्वेताम्बर, स्थानक वासी, तेरापन्थी इत्यादि जैन धर्म के वर्तमान सभी सम्प्रदायों और उपसम्प्रदायों के भक्त श्रावक इस प्रदेश में निवास करते हैं । यह अवश्य है कि उन सब में दिगम्बर सम्प्रदाय वालों की संख्या सर्वाधिक है। अहिंसा परमोधर्मः को मानने वाले परम शाकाहरी और अणुव्रतों का यथाशक्ति अनुपालन करने वाले जैनी जन यद्यपि यहाँ मुख्यतया व्यापार एवं उद्योग-धन्धों में रत हैं, किन्तु इन्जीनियरिंग, डाक्टरी, वकालत और शिक्षण कार्य करने वालों में उनकी संख्या कम नहीं है। राजकीय सेवा में भी विभिन्न विभागों और ओहदों पर वे पदासीन हैं-शायद ही कोई ऐसा विभाग हो जहाँ जैन न हों। इनमें अनेक त्यागी-व्रती, समाज सुधारक, देशभक्त स्वतन्त्रता सेनानी, साहित्य मनीषी, विद्वान, विचारक और पत्रकार भी हैं जो अपने-अपने क्षेत्रों में लब्ध प्रतिष्ठ हैं। विद्या का ॐ नमः न कर पाने वाले दुर्भाग्यशालियों की संख्या जैनों में नगण्य है और उनकी सम्पन्नता के सौभाग्य की ख्याति उन्हें दूसरों की ईर्ष्या का पात्र बनाती रही है। तभी तो किंग्सले डेविस ने अपनी पुस्तक "पापुलेशन ऑफ इण्डिया एण्ड पाकिस्तान" में जनगणना सम्बन्धी आंकड़ों का विश्लेषण करते हुए यह निष्कर्ष निकाला है कि जनसंख्या के आधार पर जैन धर्म भारत का छठा बड़ा धर्म है और साक्षरता की दृष्टि से जैन धर्मानुयायी इस देश में तीसरे स्थान पर हैं तथा सम्पन्नता की दृष्टि से भी पारसी और यहूदियों के उपरान्त इन्हीं का स्थान है ।
वर्तमान में इस प्रदेश में कितने जैनी-जन कहां-कहां निवास करते हैं इसकी सूचना हमें जनगणना के आंकड़ों से मिलती है। भारत सरकार द्वारा हर दस वर्ष पर सम्पूर्ण देश में कराई जाने वाली जनगणना के आंकड़ों को देखने से विदित होता है कि ५० वर्षों में, सन् १९२१ ई० की जनगणना से सन् १९७१ ई० की जनगणना पर्यन्त, इस प्रदेश में जैनों की संख्या ६८,१११ से बढ़कर १,२४,७२८ हो गई। यह संख्या सम्पूर्ण उत्तर प्रदेश की कुल जनसंख्या, जो १९७१ ई० में ८,८३,६४,७७९ थीं, का केवल ०.१४ प्रतिशत होते हुए भी अनुयायियों की संख्या के
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आधार पर जैन धर्म का इस प्रदेश में हिन्दू, मुसलमान, सिख और ईसाई धर्म के अनन्तर पांचवां स्थान है । महाराष्ट्र, राजस्थान, गुजरात, मध्यप्रदेश और मैसूर (वर्तमान कर्णाटक) राज्यों के बाद सर्वाधिक जैन मतावलम्बी उत्तर प्रदेश राज्य में निवास करते हैं और उनकी संख्या भारतीय गणतन्त्र में जैनों की कुल संख्या (२६,०४,६४६) का ४.७९ प्रतिशत है।
आगे रजिस्ट्रार जनरल आफ इण्डिया, नई दिल्ली, द्वारा "सेंसस आफ इण्डिया, १९७१-रिलीजन, पेपर नं. २ ऑफ १९७२" में प्रकाशित ओकड़ों के आधार पर उत्तर प्रदेश के समस्त मंडलों और जिलों में तथा उनके नगरीय एवं ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करने वाले जैन स्त्री-पुरुषों की संख्या सूची दी जा रही है। इस तालिका को देखने से विदित होगा कि प्रदेश के कुल जैनों में ६५,६२३पुरुष तथा ५९,१०५ महिलाएं हैं। इनमें से ४६,१६१ पुरुष तथा ४०,९३५ नारियां नगरों में और १९,४६२ पुरुष एवं १८,१७० महिलाएं ग्रामों में निवास करती हैं। इस प्रकार इस प्रदेश में जैनों की संख्या का अधिकांश नगरों में निवास करता है।
देहरादून जिले की, जो कि अभी हाल ही में मेरठ मण्डल से निकालकर गढ़वाल मण्डल में सम्मिलित कर दिया गया है, जैन जनता को छोड़ भी देखें तो भी मेरठ मण्डल के अवशेष चार जिलों में रहने वाले जैनियों की संख्या (४९,४४५) अन्य सब मण्डलों से अधिक है। इस दृष्टि से दूसरे स्थान पर आगरा मण्डल है जहाँ संख्या ३५,३१५ है और तीसरे स्थान पर १६,८७० की संख्या लिए हुए झांसी मण्डल है। दस हजार से अधिक जैन जनसंख्या वाले जिले केवल चार हैं जिनमें प्रथम स्थान मेरठ (२७,६६५), द्वितीय आगरा (२१,२५५), तृतीय झांसी (नवसृजित जिला ललितपुर सहित) (१६,००५) तथा चतुर्थ मुजफ्फरनगर (१२,१५१) जिले का है। जैन जनगणना की दृष्टि से भारतीय गणतन्त्र के समस्त जिलों में भी इन जिलों की स्थिति क्रमशः २१वें, ३३वें, ४९वें तथा ५७वें स्थान पर है । दस हजार से कम किन्तु एक हजार से अधिक जैन जनसंख्या वाले जिले १३ हैं। इनके नाम संख्या के आधार पर क्रमशः निम्नवत हैं :
क्र० सं०
नाम जिला
जैन जन संख्या
सहारनपुर मैनपुरी
एटा
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कानपुर अलीगढ़ देहरादून इटावा बाराबंकी मुरादाबाद लखनऊ बिजनौर मथुरा बुलंदशहर
८,४३० ५,५९३ ४,१८४ ३,६३७ ३,०४१ ३,०२३ २,८९६ १,७८३ १,७०१ १,५६९ १,२७६ १,२४२ १,१९९
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[ १०१ उपर्युक्त १७ (४+१३) जिलों में से बुलंदशहर, मथुरा और बाराबंकी जिलों को छोड़कर शेष १४ जिलों के नगरीय क्षेत्रों में ही एक सहस्त्र से अधिक जैनी जन निवास करते हैं । ऐसे जिले जिनके ग्रामीण क्षेत्रों में भी उनकी संख्या एक सहस्त्र अथवा अधिक हैं, आठ हैं। इनके नाम हैं :- मेरठ, झांसी, आगरा, मुजफ्फरनगर, मैनपुरी, एटा, सहारनपुर और बाराबंकी। सबसे कम जैन जनसंख्या वाला जिला गाजीपुर है तथा सबसे कम नगरीय जैन जन संख्या उत्तर काशी जिले में है । ग्यारह जिले ऐसे भी हैं जिनके ग्रामीण क्षेत्रों में गैनों की संख्या सूचित नहीं की गई है। किसी स्थान विशेष की कुल जन संख्या के अनुपात में जैनों की संख्या के आधार पर प्रदेश के जिलों में झांसी जिला, नगरों में मुजफ्फरनगर तथा ग्रामीण क्षेत्रों में झांसी जिले का ग्रामीण क्षेत्र अग्रणी स्थान रखते हैं।
इन आंकड़ों से एक बात स्पष्ट है कि जैनी जन पूर्वी भाग की अपेक्षा इस राज्य के पश्चिमी भाग में अपने को केन्द्रित किये हुये हैं। सम्पूर्ण भारत के रंगमंच की भी यही स्थिति है। पश्चिमी भारत ही इनका मुख्य गढ़ है । अतः हमारा राज्य भी उसका अपवाद कैसे बनता ?
सन् १९६१ ई० की जनगणना के समय उत्तर प्रदेश राज्य की कुल जन संख्या ७,३७,४६,४०१ थी और उसमें जैनों की संख्या १,२२,१०८ अर्थात् ०.१७ प्रतिशत थी। यद्यपि सन् १९६१ ई० से सन् १९७१ ई० के मध्य दस वर्षों में प्रदेश की जन संख्या में १९.८२ प्रतिशत की वृद्धि हुई, प्रदेश की जैनों की जन संख्या में केवल २.१५ प्रतिशत ही रही । उससे पूर्व १९५१ से १९६१ की जनगणना के मध्य यह वृद्धि २४.९३% थी। जन संख्या में बृद्धि होने की दर में इस भारी कमी के परिलक्षित होने का कारण इस अवधि में जैनों का धर्म परिवर्तन, प्रदेश से बर्हिगमन अथवा उनकी मृत्युदर का बढ़ना नहीं है, अपितु राष्ट्रीय कार्यक्रम परिवार नियोजन में सक्रिय योग देकर जन्मदर घटाने का स्तुत्य प्रयास प्रतीत होता है। यह भी संभव है कि जनगणना कर्मचारियों की अनभिज्ञता अथवा असावधानीवश तथा कहीं-कहीं स्वयं जैनों द्वारा इस मामले में बरती गई उदासीनता के कारण प्रगणकों द्वारा उनमै से अनेकों को भ्रमवश हिंदू धर्मानुयायियों में लिख लिया गया हो और उनकी सही गणना न हो पाई हो। इस संभावना का आधार यह है कि कई स्थानों पर जनगणना रिपोर्ट में दिखाये गये आंकड़ों से अधिक संख्या में जैनी जन पाये जाते हैं।
भगवान महावीर की परम्परा के अनुयायी ये श्रावक आज उनके निर्वाण के ढाई सहस्र वर्ष बाद भी उनके जीवन से प्रेरणा ग्रहण करते हुए और उनके उपदेशों के यकिंचित् अनुपालन का प्रयास करते हुए एक सदनागरिक का आदर्श उपस्थित करते हैं । अपनी स्वल्प संख्या और सीमित संसाधनों के साथ वे अपने धर्म और समाजों की ही नहीं, सम्पूर्ण प्रदेश और देश की भी सर्वतोमुखी उन्नति के लिए सतत प्रयत्नशील हैं। यही कारण है कि ये श्रमणोपासक समग्र भारतीय समाज में एक सम्माननीय स्थान प्राप्त किये हए हैं।
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१०२ ]
ख
-६
उत्तर प्रदेश की जैन जनसंख्या सूची
मण्डल/जिले का नाम
पूर्ण योग
कुल संख्या पुरुष स्त्री
नगरीय क्षेत्र पुरुष स्त्री
ग्रामीण क्षेत्र पुरुष स्त्री
१४८
१. गढ़वाल मण्डल
१. उत्तर काशी २. चमोली ३. टिहरी गढ़वाल ४. गढ़वाल ५. देहरादून
१६९ ३०२३
५० ४७ ५० ४७
७५ ९४ ४६ ७२ १८१२ १२११ १६७३ १०५३
२९ १३९
१५८
योग ३४५३
२०३१ १४२२ १७७९ ११८०
२५२
२४२
२. कुमायूँ मण्डल
६. पिथौरागढ़ ७. अल्मोड़ा ८. नैनीताल
२०१४६ ३१२ १६७ १४५ ३३८ १८६ १५२
१० १२६ १३८
. १२१ १२८
४ ४१ ४८
- २४ २४
योग
५२८
३. रुहेलखण्ड मण्डल __९. बिजनौर १०. मुरादबाद ११. बदायूं १२. रामपुर १३. बरेली १४. पीलीभीत १५. शाहजहांपुर
१२७६ १७०१ ५३९ ५३४ ३०५ २८
७७ योग ४४६०
६५० ६२६
६२१६११ २९ १५ ८७३
६८० ६४३ १९३ १८५ ३४१ १९८ २८३ १४९५८ ३०३ २३१ १७८ १४२ १२५ १६६ १३९ १४३ १२३ २३ १६ १७ ११ १७ ११ - -
३७ ४० २५ ३३ १२७ २३८७ . २०७३ १९४७ १७१२ ४४० ३६१
४. मेरठ मण्डत्त
१६. सहारनपुर १७. मुजफ्फरनगर
मेरठ
८४३० ४४११ ४०१९ ३७४९ ३४३३ ६६२ ५८६ १२१५१ ६४३४ ५७१७ ४०८८ ३४९६ २३४६ २२२१ २७६६५ १४११५ १३५५० ९१२१ ८५९७ ४९९४ ४९५३
११९९ ६२२ ५७७ ३७४ ३६७ २४८ २१० ४९४४५ २५५८२ २३८६३ १७३३२ १५८९३ ८२५० ७९७०
१९. बुलन्दशहर
योग
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[
१०३
मण्डल/जिले का नाम
कुल संख्या पुरुष स्त्री
नगरीय क्षेत्र पुरुष स्त्री
ग्रामीण क्षेत्र पुरुष स्त्री
कुल योग
५. आगरा मण्डल
२०. अलीगढ़ २१. मथुरा २२. आगरा २३. एटा २४. मैनपुरी
३०४१ १४६३ १५७८ १२३३ १२१६ २३० ३६२ १२४२ ६६६ ५७६ ५३० ४३० १३६ १४६ २१२५५ ११७४७ ९५०८ ९२८२ ७३६५ २४६५ २१४३ ४१८४ २१०५ २०७९ १३०७ ११४५ ७९८ ९३४
५५९३ २८३३ २७६० १७६४ १८५७ १०६९ ९०३ योग ३५३१५ १८८१४ १६५०१ १४११६ १२०१३ ४६९८ ४४८८
६. इलाहाबाद मण्डल
२५. फर्रुखाबाद २६. इटावा २७. कानपुर २८. फतेहपुर २९. इलाहाबाद
७१३ २८९६ ३६३७ १५२ ८४६
३७२ ३४१ ३४७ ३२३
१८ १५४८ १३४८ १२६२ ११०२ २८६ २४६ १८६८ १७६९ १८६६ १७६३ २ ६
८१ ७१ १६ १८६५ ५३ ४५६ ३९० २३९ २०१ २१७ १८९ ४३२५ ३९१९ ३७३० ३४०७ ५९५ ५१२
योग ८२४४
१६००५
८४२९ ७५७६ ४१०६ ३८५४ ४२४३ ३७२२
७. झांसी मण्डल
३०. झांसी ३१. ललितपुर ३२. जालौन ३३. हमीरपुर ३४. बान्दा
१५२ २१६
४९७ योग १६८७०
७८ ७४ ३७ ३४ ४१ ४० ११५ १०१ ८० ६९ ३५ ३२ १९२ ३०५ १९२ २९७. ८८१४ ८०५६ ४४५० ४२१७ ४३६४ ३८३९
१७३ ४३२
८. लखनऊ मण्डल
३५. खीरी 1 ३६. सीतापुर । ३७. हरदोई ३८. उन्नाव ३९. लखनऊ ४०. रायबरेली
९३ २१८ ५१
८० २१४ ४४
५० १७७ ५१
५३ १७७ ४४
४३ ४१ -
२७ ३७ -
९५
१८
१५६९
१८८ योग २४७५
८०५ ७६४ ८०३ ७६१
८५ १०३ ७० ८५ १२६२ १२१३ ११५७ ११२५
२ १५ १०५
३ १८ ८८
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१०४
]
मण्डल/जिले का नाम
पूर्ण योग
कुल संख्या
पुरुष
स्त्री
नगरीय क्षेत्र पुरुष स्त्री
ग्रामीण क्षेत्र पुरुष स्त्री
-
९. फैजाबाद मण्डल
9
४१. बहराइच ४२. गोण्डा ४३. बाराबंकी ४४. फैजाबाद ४५. सुल्तानपुर ४६. प्रतापगढ़
३६५ ___ ५० १७८३
३८
१८३
२७ ९१९ २४
१८२
२३ ८६४ १४
१७०
२४ ४१२ २३
१६५
१९ ३७१ १४
१७ ४
१३
३ ५०७
१
-
१४६ योग २२५६ ११६१ १०९५
६३७
५८१ . ५२४
५१४
१०. गोरखपुर मण्डल
४७. बस्ती ४८. गोरखपुर ४९. देवरिया ५०. आजमगढ़
४१ २१ २० १४८८०६८
३० २५
२१ ७९ २६
२० ६७ २१
- १ ४
" |
w
योग २६०
१४१
११९
१३६
११४
५
५
११. वाराणसी मण्डल
५१. जौनपुर ५२. बलिया ५३. गाजीपुर ५४. वाराणसी ५५. मिर्जापुर
or ur
९१५
६७८ योग १६१२
५३१ ३७५ ९२०
३८४ ३०३ ६९२
४६६ २५९ ७३९
३४४ २१६ ५६५
६५ ११६ १८१
४० ८७ १२७
उत्तर प्रदेश
१,२४,७२८ ६५६२३ ५९१०५ ४६१६१४०९३५ १९४६२ १८१७०
८७०९६
३७६३२
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उत्तर प्रदेश में तीर्थंकर महावीर
-डा० शशिकान्त
हम आपको आज से २५०० वर्ष पहले के उत्तर प्रदेश में ले जा रहे हैं। वर्तमान अवध के क्षेत्र में उस समय कोसल जनपद था। वहां राजा प्रसेनजित राज्य करता था। उसने राजतन्त्र को सुदृढ़ किया और कोसल को एक अत्यन्त समृद्ध एवं शक्तिशाली राज्य बना लिया। काशी जनपद पर विजय प्राप्त कर दक्षिण-पूर्व में स्थित कोलियों, बलियों और शाक्यों की जनतान्त्रिक सत्ताओं को समाप्त कर राप्ती के पश्चिम और गंगा के, उत्तर सम्पूर्ण विशाल क्षेत्र में प्रसेनजित का राजतान्त्रिक एकाधिकार स्थापित हो चुका था।
प्रसेनजित वेदनिष्ठ ब्राह्मणों का आश्रयदाता था और वे उसके एकाधिकार के पोषक थे। उसकी राजधानी श्रावस्ती राप्ती नदी के पश्चिमी तट पर हिमालय की तलहटी में एक सुरम्य महानगर था। वहाँ सेठ अनाथपिडिक और सेठ मृगार जैसे धनवान रहते थे जिनके पास धन की थाह नहीं थी।
श्रावस्ती के समीप ही नंगला सनिवेश था। यह वेदमिष्ठ ब्राह्मणों का केन्द्र था। ब्राह्मण-श्रेष्ठ अपने सैकड़ों अन्तेवासी ब्रह्मचारियों को वेदाभ्यास कराते थे और यज्ञ-कर्म में लीन रहते थे। सन्निवेश के बाहर यज्ञ-पशूओं का हाट था जिसमें वेद-विहित पंच-पशु बंधे होते थे और यजमान दाम चुकाकर अपने होतृ के लिए इन मूक पशुओं को यज्ञबलि हेतु ले जाते थे।
(पशुओं, बकरों, मेढ़ों की चीत्कार और बन्धन-मुक्त होने पर धमा-चौकड़ी) (ब्राह्मणों एवं अन्तेवासियों द्वारा गायत्री मंत्र का पाठओं भूर्भुवा स्वाहा । तत्सवितुर्वरेण्यं । भर्गो देवस्य धीमहि ध्योयोनः प्रचोदयात् ।)
यजमान बिना यज्ञ-बलि के चले आ रहे हैं । अन्तेवासी चिन्तित हैं। हविर्भग्नि मन्द पढ़ती जा रही है। विप्र-श्रेष्ठ पौष्करसादि अपने आसन से मन्त्र-पाठ जारी रखने का संकेत करते हैं।
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१०६ ]
ख --- ६
अन्तेवासी व्यग्रता से निवेदन करते हैं- "आर्य श्रेष्ठ ! अग्निदेव रुष्ट हैं । बलि का समय निकला जा रहा । यज्ञ भंग हो रहा । यजमान पशु लाने में असमर्थ हैं ।"
पौष्करसादि - - प्रसेनजित के राज्य में अग्निदेव शान्त रहेंगे। यज्ञ विधि-पूर्वक होगा । अग्नि को पंच- पशु की बलि मिलेगी । यजमान पशु प्रस्तुत करें ।
यजमान ( सामूहिकनाद ) - "विप्र श्रेष्ठ ! क्षमा करें। आज हाट खाली है। एक बकरा भी नहीं हैं। सभी पशु श्रेष्ठ मृगार ने प्रत्यूष काल में ही क्रय करके बन्धन मुक्त कर दिये ।”
पौष्करसादि - - " असम्भव ! श्रेष्ठि मृगार धार्मिक है, धर्म कार्य में बाधा नहीं देगा ।"
एक यजमान --"हाँ महाराज । वह कहता है पशुओं को बन्धन मुक्त करना धार्मिक है ।"
(श्रेष्ठि मृगार अपने अनुचरों के साथ यज्ञ भूमि में आता है । पालकी से उतर कर विनयपूर्वक विप्र श्रेष्ठ को नमस्कार करता है और निवेदन की आज्ञा चाहता है । विप्र श्रेष्ठ उठकर उसको "तथास्तु" कहते हैं और आसन देते हैं ।)
श्रेष्ठि मृगार - "विप्र श्रेष्ठ ! आपकी शंका का निवारण मेरे शास्ता कर सकते हैं। कल ही वह नगर के बाहर विहार करते हुए आये हैं । अग्निदेव को नैवेद्य अर्पण करें, वह प्रसन्न होंगे । यज्ञ-कार्य में व्यवधान न होने दें ।"
पौष्क रसादि - "श्रेष्ठि ! तू धार्मिक है । मैं तेरे शास्ता से अभी मिलना चाहता हूँ ।"
( अन्तेवासियों से ) - "घृत - नैवेद्य से अग्निदेव को शान्त करो । मंत्रोच्चार जारी रखो।”
( २ )
मृगार और पौष्करसादि बस्ती से बाहर वन प्रखण्ड के समीप एक तेजस्वी पुरुष को [ पद्मासन लगाये ध्यानमुद्रा में निमग्न देखते हैं । उसकी दृष्टि नासाग्र है और आँखें अधखुली हैं। अपने चतुर्दिक वातावरण से वह अलिप्त है और आत्मलीन है ।
श्रेष्ठि और विप्र श्रेष्ठ उसके सामने जाकर उसे नमस्कार करते हैं। वह तपस्वी उनकी शंका जानता है और नमस्कार के उत्तर में कहता है
असत्थं सव्वओ सव्यं, विस्स पाणे पियामए । न हणं पाणिनो पाने, भय-वेराम्रो उवरए ॥
तब पौष्किरसादि विचार करता है - "सभी प्राणियों में एक जैसी आत्मा है और सभी प्राणियों को अपनाअपना जीवन प्यारा लगता है । इसलिये भय और बैर की भावना का परित्याग कर किसी प्राणी को न तो मारा जाय और न तो उसे किसी प्रकार का कष्ट ही दिया जाये ।"
मृगार - "हे विप्र श्रेष्ठ ! मेरे शास्ता तीर्थंकर महावीर की वाणी तुमने सुनी और उसे विचारा । यज्ञ-कर्म में पशु बलि धार्मिक नहीं है ।"
पौष्करसादि - " श्रेष्ठि ! साधु-साधु ! अब मैं घृत-नैवेद्य से ही अग्नि को प्रसन्न करूंगा । मेरी शाला में पशु बलि नहीं होगी ।"
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ख
-६
।
१०७
(३)
वत्स जनपद की राजधानी कौशाम्बी यमुना नदी के उत्तरी तट पर एक अत्यन्त सम्पन्न महानगर था। राजा शतानीक की अजेय सेना भग्ग जनतंत्र को पराभूत कर चुकी थी और सोन नदी पार अंग के राजा दधिवाहन को परास्त कर तत्कालीन राजनीति में अपनी शक्ति का सिक्का जमा चुकी थी। कौशाम्बी की हाट में दासियों का क्रय-विक्रय विशेष आकर्षण का विषय होता था। दूर-दूर के देशों से लाये गये बन्दी युवक और युवतियाँ पशुओं की तरह बंधे खड़े होते थे। पुरुष की बलिष्ठता और स्त्री का रूप-लावण्य एवं अंग-सौष्ठव किसी मिट्टी के खिलौने की भाँति आँके और मोल-भाव किये जाते थे। एक व्यापारी आज एक ही रूपसी दासी बेचने आया था। वह शोडषी तन्वङ्गी थी, मुख लज्जा से क्लान्त था परन्तु अभिजातीय दमक से उद्दीप्त भी था। उसके खड़े होने की मुद्रा में एक संस्कारी नागरिकता झलक रही थी। एक ही वस्त्र इस प्रकार लपेट दिया गया था कि ग्राहक उसके हर अंगउपांग का भरपूर निरीक्षण कर ले । व्यापारी ने उसका मूल्य एक सहस्र रौप्य कार्षापण नियत किया। व्यापारी को अपने माल के खरेपन का विश्वास था। उसने उद्घोष किया-"राजपुरुष, श्रेष्ठि और नागरिक ! इस अस्पृश्या तन्वगी को देखें । भाग्यशाली ही इसे दासी रूप में ग्रहण कर सकेगा। एक सहस्र रौप्य कार्षापण मात्र उसकी स्वर्णबालुका सदृश रोम-राजि का ही मूल्य है।" ग्राहकों को आकर्षित करने के लिये वह अक्सर अपने दण्ड से बाला के अंग-उपांगों को संकेत करता था और लोलुप दृष्टियां बाला की क्लान्ति में वृद्धि करती थीं।
ग्राहक भौंरों की तरह उसके गिर्द मंडराते पर मूल्य सुनकर उदास हो चल देते । कौशाम्बी का विख्यात सेठ धन्ना भी अपनी दूसरी पत्नी मूला के लिये एक सहचरी दासी की खोज में था। उसने इस कन्या को देखा और क्रय कर लिया।
धन्ना एक अधेड़ सौम्य नागरिक है। उसे दूसरी पत्नी से भी सन्तान नहीं है। वह कन्या से कहता है"भद्रे ! तू कुलीन वंशजा प्रतीत होती है, अपनी विपत्ति कह ।"
दासी--"स्वामी ! मैं दासी हूँ । कुल नष्ट हो गया। शील की रक्षा करें।" धन्ना-"भद्रे ! मैं संतान सुख से वंचित हूँ। तू मेरी पोषिता होगी। मेरी पत्नी को संतान-सुख दे।" दासी-"पितृव्य, आपकी आज्ञा शिरोधार्य ।"
इस प्रकार सेठ उस कन्या को अपनी पोषिता पुत्री बनाकर घर ले आया, परन्तु सेठानी मूला उसे सौत ही समझी और एक दिन सेठ की अनुपस्थिति में उसने उसे सिर मुड़ाकर, बेड़ी-हथकड़ी पहनाकर, दहलीज में बन्द कर दिया। तीन दिन के निराहार के बाद एक सूप में उड़द के कच्चे बाकले उसे खाने को दिये।
संयोग से उसी समय एक तपस्वी, जो छ: माह से निराहार विचर रहा था, धन्ना के घर के सामने से निकला और उसने कन्या की यह करुण दशा देखी। कन्या ने उड़द के कच्चे बाकले ही साधु की ओर बढ़ा दिये और उस करुणा के अवतार ने उन्हें प्रसन्नता पूर्वक ग्रहण कर लिया और कहा
"दुल्लहे खलु माणुसे भवे, चिरकालेण वि सव्वपाणिणं । अभितुर पारं गमिए ।"
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१०८ ]
ख- ६
कन्या ने विचार किया - "मनुष्य जन्म अत्यन्त दुर्लभ है और सभी प्राणियों को दीर्धकाल के बाद प्राप्त होता है । इसी जन्म में मनुष्य संसार सागर से पार निकलने का यत्न कर सकता है । अतः जीवन-मरण के चक्र से मुक्त होने का यत्न करो।"
सेठ ने यह दृश्य देखा और विस्मय से कन्या को भी देखा । कन्या ने बताया- "मैं अंगराज दधिवाहन की पुत्री चन्दनबाला हूँ और वह तपस्वी तीर्थंकर महावीर हैं ।"
चन्दनबाला अन्ततः महावीर के संघ में दीक्षित हो गई और आर्यिका या साध्वी संघ की प्रमुख बनी ।
( ५ )
वत्स जनपद में ही तुंगिय सन्निवेश था जहाँ दत्त ब्राह्मण की यज्ञशाला थी । दत्त की पत्नी करुणा ने मेतार्य नामक पुत्र को जन्म दिया । मेतार्य अपने पिता का अनुगामी था और उसने शीघ्र ही सम्पूर्ण वेद-साहित्य का पारा - यण कर लिया एवं एक नैष्ठिक याजक बन गया । उसकी शाला में सैकड़ों अन्तेवासी थे । उसने अपने पिता से सुना था—“पूर्व भारत में एक श्रमण परम्परा है जो तपस्या पर बल देती है और याज्ञिक कर्मकाण्ड को व्यर्थ बताती है | श्रमण साधु बस्ती से बाहर ठहरते हैं, केवल एक बार आहार के लिये बस्ती में जाते हैं, एक स्थान पर तीन दिन से अधिक नहीं ठहरते, अपने पास परिग्रह नहीं रखते और अक्सर वस्त्र भी धारण नहीं करते, तप-संयम में दृढ़ रहते हैं और मांसाहार नहीं करते। वह जाति-पांति में विश्वास नहीं करते और सभी को उपदेश भी देते हैं और सभी से भिक्षा भी लेते हैं । वह वेद की निन्दा नहीं करते, ब्राह्मण की भी निन्दा नहीं करते, परन्तु वर्णाश्रम को गर्हित बताते हैं और कर्मकण्ड को वृथा बताते हैं ।”
तार्य ने अपने अन्तेवासियों से सुना - " श्रमणों में अन्तिम तीर्थंकर के इस काल में होने की अनुश्रुति है और सात तपस्वी तीर्थंकरत्व का दावा करते हैं ।"
तार्य ने पूछा- - "कौन हैं वे तपस्वी और क्या है उनकी प्रकृति ?”
अन्तेवासी - "आर्य ! एक हैं कपिलवस्तु के शाक्य मुनि गौतम बुद्ध जो भोग और त्याग के मध्य का मार्ग दुख से मुक्ति के लिये बताते हैं । उनका एक संघ है और मगधराज बिम्बिसार तथा कोसलराज प्रसेनजित उनके
भक्त हैं ।
दूसरे हैं पूरन कास्सप जो अक्रियावाद का प्रतिपादन करते हैं। उनका कहना है कि दुष्कर्म से पाप और सत्कर्म से पुण्य नहीं होता क्योंकि इन कर्मों का आत्मा पर कोई प्रभाव नहीं होता ।
तीसरे हैं मक्खलि गोसाल जो नियतिवादी हैं । वे नग्न रहते हैं और उनके अनुयायी आजीवक कहलाते । उनका कहना है कि जिस प्रकार सूत का गोला फेंकने पर उसके पूरी तरह खुल जाने तक वह आगे बढ़ता जायेगा, उसी प्रकार बुद्धिमानों और मूर्खों के दुखों का नाश तभी होगा जब वे संसार का समग्र चक्कर पूरा कर चुकेंगे ।
चौथे हैं अजित केकम्बलिन जो उच्छेदवादी हैं। उनका कहना है कि शरीर के भेद के पश्चात् विद्वानों और मूर्खों का उच्छेद होता वे नष्ट होते हैं, और मृत्यु के बाद उनका कुछ भी शेष नहीं रहता ।
पांचवें हैं पकुध कच्चायन जो अन्योन्यवादी हैं। उनका कहना है कि पृथ्वी, आप, तेज, वायु, सुख, दुख एवं जीव, सात शाश्वत पदार्थ हैं जो किसी के किये, करवाये, बनवाये या बनाये हुए नहीं हैं ।
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ख-६
[ १०९ छठे हैं संजय बेलठिपुत्र जो विक्षेपवादी हैं। उनकी परलोक, कर्मफल और मृत्यु के बाद जीव की स्थिति के विषय में कोई निश्चित धारणा नहीं है।
सातवें हैं निर्ग्रन्थ ज्ञातपुत्र वर्धमान महावीर । उनके अनुयायी उन्हें २३वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ की परम्परा का सूचित करते हैं । नग्न दिगम्बर रहते हैं और पांच महाव्रतों का कठोर पालन करते हैं। उनका चतुर्विध संघ हैं जिसमें मुनि, आर्यिका, श्रावक एवं श्राविकायें हैं। मुनिसंघ के प्रधान विप्रवर इन्द्रभूति गौतम हैं और आर्यिका संघ की प्रधान सती चन्दना हैं । मगधराज श्रेणिक-बिम्बिसार और उनकी रानी चेलना, वत्स की राजमाता मृगावती, अवन्ति की राज-महिषी, वज्जिसंघ के अधिनायक चेटक, मल्ल गण, श्रेष्ठि धन्ना, श्रेष्ठि मृगार, नागरिक सरदेव और उसकी भार्या धन्या आदि गणमान्य नर-नारी उनके श्रावक-संघ और श्राविका-संघ के सदस्य हैं।"
मेतार्य-"साधु ! क्या इन्द्रभूति मगध देशीय वसुभूति गौतम का पुत्र है ?" अन्तेवासी-"हां, विप्र-श्रेष्ठ !" मेतार्य-“साधु ! क्या चन्दना वही देवी है जिसे एक तपस्वी ने बन्धनमुक्त किया था ?" अन्तेवासी--"हां, विप्रवर ! और वह तपस्वी यही वर्धमान महावीर थे।" मेतार्य--"साधु !"
अन्तेवासी-"विप्र-श्रेष्ठ ! कम्पिलपुर से कुन्दकोलित और उसकी भार्या पुष्पा आये हैं और यह समाचार लाये हैं कि निम्रन्थ महावीर कौशाम्बी से विहार कर चुके हैं और कल इस सन्निवेश के निकट आयेंगे।"
मेतार्य-"कुन्दकोलित और उसकी भार्या को अतिथिशाला में विश्राम कराओ। कल हम सब अन्तेवासियों के साथ महावीर से भेंट करने चलेंगे।"
सागवतासन
तुंगिय सन्निवेश के ईशानकोण में श्मशान के कोने पर महावीर कायोत्सर्ग मुद्रा में ध्यानमग्न खड़े हैं। उनकी दृष्टि नासाग्र है, ओठों पर मन्द स्मित है और उनकी आभा से चतुर्दिक वातावरण में एक अपूर्व शान्ति है।
__ कुन्दकोलित और पुष्पा के साथ मेतार्य और उसके अन्तेवासी नमस्कार कर विनयपूर्वक खड़े हो जाते हैं। महावीर उनकी शंका का बोध कर लेते हैं और कहते हैं
चउहि ठाणेहि जीवामणुस्सत्ताते कम्म फारेंति , तंजहा पगतिमद्दयाए, पगतिविणीयाए , साणुक्कोसयाए
अमच्छरियाए। मेतार्य विचार करता है-"चार कारणों से जीव को मनुष्य जन्म मिलता है। एक तो वह प्रकृति से भद्र हो, दूसरे वह प्रकृति से विनयी हो, तीसरे वह दूसरे के दुःख को दूर करे और चौथे वह दूसरे की समृद्धि देखकर ईर्ष्या न करे।" महावीर पुनः कहते हैं
नाणं व दसणं चेव चरित्तं च तवोतहा। एस मग्गोति पन्नत्तो जिर्णेहि वर दंसिहि ॥
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११० ]
मेतार्य पुनः विचार करता है
"सम्यक दृष्टि जिन अर्थात् जितेन्द्रिय तीर्थंकरों ने जीव के संसार से बन्धन मुक्त होने का मार्ग यह बताया है कि उसे आत्मा के स्वरूप का सम्यक ज्ञान हो, उसके बारे में सम्यक श्रद्धान हो, उसका चरित्र कर्मों की निर्जरा के योग्य हो और वह तपश्चरण द्वारा पूर्व कर्मों की निर्जरा करता जाये तथा नये कर्मों का बन्ध न करे।"
मेतार्य (कुन्दकोलित से)--"हे कुन्दकोलित ! भगवान यथार्थ कहते हैं । मैं आज से उनका शिष्य हूँ।"
(अन्तेवासियों से):--"तुम अब जा सकते हो। गुरु-पत्नी से कहना कि मेतार्य अब मुनि हो गया, उसका मोह न करे।"
(महावीर से)--"भगवन ! मुझे भी भव-बन्धन से मुक्त करो-दीक्षा दो।" मेतार्य अपने वस्त्र उतार देता है और अपनी मुट्ठी से केश-लोंच करके महावीर के पीछे-पीछे विहार कर जाता है ।
मेतार्य महावीर के ग्यारहवें गणधर या मुख्य शिष्य हुये ।
(७) काशी जनपद की राजधानी वाराणसी में बड़ी हलचल है। नगर के बाहर कोष्ठक चैत्य में एक दिगम्बर साधु आकर ठहरे हैं। वह दो शताब्दी पूर्व हुये तीर्थकर पार्श्व के चातुर्याम संवर का परिष्कार कर श्रमण संघ की पुनर्व्यवस्था कर रहे हैं । चूलनिप्रिय और उसकी पत्नी श्यामा तथा सूरदेव और उसकी भार्या धन्या तीर्थंकर पार्श्व के अनुयायियों के साथ कोष्ठक चैत्य जाते हैं। मुनि ध्यानावस्थित हैं। श्रावों की शंका का समाधान करते हये भगवान कहते हैं
हिंसा पावं तिमदो, दयापहाणो जहो धम्मो ।
जह ते ण पियं दुक्खं, तहेव तेसिपि जाण जीवाण ॥ चूलनिप्रिय विचार करता है
"हिंसा पाप है, क्योंकि दया सब धर्मों में प्रधान है, क्योंकि जिस प्रकार हमें दुख प्रिय नहीं है उसी प्रकार अन्य जीवों को भी नहीं है । यह अहिंसा नाम का प्रथम व्रत है जिसे तीर्थंकर पार्श्व ने भी बताया था।" भगवान पुनः कहते हैं
अविस्सासो य भूयाणं, तम्हा मोसं विवउजए। असच्च मोसं सच्चं च अणवज्जमकक्कसं। समुप्पेहमसंदिद्धं गिरं भासेज्ज पनवं ।
श्यामा विचार करती है:
"झूठ बोलने वाला सभी का विश्वास खो देता है। इसलिए झूठ बोलना उचित नहीं है। ऐसी भाषा बोलनी चाहिये जो व्यवहार में भी सत्य हो और निश्चय में भी सत्य हो अर्थात् प्रिय हो, हितकारी हो और अंसदिग्ध हो । यह सत्य नाम का दूसरा ब्रत है जिसे तीर्थकर पार्श्व ने भी बताया था।"
भगवान आगे कहते हैं
इच्छा मुच्छा तण्हा गेहि असंजमो कंखां । हत्थलहुत्तणं परहडं तेणिकं कडयाअवत्ते।।
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[ १११ सूरदेव विचार करता है
"परधन की इच्छा, मूर्छा, तृष्णा, गुप्ति, असंयम, आकांक्षा, हाथ की सफाई, पर-धन-हरण, कूट-तोल-माप और बिना दी हुई वस्तु लेना-ये सब काम चोरी हैं। इनसे विरत रहो। यह अस्तेय नाम का तीसरा ब्रत है जिसे तीर्थकर पार्श्व ने भी बताया था।" भगवान पुनः कहते हैं
अम्भंतर बहिरए सम्वे गंथे तुमं विवज्जेहि । सम्बत्थ अप्पसियो णिस्संगोणिमओ य सव्वत्थ ॥
चुल्लनिसतक विचार करता है
"भीतर और बाहर की सब ग्रन्थियों के उन्मोचन का नाम अपरिग्रह है। परिग्रह से रहित व्यक्ति स्वाधीन और निर्भय रहता है। अतः परिग्रह छोड़ो। यह अपरिग्रह नाम का चौथा व्रत है जिसे तीर्थंकर पार्श्व ने भी बताया था।" भगवान आगे कहते हैं
सीलगणवज्जिवाणं निरत्ययं माणसं जम्म । सीलं
मोक्खस्स सोपाणं।
धन्या विचार करती है
"शील से विहीन व्यक्ति के लिये मनुष्य-जन्म निरर्थक है क्योंकि शील ही मोक्ष की सीढ़ी है । शील का पालन करो। यह ब्रह्मचर्य नाम का पांचवा व्रत है जिसे महावीर ने बताया है।" अन्त में भगवान कहते हैं
चत्तारि धम्मदारा-खंती, मुत्ती, अज्जवे, महवे । उत्पाई जाण जरओ रोयग्गी जा ण डहइ बेहडि।
इंदियबलं ग वियलइ ताव तुम कुणहि अप्पहियं ।। सभी जन विचार करते हैं
"धर्म के चार द्वार हैं-क्षमा, संतोष, सरलता और विनय । वृद्धावस्था, इन्द्रिय-शिथिलता और रोग, ये शारीरिक धर्म हैं जिनके कारण मनुष्य आत्म-कल्याण में असमर्थ हो जाता है। अतः जब तक शरीर वद्ध नहीं हो जाता, रोग शरीर को नष्ट नहीं कर देता और इन्द्रियों की शक्ति क्षीण नहीं होती, तब तक धर्माराधना द्वारा आत्मकल्याण कर लो।"
श्रावक समुदाय (धीर-गम्भीर सम्वेत स्वर से उद्घोष करता है)-"धन्य, धन्य, प्रभो! हमारा भ्रम दूर हुआ। महावीर, आप हमारे शास्ता हैं । पार्श्व की परम्परा को आगे बढ़ाने वाले हैं। आप ही हमारी परम्परा के २४वें तीर्थंकर हैं।"
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उत्तर प्रदेश के उत्कीर्ण जैन लेख
और उनका महत्व
-श्री शैलेन्द्रकुमार रस्तोगी
भारत-हृदय उत्तर प्रदेश अपनी पुरा-सम्पदा के कारण विश्वविख्यात है । जैन, बौद्ध एवं ब्राह्मण संस्कृति का संगम यह भूमि रही है। यंतो पूरे प्रदेश में हजारों की संख्या में जैन मंदिर नगरों और ग्रामों में बिखरे पड़े हैं। कितने तो खण्डहर मात्र हैं और कितने ही सुन्दर अवस्था में हैं। इन मंदिरों में लेखयुक्त एवं लेख रहित, प्राचीन एवं अर्वाचीन जिनविग्रह प्राप्त होते हैं। पहले प्रकार की प्रतिमाओं की संख्या उसमें अपेक्षाकृत कम है, किन्तु मध्यकालीन एवं आधुनिक लेखयुक्त बहुत मूर्तियां मिलेंगी।
जैन बिम्ब इस प्रदेश में राजघाट व चन्द्रावती (वाराणसी); श्रावस्ती (गोंडा-बहराइच); ककुभ (कहाँयू) और खुखुन्द (गोरखपुर); शौरीपुर (आगरा); मथुरा-चौरासी व कंकालीटीला आदि; एटा; कम्पिल, संकिसा, कन्नौज (फर्रुखाबाद); चन्दवाडदुर्ग (फिरोजाबाद); द्वाराहाट (अल्मोड़ा); श्रीनगर (गढ़वाल); नैनीताल; गोविषाण-काशीपुर; हस्तिनापुर (मेरठ); पुरिमताल' (प्रयाग), पभोसा, कौशाम्बी; इटावा; रोनाई (रत्नपुरी), अयोध्या, तिलोकपुर (बाराबंकी); उन्नाव; महोबा, झांसी, ललितपुर जिलों के बानपुर, चांदपुर, दुधई, देवगढ़ प्रभृति से प्राप्त होती हैं। पुरातात्त्विक समृद्धि को देखते हुए संग्रहालयों की संख्या अति न्यून है। मुख्य संग्रहालय जहाँ जैन कलाकृतियाँ संग्रहीत हैं वे हैं भारत कला भवन (वाराणसी), इलाहाबाद संग्रहालय, राजकीय संग्रहालय मथुरा और राज्य संग्रहालय लखनऊ।
भारत कला भवन की कुछ अभिलिखित जैन प्रतिमाएँ प्रकाशित हुई हैं।'
इलाहाबाद संग्रहालय में यूं तो उ० प्र० एवं मध्य प्रदेश की जैन प्रतिमाएं आदि हैं किन्तु मूत्ति लेखों की दष्टि से पतियानदाई (म०प्र० सतना) से प्राप्त अम्बिका की मूत्ति है। यह अनुपम कृति है क्योंकि इसी पर तेईस अन्य शासन देवियां भी बनी हैं। उनके नीचे उनके नाम भी उत्कीर्ण हैं। मध्य में "रामदास" "पद्मावती"
१-मुनिकान्तिसागर, खण्डहरों का वैभव, पृ० १८७ २-उपरोक्त सूचना के लिए मैं पूज्य डा० ज्योति प्रसाद जैन जी का हृदय से आभारी हूँ। ३-श्री मारुतिनन्दन प्रसाद तिवारी ने विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित कराया है। ४-जैन नीरज, पतियान दाई मंदिर की मूति, अनेकान्त अग०६३, पृ० ९९
श्री प्रमोद चन्द्र, स्टोन स्कल्पचर इन इला० चिन्न-४७० CLX |
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ख --- ६
[ ११३
लिखा है । विद्वानों का मत है कि रामदास ने इसे स्थापित कराया । पद्मावती उसकी स्त्री का नाम है या वह पद्मावती का रहने वाला होगा । यहीं की एक बैठी बड़ी जिनप्रतिमा की चौकी पर "बलात्कार गण, वीरनंदी, वर्द्धमान, १२१४ फाल्गुन सुदी ९ अंकित है । इससे इस प्रतिमा की स्थापना तिथि ज्ञात हो जाती है ।"
राजकीय संग्रहालय मथुरा में अभिलिखित जैन मूर्तियों का क्रम इस प्रकार है :
कुषाणकाल - क्यू-२ लोणशोभिका का आयागपट्ट; बी० ७१ अभिलिखित चौमुखी सं० ५; नं० १५६५ बैठी प्रतिमा सं० ३० बी० ७०; बी० २९ हुविष्क सं० ५० नं० ४९० ( पैर मात्र शेष) वर्धमान प्रतिमा सं० ८० बी-२ बैठी जिनप्रतिमा - वासुदेव सं० ८३; बी-३ व बी० ४ वासुदेव सं० ८३, ८४; बी० ५, बैठी सं० ९०; नं० २१२६ खंडित बैठी, वर्धमान, तथा शक संवत ९२, ९० एवं १०७ की प्रतिमाएँ ।
गुप्तकाल : - बी- ३१ जिनप्रतिमा बाँया भाग सं० ९७; तथा नं० २६८
(i) सिद्धम् ऋषभस्य समुद्र (ii) सागराभ्यां सङ्करस्य (iii) दत्तासागरस्य प्रतिमा ।
मध्ययुग की लेख युक्त जैन प्रतिमाएँ :- बी० २५ श्वेत, बैठी, संवत १५२६; बी० २२ नेमिनाथ, संवत ११०४ भदेश्वरायगच्छ महिल; नं० २८२५ सुपार्श्वनाथ, संवत १८२६ = १७६९ ई०; नं० ३५४५ सिरहीन बैठी जिनमूर्ति संवत १८२६ ई० = १७६९ ई० ।
राज्य संग्रहालय लखनऊ में जैन मूर्ति लेखों का बृहत् संग्रह है। जैन धातु प्रतिमाएँ लेख युक्त तथा कुछ लेख रहित हैं । किन्तु हैं सभी मध्ययुगीन । लेख युक्त जैन धातु प्रतिमाओं की संख्या तेइस है । '
एक मृण्मूर्ति ( ५३ - ६९ ) है । इसे लखीमपुरखीरी से पाया गया है। उत्कीर्ण है । मिट्टी की जैन मूत्तियाँ वैसे ही दुर्लभ हैं, किन्तु लिखित होने के हो जाती है ।
संग्रह में मध्ययुगीन दो शिलालेख ई- १६ एवं ई- १७ हैं। दोनों ही कच्छपघात कालीन हैं और संवत ११६ व ११६५ के हैं, जो ग्वालियर से प्राप्त हुए हैं। प्रथम में तो रतनपाल द्वारा जैन मंदिर के निर्माण का उल्लेख है तथा दूसरे में “निर्ग्रन्थनाथ" ( दिगम्बर साधु) का उल्लेख है जो किसी शैव साधु का मित्र था ।
इस संग्रहालय में जैनमूत्ति लेखों की संख्या १८० हैं, जो कुषाण, गुप्त, मध्य एवं आधुनिक कालीन हैं । इनके प्राप्ति स्थल मथुरा, श्रावस्ती, बटेश्वर, उन्नाव, महोबा आदि उ० प्र० के स्थानों के अतिरिक्त दूबकुंडग्वालियर एवं छतरपुर-मध्य प्रदेश भी हैं । कतिपय विशिष्ट महत्व के जैन प्रतिमा अभिलेख नीचे दिये जा रहे हैं :सर्वप्रथम है द्वार तोरण (जे - ५३२) जिसमें कुषाणलिपि में " नमो अरहतानं श्रवण श्राविकाये ” अर्थात अर्हन्तों को नमन किया गया है। इसी काल के दो आयागपट्ट जे २४८ पर " नमो महावीर " तथा जे २५६ पर
इस पर गुप्त लिपि में " सुपाएवं" स्पष्ट कारण यह और अधिक महत्व की
५ - मुनिकान्तिसागर, खण्डहरों का वैभव, पृ० २२१
६ – अग्रवाल, डा० वसुदेवशरण, कैटालाग आफ दी मथुरा म्यूजियम, यू०पी० हिस्टा० सोसा० न, XXIII, १–२, पृ० ३६-६५
७. -श्रीवास्तव, वी०एन० एण्ड मिश्र शिवाधार - इन्वेटरी आफ मथुरा म्यु० स्कल्प्चरस, सिन्स १९३९ अपटूडेट, म्यू० बुलेटिन ११-१२ वर्ष ७३, पृ० ९९
८ - जोशी, नीलकण्ठ पुरुषोत्तम, मेटल इमेजेज इन स्टेट म्यू लख०, संग्र० पत्रिका अं० ९, पृ० ३४
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११४ ]
"नमो अरहतो वर्धमानस्य गोतिपुत्रस्य .........'' इसमें भी वर्द्धमान का नमन है। इन अपूर्ण लेखों के बाद आता है जे-१
(i) नमो अरहतो वधमानस । (ii) स्वमिस महाक्षत्रपससोडासस संवत्सरे ७२ हेमन्तमासे २ दिवसे ९ हारीति पुनस पलस भायाये
समसिविना। (ii) काछीये अमोहिनी सहापुत्रहिपालघोष पोथघोषेन धनघोषेन, आयावती प्रतिथापिता । (iv) आयवत अरहतोपूजाये ।
अर्थात वर्धमान को नमस्कार है। महाक्षत्रपशोडास के संवत्सर ७२ के हेमन्त मास में अमोहिनी ने आर्यावती अरहतो की पूजा हेतु स्थापित की। जे-२०-(i) सं ४०, व ४ दि २० एतस्य पूर्वायं कोट्टिये गणो वरराया शाखाया ।
(ii) को अय॑वृधहस अरहतो मुनिसुव्रतस्यप्रतिमा निवययति ।
(iii). "भयाये श्रविकाये दिनस दान प्रतिमा वोकै थूपे देवनिर्मितो पु..........।। अर्थात सं० ४९ में श्राविका दिन ने मुनिसुव्रत की प्रतिमा स्थापित की। 'वोद्वे' को बाद में 'देव' पढ़ा गया। प्राचीन जैन साहित्य में वर्णित देव निर्मित स्तूप की पुष्टि में यह अकाट्य प्रमाण है।
जे-२४--(i) [सि] द्ध सवं ५०,४ हेमन्त मासे चतुरथ ४ दिवस १० अ (ii) स्य पूर्वया कोट्टिय तो गणतो स्थानियतो कुलतो। (iii) वैरतोशाखातो श्री गृहीतो संभोगतो वाचकस्या(iv) ...इसिस्यं श्रीष्य गणिस्य आर्यमस्तिस्य सधाचारी वाचकस्य [आ] (v) र्य देवस्य निर्वत्तनो गोवस्य सीह पुत्रस्य लोहिकाकारू कस्य दानं । (vi) [स] व सत्त्वान हित सुख एक सरस्वती प्रतिमा स्थापितो अवतले रंगनतनो । (vi) मे ।।
अर्थात संवत ५४ में एक सरस्वती की प्रतिमा एक लोहिककारक के दान से स्थापित हई। यह विश्व की सर्वप्राचीन सरस्वती प्रतिमा है, पुस्तक अक्षमाला लिए है। वीणा हंस बाद के हैं । ऐसा इस प्रतिमा के देखने से स्पष्ट ज्ञात होता है।
जे-३४--(i) नमो अर्हतो महावीरस्य सं० ९० (३)... " (ii ) शिष्य गणिस्य नन्दिये निवतन देवसस्य हैरण्यकस्यधित (iii) ... नि ..."वतो वद्धमान प्रतिमा (iv) प्रति...."पूजाये ॥
इसमें 'महावीर' संवत के साथ है तथा नीचे वर्धमान प्रतिमा स्पष्ट लिखा है। क्या यह नहीं हो सकता कि महावीरस्य संवत ९३ हो । यदि मान लें तो महावीर संवत का प्रयोग उस काल में प्रचलित था, इसका पता चलता है।
तदुपरान्त गुप्त लिपिका मूत्ति लेख आता है
जे-३६ (i) सिद्धम परम भट्टारक महाराजाधिराज श्री कुमारगुप्तस्य विजयराज्य स १००, १०, ३क ..."मस "दिवस २० अस्य पूवाय कोट्टियगण ।
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[ ११५ (i) दविद्याधरितो शाखातो दतिलाचार्य प्रणापतिये समाढाये भट्टिभावस्य धितु ग्रहमित्र पालित प्रतिरिक स्य [कुटुम्बिनी ये प्रतिमा प्रतिस्थापित ।
शुभपरम भट्टारक महाराजाधिराज कुमारगुप्त के विजयराज्य ११३ में भक्तिभाव से श्यामाढ़या के परिवार वालों ने प्रतिमा स्थापित कराई, विधाधरिशाखा के दतिलाचार्य की आज्ञा से । इस स्वर्णयुगीन प्रतिमा लेख के बाद हमें मध्य एवं आधुनिक युग के मूर्ति लेख मिलते हैं जिनमें महोबा से प्राप्त संवत १२११ का
जे-८२९-गोलापुर्वान्वये साधुसाढेतपुर लाखूतस्य पुत्र वागल्ह देव कतले (?) जाल्ह श्री जील्हणपते नित्य प्रणमति ।
(ii) श्री मन्मदनवम्मदेवर्व है सं० १२११ आषाढ़ सुदि ३ (iii) सनो ११ देव श्री॥)( ॥ देव श्री नेमिनाथ ॥ रूपकार लाषण ॥
अर्थात चंदेल शासक मदनवर्मदेव के समय नेमिनाथ की प्रतिमा बनी है । चौकी मात्र काले पत्थर की है गोलापूर्वान्वये का उल्लेख आहार की कुन्युनाथ एवं अरनाथ की प्रतिमाओं पर जो संवत १२०३ व १२०९ की हैं, पाते हैं।
८ (जे० ८२९) में रूपकार लाषण-लषन था जिसका उसने उल्लेख स्वयं किया है। इसके बाद आती है गाहड़वाल शासक गोविन्दचन्द्र कालीन प्रतिमा जे-८८४, जो उन्नाव से प्राप्त
जे-८८४ (i) संवत १२१० ज्येष्ठ सुदि ३ श्रीमगोविन्द चन्द देवस्यराज्ये (i) वामवास्तव्य-अवये ? अनेक मुलग (गु) नालंकृत विग्रह चतुनैव [?] निरत.""कुमोहि-कुंभोत्पामक कमथर ।
(iii) श्री साधु सोजन सुधरम नैक [?] इलाचन्द्र नैकपवोव [?] साधु जाल्हण तनक [?] जिननाय (व)[व] प्रतिस्थापिनि ।
अर्थात साधु जाल्हण ने संवत १२१० में मुनिसुव्रत की प्रतिमा स्थापित कराई। यद्यपि लेख में उनका नाम नहीं है किन्तु कच्छप मूर्तिपीठिका पर अंकित है ।
भगवान नेमिनाथ मन्दिर चौक लखनऊ से प्राप्त पद्मासनस्थ दिगम्बर जिनप्रतिमा [७२-५] जो अखंण्डित, मनोज्ञ एवं तीन तरफ से लेखांकित है।
[७२-५] (i) संवत १६८८ वर्षेफाल्गुण सुदि ८ श्री मूल सं......... (ii).. भट्टरक श्री णानभूषण देवा तिभट्टारक श्रीवन्दापा। (ii) . 'तुवा जातियोपमाने भार्या थाणागयोपु [२]
(iv)..'पासुभा मथुरा [रा] प पष्ठे पुन ४ उये चितामनि पीछे हावचन्द से निमाहिनातात पजामावा व पवनापुत्र भयापरिमगज सुतयो पुनवा लेववङ्ग पहीरामपूतप्र प्रेमवाराम नित्य प्रमति ।
___अर्थात संवत १६८८ फाल्गुण सुदि ८, मूलसंघ, भट्टारक, श्रीज्ञानभूषण, पहीराम एवं चिन्तामनि (ये शब्द विचार करने योग्य हैं), यद्यपि लाञ्छन का स्थान क्षतिग्रस्त है किन्तु लेख में "चिंतामनि" से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि यह पार्श्वनाथ प्रतिमा होगी, यद्यपि यह ध्यान देने योग्य है कि सर्पफण का नितान्ताभाव है।
९-जैन, हीरालाल, भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान, पृ० ३५ १०-जैन, कस्तुरचन्द, तीथंकरों की प्राचीनता, अनेका०६९, पृ०९९
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११६ ]
इन निदर्शनों के अलावा ककुभ-कहाँयू उ० प्र० के गोरखपुर जिला से सम्राट स्कन्दगुप्त (४६०ई०) ज्येष्ठ मास का पञ्च आदि कर्तृन' [आदि, शान्ति, नेमि, पार्श्व एवं महावीर] शिलालेख भी उल्लेखनीय है ।११ ललितपुर जिले के देवगढ़ मन्दिर की अभिलिखित जैन प्रतिमाओं के लेख तथा पट्टलेख तथा स्तम्भ लेख हैं । प्रतिमा लेख अधिकांश अपूर्ण हैं । मूर्ति लेख कम सख्या में पूर्ण हैं । पट्ट और स्तम्भ लेख लम्बे हैं । इनमें भोज (८६२ ई०) के समय का लेख महत्वपूर्ण है। सारे लेख ९ वीं से १२ शती तक के हैं। इनकी संख्या चार सौ से ऊपर है। यहां पर जैन मन्दिरों में यक्षियों की प्रतिमाओं के पट्ट पर उनके नाम उत्कीर्ण किये गये हैं। उत्कीर्ण लेखों की लिपि ९५० ई० के लगभग की प्रतीत होती है।"
इस प्रकार से जैन-प्रतिमाओं के मूत्तिलेख, संवत, आचार्य, संघ, गण, शाखा, गच्छ, संस्थापक, शासक, प्रतिष्ठा स्थान, रूपकार का सुन्दर विवेचन करते हैं। स्थान एवं शासक का उल्लेख कराने वाले, चौक लखनऊ के भगवान शान्तिनाथ मन्दिर बहरन टोले की श्वेत पाषाण चौकी के अभिलेख को देखें:
संवत १८६३ .. · चरण भराया वृहत्खरतरगछे भट्टारक श्री जिनहर्ष सूरिभिः प्रतिष्ठितं श्रेयार्थ शासन देवी अस्य मंदिरस्य रक्षा कुर्वन्तु ॥ श्री॥श्री ।। श्री लखनऊ नगरमध्ये नवाब साहब सहादत अलि विजय राज्ये ॥
इससे स्पष्ट विदित होता है कि संवत १८६३ में लखनऊ में नवाब सादतअली का शासन था, उसी समय ये चरण मन्दिर में स्थापित हुए । लेख संस्कृत में है यद्यपि नगर में उर्दू का बोलबाला रहा होगा।
___ अस्तु चिरकाल से उपेक्षित इन मूक किन्तु तथ्यपूर्ण अभिलेखों के अध्ययन से क्या खोज का मार्ग प्रशस्त नहीं होता है ? क्या इन लेखों के विवेचन से जैन इतिहास यथा श्रावकों की जाति, गोत्र, आचार्यों के गच्छ, भाषा व लिपिका क्रमिक विकासादि विषयों पर समुचित प्रकाश नहीं पड़ता है ? क्या यह कहना कि ये लेख इतिहास तथा जैन संस्कृति के ज्ञान हेतु, रत्नाकर तुल्य है, उचित न होगा।
११-फ्लीट, कार्पस इन्सक्रप्शन्सइडकोरम, सरकार डी० सी० स्लेक्टेड इंस्कृप्शन्स १२-कल्सब्रुन (Klaus Bruhn) दी जैन इमजेज आफ देवगढ़ १०४ १३-जैन, बालचन्द्र, जैन प्रतिमा विज्ञान, खण्ड-१, पृ१०८ १४. नाहर, पूर्णचन्द-जैनलेख संग्रह, भा० २, लेख सं. १५२५, पृ.११९
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MANORAMA
४२–'देवनिर्मित स्तूप' लेख युत मुनिसुव्रत-प्रतिमा की चरणचौकी, कंकाली टोला मथुरा
(रा० स० लखनऊ)
१३-वर्द्धमान-चतुबिम्ब, मथुरा (राज्य संग्रहालय लखनऊ)
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४४–'नमो वर्द्धमान' लेखयुत आर्यावती (भगवान की माता) की प्रतिमा,
कंकाली टीला मथुरा (रा. सं० लखनऊ)
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,
6.141
5:
४५-प्रतिमा सर्वतोभद्रिका, एटा, (रा० सं० लखनऊ)
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४६-कलापूर्ण भामंडल से युक्त तीर्थङ्कर-प्रतिमा. गुप्तकालीन, मथुरा
(रा० सं० लखनऊ)
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४७-विश्वविश्रुत महावीर-प्रतिमा, कंकाली टीला मथुरा
(रा० सं० लखनऊ)
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४६-नीलांजना नृत्य पट (अपूर्ण), कंकाली टीला मथुरा (रा० सं० लखनऊ)
४९-नीलांजना नत्य एवं ऋषभनाथ वैराग्य पट (पूर्ण), मथुरा (रा० सं० लखनऊ)
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राज्य संग्रहालय की महावीर प्रतिमाएँ
राज्य संग्रहालय, लखनऊ में तीर्थंकर महावीर की अनेक प्रस्तर सतिमाए संग्रहीत हैं, जो या तो कायोत्सर्ग (खड्गासन) मुद्रा में, या पद्ममासनस्थ (बैठी हुई ध्यानस्थ), दोनों रूपों में हैं।
संग्रहालय में संग्रहीत कलाकृतियों में काल की दृष्टि से भगवान महावीर का सर्व प्राचीन अंकन उनकी पूजा के हेतु स्थापित शिलाफलक या आयागपट्ट (जे० २४८) में प्राप्त है, जिस पर "नमो अर्हतो महावीरस्य......" अभिलिखित है। इस आयागपट्ट के केन्द्र में उत्कीर्ण धर्मचक्र के द्वारा प्रतीक रूप से भगवान महावीर की उपस्थिति सूचित की गयी है। एक अन्य खण्डित आयागपट्ट (जे० २५६) पर "नमो अर्हतो वर्धमानस्य............" उत्कीर्ण हैं। एक स्तम्भ (जे० २६८) पर सिंह ध्वज का अंकन है। उस पर उसकी प्रदक्षिणा करते हुए स्त्री-पुरुष भी अंकित हैं। इस सिंहध्वज में सिंह द्वारा, जो तीर्थंकर महावीर का विशिष्ट लांछन है, उनकी उपस्थिति सूचित की गयी है। एक अन्य फलक (जे. १) में पूजा के हेतु जाती हुई एक उपासिका अंकित है और "नमो अहंतो वर्धमानस" लेख है।
'वर्धमान' एवं 'महावीर' विलिखित कुषाणयुगीन बैठी अथवा खड़ी, खण्डित या अखिण्डत प्रतिमाए (जे०२, ५,९,१४,१६ और ३१) विशेष उल्लेखनीय हैं। इनमें से कुछ प्रतिमाओं पर तो कुषाण शासकों के नाम एवं शासन वर्ष भी उल्लिखित हैं, जिनके कारण उन प्रतिमाओं का ऐतिहासिक महत्व भी बहुत है।
लेख अथवा लांछन (परिचय चिन्ह) से युक्त भगवान महावीर की कोई गुप्तकालीन प्रतिमा संग्रहालय में नहीं हैं, किन्तु मथुरा से ही प्राप्त जे० ११८, जे० १०४ तथा सीतापुर से प्राप्त ओ० १८१ को भ० महावीर की गुप्तकालीन प्रतिमाओं के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। इनमें से जे० ११८ तो अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कर चुकी है।
। यों तो संग्रहालय में गुप्तकालीन एवं मध्यकालीन चौबीसी-पट्ट भी हैं, परन्तु उन सभी में मूल नायक प्रथम तीर्थकर ऋषभनाथ हैं-गौंण रूप से महावीर का अंकन अवश्य है।
संवत १०८० की अभिलिखित सर्वतोभद्रिका प्रतिमा (जे० २३६) उल्लेखनीय है । उस पर आचार्य विजय सिंहसूरि और श्री जिनदेवसूरि तथा स्वयं भगवान बर्द्धमान के नाम अंकित हैं। इस चौमुखी प्रतिमा में चारों ओर भगवान वर्द्धमान का ही अंकन है।
संवत १२२३ की सिंह लांछन से युक्त लेखांकित पद्ममासनस्थ भूरे पाषाण की महावीर प्रतिमा (जे०७८२) इटावा जनपद से प्राप्त हुई। श्रावस्ती(जिला बहराइच) से प्राप्त पंचतीर्थी (जे.८८०) में भगवान महावीर का लांछन अंकित है और अभिलेख संवत् ११३४ का है। इस मूर्ति के सम्बन्ध में विशेष उल्लेखनीय तथ्य यह है कि उसमें "वीरनाथ" के नाम से भगवान महावीर का परिचय दिया गया है। उस पर आचार्य रामसिंह का भी नामोल्लेख है। श्रावस्ती से ही प्राप्त एक त्रितीर्थी (जे. ८७५) में सिंह लांछन युक्त महावीर की ध्यान मुद्रा की प्रतिमा है। लेख अस्पष्ट है ।
कायोत्सर्ग मुद्रा में स्थित, प्रभामण्डल रहित, श्याम पाषाण की एक महावीर प्रतिमा (जी. ३१८) महोबा (जिला हम्मीरपुर) से प्राप्त हुई । लेख से प्रकट है कि उसकी प्रतिष्ठा संवत १२८३ के आषाढ़ मास में हुई थी।
काले पाषाण की, सिंह लांछन युक्त, दिगम्बर (नग्न), अखण्डित तथा प्रभामण्डल से युक्त महावीर प्रतिमा (जे. ८८७) पर संवत १२३६ तथा 'मूल नायक को साधु माडू नमन करता है' लिखा है ।।
उत्तर प्रदेश के पौराणिक तीर्थ स्थान नेमिषारण्य-मिसरिख (जिला सीतापुर) से प्राप्त पीतवर्ण पाषाण की एक मध्ययुगीन प्रतिमा (ओ. १८२) की पीठिका पर सिंह लांछन खचित है । इस महावीर प्रतिमा की मुख छवि तेजस्वितापूर्ण है।
नेमिनाथ दिगम्बर जैन मन्दिर चौक लखनऊ से हाल में ही भेंट स्वरूप प्राप्त प्रतिमा (७२-४) की पीठिका पर "संवत..................४ बुधवासरे २० चन्द्रमाह" तथा प्रतिमा के पृष्ठ भाग में "वर्द्धमानमंगल प्रतिमा अंकित हैं । संवत की वर्ष संख्या स्पष्ट पढ़ने में नहीं आती। प्रतिमा मध्यकालीन है।
इस प्रकार उत्तर प्रदेश राज्य संग्रहालय लखनऊ में ई० सन् के प्रारम्भ काल से लेकर मध्यकाल पर्यन्त की महावीर प्रतिमाओं की एक अच्छी शृंखला सुरक्षित है।
-डा० नीलकण्ठ पुरुषोत्तम जोशी
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राज्य संग्रहालय लखनऊ का नीलाञ्जना-पट
उत्तर प्रदेश के विभिन्न स्थानों में, विशेषकर मथुरा के कंकाली टीला क्षेत्र से प्राचीन जैन कलाकृतियों के अनुपम एवं विविध दृष्टियों से महत्वपूर्ण नूमने प्राप्त हुए हैं। तीर्थदूरों, देवी देवताओं, धार्मिक प्रतीकों, लोक जीवन सूचक एवं प्राकृतिक दृश्यों के प्रस्तरांकनों के अतिरिक्त कई जैन पौराणिक दृश्यों के महत्वपूर्ण अंकन भी प्राप्त हुए हैं। इनमें से विशेष उल्लेखनीय एक खंडित प्रस्तर फलक (जे ३५४) है जो बाद में एक वेदिका के छोर वाले स्तम्भ के रूप में प्रयुक्त हुआ प्रतीत होता है जैसा कि उसके सिरे पर पटबल बने खाँचे से विदित होता है । दाँयें छोर के भाग में मंडप के नीचे एक नर्तकी नृत्य कर रही है और वादक वृन्द मृदङ्गादि वाद्य बजा रहे हैं । मंडप के बाहर सबसे आगे एक राजपुरुष बैठा है जिसके पीछे तथा बगल में कई अन्य व्यक्ति बैठे अथवा खड़े हैं। बांये छोर पर ऊपर एक व्यक्ति हाथ जोड़े बड़ा है और उसके आगे-पीछे कमण्डलधारी एक दिगम्बर मुनि उक्त सभा मुड़कर जाता हुआ दिखलाया गया है।
मुझे लगता था कि इस कलाकृति का लुप्त भाग मिल जाय तो दृश्य में अधिक पूर्णता आ जाय, मैं उसकी खोज में लगा रहा और सौभाग्य से अन्ततः उस खोये हुए टुकड़े (जे ६०९) को खोज निकालने में मैं सफल हुआ। इस पर ध्यानस्थ बैठे हुए दो दिगम्बर मुनियों का अंकन है। इनके पीछे दाहिनी ओर एक चवरी वाहक खड़ा है। इससे कुछ आगे एक कायोत्सर्ग नग्नमुनि का ऊपरी भाग दिखलाई देता है। दायीं ओर के सिरे के निकट एक अर्थफालक (भुजा पर खण्डवत्र लटकाए हुए साधु) की जैसी आकृति बनी प्रतीत होती है । मुख्य आकृतियां ऊँची पीठिकाओं पर आसीन हैं और मंडित केश हैं।
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इसमें कोई संदेह नहीं है कि कलाकृति जैन धर्म से संबंधित है और किसी जैन पौराणिक दृश्य का अंकन है। उक्त नृत्य दृश्य को पहले स्व० डा० वासुदेवशरण अग्रवाल साहब ने भगवान महावीर के जन्मोत्सव का दृश्यांकन समझा था ( जैन एन्टीक्वेरी, X पृ० १-५) किन्तु डा० ज्योति प्रसाद जैन ने उसे प्रथम तीर्थंङ्कर ऋषभदेव की राजसभा में नीलाञ्जना अप्सरा के नृत्य का दृश्य अनुमान किया था और अपना सुझाव डा० अग्रवाल जी पर भी प्रायः प्रकट कर दिया था, बाद में डा० पू० पी० शाह ने भी नीलाञ्जना नृत्य (स्टडीज इन जैन आर्ट, पृ० ११, ( कु० नो० ४) का अंकन ही मान्य किया है। मुझे भी यह मान्यता युक्तिसंगत प्रतीत होती है।
इस प्रकार इस कलाकृति के दोनों खण्डों को जोड़ने से जो दृश्य बनता है उसे पाँच भागों में विभाजित किया जा सकता है --
(१) धुर दाहने छोर पर जहाँ अब सिर्फ आकृति दीख पड़ती है सम्भवतया महाराज ऋषभदेव के सम्मुख असली नीलाञ्जना का अंकन था।
(२) अब जो नृत्य दृश्य उपलब्ध है वह उस समय का प्रतीत होता है जब असली नीलाब्जना के विलय हो जाने पर इन्द्र ने उसके स्थान पर वैसी ही दूसरी आकृति की रचना कर दी थी, जिसे ऋषभदेव ने लक्ष्य कर लिया था और वह घटना उनके वैराग्य में निमित्त हुई ।
(३) ऋषभदेव वैराग्य और लोकान्तिक देवों द्वारा उनकी स्तुति करना ।
(४) ऋषभदेव द्वारा दीक्षा लेना और तपस्या करना ।
(५) ऋषभ को केवल ज्ञान की प्राप्ति ।
ऋषभ वैराग्य की उक्त घटना का विस्तृत एवं रोचक वर्णन आचार्य जिनसेन कृत आदि पुराण ( पर्व - १७) में प्राप्त होता है। महाराज ऋषभदेव एकदा जब अयोध्या में अपनी राजसभा में विराजमान थे तो इन्द्र ने उन्हें संसार से विरक्त करने के लिए इस घटना की योजना की थी, जिससे वह तपः साधना द्वारा केवल ज्ञान प्राप्त करके तीर्थङ्कर रूप में लोक कल्याण करें ।
- श्री वीरेन्द्रनाथ श्रीवास्तव
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मथरा संग्रहालय की कुषाणकालीन जैन मतियाँ
-श्री रमेशचन्द्र शर्मा, निदेशक, राजकीय संग्रहालय, मथुरा
जैन धर्म का मथुरा से धनिष्ठ सम्बन्ध रहा है । प्राचीन अंग-सूत्री में मथुरा का उल्लेख हुआ है । प्रज्ञापना सूत्र में २५ आर्य देशों में शूरसेन व मथरा का वर्णन है। पांचवीं शती के वसुदेव हिन्डी प्राकृत कथा-ग्रन्थ के श्यामा विजय लम्भक में कंस का आख्यान है।' निशीथ और ठाणांग में मथुरा की गणना भारत की १० प्रमुख राजधानियों में हई है । इसे अरहंत प्रतिष्ठित चिरकाल प्रतिष्ठित आदि उपाधियों से सम्मानित किया है। महापुराण के प्रणेता आचार्य जिनसेन के अनुसार भगवान ऋषभदेव के आदेश से इन्द्र ने जिन ५२ राज्यों की सृष्टि की थी उनमें शूरसेन भी था जिसकी राजधानी मथुरा थी। जैन हरिवंश पुराण में भी शूरसेन राज्य को भारत के १८ महाराज्यों में बताया है।
सातवें तीर्थकर सुपार्श्वनाथ जी के जीवन की कोई प्रसिद्ध घटना यहाँ अवश्य घटित प्रतीत होती है क्योंकि उसकी स्मति में एक प्रचीन स्तूप का निर्माण यहाँ हुआ था। चौदहवें तीर्थंकर अनन्तनाथ की पूजा में भी एक
ए जाने की किंवदन्ती है। जैन परम्परा के अनुसार अरिष्टनेमि (२२वें तीर्थंकर) श्रीकृष्ण के ताऊ समुद्र विजय के पुत्र थे। इनका राज्य शौरिपुर (बटेश्वर) जिला आगरा में था। कला में भी इस परम्परा......
। युग में ही मिल चुकी थी क्योंकि बलराम और श्रीकृष्ण के साथ नेमिनाथ की प्रतिमाएं मथुरा क्षेत्र में कुषाण युग से मध्य काल तक की मिलती हैं। सर्पफणों से आच्छादित अनेक प्रतिमाओं की उपलब्धि २३वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ जी का भी ब्रजभूमि से सम्बन्ध स्थापित करती है। अन्तिम तीर्थंकर वर्धमान महावीर ने भी व्रज में विहार किया और उनका समवसरण भी यहाँ आया। उस समय यहाँ का राजा उदितोदय अथवा भीदाम था जिसने भगवान महावीर से दीक्षा भी ली। आवश्यक-णि के अनुसार कंवल और शंवल नामक दो राजकुमार उनकी परिचर्या करते थे। नगर के प्रसिद्ध सेठ अर्हदास ने भी महावीर जी से दीक्षा ली।
जैन धर्म में मथुरा को आदर का स्थान मिलने का अन्य विशेष कारण अन्तिम केवली जम्बू स्वामि के कैवल्य लाभ के पश्चात मथुरा में अपने दिव्य उपदेशों से ब्रजवासियों को तृप्त करने तथा अन्ततः वहां निर्वाण लाभ करने की घटना है। उनके तप से पवित्र मथुरा की सिद्ध क्षेत्र के रूप में ख्याति हुई और आज भी नगर के पास चौरासी का जैन मन्दिर जम्बूस्वामी सिद्धक्षेत्र के नाम से विख्यात है। कवि राजमल्लकृत जम्बूस्वामी चरित में इसका विस्तृत वर्णन है । इस ग्रन्थ में अन्य मुनियों और सिद्धों को भी ब्रज क्षेत्र से सम्बन्धित किया है। आवश्यक चणि से ज्ञात होता है कि आर्यरक्षित ने मथुरा में भूत-गुहा नामक चैत्य में विहार किया था और आर्य मंग देह त्याग के अनंतर निद्धवण यक्ष बने थे।
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जैन आगमों को लिपिबद्ध करने के लिए प्रसिद्ध 'सरस्वती आन्दोलन' का सूत्रपात मथुरा से ही हुआ जो शनैः-शनैः समस्त भारत में व्याप्त हो गया। इसके फलस्वरूप प्रथम शताब्दी से ही ग्रन्थों का प्रणयन आरम्भ हो गया था और अब जैन साहित्य का विपुल भण्डार उपलब्ध है । चौथी शताब्दी में अंग साहित्य को सुव्यवस्थित करने के लिए आर्य स्कन्दिल की अध्यक्षता में यहां एक सभा हुई जिसे माथुरी वांचना कहते है ( नन्दी चूर्णी ) । वृहत् कल्पभाष्य में उल्लेख है कि ब्रज के ९६ गांवों में अर्हन्तों की मूर्तियां स्थापित की जाती थी और शुभ चिन्हों का अंकन होता था । इनसे भवनों को स्थायित्व प्राप्त होने की मान्यता थी । १४वीं शती में जिन सूरि कृत मथुरा पुरी कल्प में मथुरा का विशद माहात्म्य दिया है।'
साहित्यिक परम्पराओं से जैन धर्म में मथुरा के महत्वपूर्ण स्थान की जो सूचनाएं मिलती है, पुरातात्विक सामग्री भी उनका प्रबल समर्थन करती है। जैन धर्मावलम्बियों ने यहां स्तूप, चैत्य, विहार आदि बनवाए और मूर्तियां स्थापित की। नगर के निकट ही कंकाली टीला लगभग एक हजार वर्ष तक जैन धर्म का महत्वपूर्ण केन्द्र रहा। एक मूर्ति लेख के आधार पर तो डा० विन्सेन्ट स्मिथ ने मत व्यक्त किया है कि यहाँ ईसा से लगभग एक हजार वर्ष पूर्व स्तूप निर्माण का कार्य आरम्भ हो गया था क्योंकि जिस स्तूप को देवनिर्मित बताया है, परंपरा के अनुसार २३ वें तीर्थकर पार्श्वनाथ के समय उसकी मरम्मत भी हो गई थी । पार्श्वनाथ का समय ८०० ई० पू० के लगभग माना जाता है अतः मूल स्तूप का समय १००० ई० पू० मान लेना स्वाभाविक है और यदि इसे संगत माना जाय तो मथुरा में निर्मित स्तूप सिन्धु संस्कृति के पश्चात सबसे प्राचीन भवन था।
ख.
जैन मूर्तिकला का जो ऋमिक और व्यवस्थित रूप हमें मथुरा में मिलता है वह अन्यत्र नहीं । आरम्भ आयोग पटों से होता है जिसे जर्मन विद्वान बूलर पूजा- शिला मानते हैं। डा० वासुदेव शरण अग्रवाल का मत है कि आयाग शब्द आर्यक से निकला है जिसका अभिप्राय पूजनीय है। किसी संवत् के न मिलने से इनका ठीक समय बता सकना तो संभव नहीं है किन्तु शैली के आधार पर विद्वानों ने अपना मन्तव्य प्रकट किया है। बी०सी० भट्टाचार्य इन्हें कुषाण युग से पहले का मानते हैं। डा० लाउजन ५० ई० पू० से ५० ई० के बीच निर्धारित करती हैं । डा० अग्रवाल के अनुसार प्रथम शती ई० इनका उचित काल है । जब कि उपासना का माध्यम प्रतीक थे और देवताओं तथा महापुरुषों को मानव रूप में अंकित करने का अभियान भी चल पड़ा था। इनमें बहुत से शोभा चिन्ह उत्कीर्ण हैं और उपास्य देवता या महापुरुष का संकेत भी स्तूप, उपास्य का नाम मिल जाता है । साथ ही कुछ छोटी सी मानवाकृति आ गई है और उसके चारों
ये पूजा- शिलाएं उस संक्रमण काल की हैं।
धर्म, स्वस्तिक आदि प्रतीकों से ही हुआ है । कहीं-कहीं लेख में आयाग-पट ऐसे हैं जिनके बीच में प्रतीक के स्थान पर उपास्य की ओर बड़े-बड़े प्रतीक हैं।
आयाग पटों में जो शुभचिन्ह प्राप्त होते हैं वे अधिकांशतः ये हैं :- स्वस्तिक, दर्पण, पात्र या शराव संपुट (दो सकोरे ), भद्रासन, मत्स्य युगल, मंगल कलश और पुस्तक इन्हें अष्टमांगलिक चिन्ह कहते हैं। इनकी संख्या कम या अधिक भी रहती है और चिन्हों में अन्तर भी मिलता है जैसे श्रीवत्स, वैश्य या बोधिवृक्ष, विरत्न भी प्रायः चिन्हित पाये जाते हैं ।
जिन प्रतिमाओं की सामान्य विशेषताएँ : स्वतन्त्र जिनमूर्तियां ध्यान भाव में पद्मासनासीन अथवा दण्ड की तरह खड़ी जिसे कायोत्सर्ग रूप भी कहते हैं, इन दो रूपों में मिलती हैं । वक्ष पर श्रीवत्स का लांछन मथुरा 'की जैन मूर्तियों की प्रधान विशेषता है । आरम्भ में यह केवल खुदा रहता है और बाद में, मध्यकाल में, यह उभरा दीखता है। कायोत्सर्ग मुद्रा तीर्थकर के तप की पराकाष्ठा को व्यक्त करती है। प्राचीन जिन आकृतियां
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५०-ज़िन मूर्ति युक्त कुषाणकालीम
आयागपट, मथुरा
(रा० सं० लखनऊ)
५१-'नमो महावीरस्य'
लेखयुत धर्मचक्रांकित
कुषाणकालीन आयागपट,
रा० सं० मथुरा
TOG
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५२-अष्ट-जिनेन्द्र-स्तम्भ, इलाहाबाद, रा०सं०
लखनऊ
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ख - ६
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दिगम्बर अर्थात नग्न हैं। सिर या तो पूर्णतया सपाट है अथवा छोटे बाल भी हैं, आँखें गोल और खुली हैं, मुख पर कुछ स्मित भाव है । प्रभामण्डल का किनारा केवल हस्तिनख आकृति से उत्कीर्ण है । पैरों के तलवों और हथेलियों पर चक्र, त्रिरत्न आदि शोभा चिन्ह उत्कीर्ण रहते हैं जो उनके महापुरुष होने का संकेत देते हैं । जिन आकृतियां प्रायः सिंहासन पर आरूढ़ दिखाई गई हैं और सिंहाकृतियों के साथ उपासक उपासिकाएं, श्रावक-श्राविकाएं और लेख उत्कीर्ण होता है, जिसमें संवत, महीना, पक्ष, दिन, राजा का नाम और आचार्य आदि का परिचय भी मिलता है । कभी-कभी तीर्थंकर विशेष का नाम भी लिखा मिलता है अन्यथा २४ तीर्थकरों में से दो-तीन को छोड़ कर शेष को पहचानना संभव नहीं है । गुप्तोत्तर काल में तीर्थकरों की पहचान के लिए पृथक-पृथक चिन्हों को निर्धारित किया मिलता है । ।
मथुरा से प्राप्त जैन प्रतिमाएं अधिकांशतः राज्य संग्रहालय लखनऊ में सुरक्षित हैं । डा० फ्यूरर ने कंकाली टीले' के उत्खनन से मिली सभी कलाकृतियों को लखनऊ भेज दिया था। मथुरा संग्रहालय में जो जैन प्रतिमाएं हैं उनसे यह धारणा बनती है कि जैनधर्म के स्मारक कंकाली तक ही सीमित नहीं थे अपितु ब्रज में अन्यत्र भी उपासना स्थल थे । अवश्य ही कंकाली सर्व प्रधान केन्द्र था ।
मथुरा संग्रहालय में जैन कलाकृतियों की संख्या सौ से अधिक है और उनमें अधिकांश कुषाणयुगीन हैं । इनमें आयागपट, तीर्थंकर प्रतिमाएं, वास्तु अवशेष और मूर्तियों की अभिलिखित चरण-चौकियां, उपदेवता तथा श्रावक-श्राविकाओं की आकृतियां सम्मिलित हैं। यहां अधिक प्रमुख प्रतिमाओं का परिचय दिया जाता है ।
आयागपट्ट - मथुरा से प्राप्त अधिकतर आयागपट्ट लखनऊ संग्रहालय में और सिंहनादिक आयाग पट्ट दिल्ली संग्रहालय में है । मथुरा संग्रहालय में एक सम्पूर्ण, एक आधा और तीन भग्नांश हैं । ये प्रथम शताब्दी के आरम्भ से प्रथम शती ई० के अन्त तक के हैं ।
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क्यू० २–यह लगभग पूर्ण तथा सुरक्षित आयागपट्ट है । इसकी सबसे बड़ी विशेषता है कि इसमें स्तूप वास्तु का पूरा नकशा उत्कीर्ण है । तदनुसार ऊंची चौकी पर जाने के लिए सीढ़ियाँ हैं और तोरण है जिससे माला लटकती है। यहां से प्रथम वेदिका आरम्भ होती है । दोनों ओर स्तम्भों में से एक पर चक्र है और दूसरे पर सिंह । वेदिका के भीतर विशाल ऊंचा स्तूप दीखता है जिस पर दो ओर वेदिकाएं और शिखर पर भी एक छोटी वेदिका तथा छत्रावली है । स्तूप के नीचे के भाग में दो नर्तकियां हैं। उनसे ऊपर माला और पुष्पधारी सुपर्ण और सबसे ऊपर दो नग्न सिद्ध हैं जिनके हाथ में वस्त्र खण्ड है । स्तूप पर एक अभिलेख उत्कीर्ण है जिसके अनुसार गणिका लोण शोभिका की पुत्री गणिका वसुने सभा भवन, देविकुल, प्याऊ और शिलापट की स्थापना की। इसमें अर्हत वर्धमान अभिवादन किया गया है। देविकुल शब्द विवादास्पद है । लेख में इसे शिलापट कहा गया है ।
४८.३४२६ – इस आयागपट का आधे से अधिक भाग सुरक्षित है । केन्द्र में ऊँचे आसन में तीर्थंकर की आकृति है जिसके दोनों ओर उपासक भी हैं। तत्पश्चात मकर युग्म और पुष्प की इसके पश्चात हाथ जोड़े या माला लिए गन्धर्व युगल है और बीच में चैत्य वृक्ष, त्रिरत्न चिन्ह हैं। में भारवाही आवक्ष मानव आकृतियां हैं ।
१५.५६९ – यह आयागपट्ट का खण्डित भाग है जिसमें एक पट्टी में सपक्ष सिंह और दूसरी में हाथी की सूंड़ और टांगें हैं । बीच में चक्र के होने का अनुमान है। ( प्राप्ति स्थान : कंकाली टीला, मथुरा )
३३.२३१३ – यह भी आयाग पट्ट का भग्नावशेष है। अभिलेख में इसे अरहत की पूजा के निमित्त शिलापट बताया है ।
३५.२५६३ – इस अवशेष की विशेषता है कि इसमें संवत् २१ उत्कीर्ण है । यह कौन सा संवत् है इसका
पर ध्यान मुद्रा शोभा पट्टी है । ऊपर दो कोनों
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ठीक अनुमान लगाना कठिन है। यदि कुषाण संवत् मानें तो यह समय ९९ ई. आता है जो आयागपट्ट की परमरा को बहुत बाद तक प्रचलित सिद्ध करता है । (प्राप्ति स्थान : कठौती कुआ निकट मेंस बहोरा, मथुरा)।
सर्वतोमद्रिका प्रतिमाएं-संग्रहालय में कुछ ऐसी प्रतिमाएं हैं जो चौकोर स्तम्भ के समान हैं और उनमें चारों ओर तपस्या में तीन-चार जिन आकृतियां बनी हैं। इस प्रकार की मुद्रा दण्ड या कायोत्सर्ग नाम से प्रसिद्ध है। मूतियों को सर्वतोभद्र, सर्वतोमंगल या लोक भाषा में चौमुखी कहते हैं। इनमें प्रदर्शित तीर्थंकरों में से आदिनाथ को कन्धों तक लटकती जटाओं से और सुपार्श्व या पार्श्वनाथ कों सर्पफण की छतरी से पहचाना जा सकता है। अन्य दो कौन हैं यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता, किन्तु अनुमान है कि इनमें से एक वर्धमान या महावीर अवश्य होने चाहिए क्योंकि प्राप्त अभिलिखित मूर्तियों से ज्ञात होता है कि भगवान् महावीर ब्रज में अधिक लोक प्रिय थे । चौथे के बारे में अनुमान लगाना कठिन है। सभी के वक्ष पर श्रीवत्स का चिह्न अंकित रहता है। नीचे उपासकों में कुछ उदीच्य वेष में बटनदार लम्बा कोट और जूते पहने हुए भी हैं (बी० ६७)। संभव है ये जैनधर्म के अनुयायी शक पुरुष हों। ऐसी मूर्तियों के ऊपर गोल अथवा चौकोर छेद रहता है और नीचे खूटी निकली रहती है जिससे यह प्रकट है कि ये किसी वास्तु स्तूप, चैत्य या देवालय का भाग थीं और इन्हें इस प्रकार व्यवस्थित किया जाता था कि भक्त जन इनका चारों ओर से दर्शन और परिक्रमा कर सकें। चौमुखी मूर्तियों में सबसे प्राचीन है मूर्ति बी० ७१ जिसके अभिलेख के अनुसार सं०५ में इसकी प्रतिष्ठा हुई। यह समय ८३ ई० आता है।" संग्रहालय की मूर्ति सं० बी०६७, बी०६८, बी० ७२ और ४५.३२०९ भी उल्लेखनीय है। मूर्ति सं० १२.२७६ चौमुखी का अधोभाग है जिसके अभिलेख से ज्ञात होता है कि इसे ऋषिदास की प्रेरणा पर अभिसारिक के भटिदाम ने स्थापित कराया। अभिसारक को पेशावर के पास हजारा बताया है । अनुमान है कि मट्टिदामन कोई विदेशी था जिसने मथरा आकर जैन धर्म स्वीकार किया। यह मूर्ति खण्ड भूतेश्वर से मिला।
तीर्थंकर-मथुरा जैसे विशाल कला केन्द्र और प्रसिद्ध जैन स्थल में प्रायः सभी तीर्थकरों की उपासना होती होंगी और उनकी मूर्तियां स्थापित हुई होंगी। किन्तु जैसा कि संकेत दिया जा चुका है चिह्न अथवा अभिलेख के अभाव में यह निश्चित रूप से कहना कठिन है कि वे समस्त मृतियां किस-किस का प्रतिनिधित्व करती हैं तथापि चरण चौकियों के लेख हमें प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथ, पांचवे तीर्थकर सुमतिनाथ तथा २४वें तीर्थंकर वर्धमान महावीर का परिचय देते हैं । वर्धमान का उल्लेख अधिक है। इनके अतिरिक्त सातवें तीर्थंकर सुपार्श्व और तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ को सर्वफणों की छतरी और २२वें तीर्थकर नेमिनाथ को बलराम तथा कृष्ण की आकृतियों के साथ पहचान संकते हैं। मथुरा संग्रहालय की निश्चित संवत् से अंकित प्रतिमाओं में कुषाण संवत् ५ (८३ ई०) की चौमखी मति बी० ७१ सबसे प्राचीन है। सामान्य जिन प्रतिमाओं में प्राचीन है कनिष्क के संवत १७ अर्थात ९५ ई० की चरण चौकी (सं० ५८.३३८५) और सबसे बाद की है संवत् ९२ अर्थात् १७० ई० की वासुदेव के शासनकाल की।
संवत सहित जिन प्रतिमाएं-४८.३३८५-यह जिन प्रतिमा की चौकी है जिसमें बने चरणों से आभास मिलता है कि मूर्ति खड़ी होगी। बीच में धर्मचक्र बना है जिसके एक और बाएं हाथ पर वस्त्र खण्ड लिए जैन मुनि है। इसके पीछे तीन पुरुष उपासक हैं। अन्तिम व्यक्ति परिधान से शक प्रतीत होता है। चक्र के दूसरी ओर तीन महिला उपासिकाएं माला और पुष्प लिए हैं। अभिलेख का भाव है कि देवपुत्र शाहि कनिष्क के १७वें वर्ष के शीत ऋतु के दूसरे महीने के २५वें दिन कोट्टियगण की बईरा शाखा के सांतिनिक कुल की कोशिकी गहरक्षिता की प्रेरणा पर इस प्रतिमा की स्थापना हई (प्राप्ति स्थान : चौबिया पाड़ा मथुरा)।
१४.३९६-जिन चरणचौकी का भाग जिसके अभिलेख से सूचना मिलती है कि यह कनिष्क के समय स्थापित हुई (प्राप्ति स्थान : कंकाली टीला, मथुरा)।
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१९.१५६५-यह भी चरणचौकी का भाग है जो सं० ३३ (१११ ई०)का है। यह हुविष्क का समय था (प्राप्ति स्थान : मुहल्ला रानीपुरा, मथुरा)।
बी० २९-चरणचौकी जिस पर ध्यानस्थ जिन की टांगें भी हैं । नीचे धर्मचक्र और उपासक हैं । अभिलेख से सूचना मिलती है कि सं० ५० में महाराज देवपुत्र हुविष्क अर्थात् १२८ ई० में इसकी स्थापना हुई।
४५.३२०८-जिन चरणचौकी का आधार जिसमें धर्मचक्र और उपासक हैं। यह संवत् ८२ (१६० ई.) की है जो वासुदेव के राज्य का है। इसमें तीर्थंकर का नाम वर्धमान दिया है।
बी० २–यह ध्यान भाव में बैठे जिन की प्रतिमा है, सिर और बायां हाथ लुप्त है । वक्ष पर श्रीवत्स का जिह्न है। हथेली और पैरों के तलवों पर भी शोभा लक्षण बने हैं। नीचे अभिलेख से ज्ञात होता है कि महाराज वासुदेव के राज्यकाल में सं० ८३ अर्थात् १६१ ई० में जिनदासी ने इस प्रतिमा की प्रतिष्ठा कराई। जिनदासी सेन की पुत्री, दत्त की पुत्रवधू और गन्धी व्य..... च की पत्नी थी। (प्रांप्ति स्थान : संभवतः कंकाली टीला, मथुरा)
बी० ३—यह प्रतिमा भी लगभग पूर्वोक्त की भांति ही है और संवत् भी वही है । (प्राप्ति स्थान : संभवतः कंकाली टीला, मथुरा)।
बी० ४—यह मूर्ति महत्वपूर्ण इसलिए है कि इसमें तीर्थंकर का नाम ऋषभनाथ दिया है। तीर्थंकर ध्यान भाव में आसीन हैं, सिर और भुजा लुप्त है, हस्तिनख प्रणाली से उत्कीर्ण प्रभामण्डल का कुछ भाग शेष है। वक्ष पर श्री वत्स का चिह्न है तथा हथेली और तलवों पर महापुरुष लक्षण सुशोभित हैं। चरणचौकी पर धर्मचक्र और १० पुरुष व स्त्री उपासक हैं। लेख के अनुसार भगवान् अर्हत ऋषभदेव की इस प्रतिमा की प्रतिष्ठा महाराज राजाधिराज देवपुत्र शाही वासुदेव के राज्यकाल सं० ८४ अर्थात् १६२ ई० में कुमारदत्त की प्रेरणा से भटदत्त उगभिनक की पुत्रबधू...' ने कराई । (प्राप्ति स्थान : बलभद्र कुण्ड, मथुरा)।
१४.४९०-यह मूर्ति वर्धमान् महावीर की है किन्तु केवल अवशिष्ट टांगों और पैरों से ध्यान भाव का भान होता है। नीचे चौकी पर धर्मचक्र और उपासक हैं। अभिलेख के अनुसार वर्धमान की यह प्रतिमा कोट्टिय गण के धरवद्धि और सत्यसेन के परामर्श पर दमित की पुत्री ओखारिका ने सं०६४ (१६२ ई०) में प्रतिष्ठित कराई। मति का महत्व तीर्थंकर के नाम से बढ़ जाता । ओखारिका नाम भी उल्लेखनीय है जो सं० २९९ की एक अन्य मूर्ति में भी मिलता है। इस पर विद्वानों ने अनेक मत व्यक्त किये हैं १२ (प्राप्ति स्थान : कंकाली टीला, मथरा)
बी०५-ध्यानस्थ सिर तथा बाहविहीन तीर्थंकर जो सिंहासन पर पूर्वोक्त प्रतिमाओं के समान विराजमान है। इसे सं० ९० (१६८ ई०) में दिन की बधु कुटुम्बिनी ने कोट्टिय गण के पवहक कल की मझम शाखा के सैनिक भट्टिबल की प्रेरणा से स्थापित किया । यह वासुदेव का राज्यकाल था। (प्राप्ति स्थान : मथुरा)
४६.३२२३—संवत् ९२ अर्थात् १७० ई० में स्थापित वर्धमान् महावीर की मूर्ति का यह भग्नांश है जिस पर धर्मचक्र और उपसकों की आकृतियां बनी हैं। अभिलेख अपूर्ण है। यह वासुदेव का शासन काल था क्योंकि उसके समय के संवत् ९८ (१७६ ई०) तक की जानकारी हमें अन्य अभिलेख से मिलती है (प्राप्ति स्थानः मोक्ष गली, मथुरा)।
संवत् रहित अमिलिखित जिन प्रतिमाएं-संवत् तथा तिथि से अंकित इन प्रतिमाओं के अतिरिक्त काल अन्य तीर्थंकर प्रतिमाएं भी महत्वपूर्ण हैं और इनमें से कुछ में तीर्थंकरों के नाम भी दिए हैं।
४७.३३३३-यह चरण चौकी का अंश मात्र है जिसमें सिंहासन के शेर का मुख और एक महिला उपासिका का मुख है । लेख से सूचना मिलती है कि सोमगुप्त की पुत्री (?) मित्रा ने भगवान सुमतिनाथ की मूर्ति स्थापित की। इस प्रकार ५वें तीर्थंकर सुमतिनाथ की मथुरा में उपासना का एक प्रबल प्रमाण मिल जाता है। संवत् स्पष्ट
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नहीं है लेकिन जो पढ़ा जा सका है उससे सं० ८४ की संभावना अधिक है । ( प्राप्ति स्थान कटरा केशव देव, मथुरा) ।
बी० १८ वर्धमान की छोटी प्रतिमा जिसमें वह सिहासन पर ध्यान मुद्रा में आसीन है, केवल टांगें और हाथ अवशिष्ट हैं । स्तम्भ पर रखे धर्मचक्र की दो पुरुष और दो महिला उपासक पूजा कर रहे हैं और नीचे उत्कीर्ण लेख के अनुसार कोट्टिय गण और बच्छलिक कुल के चोट ने ऋषिदास के साथ वर्धमान् की प्रतिमा स्थापित की। ( प्राप्ति स्थान माता मठ, होली दरवाजा, मथुरा )
बच्छलज्ज कुल का उल्लेख कंकाली से प्राप्त अन्य जैन अभिलेख में भी हुआ है। यह अब लखनऊ संग्र
हालय में है ।
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३२.२१२६ - यह भी तीर्थंकर प्रतिमा की चरणचोकी का अंश मात्र है जिस पर चार पंक्तियों का छोटा अखिलेख है । इसके अनुसार वर्धमान की इस प्रतिमा की प्रतिष्ठा दल की पत्नी, धर्मदेव की पुत्री ने भवदेव के लिए कराई (प्राप्ति स्थान यमुना, मथुरा ) |
अन्य जिन प्रतिमाएं — कुछ ऐसी भी तीर्थंकर प्रतिमाएं हैं जिसमें न तो संवत् या शासक का नाम है और न तीर्थंकर का ही नाम है, फिर भी कला और मूर्ति शास्त्र की दृष्टि से उनका स्वतन्त्र महत्व है।
बी० १२ पद्मासन में ध्यान भाव में आसीन शिरविहीन जिन प्रतिमा चरणचौकी सिंहासन का रूप लिए है जिस पर पुरुष, स्त्री और बाल उपासक हैं। इसी से मिलती-जुलती प्रतिमा बी० ६३ है । बी० ३७ यह तीर्थंकर की आवक्ष प्रतिमा है। प्रभामण्डल के चिह्न नहीं है शिर पर छोटे घुंघराले बाल हैं ।
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१५.४६६ यह भी तीर्थंकर की आवक्ष प्रतिमा है। प्रभामण्डल का जो भाग अवशिष्ट है उससे ज्ञात होता है कि यह पर्याप्त विकसित था जिसमें हस्तिनख प्रणाली के अतिरिक्त पूर्ण कमल और एकावली भी है अतः इसे कुषाण और गुप्त काल के बीच का माना जा सकता है।
बी० ३२ सिर तथा पैर विहीन तीर्थंकर की बड़ी प्रतिमा जिसमें नीचे चंवर लिये दो पार्श्वचर भी बने हैं।
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अन्य मूर्ति बी० ३५ भी इसी प्रकार की है किन्तु पार्श्वचर नहीं हैं।
बी० ६२ - सर्वफणों से आच्छादित पट्ट २३वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ की आवक्ष प्रतिमा है । प्रत्येक सर्पफण पर भिन्न शोभा प्रतीकों का अंकन इसकी मुख्य विशेषता है ये चिह्न हैं । स्वस्तिक, शराव सम्पुट, श्रीवत्स, त्रिरत्न, पूर्णघट तथा मीन मिथुन ।
नेमिनाथ यह स्पष्ट किया जा चुका है कि २२वें तीर्थंकर नेमिनाथ को श्रीकृष्ण के ताऊ समुद्रविजय का पुत्र माना जाता है और इस जैन परम्परा का अंकन कुषाण काल से ही मिलता है । संग्रहालय में कुछ ऐसी मूर्तियां हैं जिनमें नेमिनाथ बीच में ध्यान भाव में आसीन हैं और उनके एक और सर्पफणों की छतरी से युक्त बलराम और दूसरी ओर कृष्ण खड़े हैं। कालान्तर में तो बलराम के आयुध और मुद्राएं और भी स्पष्ट हो गए हैं। कुषाण युगीन एक प्रतिमा (३४.२४८८ ) में ध्यान मुद्रा में आसीन जिन के मस्तक के पीछे हस्तिनख प्रणाली का प्रभा मण्डल है । मूर्ति के दाहिनी ओर सर्पफणों से युक्त बलराम हैं और बाईं ओर मुकुट पहने श्रीकृष्ण, ऊपर एक कोने पर मालाधारी गन्धर्व है। अन्य मूर्ति ( ३४.२५०२ ) में मध्य में आवक्ष नेमिनाथ के दाहिनी और सात सर्पफणधारी चर्तुभुजी बलराम हैं जिनके ऊपर के बाएं हाथ मुख्य पहचान है। बाई ओर श्रीकृष्ण को विष्णु रूप में दिखाया है जिनके चार भुजा हैं, ऊपर के दाहिने हाथ में लम्बी गदा है, एक बाएं हाथ में चक्र है, अन्य दो हाथ अप्राप्य हैं। ऊपर दोनों कोनों में उड़ते विद्याधर हैं। यह प्रतिमा कृषाण काल के अन्त और गुप्त युग के आरम्भ की प्रतीत होती है।
में हल है जो बलराम की
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५३-कृष्ण-बलराम सहित नेमिनाथ, कंकाली टीला मथुरा
(रा० सं० लखनऊ)
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५४-तीर्थङ्कर नेमिनाथ के पार्श्व में कृष्ण एवं बलराम, कंकाली टीला मथुरा
(रा. सं० लखनऊ)
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[ १२५
नैगमेश प्रतिमाएं-- अजमुखी मानव आकृतियां कुषाण काल में लोकप्रिय थीं। जैन परम्परा में ये नेगमेश का प्रतिनिधित्व करती हैं जो बच्चों के रक्षक देवता हैं और शिशु जन्म से इनका अधिक सम्बन्ध था। इनके साथ कुछ बच्चे भी बनाए जाते हैं । संग्रहालय की मूर्तियाँ ई० १,१५,१११५, ३४.२४८२ और ३४.२५४७ उल्लेखनीय हैं।
संग्रहालय में कुषाणकालीन अनेक जैन प्रतिमाओं के मस्तक भी सुरक्षित हैं।" १-अगरचन्द नाहटा संदर्भ-, ब्रज भारती वर्ष ११ सं० २ २-Dr. J. P. Jain, The Jain a Sources of the History of Ancient India, ch. VI ३–ब्रजभारती वर्ष १२ अंक २ पृ० १८-१९ ४-Tho Jain Stup a and other antipuities of Mathura, 1901, Introduction l.e. I ५–डा. हीरा लाल जैन, भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान, पु० ३४२ ६-विभिन्न विद्वानों के संक्षिप्त विचार के लिए लेखक का निबन्ध 'Early phase of Jain Iconography',
Chhote Lal Commemoration Vol. Cal. p. 59-60 देखें ७-R.C. Sharma, Mathura Museum Introductiनn l.e. 25 ८-कंकाली पर विस्तृत लेख के लिए लेखक की पुस्तिका 'मथुरा का जैन तीर्थ कंकाली' देखें ९-रविषेणाचार्य कृत पद्म पुराण ३।२८८, सन्दर्भ ५ पृ० ३४४ १०-पार्श्वनाथ की धरणेन्द्र नाग द्वारा सेवा समन्तभद्र के स्वयंभूस्तोत्र में इंगित है, सन्दर्भ ५ पृ० ३४४ ११-कुषाण संवत् के बारे में मतैक्य नहीं है। रोजन फील्ड इस मूर्ति को दूसरी कोटि में रखते हैं जिसमें दूसरा
कुषाण संवत् प्रयुक्त है The Dynastic Art of the Kushanas, पृ० २७०-७१ १२-R.C. Sharma, Jain sculptures of the Gupta Age in the State Museum, Lucknow,
Mahavir Jain Vidyalaya Bombay Golden Jubilee Volume Part I P. 146 १३-संग्रहालय में १९४० से पूर्व तक अधिग्रहीत जैन प्रतिमाएं डा. वासुदेव शरण अग्रवाल के J. U. P. H. S.
1950 में प्रकाशित सूची पन में दी हैं।
मा
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उत्तर भारत के तीन प्राचीन तीर्थ
-मुनि जयानन्द विजय
युग-युगों से आर्य, धर्मानुष्ठानों में जागरुक रहे हैं, अनार्य नहीं। अनार्यों ने जिसे उखाड़ा है, आर्यों ने उसे बसाया है। यहां बस जाने के कारण शायद यह भारत आर्यावर्त के नाम से इतिहास में अभिहित हुआ हो । आर्य सभी जातियों के साथ हिलमिल कर चलते थे तभी आज यह आर्यावर्त अनेक धर्मों का स्थान बना हुआ है । पवित्र पूजनीय स्थानों का, तीर्थों का केन्द्र बना हुआ है । तीर्थ दो विभागों में विभक्त है-पहला स्थावर तीर्थ तथा दूसरा जंगम तीर्थ । सर्व प्रथम तीर्थ जंगम होते थे, उनकी अनुपस्थिति में स्थावर तीर्थों का निर्माण हुआ, जिसमें उत्तर भारत भी अछूता न रहा ।
बाराणसी
वैदिक साहित्य के कथनानुसार वारणा और असि नदी के बीच में महर्षि भरद्वाज की प्रेरणा से महाराजा दिवोदास ने वाराणसी की स्थापना की। तत्पश्चात यह नगरी संस्कृति की सुप्रतिष्ठित स्थली बनी। इस नगरी में श्रमण संस्कृति एवं वैदिक संस्कृति का वर्चस्व युग-युगों तक रहा । फिर गंगा नदी भारत की पूण्यतोया सरिता मानी गई। उसका महात्म्य किस से अज्ञात रहा है । इसी धरा पर श्री पार्श्वनाथ स्वामी के तीन (च्यवन, जन्म तथा दीक्षा) कल्याणक हए थे । श्रमण भगवान श्री महावीर के समान काशीनरेश महाराजा अश्वसेन की महारानी बामा देवी के नन्द श्री पार्श्व कुमार का यौवनकाल संदिग्ध है । उभय के पाणिग्रहण की विडम्बनाएँ परम्पराओं में विकीर्ण हैं, परम्परा अर्थात प्रमणा । भगवान के जीवन चित्रण करने वाले अक्षर चञ्चु उनकी जीवन घटनाओं से अपरिचित थे या भावावेग के कारण वह घटनाएँ उनसे अछूती रह गईं, अथवा लोक प्रवाद में प्रचलित लोक कथाओं का चित्रण किया गया हो, तथा लिखने के बाद उसे पूनः देख न पाये हों ? कालान्तर में वही उन्हीं को बांट कर बैठ गये । भगवान बटें नहीं, भगवान का जीवन बट गया। बिना साहित्य के आज दिन कोई बंटा नहीं साहित्य परम्पराओं के अंकुर को समाये बैठा है। चरित्रों में श्री पावकुमार को विवाहित माना गया है। पाणिग्रहण के लिए कुशलस्थल (कन्नौज) प्रदेश में जाने पर वहाँ कलिंगादि देशों के यवनों ने संघर्ष की ठानी। राज कुमार पार्श्व की ललकार के समक्ष सभी यवन विनीत हो गये और परस्पर मैत्री सम्बन्ध स्थापित किया । इत्यादि घटनाएँ चरित्रों में उल्लिखित हैं परन्तु मल में तो इन्हें कुमार नाम से पाया जाता है। राज्य भार वहन न करने पर इन्हें कुमार मान लिया गया हो तो यह बात असंदिग्ध है। कुमाराणामराजभावेन वास कुमार वास ।।
-स्थाणाङ्गसूत्र ठाणा ५ उद्देश्य ३
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[ १२७ कौशाम्बी
आचार्य पदलिप्त सूरि ने अपनी "तरंगवती" कथा में कौशाम्बी के प्राकृतिक प्रकरणों का एवं सांस्कृतिक सुषमाओं का जो दिग्दर्शन किया है वह खूब ही हृदयग्राही है। धर्म और वैभव से समृद्ध इस नगरी में जो श्रमण संस्कृति का अलौकिक वर्णन चित्रित किया है वह कथनातीत है। प्रागैतिहासिक काल में कौशाम्बी वत्स देश की राजधानी मानी जाती थी परन्तु समयानुसार सीमा विभाजन के कारण अधुना उत्तर प्रदेश में मानी जाती है। कौशाम्बी इलाहाबाद से दक्षिण और पश्चिम में इकत्तीस मील की दूरी पर कोसम नाम से बसी हुई है। कौशाम्बी शाखा की उत्पत्ति इसी स्थान से हुई । श्रमण भगवान, महावीर के छद्मस्थ बेला में सूर्य-चन्द्र मूल विमान में दर्शनार्थ आये। श्री शीतलनाथ स्वामी के तीर्थकाल में हरिवंश की उत्पत्ति, एवं पांच मास पचीस दिन के अनशन का पारणा श्री महावीर स्वामी का धनदत्त सेठ के घर पर रही हई चन्दना दासी के हाथ से इसी नगरी में सम्पन्न हुआ।
हस्तिनापुर
इन्द्रप्रस्थ-हस्तिनापुर-यह हस्तिनापुर के भौगौलिक राजनैतिक अभिधान क्रमों का क्रमिक संस्थान है। पाण्डवों के पूर्ववर्ती राजा महाराजाओं का हस्तिपुर से गाढ सम्बन्ध रहा है । जिन सम्बन्धों में भगवान श्री ऋषभ देव का आगमन एक धर्ममय इतिहास की श्रद्धेय घटना है। भगवान श्री ऋषभदेव स्वामीजी का श्रेयांस के हाथों से वार्षिक तप का पारणा होना । वह दिन आज भी अक्षय तृतीया के नाम से समाज प्रतिष्ठित है, तथा श्री शान्ति नाथ जी, श्री कुन्थुनाथ जी एवं श्री अरनाथ जी के चार (च्यवन, जन्म, दीक्षा तथा केवलज्ञान) कल्याणक इसी नगरी में हुये।
स्वतन्त्रता संग्राम में उत्तर प्रदेश के जैनों का योगदान
-बा० रतनलाल जैन, वकील बिजनौर
महात्मा गांधी ने भारतवर्षीय कांग्रेस की बागडोर सन १९१८ में सम्भाली । उनके नेतृत्व में अहमदाबाद के कांग्रेस अधिवेशन ने सन् १९२० में अंग्रेजी साम्राज्य के विरुद्ध अहिंसात्मक सत्याग्रह करने का निश्चय किया। सन १९२१ में चौरीचौरा में सत्याग्रह का हिंसा का रूप धारण कर लेने पर सत्याग्रह को रोक दिया। सन १९३० में नमक सत्याग्रह को सफलतापूर्वक चलाया जिसके फलस्वरूप मार्च १९३१ में गांधी-इरविन पैक्ट हुआ। सन १९३२ में अंग्रेजी शासन ने सत्याग्रहियों को कुचलने की दृष्टि से कांग्रेसियों की धर पकड़ व घर में बन्द रहने के आदेश जारी किये। कांग्रेसियों ने सत्याग्रह जारी किया जोसन १९३६तक चलता रहा ।
महात्मा गांधी ने १९४० में वैयक्तिक व १९४२ में 'मारत छोड़ो' सत्याग्रह चलाये ।
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१२८ ]
ख - ६
जैन समाज यद्यपि संख्या में कम है परन्तु वह एक प्रभावशाली व्यापारिक समाज भारतवर्ष व उत्तर प्रदेश में है। उसने खुलकर पूरे उत्साह के साथ स्वतन्त्रता संग्राम में भाग भारतवर्ष व उत्तर प्रदेश में लिया।
उदाहरण के तौर पर उत्तर प्रदेश का बिजनौर जनपद लीजिए। उसकी जनसंख्या सत्याग्रहों के समय १० लाख थी और जैन समाज की केवल डेढ़ हजार थी। बिजनौर जनपद में कारावास जाने वाले लगभग १ हजार थे जो अनुपात से १ हजार में एक आता है। जबकि जैन सत्याग्रहियों की संख्या लगभग २५ थी जो अनुपात से १ हजार में १६ आते हैं।
बिजनौर जनपद के सत्याग्रहों का संचालन करने वाले भी रतन लाल जैन व श्री नेमिशरण जैन थे जिन्होंने वकालत छोड़कर कांग्रेस के कार्य को संभाला था ।
उसी प्रकार निकटवर्ती मेरठ मंडल के सहारनपुर, मुजफ्फरनगर, मेरठ आदि के जैनों ने— जहाँ वे काफी संख्या में हैं पूरे उत्साह से भाग लिया। सहारनपुर के भी अजितप्रसाद जैन (जो केन्द्रीय मंत्री रहे), मुजफ्फरनगर के श्री सुमतप्रसाद जैन मुख्य संचालक अपने-अपने जिलों के रहे। इन जनपदों में जैन बड़ी संख्या में सत्याग्रह में भाग लेकर कारावास गये । यही दशा आगरा मंडल की है। उस मंडल में भी ज़ैन काफी संख्या में सत्याग्रह में भाग लेकर कारावास गये । प्रमुख सत्याग्रहियों में सेठ अचलसिंह जैन एम०पी० का नाम विशेष उल्लेखनीय है । बुन्देलखंड के ललितपुर जनपद कानपुर, बनारस आदि नगरों में भी जैनों ने काफी भाग लिया। बनारस में श्रीखुशाल चन्द गोरावाले का नाम विशेष उल्लेखनीय है ।
महात्मा गांधी ने जिनको इंग्लैंड जाते हुये उनकी माता ने एक जैन साधु के द्वारा मांस व मंदिरा के प्रयोग न करने के नियम दिलाये थे-- जिनके कारण गांधी जी के जीवन में क्रान्ति हुई और पाश्चात्य संस्कृति थोथी व हेय दीखने लगी अहिंसात्मक सत्याग्रह का अविष्कार किया अहिंसात्मक सत्याग्रह अब तक धार्मिक क्षेत्र में सीमित था । खासकर साधु जीवन में तपस्या करते हुये उन पर जब मनुष्य या पशु द्वारा आक्रमण होता था, उसका शन्ति पूर्वक, मन को बिना विचलित हुये सहन करते थे, जिसमें कभी-कभी प्राण भी देने पड़ते थे । जैन धर्म के द्वारा अहिंसा सिद्धांत से प्रेरित होकर गांधीजी ने अहिंसात्मक सत्याग्रह राजनैतिक क्षेत्र में अंग्रेजी साम्राज्य के विरुद्ध सफलता पूर्वक चलाया। अहिंसात्मक सत्याग्रह आध्यात्मिक अस्त्र है। उसके प्रयोग से भारत जनता, जो कितनी ही शताब्दियों से दूसरों के आधीन रही थी और जो डरपोक व साहसहीन हो गई थी, उसमें उस सत्याग्रह से जीवन व आत्म स्फूर्ति आ गई। आत्म विश्वास के साथ अंग्रेजी शासन का वीरता के साथ मुकाबला किया 1
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जैन समाज जो कभी भारत का मुख्य समाज रही है, जिसने भारतीय संस्कृति को अपने अहिंसा व अनेकान्त सिद्धांतों पर आधारित भावनाओं से प्रभावित किया, जिसके कारण भारतवर्ष में भिन्न-भिन्न धर्मानुयायी व जातियां एक साथ प्रेमपूर्वक रहती हैं और अपने अपने इष्टदेवों की उपासना अपने ढंग से करती हैं, इस प्रेमपूर्वक साथ-साथ रहने का श्रेय जैन समाज को है ।
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जैन समाज जिसका ह्रास मुसलिम शासन के मारकाट युग में बड़ी तेजी से हुआ, जैन क्षत्रीय जो लाखों की संख्या में ये मांसाहारी बनकर साधारण हिन्दु समाज में मिल गये । बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ से ही जैन समाज में उत्थान की भावना उत्पन्न हुई। महात्मा गांधी के अहिंसात्मक सत्याग्रह ने जैन समाज में निर्भीकता, आत्म विश्वास की भावना जागृत की जिस कारण भा०दि० जैन पारिषद ने अर्न्तजातीय विवाह, दस्से जैनों को पूजा के अधिकार, श्रद्धायुक्त हरिजनों का मंदिर प्रवेश आदि प्रस्तावों के पास करने व कार्यान्वित करने से जैन सामाज में नया जीवन व स्फुर्ति उत्पन्न कर दी।
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Pue-G
खण्ड
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श्री महावीर निर्वाण समिति, उत्तर प्रदेश:
:-गठन, कार्यकलाप एवं उपलब्धियां:
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HEROEMEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEET
ACT
तर
सरकार
विधान भवन,
लखनऊ दिनांक नवम्बर २, १९७५
मुझे जानकर बड़ा हर्ष हआ कि श्री महावीर निर्वाण समिति, उत्तर प्रदेश, भगवान महावीर के एक बृहद् स्मृति ग्रन्थ का प्रकाशन कर रही है।
HEERIEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEERIAL
भारत में समय-समय पर ऐसे युग पुरुषों ने जन्म लिया है जिन्होने अपने देश में ही नहीं वरन् संसार में विचारों की क्रान्ति उत्पन्न कर दी। भगवान महावीर भी भारत की उन महान विभूतियों में से एक हैं जो न केवल एक महान विचारक और विद्वान थे परन्तु वे विश्व शान्ति के अग्रदूत भी थे। इस महापुरुष की वैयक्तिक, सामाजिक एवं दार्शनिक विचारधारा के साथ आध्यात्मिक विचारधारा का विश्लेषण इस प्रमाण का प्रतीक है कि उन्होंने संसार की सम्पूर्ण समस्याओं को सुलझाने के लिए अध्यात्म जगत का सूक्ष्म निरीक्षण कर सांसारिक व्यथाओं में फंसे प्राणी के समक्ष एक सच्चा सीधा मार्ग उपस्थित किया है। उनके त्यागपूर्ण जीवन और सिद्धांतों का अनुसरण हमारे समाज को एक नया जीवन दे सकता है।
AAAAAAAAEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE
मैं राज्य समिति के इस प्रयास की सफलता की कामना करता हूं।
-जगदीश शरण अग्रवाल
स्वायत शासान मंत्री, उ०प्र०
AAAAAAAAAAAEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEED
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श्री महावीर निर्माण समिति, उत्तर प्रदेश
कार्य-कलाप एवं उपलब्धियाँ
भारत सरकार के शिक्षा एवं समाज कल्याण मंत्रालय के उपमंत्री श्री डी० पी० यादव ने प्रदेश के तत्कालीन मुख्य मंत्री जी को अपने पत्र दिनांक ३ मई, १९७३ में लिखा था कि भगवान महावीर स्वामी की २५००वीं निर्वाण तिथि, जो १३ नवम्बर, १९७४ को पड़ेगी, राष्ट्रीय स्तर पर मनाई जायेगी तथा निर्वाण जयन्ती समारोह का कार्यक्रम बनाने एवं समारोह का आयोजन करने हेतु प्रधान मंत्री जी की अध्यक्षता में एक राष्ट्रीय समिति का गठन किया गया है, तथा समारोह को राष्ट्रीय स्तर पर मनाये जाने वाले विभिन्न कार्यक्रमों पर केन्द्रीय सरकार द्वारा दिल्ली में वनस्थली (जहां कि भगवान महावीर का एक भव्य स्मारक बनाया जायेगा) के भूमि की मूल्य के अतिरिक्त ५० लाख रु० के व्यय करने का निर्णय लिया गया है।
२. उपरोक्त पत्र में भारत सरकार के उपमंत्रीजी ने यह भी अनुरोध किया था कि राज्य स्तर पर मनाये जाने के लिये राज्य सरकार द्वारा भी एक समिति का गठन कर दिया जाय, जो निर्वाण जयन्ती समारोह का समूचित कार्यक्रम निर्धारित करके उसके संपादन की व्यवस्था का भी प्रबन्ध करे।।
३, उपरोक्त पत्र की प्राप्ति के पूर्व ही अध्यात्म योगी मुनि श्री महेन्द्र कुमार जी (प्रथम) की प्रेरणा पर राज्य सरकार ने भगवान महावीर के २५०० वें निर्वाण जयन्ती समारोह के मनाये जाने हेतु राज्य स्तर पर एक समिति का गठन शासन की विज्ञप्ति सं० १२१५७२ रा. एकी० दिनांक १२ मई १९७२ के द्वारा प्रदेश के मुख्यमंत्री जी की अध्यक्षता में निम्न प्रकार कर दिया था :
संरक्षक
महामहिम राज्यपाल, उत्तर प्रदेश अध्यक्ष
माननीय मुख्यमंत्री, उत्तर प्रदेश कार्याध्यक्ष
माननीय डा० रामजी लाल सहायक, उच्च शिक्षा मंत्री, उ० प्र० उपाध्यक्ष
श्री लक्ष्मी रमण आचार्य सचिव
सचिव, शिक्षा विभाग, उत्तर प्रदेश उप सचिव
श्री अजित प्रसाद जैन, उप सचिव, वित्त विभाग, उत्तर प्रदेश सदस्य १. माननीय श्री वीरेन्द्र स्वरूप, सभापति, विधान परिषद २. माननीय श्रीमती राजेन्द्र कुमारी बाजपेई, मंत्री खाद्य एवं रसद, उत्तर प्रदेश
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३. श्री भगवती चरण वर्मा, चित्रलेखा, महानगर, लखनऊ ४. ,, के० एल० श्रीमाली, कुलपति हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी ५. , राधाकृष्ण, भूतपूर्व उप कुलपति, कानपुर विश्वविद्यालय, हरदोई ६., पी० सी० जैन, चेयरमैन टैक्सटाइल कारपोरेशन, कानपुर
, एस० एन० घोष, द्वारा पायनियर, लखनऊ (त्याग पत्र दे दिया)
, चन्द्रभानु गुप्त, पानदरीबा, लखनऊ ९. , आत्माराम गोविन्द खेर, १३ ए माल एवेन्यू, लखनऊ १०. , पदमपत सिंहानिया, कमला नगर, कानपुर ११. , सीताराम जयपुरिया, एम० पी०, स्वदेशी हाउस, सिविल लाइन्स, कानपुर १२. , जे० मेहता, पायनियर, लखनऊ १३. ,, परिपूर्णानन्द वर्मा, ४ एल० आर० बैंगलो, कालपी रोड, कानपुर १४. डा० आर० आर० भण्डारी, ११७/८८, सर्वोदय नगर, कानपुर १५. श्री रामेश्वर टांटिया, अध्यक्ष, बी० आई० सी०, कानपुर १६. , शरत कुमार 'साधक', डी० ५३।९१ बी० गुरुबाग, लक्सा रोड, वाराणसी १७. , श्रीचन्द सुराणा 'सरस', दास बिल्डिंग नं०-५, बिलोचपुरा, आगरा १८. , सुनहरी लाल जैन, बेलनगंज, आगरा १९., छदामी लाल जैन, जैन भवन, फिरोजाबाद २०. , इन्द्रजीत जैन, श्याम भवन, ५९/३९ बिरहाना रोड, कानपुर २१. डा. ज्योति प्रसाद जैन, ज्योति निकुंज, चारबाग, लखनऊ २२. डा. महेन्द्र सागर प्रचंडिया, पीली कोठी, आगरा रोड, अलीगढ़ २३. डा. प्रेम सागर जैन, दि० जैन डिग्री कालेज बड़ौत, जिला मेरठ २४. , श्री सुकुमार चन्द्र जैन, किशन फ्लोरमिल, रेलवे रोड, मेरठ सिटी २५. , वीरनन्दन जिंदल, अजिताश्रम, गनेशगंज, लखनऊ २६. , लक्ष्मीचन्द जैन, मथुरा प्रिटिंग प्रेस, तिलक द्वार, मथुरा २७. , पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री, स्याद्वाद महाविद्यालय, भदैनी, वाराणसी २८. ,, अभिनन्दन प्रसाद टडैया, घंटाघर के पास, ललितपुर,
, प्रो० खुशाल चन्द गोरावाला, काशी विद्यापीठ, वाराणसी ३०. , कल्याण कुमार 'शशि', जैन फार्मेसी, बाजार नसरुल्ला खाँ, रामपुर ३१. ,, दीप चन्द खजान्ची, जैन मन्दिर, झंडा रोड, देहरादून ३२. ,, मंगल किरण जैन, भूतपूर्व अध्यक्ष नगरपालिका, सहारनपुर ३३. , रतनलाल जैन वकील, बिजनौर ३४. ,, मोतीलाल जैन, अग्रवाल वादर्स, बादशाही नाका, मालरोड, कानपुर ३५. , सुभकरन जैन, ७६/१७४, सब्जी मंडी, कानपुर ३६. , महावीर प्रसाद जैन, ३८, मेजर बैंक्स रोड, लखनऊ ३७. , सागरमल चौरड़िया, फर्म जीतमल जयचन्द लाल, ५७/२७, नवापरा, वाराणसी ३८., हंसराज जैन, फर्म तोलाराम गनेशमल, बेलीगंज, रायबरेली
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३९. , बुधमल सुराणा, फर्म विजयसिंह चन्दरमल, बेलनगंज, आगरा ४०., केशरीचन्द सिंघी, फर्म श्री तिलोकचन्द प्रसन्न कुमार, सादाबादगेट, हाथरस ४१. , बी० एल० सेठिया, मैनपुरी आइस एण्ड कोल्ड स्टोरेज, स्टेशन रोड, मैनपुरी ४२. , विजय सिंह बोकड़िया, फर्म रतनचन्द, रूपचन्द, धनकुट्टी, कानपुर ४३. , भंवर लाल सेठिया, श्याम भवन, ५९।३१ बिरहाना रोड, कानपुर ४४. ,, मांगीलाल बगानी, जैन मिनीएचर बल्ब फैक्टरी, पोखरपुर, कानपूर ४५. ,, संतोकचन्द सेठिया, प्रकाश ट्रेडिंग कं०, बागला बिल्डिंग, नयागंज, कानपुर ४६. , कल्याण दास जैन, भूतपूर्व नगरप्रमुख, लोहामंडी, आगरा (स्वर्गवास हो गया) ४७. , पवन कुमार जैन, ४६।७३, छप्पर मुहाल, कानपुर ४८. डा. मोहन लाल मेहता, अध्यक्ष श्री पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, हिन्दू यूनिवर्सिटी, वाराणसी ४९. श्री जवाहर लाल लोढ़ा, सम्पादक, 'श्वेताम्बर जैन', मोती कटरा, आगरा ५०. ,, विजय चन्द भंडारी, ३३/५७ चौक, कानपुर । ५१. , सी० रमनलाल गुजराती, रमनलाल एण्ड कं०, ५५/३२, जनरल गंज, कानपुर ५२., जे० पी० जैन, सी०१/६, रिवर बैंक कालोनी, लखनऊ ५३. , सुमेर चन्द जैन पाटनी, डालीगंज, लखनऊ ५४. , एम० पी० जैन. रिवर बैंक कालोनी, लखनऊ ५५. , रोशनलाल जैन, जैन नगर, मेरठ ५६. डा० उमेदमल मुनोत, सआदत गंज, लखनऊ ५७. श्री पल्टूमल जैन, पो० कांधला, जिला मुजफ्फरनगर ५८., चन्द्रकांत भाई, फर्म प्रेमचन्द्र सांकलचन्द्र, चौक, वाराणसी ५९. प्रो० मोतीचन्द्र जैन, नमक मंडी, आगरा-३ ६०. डा० रिखब चन्द जैन, सुरंगी टोला, चौक, लखनऊ
समिति के प्रथम सचिव श्री पृथ्वीनाथ चतुर्वेदी, आयुक्त एवं सचिव, शिक्षा विभाग थे। उनके स्थानान्तरित हो जाने के उपरान्त कुछ समय तक श्री पी० एन० कौल, आयुक्त एवं सचिव राष्ट्रीय एकीकरण विभाग, तथा उनके भी स्थानान्तरित हो जाने पर श्री डी० पी० वरुण, सचिव, राष्ट्रीय एकीकरण विभाग, ने समिति के सचिव पद को सुशोभित किया। वर्ष १९७४-७५ से श्री शशि भूषण शरण, आयुक्त एवं सचिव, शिक्षा विभाग, समिति के सचिव पद पर आसीन हैं। इन सभी महानुभावों ने अपने कार्यकाल में समिति के कार्यों में प्रगति लाने के लिए विशेष रुचि दिखाई जिसके लिए समिति उनकी अत्यन्त आभारी है।
४-श्री महावीर निर्वाण समिति की पहिली बैठक दिनांक २१-९-१९७२ को तत्कालीन मुख्य मंत्री माननीय श्री कमलापति त्रिपाठी जी की अध्यक्षता में हुई थी। अपने अध्यक्षयीय भाषण में मुख्य मंत्री जी ने कहा कि भगवान महावीर की निर्वाण जयन्ती के आयोजन के लिए हमें व्यापक द्रष्टिकोण अपनाना चाहिए तथा समाज के सभी वर्गों के लोगों को इस समारोह में सम्मिलित करना चाहिए। समारोह के लिए एक व्यवस्थित कार्यक्रम का प्रस्ताव तैयार करने के लिए एक २०-२५ सदस्यों की समिति बना दी जाय । इन प्रस्तावों में जैन धर्म सम्बन्धी साहित्य के प्रकाशन, भवन निर्माण एवं तीर्थ स्थानों तक सुगमता से पहुंचने के लिए सड़क आदि के निर्माण के प्रस्ताव भी शामिल किए जांय तो उचित रहेगा। एक दो स्यारक भी बनवाने के विषय में विचार किया जा सकता है।
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इसके अलावा साहित्यक क्षेत्र में मुख्य प्रसंगों पर प्रकाश डाला जा सकता है। राज्य सरकार इन समारोहों के आयोजनों में यथा संभव सहायता करेगी किन्तु इस समारोह की सफलता के लिए जनता का सहयोग प्राप्त करना अधिक महत्वपूर्ण है ।
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५ – उक्त बैठक में लिए गए निर्णायों के प्रकाश में सदस्यों से अनेक सुझाव प्राप्त हुए। प्राप्त सुझावों तथा प्रस्तावों पर विस्तार पूर्वक विचार करने और उनकी निश्चित रूप रेखा तय करने के लिए समिति के उपाध्यक्ष श्री लक्ष्मी रमण आचार्य की अध्यक्षता में निम्नलिखित २१ सदस्यों का एक कार्यकारी दल सितम्बर १९७३ में गठित कर दिया गया
(१) श्री चन्द्रभान गुप्त, सदस्य, विधान सभा, लखनऊ
(२)
जे० मेहता, पायनियर, लखनऊ
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(३) श्रीचन्द्र सुराणा सरस, आगरा
(४) परिपूर्णानन्द वर्मा, कानपुर
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(५) डा० ज्योति प्रसाद जैन, लखनऊ
(६) श्री शुभकरण जैन, कानपुर
(७) खुशाल चन्द्र गोरावाला, काशी विद्यापीठ, वाराणसी
(5) सुकुमार चन्द जैन, मेरठ
(९) अभिनन्दन प्रसाद टड़या एडवोकेट, झांसी
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(१०) कल्याण कुमार शशि, रामपुर (११), सुनहरी लाल जैन, आगरा (१२) छिदामी लाल जैन, फिरोजाबाद (१३) जवाहर लाल लोढ़ा, आगरा
(१४) मंगल किरन जैन, सहारनपुर
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(१५) डा० महेन्द्र सागर प्रचंडिया, अलीगढ़
(१६) श्री राय देवेन्द्र प्रसाद एडवोकेट, गोरखपुर
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(१७) कमल नयन सरावगी, डायरेक्टर, बलराम पुर शुगर मिल्स, बलरामपुर
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(१८) प्रो० पो० सी० जैन, इलाहाबाद विश्वद्यिालय, इलहाबाद
( १९ ) श्री श्रीप्रकाश जैन, मथुरा
(२०) सचिव राष्ट्रीय एकीकरण विभाग, उत्तर प्रदेश शासन (२१) श्री अजित प्रसाद जैन, संयोजक
६. कार्यकारी दल ने अपनी दि० १६-१७ अक्टूबर, १९७३ की बैठक में सदस्यों से प्राप्त विभिन्न प्रस्तावों को अन्तिम रूप देकर समिति का एक सुव्यवस्थित कार्यक्रम तैयार किया जिसका अनुमोदन दि० २ अप्रैल १९७४ को माननीय हेमवती नन्दन बहुगुणा, मुख्य मंत्री, उत्तर प्रदेश की अध्यक्षता में हुई समिति की दूसरी बैठक में कर दिया गया । राज्य समिति द्वारा अनुमोदित कार्यक्रम एवं संस्तुतियां निम्न प्रकार है :
(क) कार्यक्षेत्र - पूरे उत्तर प्रदेश में भगवान महावीर के २५०० वें निर्वाण महोत्सव को जनता के सभी वर्गों के सहयोग से प्रभावशाली रूप में मनाना ।
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कार्य-(१) स्थानीय समितियों का संगठन कराना, उनमें स्थानीय अधिकारियों का सहयोग प्राप्त करना तथा राज्य समिति के सामान्य निर्देशन के अन्तर्गत महोत्सव के विभिन्न कार्यक्रमों को सम्पन्न कराना।
(२) निर्वाण समारोह के मनाये जाने हेतु शासन के विभिन्न विभागों से सम्पर्क स्थापित करना एवं उनका सहयोग प्राप्त करना।
(३) केन्द्रीय समिति के सहयोग से उन सभी कार्य-क्रमों का सम्पादन करना जिनको कि समय-समय पर निर्धारित किया जाय।
(४) निर्वाण समारोह समुचित रूप से मनाये जाने के लिये जनता एवं शासन से हर सम्भव सहयोग प्राप्त करना।
(५) समिति द्वारा पारित विभिन्न प्रस्तावों को कार्यान्वित करना। (ख) ऐसे कार्यक्रम जिनमें प्रत्यक्ष अथवा पृथक रूप से कोई वित्तीय भार निहित नहीं हैं
(१) दीपावली की छुट्टी “दीपावली, श्री महावीर निर्वाण दिवस' के नाम से प्रख्यापित की जाय ।
(२) भगवान महावीर के जन्मदिवस (चैत्र शुक्ला त्रयोदशी) तथा निर्वाण दिवस-दीपावली (कार्तिक कृष्णा अमावस्या) के शुभ दिनों पर बूचड़खाने तथा मांस मदिरा की दूकानें बंद रखी जाय ।
(३) शासन से अनुरोध किया जाय कि निर्वाण जयन्ती वर्ष में ऐसे लम्बे सजायाफ्ता कैदियों को जिन्होंने ७ वर्ष का कारावास पूरा कर लिया हो तथा जिनके आचरण उत्तम रहे हों, छोड़ दिया जाय ।
(४) भगवान महावीर की करुणा एवं अहिंसा सम्पूर्ण प्राणि जगत के लिये थी, अतः शासन से अनुरोध किया जाय कि प्रदेश में एक पशुबिहार (सैक्चुयरी), विशेषकर किसी तीर्थ स्थल पर, जैसे कि हस्तिनापुर में, भगवान महावीर के नाम से स्थापित किया जाय जिसमें पशुओं के शिकार का पूर्णतया निषेध हो ।
(५) शासन से संस्तुति की जाय कि निर्वाण वर्ष में जो नये राजकीय चिकित्सालय एवं अन्य सार्वजनिक हित की संस्थाएं स्थापित की जाँय, उनके स्थापनापट पर यह अंकित कर दिया जाय कि वे भगवान के २५०० वें निर्वाण वर्ष में स्थापित किये गये। इन चिकित्सालयों में समिति की ओर से भगवान महावीर की शिक्षा सूचक शिलापट्ट भी लगाए जांय ।
(६) भगवान महाबीर प्रथम महान संत थे जिन्होंने जाति-पांति के भेद-भाव का घोर विरोध किया तथा उद्घोष किया कि सब मनुष्य समान हैं और जन्म से कोई ऊँचा-नीचा नहीं होता। अतः शासन से संस्तुति की जाय कि किसी उपयुक्त हरिजन कल्याण, समाज कल्याण की योजना के साथ जो वर्ष १९७४-७५ में प्रारम्भ की जाय भगवान महाबीर का नाम संबद्ध कर दिया जाय ।
(७) निम्नलिखित प्राचीन जैन सांस्कृतिक एवं कला केन्द्रों तक मार्गों तथा पुलों का निर्माण एवं पेय जल व्यवस्था सार्बजनिक निर्माण विभाग द्वारा कराया जाय तथा केश प्रोग्राम में मुख्तलिफ जिलों में जो सड़कें बन रही हैं उसमें इन मार्गों के निर्माण कार्य को भी सम्मिलित करा दिया जाय :--
(क) श्री कम्पिला जी,
जिला फर्रुखाबाद, १३वें तीर्थकर भगवान विमलनाथ की जन्म एवं तपो भूमि
(१) धर्मशाला कम्पिला जी से पुलिस स्टेशन कम्पिला
जी तक ०.५ कि०मी सड़क का निर्माण (२) १९ कि०मी० दूर कासगंज से कम्पिला जी को
मिलाने के लिये सड़कों का निर्माण (३) यात्रियों तथा पर्यटकों के लिये पेय जल की
व्यवस्था के लिये एक टयूबवैल का निर्माण
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(ख) अहिच्छत्र, रामनगर, जिला बरेली (४) राम नगर से रेवती बहोडा खेड़ा स्टेशन तक २३वें तीर्थकर श्री पार्श्वनाथ स्वामी
सड़क निर्माण, ३ कि०मी० की ज्ञान कल्याणक भूमि
(५) आंवला-सिरोही सड़क पर अकिल नदी पर पुल
निर्माण (ग) चन्द्रपुरी जिला वाराणसी-८वें तीर्थंकर । (६) मुख्य सड़क (वाराणसी-गाजीपुर) से मन्दिर ____ श्री चन्द्रप्रभु की जन्मभूमि
तक लिंक सड़क-२ कि०मी० (यह पुरातत्व विभाग द्वारा सुरक्षित स्थान है लेकिन मुख्य सड़क से मन्दिर तक का मार्ग एक
दम कच्चा तथा असन्तोषजनक है) (घ) कौशाम्बी तथा पमोसा,
(७) सराय आकिल से पभोसा होते हए कौशाम्बी जिला इलाहाबाद-६ठे तीर्थंकर
तक की सड़क का निर्माण-यह इस समय कच्ची श्री पदमप्रभु की जन्म एवं तपोभूमि
सड़क है (ङ) शौरीपुर बटेश्वर, जिला आगरा- (८) बटेश्वर से शौरीपुर तक की सड़क का निर्माण, २२वें तीर्थंकर श्री नेमिनाथ स्वामी
५ कि०मी० की जन्म भूमि (च) रौनाही, जिला फैजाबाद-१५वें तीर्थं (९) लखनऊ-फैजाबाद राजमार्ग से घाघरा नदी के कर भगवान धर्मनाथ की जन्मभूमि
तट पर स्थित धर्मनाथ स्वामी के मन्दिर तक
सड़क का निर्माण-३ कि०मी (छ) खुखुन्दोग्राम जिला देवरिया-९वें तीर्थ (१०) नौनखार रेलवे स्टेशन से खुखुन्दोग्राम में पुष्प कर श्री पुष्पदन्त स्वामी की जन्म
दन्त स्वामी के मन्दिर तक तथा वहां से देवरियासलेमपुर राजमार्ग तक सड़क का निर्माण
५ कि०मी० (ज) ऋषभ नगर मरसल गंज, जिला (११) जारखी, या कोटला से मरसलगंज तक सड़क का आगरा-प्राचीन अतिशय क्षेत्र
निर्माण-३ या ६ कि०मी० (८) आदि तीर्थंकर भगवान ऋषभ देव एवं अन्य चार तीर्थकरों की जन्म स्थली अयोध्या, जिला फैजाबाद में इन तीर्थकरों की निशिया तक, जो कि अयोध्या नगरपालिका की सीमा के भीतर ही स्थित है, पहँचने के लिये मार्ग का निर्माण-१ कि०मी० । शासन से अनुरोध किया जाय कि अयोध्या नगरपलिका को उपरोक्त मार्ग के निर्माण का निदेश देने की कृपा करें।
(९) सहेट महेट (श्रावस्ती), जिला बहराइच, में जो तीसरे तीर्थंकर श्री संभवनाथ की जन्मभूमि है, श्री संभवनाथ स्वामी के अति प्राचीन मन्दिर के अवशेष पुरातत्व विभाग द्वारा सुरक्षित घोषित किये हुए हैं। शासन के माध्यम से केन्द्रीय पुरातत्व विभाग से अनुरोध किया जाय कि उपरोक्त मन्दिर का मूल प्राचीन शैली में ही जीर्णोद्धार करने का अनुग्रह करें। यदि पुरातत्व विभाग के लिये जीर्णोद्धार स्वयं करना संभव न हो तो जैन समाज को यह काम करने की अनुमति प्रदान करें।
(१०) मथुरा नगर अन्तिम केवली श्री जम्बू स्वामी की मोक्ष भूमि है तथा अति प्राचीन काल से यह नगर वैदिक, जैन एवं बौद्ध संस्कृतियों का संगम स्थल रहा है। इस नगर को एक महत्वपूर्ण पर्यटन केन्द्र के रूप में विकसित करना बहत वांछनीय है।
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इस नगर के कंकाली टीला स्थल में प्राचीनतम ऐतिहासिक अवशेष प्राप्त हुए हैं। इस स्थान पर एक अति प्राचीन जैन स्तुप स्थित था जिसका निर्माणकाल प्रागऐतिहासिक युग तक जाता है। राज्य के पुरातत्व विभाग से संस्तुति की जाय कि उक्त प्राचीन स्तूप की आकृति के एक लघु स्तूप का निर्माण इस स्थान पर माडल के रूप में कराये तथा इस स्थल के उत्खनन से प्राप्त महत्वपूर्ण पुरातत्व सामग्री का विवरण एक प्रस्तर पट पर अंकित करा कर इस स्थल पर लगा दिया जाय जिससे कि यह स्थान पर्यटकों के आकर्षण का केन्द्र बने।
(११) पार्श्वनाथ किला, जिला बिजनौर, एक अति प्राचीन जैन सांस्कृतिक केन्द्र था। इस समय इसके खंडहर टीलों के रूप में पड़े हुये हैं। पुरातत्व विभाग से अनुरोध किया जाय कि इन टीलों की खुदाई कराये ताकि भूगर्भ में छिपे पड़े प्राचीन ऐतिहासिक अवशेष प्रकाश में आ जाय।
(१२) संठियांव-डीह-फाजिलकानगर, जिला देवरिया, को कुछ विद्वान मल्ल क्षत्रियों की राजधानी एवं भगवान महावीर की निर्वाण भूमि 'पावा' मानते हैं। अतः यह मांग भी कतिपय क्षेत्रों द्वारा की जा रही है कि इस स्थान को भगवान महावीर की सही निर्वाण भूमि तथा निर्वाण जयन्ती मनाने के लिये प्रमुख स्थल घोषित कर दिया जाय तथा इसका नाम 'पावानगर' रख दिया जाय । समिति की राय में इस स्थान के विषय में अभी निर्णयात्मक अनुसंधान अपेक्षित है। अतः समिति के लिये इस विषय पर कोई मत अभिव्यक्त करना उचित न होगा। किन्तु समिति शासन से संस्तुति करती है कि राज्य के अथवा केन्द्र के पुरातत्व विभाग द्वारा इस स्थान की खदाई कराये जिससे कि ऐतिहासिक तथ्य प्रकाश में आ जाय ।
(ग)-ऐसे कार्यक्रम जिनमें प्रत्यक्ष रूप से वित्तीय मार निहित है- .
(१) प्रदेश के विभिन्न विश्वविद्यालयों के सहयोग से जैन संस्कृति, साहित्य एवं दर्शन तथा अहिंसा से सम्बन्धित विषयों पर ६ सेमिनारों का आयोजन तथा सेमिनारों में पठित निबन्धों का पुस्तकाकार मुद्रण एवं प्रकाशन आदि।
(२) भगवान महावीर की शिक्षा, जैन दर्शन एवं साहित्य सम्बन्धी विषयों पर विश्वविद्यालयों तथा उच्चतर माध्यमिक विद्यालयों के छात्रों में निबन्ध प्रतियोगिताओं का आयोजन तथा श्रेष्ठ निबन्धों पर पुरस्कार देना।
(३) जैन संस्कृति का भारतीय संस्कृति में योगदान विषय पर एक सर्वोत्तम पुस्तक पर पुरस्कार एवं प्रकाशन सम्बन्धी सहायता ।
(४) शाकाहार के सिद्धांत एवं उनके संबंध में विश्व साहित्य का दिग्दर्शन । (५) उत्तर प्रदेश के जैन कला केन्द्रों की एक परिचयात्मक पुस्तिका का मुद्रण एवं प्रकाशन ।
(६) उत्तर प्रदेश के प्राचीन जैन स्थलों एवं भगवान महावीर की शिक्षाओं के सम्बन्ध में फोल्डरों का प्रकाशन ।
(७) २५०० वें वर्ष में स्थापित सार्वजनिक चिकित्सालयों एवं अन्य सार्वजनिक संस्थाओं में भगवान महावीर की सूक्तियां एवं शिक्षाएं शिलापट्टों पर लिखा कर लगवाना।
(८) जैन संस्कृति, कला, साहित्य एवं दर्शन सम्बन्धी साहित्य के क्रय के लिये सार्वजनिक पुस्तकालयों को विशेष अनुदान (रु. १००० प्रति पुस्तकालय)।
(९) प्रदेश भर में अन्य विविध कार्यक्रमों के लिये समिति को अनुदान । (१०) प्राचीन जैन सांस्कृतिक एवं कला कृतियों की सुरक्षा एवं संरक्षण के लिये अनुदान ।
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(११) लखनऊ में भगवान महावीर पार्क एवं स्मारक का निर्माण, जिसमें एक आडिटोरियम, एक सार्वजनिक पुस्तकालय, अध्यात्म विद्या अध्ययन कक्ष, योग साधना कक्ष एवं शोध संस्थान का भवन हो (पार्क की भूमि शासन द्वारा निःशुल्क उपलब्ध कराई जाय । स्मारक के रखरखाव आदि पर होने वाले आवर्तक व्यय के वहन की व्यवस्था समिति राजकीय अनुदान एवं अन्य स्त्रों से करेगी)।
(१२) प्रदेश के अन्य स्थानों में महाबीर स्मारकों के लिये आंशिक अनुदान (अनुदान केवल वहीं दिया जायगा जहां की जनता कम से कम आधा निर्माण व्यय तथा पूरा रखरखाव व्यय वहन करने की व्यवस्था कर ले)।
उपरोक्त कार्यक्रमों के लिये जितनी धनराशि राज्य सरकार द्वारा स्वीकृत की जाय, वह इस समिति को अनुदान के रूप में स्वीकृत कर दी जाय ।
७. दि० २ अप्रैल, १९७४ की बैठक में अपने अध्यक्षीय भाषण में माननीय मुख्य मन्त्री जी ने कहा कि भारतीय संस्कृति एक ही चीज है। काल ने उसकी शकल व सूरत अनेक कर दी है। देश की संस्कृति यदि अपरिवर्तन शील रहे तो वह मर जाती है । भारतीय संस्कृति में विचारों की कितनी ही विशेष धाराएँ हैं। उनमें से एक बहुत पवित्र विशिष्ट तथा अत्यन्त तेजस्वी विचारधारा भगवान महावीर ने भारतीय संस्कृति को दी है । भारतीय संस्कृति समुद्र है अनेक विचारों का, इस समुद्र में आकर गंगा जमुना अपना मीठापन खो देती हैं और नाला अपनी कड़वाहट, अपनी खराबी खो देता है, यह उसकी एक विशेषता है। हर धारा का स्मरण बार-बार करना भारत के लिए अति आवश्यक है । हमारी पाठ्य पुस्तकों में सांस्कृतिक झलक ही नहीं वरन् समाज, धर्म और वर्ग से ऊपर उठकर बातें होनी चाहिए । हमारे बुजुर्ग चाहे वह कोई सन्त हों, चाहे कवि हों, धर्म प्रवर्तक हों या जिसने दर्शन को नई दृष्टि दी हो, चाहे वह वल्लभाचार्य हों, रामानन्द हों, चाहे कोई आचार्य हों, यह सभी भारतीय संस्कृति की अनेक धाराएँ हैं । उन्होंने समय-समय पर इस संस्कृति को बल प्रदान किया है और आगे को बढ़ाया है। लेकिन अगर समुद्र में मिलने के बजाय कोई धारा अलग रहना चाहे तो वह सूख कर रह जाती है, उसको बैठा देना चाहिए। इस समुद्र का जहां साथ नहीं, वह भारतीय संस्कृति का हिस्सा नहीं। हमें इसको देखना और समझना चाहिए । यदि पाठ्य पुस्तकों में कोई गलत बयानी द्रष्टि में आती है तो पाठ्य पुस्तक अधिकारी को सुझाव भेजकर उसे ठीक कराना चाहिए । इस जयन्ती के अवसर पर दबी चीजें ऊपर लाने के लिए तथा भूली चीजों की याद दिलाने के लिए विश्वविद्यालयों में व्याख्यान आयोजित कराए जाने चाहिए। विचारों की क्रान्ति तथा शोध कार्यों के लिए विश्वविद्यालयों का सहारा लिया जाना चाहिए।
८. दि० २ अप्रैल १९७५ की बैठक में लिए गये निर्णयों के सुचारुरूप से कार्यान्वयन के लिए निम्नलिखित उपसमितियों का गठन किया गया:
(१) कार्यकारिणी उपसमिति
अध्यक्ष--माननीय डा० रामजीलाल सहायक, शिक्षा मन्त्री उपाध्यक्ष-श्री लक्ष्मी रमण आचार्य सचिव–सचिव, राष्ट्रीय एकीकरण विभाग उप सचिव-श्री अजित प्रसाद जैन
सदस्य:
१. डा. ज्योति प्रसाद जैन, लखनऊ २. श्री सुकुमार चन्द जैन, मेरठ,
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३. ,, रतनलाल जैन वकील, बिजनौर ४. , इन्द्रजीत जैन कानपुर,
, महावीर प्रसाद जैन इंजीनियर, लखनऊ , जवाहर लाल लोढ़ा, आगरा
,, श्रीचन्द सुराणा सरस, आगरा ८. , भंवर लाल सेठिया, कानपुर ९. डा० मोहनलाल मेहता, वाराणसी निम्न लिखित सज्जनों को कार्य कारिणी उप समिति की बैठकों में विशेष आमन्त्रित के रूप में बुलाया
गया:
१. श्री संग्राम सिंह कोठारी, चेयरमैन हिंडालको, रेनुकूट, मिर्जापुर २. , नरेन्द्र कुमार जैन, ५९ गांधी रोड, देहरादून ३. , निर्मल कुमार जैन, हरखचन्द फ्लोर मिल, सीतापुर ४. , सुमेर चन्द पाटनी, लखनऊ ५. , शान्ति प्रकाश जैन, उप सचिव, सहकारिता विभाग
इस उप समिति की तीन बैठकें, दि० २० मई १९७४, १९ अगस्त १९७४ तथा ३ फरवरी १९७४ को की गई।
(२) अर्थ संग्रह उपसमिति
अध्यक्ष-श्री लक्ष्मी रमण आचार्य
संयोजक-श्री सुमेर चन्द पाटनी, लखनऊ सदस्य:
१. श्री सुनहरीलाल जैन, आगरा २.:, छदामीलाल जैन, फिरोजाबाद ३. , मंगल किरण जैन, सहारनपुर
, सागरमल चौरड़िया, वाराणसी ५. ,, विजय सिंह बोकड़िया, कानपुर ६., कल्याणदास जैन, आगरा ७. , सी. रमनलाल गुजराती, कानपुर ,, सेठ भंवरीलाल अग्रवाल, बाराबंकी
, संग्राम सिंह कोठारी, रेनुकूट, मिर्जापुर १०. , निर्मल कुमार जैन, सीतापुर
, नरेन्द्र कुमार जैन, देहरादून १२. , कमल नयन सरावगी, बलरामपुर, गोंडा १३. , प्रभूलाल डाबरीवाला, तुलसीपुर, गोंडा
इस उपसमिति की तीन बैठकें दि. ३० अप्रैल १९७४, २० मई १९७४ तथा १९ अगस्त १९७४ को की गई।
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(३) सैमीनार उपसमिति
अध्यक्ष-श्री लक्ष्मी रमण आचार्य संयोजक-श्री परिपूर्णानन्द वर्मा, कानपुर
सदस्य:
१. श्री खुशाल चन्द गोरावाला, वाराणसी २. , शरद कुमार साधक, वाराणसी ३. , कैलाशचन्द शास्त्री, वाराणसी ४. , डा. ज्योति प्रसाद जैन, लखनऊ इस उप समिति की एक बैठक दि० १९ अगस्त १९७४ को की गई।
(४) भगवान महावीर स्मृति ग्रंथ का सम्पादक मंडल
१. डा. ज्योति प्रसाद जैन-प्रधान सम्पादक २. पं० कैलाशचन्द शास्त्री, वाराणसी ३. श्री शरद चन्द्र 'साधक', वाराणसी ४. डा. मोहनलाल मेहता, वाराणसी ५. श्री जवाहरलाल लोढ़ा, आगरा
स्मति ग्रंथ के प्रकाशन आदि की व्यवस्था में सहयोग देने के लिए उपरोक्त के अतिरिक्त निम्नलिखित सज्जनों को सम्मिलित करते हुए एक उपसमिति का गठन किया गया:
१. श्री नरेन्द्र कुमार जैन, देहरादून २. , इन्द्रजीत जैन, कानपुर ३., सुमेरचन्द पाटनी, लखनऊ ४. ,, संग्राम सिंह कोठारी, रेनुकूट, मिर्जापुर ५. , विनय कुमार मोदी, मोदी नगर, मेरठ
, एन० के० वजौरिया, सहारनपुर ७. ,, पी० सी० जैन, बी० आई० सी०, कानपुर ८. ,, सीताराम जयपुरिया, कानपुर ९. , निर्मल कुमार जैन, सीतापुर १०. , विजय पोद्दार, कलकत्ता इस उप समिति की एक बैठक दि० ६ अक्तूबर १९७५ को की गई।
९. राजकीय अनुदान
दि० २१ सितम्बर १९७२ को हुई राज्य समिति की प्रथम बैठक में तत्कालीन मुख्य मन्त्री जी के आश्वासन पर समिति ने १३ लाख रुपये के विविधि कार्यक्रमों की योजना तैयार की थी जिसका अनुमोदन दि० २ अप्रैल १९७४ को वर्तमान मुख्य मन्त्री जी की अध्यक्षता में हुई बैठक में कर दिया गया था। आशा यह थी कि केन्द्रीय
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सरकार के उदाहरण को द्रष्टि में रखते हुए राज्य सरकार समिति को विविध कार्यक्रमों के सम्पादन हेतु १३ लाख रुपये का अनुदान उपलब्ध कर देगी किन्तु इस बीच राज्य की आर्थिक स्थिति विषम हो जाने के कारण राज्य सरकार केवल ६॥ लाख रुपये का ही अनुदान देने के लिए सहमत हुई और उन्होंने यह अपेक्षा की कि समिति शेष व्यय दान आदि से धन संग्रह करके पूरा करे । उक्त ६५००००।- की धनराशि में से भी अब तक केवल रुपया ३,२५००० का ही अनुदान समिति को प्राप्त हो पाया है। समिति द्वारा प्रारम्भ किये गये कार्यक्रमों को पूरा करने के लिए अनुदान की रु. ३,२५,००० की शेष धनराशि का मिलना भी आवश्यक है और उसके लिए सतत प्रयास किया जा रहा है। .
उपयुक्त मात्रा में धन राशि उपलब्ध न होने के कारण समिति को अपने कई कार्यक्रम स्थगित कर देने पड़े हैं तथा शेष में संशोधन करना पड़ा है। दान प्राप्ति
राज्य समिति की अपील पर समिति को निम्नलिखित सज्जनों एवं संस्थाओं से उनके नाम के सम्मुख अंकित धनराशि दान स्वरूप प्राप्त हुई है जिसके लिए समिति उनकी अभारी है:१. श्री निर्मल कुमार जैन, हरखचन्द्र फ्लोर मिल, सीतापुर
रु. ५,०००.०० २., भगवान महावीर २५० वाँ निर्वाण महोत्सव, उत्तराखण्ड क्षेत्रीय समिति,श्री नरेन्द्र कुमार जैन, देहरादन, के माध्यम से
रु. ५,०००.०० ३. , श्रीमती जेड० एस० कोठारी, श्री संग्राम सिंह कोठारी, चेयरमैन हिंदालको, रेनुकूट मिर्जापुर के माध्यम से
रु. २,०००.०० ४. , सागरमल चौरडिया, वाराणसी
रु. १,१०१-०० भंवरीलाल अग्रवाल, स्वास्तिक ट्रेडर्स, बाराबंकी
रु. १,००१-०० ६. , डा० ज्योति प्रसाद जैन, लखनऊ
रु. १०१-०० ७. , नरेन्द्र कुमार जैन देहरादून
रु. १०१-०० , रतनलाल जैन, बिजनौर
१७०.०० ९., लक्ष्मी चन्द्र जैन, मथुरा
रु. १६३-४५ १०. , कल्याणकुमार 'शशि', रामपुर
रु. १६२-२० ११. , इन्द्रजीत जैन, कानपुर
। १०७-८५ १२. , हंसराज जैन, रायबरेली
७०-२० १३. , महावीर प्रसाद जैन इंजीनियर, लखनऊ
रु. ५४-०० १४. , विजय सिंह बोकड़िया, कानपुर
५३-८५ १५. , शुभकरन जैन, कानपुर
५३-८५ १६. , भंवरलाल सेठिया, कानपुर
रु. ५३-८५ १७., रमेश चन्द्र जैन, मैनेजर जैन धर्मशाला, लखनऊ के माध्यम से
रु. १५२-००
योग रु. १५,३४५-२५ निम्नलिखित सज्जनों एवं संस्थाओं से इस स्मृति ग्रन्थ में भगवान महावीर के प्रति श्रद्धांजलि ज्ञापन हेतु उनके सामने अंकित धनराशियां प्राप्त हुई:१. श्री भगवान महावीर स्मृति केन्द्र, रायबरेली
रु. १०००
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. ४४ Mr mm x m
२. हिन्दुस्तान अलूमिनियम कारपोरेशन लि०, रेनूकूट
१००० ३. दी ब्रिटिश इंडिया कारपोरेशन लि., कानपुर ४. सूचना निदेशालय, उ० प्र० ५. मार्डन टेक्सटाइल्स, कानपुर ६. स्टार पेपर मिल्स लि., सहारनपुर ७. मेसर्स नरेशचन्द पारसमल, कोपरगंज, कानपुर ८. मेसर्स पन्नालाल बनारसीदास, नयागंज कानपुर ९. मेसर्स चेतन एण्ड कं० तथा संजय एण्ड कं०, बिरहाना रोड, कानपुर १०. जैन सेवा समिति, सीतापुर ११. दी० किशन फ्लोर मिल्स, रेलवेरोड, मेरठ
३०० १२. मद्यनिषेध एवं समाजोत्थान विभाग, उ०प्र०
१०००
कुल रु० ६१०० ११-राज्य समिति की तीसरी बैठक दि० २५ जुलाई १९७५ को विधान भवन लखनऊ में माननीय श्री हेमवती नन्दन बहुगुणा, मुख्य मन्त्री, उत्तर प्रदेश, की अध्यक्षता में सम्पन्न हई। इस बैठक में इस पर क्षोभ प्रकट किया गया कि राज्य सरकारने राज्य समिति के विविध कार्यक्रर्मों के लिए केवल ६,५०००० रु. देने का आश्वासन दिया है जिसमें से भी अभी तक ३,२५००० रु. प्राप्त हुए हैं जबकि अन्य प्रदेश सरकारों ने कहीं अधिक धनराशि के अनुदान अपनी प्रदेश समितियों को स्वीकृत किये हैं । देवरिया जिले में पावानगर, जिसे बहुत से विद्वान भगवान महावीर की निर्वाण स्थली मानते हैं, के टीलों की खुदाई कराये जाने का भी आग्रह किया गया। शासन की
का आश्वासन दिया गया कि शेष रु. ३,२५००० की धनराशि भी अनुदान के रूप में समिति को यथाशीघ्र स्वीकृत कर दी जायगी तथा पावानगर की खुदाई के लिए भारत सरकार के पुरातत्व विभाग से आग्रह किया जायगा। १२. महावीर जन कल्याण निधि की स्थापना
बैठक में एक यह सुझाव भी आया कि भगवान महावीर की पावन स्मृति में समाज सेवा का कार्य करने के लिए एक भगवान महावीर ट्रस्ट या निधि की स्थापना इस २५०० निर्वाण महोत्सव वर्ष के उपलक्ष में यदि कर दी जाये तो यह एक बहुमूल्य उपलब्धि होगी। माननीय मुख्य मन्त्री जी ने इस सुझाव का स्वागत करते हुए यह आश्वासन दिया कि यदि जैन समाज द्वारा रामकृष्ण मिशन जैसी कोई सार्वजनिक संस्था बनाई जाती है तो उसके द्वारा समाज सेवा के कार्यों में राज्य सरकार भी आर्थिक सहयोग दे सकती है। माननीय श्री जगदीश शरण अग्रवाल स्वा० शासन मन्त्री ने प्रस्तावित विधि की योजना के लिए अपना व्यक्तिगत सहयोग देने का आश्वासन दिया । प्रस्तावित निधि की स्थापना के सुझाव का बैठक में उपस्थित सभी सदस्यों ने हार्दिक स्वागत किया तथा सचिव महोदय से अनुरोध किया कि वे इस सम्बन्ध में आवश्यक प्रारम्भिक कार्यवाही करा दें।
प्रस्तावित निधि की रूपरेखा तथा सम्भावनाओं पर विचार करने के लिए समिति के सचिव श्री शशि भूषण शरण ने दि० २५ सितम्बर, १९७५ को अपने सचिवालय कक्ष में राज्य समिति के स्थानीय सदस्यों से एक बैठक में विचार विमर्श किया। बैठक में उपस्थिन सभी सदस्य इस विषय में एकमत थे कि प्रदेश में एक भगवान महावीर जन कल्याण निधि की स्थापना की महती आवश्यकता है, जिसके माध्यम से निर्धन छात्रों को शिक्षा की सुविधा, असहाय महिलाओं के भरण-पोषण, बेरोजगारों के लिए जीविकोपार्जन व्यवस्था, चिकित्सा सहायता प्रसार
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एवं अन्य समाज सेवा के कार्य जैन समाज के अन्तर्गत किये जा सकें। यह भी विचार व्यक्त किया गया कि निधि की समुचित उपयोगिता तभी हो सकेगी जब कि वह कम से कम एक करोड़ रुपये की हो जाय जिससे कि वार्षिक आय दस लाख रुपये की हो सके। बैठक में यह निर्णय लिया गया कि प्रस्तावित निधि की स्थापना की सम्भावनाओं की जांच करने के लिए प्रत्येक जिले से जानकारी प्राप्त कर ली जाय कि निधि की स्थापना के प्रारम्भिक चरण में विभिन्न क्षेत्रों से इस प्रयोजन के लिए कितनी धनराशि इकट्ठा हो सकती है। निधि की स्थापना का प्रारम्भिक व्यय राज्य समिति के द्वारा कर दिया जायगा । उपरोक्त जानकारी प्राप्त की जा रही है और आशा है कि निधि की स्थापना शीघ्र कर दी जायगी। १३-समिति की उपलब्धियां
समिति की संस्तुति पर राज्य सरकार ने भगवान महावीर के २५००वें निर्वाण महोत्सव वर्ष में शिकार बन्दी के आदेश प्रसारित किये तथा तीन मास से अधिक दंड के बन्दियों को १५ दिन का विशेष परिहार प्रदान किया। महावीर जयन्ती तथा महावीर निर्वाण दिवस पर पशुवध-शालायें तथा शराब की दुकानें बन्द रखे जाने के आदेश प्रसारित किए। समिति की संस्तुति पर राज्य सरकार ने भारत सरकार को एक अत्यन्त आग्रहपूर्ण पत्र दिनांक १६-१०-७४ को लिखा था कि अहिंसा धर्म के महान प्रणेता भगवान महावीर स्वामी के प्रति श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए यह उचित होगा कि जिन मामलों में विभिन्न न्यायालयों द्वारा १३ नवम्बर १९७४ या उसके बाद मृत्युदंड दिया जाय, उन सभी में केवल बहुत ही विशेष परिस्थितियों को छोड़कर, मृत्युदंड को आजीवन कारावास में बदल दिया जाय । भारत सरकार ने इस संस्तुति को स्वीकार करके देश भर में १३ दिसम्बर १९७४ या उससे पूर्व मृत्युदण्ड के बंदियों का दण्ड आजीवन कारावास में परिणित किये जाने के आदेश प्रसारित कर दिए हैं। समिति का प्रयास है कि भारत सरकार ऐसे आदेश दीपावली १९७५ तक के लिए भी जारी कर दे।
समिति की संस्तुति पर राज्य सरकार ने भगवान महावीर की पावन स्मृति में महावीर स्मृति केन्द्रों के भवन आदि के निर्माण के लिए बरेली तथा हरिद्वार में नि:शुल्क भूमि उपलब्ध कर दी है। रायबरेली में भी इस प्रयोजन के लिए भूमि उपलब्ध कराने का प्रस्ताव राज्य सरकार के सक्रिय विचाराधीन है। लखनऊ, बाराबंकी एवं अन्य स्थानों में भी भूमि प्राप्त करने के प्रयास किए जा रहे हैं। १४-तीर्थ स्थानों एवं प्राचीन सांस्कृतिक स्थलों का विकास
(१) राज्य समिति ने इसका प्रयास किया है कि विभिन्न तीर्थ क्षेत्रों के पहुंच मार्ग जो कच्चे पड़े हुए हैं उन्हें पक्का करा दिया जाय । परिणामस्वरूप शासन के सार्वजनिक निर्माण विभाग द्वारा कुछ मार्ग पक्के करा दिए गए हैं तथा शेष के सम्बन्ध में आवश्यक कार्यवाही की जा रही है।
(२) राज्य समिति की संस्तुति पर राज्य सरकार ने अहिच्छत्र पार्श्वनाथ, जिला बरेली, में पेय जल की सुविधा उपलब्ध किए जाने हेतु एक राजकीय नलकूप स्वीकृत कर दिया है।
(३) राज्य समिति की संस्तुति पर भारत सरकार ने रेवती बहोड़ा स्टेशन का नाम 'अहिच्छन्न-पार्श्वनाथ' में परिवर्तित करना स्वीकार कर लिया है।
(४) राज्य समिति श्रावस्ती में भगवान संभवनाथ के प्राचीन मन्दिर के जीर्णोद्धार के लिए पुरातत्व विभाग भारत सरकार की अनुमति एवं सहयोग प्राप्त करने का प्रयत्न कर रही है और आशा है कि इसमें सफलता मिल जावेगी।
(५) राज्य समिति इसका भी प्रयास कर रही है कि देवगढ़ क्षेत्र जिला ललितपुर में जिन मूर्तियों के तस्करों ने सर काट दिए थे उनकी वैज्ञानिक ढंग से पुरातत्व विभाग के सहयोग से मरम्मत करा दी जाय ।
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(६) राज्य समिति के प्रयास से लखनऊ म्यूजियम में कंकाली टीला से प्राप्त अति प्राचीन जैन स्तुप के अवशेषों के आधार पर उक्त स्तूप का एक लघु माडल तैयार कराया जा रहा है । १५-उत्तर प्रदेश में निर्वाण महोत्सव वर्ष में सम्पन्न कार्यक्रम
भगवान महावीर के २५००वें निर्वाण महोत्सव वर्ष के अवसर की गरिमा के अनुरूप शासन तथा जनता के सभी वर्गों के सहयोग से सोल्लास मनाए जाने हेतु प्रदेश के प्रत्येक जिले में जिला अधिकारी की अध्यक्षता में जिला महावीर निर्वाण समिति का गठन कराया गया तथा इस बात का प्रयास किया गया कि जिला समितियों में न केवल जैन समाज के विभिन्न संप्रदायों का प्रतिनिधित्व हो बल्कि जिले के अन्य विशिष्ठ विद्वानों एवं समाज सेवियों का भी, जो भगवान महावीर की शिक्षाओं में रुचि रखते हों, सहयोग प्राप्त हो ।
प्रायः प्रत्येक जिले में कलेक्टर तथा अन्य अधिकारियों ने जिला समितियों के कार्यक्रमों में उत्साह पूर्वक योगदान दिया तथा मार्ग दर्शन किया जिसके परिणामस्वरूप अल्मोड़ा जैसे जिलों में भी जहां जैन धर्म के अनुयायियों की संख्या नगण्य है उत्साहपूर्वक कार्यक्रम सम्पन्न हए । निर्वाण महोत्सव वर्ष के कार्यक्रमों का प्रारम्भ राज समिति के सरक्षक महामहिम डा० एम० चेन्ना रेड्डी राज्यपाल, उत्तर प्रदेश, के दिनांक १३ नवम्बर, १९७४ को प्रसारित निम्नलिखित संदेश के साथ किया गया
"मुझे यह जान कर बड़ी प्रसन्नता है कि श्री महावीर निर्वाण समिति, उत्तर प्रदेश, ने भगवान महावीर का वर्ष व्यापी २५००वां निर्वाण महोत्सव शीघ्र ही प्रारम्भ करने का निश्चय किया है।
हमारे देश में जब जब शाश्वत मूल्यों का ह्रास हुआ, भारतीय संस्कृति ने अपने गर्भ से जिन महापुरुषों तथा अवतारों को जन्म दिया, उनमें भगवान महावीर अग्रिम पंक्ति में आते हैं । जिस समय वैदिक धर्म का पतन हो रहा था तथा समाज में अनेक कुरीतियां, अन्धविश्वास तथा बलि एवं नरबलि तक व्याप्त हो रही थी, ऐसे समय भगवान महाबीर ने जन्म लेकर प्रेम, अहिंसा तथा सहिष्णुता का सन्देश देकर तथा अपने महान व्यक्तित्व के प्रभाव से अनेक सम्भ्रान्त राजवंशीय व जनसाधारण को दीक्षित करके भारतीय जनजीवन में नये प्राणों का संचार किया । उनका अहिंसा का सन्देश देश व काल की सीमाओं से परे है तथा मानवीय संस्कृति को विभिन्न नाम व रूपों में उत्प्रेरित करता रहेगा। मैं श्री महावीर निर्वाण समिति के इस अनुष्ठान की प्रशंसा करते हुए, उत्सव की सफलता हेत अपनी हार्दिक शुभकामनायें भेजता हूं।"
इस अवसर पर राज्य समिति के कार्याध्यक्ष माननीय डा० रामजी लाल सहायक, उच्च शिक्षा मंत्री उत्तर प्रदेश, ने भी दि० २३ नवम्बर १९५४ को प्रसारित निम्नलिखित संदेश के द्वारा समारोह की सफलता के लिए अपनी शुभकामनाएँ भेंट की
"जैन धर्म भारतीय संस्कृति की श्रमण परम्परा का प्रतिनिधित्व करता है। तीर्थंकर वर्धमान महावीर इस परम्परा के अन्तिम प्रस्तोता थे। महावीर ने आज से ढाई सहस्त्र वर्ष पूर्व अपने अहिंसा, अनेकान्त और अपरिग्रह के सिद्धान्त के निरूपण द्वारा एक सशक्त वैचारिक क्रान्ति उपस्थित की जो आज भी उतनी ही सार्थक है जितनी कि उनके जीवनकाल में थी। उन्होंने कदाग्रह को दूर करने और समाज में ऊँच-नीच एवं जाति वर्ण के भेद भाव को मिटाने के लिये एक सैद्धान्तिक आधार प्रदान किया। उनका पारमार्थिक संदेश लोक में कल्याण का मार्ग निरन्तर प्रदर्शित करता रहा है।।
तीर्थंकर महावीर को निर्वाण लाभ किये २५०० वर्ष पूरे हुये। मुझे हर्ष है कि देश भर में महावीर के २५००वां निर्माण समारोह को बड़े उल्लास से मनाया जा रहा है। इस प्रदेश में इन समारोहों का आयोजन श्री महावीर निर्वाण समिति, उत्तर प्रदेश, के माध्यम से किया जा रहा है। मुझे आशा है कि प्रदेश की जनता इस
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[ १५ निर्वाण महोत्सव वर्ष में महावीर के अहिंसा और सह-अस्तित्व के सम्यक आचरण एवं विभिन्न लोक हितकारी कार्यों के सम्पादन द्वारा उस महामानव के प्रति अपनी श्रद्धा के सुमन अर्पित करेगी।
मैं इस समारोह की सफलता के लिये अपनी हार्दिक शुभ कामनायें भेजता हूं।"
जिलों से प्राप्त सूचनाओं के आधार पर भगवान महावीर के २५००में निर्वाण महोत्सव वर्ष का प्रारंभ प्रदेश भर में बड़े उल्लास एवं उत्साह के साथ किया गया। प्रायः प्रत्येक स्थान में तीन से सात दिन के सुरुचिपूर्ण कार्यक्रम आयोजित किए गए। विशाल एवं भव्य शोभायात्राएं निकाली गई तथा सार्वजनिक समाएँ, धर्म सभाएँ, सर्वधर्म सम्मेलन एवं सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किए गए और भगवान महावीर की शिक्षाओं से सम्बन्धित साहित्य का वितरण किया गया। लखनऊ में तथा अन्य कई स्थानों पर ढाई हजार भूखों को भोजन कराया गया। कई समाचार पत्रों एवं साप्ताहिक, पाक्षिक तथा मासिक पत्रों ने इस अवसर पर अपने विशेषांक निकाले । शिक्षा संस्थाओं में भगवान महावीर की जीवनी एवं शिक्षाओं पर निबन्ध प्रतियोगिताएँ एवं वाद विवाद प्रतियोगिताएँ भी आयोजित हुई।
दिनांक १३ नवम्बर, १९७४ को भारत सरकार के डाक टिकट विभाग ने इस पुण्य अवसर पर एक विशेष डाक टिकट का प्रसारण किया जिसका विमोचन लखनऊ में श्री लक्ष्मी रमण आचार्य की अध्यक्षता में आयोजित एक सार्वजनिक सभा में माननीय की जगन्नाथ पहाड़िया, उप मन्त्री, संचार विभाग, भारत सरकार ने किया। लखनऊ में ही दिनांक १४ नवम्बर, १९७४ को माननीय डा० रामजी लाल सहायक, उच्च शिक्षा मन्त्री, उत्तर प्रदेश की अध्यक्षता में एक विशाल अहिंसा सम्मेलन आयोजित किया गया जिसमें जैन धर्म, बौद्ध धर्म, इस्लाम धर्म, ईसाई धर्म तथा हिन्दू धर्म के विद्वानों ने अपने धर्मों में अहिंसा के स्वरूप का प्ररूपण किया। ये दोनों कार्यक्रम जिला महावीर निर्वाण समिति लखनऊ ने राज्य समित के सहयोग से सम्पादित किए।
दिनांक २४ अप्रैल १९७५ को भगवान महावीर की जयन्ती भी प्रदेश भर में बड़े उल्लास एवं उत्साह के साथ मनाई गई। इस अवसर पर प्रायः प्रत्येक स्थान में तीन दिन का कार्यक्रम रखा गया जिसमें विशाल शोभा यात्राएं निकाली गई तथा सानजनिक सभाएं, कवि सम्मेलन तथा सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित ि
नौचन्दी के मेले में अप्रैल से "अहिंसा प्रचार केन्द्र" के नाम से एक शाकाहार प्रदर्शनी, तीर्थ क्षेत्र दर्शन व पंचशील प्रदर्शनी लगाई गई।
लखनऊ में सर्ग सेवा संघ वाराणसी द्वारा प्रकाशित ग्रंथ "समण सुत्तं" का विमोचन माननीय श्री वासुदेव सिंह, अध्यक्ष विधान सभा उत्तर प्रदेश, द्वारा किया गया। इस ग्रंथ का संकलन संत विनोबा जी की प्रेरणा पर जैन धर्म के विभिन्न सम्प्रदायों के आचार्यों एवं विद्वानों की १९७४ में दिल्ली में आयोजित एक समिति में किया गयां था तथा इसमें जैन धर्म के सभी सम्प्रदायों के मान्य आगम ग्रंथों से सूत्रों का विषयवार संकलन करके जैन धर्म का एक सर्वमान्य सार प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है।
दिनांक २० मई १९७५ को भगवान महावीर का केवलज्ञान-प्राप्ति दिवस मनाया गया । इस अवसर पर डा. ज्योति प्रसाद जैन ने लखनऊ में एक बृहत् जैन साहित्य एवं चित्र प्रदर्शनी तथा एक ज्ञान गोष्ठी आयोजित की जिसकी अध्यक्षता डा० आनन्द झा ने की, प्रदर्शनी का उद्घाटन डा० रामकुमार दीक्षित ने किया। अन्य स्थानों पर भी साहित्य प्रदर्शनी आयोजित की गई एवं जैन संस्कृति के विद्वानों का सम्मान किया गया ।
दीपावली १९७५ के अवसर पर निर्वाण महोत्सव वर्ष के समापन के उपलक्ष्य में प्रदेश भर में एक सप्ताह के कार्यक्रम बड़े उत्साह एवं उल्लास के साथ सम्पन्न किए गए। स्थान-स्थान पर भगवान की पूजा उपासना एवं निर्वाण लडड चढ़ाने तथा दीपमालिका का आयोजन करने के अतिरिक्त शोभायात्राएँ निकाली गई, सार्वजनिक सभाओं
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का आयोजन किया गया जिनमें भगवान महावीर की शिक्षाओं पर प्रकाश डाला गया, वाद विवाद प्रतियोगिताएँ, निबन्ध प्रतियोगिताएँ, अहिंसा मेले, सांस्कृतिक प्रदर्शनी आयोजित की गई। ९६. धर्म चक्र का प्रवर्तन
श्री दि. जैन भगवान महावीर का २५००वां निर्वाण महोत्सव सोसाइटी के प्रयत्न से देश भर में भगवान महावीर के धर्मचक्र को घुमाया गया। इसका उद्घाटन देहली में प्रधान मंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी जी के कर कमलों द्वारा किया गया था तथा ३ जून १९७५ को धर्मचक्र ने उत्तर प्रदेश में प्रवेश किया था। धर्मचक्र भगवान महावीर की शिक्षाओं एवं जीवन दर्शन का प्रतीक है। प्रदेश के सभी जिला अधिकारियों से अनुरोध कर दिया गया था कि वे अपने जिले में धर्मचक्र का यथोचित स्वागत, आदर सम्मान एवं सुरक्षा का प्रबन्ध करने की कृपा करें। राज्य समिति को संतोष है कि प्रायः सभी स्थानों में धर्मचक्र का स्वागत वरिष्ठ स्थानीय अधिकारियों एवं राजनेताओं द्वारा बड़ी श्रद्धा एवं सम्मान के साथ किया गया तथा भव्य शोभायात्राएं निकाली गईं जिनमें भगवान के परिचय एवं शिक्षाओं संबंधी साहित्य को जनता में वितरित किया गया। अनेक स्थानों में इस अवसर पर सार्वजनिक सभाएं भी आयोजित की गयीं जिनमें भगवान महावीर के प्रति श्रद्धांजलि अर्पित की गई।
धर्मचक्र का समापन दि० १६ नवम्बर १९७५ को श्री हस्तिनापुर तीर्थ क्षेत्र पर बड़ी धूमधाम से किया गया। १७. सैमीनार, व्याख्यानमालाएं, विचारगोष्ठियां तथा सांस्कृतिक प्रदर्शनियां
वाराणसी व्याख्यान माला-वाराणसी में हिन्दू विश्वविद्यालय के अन्तर्गत "भगवान महावीर और उनकी परम्परा का भारतीय समाज एवं संस्कृति के विकास में क्या योगदान है" इस तथ्य को अभिव्यक्ति देने के उद्देश्य से भारतीय महाविद्यालय में एक व्याख्यानमाला १२ मार्च १९७५ को आयोजित की गई जिसके अन्तर्गत निम्नलिखित व्याख्यान हुए :
(१) "भगवान महावीर के संदेश की भारतीय जनजीवन और वातावरण में एकात्मकता"-आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने बताया कि जिस प्रकार पूण्य सलिला नदी मरुस्थल में अंतर्निहित होकर भी समाप्त नहीं हो जाती,उसी तरह महापुरुषों का अवदान, उनके उपदेश कभी समाप्त नहीं होते। वे पुष्प के सौरभ कीतरह समस्त वायुमंडल में व्याप्त हो जाते हैं। महावीर का संदेश भारतीय जन-जीवन और वातावरण में एकात्मक हो गया है।
(२) "जैनधर्म : परम्परा और इतिहास"- पं. कैलाश चन्द्र शास्त्री ने पाश्चात्य और भारतीय विद्वानों द्वारा जैन धर्म संबंधी किए गए अनुसंधान कार्यों के प्रकाश में जैनधर्म के पारम्परिक इतिहास का मूल्यांकन करते हुए बताया कि जो तथ्य अभी इतिहास की पकड़ के बाहर हैं उनकी प्रमाणिकता की जांच के अनुसंधान अपेक्षित हैं।
(३) “पिछले ढाई सहस्त्र वर्षों में अहिंसा का बहुआयामी विकास"-डा० विद्यानिवास मिश्र ने विषय का प्रभावक ढंग से निरूपण करते हए इस पर बल दिया कि सहस्त्रों वर्षों की सीधी यात्रा की महती उपलब्धियां बेमानी और अर्थहीन नहीं हैं।
सेमिनार-वाराणसी में सेमिनार का आयोजन दिनांक १३-१४ मार्च, १९७५ को चार सन्नों में किया गया था जिसके अन्तर्गत 'भारतीय कला, संस्कृति और साहित्य को जैनधर्म का योगदान' के विषय पर एक परिचर्चा आयोजित थी। प्रथम दिन डा० गोकुल चन्द जैन का निबन्ध "जैन कला की पृष्ठभूमि, स्तूप तथा गुफा मन्दिर"
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तथा डा. झिनक यादव का "आचार्य हरिभद्रसूरी कृत समराइच्च कहा में जैन धर्म और दर्शन" पर निबन्ध पढ़े गये और चर्चा हई। दिनांक १४ मार्च १९७५ को हिन्दू विश्वविद्यालय आकस्मिक रूप से अनिश्चित काल के लिए बन्द हो जाने के कारण अन्म सत्रों का कार्यक्रम स्थगित कर दिया गया ।
प्रदर्शनी--इस अवसर पर भारत कला भवन में एक कला एवं पुरातत्व प्रदर्शनी का आयोजन भी किया गया जिसमें कला भवन में संरक्षित सामग्री के साथ-साथ भारत के विभिन्न क्षेत्रों में उपलब्ध एवं संग्रहालयों में संरक्षित ईसापूर्व दूसरी शती से लेकर बारहवीं शती तक की दुर्लभ सामग्री के चित्रों का एवं सचिन ग्रंथों का प्रदर्शन किया गया । प्रदर्शनी के लिए चित्रों का चयन इस प्रकार किया गया था जिसमें कि महावीर और उनकी परम्परा की सांस्कृतिक विचारधारा का प्रतिनिधित्व हो सके। साहित्य प्रदर्शनी में अर्धमागधी और शौरसेनी आगम, धर्म दर्शन, जैन न्याय, ध्यान योग, पुराण, काव्य, नाटक, इतिहास, कला, स्थापत्य, छन्द अलंकार, कोष, व्याकरण, ज्योतिष, चिकित्सा विज्ञान, पत्र-पत्रिकाएं एवं पिछले साठ वर्षों में प्रकाशित संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, हिन्दी, गुजराती, मराठी, कन्नड, फ्रेंच, जर्मन, इटालियन तथा अंग्रेजी के दुर्लभ एवं अप्राप्य विशिष्ट किया गया।
परिसंवाद गोष्ठी-वाराणसी में ३१ अक्टबर व १-२ नवम्बर को प्रो० निर्मल कुमार बोस स्मारक प्रतिष्ठान के तत्वावधान में राज्य समिति के आर्थिक सहयोग से "जैन धर्म और संस्कृति : आधुनिक संदर्भ में" विषय पर एक समाजनैज्ञानिक परिसंवाद गोष्ठी का आयोजन किया गया। समाज गैज्ञानिकों ने भारतीय संस्कृति की अब तक जो व्याख्या की है उसमें इस प्राचीन और ऐश्वर्यवान संस्कृति का सिर्फ ब्राह्मण विचार धारा का ही पक्ष निखर पाया है। किन्तु ब्राह्मणेतर विचारधाराओं के परिवेश से हट कर भारतीय संस्कृति की व्याख्या अधूरी है। कुछ प्रसिद्ध समाज गैज्ञानिकों का कहना है कि भारतीय संस्कृति पर कर्मवाद, चक्रीय परिवर्तन और वर्ण भेद जैसी मानव को अशक्त बनाने वाली अवधारणाओं का व्यापक प्रभाव है, जिसके कारण यह देश परिवर्तन और प्रगति के लिए आन्तरिक रूप से अक्षम है। किन्तु यह विचार भ्रामक है और जैन तथा बौद्धशास्त्रों में परिवर्तन और प्रगति की ओर प्रेरित करने वाली अवधारणाएं भरी पड़ी हैं। दुर्भाग्यवश अधिकांश समाजवैज्ञानिक इनसे अपरिचित रहे हैं और दर्शन के विद्वान इन्हें शुष्क तर्क का विषय बनाये हुये हैं । आज के संदर्भ में राष्ट्रीय संस्कृति के प्रति निष्ठा तथा व्यापक मानवीय मूल्यों को लेकर नए समाज की संरचना में-इन देशज अवधारणाओं की व्याख्या सिर्फ बौद्धिक चर्चा के लिए ही नहीं वरन् जनजागरण के लिए भी आवश्यक है । इस परिवेश में इस समाजवैज्ञानिक गोष्ठी का आयोजन किया गया जिसमें जैन दर्शन के अधिकारी विद्वानों और समाज विज्ञान के विशेषज्ञों ने निम्नांकित विषयों तथा अवधारणाओं पर गंभीर विचार चिंतन प्रस्तुत किया :
१. मानव की अवआरणा-सामान्यतया पुरुषार्थ की अवधारणा ईश्वरवाद और कर्मवाद के व्यापक सिद्धान्त से क्षीण हो जाती है, किन्तु भगवान महावीर के अनीश्वरवाद में मानव सत्ता की महत्ता को स्पष्ट रूप से प्रतिपादित किया गया है जो पुरुषार्थ की ओर प्रेरित करता है ।
२. शुचि और अशुचि की अवधारणा-भारतीय समाज में ऊंच-नीच और अछूत जैसे वर्ग भेद को शुचि और अशुचि की अवधारणा से बल मिलता है। दूसरी ओर यह भी कहा जाता है कि पवित्र संकुल की अवधारणा से भारतीय संस्कृति की विविधता में एकता आई है। शुचि की अवधारणा के अनुरूप ही वैयक्तिक और सामाजिक आचरण बनता है। किन्तु जैनधर्मी शुचि-अशुचि की अवधारणा आचार व्यवस्था तथा श्रम की अवधारणा पर आधारित है न कि पवित्र संकुल पर और स्वच्छ तथा सुगढ़ समाज के निर्माण के लिए अत्यन्त उपयोगी है।
३. परिवर्तन और प्रगति की अवधारणा-ईश्वरीय सृष्टि, कर्मवाद और चक्रीय परिवर्तन की अवधारणाएं प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से प्रगति की परिकल्पना को दुर्बल बनाती हैं। इसके विपरीत अनीश्वरवादी जैनधर्म में
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परिवर्तन और प्रगति के लिए जिस प्रकार का जीवन दर्शन प्रतिपादित किया गया है, वह तथा उसके अहिंसा एवं अपरिग्रह के सिद्धान्त आर्थिक विकास और वर्तमान समाज की आकांक्षाओं को ऊपर उठाने में पूर्णतया समर्थ हैं।
४. सहअस्तित्व की अवधारणा-साम्प्रदायिक संकीर्णता वैचारिक असहिष्णता को उभारती है। इस संदर्भ में भगवान महावीर का अनेकान्तवाद तथा स्याद्वाद आधुनिक समाजवादी धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा के अनुरूप है तथा वैयक्तिक एवं सामाजिक विचारों को स्वस्थ बनाने में प्रभावकारी रूप में सहायक है।
५. जैन धर्म : एक सामाजिक आन्दोलन-जैन धर्म का विकास तत्कालीन समाज-व्यवस्था के विरोध में एक सशक्त क्रान्ति के रूप में हुआ था । आधुनिक समाज की समस्याओं-गरीबी, जातिवाद, सम्प्रदायवाद-को हल करने में भी जैन धर्म के सिद्धान्त उतने ही सहायक सिद्ध हो सकते हैं।
गोष्ठी का आयोजन ६ उपवेशनों में किया गया जिनकी अध्यक्षता प्रो. सुरजीत सिंह, कुलपति, विश्वभारती, शान्ति निकेतन, प्रो० राजाराम शास्त्री, सिद्धान्ताचार्य पं. कैलाशचन्द्र जैन, डा० नथमल टाटिया, डा. दरबारीलाल कोठिया एवं डा० मोहनलाल मेहता ने की।
मसरी-दि. १ जून १९७५ को श्री दि० जैन महावीर भवन मसूरी में राज्य समिति के आर्थिक सहयोग से "शाकाहार" पर एक विचार गोष्ठी आयोजित की गई। गोष्ठी का उद्घाटन करते हुए माननीय डा० रामजी लाल सहायक ने कहा कि शाकाहारी सिद्धांत अपने व्यापक पक्षों में जीवन स्थिर रखने की श्रेष्ठ आहार पद्धति है, क्योंकि इन्द्रिय और मन की स्वस्थता का मूल आधार ही आहार शुद्धि है। मांसाहार से मनुष्य की कोमल भावनाएं नष्ट हो जाती हैं तथा मनुष्य का मन क्रूरता, उत्तेजना एवं हिंसात्मक विचारों से भर जाता है। शाकाहार के अहिंसा पक्ष को भी यदि कोई प्रश्रय न दें तो भी हमारे देश की जलवायु में दीर्घ-जीवन के लिए शाकाहार ही सर्वोत्तम आहार पद्धति है। इस गोष्ठी में मुख्य अतिथि व वक्ता श्री अक्षय कुमार जैन, प्रधान सम्पादक नवभारत टाइम्स, डा. जयकिशन प्रसाद खंडेलवाल, आगरा विश्वविद्यालय तथा पं० शीलचन्द्र मवाना थे, संयोजक श्री नरेन्द्र कुमार जैन देहरादून थे । मसूरी के लिए यह आयोजन अभूतपूर्व था।
दि० १० जून को श्री अक्षय कुमार जैन की अध्यक्षता में एक सर्वधर्म सम्मेलन आयोजित किया गया। - लखनऊ--लखनउ में "भारतीय संस्कृति में जैन विचारधारा" विषय पर एक चार दिवसीय संगोष्ठी २६-२९ अक्टूबर, १९७५ को बाल रवीन्द्रालय में राज्य समिति के आर्थिक सहयोग से जिला महावीर निर्वाण समिति द्वारा सम्पन्न हुई । संगोष्ठी का उद्घाटन करते हुए उच्च शिक्षा मन्त्री माननीय डा० रामजी लाल सहायक ने कहा कि समग्र दृष्टि से देखने पर यह स्पष्ट होता है कि जैन विचारधारा भारतीय संस्कृति की सशक्त धारा रही है और इसका प्रभाव न्यूनाधिक जन-जीवन के सभी क्षेत्रों पर व्यापक रूप से पड़ा है। साहित्य और कला के माध्यम से हमें जैनों की सृजनात्मक प्रतिभा का प्रभूत परिचय मिलता है। आज भी यद्यपि जैन धर्म के अनुयायी अल्प संख्या में हैं, शिक्षा, कला, विद्या और व्यापार के क्षेत्र में वे अपना विशिष्ट एवं महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं।
___ संगोष्ठी के प्रथम सत्र का विवेच्य विषय था "भारतीय साहित्य और जैन साहित्यकार" । डा. केसरी नारायण शुक्ला ने अपने अध्यक्षीय भाषण में बताया कि भारतीय संस्कृति समुद्र संगम है जिसमें भारतीय समाज की विविध धाराएं अपने विचारों को युगों-युगों से उसमें अपित करती रही हैं। जैन साहित्य अभिनन्दनीय है क्योंकि जैन ग्रंथकारों ने भारतीय ज्ञान के विविध अंगों तथा विविध भाषाओं को समृद्ध किया। इस सत्र में प्राकृत एवं अपभ्रंश साहित्य पर डा. मोती लाल रस्तोगी ने, संस्कृत साहित्य पर डा. जगदम्बा प्रसाद सिन्हा ने, हिन्दी साहित्य पर डा० (श्रीमती) सरला शुक्ला ने, दक्षिण भारतीय भाषाओं के साहित्य पर श्री रमाकांत जैन ने तथा मराठी साहित्य पर श्री काशीनाथ गोपाल गोरे ने गम्भीर अध्ययन प्रस्तुत किये। द्वितीय सत्र का विवेच्य विषय
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था - " भारतीय कला के विकास में जैनों का योगदान" । इस सत्र की अध्यक्षता करते हुए डा० बैजनाथ पुरी ने कहा कि जैन कला कृतियां केवल जैनधर्म से सम्बन्धित नहीं हैं, वरन् वे हमारी सांस्कृतिक थाती का अविभाज्य अंग हैं और राष्ट्रीय एकात्मक भावना की प्रतीक हैं। इस सब में डा० रामकुमार दीक्षित ने जिनेन्द्र प्रतिमा के विकास का, डा० नीलकण्ठ पुरुषोत्तम जोशी ने जैन कला के विविध आयामों का डा० पुरु दाधीच ने जैन साहित्य में भारतीय संगीत का और डा० शशिकांत ने जैन स्थापत्य का मार्मिक विवेचन प्रस्तुत किया । तृतीय सत्र का विवेच्य विषय या "भारतीय दर्शन पर जैन चिन्तन का प्रभाव" इस सत्र की अध्यक्षता करते हुए डा० ( कु० ) कंचनलता सब्बरवाल ने बताया कि जैन दर्शन ने भारतीय दर्शन को गम्भीर चिन्तन मनन एवं सत्य सम्बन्धी साधना के आधार पर की गई कठिन खोज के फलस्वरूप स्याद्वाद का सिद्धांत दिया और इस स्याद्वाद के आधार ने सत्य ज्ञान की प्रेरणा लेकर मानव को सत्कर्म आत्म विश्वास के साथ करने की क्षमता प्रदान की। साथ ही इस दर्शन ने जीव और अजीव के बीच निःस्वार्थ पावन सम्बन्ध रख कर ही जीवन की सार्थकता हो सकती है, इस ओर भी संकेत किया । डा० प्रद्युम्न कुमार जैन ने साधना विधि की, डा० ( कु० ) राधा शर्मा ने कर्म और मोक्ष सम्बन्धी स्थापनाओं की, डा० वशिष्ट नारायण सिन्हा ने आधुनिक पृष्ठभूमि में जैन दर्शन की और सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाश चन्द्र शास्त्री ने जैन दर्शन की पृष्ठभूमि के मूलाधार अनेकान्त और स्याद्वाद की सहज सुबोध व्याख्या की चतुर्थ सन का विवेच्य विषय था- "भारतीय लोक संस्कृति का जैन पक्ष" । सत्र की अध्यक्षता करते हुए डा० जनार्दन दत्त शुक्ल, आई० सी० एस० (रिटायर्ड), ने बताया कि समन्वयवादी दृष्टिकोण को समाज में लाने का श्रेय मुख्यतया जैन चिन्तन पद्धति के भारतीय जन-जीवन पर व्यापक प्रभाव को है । भारतीय जीवन में निरामिष भोजन पर आग्रह एवं दानशीलता जैनों की अहिंसा और अपरिग्रह के सिद्धान्तों का परिणाम है। प्रो० उदयचन्द जैन ने पूजा एवं संस्कार विधि पर, श्री ज्ञानचन्द जैन ने पर्व और त्योहारों पर, श्रीमती मन्जरी जैन ने नारी की मर्यादा पर, डा० पूर्णचन्द जैन ने आहार में शाकाहार की उपयोगिता पर और डा० शिवनन्दन मिश्र ने जैन आचारविचार पर ज्ञानवर्द्धक प्रकाश डाला ।
ख- -७
संगोष्ठी का समापन करते हुए डा० ज्योति प्रसाद जैन ने अध्ययन के लिए वह अभीष्ट है कि जैन साहित्य और कला की, उसे जैन संस्कृति जहां अपना स्वतन्त्र व्यक्तित्व रखती है, वहीं पर वह होने से भी गौरवान्वित हूँ ।
आग्रह किया कि भारतीय संस्कृति के सम्यक् साम्प्रदायिक संज्ञा देकर उपेक्षा न की जाय । अखिल भारतीय संस्कृति का अविभाज्य अंग
इस संगोष्ठी के सफल आयोजन के लिए संगोष्ठी के संयोजक डा० शशिकांत जैन एवं उनके सहयोगियों का अथक परिश्रम स्तुत्य है ।
नजीबाबाद राज्य समिति के आर्थिक सहयोग से नजीबाबाद में तीर्थंकर नैतिक शिक्षा पत्राचार इन्स्टीट्यूट के तत्वावधान में हिन्दी संत साहित्य में जैन साहित्यकारों का योगदान विषय पर आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की अध्यक्षता में दि० २१ २३ अक्टूबर १९७५ को एक विदिवसीय सेमीनार आयोजित किया गया। इसका संयोजन डा० प्रेमचन्द्र जैन ने किया। इस परिसंवाद गोष्ठी में डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल ने "राजस्थान के जैन संत कवि", श्री नर्मदेश्वर चतुर्वेदी ने "संत साहित्य में जैन कवियों का योगदान", डा० कुन्दन लाल जैन ने "हिन्दी साहित्य के इतिहास में जैन संत कवियों का स्थान", डा० भागचन्द जैन ने 'हिन्दी संतसाहित्य में योगीन्दु का योगदान', डा० पुष्पार्जन ने 'हिम्दी संत साहित्य और द्यानतराय कु० पूर्णिमा ने 'हिन्दी साहित्य और जैन साहित्यकारों का तुलनात्मक विवेचन' और डा० रामस्वरूप आर्य ने "जैन संत कवियों का काव्य पक्ष" विषय पर अपने शोध निबन्ध पढ़ें तथा उन पर चर्चाएं कीं। डा० विजयेन्द्र स्नातक ने गोष्ठी का समापन किया ।
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२०
२८ - बिजनौर में कीर्ति स्तम्भ का निर्माण
राज्य समिति के आर्थिक सहयोग से बिजनौर नगर में कलेक्टरी के प्रवेश द्वार के समीप एक संगमरमर के कीर्ति स्तम्भ का निर्माण कराया गया है जिस पर भगवान महावीर का संक्षेप में जीवन परिचय एवं शिक्षाएँ अंकित की गई हैं ।
१९ - राष्ट्रीय कार्बेट पार्क, ढिकाला में अहिंसा-स्तम्भ का निर्माण
ख - ७
नजीबाबाद, जिला विजनोर क्षेत्र की श्री महावीर निर्वाण समिति के सुझाव पर राष्ट्रीय कार्बेट पार्क ढिकाला के प्रवेश द्वार धनगढ़ी पर एक अहिंसा-स्तम्भ के निर्माण तथा प्रदर्शन कक्ष के निर्माण की योजना तैयार की गई है जिस पर एक लाख रुपये की लागत का अनुमान है। यह वन्य जन्तु उद्यान एशिया महाद्वीप का सबसे बड़ा वन्य जन्तु पार्क है तथा इस विशाल क्षेत्र में विभिन्न स्वभाव के हिंसक एवं अहिंसक वन्य जन्तु स्वतंत्र रूप से विचरण करते हैं तथा इसमें शिकार खेलना सदैव के लिए वर्जित है । हिमालय की तराई में स्थित यह विशाल उद्यान अपनी रमणीयता के कारण पर्यटकों को विशेष रूप से आकर्षित करता है और प्रतिवर्ष सहस्त्रों की संख्या में देशी और विदेशी पर्यटक इसका परिभ्रमण करने के लिए आते हैं, जिसके लिए शासन की ओर से पर्याप्त सुविधा यहाँ उपलब्ध है । यहाँ पर समय-समय पर चलचित्रों की शूटिंग भी होती रहती है ।
शासन के वन विभाग ने इस योजना का स्वागत किया है तथा निःशुल्क भूमि उपलब्ध कराने का आश्वासन दिया है । इस योजना के कार्यान्वयन के लिए श्री० के० सी० जैन, मुख्य अरण्यपाल, उ० प्र० की अध्यक्षता में एक राष्ट्रीय कार्बेट पार्क अहिंसा स्तम्भ निर्माण समिति का गठन कर दिया गया है जिसने कार्य करना आरम्भ कर दिया है। राज्य समिति से भी इस योजना के लिए लगभग पचास हजार रु० का अनुदान अपेक्षित है । २० - निबन्ध प्रतियोगिता
राज्य समिति की एक योजना प्रदेश के विभिन्न उच्चतर माध्यमिक विद्यालयों में भगवान महावीर के २५०० वें निर्वाण महोत्सव वर्ष में निम्नलिखित विषयों पर निबन्ध प्रतियोगिता आयोजित करने की थी—
१ - जैन धर्म का भारतीय संस्कृति में योगदान
२ - विश्व की समस्याओं का निदान — अहिंसा
१३ -- शाकाहार
प्रतियोगिता में सम्मिलित किये जाने वाले निबन्धों के शब्दों की संख्या सामान्तया १००० रखी गयी थी तथा प्रत्येक जिले की जिला समिति को यह निदेश दिये गये थे कि वे प्रत्येक विद्यालय में अपने यहाँ के निबन्धों का मूल्यांकन करके प्रत्येक विषय के दो सर्वश्रेष्ठ निबन्ध जिला समिति को भेजेंगे। जिला समिति विभिन्न विद्यालयों से प्राप्त निबन्धों का मूल्यांकन करके प्रत्येक विषय के २ निबन्धों को पुरस्कार देगी और तदुपरान्त इन निबन्धों को राज्य समिति को भेज देगी। राज्य समिति की कार्यकारणी उपसमिति द्वारा प्रदेश भर के प्रथम ३ निबन्धों पर प्रथम, द्वितीय तथा तृतीय पुरस्कार जो क्रमशः ५००/-, २५० /- व १२५/- रुपये देने का निर्णय लिया गया है । यह पुरस्कार नकद तथा पुस्तकों के रूप में दिया जायेगा । इस योजना के अन्तर्गत २२ जिलों से ११३ निबन्ध प्राप्त हुए हैं । २१ - सार्वजनिक पुस्तकालयों को जैन साहित्य को भेंट
राज्य समिति की एक योजना प्रदेश के प्रसिद्ध सार्वजनिक पुस्तकालयों में से प्रत्येक को लगभग १,००० रु० मूल्य का जैन साहित्य भेंट करने की है, जिससे कि उन पुस्तकालयों में एक जैन कक्ष का प्रारम्भ किया जा सके । कार्यकारणी उपसमिति की बैठक दिनांक १९ अगस्त १९७४ में भेंट में दिये जाने वाले ग्रंथों की सूची तैयार करनेका कार्य श्रीचन्द सुराना, आगरा, खुशाल चन्द्र गोरेवाला, वाराणसी, पं० कैलाश चन्द शास्त्री, वाराणसी तथा
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२१
डा. ज्योति प्रसाद जैन, लखनऊ को सौपा गया है। डा. ज्योति प्रसाद जैन ने पूस्तको की सूची अन्य सदस्यों के परामर्श से तैयार कर ली है । २५ पुस्तकालयों का भी चयन कर लिया गया है तथा उन्हें साहित्य भेंट में भेजा जा रहा है। २२-लखनऊ में राज्य स्तर पर महावीर उद्यान एवं स्मारक का निर्माण
भारत सरकार ने देहली में केन्द्रीय स्तर के एक महावीर उद्यान एवं पार्क के निर्माण के लिए २५ एकड़ भूमि तथा ५० लाख रुपये का अनुदान दिया है। राज्य समिति ने भी लखनऊ में एक राज्य स्तर के महावीर उद्यान एवं स्मारक के निर्माण की संस्तुति की है। भूमि का चयन कर लिया गया है तथा राज्य सरकार से उसके हस्तान्तरण के लिए लिखा-पढ़ी चल रही है। २३-भगवान महावीर स्मृतिग्रंथ
भगवान महावीर के २५००वें निर्वाण महोत्सव वर्ष की पावन स्मृति में राज्य समिति ने निम्नलिखित प्रकाशनों के आयोजन का निश्चय किया था :
१. जैन संस्कृति का भारतीय संस्कृति में योगदान २. शाकाहार के सिद्धांत एवं उनके संबंध में विश्व साहित्य का दिग्दर्शन ३. उत्तर प्रदेश के जैन सांस्कृतिक एवं कला केन्द्र ४. वर्ष की समाप्ति पर एक स्मारिका का प्रकाशन
बाद में यह सोचा गया कि उपरोक्त विषयों पर पृथक-पृथक पुस्तकें प्रकाशित करने के बजाय एक स्थायी महत्व के बहद "भगवान महावीर स्मृति ग्रंथ" का प्रकाशन करना अधिक समीचीन होगा और उसमें उपरोक्त सभी विषयों का समावेश कर दिया जाय। इस ग्रंथ के संपादन का गुरु भार राज्य समिति के सदस्य एवं जैन साहित्य तथा संस्कृति के लब्धप्रतिष्ठित विद्वान विद्यावारिधि डा० ज्योति प्रसाद जैन लखनऊ को सौंपा गया । डाक्टर साहिब अनेक सुप्रसिद्ध ग्रंथों के रचयिता हैं तथा शोध पत्रिकाओं के सम्पादक हैं। उनकी सहायता के लिए वाराणसी के सिद्धांताचार्य पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री, डा. मोहनलाल मेहता, श्री शरद कुमार 'साधक' तथा श्री जवाहर लाल, लोढ़ा आगरा का एक सम्पादक मंडल भी गठित कर दिया गया था। इस ग्रंथ में भगवान महावीर की सूक्तियां एवं उपदेश, उनकी स्तुति में रचित प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश व हिन्दी के स्तोत्र एवं स्तवन, उनका जीवन परिचय, उनकी उपलब्धियां एवं धर्म व्यवस्था, जैन दर्शन, साहित्य एवं संस्कृति, शाकाहार की सांस्कृतिक एवं वैज्ञानिक विवेचना, उत्तर प्रदेश में जैन धर्म के उदय एवं विकास, सांस्कृतिक केन्द्र, पुरातत्व-कला वैभव तथा साहित्य एवं समाज पर प्रचुर उपयोगी सामग्री का संकलन किया गया है तथा राज्य समिति के कार्यों एवं उपलब्धियों का भी संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत किया गया है। जिस अथक परिश्रम एवं रुचि से इस ग्रंथ की संरचना की गई है उसके लिए राज्य समिति डाक्टर साहिब एवं उनके सहयोगियों की आभारी है।
२४–राज्य समिति की जितना कुछ कार्य इस पावन वर्ष में करने की योजना एवं आकांक्षा थी उसका एक लघु अंश ही हम पूरा कर पाए हैं । कुछ योजनाएं हमें धनाभाव के कारण छोड़नी पड़ गईं और अन्य कुछ में सन्तोष जनक प्रगति नहीं हो पाई। धीमी प्रगति में अर्थाभाव के अतिरिक्त हमारी स्वयं की अकर्मर्ण्यता भी एकप्रमुख कारण है। फिर भी हमारा यह प्रयास है कि जो योजनाएं प्रारम्भ हो गई हैं उन्हें शीघ्रातिशीघ्र पूरा करा दिया जाय ।
अन्त में मैं राज्य समिति के कार्याध्यक्ष माननीय डा० रामजीलाल सहायक, उपाध्यक्ष श्री लक्ष्मीरमण आचार्य तथा सचिव श्री शशिभूषण शरण का हृदय से आभार प्रकट करता हूं जिनके समुचित एवं उत्साहवर्द्धक मार्गदर्शन से ही जो कुछ भी थोड़ा बहत कार्य हआ है संभव हो सका। मैं डा. शशिकान्त का भी कृतज्ञ हैं जिन्होंने मेरी अस्वस्थता के दौरान समिति के कार्यों में मेरा हाथ बटाया तथा अपना पूरा सहयोग सभी कार्यों में दिया।
-अजित प्रसाद जैन, उपसचिव
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२२ ]
परिशिष्ट क
आकाशवाणी के लखनऊ केन्द्र से आयोजित कराये गये विशेष कार्यक्रम
( 1 ) English Talks Programme
'Mahavir, the Father of Ahimsa' series
1. The Life and Teacltings of Lord Mahavira -by Dr. Jyoti Prasad Jain, M. A., LL.B, Ph. D. broadcast on 21. 11. 1974 and 20. 4. 1975
2. The Jain Holy Places of Uttar Pradesh
-by Dr. Satish Chandra Awasthi, M. A., Ph. D. —broadcast on 2. 2. 1975
3. The Jain Literature in Hindi
by Dr. (Miss) Usha Mathur, M. A., Ph. D. ---broadcast on 11. 5. 1975
4. The Impact of Mahavir on Indian Culture -by Dr. J. D. Shukla, D. Phil., I. C. S. (retd.) —broadcast on 7. 9. 1975
5. Non-violence in Action
-by Dr. Shashi Kant, M. A., D. R., Ph. D. — broadcast on Oct. 5, 1975
(२) नाटक कार्यक्रम
उत्तर प्रदेश में तीर्थंकर महावीर
- लेखक डा० शशिकान्त, प्रस्तुतकर्ता श्री प्रकाश जोशी - १६-४-१९७५ को प्रसारित २१-९-१९७५ को पुनः प्रसारित
(२) उत्तरायण कार्यक्रम
पतांचल में जैन संस्कृति और तीर्थंकर महावीर
- श्री रमाकान्त जैन, बी० ए०, साहित्यरत्न, तमिल कोविद
- वार्ता २३-७-१९७५ को प्रसारित
(३) लोकायतन कार्यक्रम
जैन धर्म की सार्वभौमिकता
- श्री अजित प्रसाद जैन, उपसचिव, श्री महावीर निर्माण समिति, उत्तर प्रदेश __बार्ता १९-४-१९७५ को प्रसारित
(४) मजदूर मण्डल कार्यक्रम
श्री अजित प्रसाद जैन की वार्तायें
१ - वर्धमान महावीर १२ नवम्बर १९७४ को प्रसारित
२ - जैन धर्म का मूल तत्व - कर्तव्य पालन - ११ सितम्बर, १९७५ को प्रसारित
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ख-७
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[ २३
रु०
परिशिष्ट-ख म. महावीर के २५००वें निर्वाण महोत्सव वर्ष के उपलक्ष में विभिन्न जिलों में किये जा रहे निर्माण कार्यों की अनुमानित लागत तथा उक्त कार्यों पर व्यय की गई अथवा उनके निमित्त एकत्र की गई धनराशि की विवरण तालिका:जिला कुल अनुमानित
निर्माण कार्यों पर व्यय की गई व्यय
अथवा उनके निमित्त एकत्र की
गई धन राशि रु० १. देहरादून १०,१६०००
४,१०,००० २. अलीगढ़ ३,७५,०००
१,६०,००० ३. रामपुर ६०,०००
३०,००० ४. क-बिजनौर
८,००० ख-कोटद्वार ३०,०००
१०,००० ५. रायबरेली २,००,०००
५१,००० ६. सहारनपुर
५,००,००० (हरिद्वार)
कुल व्यय राजकृश्न ट्रस्ट द्वारा किया जायगा ७. बरेली २,००,०००
५०,०००
भूमि शासन द्वारा उपलब्ध करादी गई है ८. बुलन्दशहर २,००,०००
१०,००० ९. गोंडा ५०,०००
५०,००० १०. क-आगरा
२,००,००० ख-फिरोजाबाद १२,००,०००
कुल व्यय सेठ छदामी लाल द्वारा
१२,००,००० ११. मेरठ
१४,००,००० १२. नैनीताल १,००,०००
३०,००० १३. लखनऊ ७,५०,०००
२,५०,००० १४. कानपुर
५,००,००० १५. देवरिया
२,००,००० १६. सीतापुर ५०,०००
१०,००० १७. बाराबंकी २,००,०००
५०,००० योग ७२,३९,०००
४१,६५,००० परिशिष्ट-ग केन्द्रीय सरकार द्वारा गठित राष्ट्रीय महासमिति की संस्तुति पर केन्द्रीय सरकार द्वारा अनुमोदित कार्यक्रमों की सूचीः
(लाख रुपयों में) १. दक्षिण देहली में वनस्थली का विकास तथा उसमें भगवान महावीर स्मारक का निर्माण
रु.१०.००
१३,५०,०००
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२४
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२. जैन कला एवं चित्रों के एक संग्रहालय, जैन साहित्य के एक पुस्तकालय तथा
जैनालाजी के अध्ययन के लिए गठित राष्ट्रीय परिषद के कार्यालय की स्थापना रु० ५.०० ३. भगवान महावीर बाल केन्द्र (प्रत्येक राज्य में एक)
रु० १०.०० ४. देहाती पुस्तकालय केन्द्रों की स्थापना (प्रत्येक राज्य में एक) ५. भगवान महावीर की जन्म भूमि वैशाली में एक स्मारक का निर्माण
रु० २.५० ६. जैनालाजी के अध्ययन एवं अनुसंधान के लिए एक स्वायत्तशासी राष्ट्रीय परिषद की स्थापना
रु. १०.०० ७. प्रकाशन योजना
रु० ४.०० ८. भगवान महावीर के जीवन एवं शिक्षाओं सम्बन्धी प्रकाशन
रु० ०.५० ९. अन्य समारोह
रु० २.०० योग
रु. ५०.०० परिशिष्ट-घ उत्तर प्रदेश के विभिन्न जनपदों में भगवान महावीर के २५०० में निर्वाण महोत्सव वर्ष में सम्पन्न कछ उल्लेखनीय कार्यक्रमों का विवरण प्राप्त सूचनाओं के आधार पर; जिन स्थानों या जिलों से कोई सूचनाएँ प्राप्त नहीं हुई, उनका विवरण नहीं दिया जा सकाअल्मोड़ा
अध्यक्ष--श्री सुशीलचन्द्र त्रिपाठी, जिला अधिकारी सचिव-श्री जगदीश चन्द्र भट्ट, जिला हरिजन तथा समाज कल्याण अधिकारी
इस जनपद में जैन धर्मानुयायी नहीं हैं फिर भी जिला अधिकारी श्री त्रिपाठी एवं समिति के सदस्यों के विशेष रुचि लेने के कारण
(i) २४ अप्रैल १९७५ को रामजे इण्टर कालेज अल्मोड़ा के प्रांगण में अध्यक्ष नगरपालिका की अध्यक्षता में एक सार्वजनिक सभा का आयोजन किया गया जिसमें नगर के गणमान्य व्यक्ति, राजनैतिक दलों के नेता गण, शिक्षा संस्थाओं के आचार्यों एवं पत्रकारों ने भाग लिया। विद्वान वक्ताओं ने भ. महावीर स्वामी द्वारा प्रतिपादित जैन धर्म तथा भारतीय संस्कृति व जन मानस पर उनके प्रभाव पर प्रकाश डाला।
(ii) स्थानीय शिक्षा संस्थाओं के सहयोग से "जैन धर्म का भारतीय संस्कृति में योगदान" "विश्व की समस्याओं का निदान अहिंसा में हैं", "भारतीय संस्कृति पर जैनधर्म का प्रभाव" आदि विषयों पर निबन्ध प्रतियोगिताएं आयोजित की गई।
(iii) भगवान महावीर के जन्मदिवस एवं निर्वाणदिवस को जिले के सभी बूचड़खाने व शराब की दुकानें बन्द रखी गईं। अलीगढ़
संरक्षक--श्री के. किशोर, आयुक्त, आगरा मंडल अध्यक्ष--श्री नरेश चन्द्र सक्सेना, जिला अधिकारी महामन्त्री-श्री एस. के. शर्मा, अति. जिला अधिकारी, अलीगढ़
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ख
-७
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२५
शोभायात्राएँ, सार्वजनिक सभाएँ, सांस्कृतिक कार्यक्रम एवं विद्यालयों में निबन्ध प्रतियोगिताओं के अतिरिक्त निम्नलिखित कार्यक्रम सम्पन्न हए या सम्पन्न कराये जा रहे हैं:--
(१) अलीगढ़ नगर में उपाध्याय मुनि श्री विद्यानन्द स्वाध्याय भवन का रु०१,२५,०००/- की लागत से निर्माण ।
(२) अलीगढ़ नगर के मुख्य मार्गों पर शिलालेखों तथा बोंडस का लगाना ।
(३) सासनी में महाकवि दौलतराम कक्ष का निर्माण । इसके लिए रु. ५,५००/- का जैन साहित्य क्रय किया गया है।
(४) सासनी में रु० ५०,०००/- की लागत से महावीर धर्मशाला का निर्माण (रु० ३५०००/- एकत्र हो
चुका है )
(५) हाथरस में रु. ७०,०००/- की लागत से महावीर पुस्तकालय का निर्माण । (६) हाथरस में पशु चिकित्सालय का निर्माण । (७) सिकंदराराऊ में महावीर पार्क का निर्माण । (८) साहित्य का प्रकाशन (i) वर्द्धमान प्रभु महावीर
(ii) तीर्थकर महावीर-जीवन और सिद्धान्त (हिंदी एवं अंग्रेजी में) । पद्म शतक (काव्य), सूक्ति तथा भ० महावीर स्मारिका प्रकाशनाधीन हैं।
(९) १९-२४ फरवरी १९७५ को जिनेन्द्र पंच कल्याणक महोत्सव अलीगढ़ में बड़े भव्य रूप में मनाया गया। १५-२५ जुलाई १९७५ को श्री सिद्ध चक्र विधान एवं भ. महावीर देशना समारोह सासनी में मनाया गया जिसका उद्घाटन राज्य समिति के उपाध्यक्ष श्री लक्ष्मी रमण आचार्य ने किया।
___ लगभग १६ जैन शिक्षा एवं धर्मार्थ संस्थाएं पहिले से ही इस जनपद में सार्वजनिक सेवा के कार्य में रत हैं । आगरा
अध्यक्ष:-श्री जगत नरायन प्रधान, जिला अधिकारी
(१) भ० महावीर के निर्वाण दिवस, दीक्षा दिवस, महावीर जयन्ती, केवलज्ञान तथा देशना दिवस के कार्यक्रम लगभग रु. ६०,०००/- के व्यय से बड़े भव्य रूप में मनाये गये।
(२) २७ जनवरी से ५ फरवरी १९७५ तक लगभग रु० ८०,०००/- के व्यय से आगरा में पंच कल्याणक महोत्सव का भव्य आयोजन किया गया ।
(३) १५ मार्च १९७५ तथा १० जून १९७५ को धर्मचक्र के आगमन, शोभायात्राओं एवं सभाओं का आयोजन किया गया।
(४) शाहगंज आगरा में श्री दि० जैन चैत्यालय का निर्माण किया गया । (५) महावीर जयन्ती पर “समण सुत्तं” ग्रन्थ का विमोचन किया गया । (६) महावीर जयन्ती पर 'श्री महावीर दि० जेन होम्योपैथिक" औषधालय की स्थापना की गई।
कर्याधीन योजनाएं-(i) महावीर उद्यान, पुस्तकालय, वाचनालय, शिक्षालय, पक्षी अस्पताल एवं कीर्ति स्तम्भ का निर्माण । (इस योजना के कार्यान्वयन के लिए एक भ० महावीर स्मारक समिति, आगरा का गठन कर दिया गया है । भूमि के लिए शासन से प्रयास किया जा रहा है)
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२६ ]
(ii) ऐतिहासिक इमारतों के समीप महावीर वाणी के शिलालेख लगवाना (इस संबन्ध में भारतीय पुरातत्व एवं सर्वेक्षण विभाग से लिखा पढ़ी चल रही है।) फिरोजाबाद
(१) सेठ छदामीलाल जैन ट्रष्ट द्वारा भगवान बाहुबलि स्वामी की ४५ फीट ऊँची १३० टन वजन की भव्य मूर्ति, जिसका निर्माण कारकल में कराया गया है, की स्थापना भगवान महावीर जिनालय फिरोजाबाद में की गई।
(२) "जैन संगठन" फिरोजाबाद द्वारा एक 'बरी-पापड़ योजना प्रारम्भ की गई है जिसके द्वारा अनाथ बच्चों व साधनहीन विधवाओं की जीविकोपार्जन की व्यवस्था का प्रयास किया जाता है।
(३) "जैन संगठन" द्वारा एक जैन डाइरेक्टरी प्रकाशित की जा रही हैं। नगर में लगभग एक दर्जन शिक्षा तथा अन्य धर्मार्थ जैन संस्थाएं पहले से ही विद्यमान हैं।
इटावा
अध्यक्ष प्रेमचन्द जैन
(१) ११ नवम्बर १९७५ को जिला अधिकारी महोदय के सभापतित्व में एक विशाल जनसभा के आयोजन से निर्वाण महोत्सव वर्ष के कार्यक्रमों का शुभारम्भ किया गया। प्रत्येक तहसील स्तर पर निर्वाण समारोह समितियों का गठन किया गया । १४ नवम्बर को जनपद के विद्यालयों में प्रतियोगिताओं का आयोजन किया गया तथा जैन विद्वानों ने विद्यालयों में जाकर भगवान महावीर के सिद्धान्तों पर प्रकाश डालते हुए शाकाहारी बनने के लाभों से छात्रों को अवगत कराया। भगवान के जन्म, दीक्षा, देशना एवं निर्वाण दिवसों को बड़े उल्लास पूर्वक मनाया गया ।
(२) दिसम्बर १९७५ में इटावा में हुई प्रदर्शनी में म० महावीर के दिव्य उपदेशों का प्रचार किया गया, जैन कवि सम्मेलन तथा भाषण प्रतियोगिता का आयोजन किया गया। विजेताओं को जिलाधीश महोदय ने पुरस्कार वितरित किये।
(३) इटावा नगर के निकट प्राचीन जैन तपोभूमि निशियां जी, जहां कुछ समय पूर्व खुदाई में तीन जैन स्तूप, सम्वत् १०५० का शिलालेख तथा एक अतिप्राचीन भ० पार्श्वनाथ की प्रतियां प्राप्त हुई थी, को एक रम्य वनस्थली के रूप में विकसित किया जा रहा है।
एटा
(१) जिला अधिकारी श्री अखंड प्रतापसिंह की अध्यक्षता में अवागढ़ में पंच कल्याणक महोत्सव का आयोजन किया गया। इस अवसर पर जिला प्रशासन के द्वारा एक कृषि-औद्योगिक प्रदर्शनी भी लगाई गई।
(२) पाक्षिक पत्न "करुणादीप" के माध्यम से अहिंसा का प्रचार किया गया तथा लगभग ३०,००० व्यक्तियों से चर्म वस्तुओं के त्याग के प्रतिज्ञा पत्र भरवाये गये ।
(३) एटा में एक दातव्य औषधालय की स्थापना का निश्चय किया गया।
मैनपुरी
जौहरीनगर में इसी उपलक्ष में ला० श्यामलाल जियालाल जैन ने एक कीर्तिस्तम्भ निर्माण कराया है।
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ख -७
[ २७ बाराबंकी
संरक्षक-श्री आर. एस. टोलिया, जिला अधिकारी अध्यक्ष रवीन्द्रनाथ वर्मा, अति. जिला अधिकारी
(१) बाराबंकी व गणेशपुर में महावीर जैन विद्यालयों की स्थापना की गई। टिकैतनगर व दरियाबाद में स्थापित विद्यालयों को दसवीं कक्षा तक बढ़ाकर मान्यता प्राप्त की गई।
(२) बाराबंकी नगर में रेलवे स्टेशन से राजकीय अस्पताल तक मुख्य मार्ग का तथा फतेहपुर में प्रमुख मार्ग का नामकरण 'भगवान महावीर मार्ग" किया गया ।
(३) बाराबंकी, गनेशपुर व टिकैतनगर में दातव्य औषधालयों की स्थापना की गई।
(४) बाराबंकी नगर में भगवान महावीर २५०० वां निर्वाण स्मारक भवन का रु. १०,००० की लागत से निर्माण कराया गया ।
(५) भगवान नेमिनाथ स्वामी के अतिशय तीर्वक्षेत्र त्रिलोकपुर की बिन्दौरा से ८ कि. मी. लम्बी कच्ची सड़क राज्य सरकार द्वारा पक्की कराई जा रही है तथा उस मार्ग का नाम "भगवान नेमिनाथ मार्ग" रखने का निर्णय ले लिया गया है। बिजनौर
अध्यक्ष-श्री अशरफ अली खां, जिला अधिकारी
(१) बिजनौर में संगमरमर के एक १८ फिट ऊँचे कीर्ति-स्तम्भ का कलक्टरी के द्वार पर, राज्य समिति के आर्थिक सहयोग से, निर्माण कराया गया।
(२) एक दातव्य होम्योपैथिक चिकित्सालय की स्थापना की गई। मेरठ
अध्यक्ष-श्री भोलानाथ तिवारी, आइ. ए. एस., जिला अधिकारी
(१) हस्तिनापुर में एक कीत्ति स्तम्भ, एक जल मन्दिर, जम्बूद्वीप की विशाल रचना, भगवान बाहुबलि की विशाल मति की स्थापना, २४ तीर्थंकरों की टोंक व एक महावीर वाटिका के निर्माण कार्य लगभग रु० १३,५०,००० की लागत से प्रारम्भ किए गए।
(२) मेरठ में स्थापित वीर निर्वाण भारती द्वारा देश के लब्ध प्रतिष्ठित ३० विद्वानों को पुरस्कृत किया गया तथा प्रत्येक विद्वान को रु० २५०० की धनराशि भेंट की गई। एक पुरस्कार कार्यक्रम में भारत के उपराष्ट्रपति श्री बी० डी० जत्ती ने पधार कर पुरस्कार प्रदान किए।
(३) मेरठ नगर के प्रमुख मार्ग रेलवे रोड का नाम तीर्थंकर महावीर मार्ग रखा गया। (४) विभिन्न स्थानों पर भगवान महावीर की सूक्तियों को प्रस्तर खंडों पर अंकित कर के लगाया गया।
(५) मेरठ से धर्मचक्र की योजना का सूत्रपात किया गया तथा एक धर्मचक्र का निर्माण कराया गया जिसका उद्घाटन प्रधान मंत्री जी ने १९७४ में दिल्ली में किया ।
(६) अप्रैल १९७५ में नौचन्दी के मेले में जैन चित्रकला एवं मूर्तिकला पर महावीर विचार विहार नामक प्रदर्शनी लगाई गई। फरवरी १९७५ में एक जैन मेले का भी आयोजन किया गया जो एक सप्ताह पर्यन्त चला।
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२८
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(७) मेरठ विश्वविद्यालय की ओर से मेरठ में एक प्रसार व्याख्यान माला का आयोजन किया गया जिसके अन्तर्गत डा. महेन्द्र सागर प्रचंडिया अलीगढ़ तथा डा० प्रेम सागर जैन बड़ौत के व्याख्यान हुए।
(८) मेरठ में एक इन्टर कालिज भाषण प्रतियोगिता तथा एक निबन्ध प्रतियोगिता का आयोजन किया गया।
(९) भगवान महावीर के जीवन के बारे में ७५००० लघु पुस्तिकाओं का वितरण किया गया ।
जिले में अनेक शिक्षा एवं धर्मार्थ जैन संस्थाएं कार्यरत हैं। मुजफ्फरनगर
अध्यक्ष श्री योगेन्द्र नरायण, जिला अधिकारी
श्री यतीन्द्र कुमार जैन सुपुत्र स्व० ला० बलबीरचन्द्र ने जिला समिति के माध्यम से २४०० गज भूमि के प्लाट हरिजनों में निःशुल्क वितरण करने का निश्चय किया है। जिला समिति ने निश्चय किया है कि इस बस्ती का नाम “वर्द्धमानपुरम्" रखा जाय तथा इन प्लाटों का वितरण माननीय मुख्य मंत्री जी के कर कमलों द्वारा उनके इस जनपद में आगमन पर कराया जाय ।
जिला समिति की निम्नलिखित प्रमुख योजनाएं हैं जिन पर कार्य प्रारम्भ कर दिया गया है पर अभी पूरा नहीं हुआ है
(१) भ० महावीर के संदेशों को प्रस्तर पटों पर उत्कीर्ण करा कर जनपद के मुख्य स्थानों पर लगवाना । (२) पक्षियों की चिकित्सा के लिए एक पक्षीनिलय की स्थापना । (३) राजकीय संग्रहालय के पास चौंक का “महावीर चौंक" नामकरण करके एक फव्वारे का निर्माण । (४) मुजफ्फरनगर, शामली तथा खतौली में कीर्ती स्तम्भों का निर्माण ।
इस जनपद के विभिन्न कस्बों में जैन धर्मानुयायियों की अच्छी संख्या है। सभी स्थानों में निर्वाण महोत्सव वर्ष में सार्वजनिक कार्यक्रम किए गए तथा विद्यालयों में लेख प्रतियोगिताएं कराई गई। कानपुर
संरक्षक-श्री सरस्वती प्रकाश वातल, जिला अधिकारी अध्यक्ष श्री अविनाश चन्द्र जैन, आयकर आयुक्त, श्री उम्मेद चन्द ओसवाल, जिला जज
(१) दि. १५ अप्रैल १९७४ को “विभिन्न धर्मों में अहिंसा" सम्मेलन आयोजित किया गया जिसका उद्घाटन माननीय श्री नरायण दत्त तिवारी वित्त मंत्री, उत्तर प्रदेश, ने किया। विभिन्न धर्मों के विद्वानों के इस अवसर पर प्रवचन हुए। उपाध्याय श्री अमर मुनि तथा मुनि श्री रूप चन्द की अम्रतवाणी का लाभ भी इस अवसर पर प्राप्त हुआ।
(२) वर्ष १९७४ की "महावीर डायरी” का प्रकाशन कराया गया जिसके प्रत्येक पृष्ठ पर महापुरुषों के सदुपदेश अंकित किए गए थे।
(३) भगवान महावीर की पुण्य तिथियों पर ग्रामीण क्षेत्रों में महावीर संदेश सरल भाषा में वितरित किए गए।
(४) कानपुर नगर के प्रमुख स्थानों तथा चौराहों पर भगवान महावीर के उपदेशों के होर्डिंग्स लगाए गए।
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२९
(५) निर्वाण महोत्सव जिला महिला समिति ने नारायणी देवी धर्मशाला परेड में दो सप्ताह तक नेत्र शिविर का आयोजन किया जिसमें सैकड़ों नेत्र रोगियों की शल्य चिकित्सा की गई तथा उन्हें भोजन व औषधियां निः शुल्क वितरित की गई।
(६) निर्वाण महोत्सव जिला समिति द्वारा महोत्सव के अवसर पर एक सांस्कृतिक नाटक का भी आयोजन किया गया जिसका उद्घाटन जिला अधिकारी श्री वातल द्वारा किया गया।
(७) १३ नवम्बर १९७४ को प्रातः काल नानाराव पार्क, काननुर में सार्वजनिक निर्वाण लाडू का आयोजन किया गया तथा रात्रि में "महावीर सिद्धान्त सम्मेलन" का आयोजन किया गया जिसमें प्रदेश के भूत पूर्व मुख्य मंत्री श्री चन्द्र भानु गुप्त, राज्य समिति के उपाध्यक्ष श्री लक्ष्मी रमण आचार्य तथा पं० कैलाशचन्द जैन सिद्धान्ताचार्य वाराणसी ने भाग लिया।
(८) १५ नवम्बर १९७४ की रानी में नानाराव पार्क में एक अखिल भारतीय कवि सम्मेलन का आयोजन किया गया।
(९) १३ नवम्बर १९७४ को सार्वजनिक पुस्तकालय फूलबाग में महावीर जैन पुस्तकालय कक्ष की स्थापना की गई।
(१०)२३ अप्रैल १९७५ को जैन क्लब कानपुर के तत्वावधान में विश्व की समस्याओं का निदान अहिंसा में है, विषय पर अन्तर-महाविद्यालय वाद-विवाद प्रतियोगिता आयोजित की गई।
(११) दीपावली १९७४ तथा महावीर जयन्ती १९७५ के अवसर पर भव्य रथयात्राओं के आयोजन किये गये।
(१२) महावीर जयन्ती १९७५ के अवसर पर एक जैन मेले तथा अध्यात्म सम्मेलन का आयोजन किया गया। अध्यात्म सम्मेलन का उद्घाटन प्रसिद्ध मनीषी एवं विचारक काका कालेलकर द्वारा तथा अध्यक्षता राज्य समिति के सचिव एवं शिक्षा सचिव श्री शशि भूषण शरण द्वारा की गई तथा डा० गोकुल चन्द जैन, हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी, द्वारा उद्बोधन हुआ। गोरखपुर
अध्यक्ष श्री फरहत अली, जिला अधिकारी मन्त्री श्री राम स्वरूप सक्सेना, सिटी मैजिस्ट्रेट
दीपावली एवं महावीर जयन्ती के अवसर पर शोभा यात्राएँ निकाली गई तथा मन्दिरों में सामहिक प्रार्थनाओं एवं धर्म प्रवचन का आयोजन किया गया। महावीर जयन्ती के अवसर पर एक अहिंसा मेले का तथा मद्य निषेध प्रदर्शनी का भी आयोजन किया गया। देहरादून
अध्यक्ष-श्री गंगा राय, जिला अधिकारी
(१) श्री दि० जैन मन्दिर (सरनीमल हाउस) का जीर्णोद्धार एवं विस्तार रु० ३०,०००/- की लागत पर किया गया।
(२) श्री जैन धर्मशाला के प्रांगण में श्री दि० जैन अतिथि भवन का निर्माण रु० ८०,०००/- की लागत पर किया गया।
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३० ]
(३) श्री वर्णी जैन विद्यालय के भवन का आंशिक निर्माण रु० ४०,०००/- की लागत से किया गया। (४) मसूरी में श्री दि० जैन महावीर भवन का निर्माण किया गया तथा उसके अन्तर्गत एक वाचनालय की स्थापना की गई।
(५) दि० १७ नवम्बर १९७४ को देहरादून नगर में एक सर्व धर्म सम्मेलन आयोजित किया गया । (६) दि० १ जून १९७५ को राज्य समिति के आर्थिक सहयोग से मसूरी में माननीय डा० रामजी लाल सहायक उच्च शिक्षा मन्त्री, उत्तर प्रदेश की अध्यक्षता में एक शाकाहार गोष्ठी का आयोजन किया गया।
"
बहराइच
अध्यक्ष - श्री रवि मोहन सेठी, जिला अधिकारी
(१) एक दातव्य होम्योपैथिक चिकित्सालय की स्थापना की गई जिसमें १२५ रोगी प्रतिदिन लाभ उठा
रहे हैं।
(२) गरीबों को १०० कम्बल वितरित किए गए ।
(२) भगवान महावीर के शिक्षा पट्ट जनपद में स्थान-स्थान पर लगवाए गए।
(४) २४- २९ दिसम्बर १९७४ को श्रावस्ती में भ० संभवनाथ की जन्म जयन्ती मनाई गई ।
(५) १९ जुलाई १९७४ को श्रावस्ती में तथा २० जुलाई
शोभायात्राएँ निकाली गईं ।
मिर्जापुर
अध्यक्ष - श्री रवि माथुर, आइ. ए. एस., जिला अधिकारी निम्नलिखित संस्थाओं की स्थापना की गई
अध्यक्ष - श्री कर्नैल सिंह, जिला अधिकारी
(१) २४ अप्रैल १९७५ को हिडालकों रेणुकूट में महावीर जयन्ती के अवसर पर एक विशाल जनसभा का आयोजन किया गया जिसकी अध्यक्षता अन्तर्राष्ट्रीय मानव कल्याण संस्थान के अध्यक्ष डा० सत्येन्द्र नाथ ने की। समारोह में बोलते हुए हिंडालको के अध्यक्ष श्री एस० एस० कोठारी ने कहा कि शान्ति एवं सद्भाव की स्थापना के लिए भ० महावीर के उपदेशों को अमल में लाया जाना ही उनकी वास्तविक उपयोगिता एवं भगवान महावीर के प्रति सही श्रद्धाभिव्यक्ति है । डा० सत्येन्द्र नाथ ने अपने अध्यक्षीय भाषण में बताया कि अहिंसा केवल जीवों को न मारने तक सीमित नहीं है बल्कि जीवन की समस्त क्रिया प्रतिक्रिया में उसका स्थान है। इसीलिए महावीर ने आचरण, विचार और चिन्तन में अहिंसा को अनिवार्य माना है। वर्तमान अशान्ति एवं अहिंसा पूर्ण वातावरण में भ० महावीर की शिक्षाएँ हमारा मार्ग-दर्शन करती हैं।
ललितपुर
ख ७
दिया गया ।
(१) श्री वर्णी वाणिज्य महाविद्यालय- इसकी स्थापना के लिए समाज द्वारा रु० १,२०,००० का दान
१९७५ को बहराइच में धर्मचक्र की भव्य
(२) श्री महावीर बाल विद्यामन्दिर- इसमें तीन वर्ष से पांच वर्ष तक के छात्रों को प्रवेश दिया जाता है। धार्मिक शिक्षा अनिवार्य है।
दान दिया।
(३) श्री महावीर वाचनालय
(४) श्री महावीर नेत्र चिकित्सालय समाज ने इसकी स्थापना के लिए रु० १०,००० तथा भवन का
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ख
-७
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३१
(५) श्री कंचन बाई छात्रावास-इसकी स्थापना स्व० श्रीमती कंचनबाई द्वारा अपने द्रव्य से की गई। (६) श्री महावीर प्याऊ-यह रु. ११,००० के व्यय से ललितपुर नगर के मध्य में स्थापित की गई है।
उपरोक्त नव स्थापित संस्थाओं के अतिरिक्त समाज द्वारा श्री वर्णी जैन इंटर कालिज तथा श्री कान्ति सागर दि० जैन कन्या पाठशाला पहिले से ही चलाये जा रहे हैं।
(७) देवगढ़ क्षेत्र पर धर्मशाला में एक अत्यन्त कलापूर्ण मानस्तम्भ का निर्माण किया तथा धर्मशाला में तीन नवीन कमरों का निर्माण किया गया। वाराणसी
संरक्षक-श्री विनोद प्रकाश साहनी, जिला अधिकारी अध्यक्ष-पं० जगन्नाथ उपाध्याय, पाली विभागाध्यक्ष, संस्कृत विश्वविद्यालय
(i) महावीर जयन्ती १९७५ के अवसर पर सर्व सेवासंघ वाराणसी द्वारा 'समण सुत्त' ग्रन्थ का प्रकाशन किया गया।
(ii) निर्वाण समारोह के सिलसिले में आयोजित पहिली परिचर्चा मुनि श्री बुद्धमल जी के सान्निध्य में हुई जिसमें मुख्य अतिथि जिला अधिकारी श्री साहनी थे । मुनि श्री महेन्द्र कुमार जी, पं. कैलाश चन्द, पं० खुशालचन्द गोरावाला, प्रो. जगन्नाथ उपाध्याय आदि विद्वान वक्ताओं ने परिनिर्वाण से संबद्ध विषयों पर प्रकाश डाला।
(iii) भगवान महावीर के जीवन दर्शन तथा सांस्कृतिक अभियान से जनता को परिचित कराने हेतु समिति ने गत वर्षावास में मुनि श्री बुद्धमल जी, मुनि श्री आर्यनन्दि जी एवं मुनि श्री महेन्द्र कुमार जी 'प्रथम' के अनेक सार्वजनिक प्रवचनों के आयोजन किये जिनमें पूज्य मुनियों ने वर्तमान समस्याओं के सन्दर्भ में नाना प्रकार से जीवनोत्थान की प्रेरणा दी। व्यसन-मुक्ति, मिलावट विरोध, अप्रमाणिकता निवारण एवं स्वस्थ नागरिक जीवन जीने की दृष्टि से संबल पाने हेतु, शिक्षित अशिक्षित, किसान मजदूर, छान अध्यापक आदि अनेक वर्ग मुनियों के सम्पर्क में आये।
(iv) १३ नवम्बर १९७४ को एक विशाल श्रद्धांजलि सभा का आयोजन किया गया जिसमें डा० हजारी प्रसाद द्विवेदी मुख्य वक्ता थे।
(v) १४ नवम्बर १९७४ को एक विशेष समारोह नागरी नाटक मण्डली के प्रेक्षागृह में किया गया जिसका उद्घाटन बर्मा के भू. पू. प्रधान मन्त्री ऊ नू ने किया । मुख्य वक्ताओं में जिलाधिकारी श्री साहनी, श्री जगदीश अरोड़ा, ठा. जयदेव सिंह, श्री लक्ष्मी शंकर व्यास, श्री श्यामा प्रसाद प्रदीप आदि थे।
(vi) १२ नवम्बर १९७' को अध्यात्म योगी श्री मुनि महेन्द्र कुमार प्रथम ने एक विशेष समारोह में जैन साधना क्रम एवं योग की सूक्ष्म विधियों की विवेचना की तथा स्मृति प्रखरता के योगिक प्रयोगों का प्रदर्शन किया।
(vii) काशी हिन्दू विश्वविद्यालय द्वारा गठित भ० महावीरकी २५वीं निर्वाण शताब्दी समारोह समिति के तत्वावधान में १२ मार्च से १४ मार्च १९७५ तक भारत कला भवन तथा भारतीय महाविद्यालय में जैनकला, पुरातत्व एवं साहित्य प्रदर्शनी, व्याख्यान माला तथा सैमीनार के आयोजन किये गये।
(viii) ३१ अक्तूबर से २ नवम्बर १९७५ को प्रो० निर्मलकुमार बोस स्मारक संस्थान, वाराणसी के तत्वावधान में राज्य समिति के आर्थिक सहयोग से 'जैन धर्म और संस्कृति : आधुनिक सन्दर्भ में" विषय पर एक समाजवैज्ञानिक परिसंवाद गोष्ठी आयोजित की गई।
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३२ )
(ix) महावीर जयन्ती के अवसर पर गांधी भवन में डा० श्रीमाली की अध्यक्षता में विशाल जनसभा का आयोजन किया गया। सुप्रसिद्ध तत्व चिन्तक श्री रोहित मेहता ने विश्व चिंतन के सन्दर्भ में महावीर के सिद्धांतों की व्याख्या की और वर्तमान युग की समस्याओं के सन्दर्भ में उनके महत्व एवं उपयोगिता का अत्यन्त प्रभावशाली ढंग से प्रतिपादन किया।
(४) २४ अप्रैल १९७५ को एक विशाल शोभा यात्रा निकाली गई, २५ अप्रैल को काशी विद्यापीठ में. २६ अप्रैल को संस्कृत विश्वविद्यालय में तथा २७ अप्रैल को हिन्दू विश्वविद्याल में महावीर जयन्ती के उपलक्ष में विचार गोष्ठियों का आयोजन किया गया।
(xi) २९ अप्रैल को नवोदित रचनाकारों की संस्था 'रचना' के तत्वावधान में राम भवन में श्री कृष्ण दत्त भद्र की अध्यक्षता में 'भगवान महावीर और विश्व को उनकी देन' विषय पर एक परिचर्चा गोष्ठी का आयोजन किया गया जिसमें अनेक युवा लेखक, बिचारक, पत्रकार एवं कवियों ने भाग लिया। विचार गोष्ठी अपने अन्तिम चरण में कवि दरबार के रूप में परिवर्तित हो गई और लगभग दो दर्जन कवियों ने भ० महावीर को अपनी कविताओं के सुमन अर्पित किये। रामपुर
"बाबू आनन्द कुमार जैन संस्थान ने निर्वाण वर्ष में साहित्य प्रकाशन जैसे कई उपयोगी कार्य किये हैं। सीतापुर
एक महावीर मन्दिर के एवं कीर्तिस्तम्भ के निर्माण की तथा एक पार्क का 'महावीर पार्क' नामकरण की योजना चल रही है। निर्माण वर्ष में निर्वाणोत्सव, महावीर जयन्ती की सार्वजनिक सभा, धर्मचक्र स्वागत आदि आयोजन हुए। रायबरेली
. श्री महावीर स्मृति केन्द्र की स्थापना हुई है । भवन के लिए उपयुक्त स्थान प्राप्ति का प्रयत्न हो रहा है। निर्वाण वर्ष समापन समारोह सोत्साह हुआ। हरदोई
जैन संख्या नगण्य है, तथापि महावीर जयन्ति पर शोभायात्रा एवं सार्वजनिक सभा के सफल आयोजन हुए। लखनऊ
निर्वाण वर्ष के राज्य समिति द्वारा निर्धारित विभिन्न कार्यक्रम सोत्साह सम्पन्न हए, उनके अतिरिक्त धर्मचक्र का स्वागत, सार्वजनिक सभा, २५०० भूखों को भोजन वितरण, साहित्य प्रकाशन एवं वितरण, साहित्य एवं कला प्रदर्शनी, विविध धर्मोत्सव हुए और एक होम्योपैथिक चिकित्सालय की तथा सादतगंज में एक धर्मार्थ आयुर्वेदिक औषधालय की स्थापना हुई। नगर में पहले से भी कई जैन शिक्षा एवं अन्य धार्मिक संस्थाएं कार्यरत हैं।
२५००वां
महावीर
निर्वाण
भगवान
महोत्सव
परस्परोपग्रहो जीवानाम्
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५५-लखनऊ में निर्वाणोत्सव पर (१३-११-१९७४) विशेष डाक टिकट का प्रसारण करते हुए केन्द्रीय डाक
उपमन्त्री श्री जगन्नाथ पहाडिया तथा मंच पर डा. ज्योति प्रसाद जैन, श्री छेदीलाल साथी, श्री लक्ष्मीरमण आचार्य, श्री शशिभूषण शरण एवं श्री राजन पोस्ट मास्टर जनरल, उ. प्र.
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२६ डाक टिकट प्रसारण समारोह में भाषण देते हुए श्री लक्ष्मी रमण आचार्य
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५७-डाक टिकट प्रसारण समारोह में श्री अजित प्रसाद जैन (उप सचिव) समिति के कार्यकलाप पर
प्रकाश डालते हुए
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५८-डाक टिकट प्रसारण समारोह में उपस्थित श्रोताओं का एक दृश्य
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५९-लखनऊ में अहिंसा-सम्मेलन (१६-११-१९७४) का उद्घाटन करते हुए उत्तर प्रदेश के राज्यपाल
डा. एम. चेन्ना रेड्डी । मंच पर हैं श्री अजित प्रसाद जैन, श्री शशि भूषण शरण, डा. रामजी लाल सहायक तथा श्री वासुदेव सिंह।
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६०-अहिंसा सम्मेलन में अध्यक्षीय भाषण देते हए डा. राम जी लाल सहायक
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भगवान महावीर का भारतीय संस्कृतिम
संगा
अकर
६१-'भारतीय संस्कृति में जैन विचारधारा का प्रभाव' संगोष्ठी लखनऊ । मंच पर हैं
डा० शशिकान्त (संयोजक), डा० जे० डी० शुक्ला (चतुर्थ सत्र के अध्यक्ष), डा. ज्योति प्रसाद जैन (संगोष्ठी समापनकर्ता) और कान्त बाल केन्द्र की अध्यापिकाएं भावनागान करती हई
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६२-लखनऊ संगोष्ठी के श्रोताओं का एक दृश्य
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तीर्थकर बालिका शिक्षा पत्राचार इन्स्टीट नजीयावाद
मि
* हिन्दी सप्त साहित्य में जैन साहित्यकारों का योगदान
२१.२२४ २३ अक्टूबर
मूर्ति देवी सरस्वती इन्टर कालिज
६३ - 'हिन्दी सन्त साहित्य में जैन साहित्यकारों का योगदान' संगोष्ठी नजीबाबाद (२१-२३ अक्तूबर, ७५) - मंच पर आ० हजारी प्रसाद द्विवेदी (अध्यक्ष), डा० प्रेमचन्द जैन (संयोजक), डा०कस्तूर चंद कासलीवाल, डा० विजयेन्द्र स्नातक, पं० नर्मदेश्वर चतुर्वेदी आदि
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भगवान महावीर २५००६ निर्वाण महोत्सव
- ६४ - भगवान महावीर २५००वाँ निर्वाण महोत्सव लखनऊ (१४-११-१९७४) की सार्वजनिक सभा-उ० प्र० के सामुदायिक विकास मन्त्री श्री बलदेव सिंह आर्यं (मुख्य अतिथि) भगवान को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए । मंच पर हैं- श्री जिनेन्द्र चन्द्र (मंत्री), श्री महावीर प्रसाद श्रीवास्तव ( सभाध्यक्ष), डा० ज्योति प्रसाद जैन ( समिति के कार्याध्यक्ष) एवं श्री अमोलक चंद्र नाहर (उपाध्यक्ष)
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800★
( पंजीकृत सं० १३५३ )
गया प्रसाद शुक्ल
अध्यक्ष
हंस राज जैन
मंत्री
मानक चन्द्र जैन
कोषाध्यक्ष
'सुचिण्ण कम्मा सुचिण्णफला भवंति'
( अच्छे कर्मों का फल अच्छा होता है )
श्री भगवान महावीर स्मृति केन्द्र
बेलगंज, रायबरेली ( उ० प्र० )
श्याम सुन्दर सूरी
( जिलाधीश )
अध्यक्ष
श्रद्धावनत
- भगवान महावीर
डा० रामशरण दास जैन
उपाध्यक्ष
निर्मल कुमार जैन ( जायस) उपमंत्री
विजय मोहन जैन ट्रस्टी
महावीर प्रसाद जैन
ट्रस्टी
रत्नेश कुमार मिश्रा, सुशील कुमार मित्तल, देशराज जैन एवं अंजना जैन सदस्य - कार्यसमिति
मिश्रीलाल जैन ( बछरावां )
ट्रस्टी
और
( दूरभाष : २७६ )
आनन्द प्रकाश जैन
उपाध्यक्ष
राजेन्द्र प्रसाद जैन उपमंत्री
शीतल प्रसाद जैन ( जायस) ट्रस्टी
जिला भगवान महावीर निर्वाण समिति
रायबरेली
हंसराज जैन
संयोजक
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नशा सब बुराइयों की जड़ है
नशाखोर
● परिवार के लिए दुःख का कारण है। . समाज के लिए कलंक का विषय है।
. राष्ट्र के लिए अनुपयोगी व भारस्वरूप है।
इसीलिए
भगवान महावीर ने नशे के विरुद्ध उद्घोष किया था।
अतः
भगवान महावीर स्वामी के २५००वें निर्वाण महोत्सव पर
क्यों न हम मद्यत्याग का पवित्र संकल्प करें! , उत्तर प्रदेश में इस समय
१-चरस, गांजा व अफीम के मादक पदार्थों का निषेध है।
२-पौड़ीगढ़वाल, चमोली, पिथौरागढ़, उत्तरकाशी और टेहरीगढ़वाल के जिलों व हरिद्वार, ऋषिकेश तथा वृन्दावन के तीर्थस्थानों में कानूनन्
मद्यनिषेध लागू है। ३-वर्ष में ५ राष्ट्रीय महत्व के दिनों के अतिरिक्त प्रत्येक सप्ताह में मंगलवार
को आबकारी की दुकानें बन्द रखी जाने के आदेश हैं । मद्यनिषेद्य योजना को सफल बनाने व उसके लिए उपयुक्त वातावरण उत्पन्न करने के लिए जन-जन का
सहयोग अपेक्षित है । मद्यनिषेध एवं समाजोत्थान विभाग
उत्तर प्रदेश
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ODDOEDEDEDEDEDEDEDEDEXED EDEED
Neither riches nor relations can protect. Know this and know life and get rid of Karma.
-Bhagwan Mahavir
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हमारे वन एक महान राष्ट्रीय धरोहर हैं जिनकी सुरक्षा उनके उपयोग और लाभ को ध्यान में रखकर करनी चाहिये। हमारे वनों में पैदा होने वाले विभिन्न पदार्थ सबसे अधिक महत्वपूर्ण हैं।
-जवाहर लाल नेहरू
अधिक से अधिक वृक्ष लगाइये वन विभाग, उत्तर प्रदेश
जह ते ण पियं दुक्खं,
तहेव तेसिपि जाण जीवाणं । (जैसे तुमको दुःख प्रिय नहीं है, वैसे ही अन्य जीवों के विषय में भी समझो)
-भगवान महावीर
'जो मनुष्य मानवता, धर्म श्रवण, श्रद्धा
और संयम में पराक्रम को दुर्लभ जानकर संयम को धारण करता है वह शाश्वत सिद्ध होता है।'
__ -भगवान महावीर भगवान महावीर के २५००वें निर्वाण महोत्सव पर हमारी शुभ कामनाएं !
श्रद्धावनत
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रेलवे रोड, मेरठ
जैन सेवा समिति
लाठ भवन स्टेशन रोड, सीतापुर
मन्त्री निर्मल कुमार जैन सुमेर चन्द्र जैन |
उच्च कोटि के मैदा, सूजी, आटा और
चोकर के निर्माता
अध्यक्ष
स्थापित १९२१
दूरभाष :-७२९६१
७५६५० ट्रेड मार्क :- सांड
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अण्णाणं परमं दुक्खं (अज्ञान परम दुःख है)
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(4) Products of Calico Mills TOGDEKEDEDEDEEDEEDEDEDEDDEDEDF
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(GGGGGGGGGGGOGO OGDODD)
HEARTIEST GREETINGS
STAR PAPER MILLS LIMITED SAHARANPUR (U. P.)
Manufacturers of:
from
Writing. Printing, M. G. Kraft, Manila, Poster, Sulphite paper, etc.
Regd. & Head Office :
27, Biplabi Trailokya Maharaj Sarani, Calcutta-1
भगवान महावीर का २५००वाँ निर्वाण महोत्सव विश्व में अहिंसा एवं सहअस्तित्व प्रदान करे !
मेसर्स प्रभुलाल कान्तीलाल एण्ड कम्पनी मेसर्स चेतन एण्ड कम्पनी
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मेसर्स संजय एण्ड कम्पनी
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( शक्कर के कमीशन एजेन्ट व विक्रेता )
幸
भगवान महावीर का २५००वां निर्वाण महोत्सव प्राणीमात्र को सुखकारक हो !
मेसर्स पन्नालाल बनारसीदास
५१/१, नयागंज, कानपुर
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जो रात और दिन बीत जाते हैं, वे कभी लौट कर नहीं आते-जो व्यक्ति धर्मपूर्वक जीवन व्यतीत करता है, उसी के वे रात और दिन सफल होते हैं।
-भगवान महावीर
महावीर
महोत्सब
परम्परोपग्रहो जीवानाम्
श्री महावीर निर्वाण समिति, उत्तर प्रदेश
सद्भावनाओं सहित
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TUHUUUUUUUUU
तीर्थंकर महावीर
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________________ -सरस्वती देवी प्रधान सम्पादक: डा. ज्योति प्रसाद जेन For Private & Personal use only