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________________ जियवंदिवि तह गोयमु गणेसु, णिय णयरु पत्तु सेणिउ गरेसु । दहति उणवरिसि विहरिवि जिणेंदु, पयडेवि धम्मु महियलु अणेंदु ॥ पावापुर मज्झिहिं जिणेसु, वेदिणसह उज्झिवि मुत्ति ईसु। चउसेह कम्मह करि विणासु, संपत्तउ सिद्ध णिवासु वासु ॥ देवाली अम्मावस अलेउ, महोदेउ वोहि देवाहि देउ । चउदेवणिकायहं अइमणुज्ज, अइवि विरइय णिव्वाणपुज्ज ॥ __ -यशःकोति जिण जन्महो अणुदिण सोहमाण, णिय कुल सिरि देक्षेवि वड्ढमाण । सिय भाणुकलाइ सहुँ सुरेहि, सिरि सेहर-रयणहि भासुरेहिं ॥ दहमे दिणि तहो भव बहु निवेण, किउ वड्ढमाण इउ णामु तेण ॥ -श्रीधर पय-सत्तु महीयलि चलियउ जाम, इंदे पणवेप्पिणु देउ ताम् । ससिपह सिविहिं मंडिवि जिणिंदु, आरोविवि उच्चयिउअणिंदु ॥ -रईधु जय जय जय वीर वीरिय-णाण अणंत सुहा। महु खमहि भडारा तिहुअणसारा कवणु परमाणु तुहा ॥ -जयमित्र हल्ल श्रेणिक राजा की राजधानी (राजगृह के विपुलाचल पर) गौतम गणेश द्वारा वंदित होकर तीस वर्ष तक जिनेन्द्र महावीर ने विहार करके पृथ्वी पर सुखदायी धर्म का उपदेश दिया। अन्त में मध्यमा पावापुरी में पहुंच कर उन मुक्तीश जिनेश्वर ने योगों का निरोध किया। उन देवाधिदेव महादेव की निर्वाण प्राप्ति के उपलक्ष्य में अमावस्या को दिवाली मनी, चारों निकाय के देवों और मनुष्यों ने वहाँ एकत्र होकर निर्वाण पूजा की। भगवान के जन्म के उपरान्त नित्यप्रति उनके कुल की श्री-लक्ष्मी वर्द्धमान हुई, जिस प्रकार दिन में सूर्य की कलाएँ और रात्रि में चन्द्रमा की कलाएं बढ़ती हैं । अतएव जन्म से दसवें दिन उन भवावलिनाशक भगवान का 'वर्द्धमान' नाम रक्खा गया । (जब भगवान ने जिन दीक्षा ली तो) सात पग तो भूमिगोचरी मनुष्य तथा तदनन्तर देवलोक के इन्द्र जिनेन्द्र भगवान को शशिप्रभा नामक पालकी में बैठाकर उक्त पालकी को अपने कंधों पर दीक्षा-वन में ले गये। अनन्तज्ञान एवं अनन्त सुख के धनी, हे वीर भट्टारक मुझे शरण में लो, तीन लोक में तुम्हारे समान दूसरा कौन है ? तुम्हारी जय हो, जय हो, जय हो ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
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