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ख-६
[ १०९ छठे हैं संजय बेलठिपुत्र जो विक्षेपवादी हैं। उनकी परलोक, कर्मफल और मृत्यु के बाद जीव की स्थिति के विषय में कोई निश्चित धारणा नहीं है।
सातवें हैं निर्ग्रन्थ ज्ञातपुत्र वर्धमान महावीर । उनके अनुयायी उन्हें २३वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ की परम्परा का सूचित करते हैं । नग्न दिगम्बर रहते हैं और पांच महाव्रतों का कठोर पालन करते हैं। उनका चतुर्विध संघ हैं जिसमें मुनि, आर्यिका, श्रावक एवं श्राविकायें हैं। मुनिसंघ के प्रधान विप्रवर इन्द्रभूति गौतम हैं और आर्यिका संघ की प्रधान सती चन्दना हैं । मगधराज श्रेणिक-बिम्बिसार और उनकी रानी चेलना, वत्स की राजमाता मृगावती, अवन्ति की राज-महिषी, वज्जिसंघ के अधिनायक चेटक, मल्ल गण, श्रेष्ठि धन्ना, श्रेष्ठि मृगार, नागरिक सरदेव और उसकी भार्या धन्या आदि गणमान्य नर-नारी उनके श्रावक-संघ और श्राविका-संघ के सदस्य हैं।"
मेतार्य-"साधु ! क्या इन्द्रभूति मगध देशीय वसुभूति गौतम का पुत्र है ?" अन्तेवासी-"हां, विप्र-श्रेष्ठ !" मेतार्य-“साधु ! क्या चन्दना वही देवी है जिसे एक तपस्वी ने बन्धनमुक्त किया था ?" अन्तेवासी--"हां, विप्रवर ! और वह तपस्वी यही वर्धमान महावीर थे।" मेतार्य--"साधु !"
अन्तेवासी-"विप्र-श्रेष्ठ ! कम्पिलपुर से कुन्दकोलित और उसकी भार्या पुष्पा आये हैं और यह समाचार लाये हैं कि निम्रन्थ महावीर कौशाम्बी से विहार कर चुके हैं और कल इस सन्निवेश के निकट आयेंगे।"
मेतार्य-"कुन्दकोलित और उसकी भार्या को अतिथिशाला में विश्राम कराओ। कल हम सब अन्तेवासियों के साथ महावीर से भेंट करने चलेंगे।"
सागवतासन
तुंगिय सन्निवेश के ईशानकोण में श्मशान के कोने पर महावीर कायोत्सर्ग मुद्रा में ध्यानमग्न खड़े हैं। उनकी दृष्टि नासाग्र है, ओठों पर मन्द स्मित है और उनकी आभा से चतुर्दिक वातावरण में एक अपूर्व शान्ति है।
__ कुन्दकोलित और पुष्पा के साथ मेतार्य और उसके अन्तेवासी नमस्कार कर विनयपूर्वक खड़े हो जाते हैं। महावीर उनकी शंका का बोध कर लेते हैं और कहते हैं
चउहि ठाणेहि जीवामणुस्सत्ताते कम्म फारेंति , तंजहा पगतिमद्दयाए, पगतिविणीयाए , साणुक्कोसयाए
अमच्छरियाए। मेतार्य विचार करता है-"चार कारणों से जीव को मनुष्य जन्म मिलता है। एक तो वह प्रकृति से भद्र हो, दूसरे वह प्रकृति से विनयी हो, तीसरे वह दूसरे के दुःख को दूर करे और चौथे वह दूसरे की समृद्धि देखकर ईर्ष्या न करे।" महावीर पुनः कहते हैं
नाणं व दसणं चेव चरित्तं च तवोतहा। एस मग्गोति पन्नत्तो जिर्णेहि वर दंसिहि ॥
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