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________________ ११० ] मेतार्य पुनः विचार करता है "सम्यक दृष्टि जिन अर्थात् जितेन्द्रिय तीर्थंकरों ने जीव के संसार से बन्धन मुक्त होने का मार्ग यह बताया है कि उसे आत्मा के स्वरूप का सम्यक ज्ञान हो, उसके बारे में सम्यक श्रद्धान हो, उसका चरित्र कर्मों की निर्जरा के योग्य हो और वह तपश्चरण द्वारा पूर्व कर्मों की निर्जरा करता जाये तथा नये कर्मों का बन्ध न करे।" मेतार्य (कुन्दकोलित से)--"हे कुन्दकोलित ! भगवान यथार्थ कहते हैं । मैं आज से उनका शिष्य हूँ।" (अन्तेवासियों से):--"तुम अब जा सकते हो। गुरु-पत्नी से कहना कि मेतार्य अब मुनि हो गया, उसका मोह न करे।" (महावीर से)--"भगवन ! मुझे भी भव-बन्धन से मुक्त करो-दीक्षा दो।" मेतार्य अपने वस्त्र उतार देता है और अपनी मुट्ठी से केश-लोंच करके महावीर के पीछे-पीछे विहार कर जाता है । मेतार्य महावीर के ग्यारहवें गणधर या मुख्य शिष्य हुये । (७) काशी जनपद की राजधानी वाराणसी में बड़ी हलचल है। नगर के बाहर कोष्ठक चैत्य में एक दिगम्बर साधु आकर ठहरे हैं। वह दो शताब्दी पूर्व हुये तीर्थकर पार्श्व के चातुर्याम संवर का परिष्कार कर श्रमण संघ की पुनर्व्यवस्था कर रहे हैं । चूलनिप्रिय और उसकी पत्नी श्यामा तथा सूरदेव और उसकी भार्या धन्या तीर्थंकर पार्श्व के अनुयायियों के साथ कोष्ठक चैत्य जाते हैं। मुनि ध्यानावस्थित हैं। श्रावों की शंका का समाधान करते हये भगवान कहते हैं हिंसा पावं तिमदो, दयापहाणो जहो धम्मो । जह ते ण पियं दुक्खं, तहेव तेसिपि जाण जीवाण ॥ चूलनिप्रिय विचार करता है "हिंसा पाप है, क्योंकि दया सब धर्मों में प्रधान है, क्योंकि जिस प्रकार हमें दुख प्रिय नहीं है उसी प्रकार अन्य जीवों को भी नहीं है । यह अहिंसा नाम का प्रथम व्रत है जिसे तीर्थंकर पार्श्व ने भी बताया था।" भगवान पुनः कहते हैं अविस्सासो य भूयाणं, तम्हा मोसं विवउजए। असच्च मोसं सच्चं च अणवज्जमकक्कसं। समुप्पेहमसंदिद्धं गिरं भासेज्ज पनवं । श्यामा विचार करती है: "झूठ बोलने वाला सभी का विश्वास खो देता है। इसलिए झूठ बोलना उचित नहीं है। ऐसी भाषा बोलनी चाहिये जो व्यवहार में भी सत्य हो और निश्चय में भी सत्य हो अर्थात् प्रिय हो, हितकारी हो और अंसदिग्ध हो । यह सत्य नाम का दूसरा ब्रत है जिसे तीर्थकर पार्श्व ने भी बताया था।" भगवान आगे कहते हैं इच्छा मुच्छा तण्हा गेहि असंजमो कंखां । हत्थलहुत्तणं परहडं तेणिकं कडयाअवत्ते।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
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