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[ १११ सूरदेव विचार करता है
"परधन की इच्छा, मूर्छा, तृष्णा, गुप्ति, असंयम, आकांक्षा, हाथ की सफाई, पर-धन-हरण, कूट-तोल-माप और बिना दी हुई वस्तु लेना-ये सब काम चोरी हैं। इनसे विरत रहो। यह अस्तेय नाम का तीसरा ब्रत है जिसे तीर्थकर पार्श्व ने भी बताया था।" भगवान पुनः कहते हैं
अम्भंतर बहिरए सम्वे गंथे तुमं विवज्जेहि । सम्बत्थ अप्पसियो णिस्संगोणिमओ य सव्वत्थ ॥
चुल्लनिसतक विचार करता है
"भीतर और बाहर की सब ग्रन्थियों के उन्मोचन का नाम अपरिग्रह है। परिग्रह से रहित व्यक्ति स्वाधीन और निर्भय रहता है। अतः परिग्रह छोड़ो। यह अपरिग्रह नाम का चौथा व्रत है जिसे तीर्थंकर पार्श्व ने भी बताया था।" भगवान आगे कहते हैं
सीलगणवज्जिवाणं निरत्ययं माणसं जम्म । सीलं
मोक्खस्स सोपाणं।
धन्या विचार करती है
"शील से विहीन व्यक्ति के लिये मनुष्य-जन्म निरर्थक है क्योंकि शील ही मोक्ष की सीढ़ी है । शील का पालन करो। यह ब्रह्मचर्य नाम का पांचवा व्रत है जिसे महावीर ने बताया है।" अन्त में भगवान कहते हैं
चत्तारि धम्मदारा-खंती, मुत्ती, अज्जवे, महवे । उत्पाई जाण जरओ रोयग्गी जा ण डहइ बेहडि।
इंदियबलं ग वियलइ ताव तुम कुणहि अप्पहियं ।। सभी जन विचार करते हैं
"धर्म के चार द्वार हैं-क्षमा, संतोष, सरलता और विनय । वृद्धावस्था, इन्द्रिय-शिथिलता और रोग, ये शारीरिक धर्म हैं जिनके कारण मनुष्य आत्म-कल्याण में असमर्थ हो जाता है। अतः जब तक शरीर वद्ध नहीं हो जाता, रोग शरीर को नष्ट नहीं कर देता और इन्द्रियों की शक्ति क्षीण नहीं होती, तब तक धर्माराधना द्वारा आत्मकल्याण कर लो।"
श्रावक समुदाय (धीर-गम्भीर सम्वेत स्वर से उद्घोष करता है)-"धन्य, धन्य, प्रभो! हमारा भ्रम दूर हुआ। महावीर, आप हमारे शास्ता हैं । पार्श्व की परम्परा को आगे बढ़ाने वाले हैं। आप ही हमारी परम्परा के २४वें तीर्थंकर हैं।"
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