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पभोसा (प्रभासगिरि) पर जैन मुनियों के लिए गुफाएँ निर्माण कराई थीं, जैसाकि वहां से प्राप्त उसके शिलालेखों से पता चलता है।
ईसापूर्व प्रथमशती के मध्य के लगभग से लेकर प्राय एक शताब्दी तक मथुरा में शक क्षत्रपों का अधिकार रहा और तदनन्तर अगले लगभग दो सौ वर्ष तक कुषाण सम्राटों का शासन रहा। मथुरा के इन विदेशी शासकों का. कम से कम कुषाणों का तो प्रायः पूरे उत्तर प्रदेश पर अधिकार था। ये शासक सर्वधर्मसमभावी थे और जैनधर्म के प्रति पर्याप्त सहिष्णु रहे । मगध (बिहार) से जैन मुनियों का दक्षिणापथ की ओर सामूहिक विहार (४ थी शती ई० पू० के मध्य के लगभग) हो जाने के उपरान्त उत्तर भारत में मथुरा जैनधर्म का प्रमुख केन्द्र बन चला और मित्र-शक-कुषाण काल में मथुरा का जैनसंघ बड़ा सुगठित, विस्तृत एवं प्रभावशाली था। मथुरा के कंकाली टीले से जिस प्राचीन देवनिर्मित जैन स्तूप के अवशेष पुरातात्त्विक उत्खनन में प्राप्त हुए हैं, उसी के चारों ओर एक विशाल जैन संस्थान विकसित हो गया था जहां अनेक जैन साधु एवं साध्वियां निवास करते थे । काष्ठा, उच्चनगर या वरण (वर्तमान बुलन्दशहर), कोल, हस्तिनापुर, वजनगरी, संकिसा आदि में उसकी शाखाएँ स्थापित थीं। संभवतया मथरा के जैनों की प्रार्थना पर ही कलिंग के सुप्रसिद्ध जैन सम्राट खारवेल ने इतनी दर आकर यवन राज दिमित्र को मथुरा तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश से निकाल भगाया था । उस सम्राट द्वारा कलिंग में आयोजित महामुनि सम्मेलन में भी मथुरा के जैनमुनि सम्मिलित हुए थे, और उन्होंने वह 'सरस्वती आन्दोलन' चलाया था जिसके फलस्वरूप जैनसंघ में श्रुतागम के लिपिबद्ध करने की तथा पुस्तक साहित्य के प्रणयन की प्रबत्ति शुरू हई। मथुरा के इन जैन साधुओं की एक विशेषता यह थी कि उन्होंने एक दूसरे से कटकर दूर होती हई दक्षिणी एवं पश्चिमी शाखाओं से, जो कालान्तर में क्रमशः दिगम्बर और श्वेताम्बर नामों से प्रसिद्ध हईं, स्वयं. को पृथक रक्खा तथा उन दोनों के समन्वय का ही प्रयत्न किया। वस्तुतः, मथुरा के तत्कालीन जैन गृहस्थ और साधु अपेक्षाकृत कहीं अधिक उदार और विशाल दृष्टि वाले थे। यही कारण है कि विभिन्न वर्गों और जातियों के भारतीय ही नहीं, अनेक यवन, शक, पलव, कुषाण आदि विदेशी स्त्री पुरुषों ने भी जैनधर्म अङ्गीकार किया था।
शक महाक्षत्रप शोडास (ई० पू० प्रथम शती) के शासनकाल में मथुरा में प्रसिद्ध जैन सिंहध्वज (तीर्थंकर महावीर का प्रतीक) स्थापित हुआ, श्रमण महारक्षित के शिष्य वात्सीमुन श्रावक उत्तरदासक ने जिनेन्द्र के प्रासाद का तोरण निर्माण कराया, हारीतिपुत्र पाल की भार्या श्रमण श्राविका कौत्सी अमोहिनी ने अपने पूनों पालघोष, प्रोस्थघोष एवं धनघोष के सहयोग से अर्हत् वर्षमान के नमस्कारपूर्वक आर्यावती (भगवान की माता) की प्रतिमा प्रतिष्ठापित की, तथा गणिका लवणशोभिका ने अपनी माता, बहनों, पुत्रियों, पुत्रों तथा अन्य सर्व परिजनों के साथ श्रेष्ठियों की निगम के अर्हतायतन (जिनमन्दिर) में वर्धमान भगवान की पूजा के लिए वेदीग्रह, पूजामंडप, प्रपा, शिलापट्ट आदि निर्माण कराकर समर्पित किये थे। नगर की यह प्रयुख गणिका भी श्रमण-श्राविका थी। एक शिलालेख के अनुसार जिस कौशिकी शिवमिना ने अर्हतपूजार्थ मथरा में एक आयागपट प्रतिष्ठापित किया था, उसका पति वीर गोतीपुत्र (गौप्तीपुत्र) पोठय (पलव या पार्थियन) और शक लोगों के लिए काल-व्याल (कालानाग या साक्षात काल) था। इस गौप्तिपुत्र वीर इन्द्रपाल ने स्वयं भी एक जिन प्रतिमा प्रतिष्ठापित की थी। ऐसा लगता है कि इसी पराक्रमीवीर को प्रथमशती ईस्वी में मथुरा में शक क्षत्रयों की सत्ता समाप्त कराने का तथा पुराने अथवा एक नवीन राज्यवंश की स्थापना का श्रेय है। इस काल के अन्य शिलालेखों में श्राविका धर्मघोषा, बलहस्तिनी, फल्गुयश नर्तक की भार्या शिवयशा, मथुरावासी लवाडनामक एक विदेशी की भार्या आदि के धार्मिक निर्माणों का उल्लेख है। मथुरा से प्राप्त क्षत्रपकालीन शिलालेखों में जैन शिलालेखों की संख्या अन्य सबसे
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