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________________ २. ] ख-६ अवध के नवाब वजीर शुजाउदौला से प्राप्त किये तो उन्हें उन्होंने अपने पश्चिमी प्रांत' के रूप में गठित किया । उन्नीसवीं शती के दूसरे दशक के प्रारम्भ तक उन्होंने इस प्रदेश के पर्याप्त भाग पर अधिकार करके इसे 'आगरा प्रेसीडेन्सी' का नाम दिया, तदनन्तर अवधराज्य भी जब उनके अधिकार में आ गया तो प्रान्त के नाम क्रमशः 'पश्चिमोत्तर प्रांत' (१८७७ में), संयुक्त प्रांत आगरा और अबध (१९०२ ई० में) तथा मात्र 'संयुक्त प्रांत' (१९३७ ई० में) हुए, और स्वतन्त्रता प्राप्ति के उपरान्त भारतीय संघ के राज्यों का वैधानिक गठन होने पर इसे 'उत्तर प्रदेश राज्य' नाम दिया गया, जिसमें अब ग्यारह आयुक्त मंडलों (कमिश्नरियों) में विभाजित पचपन जिले हैं। जैनधर्म जैनधर्म भारतवर्ष की एक सर्वप्राचीन धार्मिक एवं सांस्कृतिक परम्परा का प्रतिनिधित्व करता है। विभिन्न कालों एवं प्रदेशों में उसे आहत,व्रात्य, श्रमण, निर्ग्रन्थ, अनेकान्ती, स्याद्वादी, भव्य आदि अन्य नाम भी प्राप्त रहे । समस्त आत्मिक विकारों पर पूर्ण विजय प्राप्त करने वाले महान आध्यात्मिक विजेता 'जिन', 'जिनदेव' या 'जिनेन्द्र' कहलाते हैं। जन्म-मरण रूप दुःखपूर्ण संसार सागर से पार करने वाले धर्मतीर्थ की स्थापना एवं प्रवर्तन करने के कारण वे 'तीर्थंकर' कहलाते हैं । नियम पूर्वक आत्मसाधन के हित व्रतों का पालन करने के कारण 'व्रात्य', समत्व के साधक होने से 'समण', श्रमपूर्वक स्वपुरुषार्थं द्वारा आत्मशोधन का मार्ग अपनाने के कारण 'श्रमण' और सम्पूर्ण अन्तरंग एवं बाह्य परिग्रह के त्यागी होने के कारण वे निर्ग्रन्थ कहलाते हैं। निर्ग्रन्थ श्रमण तीर्थंकरों, अर्हतों या जिनदेवों द्वारा स्वयं अनुभूत, आचरित एवं संसार के सभी प्राणियों के हित-सुख के लिए (सर्व सत्त्वानां हिताय -सर्व सत्त्वानां सुखाय) उपदेशित और प्रवत्तित धर्म व्यवस्था का नाम ही जिनधर्म या जैनधर्म है। इसका अपना तत्वज्ञान है, अपना दर्शन है, अपनी सुसमृद्ध संस्कृति है और इतिहास है। यह सर्वथा स्वतन्त्र, मौलिक एवं विशुद्ध भारतीय परम्परा है। उत्तर प्रदेश के साथ जैनधर्म और संस्कृति का अटूट सम्बन्ध है, बल्कि उसका उद्भव-स्थल एवं अनेक उत्थान-पतनों के बावजूद अविच्छिन्न क्रीडाक्षेत्र यह प्रदेश रहता आया है।। जैन मान्यता के अनुसार यह विश्व अपने समस्त उपादानों सहित सत्ताभूत, वास्तविक और अनादि-निधन है। विश्व में विद्यमान पदार्थों में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष परिवर्तन निरन्तर होते रहते हैं, जिनका हेतु काल द्रव्य है। व्यवहार काल की सबसे बड़ी इकाई 'कल्प' कहलाती है। विश्व के जीवन में अनन्त कल्प बीत चुके हैं, और वह अनन्त कल्पों तक चलता रहेगा । प्रत्येक कल्प के दो विभाग होते हैं—एक अवसर्पिणी (अधोमुख या अवनतिशील) और दूसरा उत्सर्पिणी (उर्ध्वमुख या उन्नतिशील)। इनमें से प्रत्येक के छः आरक (आरे) होते हैं, जो पहला, दूसरा, तीसरा, चौथा, पांचवां और छठा काल कहलाते हैं । अवसर्पिणी में पहले से छठे तक क्रम से चलते हैं, और उत्सर्पिणी में क्रम उल्टा हो जाता है, अर्थात् छठा, पांचवा आदि पहले तक । इस प्रकार प्रत्येक कल्प में दो बार चौथा आरा या काल आता है-एक अवसर्पिणी में और एक उत्सर्पिणी में । प्रत्येक चौथे काल में एक के अनन्तर एक २४ तीर्थङ्कर जन्म लेते हैं और अपने-अपने समय में धर्म का साधन, उद्धार और प्रचार करते हैं। तीर्थंकरों के अतिरिक्त १२ चक्रवर्ती, ९ नारायण, ९ प्रतिनारायण और ९ बलभद्र भी उसी चौथे काल में उत्पन्न होते हैं। सब मिलाकर ये तिरसठ-शलाका पुरुष कहलाते हैं, जो अपने-अपने क्षेत्र में सर्वोपरि महत्व के श्लाघनीय पुरुषपुगब होते हैं । जैन परम्परा की यह निविरोध मान्यता है कि प्रत्येक चौथेकाल के चौबीसों तीर्थकर लोक के मध्य भाग में स्थिति जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्रवर्ती आर्यखण्ड के मध्यदेश के प्रायः केन्द्र में स्थित जिस स्थान में जन्म लेते हैं वह वही है जहां वर्तमान उत्तर प्रदेश के अवध प्रान्त के फैजाबाद जिले में स्थित प्रसिद्ध अयोध्या नगर बसा हुआ है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
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