SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 204
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ख-४ [ २९ उनके लिए है, जो मध्यस्थ हैं। अनेकांत का दर्शन केवल तत्ववाद का दर्शन नहीं है। वह तत्ववाद और आचारशास्त्र, दोनों का समन्वित दर्शन है। उसका स्पर्श प्राप्त किए बिना तत्व और आचार-दोनों सम्यक नहीं हो सकते । वही तत्व सम्यक् हैं, जो अनेकांत के आलोक में दृष्ट हैं । वही आचार सम्यक् है, जो अनेकांत के आलोक में आचरित है। भगवान महावीर ने अस्तित्व-बोध के जिस उपाय की खोज की उसका नाम 'नय' है । वचन के जितने प्रकार हैं उतने नय हैं। प्रत्येक अस्तित्व अनंतधर्मा होता है। भाषा को सीमा है और प्रतिपादन करने वाले की भी सीमा है, इसलिए नय अनंत नहीं हो सकते । अनंत धर्मों का प्रतिपादन अनंत नयों के द्वारा ही हो सकता है। किंतु उनकी सीमा होने के कारण वे अनंत नहीं होते, इसीलिए अनेकांत की मर्यादा में इस सिद्धांत की स्थापना की गयी कि वचन के जितने प्रकार है उतने ही नय हैं। कोई भी वक्ता हो वह एक क्षण में वस्तु के एक ही धर्म का प्रतिपादन करेगा और वह एक धर्म का प्रतिपादन एक नय होगा। सब नय अपने-अपने प्रतिपादन में सत्य होते हैं। वे जब दूसरे के प्रतिपादन का निराकरण करने लग जाते हैं, तब असत्य हो जाते हैं। अनेकांत का सिद्धान्त नयों में कुछ नय सत्य हैं और कुछ असत्य, ऐसा विभाग नहीं करता । उसके अनुसार सब नय सत्य हैं, यदि वे सापेक्ष हों और सब नय असत्य हैं, यदि वे निरपेक्ष हों। उनके सत्य होने की मर्यादा यह है कि वे अपने दृष्टि कोणों का प्रतिपादन करें, दूसरे के दृष्टिकोण का निराकरण न करें, उसके प्रति तटस्थ रहें। यह तटस्थता ही उनकी सच्चाई है। सत्यांश की स्वीकृति शेष सत्यांशों का निराकरण कर सच्चाई नहीं हो सकती। किंतु उनके प्रति तटस्थ रह कर सच्चाई हो सकती है। सब सत्यांशों की स्वीकृति संभव नहीं है, फिर भी कुछेक सत्यांशों को प्राप्त कर हम सत्य की दिशा में प्रस्थान कर सकते हैं। अनेकांत के नयवाद ने उसी दिशा का उदघाटन किया है। भगवान महावीर के समय में अनेक मतवाद प्रचलित थे। उन्होंने उन मतवादों को अनेकांत की दृष्टि से देखा । उनका दृष्टिकोण नयचक्र की महान श्रुतराशि में गुंफित था। अनेकांतवाद ने विरोधी प्रतीत होने वाले सत्यों की समन्वित स्वीकृति कर अस्तित्ववाद के सिद्धान्त को जन्म दिया। उसने सह-अस्तित्व की व्याख्या इन शब्दों में की, कि सर्वथा नित्य और सर्वथा अनित्य कुछ भी नहीं है । वास्तविकता वही है, जो नित्य और अनित्य का समुदय है। सर्वथा सदृश और सर्वथा विसदृश कुछ भी नहीं है। वास्तविकता वही है, जो सदृश और विसदृश का समुदय है। सर्वथा अस्तित्व और सर्वथा नास्तित्व कुछ भी नहीं है। वास्तविकता वही है, जो अस्तित्व और नास्तित्व का समुदय है। सर्वथा निर्वचनीय और सर्वथा अनिर्वचनीय कुछ भी नहीं है। वास्तविकता वही है, जो निर्वचनीय और अनिर्वचनीय का समुदय है । यह सहअस्तित्ववाद बहत बड़ी सच्चाई है। इस सच्चाई के आलोक में वर्तमान राजनीतिक-वादों, सामाजिक पद्धतियों और संस्कृतियों की व्याख्या कर हम अनेक विरोधाभासों को समन्वय में बदल सकते हैं; संघर्षों को शांति और मैत्री के रूप में परिवर्तित कर सकते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy