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________________ * असांप्रदायिकता का मूलमंत्र : अनेकान्त * -मुनि नथमल महावीर ने कहा, 'किसी को मान कर मत चलो। सत्य की दिशा में आनेकांत का उपयोग करो। अनेकांत का आशय है, किसी को मान कर मत चलो। किसी वस्तु को एक दृष्टिकोण से मत देखो। वस्तु में जो है, उसे ही देखो और जितने वस्तु धर्म हैं, उतने ही दष्टिकोणों से देखो।' महावीर ने इस सिद्धान्त की स्थापना कर सम्प्रदायवाद के मुल पर कुठाराघात कर दिया। सम्प्रदाय की जड़ तब मजबूत होती है, जब सत्य की अपेक्षा मान्यता की प्राथमिकता हो जाती है । सांप्रदायिकता का सूत्र है-मान कर चलो। वस्तु को एक दृष्टिकोण से देखो। पूर्व धारणा के दृष्टिकोण से देखो। महावीर को कोई अनुयायी नहीं हुआ। जिन लोगों ने उन्हें समझा, वे उनके सहगामी बने । अनेकांत के दर्शन में अनुगमन के लिए कोई अवकाश नहीं है । महावीर ने जो कहा, वह सत्य है । क्या समग्र सत्य की व्याख्या महावीर ने की ? कोई भी देहधारी मनुष्य उस की व्याख्या नहीं कर सकता। एक क्षण में वह एक ही शब्द का उच्चारण कर सकता है। यह वाणी की सीमा है। इस सीमा में सत्य के एक अंश का प्रतिपादन किया जा सकता है। जीवन के अनेक क्षणों में अनेक सत्यांशों का प्रतिपादन किया जा सकता है, समग्र सत्य का कभी नहीं किया जा सकता। कोई विदेह आत्मा उसका प्रतिपादन कर नहीं सकती। इस लिए वेदान्त ने कहा था 'ब्रह्म अनिर्वचनीय है' । महावीर ने यह नहीं कहा कि सत्य अनिर्वचनीय है और यह भी नहीं कहा कि आत्मा और पुनर्जन्म अव्याकृत हैं। उन्होंने कहा, 'सत्य सापेक्ष है।' एक ट्रक उत्तर देना महावीर के लिए संभव नहीं था। उन्होंने जिस भी तथ्य का प्रतिपादन किया, वह सापेक्षदृष्टि से किया। इस सापेक्षता का आधार है-पक्षपात शून्यता । एकांगी दृष्टिकोण का आधार है पक्षपात । वस्तु के किसी एक धर्म के प्रति हमारा झुकाव होता है, तब हम उसके शेष धर्मों को अस्वीकार कर उसी का समर्थन करते हैं । अन्यथा जो समर्थित है, उसी का समर्थन करें, जो ज्ञात है उसी को स्वीकृति दें-यह नहीं हो सकता। असमर्थित और अज्ञात को स्वीकृति देने पर ही यह प्रमाणित हो सकता है कि हमारा मन किसी पक्षपात से ग्रस्त और पूर्व मान्यता से पीड़ित नहीं है। नये ज्ञान और नए विकास की संभावना अनेकांत के क्षितिज्ञ में ही हो सकती है। महावीर का संदेश था, मध्यस्थ बनो। राग और द्वेष के दोनों तटों के बीच में रहो । न किसी के प्रति रक्त हो न किसी के प्रति द्विष्ट । जिसमें राग और द्वेष है, उसमें समभाव नहीं हो सकता। जिसमें समभाव नहीं होता, उसमें न अहिंसा होती है, न सत्य और अपरिग्रह । उससे सामाजिक न्याय की आशा नहीं की जा सकती। अनेकांत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
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