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________________ [ २७ व्यवहार में उसका अर्थ है बिलकुल सरल सादा और निष्कपट जीवन बिताना । व्यवहारिक जीवन आत्मौपम्य की दृष्टि विसकित करने का और आत्मशुद्धि सिद्ध करने का एक साधन है । यह नहीं कि उक्त दृष्टि और शुद्धि के ऊपर अधिक आवरण-मायिक जाल बढ़ाया जाय । जीवन व्यवहार के परिवर्तन के विषय में एक ही मुख्य बात समझने की है और वह यह कि प्राप्त स्थूल साधनों का ऐसा उपयोग न किया जाय कि हम अपनी आत्मा को ही खो बैठे। किंतु उक्त सभी बातें सच होने पर भी यह विचारणीय रहता ही है कि यह सब कैसे हो? जिस समाज, जिस लोकप्रवाह में हम रहते हैं उसमें ऐसा कुछ भी घटित होता हुआ नजर नहीं आता। क्या ईश्वर या ऐसी कोई दैवी शक्ति नहीं है जो हमारा हाथ पकड़ ले और लोकप्रवाह से विपरीत दिशा में हमें ले जाय, अध्वंगति दे ? इसका उत्तर महावीर ने स्वानुभव से दिया है कि इसके लिये पुरुषार्थ ही आवश्यक है। जब तक कोई भी साधक स्वंय पुरुषार्थ न करे, वासनाओं के प्रतिकल आचरण न करे, उसके आधात-प्रत्याघात से क्षोभ का अनुभव बिना किये अडिगरूप उसके सामने युद्ध करने का पराक्रम न दिखाये तब तक उपर्युक्त एक भी बात सिद्ध नहीं हो सकती। इसी से उन्होंने कहा है कि 'संजमम्मि य वीरिय' अर्थात संयम, चारित्र, सरल जीवन व्यवहार इन सबके लिए पराक्रम करना चाहिए। वस्तुत: 'महावीर' नाम नहीं है, विशेषण है । जो ऐसा वीर्य-पराक्रम दिखाते हैं, वे सभी महावीर हैं। इसमें सिद्धार्थनन्दन तो आ ही जाते हैं और इनके जैसे अन्य सभी आध्यात्म पराक्रमी भी आ जाते हैं। इतिहासकार जिस ढंग से विचार करते हैं उस ढंग से विचार करने पर यह प्रश्न होना स्वाभाविक है कि महावीर ने जो मंगल विरासत दूसरों को दी है वह उन्हें कहाँ से और कैसे प्राप्त हुई थी ? शास्त्र और व्यवहार में कहा जाता है कि बिन्दु में सिन्धु समा जाता है । यों तो यह वचन विपरीत प्रतीत होता है । किन्तु बात यह सच है । महावीर के स्थूल जीवन का परिमित काल तो भूतकाल के महान समुद्र का एक बिन्दुमात्र है। वह तीव्रगति से आता और चला जाता है। किन्तु उसमें संचित होने वाले संस्कार नये-नये वर्तमान के बिन्दु में समाविष्ट होते जाते हैं। भगवान महावीर ने अपने जीवन में जो आध्यात्मिक विरासत प्राप्त की और सिद्ध की, वह उनके पुरुषार्थ का परिणाम है यह सच है; किन्तु इसके पीछे अज्ञात भतकालीन वैसी विरासत की सतत-परम्परा विद्यमान है। कोई उसे ऋषम या नेमिनाथ या पार्श्वनाथ आदि से प्राप्त होने का बता सकते हैं, किन्तु मैं इसे एक अर्ध-सत्य के रूप में ही स्वीकार करता हूं। भगवान महावीर से पहले मानव जाति ने ऐसे जिन महापुरुषों की सृष्टि की थी, वे किसी भी नाम से प्रसिद्ध हुए हों, अथवा अज्ञात रहे हों, उन समग्र आध्यात्मिक पुरुषों की साधना की संम्पत्ति मानव जाति में इस प्रकार से उत्तरोत्तर संक्रान्त होती जाती थी कि उसके लिए यह कहना कि सब सम्पत्ति किसीएक ने सिद्ध की है' मात्र भक्ति है। भगवान महावीर ने ऐसे ही आध्यात्मिक कालस्रोत से उपरिसूचित मांगलिक विरासत प्राप्त की है और पुरुषार्थ से उसे जीवन्त या सजीव बनाकर, विशेषरूप से विकसित करके, देश और कालानुसार समद्ध रूप में हमारे समक्ष उपस्थित किया है। नहीं जानता कि उनके बाद होने वाले उत्तर कालीन कितने वेशधारी संतो ने उस मांगलिक विरासत में से कितना प्राप्त किया और विकसित किया, किन्तु इतना तो कहा ही जा सकता है कि जिस प्रकार उस बिन्दु में भूतकालीन महान समुद्र समाविष्ट है उसी प्रकार भविष्य का अनन्त समुद्र भी उसी बिन्दु में समाविष्ट है। अतएव भविष्य की धारा इस बिन्दु के द्वारा अवश्य आगे बढ़ेगी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
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