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________________ १४ ] तोमरों के उपरान्त दिल्ली राज्य पर सांभर-अजमेर के चौहानों का अधिकार हआ। प्रसिद्ध राय पिथौरा (पृथ्वीराज) का पिता 'प्रतापलंकेश्वर' सोमेश्वर चौहान तो जैनधर्म का भारी प्रश्रयदाता था। जब वह अजमेर से दिल्ली आया तो अपने नगर सेठ देवपाल को भी अपने साथ लाया था। दोनों ने हस्तिनापुर जैन तीर्थ की यात्रा की और वहाँ देवपाल ने ११७६ ई० में तीर्थंकर शान्तिनाथ की एक खड्गासन विशाल पुरुषाकार मनोज्ञ प्रतिमा प्रतिष्ठापित की थी? आगरा और इटावा के मध्य चन्द्रपाठदुर्ग (चन्दवाड, वर्तमान फिरोजाबाद) में १० वीं शती के अन्तिम पाद में चन्द्रपाल नामक एक चौहान ने अपना राज्य स्थापित किया था। वह स्वयं तथा उसका दीवान रामसिंहहारूल जैन धर्मानुयायी थे । चन्द्रपाठदुर्ग का निर्माण करके उनदोनों ने ९९६-९९९ ई० में वहाँ मुख्य जैनमंदिर बनवाया और उसमें अपने इष्टदेव तीर्थंकर चन्द्रप्रभु की मनोज्ञ स्फटिकमयी प्रतिमा प्रतिष्ठित की थी। चन्द्रपाल के वंश में ११-१२वीं शती में क्रमश: भरतपाल, अभयपाल, जाहड और श्रीबल्लाल नाम के राजे हुए जो सब जैन थे या नहीं, जैनधर्म के पोषक अवश्य थे, और उनके मन्त्री तो जैन ही होते रहे। अभयपाल के मंत्री अमृतपाल ने चन्दवाड में एक जैनमंदिर बनवाया था, और संभवतया जाहड के मंत्री सोडूसाहु ने भी। वहीं ११७३ ई० में माथुरवंशी नारायण साहु की देव-शास्त्र-गुरुभक्त भार्या रूपिणी ने श्रुतपंचमीव्रत के फल को प्रकट करने वाली भविष्यदत्त कथा अपभ्रंश भाषा के कवि श्रीधर से लिखवाई थी। इटावा जिले के असाइखेड़ा में भी इसी चौहान वंश की एक शाखा स्थापित थी-उस स्थान से भी उस काल की अनेक जिनमुत्तियाँ प्राप्त हुई हैं। __ मथुरा (महावन) में यदुवंशी राजपूतों का छोटा सा राज्य था, महमूद गजनवी के आक्रमण में मथुरा के ध्वस्त हो जाने पर ये लोग बयाना (जिला भरतपुर) में जा बसे थे। उस काल की (९८१,१००६, १०१४ ई० आदि की) मथुरा से प्राप्त जैन मूत्तियों से प्रकट है कि ये यदुवंशी राजे भी जैनधर्म के प्रति सहिष्णु थे। इलाहबाद जिले के कौशाम्बी, जसो आदि स्थानों से भी उस काल की तीर्थंकर प्रतिमाएं मिली हैं। अकेले जसो में लगभग एक दर्जन मूत्तियाँ मिली हैं जिन से, प्रयाग संग्रहालय के अध्यक्ष डा. सतीशचन्द काला के मतानुसार, प्रकट है कि किसी समय जसो जैनधर्म का एक अच्छा केन्द्र रहा है, यद्यपि अब चिरकाल से वहाँ किसी जैनी का निवास नहीं है । श्रावस्ती (बहराइच-गोंडा) में ९वीं-११वीं शती में जैनधर्मानुयायी ध्वजवंशी नरेशों का राज्य था, जिनमें क्रमशः सुधन्वध्वज, मकरध्वज, हंसध्वज, मोरध्वज, सुहिलध्वज और हरसिंहदेव नाम के राजा हुए। इसवंश का सम्बंध सरयूपारवर्ती कलचुरियों (चेदियों) की किसी शाखा से अथवा प्राचीन भरजाति से रहा प्रतीत होता है। उन दोनों में ही जैनधर्म की प्रवृत्ति थी। मोरध्वज का उत्तराधिकारी सुहिलध्वज या सुहेलदेव बड़ा वीर, पराक्रमी और जिनभक्त था। उसने १०३३ ई० के लगभग महमूद गजनवी के पुत्र के सिपहसालार सैयद मसऊद गाजी को बहराइच के भीषण युद्ध में बुरीतरह पराजित करके ससैन्य समाप्त कर दिया बताया जाता है। स्थानीय लोककथाओं में वीर सुहेलदेव प्रसिद्ध है और उनसे उसका जैन रहा होना भी प्रकट है। उत्तर प्रदेश के अवध आदि पूर्वी भागों में बहलता के साथ पायी जाने वाली कायस्थों की उपजाति श्रीवास्तव का निवास मूलतः श्रावस्ती नगरी से हुआ बताया जाता है। इनके एक नेता, चन्द्रसेनीय श्रीवास्तव त्रिलोकचन्द्र ने ९१८ई० में सरयू नदी को पार करके अयोध्या में अपना राज्य स्थापित किया, जिसका अन्त १२९४ ई० में मुहम्मद गोरी के भाई मखदूम शाह जूरन गोरी ने अयोध्या पर आक्रमण करके किया था। उसी ने वहां आदिदेव ऋषभ के जन्मस्थान के प्राचीन मंदिर को ध्वस्त करके उस स्थान पर एक मस्जिद बनवाई थी। वह स्थान आज भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
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