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१०७७ ई० के प्रतिमालेखों में ही मिलते हैं। उक्त दोनों प्रतिमाओं के अतिरिक्त १०वीं शती में एक पार्श्व प्रतिमा, १००६ ई० में एक तीर्थकर प्रतिमा, १०१४ में पार्श्वप्रतिमा, १०२३ में एक वर्धमान चतुबिब तथा एक अन्य प्रतिमा सर्वतोभद्रिका, १०४७ में नेमिनाथ प्रतिमा, ११५० में आदिनाथ प्रतिमा, आदि के मथुरा, आगरा, नौगाव आदि में निर्मित एवं प्रतिष्ठित होने के उल्लेख मिलते हैं।
लगभग ८३० से १३१० ई० पर्यन्त उत्तर प्रदेश के बुन्देलखंड भूभाग (झांसी, ललितपुर, बांदा, हमीरपुर और जालौन जिलों) पर चन्देलवंशी नरेशों का शासन रहा। उनकी प्रारम्भिक राजधानियाँ, जुझौती और खजुराहो, तो मध्यप्रदेश में हैं, किन्तु परवर्ती राजधानियाँ, कालिंजर और महोबा, उत्तर प्रदेश में ही स्थित थीं। चन्देलनरेश प्रायः सब शिवभक्त थे और मनिया उनकी कुलदेवी थी, तथापि वे सर्वधर्म सहिष्णु थे और उनके राज्य में जैनधर्म को पर्याप्त प्रश्रय प्राप्त था। उनके राज्य के वर्तमान में मध्यप्रदेश में स्थित खजुराहो, अजयगढ़, चन्देरी, ग्यारसपुर, विलासपुर, अहार, पपोरा आदि प्रमुख नगरों में ही नहीं, उत्तरप्रदेश के महोबा, कालंजर, देवगढ़, करगवां, बानपुर, चन्दपुरा, दूदाही, सरोन, आदि स्थानों में भी समृद्ध जैनों की बड़ी-बड़ी बस्तियां थीं, जहाँ उस काल में अनेक जैन मंदिरों एवं मूत्तियों आदि का निर्माण हुआ। जैन कला के चन्देलकालीन अवशेषों की तत्कालीन भारतीय मूत्ति एवं स्थापत्य शिल्प के सर्वोत्कृष्ट उदाहरणों में गणना है। राज्य के जैनों ने उस राज्य की सर्वतोमुखी उन्नति में पूरा योगदान दिया था। कमलदेव, श्रीदेव, वासवचन्द्र, कुमुदचन्द्र, शुभचन्द्र, गुणभद्र आदि अनेक प्रभावक दिगम्बर जैन मुनियों एवं विद्वान आचार्यों का राज्य में उन्मुक्त विहार होता था। जहांतक उत्तरप्रदेश का सम्बन्ध है, १०६३ ई० में. कीत्तिवर्मन चन्देल के शासनकाल में देवगढ़ में एक सहस्रकूट चैत्यालय का निर्माण हुआ था, १०९७ ई० में कीत्तिवर्मन के मन्त्री वत्सराज ने देवगढ़ का नवीन दुर्ग बनवाकार उसका नाम कीर्तिगिरि रखा था और उस समय एक जिनमन्दिर भी वहाँ बना था । जयवर्मा चन्देल के समय में, १११२ ई० में महोबा में कई जिन प्रतिमाएं प्रतिष्ठित हई थीं। मदनवर्मा के शासनकाल में ११४५ ई० से ११६३ ई० तक की एक दर्जन के लगभग जैन प्रतिमाएँ महोबा में प्राप्त हुई हैं, जिनमें ११५४ ई० की नेमिनाथ और ११५६ ई० की सुमतिनाथ प्रतिमाएँ रूपकार लाखन द्वारा निर्मित हैं, तथा ११६३ ई० की तीर्थकर अजितनाथ आदि कई प्रतिमाएँ महोबा के प्रसिद्ध जैन सेठ रत्नपाल एवं उसके पुत्रों, कीर्तिपाल, अजयपाल, वस्तुपाल और त्रिभुवनपाल ने एक जिनमंदिर बनवाकर प्रतिष्ठित की थीं। मण्डलिपर में गहपतिवंशी श्रेष्ठ महीपति के परिवार ने ११५१ ई० में नेमिनाथ जिनालय बनावाकर उसकी प्रतिष्ठा करायी थी। चन्देल परमाल (११६५-१२०३ ई.) के समय में अनेक जिनमंदिर एवं जिन-प्रतिमाए प्रतिष्ठित हई स्वयं राजधानी महोबा में ११६७ ई० में राज्याश्रय में एक जैनमंदिर का निर्माण हुआ था। वीरवर्मन चन्देल के समय की १२७४-१२७८ ई० की लेखांकित जैन मूत्तियां मिली हैं। अकेले देवगढ़ में ९५९ से १२५० ई० तक के डेढ़ दर्जन से अधिक जैन शिलालेख, प्रतिमालेख, आदि प्राप्त हुए हैं। उस युग में पाड़ाशाह (भैसाशाह) नाम का एक बड़ा उदार दानी अग्रवाल जैन धनकुबेर हुआ जिसे प्रचलित किम्बदंतियाँ बुन्देलखंड में सैकड़ों जैनमंदिरों, कूप, बावड़ी, तड़ाग आदि के निर्माण का श्रेय देती हैं।
८वीं शती के अन्त से लेकर १२वीं शती के मध्य पर्यन्त दिल्ली राज्य पर तोमर वंश का शासन था, जिनके राज्य में उत्तर प्रदेश के पश्चिमी जिले (वर्तमान मेरठ कमिश्नरी) सम्मिलित थे। तोमर वंश के राजे जैनधर्म के प्रति अति सहिष्णु थे। अनंगपाल तृतीय (११३२ ई०) का राज्य-मन्त्री नटलसाहु बड़ा धनवान एवं धर्मात्मा जैन श्रावक था। उसने दिल्ली में तथा अन्यत्न अनेक जैन मंदिर बनवाये और कई विद्वानों एवं कवियों को प्रश्रय देकर उनसे अपभ्रंश भाषा के कई जैन काव्य रचवायें थे।
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