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कन्नौज के गुर्जर-प्रतिहार-इस वंश का मूल स्थान मारवाड़ का भिन्नमाल (श्रीमाल) नगर था, और उसके नागभट प्रथम, कक्कुक, वत्सराज (७७५-८००ई.) आदि प्रारम्भिक राजे जैनधर्म के अनुयायी थे। 'रणहस्ति', 'परभट-भृकुटि-भंजक' आदि विरुदधारी वत्सराज ही कन्नौज के गुर्जर-प्रतिहार साम्राज्य का संस्थापक था और प्रायः पूरे उत्तर प्रदेश पर उसका शासन था। वह जैनधर्म का समर्थक एवं पोषक था। जैनयति बप्पभट्रिसूरि का वह बड़ा सम्मान करता था। जिनसेन ने हरिवंश में और उद्योतन सूरि ने कुवलयमाला में उसका उल्लेख किया है। अपने साम्राज्य के कई स्थानों में उसने जिनमंदिर और मूत्तियाँ स्थापित कराई थीं। कहा जाता है कि स्वयं राजधानी कन्नौज में उसने एक सौ हाथ ऊँचा भव्य जिनमंदिर बनवाया था, जिसमें भगवान महावीर की स्वर्णमयी प्रतिमा प्रतिष्ठापित की थी। वत्सराज का पुत्र एवं उत्तराधिकारी नागभट द्वितीय नागावलोक 'आम' (८००-८३३ ई.) भी बड़ा प्रतापी, विजेता और जैनधर्म का भारी प्रश्रयदाता था। जैन साहित्य एवं प्रभूत प्रशंसा पाई जाती है। आचार्य बप्पभट्रिसूरि उसके गुरु रहे बताये जाते हैं। अनेक विद्वानों के अनुसार बप्पभट्टिचरित्र में उल्लिखित ग्वालियर नरेश 'आम' यह गुर्जर-प्रतिहार नागभट द्वि० ही था; कुछ अन्य विद्वान कन्नौज नरेश यशोवर्मन के पुत्र एवं उत्तराधिकारी के साथ उक्त 'आम' का समीकरण करते हैं। प्रभावकचरित्र के अनुसार इस नरेश की मृत्यु ८३३ ई० में गंगा में जलसमाधि द्वारा हुई थी। मथुरा के प्राचीन 'देवनिर्मित' जैन स्तूप का जीर्णोद्धार भी इसी के समय में हुआ बताया जाता है। यह धर्मात्मा राजा जिनेन्द्रदेव की भांति विष्णु, शिव, सूर्य और भगवती का भी उपासक था। नागभट द्वि. का पौत्र एवं उत्तराधिकारी मिहिर भोज (८३६-८८५ ई०) कन्नौज के गुर्जर-प्रतिहार वंश का सर्वमहान नरेश था। अपनी कुलदेवी भगवती का वह भक्त था, किन्तु बड़ा उदार और सहिष्णु था और जैनधर्म का भी प्रश्रयदाता था। इस काल में प्रदेश में जैनधर्म की सन्तोषजनक स्थिति थी। सन् ८६२ ई० में इस परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्री भोजदेव के शासनकाल में उसके महासामन्त विष्णुराम के प्रश्रय में लुअच्छगिरि (ललितपुर जिले के देवगढ़) में आचार्य कमलदेव के शिष्य श्रीदेव ने श्रावक बाज और गंगा नामक दो भाइयों द्वारा भगवान शान्तिनाथ के प्राचीन मंदिर का जीर्णोद्धार कराके उसके सन्मुख कलापूर्ण मुखमंडप तथा सुन्दर मानस्तंभ निर्मापित एवं प्रतिष्ठापित कराया था। इन धर्मात्मा भ्रातृद्वय की उपाधि 'गोष्ठिक' थी, जिससे लगता है कि वे किसी व्यापारिक निगम के सम्भ्रान्त पदाधिकारी थे और उक्त शान्तिनाथ जिनालय के ट्रस्टी थे। भोज का एक वंशज महेन्द्रपाल द्वितीय (९४०-९४६ ई०) भी भारी विद्या प्रेमी, एवं उदार था। उसके लिए जैनाचार्य सोमदेव ने राजनीतिशास्त्र के अपने महान ग्रन्थों, नीतिवाक्यामृत एवं महेन्द्र-मातलि-संजल्प की रचना की थी, ऐसा विश्वास करने के कारण हैं।
११वीं शती के प्रथम पाद के अन्त के लगभग महमूद गजनवी के आक्रमणों ने गुर्जर-प्रतिहारों की सत्ता पर मारणान्तिक आधात किया। कुछ दशकों के उपरान्त कन्नौज में गाहडवाल रजपूतों की सत्ता स्थापित हुई, जिसके अंतिम राजा जयचंद को व उसके राज्य को १२वीं शती के अन्त के लगभग मुहम्मदगोरी ने समाप्त कर दिया । इस काल में उत्तर प्रदेश मुख्यतया कन्नौज-वाराणसी के गाहडवालों, महोबा के चन्देलों और दिल्ली के तोमरों तथा उनके उपरान्त चौहानों के बीच बँटा रहा। अनेक छोटी-छोटी राज्यसत्ताएं भी थीं। ये सब छोटे-बड़े राजे परस्पर नित्य लड़ते-भिड़ते रहते और अपनी शक्ति का ह्रास करते रहते थे। जिसका परिणाम यह हुआ कि मुसल्मान आक्रमणकारी उनका दमन करके सहज ही इस प्रदेश पर अधिकार करने में सफल हो गये।
९वीं-१०वीं शताब्दी में ही मथुरा आदि में दिगम्बर और श्वेताम्बर उभय सम्प्रदायों के पृथक-पृथक मंदिर सर्वप्रथम बनने प्रारम्भ हुए। दोनों के ही साधुओं ने अपने-अपने माथुर संघ या माथुरगच्छ भी गठित किये। दिगम्बर परम्परा का माथुर संघ और काष्ठासंघ, जिसकी एक प्रमुख शाखा माथुरगच्छ तथा एक दूसरी नदीतटगच्छ थी, इसी काल में उदय में आये। श्वेताम्बर माथुर संघ के सर्वप्रथम उल्लेख भी मथुरा से प्राप्त ९८१ ई. और
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