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________________ [ ११ क्षमता की कसौटी पर, कालान्तर में मानव देह पाकर धर्माचरण के द्वारा मोक्ष पाने की सामर्थ्य से मंडित हैं-यह ज्ञान और अनुभव ही 'अहिंसा' के अखंड, निष्कंप आचरण में उद्भासित होता है। यह अहिंसा विविध रूपों में अभिव्यक्ति पाती है-.क्षमा जो स्वयं को शांति देती है और दूसरे को निर्मल बनाती है। लोभ और परिग्रह का त्याग कि दूसरों को जीवन-साधन अधिक-अधिक मात्रा में प्राप्त हो और वह निश्चित बनें। दूसरे के अधिकारों का संरक्षण और अपनी लालसा पर विजय कि द्वेष की भावना जागृत न हो। जो न्याय से अपना नहीं है, उसे शक्ति से या चालाकी से प्राप्त करने के प्रपंच में हम न फंसे । भगवान महावीर ने अहिंसा की सफलता व्यक्ति के जीवन में उसकी व्याप्ति से मानी, क्योंकि व्यक्ति ही समाज बनाता है और समाज की इकाइयाँ राष्ट्र, तथा राष्ट्रों का समूह विश्व की संज्ञा पाता है। सत्य, औचार्य, इन्द्रिय-संयम और अपरिग्रह से युक्त अहिंसा बलवान की अहिंसा है। यह मानसिक संतुलन और उत्कर्ष विकट पुरुषार्थ से प्राप्त होता है-यही कारण है कि भगवान महावीर के श्रमण धर्म में श्रम की प्रधानता है, अप्रमाद पर बल है, और सतत संयम की साधना को मुक्तिदायिनी माना गया है। जन्म-जन्मान्तरों के माध्यम से आध्यात्मिक विकास की श्रृंखला की कड़ी देखनी हो, तो स्वयं महावीर की जीवन गाथा प्रमाण है। महावीर का वह संख्यातीत, कल्पनातीत भव जब वह प्रथम तीर्थकर आदिनाथ के पौत्र थे, भरत के पुत्र । नाम था मरीचि । पितामह ने मुनिदीक्षा भी तो सैकड़ों राजपुरुष आर नागरिक दीक्षित हो गये थे । उसने बड़े उत्साह से, सच्चे मन से दीक्षा ली थी, लेकिन जैन साधु की जीवनचर्या के जो नियम ऋषभ देव ने बनाये थे, वे बहत कठोर थे। तन पर वस्त्र नहीं, हफ्तों भोजन नहीं, रहने को खला आकाश, घोर गर्मीसर्दी और घनघोर वर्षा में कई-कई दिन तक एक आसन से खड़े रहकर तपस्या करने का अभ्यास, नींद पर अपलक नियन्त्रण, निरन्तर ध्यान और ध्यान....."इस परीक्षा मैं सभी खरे न उतरे । मरीचि भी घबरा गया। उसने दिगम्बर साध का वेश और इतनी कठोर तपस्या की पद्धति छोड़ दी। उसने अपना मनमाना साधु रूप बना लिया। गेरुए वस्त्र, छुरे से मुडाया सिर, त्रिदंड हाथ में, खाने पीने का कोई बंधन नहीं, ध्यान का भी अलग ढंग। इतना ही नहीं, मरीचि अपने बाबा भगवान आदिनाथ के समवसरण, उनकी धर्म सभा, के द्वार पर जा बैठता और दिखाता कि उसने ऋषभदेव का अहंत धर्म छोड़कर अपना एक परिव्राजक पंथ चलाया है । ऋषभदेव की धर्मसभा में एक दिन उनके पुत्र भरत चक्रवर्ती ने प्रश्न किया, "भगवान ! आपकी धर्मसभा में, या अयोध्या में क्या कोई ऐसा प्राणी है, जो भविष्य के किसी जन्म में तीर्थंकर बनेगा?" ऋषभदेव ने कहा, "भरत तुम्हारा एक अगले भव में चौबीसवां तीर्थंकर महावीर बनेगा।" भरत आश्चर्यचकित रह गये। उन्होंने पूछा, "किन्तु भगवान वह तो आप द्वारा चलाये गये अहंत धर्म का विरोधी है, आचरण से गिर गया है।" ऋषभदेव ने शान्त भाव से कहा, "भरत, मनुष्य के पुरुषार्थ की यही तो विशेषता है कि अपना भविष्य बनाना उसके अपने हाथ में है । मनुष्य के परिणाम और भावनाएं बदलती रहती हैं । मरीचि का जीव आज क्या कर रहा है, इस पर मत जाओ। वह पुण्यात्मा है, वह बडा सरल है, मायावी नहीं, इसलिये वह तीर्थंकर बने तो इसमें आश्चर्य क्य और सच था भगवान का वचन कि उन के युग का मरीचि जन्म-जन्मान्तरों के सागर को पार करता हुआ अन्त में महावीर नाम का चौबीसवां तीर्थंकर बना । इतने सब विरोधों और विरोधाभासों के बीच एक सहज-बुद्धिगम्य सामंजस्य और तारतम्य बैठाने का प्रयत्न महावीर ने किया। इस प्रयत्न की उपलब्धि थी अनेकांत । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
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