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ख-३
सिद्धार्थ और त्रिशला के वैभव की वद्धि के बीच बालक वर्द्धमान (महावीर का प्रारम्भिक नाम इसी वृद्धि के कारण) ने शैशव पार किया। किशोर हुए थे। अपनी वीरता के कारण मदोन्मत्त हाथी को वश में करके जनता की रक्षा की; विषधर सर्प को वश में करके भयभीत सखाओं का त्राण किया और 'महावीर' कहलाए; प्रखर प्रतिभा के सहज प्रयोग द्वारा गढ़ दार्शनिक प्रश्नों का उत्तर देने के कारण 'सन्मति' कहलाए-अनेक चमत्कार, और इन चमत्कारों की कवि-सुलभ कल्पना के लता-वितान में अनेक चरित-पुरुषों और काव्य-कथाओं के पुष्प खिलते चले गये। किन्तु महावीर के व्यक्तित्व के यह चमत्कार ही यदि सब कुछ होते और जनता उनसे मुग्ध होकर उन्हें भगवान मानकर परितृप्त और सुखी हो जाती, तो ३० वर्ष के राजकुमार वर्द्धमान महावीर राजमहल छोड़ कर साधना के लिए वन की ओर क्यों प्रस्थान करते ? निर्ग्रन्थ, नग्न, अकेले, मौन, अनिद्र, ध्यानमग्न । पूरे बारह वर्षों की कठोर तपस्या और साधना। कहीं कुटी नहीं बनायी, केवल वर्षा के चार महीनों में स्थान की परिधि में बंधे चातुर्मास करते, और शेष दिन-महीने भ्रमण और ध्यान, चिन्तन और पदयात्रा, मौन और अलस, निद्राहीन । मन में प्रश्न होता है-राजवंश के साधनों का उपयोग करके उन्हें वैशाली में रहते हुए समाज कल्याण के कार्य करने चाहिए थे। जिनका वीरत्व प्रतिष्ठित हो चुका था, उनके लिए सहज था कि जनतन्त्र को शक्तिशाली बनाते, साम्राज्यवादियों का उच्छेद करते. प्रजा की समद्धि की योजनाओं को रचते, उन्हें सफल बनाते । जहाँ तक आध्यात्मिक ज्ञान का प्रश्न है, उनके नाना चेटक और पिता सिद्धार्थ तीर्थङ्करों के साधना मार्ग के ज्ञाता थे। स्वयं महावीर अहंत दर्शन को पल्लवित करने की क्षमता रखते थे; वह तीर्थङ्कर थे, और इसी भव से मोक्ष जायेंगे, यह जनश्रति और ज्योति विभोर की वाणी प्रचारित हो चुकी थी। फिर महावीर ने कष्टों, परीषहों का मार्ग क्यों चुना, क्यों भयावह निर्जन वनों में यक्षों और प्रेतों के उपद्रव सहे; क्यों लाढ़ देश के निर्दय हिंसकों की प्रताड़ना सही; जब पकड़े गये, तो क्यों मौन साधना का व्रत भंग नहीं किया ? कथानक तो यहाँ तक भी है कि दुष्टों ने उनके कान में कीलें ठोंक दी और रुधिर की धारा के बीच जब उन्हें निकाला गया होगा तो ठोकने से भी अधिक निकालने में कष्ट हुआ होगा? सोचते हैं तो हृदय थर्रा जाता है । जिनके चमत्कारों की कथा अनन्त है, ऐसे तीर्थङ्कर के विषय में इन कष्टों की कल्पना, इनका सोचना और हुनका बताना सब कुछ त्रासदायक है। इसलिये जैन धार्मिक साहित्य की एक परम्परा में तीर्थंकर के प्रति ऐसी द्रावक घटनाओं का उल्लेख नहीं किया गया। किन्तु उपसर्ग तो महावीर ने सहे ही। कठिन से कठिन सर्दी, गर्मी, धूप, विषाक्त कृमि-कीटों द्वारा शरीर-छेदन, सभी कुछ सहने का उल्लेख है; उनके १२ वर्ष के साधना काल के प्रत्येक क्षण के साथ ये घटनाएं जुड़ी हुई हैं । महावीर के धर्म को और जैन धर्म के मौलिक चिंतन को समझने की कुन्जी इन्हीं प्रश्नों के उत्तर में है।
पूर्व तीर्थकरों द्वारा उपदेशित ज्ञान पर आस्था और श्रद्धा रखना एक बात है, ज्ञान रूप में श्रद्धा के साथ ही साथ समझ लेना यह दूसरी बात है। लेकिन उस पर आचरण करना, उसे अपनी निजी अनुभूति बना लेना, और इस तरह उसके साथ आत्मसात हो जाना अलग बात है। श्रद्धा, ज्ञान और आचरण का समन्वय ही मुक्ति का मार्ग है। जैन धर्म के केन्द्रीयभूत सिद्धान्त यही हैं। साधारण बोलचाल की भाषा का मुहावरा है-'बिना अपने मरे स्वर्ग नहीं देखा जाता है।' सम्यक ज्ञान को सम्यक् चरित्र बनाने का काम महावीर के लिए कोई दूसरा कर ही नहीं सकता था। ज्ञान को आचरण (तपस्या और साधना) के माध्यम से साधते-साधते जब १२ वर्ष बीत गए, तब हुआ महावीर को केवलज्ञान-एक ज्योति जिसने दर्शा दिया कि रागद्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, हिंसा, असत्य, स्वेय (चोरी), कुशील और परिग्रह के परे उस प्रतीति और उपलब्धि का वह सुख पा गये हैं, जो मनुष्य ही नहीं, पशु-पक्षी, कीड़े-मकोड़े, वृक्ष-वनस्पति, स्पंदित पर्वत, सप्राण जल और अग्नि में बसी आत्मा की अनु. भृति से भी प्राप्त होता है। अपनी सी आत्मा इन सब में व्याप्त है, अतः सब आत्माएं निजी विकास की चरम
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