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मानव उत्कर्ष की ऊर्जा के
संवाहक महावीर
-श्री लक्ष्मी चन्द्र जैन
यह विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि सांसारिक विजय के क्षेत्र में जिन क्षत्रियों की तलवार ने पराक्रम और वीरता को तेजस्विता का आलोक दिया, उन क्षत्रियों के वंशज ही आध्यात्मिक साधना के नेता बने । आश्चर्य नहीं कि जैन धर्म के चौबीसों तीर्थकर क्षत्रिय थे। इन तीर्थकरों ने जीवन के विकास-क्रम में सभी प्रकार के दायित्वों का निर्वाह किया-अनेक ने राज्यों का संचालन किया, सभी ने सामाजिक व्यवस्था में युगानुकल सुधार करके लोक-कल्याण किया, वैयक्तिक त्याग और तपस्या द्वारा आत्मतत्व की उपलब्धि के उपरान्त आत्मज्ञान की ओर मानव समाज को उन्मुख किया।
जब बुद्ध वैशाली में पधारे, तो उन्होंने अपने भिक्षओं से कहा था-'भिक्षुओं, क्या तुमने देवों को सुदर्शन नगर से उद्यान-भूमि को जाते देखा है ? यदि नहीं, तो अब इन वैशाली के क्षत्रियों को देख लो, क्योंकि जैसी ऋद्धि देवों की होती है, वैसी ही वैशाली के इन लिच्छिवियों की दिखाई दे रही है।
यद्यपि वैशाली का यह चमत्कारी वर्णन बुद्ध ने स्वयं किया है, किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि समाज के सभी वर्ग सम्पन्न थे। जन-साधारण की आर्थिक विपन्नता अधिक न रही हो, किन्तु सामाजिक विपन्नता की स्थिति बहुत करुण थी। ऐसा न होता, तो महावीर और बुद्ध ने सामाजिक क्रान्ति का शंखनाद क्यों किया होता? महावीर की इस सामाजिक क्रांति का मुख्य लक्ष्य था, धर्म तीर्थ की स्थापना-धर्म जिसने भारतीय समाज की व्यवस्था को सदा प्रभावित किया है, नियंत्रित किया है, और अपनी जीवंतता से जन-समाज को सुमार्ग दिखाया, मन को शांति दी, विपत्तियों को सहन करने की क्षमता दी, प्रेम के द्वार खोले, सहानुभूति की सीख दी। धर्म का यह स्वरूप शताब्दियों के बंधे-बंधाये ढंग के क्रियाकांड और क्रियाकांडियों की स्वार्थपरक दृष्टि के कारण विलुप्त होता गया था। यज्ञों के अनुष्ठान की यांत्रिकता, नियमों, उप-नियमों की ऐसी पांडित्यपूर्ण व्यवस्था कि जनसाधारण की पहुँच और समझ से बाहर-न भाषा का बोध, न भाव की पकड़, और न ही भावना की परितृप्ति का कोमल मानवीय आधार । पशुयज्ञ भी जहां निषिद्ध नहीं; जहां शूद्रों की सामाजिक जघन्यता उन्हें पशुओं की कोटि में ला बैठाये; जहाँ स्त्रियों के अस्तित्व को व्यक्तित्व की कोटि से बहिष्कृत कर दिया गया हो; जहाँ भरे बाजार में दास-दासियों का क्रय-विक्रय होता हो, वहाँ ऐसी व्यवस्था का समर्थन करनेवाला धर्म स्वतन्त्रचेता व्यक्तियों के हृदय को मथित क्यों न करता ?
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