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________________ महावीर ने कहा - -मुचि महेन्द्र कुमार 'प्रथम' सडिढए मेहावी मारं तरह-श्रद्धाशील मेघावी संसार के पार पहुंच जाता है। पर, प्रश्न यह है कि श्रद्धा किसके प्रति हो ? सामान्यत: शास्त्रों के प्रति, धर्माचार्य के प्रति तथा अभिभावकों के प्रति समर्पण को श्रद्धा कहा जाता है। किन्तु, तीर्थंकर महावीर इसके आगे बढ़े थे। उनका कहना था, शास्त्र जड़ वर्गों में पिरोये हुए हैं। वे स्वत: कुछ भी प्रभावी नहीं होते । व्यक्ति उन वर्गों में अपनी अनुभूतियों को योजित करता है । जैसी वे अनुभूतियां होती हैं, उन्हीं के आधार पर शास्त्रों की परिणति हो जाती है। प्रयोक्ता यदि उनके साथ सम्यक अनुयोजन करता है, उनसे बढकर अन्य कोई भी प्रकार उतना प्रभावी नहीं हो सकता। यदि उस' अनुयोजन में सम्यक्ता का निर्वहन पूर्णत: नहीं हो पाता, तो वे शास्त्र भार के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं हो सकते। धर्माचार्य चेतन हैं। वे शिष्यों को साधना में अनुयोजित करने का प्रयत्न करते हैं । किन्तु, बहुधा वे न्याय तथा निष्पक्षता से हट भी जाते हैं। शिष्यों के प्रति उनकी समवर्तिता खण्डित हो जाती है। अन्य भी अनेक प्रकार हैं, जिनसे उनकी अपूर्णता छलकती है। अपूर्ण के प्रति श्रद्धा की कैसी अभिव्यक्ति ? __ अभिभावक तो केवल रहन-सहन, खान-पान, शिक्षण-संस्थापन आदि व्यवहारिक क्रियाओं के व्यवस्थापक होते हैं। उनके साथ तो मात्र विनिमय की ही प्रधानता होती है। श्रद्धा स्व के प्रति होनी चाहिये । जो अपने अस्तित्व में लीन हो गया, श्रद्धा वहां साकार हो गयी । आत्मविस्मृत व्यक्ति किसी भी परिस्थिति में श्रद्धा का परिवेश पा नहीं सकता। इसलिए श्रद्धा का तात्पर्य है, आत्मा के अस्तित्व में अधिनिष्ठ होना। आनन्द का श्रेष्ठ मार्ग सामान्यतः व्यक्ति निराशा, असफलता व बिषाद के क्षणों में उन्मन हो जाता है तथा आशा, सफलता व हर्ष के क्षणों में उछलने लगता है। वह प्रतिकूलता को अभिशाप तथा अनुकूलता को वरदान मानकर चलता है। यह व्यक्ति की अपूर्णता है और वह किसी रिक्तता की ओर संकेत करती है। यथार्थता यह है कि जीवन द्वन्द्वात्मक है। वह नाना विरोधी युगलों को अपने में अटा कर ही अवस्थित रह सकता है। उनका तिरोधान किसी भी स्थिति में शक्य नहीं है। व्यक्ति यह क्यों भूल जाता है कि ये सारे द्वन्द्व जीवन रूप रस्सी के दो छोर या एक ही सिक्के के दो पार्श्व हैं। निराशा, असफलता, विषाद एवं प्रतिकूलता के क्षणों में जो अन्यमनस्क नहीं होता, वह जीवन के रण क्षेत्र में विजयी होता है। वह फिर सफलता, हर्ष, आशा तथा अनुकूलता के समय भी समचित्त रहैगा । उसके जीवन में न ऊब तथा घटन होगी एवं न अतिरिक्ता की अनुभूति होगी। यह प्रकार जितना साधक के लिए उपयोगी है, उतना ही सामान्य व्यक्ति के लिए भी। जो इन द्वन्द्वों से अतीत रहेगा, वह सदैव आनन्दमय रहेगा। आनन्दित होने का यही श्रेष्ठ मार्ग है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
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