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________________ ६२ ] ख-३ दिड्मूढ़ता सामान्यतः व्यक्ति वर्तमान में जीता है । वह बहुधा इस तथ्य को भूल जाता है कि वर्तमान का आधार विगत है और उसका आकार अनागत है । आधार और आकार के बिना वर्तमान का श्रृंगार नहीं हो सकता। फिर वहां दिग्मूढ़ता परिलक्षित होने लगती है। इसीलिये 'के अंह आसी', केवा इओ चुइयो पेच्चा भविस्सामि, (१-आयारो, अ० १, अ० १)-अधिकांश व्यक्तियों को विगत का ज्ञान नहीं होता और भविष्य की उनके सामने कोई स्पष्टता नहीं होती। विगत की विस्मृति का तात्पर्य है कि वर्षों तक जो अनुभव संजोये थे, जिनके आधार पर भविष्य में निखार लाया जा सकता था, उस अमूल्य निधि से वंचित हो जाना। व्यक्ति जितना अपने अनुभवों से पा सकता है, उतना पुस्तकों तथा अन्य व्यक्तियों के सम्पर्क से नहीं पा सकता। सहज प्राप्त अनुभव-ज्ञान से रिक्त व्यक्ति जड़वत् रहता है। ___ भविष्य की दिङ्मूढ़ता वर्तमान को भी धूमिल कर देती है। अनिश्चय की स्थिति में वह हाथ-पर-हाथ रख कर बैठा रहेगा। उसके कर्तव्य में अकल्पित सामर्थ्य होते हुये भी उसके लिये सब कुछ नहीं जैसा ही होगा। अकर्मण्यता पनपती चली जायेगी । जो व्यक्ति वर्तमान को उजागर करना चाहता है, उसे विगत को आधार तथा अनागत को आकार के रूप में स्वीकृत करना ही पड़ेगा। वर्तमान तभी सार्थक होगा और दिङ्मूढ़ता समाप्त होगी। हिंसा के सूक्ष्म रूप __ "पुरिसा ! तुमंसि नाम सच्चेव जं हंतव्वंति मन्नसि"-पुरुष ! जिसे तू मारना चाहता है, वह तू ही है । वध्य (मरने वाला) और वधक (मारने वाला) दो नहीं हैं। जो वधक है, वही वध्य है । जिसे परितप्त करना चाहता है, उपद्रत करना चाहता है, जिसे दास या नौकर बनाना चाहता है, वह भी अन्य कोई नहीं। वस्तुतः वह तू ही है । "सव्वेसि जीवियं पियं नाइवइज्ज किंचणं" सबको ही जीवन प्रिय है, अतः किसी का भी अतिपात (हिंसा) न करो। प्राण-वियोजन करना तो हिंसा है ही, पर किसी के प्रति दुश्चिन्तन करना भी हिंसा है। अहिंसक का मन सर्वथा पवित्र रहना चाहिये । उसमें उभरने वाले प्रतिक्षण के विचार सुदात्त, उदार तथा उन्नत होने चाहिये। एक क्षण भी संकीर्ण, आग्रह से भरे तथा अनुदार विचार नहीं होने चाहिये। प्रतिशोध, उत्तेजना, अहं, छद्म, आसक्ति, किसी को हीन समझना, स्वयं को उच्च समझना आदि भी हिंसा के ही सूक्ष्म रूप हैं। किसी के प्रति अनादर व्यक्त करना, असभ्य शब्दों का प्रयोग करना, उपहास करना, निन्दा करना, एकदूसरे के मन में घ णा के भाव उत्पन्न करना, डांटना, विरोधी वातावरण उभारना, किसी जाति, समाज या सम्प्रदाय को अन्य-जाति, समाज या सम्प्रदाय के विरूद्ध भड़काना आदि वाचिक हिंसा के नाना सूक्ष्म रूप हैं। चांटा मारना, उद्दण्डता करना, अभद्र व्यवहार करना, अशिष्टता बरतना, उछल-कूद मचाना आदि कायिक हिंसा के नाना सूक्ष्म रूप हैं । अहिंसक व्यक्ति उपरोक्त सभी प्रकारों से स्वयं को मुक्त रखता है। वह मन, वाणी तथा काया से सर्वथा पवित्र रहता है। हीन भावना तथा अहम् 'नौ हीणे ।" व्यक्ति हिंसा दूसरों की ही नहीं करता, अपितु स्वयं की भी करता है। अपने प्रति हीनता की अनुभूति करने वाला प्रतिक्षण अपनी हिंसा करता रहता है । वह यह भूल जाता है कि उसमें अनन्त प्रकार की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
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