SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 170
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ख-३ ऊर्जाएँ हैं और उनके प्रस्फोट से अनिर्वचनीय सिद्धियां प्राप्त की जा सकती हैं। किन्तु, स्वयं को हीन समझने वाला व्यक्ति अपनी ही शक्तियों से अज्ञात अन्यमनस्कता में पगा रहकर क्षण-क्षण अवसाद को प्राप्त होता रहता है, जो हिंसा का ही एक पर्याय है । अहिंसक व्यक्ति किसी भी परिस्थिति में हीनता की अनुभूति नहीं करेगा। वह अपने पुरुषार्थ का पूर्णरूपेण उपयोग करेगा। "नो अइरित्त।" बहत सारे व्यक्ति अपने को महान् मानकर अन्य व्यक्तियों की अवहेलना करते रहते है। वहां उनमें अहं छलकता रहता है। स्वयं सब कुछ है, अन्य कुछ भी नहीं है, इस अनुभूति में स्वयं को अतिरिक्त तथा अन्य को यथार्थ से विरहित मानकर वास्तविकता को झुठलाने का प्रयत्न करते हैं। अहिंसा को सदैव वास्तविकता ही मान्य है। वहां स्वयं को महान् मानने वाले को अवकाश नहीं है।। जिस प्रकार सचेतन प्राणियों को कष्ट पहँचाना हिंसा है, उसी प्रकार किसी जड़के प्रति दुर्व्यवहार करना भी हिंसा है । राह चलता हुआ व्यक्ति किसी पत्थर के ठोकर मारता है, तो वह असत् प्रवृत्ति करता है और वह हिंसा ही है। इसलिये जड़ पदार्थो के प्रति भी किसी भी प्रकार असंयत व्यवहार नहीं होना चाहिये। मैत्री "मैत्ति भूयेसु कप्पये-प्राणियों से मैत्री करो।" संसार में अनेक विचारों के व्यक्ति हैं। सबके विश्वास भिन्न-भिन्न होते हैं। रहन-सहन के प्रकार भी एक तरह के नहीं होते। भाषा, व्यवहार, सम्प्रदाय आदि भी भिन्नभिन्न होते हैं। जब व्यक्ति अपने विचारों को प्रधानता देकर अन्य के विचारों का प्रतिरोध करता है, तब हृदयों में दुराव का भाव उत्पन्न होता है। आत्मा का सहज स्वभाव मैत्री तब खण्डित हो जाती है। प्रत्येक व्यक्ति को चाहिये कि स्वयं के विश्वास, रहन-सहन के प्रकार, भाषा, व्यवहार तथा सम्प्रदाय आदि को ही अन्तिम मानकर आग्रहशील न बने। उस समय ही मैत्री फलित हो सकती है। ___ व्यक्ति दूसरों से अपने प्रति अच्छा व्यवहार चाहता है, किन्तु, दूसरों के प्रति अच्छा व्यवहार करने में कृपणता दिखलाता है। वह यह भूल जाता है-'आयतुले पयासु"-सबको अपने तुल्य समझो। अपने तरह की अनुभूति जब दूसरों के साथ होती है, तब दुराव घटता है और समीपता बढ़ती है। दो हृदयों की दूरी समाप्त होकर जब निकटता में अभिवृद्धि होती है, तभी मैत्री साकार होती है। जो क्षुद्र रेखायें विभाजक बनती हैं, उन्हें समाप्त किया जाता है। उस समय तब-मम-तेरे-मेरे की अनुभूति नहीं रहती । सब हमही हैं । यह सारा संसार एक परिवार है और सभी व्यक्ति उसके छोटे-बड़े सदस्य हैं, यही चिन्तन क्रियान्वित होता है। मैत्री में छोटी-छोटी इकाइयां नहीं होती। जो कुछ होता है, वह सर्व के लिए होता है। यदि छोटी-छोटी इकाइयाँ अवस्थित रहती हैं, जो मैत्री का नाम हो सकता है, पर उसका फलितार्थ नहीं। समय का मूल्य संसार में सबसे बहुमूल्य समय होता है। पर, अधिकतम उपेक्षा इसकी ही की जाती है। व्यक्ति प्रमाद एवं असावधानी में समय को व्यर्थ ही गंवा देता है । जो समय के मूल्य को नहीं आंकता, उसका भी कोई मूल्य नहीं आंकता । इसलिये 'समयं गोयम ! मा पमायये'-एक क्षण का भी प्रमाद में अपव्यय न करो। जा जा वच्चइ रयणी न सा पडिनियत्तई, धम्मं च कुणमाणस्स सफला जन्ति राइओ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy