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________________ जो रात्रियाँ व्यतीत हो गईं, वे लौटकर पुनः नहीं आयेंगी। जो साधक साधना-शील (धर्म-परायण) रहकर उनका उपयोग कर लेगा, वह समय की सार्थकता को प्रमाणित कर लेगा।। समय के मूल्य को आंकने का तात्पर्य है, वर्तमान का जागरूकता के साथ उपयोग करना। वर्तमान में सजग रहने वाला सब क्षेत्रों तथा सब कार्यो में सजग रहता है, अत: वह अपने निर्माण में पूर्ण सफल रहता है। जिसने समय की उपेक्षा कर दी, सारा संसार उसकी उपेक्षा कर देता है। उस प्रकार के निरूपयोगी व्यक्ति का कोई भी सन्मान नहीं करता। जो व्यक्ति समय का उपयोग नहीं करता, वह अपने निर्माण में ही कोरा रहता है, इतना ही नहीं, बल्कि व्यर्थ किये गये उस समय से वह ऐसे दुःखद जाल भी बुन लेता है, जिनसे उसका निष्क्रमण अत्यन्त कठिन हो जाता हैं। जीवन में प्रगति, विकास तथा निखार चाहने वाले व्यक्ति के लिए यह आवश्यक है कि वह एक क्षण को भी प्रमाद में व्यतीत न करे । पुरुषार्थ "उदिए नो पमाय (१-आयारो, अ० ५, उ०२)-उठो, प्रमाद न करो।" आलस्य एवं अकर्मण्यता में समय को न गंवाओ। तुम पुरुष हो; अत: पुरुषार्थ को काम में लो। दीनता के स्वर तुमको शोभा नहीं देते। भाग्य के निर्माता हो । किसी के सामने हाथ न फैलाओ । सफलता तुम्हारे पौरुष की प्रतीक्षा में है। अनन्त शक्तियां तुम्हारे में अन्तर्गभित हैं। तुम उनसे अनजान हो, इसीलिए अपने पौरुष के प्रति आश्वस्त नहीं हो । कार्य की सफलता के लिए दूसरों के मुंहताज बन रहे हो, यह परावलम्बिता है। जब शक्तियों का आभास कर लोगे, देखोगे, कुछ भी तुम्हारे लिए असम्भावित नहीं है । बल, वीर्य, पुरुषाकार और पराक्रम ही योजनाओं को क्रियान्वित करते हैं; अत: उनका गोपन न कर, इन्हें सत्कार्यो में प्रयुक्त करो। शुभ प्रवृत्ति नये का सर्जन करती है, वहां वह अशुभ का निवारण भी करती है। केवल संवेदनाओं में पलना उचित नहीं है। वे तो कर्तृत्व का हनन करती हैं। साधना पौरुष की क्रियात्मक परिणति है। उससे शक्तियों का आभास तथा उनका सम्यक् अनुयोजन होता है। उस ओर सतत बढ़ने का तात्पर्य पुरुषार्थ के सम्यक् अनुष्ठान का प्रतीक होता है। प्रत्येक क्षण में सावधान रहो। आलस्य, अकर्मण्यता तथा प्रमाद को अपने पास न आने दो। ये लो शक्तियों को कुण्ठित करने के साधन हैं। महाबीर विवरण 8 महोत्सव परस्परोपग्रहो जीवानाम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
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