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________________ दण्ड मिले, ऐसी विना दी हुई वस्तु भले ही कोई उसे छोड़ गया गया हो उसके प्रति ग्रहण का भाव भी न होना तीसरा अचौर्याणवत है । परस्त्री, किसी की पत्नी आदि हो या वेश्या आदि है उसका भोग का त्याग चतुर्थ ब्रह्मचर्याणु व्रत है। और अपनी इच्छा के अनुसार धन, धान्य, मकान, खेत आदि की एक मर्यादा करना कि मैं इतना रखूगा, पांचवा परिग्रह परिमाण अणुव्रत है । और हिंसा, असत्य, चोरी, स्त्री सेवन और परिग्रह का सर्वथा त्याग महावत है। यदि गृहस्थ पांच अणुव्रतों का पालन करें तो आज उनके और देश के सामने जो समस्याएं खड़ी हैं वे खड़ी न होती। हिंसा, झठ आदि पांच पाप हैं। इनसे मनुष्यों का वैयक्तिक और सामाजिक जीवन दुःखी होता है। अनावश्यक संग्रह ही भ्रष्टाचार और काले बाजार की जड़ है। मनुष्य आज धन संचय के पीछे ऐसा पड़ा है कि उसे अपने भी अहित का ध्यान नहीं है । फमतः आज अनावश्यक संचय करने वाले कानून के शिकंजे से भयभीत हैं । अब भी यदि उन्हें बुद्धि आ जाये और वे अपनी तृष्णा को रोककर अपनी इच्छा को सीमित करलें तो वे स्वयं भी सूखी रहेंगे और उनकी शोषणवत्ति से त्रस्त जनता को भी राहत मिलेगी। अस्तू, अहिंसा को प्रायः सभी धर्मों ने माना है किन्तु अहिंसा के पालन करने का क्रम तथा अहिंसा की परिभाषा स्पष्ट करके भगवान महावीर ने अहिंसा को व्यवहार्य बनाने का महान कार्य किया है। तत्वार्थसूत्र में हिंसा की परिभाषा की है-'प्रमत्त योगात प्राणव्यपरोपणं हिंसा' । इसकी व्याख्या में कहा है-प्रमाद कहते हैं कषाय सहितपने को। उससे युक्त आत्मा का परिणाम प्रमत्त है। उसके योग से प्राणों का घात हिंसा है। बह हिंसा प्राणी के दु.ख का कारण होने से अधर्म है। यहां इस हिंसा के लक्षण में जो 'प्रमत्तयोगात्' पद दिया है वह बतलाता है कि केवल प्राणों का घात हिंसा रूप अधर्म नहीं है क्योकि आगम में कहा है कि प्राणों का घात करने पर भी हिंसा का भागी नहीं होता। इसे एक दृष्टान्त द्वारा स्पष्ट करते हुए कहा है-कोई साधु पुरुष आगे देखकर मार्ग में जा रहा है। उसने आगे देखकर ज्यों ही पैर उठाकर आगे रखने का प्रयास किया त्यों ही कोई क्षद्र जन्तु उसके पैर रखने के स्थान पर आगिरा और उसके पैर से कुचल कर मर गया । उस साध को उस जीव के मरने के निमित्त से जरा भी पाप नहीं होता । क्योंकि साध प्रमादी नहीं था, सावधान था। किन्तु जहां प्रमाद है वहां किसी का प्राणघात न होने पर भी हिसा मानी गई है। कहा है-जीव मरे या जिये, जो असावधान है उसे हिंसा का पाप अवश्य होता है, किन्तु जो सावधान है, अपने मन बचन काय को संयत करके प्रवृत्ति करता है, उसे हिंसा होने मात्र से पाप बन्ध नहीं होता। इसका सार यह है कि हिंसा के दो भेद हैं, द्रव्य हिंसा और भाव हिंसा । परिणामों में हिंसा का भाव होना भाव हिंसा है। और किसी के प्राणों का धात द्रव्य हिंसा है। यदि कर्ता के भाव में हिंसा है तो बाहर में किसी का धात नहीं होने पर भी हिंसा है और यदि कर्ता के भावों में हिंसा नहीं है तो बाहर में किसी का घात हो जाने पर भी कर्ता हिंसा का भागी नहीं है, अतः भाव हिंसा ही हिंसा है। द्रव्य हिंसा को तो इस लिये हिंसा कहा है कि उसका भाव हिंसा के साथ सम्बन्ध देखा जाता है। इस तरह हिंसा की बुनियाद जीव के अपने भावों पर है । अतः जो हिंसा से बचना चाहता है उसे अपने मन बचन काय पर पूरा नियंत्रण रखकर सावधानी पूर्वक इस प्रकार प्रवृत्ति करनी चाहिये कि उससे किसी के प्राणों को कष्ट न पहुंचे। फिर भी यदि किसी को कष्ट पहुंचाता है तो उसकी हिंसा का भागी वह नहीं है । अतः हिंसा पाप से बचना अपने हाथ में है और इस लिये अहिंसा का पालन व्यवहार्य है। प्रत्येक मनुष्य अपने को संयत रखकर हिंसा से बच सकता है। असल में हिंसा कहते ही मनुष्य दूसरे प्राणियों के घात को ही हिंसा समझते हैं किन्तु जो उनकी हिंसा करता है वह अपनी भी हिंसा करता है इसे कोई नहीं समझता । भगवान ने कहा है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
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