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________________ ख-४ निमित्त से पुद्गल कर्म परिणाम होते हैं । यह संसार चक्र अनादि है किन्तु किन्ही जीवों का जो मोक्ष जा सकेंगे, सान्त है और जो मोक्ष प्राप्त करने में असमर्थ है उनका अन्त रहित है। इस प्रकार जीव और पुदगल का संयोग रूप परिणाम शेष पांच तत्वों में निमित्त है। मूल तत्व तो दो ही हैं. जीव और अजीव । उनका संयोग होने से ही आस्रवादि तत्वों की निष्पत्ति होती है। उनका कथन जीवों को हेय और उपादेय तत्व का बोध कराने के लिये किया गया है। दुःख हेय तत्व है। उसका कारण संसार हैं। संसार के कारण आस्राव वन्ध के कारण मिथ्या दर्शन, मिथ्या ज्ञान और मिथ्या चरित्र हैं। सुख उपादेय तत्व है । उसका कारण मोक्ष है। मोम के कारण संवर और निर्जरा तत्व हैं। उन दोनों के कारण सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चरित्र हैं। कहा है _ 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः।-तत्वा० सू० ॥१॥ अर्थात सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र इन तीनों का मेल मोक्ष का मार्ग है । अर्थात इनमें से एक या दो से मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती । सबसे प्रारम्भ में सम्यग्दर्शन होता है और सम्यग्दर्शन के साथ ही सम्यग्ज्ञान होता है। उनके होने पर जो चरित्र होता है वही सम्यक चारित्र है और उनके अभाव में जो चरित्र होता है वह मिथ्या चारित्र है। यथार्थ में धर्म तो आत्मा का स्वभाव है। उस आत्म स्वभाव की श्रद्धा और ज्ञान के बिना उसको प्राप्त करने का प्रयत्न व्यर्थ है। आत्मस्वरूप की प्राप्ति उससे नहीं हो सकती और आत्मस्वरूप की प्राप्ति ही मोक्ष है। अत: भगवान महावीर के धर्म का केन्द्रविन्दु व्यक्ति की अपनी आत्मा है। उस आत्मा को लक्ष्य में रखकर ही धर्म की गाड़ी चलती है। जितना भी वाह्य आचरण, व्रत, जप, तप, संयम आदि रूप है वह तभी यथार्थ है जब वह आत्म शोधन को दृष्टि से किया जाता है । लौकिक एषणा से किया गया धर्म, धर्म नहीं है। गृहस्थ और साधु के भेद से धर्म के भी दो भेद हैं-गृहस्थ धर्म और साधु धर्म । गृहस्थ धर्म को एक देश पालता है । और साधु सर्वदेश पालता है । एक देश धर्म को अणुव्रत कहते हैं और सर्वदेश को महाव्रत कहते हैं । व्रत पांच हैं-अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह । इन व्रतों का आचरण करने से ही कोई व्रती नहीं होता। व्रती बनने के इच्छुक को सर्वप्रथम अपनी आत्मा से तीन शल्य निकाल देना चाहिये। वे हैं-मिथ्यात्व, माया और निदान । शरीर में आत्मबुद्धि मिथ्यात्व है। सच्चे देव, सच्चे शास्त्र और सच्चे गुरू की पहचान न होना मिथ्यात्व है। दुनिया को छलने के लिये धर्म का बाना धारण करना मायाचार है और लौकिक फल की इच्छा से धर्म का साधन निदान है । इन्हें शल्य कहा है क्योंकि ये शरीर में घुसे कण्टक आदि की तरह सदा कष्ट देते हैं और इनके रहते हुए धर्म साधन से जो शान्ति मिलनी चाहिये वह नहीं मिलती। ऐसे धर्मसाधक का मन धर्म में न रहकर उसके फल में ही उलझा रहता है । फलत: न धर्म साधन होता है और न उससे फल प्राप्ति होती है। अहिंसा-यद्यपि व्रत चांच कहे हैं तथापि मुख्य व्रत तो एक अहिंसा ही है । शेषव्रत तो उसी के रक्षण के लिये हैं। जैसे किसान खेत में बीज बोकर उनकी रक्षा के लिये बाड़ लगा देता है। अतः सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह अहिंसा के पोषक और रक्षक होने से व्रत कहे गये हैं। अत: जिस सत्य वचन से दूसरे को कष्ट पहुंचे उसे असत्य में ही गिना गया है। __ पहले जो दो प्रकार के जीव कहे हैं, स्थावर और त्रस । उनमें से गृहस्थ त्रस जीवों की हिंसा का त्याग करता है, यह उसको प्रथम अहिंसाणुव्रत है । स्नेह या मोह आदि के वश होकर ऐसा झूठ नहीं बोलता जो किसी घर या ग्राम के विनाश में कारण बने । यह गृहस्थ का दूसरा सत्याणुव्रत है । जिससे दूसरे को पीड़ा पहुंचे, राज Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
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