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________________ ख -४ ६] हैं- कहा है- 'कायवाङमनः कर्म योगः स आस्रवः' और जीव के क्रोध, मान, माया लोभ रूप परिणामों को कषाय कहते हैं । यह कषाय कर्म बन्ध का प्रधान कारण है, इसी के कारण योग द्वारा आई हुई कर्म वर्गणा जीव के साथ बन्ध को प्राप्त होती है। यदि कषाय तीव्र होती है तो बन्ध भी दृढ़ होता है । 1 I बन्ध के भी चार प्रकार हैं- प्रकृति बन्ध, स्थिति अन्य अनुभाग बन्ध, प्रदेशबन्ध कर्म में स्वभाव का पड़ना प्रकृति बन्ध है । मूल कर्म आठ हैं- १ ज्ञानावरण, जो जीव के ज्ञान गुण को विकृत करके उसे ढांकता है । इसी के कारण जीवों में ज्ञान की हीनता मन्दता होती है। २ दर्शनावरण-जो जीव के दर्शन गुण को ढांकता है । निद्रा आदि का तीव्र या मन्द होना इसी का कार्य है । ३ वेदनीय - जो सुख दुःख का अनुभव कराता है, उनके अनुकूल सामग्री के प्राप्त करने में सहायक होता है । ४ मोहनीय - जो जीव को मोहित करता है, उसे अपने स्वरूप की प्रतीति नहीं होने देता। यह सब कर्मों में प्रधान है, सेनापति है ५ आयुकर्म जिसके कारण जीव अमुक समय तक एक ही शरीर में रुका रहता है ६ नामकर्म जिसके कारण जीव के शरीर आदि बनता है। ७ गोत्रकर्मजो लोक में उच्च नीच का व्यवहार कराता है। ८ अन्तराय कर्म जो जीवों के लाभ आदि में बाधा डालता है। इन आठ कर्मों में जीव के साथ बद्ध रहने की काल मर्यादा का पड़ना स्थिति बन्ध है। उनमें तीव्र या मन्द फल देने की शक्ति पड़ना अनुभाग बन्ध है । और बंधने वाले कर्म परमाणु की संख्या का निर्धारण प्रदेश बन्ध है । प्रकृतिबन्ध, प्रदेशबन्ध योग से होते हैं। स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध कषाय से होते हैं। चारो बन्धों में स्थिति बन्ध और अनुभाग बन्ध मुख्य हैं अतः कषाय की ही संसार मे प्रमुखता है। तत्वार्थ सूत्र - में बन्ध का स्वरूप इस प्रकार कहा है 'सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्रलानुपादत्ते स बन्धः । ' कषाय युक्त परिणामों से सहित होने से जीव कर्म के योग्य दलों को ग्रहण करता है यह बन्ध है । इसकी व्याख्या में कहा है कि कपाय से कर्मबन्ध होता है और कर्म के उदय से कषाय होती है। इस तरह कर्म और कषाय का सम्बन्ध अनादि हैं। अनादि काल से जीव इस चक्र में पड़ा है। आचार्य कुन्दकुन्द कहा है Jain Education International ने जो खलु संसारस्यो जीवो ततो दु होदि परिणामो । परिणामादो कम्मं कम्मावो होदि मदिसुमदी ।। १२८ ।। गदिमधिगदस्य बेहो बेहादो इंदियाणि जायते । तेहि दु विसयग्गहणं तत्तो रागो व दोसो वा ।। १२९ ।। जायदि जीवस्सेवं भावो संसार चक्कवालम्मि । इवि जिणवेहि मणिदो अनादिनिधनो सणि घणो वा ।। १३० ।। संसारी जीव के अनादि बन्धन की उपाधि व राग द्वेष रूप परिणाम होते हैं। राग द्वेष रूप परिणामों का निमित्त पाकर पुनः पोद्गलिक कर्म बंधते हैं। उन कर्मों के फल स्वरूप नरक आदि गतियों में जाता है। गति में जाने से शरीर मिलता है शरीर में इन्द्रियाँ होती है, इन्द्रियों से विषयों को ग्रहण करता है । विषय ग्रहण से राग द्वेष होते हैं- इष्ट विषयों में राग और अनिष्ट से द्व ेष करता है । राग द्वेष से 'पुन: पौगलिक कर्म बंधते हैं। इस प्रकार परस्पर में कार्यकारणभूत जीव और पुल के परिणाम रूप यह कर्म जाल चक्र की तरह घूमता रहता है। पुद्गल कर्मके निमित्त से जीव के परिणाम होते हैं और जीव के परिणाम के For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
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