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________________ ५२ ] का जो मार्ग बताया है उसका महत्व समाज के घटक स्त्री और पुरुष दोनों को समझना चाहिए और तब जो उचित लगे उसका जीवन में आचरण करना चाहिए । 1 [वस्तुतः जैन परम्परा में प्रारम्भ से ही नारी को प्रायः पुरुष तुल्य ही सम्मानप्राप्त रहता आया है । प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के उदय से पूर्व के भोगयुग में पुरुष और स्त्री युगलियों के रूप में साथ ही उत्पन्न होते, साथ साथ रहकर जीवन व्यतीत करते और साथ ही मृत्यु को प्राप्त होते थे। ऋषभदेव ने कर्मयुग का प्रवर्तन किया तो विवाह प्रथा भी चालू की। उनके समय में ही वाराणसी की राजकुमारी सुलोचना ने चक्रवर्ती-पुत्र के मुकाबले में सेनापति जयकुमार को स्वेच्छा एवं स्वतन्त्रता से अपना वर चुना था। भगवान के पुत्र भी हुए और पुत्रियाँ भी हुई, और उन्हें उन्होंने समान रूप से विविध ज्ञान-विज्ञान एवं कलाओं की शिक्षा दी थी। भगवान की दीक्षा लेने के उपरान्त जब उनके अनेक पुत्रों ने मुनि दीक्षा ली तो भगवान की दोनों पुत्नियों, ब्राह्मी और सुन्दरी ने भी आर्यिका दीक्षा ले ली। कुमारी ब्राह्मी के नाम से ही भारतवर्ष की प्राचीन लिपि ब्राह्मीलिपि कहलाई, ऐसी अनुश्रुति है। हस्तिनापुर में राजकुमार श्रेयांस ने अपनी धर्मपत्नी के साथ ही भगवान के वर्षीतप का प्रारणा कराके श्रावक धर्म की प्रवृत्ति चलाई थी । एक परम्परा का तो यह भी विश्वास है कि प्रथम तीर्थंकर के जीवनकाल में सर्वप्रथम केवल ज्ञान एवं निर्वाण प्राप्त करने का सौभाग्य स्वयं उनकी जननी मरुदेवी को प्राप्त हुआ था। उसी परम्परा के अनुसार तो १८ वें तीर्थकर मल्लि स्त्री ही थे। जैनों में तीर्थकरों की जननियों का सम्मान जनकों की अपेक्षा कुछ अधिक ही रहा है। ब्राह्मी, सुलोचना, सीता, अंजना, मन्दोदरी, द्रोपदी, चन्दना आदि जैन परम्परा की सोलह महासतियां परम आदरणीय रही हैं । भगवान महावीर ने तो एक अज्ञात कुल-शील क्रीत दासी का उद्धार करके उसे अपने आर्यिका संघ की अध्यक्षा बनाया था । स्त्री और पुरुष के विषय में महावीर पूर्णतया समदृष्टि थे। यहां तक कि जब उन्होंने अपने मुनि-आर्यिका-श्रावक-श्राविका रूप चतुर्विध संघ का संगठन किया तो उसमें मुनि १४,००० थे तो साध्वी आर्यिकाएं ३६००० थीं और गृहस्थ श्रावक यदि डेढ़ लाख थे तो गृहस्थ श्राविकाएं तीन लाख अट्ठारह हजार थीं। शिवार्य (लगभग प्रथम शती ई०) जैसे प्राचीन जैनाचार्यों ने भी यह स्पष्ट घोषित किया कि "जो दोष स्त्रियों में गिनाये गये हैं, उनका यदि पुरुष विचार करेगा तो उसे वे भयानक दीखेंगे और उसका चित्त उनसे लौटेगा, किन्तु नीच स्त्रियों में जो दोष हैं वे ही दोष नीच पुरुषों में भी रहते हैं । इतना ही नहीं, स्त्रियों की अपेक्षा उनकी अन्नादिक से उत्पन्न हुई शक्ति अधिक रहने से उनमें स्त्रियों से भी अधिक दोष रहते हैं । शील का रक्षण करने वाले पुरुषों को स्त्री जैसे निंदनीय एवं त्याज्य हैं, उसी प्रकार शील का रक्षण करने वाली नारियों को भी पुरुष निदनीय एवं त्याज्य हैं। संसार-देह-भोगों से विरक्त मुनियों के द्वारा स्त्रियां निदनीय मानी गयी हैं, तथापि जगत में कितनी ही नारियां गूणातिशय से शोभायुक्त होने के कारण मुनियों के द्वारा भी स्तुत्य हई हैं, उनका यश जगत में फैला है । ऐसी स्त्रियां मनुष्य लोक में देवता के समान पूज्य हुई हैं, और देव भी उन्हें नमस्कार करते हैं।" आचार्य जिनसेन भी कहते हैं कि 'गुणवती नारी संसार में प्रमुख स्थान प्राप्त करती है (नारी गुणवती धत्ते स्त्री सृष्टिरग्रिमं पदम्)। इतिहास काल में भी अनेक जैन नारियां धार्मिक, साहित्यिक, राजनीतिक एवं सामाजिक क्षेत्रों में अपनी विशिष्ट उपलब्धियों के कारण स्मरणीय हुई हैं। वर्तमान युग में भी पुराने हिन्दू न्यायविधान के अनुसार एक हिन्दु नारी दायभाग, पति की सम्पत्ति का उत्तराधिकार, दत्तक पुत्र या पुत्री लेने का अधिकार आदि जिन प्रतिबन्धों से जकड़ी रही है, विशेष जैन न्यायाविधान द्वारा जैन नारी उन प्रतिबन्धों से मुक्त रही है, और उच्च न्यायालयों में इसके वे अधिकार मान्य हुए हैं। स्त्री शिक्षा का अनुपात भी जैन समाज में हिन्दू एवं मुस्लिम समाजों की अपेक्षा कहीं अधिक रहा है। इसी शती के स्वतन्त्रता संग्राम में भी जैन नारियों ने उल्लेखनीय भाग लिया है। सं.] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
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