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जैनधर्म, महावीर और नारी
-सुश्री सुशीला कुमारी बैद, एम. ए., धर्मालंकार,
आज से लगभग २६०० वर्ष पूर्व भारत में नारी की स्थिति बड़ी दयनीय थी। उसकी स्वाधीन सत्ता प्रायः लुप्त हो चुकी थी। उसे मात्र दासी मानकर उपेक्षा और अवहेलना की दृष्टि से देखा जाता था। गृह-लक्ष्मी कहकर उसे घर की चहारदीवारी में बन्द रखा गया था। पुरुष की गुलामी की बेड़ियों में जकड़ी हुई नारी को समाज की गतिविधियों पर सोचने का अवसर ही नहीं दिया गया था। धार्मिक क्षेत्र में भी उसकी उपेक्षा होने लगी थी। यह वही समय था जब निर्दोष चन्दना की नीलामी की बोलियां सरे बाजार लगाई गईं। तिरस्कार और लांछना के उस युग में नारी को एक सच्चे मार्गदर्शक की आवश्यकता थी।
सौभाग्य से उसी समय कुण्डलपुर में त्रिशला और सिद्धार्थ के पुत्र के रूप में वर्धमान का जन्म हुआ। अतिशयों से युक्त इस बालक का जन्मोत्सव धूमधाम से मनाया गया । वातावरण में उल्लास छा गया। बालक वर्धमान बड़े होने लगे, वह वीर, अतिवीर और महावीर बन गये। अवस्था की वृद्धि के साथ-साथ उनका चिन्तन बढता गया । जैसे उन्होंने मानव-जीवन के और पक्षों पर गहन चिन्तन किया वैसे समाज में नारी की स्थिति पर भी उनका विचार चला।
उन्होंने बताया कि पुरुष और नारी की आत्मा समान है । स्त्री को पुरुष की तरह आगे बढ़ने का अवसर समान रूप से मिलना चाहिए । नारी को हेय अथवा अज्ञानी समझना महापाप है। उन्होंने नारी के लिए भी साधना का मार्ग खोल दिया । अपने चतुर्विध संघ की संरचना में मुनि, आर्यिका, श्रावक और श्राविका को उन्होंने समान रूप से स्थान दिया।
उन परिस्थितियों में स्त्री के लिए दीक्षित होने का अधिकार एक महान क्रान्ति थी। पराधीनता से त्रस्त स्त्रियां अपनी मुक्ति का उपाय पाकर बड़ी प्रसन्न हुई। संघ में हजारों साध्वियां और लाखों श्राविकाएं प्रविष्ट हुईं, जिनकी संख्या क्रमश: साधुओं और श्रावकों की संख्या के दुगुने से अधिक थी।
संघ के पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों की अधिकता इस बात की द्योतक है कि भगवान महावीर ने नारी जाग्रति की दिशा में एक दूरगामी कदम उठाया था। इससे यह प्रकट हो गया कि अच्छे काम में वे पुरुषों से पीछे नहीं रह सकतीं। नारी के नेतृत्व की बागडोर उन्होंने नारी को सौंप दी। साध्वी चन्दनबाला उनके संघ की प्रमुख आर्यिका थी। अपने साध्वी जीवन में उन्होंने नारी का आदर्श चरित्र प्रस्तुत किया।
उस युग में जीवन के जिन मूल्यों की प्रतिष्ठा थी उनके अनुसार नारी जीवन का निर्माण हुआ। वह निर्माण असाधारण था। वर्तमान युग में पुरुष के जीवन में जो परिवर्तन आ रहे हैं उनका असर स्त्री जीवन पर पड़े बिना नहीं रह सकता । इन परिवर्तनों के सन्दर्भो को समझना चाहिए और ऐसे कदम उठाने चाहिएं, जिनमें आज की जागरुक नारी प्रतिस्पर्धा से बचकर समाज को सही रास्ते पर ले चलने की क्षमता पा सके।
भगवान महावीर ने भोग से त्याग की ओर, प्रवत्ति से निवत्ति की ओर, स्वार्थ से परमार्थ की ओर चलने
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