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सर्वोदयी जैनधर्म और जातिवाद
-पं० परमेष्ठीदास जैन न्यायतीर्थ
जब हम भगवान महावीर के विविध कल्याणकारी सिद्धान्तों और उनके सार्वजनीन उपदेशों पर दृष्टिपात करते हैं, तो ऐसा लगता है कि ढाई हजार वर्ष पूर्व भी जो मानव-मन या मानव-वृत्तियां अथवा मानवों की समस्यायें थीं, वे आज भी विद्यमान हैं। यही कारण है कि भगवान महावीर ने तब जो उपदेश अथवा सन्देश दिये थे उन्हीं को उत्तरवर्ती जैनाचार्यों ने प्रकारान्तर से ग्रन्यबद्ध किया था और जब हम आज के सन्दर्भ में उन उपदेशों को देखते हैं तो लगता है कि वे ही उपदेश आज भी मानव कल्याण के लिए ज्यों के त्यों उपयोगी एवं कल्याणप्रद हैं।
जैसे वर्तमान में सम्पत्ति संग्रह, स्मगलिंग, टैक्स चोरी और सम्मिश्रण (मिलावट) आदि की सर्वत्र चर्चा है, तथा इन अनाचारों से सरकार और प्रजा परेशान है, इन सबका प्रबल विरोध करते हुए जैनाचार्यों ने दो हजार वर्ष पूर्व भी कहा थास्तेनप्रयोगतदाहृतावान विरुद्ध राज्यातिक्रम होनाधिक मानोन्मानप्रतिरूपकव्यवहारा
-तत्वार्थसूत्र ७-२७ अर्थात चोरी के लिए चोर को प्रेरणा करना या चोरी के उपाय बताना, चुराई हुई वस्तु को खरीदना, राज्य की आज्ञा के विरुद्ध चलना (जैसे निषिद्ध वस्तुओं का चोरी-छुपी से आयात-निर्यात करना अथवा चुंगी, नाका-बैरियर आदि को चोरी से पार कर जाना), नाप-तौल में कम-बढ़ करना (किलो और सेर अथवा मीटर और गज के नापतौल में मनमानी गड़बड़ी करना), तथा मिलावट करना, इत्यादि सब पापाचार हैं। जो इन अतिचारों से बचकर चलता है वही व्रती है, वही भला नागरिक है।
आज के वातावरण में इस सूत्र का तदनुरूप भाष्य करके देखें तो ज्ञात होगा कि आज कैसे-कैसे चोरी के प्रयोग हो रहे हैं, आयात-निर्यात के लिए कैसे और कितने प्रकार से राजकीय नियमों का चतुराई से उल्लंघन किया जाता है, चोरी का माल कैसे खपाया जा रहा है, और नाप-तौल तथा मिलावट की कितनी, कैसी गड़बड़ियां चल रही है। स्मगलिंग और स्मगलरों की पकड़ा-धकड़ी या छापामार योजना इसका जीवित प्रमाण है।
जैनाचार्यों ने मानवचरित्र को समुज्जवल बनाने के लिए "अहिंसासत्यमस्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहः” का उपदेश दिया था और श्री अमृतचन्द्रसूरि ने पुरुषार्थसिद्धध्युपाय में परिग्रह अथवा लोभ को हिंसा का ही पर्यायवाची बतलाया था (हिंसायाः पर्यो लोभः) । इस प्रकार परिग्रह को भी हिंसा का ही रूपान्तर कह कर उसके त्यागने का उपदेश दिया था । आचार्य उमास्वामी ने “मूर्छा परिग्रहः" सूत्र द्वारा केवल बाहर के तामझाम को ही नहीं, अपितु अन्तरंग ममत्वभाव को मूर्छा कहा है (मूर्छा तु ममत्व परिणामः) और वाह्य पदार्थों के प्रति आन्तरिक लालसा को परिग्रह कहा है, पाप कहा है, त्याज्य कहा गया है।
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