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________________ ५४ ] ख -४ यही कारण कि गृहस्थाचार के निर्वाह के लिए परिग्रह का परिमाण करने की बात कही गयी है । समन्तभद्राचार्य ने "परमित परिग्रहस्यात" के द्वारा अनिवार्य आवश्यक वस्तुओं की मर्यादा करके और अधिक में क्षा का त्याग ( ततोऽधिकेषु निस्पृहता) करने की बात कही है । इस प्रकार अपनी यथार्थ आवश्यकताओं को देखते हुए कम से कम परिग्रह रखना और उस परिग्रह-परिमाण व्रत के बाहर किसी भी प्रकार की चाह, ममत्व, लालसा या लोभ का भाव मन में नहीं आने देना चाहिए। जैन पूजा में "लोभ पाप को बाप बखानी" कहकर लोभ या परिग्रह को 'पाप का बाप' बतलाया है। क्योंकि युद्ध, आक्रमण, अन्याय और अत्याचार, लोभ, लालसा या परिग्रह की तृष्णावश ही होते हैं । जहाँ परिग्रह का परिमाण नहीं किया जाता है वहां निरन्तर सम्पत्ति को बढ़ाने की लालसा बढ़ती जाती है, और यो समग्र जीवन हाय तोबा में व्यतीत होता है । अपरिमित संपत्ति के कारण मन निरन्तर आकुलित रहता है, सरकारी छापे का भय बढ़ा रहता है और संचित सम्पत्ति का खुलकर उपयोग भी नहीं कर पाते। हमारा धर्म ही नहीं, अपितु सरकार की छापामार प्रवृत्ति भी हमें परिग्रह का परिमाण करने के लिए प्रेरित कर रही है । जैनाचार्यों ने कहा है कि धन-सम्पत्ति, मकान और वस्त्राभूषणादि परिग्रहों का यथावश्यक परिमाण करो, तथा अपनी कृतमर्यादा से अधिक जो न्यायपूर्वक अर्जित हो, वह दूसरों के हित में अर्पित कर दो । यही सद्-गृहस्थ का धर्माचार है । अपरिग्रह, अचौर्य और अहिंसादि व्रतों की शुद्धि के लिए यह भी आवश्यक है कि व्रती व्यक्ति किसी प्रकार की शल्य नहीं रखे। सभी प्रकार छल-कपट या दिखावे का त्याग करे, दान आदि देकर प्रतिफल की आकांक्षा नहीं रखे और आत्मश्रद्धा को सुदृढ़ बनाये रखे, क्योंकि मानसिक स्थिति स्वच्छ रखकर ही धर्म हो सकता है । इस प्रकार अन्तरंग - बहिरंग शुद्धिपूर्वक किया गया व्रत, धर्म अथवा त्याग आदि ही वास्तविक धर्म कहा गया है । यही कारण है कि जैनाचार्यों ने अहिंसादि व्रतों की रक्षा के लिए बध, लादने का भी निषेध किया है, गलत दस्तावेज लिखने- लिखाने को और धरोहर को भी अपराध कहा है तथा कुत्सित जीवन की भर्त्सना करते बंधन तथा पशुओं पर अधिक भार आदि के व्यवहार में गड़बड़ी करने हुए निर्मल जीवन जीने का उपदेश दिया है । साथ ही भगवान महावीर ने रुढ़िगत परम्पराओं का निषेध करके सर्वोदयी धर्म का प्रतिपादन किया था, जो बिना किसी भेदभाव के सबके लिये था । जहाँ संकुचित दृष्टि है, स्वपर का पक्षपात है, शारीरिक अच्छाई बुराई के कारण आंतरिक नींच ऊंचपन का भेदभाव है, वहाँ धर्म नहीं हो सकता । धर्म आत्मिक होता है, शारीरिक दृष्टि से तो कोई भी मानव पवित्र नहीं । इसलिए आत्मा के साथ धर्म का सम्बन्ध मानना ही विवेक है । लोग जिस शरीर को उच्च समझते हैं उस शरीर वाले कुगति में भी गये हैं, और जिनके शरीर नीच समझे जाते हैं वे भी सुगति को प्राप्त हुए हैं । धर्म चमड़े में नहीं किन्तु आत्मा में होता है । इसलिए जैनधर्म इस बात का स्पष्टतया प्रतिपादन करता है कि प्रत्येक प्राणी अपनी सुकृति के अनुसार उच्च पद प्राप्त कर सकता है । धर्म का द्वार सबके लिए सर्वदा खुला है। रविषेणाचार्य कहते हैं Jain Education International अनाथानामबंधुनां दरिणां सुदुःखिनाम् । जिनशासनमेतद्विध, परमं शरणं मतम् ॥ जो अनाथ हैं, बांधव विहीन है, दरिद्र हैं, अत्यन्त दुखी हैं उनके लिए धर्म परम शरण भूत है । यहाँ पर कल्पित जातियों या किसी वर्ण का उल्लेख न करके सर्व साधारण को जैनधर्म ही एक शरणभूत बतलाया है । जैनधर्म में मनुष्यों की बात तो क्या, पशु पक्षी, प्राणिमात्र के कल्याण का विचार किया गया है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
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