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________________ [ ५५ आत्मा का सच्चा हितैषी, जगत के प्राणियों को पार लगाने वाला, महामिथ्यावाद के गड्ढे से निकालकर सन्मार्ग पर आरूढ़ करा देने वाला और प्राणिमात्र के प्रेम का पाठ पढ़ाने वाला सर्वज्ञ-कथित जैनधर्म है । यह सिखाता है कि अहमन्यता को छोड़कर मनुष्य से मनुष्यता का व्यवहार करो, प्राणीमान से मैत्रीभाव रखो, और निरन्तर परहित निरत रहो। मनुष्य ही नहीं, पशुओं तक के कल्याण का उपाय सोचों और उन्हें घोर दुःख दावानल से निकालो। इस प्रकार भगवान महावीर के शासन में समस्त प्राणियों की हित कामना की गई है। यमपाल नामक चाण्डाल व्रत धारण करने पर समाजमान्य हो गया और देवताओं ने भी अभिषेकपूर्वक उसकी पूजा की थी। यथा तदा तदव्रतमाहात्म्यान्महा धर्मानुरागतः । सिंहासने समारोप्य देवतामिः शुभैर्जलैः ।। अभिषिच्य प्रहण दिव्यवनादिमि: सुधीः । नानारत्नसुवर्णद्वियंः पूजितः परमादरात् ॥ वहाँ के राजा ने भी उस चाण्डाल के धर्म प्रभाव से प्रभावित होकर, नीच-ऊँच का भेद-भाव किये बिना, उसका सम्मान किया, यथा तं प्रभावं समालोक्य राजायः परया मुदा। ___अथितः स मातंगो यमपालो गुणोज्वल: ।। भगवान महावीर के शासन में ब्रत, धर्म और गुणों को महत्ता दी गयी है, इनके सम्मुख हीन जाति अथवा अस्पृश्यता का विचार नहीं किया गया। जाति के अभिमान का परित्याग करने का उपदेश देते हुए स्पष्ट कहा है कि चाण्डालोपि व्रतोपेतः प्रजितः देवतादिमिः । तस्मादन्थन विप्राद्वर्य जातिगर्बो विधीयते ।। व्रतों से युक्त चाण्डाल भी देवों द्वारा पूजा गया, इसीलिए ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों को अपनी जाति की उच्चता का गर्व नहीं करना चाहिए। इस प्रकार जैनधर्म में जाति अथवा वर्ण को महत्ता न देकर केवल शुभाचरण और शील-पालन को ही महत्व दिया है । अमितगति आचार्य के शब्दों में शीलवन्तों गताः स्वर्ग नीच जातिभवा अपि । कुलीना नरकं प्राप्ताः शीलसंयमनाशिनः ।। जिन्हें नीच जाति में उत्पन्न कहा जाता है वे शील को धारण करके स्वर्ग गये हैं और जिनके लिए उच्च कुलीन होने का मद किया जाता है ऐसे दुराचारी मनुष्य नरक गये हैं। नास्ति जातिकृतो भेदो मनुष्याणां गवाश्ववत् । मनुष्यों में गाय और घोड़ों की तरह जातिकृत कोई भेद नहीं होते। गुणभद्राचार्य ने तो कह दिया कि(मनुष्यजातिरेक) सब मनुष्यों की एक ही जाति है; जैनाचार्यों ने मनुष्यों के बीच कोई जाति भेद न मानकर स्पष्ट कहा है कि आजीविका के भेद से ही ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य और शूद्र जैसे जाति परक भेद हो गये हैं। उनमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
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