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________________ लगभग ३०-४० वर्ष पूर्व, तीर्थंकर शान्तिनाथ की एक विशाल खड्गासन मनोज्ञ प्रतिमा, जो अजमेर निवासी किन्हीं सेठ देवपाल ने यहाँ आकर ११७६ ई० में प्रतिष्ठापित की थी, निकली थी। पहली और दूसरी निशि के मध्य स्थित एक अन्य टीले से, जो बारहदरी वाला टीला कहला सकता है, अभी हाल में एक खंडित त्रितीर्थी (शान्ति-कुन्थु-अर) की प्रतिमा निकली है। परातत्त्व विभाग की ओर से २०-२५ वर्ष पर्व विदर के टीले की खदाई हुई थी-उसमें भी कई जैन मूर्तियाँ निकली थीं, पहले भी निकलती रही हैं । एक दिगम्बर मुनि की श्वेत पाषाण की प्रतिमा तो वहीं से लगभग ६० वर्ष पूर्व प्राप्त हुई थी, जी बीच में खो गई लगती है और अब शायद पुनः प्राप्त हो गई है। इस प्रकार पवित्र जैन तीर्थक्षेत्र हस्तिनापुर एक विकासशील उत्तम स्थान है, यातायात एवं आवास की सुविधाएँ हैं और एक अच्छा पर्यटक केन्द्र होने की क्षमता रखता है। हस्तिनापुर में कात्तिकी पूर्णिमा के अवसर पर अष्टदिवसीय विशाल मेला प्रतिवर्ष होता है। जेठ बदि १४ को भी एक छोटा सा मेला लगता है और फाल्गुनि अष्टान्हिका में भी बहुत से यात्री इकट्ठे हो जाते हैं। शौरिपुर २२वें तीर्थकर नेमिनाथ (अरिष्टनेमि) के जन्मस्थान शौरिपुर की पहचान आगरा जिले की बाह तहसील के यमुनातट स्थित कस्बे बटेश्वर से ५ कि० मी० (पैदलमार्ग से केवल २ कि० मी०) दूर, यमुना के खारों में फैले हुए खंडहरों से की जाती है । आगरा से बटेश्वर ७० कि० मी० की दूरी पर दक्षिण-पूर्व दिशा में है, पक्की सड़क है, जिस पर बसें चलती हैं। स्वयं बाह से यह स्थान ८ कि. मी. और शिकोहाबाद से २५ कि० मी. है। बटेश्वर से शौरिपुर का मार्ग कच्चा है, किन्तु तांगा, कार आदि जा सकते हैं । १९वीं शती ई० के प्रथम पाद में कर्नल टाड ने शौरिपुर की प्राचीनता की ख्याति सुनी थी, यहां हीरे आदि रत्नों के जब-तब मिल जाने की बात भी सुनी थी और कई यूनानी एवं पार्थियन सिक्के भी यहाँ से प्राप्त किये सती के अन्तिम याद में जनरल कनिंघम के सहकारी कार्लाइल ने शौरिपुर के खंडहरों का सर्वेक्षण किया था, जिससे सिद्ध हआ कि प्राचीन समय में यह अत्यन्त समृद्ध नगरी रही थी, दो हजार वर्ष पूर्व भी यह व्यापार का अच्छा केन्द्र थी, और जैनों के साथ उसका घनिष्ट सम्बन्ध रहा । वस्तुतः, जैनों ने उसके साथ अपना सम्पर्क कभी नहीं छोडा, सदैव से उसे अपना पवित्र तीर्थ मानते और उसकी यात्रा करते आये हैं। बल्कि मध्यकाल में तो १६वीं शती से लेकर १९वीं के प्रायः अन्त तक शौरिपुरि में दिगम्बर भट्टारकों की गद्दी रही-उनके पीठ का मुख्यालय सम्भवतया निकटवर्ती हथिकत में था, किन्तु वे बहुधा शौरिपुर के भट्टारकों के रूप में ही प्रसिद्ध थे, और इस तीर्थ की व्यवस्था भी वही करते थे । सन् १९२४ ई० के लगभग उनके अन्तिम उत्तराधिकारी यति रामपाल की हत्या हो जाने के उपरात आगरा के जैनों ने एक शौरिपुर तीर्थक्षेत्र कमेटी गठित की, और वही तब से इस क्षेत्र की देखभाल करती आ रही है। शौरिपुर में कई प्राचीन जैन मन्दिर, अनेक जिन मूर्तियों एवं जैन कलाकृतियों के खंडित-अखंडित अवशेष मिले हैं। वर्तमान मन्दिरों में जो ठीक दशा में है और तीर्थ का मुख्य मन्दिर है, १६६७ ई० में शौरिपुर के भट्टारक द्वारा निर्मापित एवं प्रतिष्ठापित है। वह स्वयं मूलसंघ-बलात्कारगण-सरस्वतीगच्छ-कुन्दकुन्दान्वय के भट्रारक जनतभूषण के शिष्य एवं पट्टधर थे। दसरा मन्दिर बरुवामठ है जो यहाँ का सर्नप्राचीन जैन मन्दिर समझा जाता है। इसकी पुरानी प्रतिमाएँ चोरी चली जाने पर, १९५३ ई० में कृष्ण पाषाण की ८ फुट उत्तंग नेमिनाथ की मनोज्ञ प्रतिमा प्रतिष्ठित की गयी थी। इस क्षेत्र के जैन यादव राजपूत किसी आत्मीय की मृत्यु होने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
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