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________________ ख-६ [ ४३ उपरान्त भगवान ऋषभदेव ने छः मास का उपवास किया, तदनन्तर पारण के लिए यत्र-तत्र विहार किया, किन्तु छः मास और निराहार बीत गये, पारणा नहीं हुआ । अन्ततः हस्तिनापुर में राजा सोमयश के अनुज श्रेयांसकुमार ने उन्हें इक्षुरस का आहार दिया। वह दिन बैसाख शुक्ल तृतीया का था अतः लोक में 'अक्षयतृतीया' के नाम से प्रसिद्ध हुआ । भगवान और उनके वंशज भी इसी कारण इक्ष्वाकु कहलाए । हस्तिनापुर में ही सर्वप्रथम मुनि आहारदान देकर श्रावक धर्म का प्रवर्त्तन करने के उपलक्ष्य में वहाँ एक रत्नमयी स्तूप का निर्माण किया गया । राजा सोमयश के पुत्र मेघस्वर जयकुमार भरतचक्रवर्ती के प्रधान सेनापति थे और उन्होंने काशी की राजकुमारी सुलोचना को स्वयंवर में प्राप्त किया था । सोमयश के एक वंशज हस्तिन के नाम पर गजपुर का अपर नाम हस्तिनापुर प्रसिद्ध हुआ । इसी नगर में सनत्कुमार, शान्ति, कुन्थु, अर और सुभूम नाम के पाँच चक्रवर्ती सम्राट, जो जैन धर्म के पालक थे, विभिन्न समयों में हुए । इनमें से शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ और अरनाथ तो क्रमशः १६वें, १७ और १८वें तीर्थंकर भी थे। इन तीनों तीर्थंकरों के गर्भ जन्म-तप-ज्ञान नामक चार चार कल्याणक इसी नगर में हुए, जिनकी स्मृति में यहाँ तीन स्तूप निर्मित हुए, और एक स्तूप १९वें तीर्थंकर मल्लिनाथ के समवसरण के आगमन की स्मृति में निर्मित हुआ। बीसवें तीर्थंकर मुनिसुव्रत के दो प्रमुख श्रावक, गंगदत्त और कार्तिक श्रेष्ठि हस्तिनापुर के ही निवासी थे । रक्षाबंधन पर्व की उत्पत्ति विषयक घटना – अकम्पनाचार्यादि ७०० मुनियों पर बलि द्वारा किया गया उपसर्ग तथा मुनि विष्णुमार द्वारा बलि का बांधा जाना एवं उपसर्ग का निवारण - इसी नगर में घटित हुई थी । भविसदत्त नामक धर्मात्मा व्यापारी की, पंच-पांडवों की, तथा अन्य अनेक जैन सांस्कृतिक घटनाओं, पुराण एवं लोक कथाओं का सम्बंध हस्तिनापुर से रहा है । २३वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ का विहार भी हस्तिनापुर में हुआ, यहाँ उनके अनेक अनुयायी हुए, गजपुर नरेश स्वयंभू तो दीक्षा लेकर उनका मुख्य गणधर बना था। अंतिम तीर्थंकर महावीर भी यहाँ पधारे और इस नगर का तत्कालीन राजा शिवराज अपने कुटुम्बीजनों एवं अनुचरों सहित उनका भक्त शिष्य हुआ था । उनके पदार्पण की स्मृति में भी हस्तिनापुर में एक स्तूप बना। द्रोणमति पर्वत का महातपस्वी मुनि गुरुदत्त, राजकुमार महाबल, श्रावकोत्तम बल, पोत्तलि एवं सुमूह, भयंकर व्याध भीमकूटग्रह, उसकी स्त्री उप्पला और पुत्र गौतम, तथा अन्य अनेक प्रसिद्ध जैन व्यक्ति हस्तिनापुर के निवासी थे । प्राचीन इतिहासकाल में जैन मुनियों का एक प्रसिद्ध पंचस्तूपनिकाय कहलाया, जिसका पूर्व में वाराणसी एवं और आगे बंगाल पर्यन्त तथा दक्षिण में कर्णाटक देश पर्यन्त प्रसार हुआ । उसका मूल निकास हस्तिनापुर के पंचस्तूपों से ही हुआ प्रतीत होता है । वर्तमान में हस्तिनापुर में एक ऊँचे टीले पर १८०० ई० के लगभग दिल्ली के शाही खजांची लाला हरसुखराय एवं उनके सुपुत्र राजा सुगनचन्द्र द्वारा निर्माणित, बड़ा दिगम्बर जैन मंदिर है, जो पुराने मन्दिरों के अवशेषों पर निर्मित हुआ प्रतीत होता है । मंदिर का भव्य उत्तंग सिंहद्वार है, आंगन में एक भव्य मानस्तंभ है, अनेक वेदियां हैं और कई बड़ी-बड़ी धर्मशालाएं हैं । यहाँ एक गुरुकुल, धर्मार्थ औषधालय, स्कूल, शास्त्र भंडार, औषधालय, त्रिलोक शोध संस्थान आदि संस्थाएँ भी हैं । तीर्थक्षेत्र कमेटी के सुचारु प्रबन्ध में तीर्थक्षेत्र का उत्तम विकास हो रहा है, अनेक नवीन निर्माण भी हो रहे हैं । इस बड़े मंदिर के सामने, सड़क के उस पार छोटा मंदिर ( श्वेताम्बर ) १०० वर्ष पुराना है, जिसका कुछ वर्ष पूर्व सुन्दर नवीनीकरण एवं विस्तार हुआ है । मंदिरों से उत्तर दिशा में लगभग ५ कि० मी० की दूरी के बीच विभिन्न टीलों पर पूर्वोक्त पांच स्तूप बने हुए थे, जिनके स्थान में जीर्णोद्धार के मिस संगमर्मर की निषद्याएँ या निशियां ( छतरियाँ) बना दी गई हैं। एक टीले पर श्वेताम्बर निशियां बनी हैं- उसी टीले से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
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