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h) साधु और गृहस्थ उत्तर प्रदेश में भी यत्र-तत्र उस समय तक विद्यमान थे । महावीर द्वारा धर्मचक्र प्रवर्तन के उपरान्त वे लोग महावीर के अनुयायियों में सम्मिलित हो गये । पार्श्व द्वारा उपदेशित मार्ग का बहुधा चातुर्याम धर्म के नाम से उल्लेख हुआ है । कहा जाता है कि उन्होंने अहिंसा, सत्य, अस्तेय, और अपरिग्रह पर ही विशेष बल दिया था - ब्रह्मचर्य नाम के किसी व्रत का पृथक से विधान नहीं किया था, उसे अपरिग्रह का ही अंग प्रतिपादित किया था। भगवान पार्श्व चारित्रिक नैतिकता पर ही विशेष बल देते थे और तत्कालीन जनमानस पर अपने विचारों का महत्त्व जमाने में बहुत कुछ सफल हुए थे । इसके अतिरिक्त पंचाग्नि जैसे कृश तपों और हठयोगादि की निरर्थकता एवं निर्दयता की ओर उन्होंने लोक का ध्यान आकर्षित किया। अपने समय में वह 'पुरिसदानिय' ( पुरुष श्रेष्ठ ) उपाधि से प्रसिद्ध हुए । वह उत्तर वैदिक काल के उस श्रमणधर्म पुनरुत्थान के सर्वमहान एवं सफल नेता थे, जिसका प्रारम्भ नेमिनाथ ने किया था और जो वर्द्धमान महावीर द्वारा निष्पन्न हुआ । वर्द्धमान महावीर (५९९-५२७ ई० पू० ) - चौबीसवें एवं अन्तिम तीर्थंकर महावीर का जन्म तो बिहार राज्य में हुए था, वहीं उनका कुमारकाल एवं तपस्वी जीवन का बहुभाग भी व्यतीत हुआ, उसी प्रदेश में उन्हें केवल ज्ञान प्राप्त हुआ और वहीं उनका निर्वाण हुआ माना जाना जाता है, किन्तु अपने तपस्याकाल में भी अनेक बार तथा तीर्थंकर के रूप में धर्मोपदेशार्थ उत्तर प्रदेश में प्रायः सर्वत्र उनका विहार हुआ था। उस काल के इस प्रदेश के प्रसिद्ध नगरों वाराणसी, श्रावस्ती, कौशाम्बी, प्रयाग या पुरिमताल, मथुरा और हस्तिनापुर में वह पधारे थे । इस प्रदेश के जिन अन्य स्थानों में भगवान महावीर के विहार करने के संकेत मिलते हैं, उनमें से श्वेतांबिका की पहचान कुछ विद्वान बलरामपुर के निकटस्थ बसेदिला नामक स्थान से करते हैं और कुछ सीतामढ़ी से । इसी प्रकार आलभिका की पहचान उन्नाव जिले के नवलगाँव अथवा इटावा जिले के ऐरवा नामक ग्राम से की जाती है । विसाखा की पहचान
कुछ विद्वान लखनऊ से करते हैं । कयंगला श्रावस्ती के निकट स्थित था और नंगला भी कोसल प्रदेश में ही था तथा हलिग कोलियगण की राजधानी रामनगर के निकट स्थित था । भोगपुर देवरिया जिले में कुशिनगर के निकट रहा प्रतीत होता है और कुछ विद्वानों की तो यह भी धारणा है कि भगवान महावीर का निर्वाणस्थल (पावा) बिहार में न होकर देवरिया जिले का सठियांव डिह - फाजिलनगर है, जिसे इधर कुछ समय से पावानगर नाम दे दिया गया गया है । इनके अतिरिक्त, महावीर के भ्रमण सम्बन्धी अनुश्रुतियों में लिखित उत्तर वाचाला और दक्षिण वाचाला क्रमशः उत्तर पांचाल ( राजधानी अहिच्छता) और दक्षिण पांचाल ( राजधानी कम्पिला ) से तथा कनखल आश्रम से हरिद्वार के निकट स्थित कन्खल से अभिप्राय रहा हो सकता है। अनुश्रुतियों में प्राप्त नामों में अनेक ऐसे भी हैं, जिनकी पहचान नहीं हो पाई है। जिनका उल्लेख नहीं हुआ किन्तु जहाँ महावीर पधारे थे, ऐसे भी स्थान रहे हो सकते हैं ।
भगवान महावीर के समय में वर्तमान उत्तर प्रदेश काशि, कोसल, वत्स, चेदि, कुरु, पांचाल और शूरसेन नामके सात महाजनपदों या राज्यों में विभाजित था, जिनके अतिरिक्त शाक्य, मल्ल, मोरिय, कोलिय, लिच्छवि आदि जातियों के कई गणतन्त्र तथा अन्य कुछ छोटे-छोटे राज्य भी थे । उक्त सभी जनपदों में भगवान ने बिहार करके धर्मोपदेश दिया था । जनसामान्य में से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्रादि प्रायः सभी वर्णों एवं जातियों के अनगिनत स्त्री-पुरुष, अनेक विशिष्टजन, कई राज परिवारों के व्यक्ति तथा स्वयं कई राजे-महाराजे तीर्थंकर महावीर के भक्त हुए । इनमें विशेष उल्लेखनीय हैं वत्स ( कौशाम्बी) नरेश शतानीक और उसकी पट्टराणी मृगावती जो पति की मृत्यु के उपरान्त पुत्र उदयन की स्थिति राज्यसिंहासन पर सुदृढ़ करके साध्वी बन गई थी और महावीर
आर्यिका संघ में सम्मिलित हो गयी थी । उसकी ननद, राजकुमारी जयन्ती बड़ी विदुषी और महावीर की परमभक्त थी । वत्सराज उदयन और रानी वासवदत्ता भी तीर्थंकर के भक्त थे । श्रावस्ती नरेश कोसलाधिपति प्रसेनजित एवं उनकी पट्टराणी मल्लिकादेवी महावीर और बुद्ध का ही नहीं, मक्खलि गोशाल आदि अन्य तत्कालीन श्रमण
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