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नैगमेश प्रतिमाएं-- अजमुखी मानव आकृतियां कुषाण काल में लोकप्रिय थीं। जैन परम्परा में ये नेगमेश का प्रतिनिधित्व करती हैं जो बच्चों के रक्षक देवता हैं और शिशु जन्म से इनका अधिक सम्बन्ध था। इनके साथ कुछ बच्चे भी बनाए जाते हैं । संग्रहालय की मूर्तियाँ ई० १,१५,१११५, ३४.२४८२ और ३४.२५४७ उल्लेखनीय हैं।
संग्रहालय में कुषाणकालीन अनेक जैन प्रतिमाओं के मस्तक भी सुरक्षित हैं।" १-अगरचन्द नाहटा संदर्भ-, ब्रज भारती वर्ष ११ सं० २ २-Dr. J. P. Jain, The Jain a Sources of the History of Ancient India, ch. VI ३–ब्रजभारती वर्ष १२ अंक २ पृ० १८-१९ ४-Tho Jain Stup a and other antipuities of Mathura, 1901, Introduction l.e. I ५–डा. हीरा लाल जैन, भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान, पु० ३४२ ६-विभिन्न विद्वानों के संक्षिप्त विचार के लिए लेखक का निबन्ध 'Early phase of Jain Iconography',
Chhote Lal Commemoration Vol. Cal. p. 59-60 देखें ७-R.C. Sharma, Mathura Museum Introductiनn l.e. 25 ८-कंकाली पर विस्तृत लेख के लिए लेखक की पुस्तिका 'मथुरा का जैन तीर्थ कंकाली' देखें ९-रविषेणाचार्य कृत पद्म पुराण ३।२८८, सन्दर्भ ५ पृ० ३४४ १०-पार्श्वनाथ की धरणेन्द्र नाग द्वारा सेवा समन्तभद्र के स्वयंभूस्तोत्र में इंगित है, सन्दर्भ ५ पृ० ३४४ ११-कुषाण संवत् के बारे में मतैक्य नहीं है। रोजन फील्ड इस मूर्ति को दूसरी कोटि में रखते हैं जिसमें दूसरा
कुषाण संवत् प्रयुक्त है The Dynastic Art of the Kushanas, पृ० २७०-७१ १२-R.C. Sharma, Jain sculptures of the Gupta Age in the State Museum, Lucknow,
Mahavir Jain Vidyalaya Bombay Golden Jubilee Volume Part I P. 146 १३-संग्रहालय में १९४० से पूर्व तक अधिग्रहीत जैन प्रतिमाएं डा. वासुदेव शरण अग्रवाल के J. U. P. H. S.
1950 में प्रकाशित सूची पन में दी हैं।
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