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मैं शाकाहारी क्यों हुआ ?
–महामहिम दलाईलामा
"आप दूसरों को नुकसान न पहुँचाएं, यदि आप नहीं चाहते कि दूसरे प्राणी दुःखों से पीड़ित होते हैं । मनुष्य जितना अपने निकट और प्रियजनों और अपनी सम्पत्ति से सम्बद्ध रहता है, उतना ही अधिक वह स्वयं से भी जुड़ा रहता है । अपने आनन्द और सुख के पूजा-स्थलों की बाह्य खतरों से रक्षा करने, उनका प्रतिकार करने की उसमें स्वाभाविक वृत्ति होती है। ठीक इसी प्रकार का चारित्रिक गुण पशु साम्राज्य में भी विद्यमान रहता है । जबकि छली आधुनिक संसार का बहुत बड़ा भाग गूंगे प्राणियों के संसार की रक्षा को अरुचि का कर्म ही मानता है। उच्च कोटि के प्राणियों को ही नहीं तुच्छ से तुच्छ प्राणियों को भी अनुभूति होती है, इसलिए वे भी दुःखों से छुटकारा चाहते हैं और सुख व आनन्द की खोज करते हैं । इन प्राणियों को जीवित रहने के प्राकृतिक अधिकार से वंचित करना नीतिशास्त्र के मूल्यों का अतिक्रमण करना है । बुद्ध की शिक्षा प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से मनुष्य से लेकर छोटे से छोटे जीवित प्राणी का जीवन लेने का निषेध करती है। “पवितात्मा द्वारा घोषित पहला निषेध" किसी का जीवन न लेने की ही शिक्षा है।
जैसा कि मैंने कहा, शाकाहारी होने का मेरा निर्णय नितान्त वैयक्तिक कारणों से प्रभावित था। इसका संबंध न निश्चित शाकाहारी सिद्धान्त से है और न इसलिए कि विशेष मनुष्य समाज ऐसा करता है, इससे मैंने कोई प्रतिस्पर्धा की है। जीवन सभी को प्रिय है
जिनके कारण मेरे भोजन की आदत में परिवर्तन आया, उन सहायक तथ्यों में आश्चर्यजनक या दर्शनीय कुछ भी नहीं था । घटनाएँ अवश्य महत्वपूर्ण थीं जिनका संयोगवश मुझे दर्शक होना पड़ा। १९६५ के भारत-पाक युद्ध के समय मैंने बसन्त ऋतु का अधिकांश भाग भारत के दक्षिणी राज्यों की यात्रा में बिताया। मोटर से शहरी कस्बई क्षेत्रों की यात्रा के बीच भागते हुए मुर्गों, बिल्लियों और कुत्तों को देखना सामान्य बात थी। इतनी शक्ति भर भागते हुए जैसे कि वे मृत्यु के भय से शंकित हों। इसे कोई नहीं नकारेगा कि मृत्यु एक पीड़ा है।
इन दृश्यों से उत्पन्न भावना एक प्रकार से दया और मानसिक यातना की होती थी। और फिर केरल में अपने पड़ाव के समय संयोग से मुझे किसी के भोजन के शिष्टाचार के लिए मुर्गे की हत्या होते भी देखना पड़ा।
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