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________________ ५० ] उपरोक्त कालगणनाओं में से शक सम्वत् का प्रयोग उसके प्रारम्भ से लगभग १३५ वर्ष पर्यन्त तो मथुरा के कुषाणकालीन शिलालेखों में तथा उसकी चौथी शती के अन्त पर्यन्त पश्चिमी क्षत्रप नरेशों के अभिलेखों में प्राप्त होता है, और प्रायः दूसरी शती से ही दक्षिणापथ, सुदूर दक्षिण तथा सुदूर पूर्व के काम्बुज, चम्पा, सुवर्णद्वीप आदि भारतीय राज्यों में होने लगा था। प्रायद्वीप के जैन गुरुओं और ग्रन्थकारों ने भी इसी सम्वत् का सर्वाधिक उपयोग किया। इस विषय में भी कोई सन्देह नहीं है कि दक्षिण भारत में सामान्यतया और वहां के जैनों द्वारा विशेषरूप से प्रयुक्त यह लोकप्रिय शक सम्वत्, जो बहुधा शक-शालिवाहन भी कहलाता है, सन् ७८ इ. में प्रारम्भ हुआ था। इसी प्रकार उत्तरी भारत में, विशेषकर मालवा, गुजरात, मध्यभारत और राजस्थान में विक्रम संवत अधिक प्रचलित एवं लोकप्रिय हुआ। इन प्रदेशों के निवासी जनों ने भी उसे ही अपनी कालगणनाओं का आधार बनाया, और उन्होंने इस विषय में कभी कोई सम्देह नहीं किया कि इस संवत् का प्रवर्तन ईसापूर्व ५७ में हुआ था। तत्सम्बन्धी अनुथति को भी उन्होंने अभ्रान्त रूप में सुरक्षित रखा। जैन लेखकों ने जब कभी या जहां कहीं भी भगवान महावीर के समय की सूचना दी तो सीधे महावीर निर्वाण सम्वत् में दी, अथवा शक या विक्रम सम्वत् के आधार से दी । विभिन्न देशों (तिब्बत, सिंहल, बर्मा, चीन आदि) के बौद्धों में तो भगवान बुद्ध के सम्बन्ध में परस्पर स्पष्ट मतभेद रहे, किन्तु तीर्थंकर महावीर के समय के सम्बन्ध में स्वयं जैनों में कोई मतभेद नहीं हुआ। वे भारतवर्ष में ही सीमित रहे यद्यपि देश के कोने-कोने में फैल गये और संघभेदों, सम्प्रदाय भेदों आदि के होते रहते भी तथा प्रदेश विशेषों में सम्प्रदाय विशेषों को बहलता या प्रधानता रहते हुए भी, उनमें पारस्परिक सम्पर्क बराबर बने रहे, स्थान की दूरी या सम्प्रदायभेद उसमें बाधक नहीं हुए। इसके अतिरिक्त, जैनों ने जिन दो अत्यन्त महत्त्वपूर्ण एवं मौलिक अनुश्रुतियों को उल्लेखनीय लगन एवं मतैक्य के साथ सुरक्षित रक्खा है, वे श्रुतावतार (आगमों की संकलना एवं पुस्तकीकरण ) तथा 'कल्कि' से सम्बन्धित हैं। इनमें से प्रथम अनुश्रुति महावीर निर्वाण के उपरान्त ६८३ वर्ष पर्यन्त की अविच्छिन्न आचार्य परम्परा प्रदान करती है, और साथ ही यह भी सूचित करती है कि भगवान की द्वादशाङ्गवाणी-रूपी मूल आगमज्ञान (श्रुतागम) मौखिक द्वार से गुरु परम्परा में किस प्रकार इस अवधि पर्यन्त सुरक्षित रहा आया यद्यपि उसमें शनैः शनैः क्रमश: हास भी होता रहा था, और अन्ततः किस प्रकार तत्कालीन आचार्य तदावशिष्ट आगमज्ञान का पुस्तकीकरण करने के लिये सहमत हए। दूसरी अनुश्रुति कल्कि से सम्बन्धित है जो महावीर निर्वाण के प्रथम सहस्त्राब्द के अन्त के लगभग हुआ ।31 इसी प्रसंग में उत्तर भारत, विशेषकर उज्जयिनी में क्रमश: शासन करने वाले राज्यवंशों की 31-एवं वस्स सहस्से पुह चक्की हवेइ इक्केको -तिलोयपण्णत्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
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