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________________ ख-३ [ ४९ दसवीं शती के उपरान्त तो ऐसे दृष्टान्त बहुलता से प्राप्त होते हैं, किन्तु उसके पूर्व भी गुर्जर प्रतिहार नरेश भोजदेव के देवगढ़ स्थिति ८६२ ई० के जनस्तम्भ-लेख में उक्त मानस्तम्भ की प्रतिष्ठा का समय विक्रम संवत ९१९ और शकसंवत ७८४ साथ-साथ दिया है, जो इस प्रकार का सम्भवतया सर्वप्रथम शिलालेखीय उदाहरण है ।28 आठवीं शती ई० में, स्वामी वीरसेन ने अपनी धवला टीका विक्रमसंवत् ८३८ (सन् ७८० ई० ) में समाप्त की थी और उनका उल्लेख जिनसेनसूरि पुन्नाट ने अपने हरिवंश पुराण में किया है, जिसकी समाप्ति का काल स्वयं उन्होंने शकसवत् ७०५ (सन् ७८३ ई० ) दिया है। इन दोनों ग्रन्थकारों ने कई तत्कालीन नरेशों का भी नामोल्लेख किया है, जिनके समय प्राय: सुनिश्चित हो गये हैं और उपरोक्त तिथियों से समीकृत हैं 129 सातवीं शती में कन्नौज के सम्राट हर्षवर्धन (६०६-६४७), चीनी यात्री युवान-च्वांग (६२९-६४४ई०), दक्षिणापथ के चालुक्य सम्राट पुलकेशिन द्वितीय (६०८-६४२ ई. ) और फारस (ईरान) के शाह खुसरो द्वितीय (६२५६२६ ई.) की समसामयिकता इतिहास-सिद्ध है। युवान-च्वांग हर्ष और पुलकेशिन, दोनों सम्राटों के सम्पर्क में आया था, पुलकेशिन और शाह खुसरोने राजदूतों का आदान-प्रदान किया था, हर्ष और पुलकेशिन प्रबल प्रतिद्वन्द्वी थे-उनके मध्य युद्ध भी हुए थे, और जैन विद्वान रविकीर्ति ने शक ५५६ (सन् ६३४ ई०) में पुलकेशिन की प्रसिद्ध ऐहोल प्रशस्ति रची थी। जैनाचार्य जिन-भद्रगणि क्षमाश्रमण ने अपना विबेषावश्यक भाष्य शक ५३१ (६०९ई०) में, जिनदास महत्तर ने अपनी चूणियां शक ५९८ (सन् ६७६ ई०) में और रविषेण ने अपना पद्मचरित महावीर निर्वाण संवत् १२०३ (सन् ६७६ई०) में पूर्ण किये थे । अकलङ्कदेव ने बौद्ध विद्वानों पर वि० सं० ७०० (सन् ६४३ ई० ) 30 में वाद-विजय की बताई जाती है। ये समस्त विद्वान प्रायः समसामयिक थे और प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से परस्पर सम्बद्ध भी रहे प्रतीत होते हैं । संयोग से इस बहुविध समीकरण की पुष्टि चीनी, ईरानी, उत्तर भारतीय, दक्षिण भारतीय, बौद्ध, ब्राह्मण, दिगम्बर, श्वेताम्बर, शिलालेखीय एवं साहित्यिक जैसे विभिन्न स्रोतों से हो जाती है। साथ ही, उस काल में महावीर, विक्रम और शक, तीनों ही संवतों का प्रयोग भी हुआ मिलता है और यह सुनिश्चित रूप से प्रमाणित हो जाता है कि ७वीं शती ई. के मध्य के लगभग भी इन तीनों के पारस्परिक सम्बन्धों एवं प्रवर्तनकालों (क्रमशः ईसापूर्व ५२७, ई० पू० ५७ और ईस्वी ७८) के विषय में वही मान्यता थी जो आज भी है। उसके पूर्व की शताब्दियों से सम्बन्धित भी कतिपय ऐसे दृष्टान्त प्राप्त हो जाते हैं, किन्तु न उनका रूप ही उतना सुनिश्चित है और न उनके आधार ही उतने ठोस हैं । साथ ही यह बात भी है कि उपरोक्त निष्कर्षों को सुनिश्चित रूप से असिद्ध करने वाला भी कोई दष्टान्त अभी तक उपलब्ध नहीं हुआ है। 28-एपी० इण्डि०, भा० ४, न० ४४, पृ० ३०९-३१.. 29-देखिए ज्यो. प्र. जैन-जैना सोसेज आफ दी हिस्टरी ऑफ एन्शंट इण्डिया, (दिल्ली १९६४) अध्याय, १० 30-मतान्तर से वि० सं० ७७७ % सन ७२० ई० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
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