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________________ [ ३७ आर्या चन्दना के संघ में सम्मिलित होकर शेष जीवन आत्मसाधनार्थं तपस्या में व्यतीत किया। उसी के साथ चंडप्रद्योत की रानी अंगारवती भी आर्यिका बन गई। भगवान महावीर के निर्वाणोपरान्त भी चिरकाल पर्यन्त कौशाम्बी जैन संस्कृति का महत्वपूर्ण केन्द्र बनी रही, और यहाँ अनेक जैन मुनियों का उन्मुक्त विहार होता रहा। तीसरी शती ई० पूर्व में आर्य महागिरि और सम्प्रति मौर्य प्रबोधक आर्य सुहस्ति का यहां आगमन हुआ था। उत्तर बलिस्सह गण के जैन साधुओं की एक शाखा भी कोसंबिया कहलाई थी। कौशाम्बी के खंडहरों में अनेक जैन अवशेष प्राप्त हुए हैं, जिनमें ईस्वी सन् के प्रारम्भ का लाल बलुए पत्थर का, मथुरा की ही शैली में निर्मित, एक जैन आयागपत्र, २री शती ई० में राजा भद्रमघ के शासनकाल में कौशाम्बी के पत्तनकार (नगर-नियोजक) शपर तथा मांगनी द्वारा निर्मापित मन्दिर तोरण (१६४ ई.) और उन्हीं के द्वारा एक पुष्करिणी के तट पर आचार्य आर्यदेव के लिए निर्मापित दो प्रस्तरमयी आसनपट (१६५ ई०) विशेष उल्लेखनीय हैं। कुषाण एवं गुप्तकालों की अनेक खंडित जिनप्रतिमाएँ भी मिली हैं। ध्वंसावशेषों में देवड़ा टीले पर नये मंदिर से लगभग ५० गज की दूरी पर ११वीं शती ई० की अनेक जैन मूर्तियां प्राप्त हुई हैं, जो उस काल में वहाँ एक विशाल मन्दिर के विद्यमान रहने की सूचक हैं । जिनप्रभसूरि (१४वीं शती) ने भी कौशाम्बी की यात्रा की थी और कौशाम्बी के निकटवर्ती बसुहार गाँव में एक प्रसिद्ध जैन मंदिर के होने का उल्लेख किया था। चीनी यात्री युवानच्चांग ने (७वीं शती में) कौशाम्बी के जिन ५० देवमंदिरों का उल्लेख किया है, उनमें से न जाने कितने जैन मंदिर रहे होंगे। १८३४ ई० में कौशाम्बी के देवड़ा टीले पर प्राचीन मन्दिर की स्मृति को पुनरुज्जीवित करने के लिए एक नवीन मन्दिर का निर्माण इलाहाबाद आदि के जैनों ने कराया था। अभी हाल में कौशाम्बी में एक श्वेताम्बर मंदिर और धर्मशाला का निर्माण प्रारम्भ हुआ है। पभोसा तीर्थ भी कौशाम्बी के निकट ही है (आगे देखें)। वाराणसी गंगमांहि आइ धसी दै नदी बरूना असी, बीच बसी बनारसी नगरी बखानी है। कसिवार देस मध्य गांउ तात कासी नांउ, श्री सुपास-पास की जनमभूमि मानी है। तहां दुहूं जिन सिवमारग प्रकट कीनों, तब सेती शिवपुरी जगत में जानी है। -कविवर बनारसीदास वाराणसी, काशी, शिवपुरी, विश्वनाथपुरी आदि नामों से प्रसिद्ध, पुण्यतोया भागीरथी के तट पर. वरुणा एवं असी नामक सरिताद्वय के मध्य स्थित महानगरी भारतवर्ष की सर्वप्राचीन एवं सर्वाधिक महत्वपर्ण नगरियों में ही नहीं है, वरन् चिरकाल से धर्म, संस्कृति एवं विद्या का सर्वोपरि केन्द्र रहती आई है। वस्तुतः काशि देश या जनपद का नाम था और उसकी राजधानी यह वाराणसी (अपभ्रष्ट-बनारस) थी। भगवान आदिनाथ ऋषभदेव के समय में ही इस नगर की स्थापना हो चुकी थी। उस समय काशि राज्य के अधिपति अकंपन थे. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
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