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________________ ३८ ] जिनकी सुन्दरी पुत्री सुलोचना के लिये भरत चक्रवर्ती के पुत्र अर्ककीति और सेनापति मेघेश्वर जयकुमार के बीच संघर्ष हुआ। द्वन्द्व के समाधान के लिए सुलोचना का स्वयंवर रचा गया और उसमें उसने चक्रवर्ती पुत्र की उपेक्षा करके वीर जयकुमार का वरण किया। सुलोचना की गणना जैन परम्परा की सोलह आदर्श सतियों में की जाती है। इसी नगर में, कलान्तर में, ७वें तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ के गर्भ-जन्म-तप-ज्ञान, चार कल्याणक हुए। उनके जन्म स्थान की पहचान वाराणसी के भदैनी क्षेत्र से की जाती है, जहाँ गंगातट पर उनके नाम का जिनालय बना है। उससे लगा हुआ ही स्याद्वाद महाविद्यालय का भवन एवं छात्रावास है। भगवान सुपार्श्वनाथ इक्ष्वाकुवंश में उत्पन्न काशि नरेश सुप्रतिष्ठ तथा महारानी पृथिवीषेणा के सुपुत्र थे। उन्होंने वाराणसी में चिरकाल राज्यभोग करके संसार का त्याग किया, निकटवर्ती वन में तपस्या की और वहीं केवलज्ञान प्राप्त किया तथा अपने धर्मतीर्थ का प्रवर्तन किया था। २३वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ (ईसापूर्व ८७७-७७७) का जन्म भी काशिदेश की इसी मुकुटमणि वाराणसी नगरी में उरगवंशी, काश्यपगोत्री महाराज अश्वसेन (मतान्तर से विश्वसेन) की महारानी वामादेवी की कुक्षि से हुआ था। राजकुमार पाव प्रारंभ से ही अत्वन्त शूरवीर, रणकुशल, मेधावी, चिन्तनशील एवं दयालु मनोवृत्ति के थे। कुमारावस्था में ही उन्होंने संसार का परित्याग करके दुर्द्धर तपश्चरण किया था, और केवलज्ञान प्राप्त करके अपना धर्मचक्र प्रवर्तन किया था । वाराणसी के भेलपुर क्षेत्र से उनके जन्मस्थान की पहचान की जाती है, जहाँ एक विशाल जिनमंदिर उनकी स्मति में विद्यमान है। उनके जन्म के कुछ काल पूर्व जैन परम्परा का १२वां चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त भी काशी में हुआ था। जैन साहित्य में महावीर युग में काशि और कोसल के १८ गणराजाओं का उल्लेख आता है, जो सब महावीर के भक्त थे और उनका निर्वाणोत्सव मनाने के लिए पावा में एकत्रित हुए थे। काशि के राजा जितशत्रु ने भगवान महावीर का अपने नगर में भारी स्वागत किया, इसी नगर के एक अन्य राजा शंख ने तो उनसे जिनदीक्षा ली थी। वाराणसी की राजकुमारी मुण्डिका महावीर की परम भक्त थी। वाराणसी में ही चौबीस कोटि मुद्राओं के धनी सेठ चलिनीपिता, उसकी भार्या श्यामा, सेठ सुरादेव और उसकी पत्नी धन्या, आदि भगवान महावीर के आदर्श उपासक-उपासिका थे । अनेक जैन पुराणकथाओं के साथ काशि देश और वाराणसी नगरी जुड़े हैं। २री शती ई० में दक्षिण के महान जैनाचार्य समन्तभद्र स्वामी ने वाराणसी में आकर वादभेरी बजाई थी और ५वीं शती में पंचस्तूपनिकाय के काशिवासी आचार्य गुहनन्दि दूर-दूर तक प्रसिद्ध थे-सुदूर बंगाल में भी उनके शिष्य-प्रशिष्य फैले थे। सुपार्श्व एवं पाव की इस पवित्र जन्मभूमि की यात्रा करने के लिए देश के कोने-कोने से जैनीजन बराबर आते रहे हैं । विद्या का महान केन्द्र होने के कारण अनेक जैन विद्वानों ने दुर-दूर से आकर वाराणसी में शिक्षा प्राप्त की। मध्यकाल में जिनप्रभसूरि, पं० बनारसीदास, यशोविजयजी आदि यहाँ पधारे और वर्तमान शताब्दी के प्रारंभ में पं० गणेश प्रसाद वर्णी, बाबा भागीरथ वर्णी आदि जैन सन्तों ने यहीं स्याद्वाद महाविद्यालय की स्थापना की। आचार्य यशोविजय पाठशाला भी चलती थी, और अब पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वर्णी शोध संस्थान, वर्णी ग्रन्थ माला आदि अनेक जैन सांस्कृतिक प्रवृत्तियों का यह महानगरी केन्द्र है। अनेक जैन मंदिर धर्मशालाएँ आदि यहाँ हैं और दर्जनों जैन विद्वान भी निवास करते हैं । राजघाट आदि से खुदाई में प्राचीन जैन मूत्तियां भी मिली हैं। गद्धोदकेन च जिनम जन्मना च प्राकाशि काशिमगरी न गरीयसी कैः ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
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