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________________ जाया जा सकता है। प्राचीन नगरी के भग्नावशेष मीलों के विस्तार में फैले हुए हैं। सन् १९६१ में सुप्रसिद्ध पुरातात्त्विक सर्वेक्षक जनरल कनिंघम को बाबू शिवप्रसाद से यह सूचना प्राप्त हुई थी कि 'इलाहाबाद से ३० मील पर स्थित कोसम नाम का गांव अभी तक कौशाम्बी-नगर के नाम से प्रसिद्ध है, यह अब तक भी जैनों का महान तीर्थ है और एक सौ वर्ष पहले तक यह एक बड़ा समृद्ध नगर था।' इसी सूचना से बल प्राप्त करके कनिंघम ने अन्ततः १८७१ ई० में कोसम के साथ कौशाम्बी का सुनिश्चित समीकरण घोषित कर दिया था। प्राचीन वत्सदेश या वत्स महाजनपद की राजधानी इस कौशाम्बी नगर का सर्वप्राचीन जैन प्रसंग छठे तीर्थकर पद्मप्रभु के साथ है। वह कौशाम्बी के इक्ष्वाकुवंशी, काश्यपगोत्री राजा धरण और उनकी रानी सुसीमा के पुत्र थे। इसी नगरी में उनके गर्भ और जन्म कल्याणक हुए, जिससे वह पवित्र महातीर्थ बनी (सा कोसम्बी नगरी जिणजन्म पवित्तिउ महातित्थं) । भगवान नमिनाथ (२१ वें तीर्थंकर) के तीर्थ में इसी नगरी के इक्ष्वाकुवंशी राजा विजय और रानी प्रभाकरी का पुत्र, ११ वां चक्रवर्ती जयसेन हुआ था। तीर्थंकर पार्श्वनाथ भी कौशाम्बी में धर्मदेशनार्थ पधारे थे। अन्तिम तीर्थंकर वर्धमान महावीर का तो कौशाम्बी के साथ घनिष्ट सम्बन्ध रहा । उसकाल में कुरुवंश की एक शाखा में उत्पन्न सहस्रानीक का पुत्र शतानीक कौशाम्बी नरेश था। उसकी पटरान की मृगावती नैशाली के अधिपति चेटक की पुत्री और भगवान महावीर की मौसी तथा उनकी परम भक्त थी। राजा शतानीक भी महावीर का बड़ा आदर करता था । इन्हीं दोनों का पुत्र ही वह सुप्रसिद्ध वत्सराज उदयन था जो गजविद्याविशारद, अपनी हस्तिकान्त वीणा पर प्रियकान्त स्वरों का अप्रतिम साधक, प्रद्योतपुत्री वासवदत्ता का रोमांचक प्रेमी और अनेक लोककथाओं का नायक रहा। उदयन भी महावीर का समादर करता था और उसकी प्रिया वासवदत्ता उनकी उपासिका थी। उदयन के जन्म के कुछ पूर्ण की घटना है कि भगवान महावीर अपने द्वादशवर्षीय तपकाल के अन्तिम वर्ष में, चार मास के उपवास के उपरान्त पारणा करने के लिए कौशाम्बी पधारे । उन्होंने एक बड़ा अटपटा अभिग्रह (वज्र संकल्प) किया था, जिसके कारण ५ मास २४ दिन तक वह नित्य नगर में आहार के लिए आते रहे, किन्तु क्योंकि ली हुई आखड़ी पूरी नहीं होती थी, नित्य निराहार ही वापस लौट जाते थे। अन्ततः अज्ञात कुलशील, क्रीतदासी चन्दना के हाथों से, जो उस समय कई दिन की भूखी-प्यासी, मलिन तन, जीर्ण-शीर्ण वस्त्र, हथकड़ी-बेड़ियों में बंधी, अपने स्वामी के घर की देहली पर, हाथ में सूप में अधपके उड़द के बाकले लिए, विषाद एवं दीनता की साक्षात् मूर्ति बनी खड़ी थी, भगवान का अभिग्रह पूरा हुआ । उन्होंने वही आहार ग्रहण करके अपने सुदीर्घ उपवास का पारणा किया। पंचाश्चर्य की वृष्टि हुई, राजा-प्रजा समस्त जन उमड़ पड़े, चतुदिक जयजयकार गंज उठा। चन्दना-उद्धार की इस अभतपूर्ण घटना द्वारा तीर्थंकर महावीर ने कुत्सित दास प्रथा का उन्मूलन एग एक महान सामाजिक क्रान्ति का सूत्रपात इस कौशाम्बी नगरी में ही किया था। कालान्तर में यह महाभाग चन्दनबाला ही महावीर के आर्यिका संघ की अध्यक्षा के पद पर प्रतिष्ठित हुई। महावीर के एक गणधर, मेतार्य, का जन्म भी कौशाम्बी के तुंगिय संनिवेश में हुआ था। कौशाम्बी नरेश शतानीक की मृत्यु के उपरान्त जब अवन्ति नरेश चंड प्रद्योत ने वत्स देश पर आक्रमण किया तो, भगवान महाबीर नगर के बाहर समवसरण में विराजमान थे। उनके प्रभाव से दोनों राज्यों में सद्भाव स्थापित हुआ। उक्त संकटकाल में राजमाता मृगावती ने बड़े धैर्य, बुद्धिमत्ता एवं वीरता के साथ अपने राज्य, पूत्र एवं सतीत्व की रक्षा की थी-प्रद्योत की उस पर लोलुप दृष्टि थी। अपने पुत्र उदयन के जीवन, स्थिति और राज्य को निष्कंटक करके तथा कुशल मन्त्री युगन्धर के हाथों में सौंप कर सती मृगावती ने जिनदीक्षा ले ली और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
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