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कुसग्गे जह ओस बिन्दुए थौवं चिट्ठइ लम्बमाणए । ___ एवं मणुयाण जीवियं, समयं गोयम ! मा पमायए ॥ मानव जीवन कुशा की नोक पर स्थित ओस की बूंद की तरह क्षणस्थायी है, अतएव हे गौतम ! क्षणमात्र भी प्रमाद मत कर ।
असंक्खयं जीविय, मा पमायए
यह जीवन असंस्कृत है, अत: प्रमाद मत कर । सव्वतो पमत्तस्स भयं, सव्वतो अपमत्तस्स नत्थि भयं प्रमत्त (प्रमादी) व्यक्ति को सर्वत्र भय है, अप्रमादी को कहीं भी कोई भय नहीं होता।
उठ्ठिए, णो पमायए
___ उठो ! प्रमाद मत करो। धम्मेण होदि पुज्जो, धम्मत्थस्स वि णमंति देवावि धर्माचरण करने से ही व्यक्ति पूज्य होता है, धर्मात्मा व्यक्ति को देव भी नमस्कार करते हैं।
एओचेव सुभो णवरि सव्वसोक्खायरो धम्मो एक धर्म ही शुभ है, पवित्र है, और वही सब सुखों का देने वाला है।
तूरह धम्म काउं (अतएव) शीघ्र ही धर्म करो, धर्म को अपनाओ-धर्माचरण करो। तथिमं पढमं ठाणंमहावीरेण देसियं ।
अहिंसा निउणं दिट्ठा सव्वभूएसु संजमो । तीर्थंकर महावीर ने अहिंसा को समस्त धर्मस्थानों में प्रथम स्थान देकर उसका उपदेश दिया। सब जीवों के प्रति संयम रखना अहिंसा है।
धम्ममहिंसा समं नत्थि अहिंसा के समान अन्य धर्म नहीं है । असुभो जो परिणामो सा हिंसा
अशुभ परिणाम ही हिंसा है। रागादीणमणुप्पा अहिंसकत्तं त्ति देसियं समए ।
तेसिं च उप्पत्ती हिंसेत्ति जिहि णिदिदहा ॥ रागद्वेष आदि का उत्पन्न न होना अहिंसा बताया है, रागादिक की उत्पत्ति होना हिंसा है, ऐसा जिनदेवों ने निर्देश किया है।
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