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________________ *IVENDAV ___णत्थिदु अहिंसगो णाम होदि वायादिवधहेतु हिंसा से विरत न होना, अथवा मैं प्राणिघात करूंगा, ऐसे विचार रखना हिंसा है । मरदु व जियदु व जीवो अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा कोई जीव परे या जीवे, यह हिंसा या अहिंसा नहीं, जो यत्नाचारपूर्वक नहीं बर्तता उसके निश्चय हिंसा है-अयत्नाचार का नाम ही हिंसा है। पादोसिय अधिकरणिय कायिय परिदावणादिवादाए । एदे पंचपओगा किरियाओं होंति हिंसाओ । द्वेष करना, हिंसा के उपकरणों को ग्रहण करना, दुष्टभाव से शरीर की चेष्टाएँ करना, अन्य को दुःख पहुँचाने वाली क्रिया करना, और किसी के प्राणों का घात करना, इन पांच प्रकार के प्रयोगों को हिंसा की क्रिया कहते हैं। हिंसाविरइ अहिंसा हिंसा से विरत होना अहिंसा है। जह ते ण पियं दुक्खं तहेव तेंसिपि जाण जीवाणं जिस प्रकार तुम्हें दु:ख प्रिय नहीं है, वैसे ही अन्य जीवों के बारे में जानो । जहमम न पियं दुक्खं, जाणिय एमेव सव्वजीवाणं । न हणइ न हणावेइ अ, समणइ तेण सो समणो॥ जसे मुझे दुःख अच्छा नहीं लगता, वैसे ही कोई भी अन्य प्राणी दु:ख नहीं चाहता, यह जानकर जो किसी की भी हत्या न करता है, और न कराता है, ऐसा समदष्टि व्यक्ति ही श्रमण है। हत्थिस्स य कंथुस्स य समेजीवे हाथी और चींटी समानरूप से जीव हैं। आय तुले पयासु सभी प्राणियों को अपने समान समझो। सव्वेसि जीवियं पियं सभी को अपना जीवन प्रिय है । सव्वे जीवावि इच्छंति जीविउ, न मरिज्जिउं । तम्हा पाणिवहं घोरं, निग्गंथा वज्जयंति णं ॥ सभी जीव जीवित रहने की इच्छा रखते हैं, मरना कोई नहीं चाहता, इसीलिए निर्ग्रन्थ गुरुओं ने प्राणिवध को घोर पाप कहा और उसका निषेध किया। FARMER Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
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