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ख-४
[ १९ अर्थ एवं काम पुरुषार्थों के साथ धर्म पुरषार्थ का समन्वय बनाये रक्खें, अर्थ साधन भी धर्म एवं न्यायपूर्वक करे और भोगोपभोग में भी धर्म विरुद्ध आचरण न करे । उसके आचार में अंहिंसापूर्ण सहअस्तित्व की और विचार में अनैकान्तिक सहिष्णता की प्रतिष्ठा होती है।
एक जैन गृहस्थ देव (अर्हन्त और सिद्ध), शास्त्र (अर्हन्त तीर्थंकरों के उपदेश) और गुरु (आचार्य, उपाध्याय, सामान्य साधु) का श्रद्धानी, उपासक,आराधक और पूजक होता है । वही उसके आदर्श हैं, जिनके समान हो जाने की वह वांछा करता है। ये अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय एवं साधु ही उसके पंच परम गुरु-पंच परमेष्टि हैं, उनके नमस्कार रूप पंचनमस्कार मंत्र उसका महामंत्र है जिसका जाप और पाठ वह करता हैं। वह इन अर्हन्त, सिद्ध, साधु और धर्म को ही मंगल-रूप, लोकोत्तम एवं अपने लिए एक मात्र शरण समझता है। अर्हन्तों में ऋषभादि महावीर पर्यन्त चतुर्विंशति तीर्थंकर देवों की वह विशेषरूप से पूजा उपासना भक्ति करता है।
___ जैन गृहस्थ के अष्टमूलगुण बताये गये है, जिनमें सर्व प्रकार के सामिष पदार्थो (मांसाहार) का त्याग, मद्यादि मादक पेयों एवं अन्य मादक द्रव्यों के सेवन का त्याग, अन्य अनेक तामसिक आदि अभक्ष्यों के भक्षण का त्याग, आखेट, शिकार, पशुओं की लड़ाई आदि हिंसक मनोरंजनों एवं व्यसनों का त्याग, व्यभिचार (पर स्त्री या परपुरुष, वेश्यादि सेवन ) का त्याग, चोरी, अपहरण आदि का त्याग, सर्वप्रकार के द्यूतसेवा (जुए) का त्याग, रात्रि भोजन (सूर्यास्त के पश्चात् भोजन करने) का त्याग और अनछने पानी आदि पेय पदार्थो को पीने का त्याग सम्मिलित हैं। यह ध्यातव्य है कि एक गृहस्थ को जैन बनने का ॐनमः त्याग के साथ करना पड़ता है और प्रत्यक्ष ही है कि उक्त त्याग का लक्ष्य उसके आचरण का परिमार्जन, परिष्कार एवं संस्कार करना है, जो शनैः शनैः ही होता है ।
इनके अतिरिक्त आगम सूत्रों में भगवान महावीर द्वारा श्रावक के प्राथमिक गुणों का जो संकेत किया गया है उसके अनुसार उसे अप्पेच्छा (अल्प इच्छा वाला), अप्परिग्गहा (अल्प परिग्रह वाला), अप्पारंभा (अल्प आरम्भ वाला) कहा गया है तथा उसके लिए धार्मिक (धम्मिए), धर्मानुग या धर्म का अनुसरण करने वाला (धम्माणुए), धर्मिष्ठ (धम्मिट्ठ), धर्म की ख्याति-आख्यान करने वाला (धम्मक्ख हि), धर्म का प्रलोकन-प्रकाश करने वाला (धम्मप्पलोई), धर्मानुरंजित-धर्म के रंग में रंगा हुआ (धम्मपलज्जणो), धर्मशील-सदाचार का आचरण करने वाला (धम्मसीलसमुदायारे) तथा धर्मपूर्वक अजीविका उर्पाजन करने वाला (धम्मेण चेव वित्ति करप्पेमाणे) विशेषणों का प्रयोग किया है। उसकी यह अभिलाषा रहती है कि एक न एक दिन वह परिग्रह का त्याग कर पावे, अगार छोड़ अनगार बन पाये और अन्त में सल्लेखनापूर्वक मरण कर पावे।
पं० अशाधरजी ने सागारधर्मामृत (अध्याय १)में कहा है कि जो व्यक्ति सागार-धर्म अर्थात श्रावकाचार का विधिवत पालन करने के उन्मुख हो उसमें निम्नोक्त १७ गुण होने चाहिएं-(१) न्यायपूर्वक द्रव्य उपार्जन करना (२) गुणीजनों का सम्मान करना (३) सत्यभाषी (४) धर्म-अर्थ-कामरूप त्रिवर्ग का निविरोध सेवन (५) योग्य
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