SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 193
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५ ] कदाचित इच्छुक होते हैं और संसर्ग प्राप्त होने पर उनके हितकारी वचनों को विनय पूर्वक सुनते हैं (श्रणोति हित वाक्यानि यः स श्रावकः ) तथा उक्त उपदेशों पर यथाशक्य, अल्पाधिक आचरण करने का प्रयास करते हैं वे समस्त पुरुष श्रावक और स्त्रियां श्राविकाएं कहलाती हैं। अपने आचार-विचार से ये श्रावक श्राविकाएं जैन दृष्टि में गृहस्थ जीवन का जो आदर्श है उसे प्रस्तुत करते हैं, अथवा उसे प्रस्तुत करने की उनसे अपेक्षा की जाती है । मोक्षपाहुड़ में श्रमणों (साधु-साध्वियों ) के धर्म का प्रतिपादन करने के पश्चात् आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं, 'सावयाणं पुण सुणसु' (अब श्रावकों के धर्म के विषय में सुनो) : हिंसा रहिये धम्मे अट्ठारहदोस वज्जिय देवे ॥ णिग्गंथे पव्वयणे, सदहणं होई सम्मतं ॥ अर्थात् हिंसा रहित (अहिंसा) धर्म में, अष्टादश दोष विवजित देव (अर्हन्त भगवान) में, निर्ग्रन्थ ( निष्परिग्रही ) गुरुओं में ओर प्रवचन ( आप्त वचनों) में जो श्रद्धान करता है वह सम्यक्त्वी अर्थात् श्रावक (जैन) होता है । भगवान की वाणी है कि ख-४ एहु धम्मु जो आचरह- वंगणु सुदद्धि कोई । सो साहु, fक सावयहि अण्ण कि सिरमणि होई ॥ ऐसे (अहिंसा रूपी जिन ) धर्म का जो कोई भी आचरण करता है, चाहे वह ब्राह्मण हो अथवा शूद्र, वही श्रावक (जैनी) होता है, वर्ना क्या श्रावक के सिर पर कोई मणि लगी होती है । Jain Education International समस्त जीवात्माओं के समत्व पर आधारित यह अहिंसा, संयम एवं सदाचरण प्रधान धर्म, वर्ण, जाति कुल, वर्ग, लिंग आदि किसी प्रकार के भी ऊंच-नीच या भेदभाव को प्राश्रय नहीं देता । उसकी दृष्टि में 'णवि देहो चंदिज्जई, णविय कुलो णविय जाईसंजुत्तो' शरीर, कुल जाति आदि बाह्यरूप बंदनीय नहीं हैं, वह गुणपूजक है और आत्मोन्नयन उसका लक्ष्य है । "जीओ और जीने दो' में तथा दूसरों के साथ वैसा व्यवहार करो जैसा कि तुम चाहते हो वे तुम्हारे साथ करें, के सिद्धान्त में उसका विश्वास होता है । अपने नामाक्षरो में निहित अर्थ - श्रद्धा, विवेक एवं कर्म (सत्कर्म) का अपने जीवन में सामन्जस्य स्थापित करने में प्रयत्नशील श्रावक-श्राविका पूर्णतया गृहाश्रमी - गृहस्थ होते हैं, संसार में रहते हैं, संसारी हैं, अपने कौटुम्बिक, पारिवारिक, सामाजिक राष्ट्रीय जीवन को सोत्साह जीते हैं। जिस किसी भी शासन तन्त्र के अधीन रहते हैं उसके नागरिकों से अपेक्षित कर्तव्यों का पालन करते हैं और अधिकारों का उपभोग करते हैं । अर्थ का उत्पादन एवं अर्जन करने में अपनी शक्ति एवं क्षमताओं का यथासंभव उपयोग करते हैं और अपनी इच्छाओं की पूर्ति एवं भोगोपभोग में उसका व्यय करते हैं । किन्तु जैन गृहस्थ से यह अपेक्षा भी की जाती है कि वह उपरोक्त For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy