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________________ गृहस्थ जीवन का जैन आदर्श -डा० ज्योति प्रसाद जैन राग, द्वेष, काम, क्रोधादि समस्त आत्मिक विकारों के पूर्णविजेता (जयतीति जिन:) जिन भगवान जिनके इष्टदेव हैं (जिनो देवता अस्य सः जनः) ऐसे जैन वर्तमान में अन्तिम तीर्थङ्कर जिनेन्द्र महावीर (५९९-५२७ ईसा पूर्व) द्वारा पुनरुद्धारित, संशोधित एवं व्यवस्थित धर्मशासन के अनुयायी हैं । ऋषम, आहेत, व्रात्य, श्रमण, निर्ग्रन्य, अनेकान्त, स्याद्वाद, भव्य, श्रावक (सरावग, सरावगी), जैन आदि विभिन्न नामों से अभिहित यह धार्मिक परम्परा निवृत्ति, अहिंसा, समता एवं सदाचार प्रधान है । आत्मानुशासन पूर्वक धर्म-अर्थकाम रूपी त्रिवर्ग का साधन करते हुए अभ्युदय एवं निःश्रेयस का सामंजस्यपूर्ण सम्पादन इस परम्परा में गृहस्थ जीवन का आर्दश है। अपने धर्मतीर्थ का प्रवर्तन करते समय भगवान महावीर ने साधकों को चतुर्विध संघ में सुव्यवस्थित किया था। मुनि-आर्यिका,-श्रावक-श्राविका उक्त संघ के चार अंग थे। प्रथम दो गृह अथवा संसार त्यागी वे साधु-साध्वियां थे जिन्होंने संसार-देह-भोगों से विरक्त होकर एकान्त आत्मसाधन का व्रत लिया । किन्तु ऐसी महान आत्माएं अत्यन्त विरल होती हैं; उनका लक्ष्य स्वपर कल्याण होता है । आत्मसाधन से जितना भी समय बचता है, वह वे शेष समस्त संसारग्रस्त जनता के पथ प्रदर्शन एवं हित-उपदेश में व्यय करते हैं। अधिकांश जनसंख्या गृहस्थ स्त्री-पुरुषों की होती है जो आहार-भय-मैथुन-परिग्रह नामक संज्ञाओं से प्रेरित होकर भोगेष्णा-पुत्रेष्णा-वित्तेष्णा • लोकेष्णा आदि विविध इच्छाओं की सम्पूर्ति में संलग्न रहते हैं । अर्थ (उत्पादन अर्जन) और काम (भोगोपभोग) पुरुषार्थों में वे इतने व्यस्त रहते हैं कि अन्य किसी ओर ध्यान देने का उन्हें प्रायः अवकाश ही नहीं होता । तथापि, उनमें से जो स्त्री पुरुष देव-गुरु-शास्त्र का सामीप्य प्राप्त करने के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
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