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श्रीवीर यद्यथ वचोरुचिरं न ते स्याद् मव्यात्मनां खलु कुतो भुवितत्त्वबोधः । तेजो विना दिनकरस्य विभातकाले पद्मा विकासमुपयान्ति किमात्मनैव ॥ अस्नेहसंयुतदशो जगदेकदीपश्चिन्तामणिः कठिनतारहितान्तरात्मा । अव्यालवृत्तिसहितो हरिचन्दनागस्तेजोनिधिस्त्वमसि नाथ निराकृतोष्मा ॥ - वर्धमानचरिते असगः
श्री वर्द्धमान वचसा पर-मा-करेण, रत्नत्रयोत्तम-निधेः परमाऽऽकरेण । कुर्वन्ति यानि मुनयोऽजनता हि तानि,
वृत्तानि सन्तु सततं जनता हितानि ॥ - सिद्धप्रियस्तोत्रे देवनंदिः
सद्दृष्टि-ज्ञान-वृत्तात्मा मोक्षमार्गः सनातनः । आविरासीद्यतो वन्द्य तमहं वीरमच्युतम् ॥
-प्रभाचन्द्रः
श्रीसभायां समभ्येत्य श्रीवीरं जिननायकम् । पूजयामास पूज्योयमस्तावीच्च पुनः पुनः ॥ -वादीभसिंहः
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हे वीर जिनेन्द्र ! यदि आपके मनोहारी वचन न होते तो निश्चय से इस भूतल पर भव्य जीवों को तत्त्व बोध कैसे होता ? प्रभातकाल में सूर्य के तेज के बिना क्या कमल आप से आप विकसित हो जाते हैं ?
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नाथ ! आप जगत के ऐसे अद्वितीय दीपक हैं कि जिसकी दशा (बाती) स्नेह (तेल) रहित है ( अर्थात् आप वीतराग दशा में स्थित हैं), आप चिन्तामणि ( मनवांछित देने वाले रत्न ) हैं, किन्तु आपकी अन्तरात्मा कठोरता (निर्दयता) से शून्य है, आप हरिचन्दनतरु हैं किन्तु वहाँ सर्पों का अभाव है (अर्थात् आप परोपकारी दयालु चेष्टाओं से युक्त हैं), आप तेज के निधि हैं किन्तु ( मन की ) ऊष्मा (गर्ग) का निराकरण करने वाले हैं ।
उत्कृष्ट लक्ष्मी के कारण, सम्यग्दर्शन- ज्ञान-चरित्र रूप रत्नत्रय के भंडार, श्री वद्धमान के वचनों के आश्रय से मुनिजन आत्महित साधन करते हैं और सामान्य जन भी अविकारी सुख प्राप्त करते हैं । उन भगवान का ऐसा वृत्त समस्त जनों के लिए सतत् हितकारी हो !
मैं उन अच्युत वीर प्रभु को नमस्कार करता हूँ जिनके द्वारा सम्यग्दर्शन- ज्ञान चरित्र रूप रत्नत्रयात्मक सनातन मोक्षमार्ग आविर्भूत हुआ ।
जिनेन्द्रों में प्रमुख श्री महाबीर की पूजा के लिए श्रीसभा (समवसरण) में आकर (इन्द्र ने ) उनको पूजा करके बार-बार स्तुति की थी ।
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