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अगलनिजामतीत-दोषमवाल्य-विधातमकत्व-ज्यम् । श्री पर्वमानं जिनमाप्तमुख्यं स्वयम्भुवं स्तोतुमहं यतिष्ये ॥ तव प्रेष्योऽस्मि दासोऽस्मि सेवकोऽस्मि अस्मिकिकरः। ओम-इति प्रतिपद्यस्व नाथ! नातः परं वे॥
-हेमचन्द्राचार्यः गतान्तो विद्यानां त्रिदशवनितानामधिपति, नं शक्तो यस्यासीद्गुणलवमपि स्तोतुमखिलम् । महिम्नामाधारो भुवन विततध्वान्त तपनः, स भूयान्नो वीरो जनन जय सम्पत्तिजननः ॥
-वर्धभानचरिते दामनन्दिः वीरमपारचरित्रपवित्रं, कर्ममहीरुहमूललवित्रम् ॥ संसाराप्रतिप्रतिबोध, परिनिष्क्रमणं केवल बोधम् ॥ परिनिवृत्ति सुखबोधितबोधं, सारासार विचार विबोधम् ॥ वन्दे मन्दारमस्तकपीठे, कृतजन्माभिषनं नुतपीठे ॥ दर्शनान्स विलब्धि विकरणं, केवल बोधामृत सुखकरणम् ॥
-माघनन्दिः
अनन्त ज्ञान के धनी, समस्त दोषों से रहित, अकाट्य सिद्धांत के प्रतिपादक, देवों द्वारा पूजित, आप्तपुरुषों में प्रमुख, स्वयंभू, ऐसे वर्द्धमान जिनेन्द्र की स्तुति करने का मैं प्रयत्न करता हूँ। मैं तुम्हारा प्रेष्य हूँ, दास हुँ, सेवक हूँ, किंकर हूँ, बस इतना कहदो नाथ ! कि मैं ऐसा हूँ, इसके अतिरिक्त फिर मुझे कुछ कहना शेष नहीं है-वही मेरे लिए पर्याप्त है। जिन्होंने समस्त विद्याओं का पार पा लिया है, जिनके अखिल गुणों की लवमात्र स्तुति करने में देवांगनाओं का अधिपति स्वयं इन्द्र भी समर्थ नहीं है, जिनका नाम ही लोक में भवाताप से बचने के लिए एक मात्र आधार है, वह वीर जिन समस्त जय और सम्पत्ति के जनक हैं। है वीर जिन ! आप अपार पवित्र चरित्र के धारी, कर्मरूपी वृक्ष का उन्मूलन करने वाले, संसार के प्रतिबोधकों में अप्रतिम, अभिनिष्क्रमण करके (दीक्षा लेकर) कैवल्य प्राप्त करने वाले, परिनिर्वाण के सूख की अनुभूति एवं बोध कराने वाले, तत्त्वातत्त्व विचार का ज्ञान देने वाले, सुमेरु शिखर स्थित (पांडुक शिला पर) देवेन्द्रों द्वारा वंदित सिंहासन पर जन्माभिषिक्त, दर्शनादि (नव केवल) लब्धियों से सुशोभित, सुखकर कैवल्यज्ञान रूपी अमत का पान करने वाले हैं। ,
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