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________________ सन्मतिजिन सरसिजधवन । मनिताखिल कर्मकमधनं । पद्मसरोवरमध्यगतेन्द्र। पावापुरि महावीर जिनेन्द्र॥ वीर भवोदधिपारोत्तारं । मुक्ति-श्री-वधु-नगर-विहारं ॥ विदिशकं तीर्थ पवित्रं । जन्माभिषकृत निर्मलगात्रं ॥ वर्धमान नामाख्य विशालं। मानप्रमाण लक्षण दशतालं ॥ शत्रुविमन्थन विकटभटविरं । इष्टैश्वर्यधुरीकृतदूरं ॥ कुंडलपुरि सिद्धार्थ भूपालं । तत्पत्नी प्रियकारिणी बालं ॥ तत्कुलनलिन विकाशितहंसं। घातपुरोघातिक विध्वंसं ॥ ज्ञानदिवाकर लोकालोकं । निजित काराति विशोकं ।। बालवयस्संयम सुपालितं । मोहमहानल मथन विनीतं ॥ -श्राशाधरः श्रीमते केवलज्ञान साम्राज्यफ्यशालिने । नमो वीराय भव्योघे धर्मतीर्थप्रवतिने ॥ -सकलकोत्तिः यदीया वाग्गंगा विविधनय-कल्लोल-विमला, बहज्ज्ञानाम्भोभिर्जगति जनतां या स्नपयति । इदानीमप्येषा बुध-जन-मरालैः परिचिता, महावीर स्वामी नयन-पथ-गामी भवतु मे ॥ -भागेन्दुः कमल जैसी मुख श्री वाले जिननाथ सन्मति ने समस्त कर्मों को पूर्णतया मथडाला । पावापुरी में पद्म सरोवर के मध्य उन महावीर जिनेन्द्र ने निर्वाण लाभ किया। वह वीर प्रभु संसाररूपी सागर से पार उतारने वाले और मुक्ति रूपी लक्ष्मीवधु में सदा विलास करने वाले हैं। जन्माभिषेक से हुए निर्मल देह वाले वह भगवान चौबीसवें पवित्र तीर्थ के कर्ता हैं। उनका विशाल आशय वाला वर्धमान नाम है और उनके शरीर का मान दश ताल है। कर्म शत्रुओं के उन्मूलन में वह अद्रत सुभट वीर हैं, और सांसारिक वैभव की धुरी को ही उन्होंने अपने से दूर कर दिया है। कुण्डलपुर के महाराज सिद्धार्थ की धर्मपत्नी प्रियकारिणी के वह लाडले पुत्र हैं। उनके कुलरूपी कमल को विकसित करने के लिए सूर्य के समान हैं तथा समस्त घात-प्रतिघात के विसध्वंक हैं। अपने ज्ञान सूर्य से लोकालोक को प्रकाशित करके तथा कर्म शत्रओं को पराजित करके वह विशोक हुए हैं। बालवय से ही संयम का सम्यक पालन करके तथा मोहरूपी महाअग्नि का शमन करके उक्त मोह को उन्होंने विनीत बना दिया है। श्री सम्पन्न केवलज्ञान रूपी साम्राज्य के स्वामी उन वीर प्रभु को नमस्कार हो, जिन्होंने भव्य जनों के हितार्थ धर्मतीर्थ का प्रवर्तन किया था। जिन वाणीरूपी गंगा में अनेकविध निर्मल नय कल्लोल करती हैं, जिसके बृहद् ज्ञानरूपी जल में जगत की जनता स्नान करती है, तथा जिससे बुध जन रूपी हंस सुपरिचित् हैं, वह महावीर स्वामी मेरे नयन पथगामी हों। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
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