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________________ ख - ३ २४ ] ज्ञातपुत्र महावीर की शरीर के प्रति निर्मोह भावना बड़ी आश्चर्यमयी थी। उन्हें शीत ताप उद्विग्न नहीं करता था, न वे रोग पर औषध करते । आँख में रज कण पड़ने पर उसे निकालने की इच्छा न करते, खुजली आने पर जलाने का यत्न न करते इस प्रकार देह के ममत्व से अत्यन्त ऊपर उठकर सदेह होते हुए भी विदेहवत् प्रतीत होते थे। यह योग की उच्च स्थिति की परिचायिका है। इस दशा को योग में 'जीवन-मृतक कहा गया है। इस स्थिति में पहुँचकर साधक जहाँ अपने पहले जीवन ( दीक्षा-पूर्व) की दृष्टि से 'मुक्तक' बन जाता है वहाँ इस नवीन दृष्टि से अमरत्व भी पा लेता है। जीवन मृतक वह जीवन्मुक्त पुरुष है जो सदा किसी ब्राह्मी स्थिति में लीन रहा करता है। महावीर स्वामी को इसी प्रकार एकाग्रचित्त से साधना करने, स्वयं को अनन्त शक्ति का स्रोत मानने, दत्तचित्त होकर संग्राम में जुट जाने और अनेकानेक बाधाओं उपसर्गों और संझावातों के आने पर भी अचल, अडिग, अटल रहने पर ही सत्य की प्राप्ति हुई थी। दीर्घ तपस्वी महावीर ने एक बार अपनी अहिंसावृत्ति की पूरी साधना का ऐसा हो परिचय दिया । जब वे जंगल में ध्यानस्थ खड़े थे, एक प्रचण्ड विषधर ने उन्हें डस लिया । उस समय वे न केवल ध्यान में ही अचल रहे, बल्कि उन्होंने मंत्री भावना का उस विषधर पर प्रयोग किया, जिससे वह "अहिंसा प्रतिष्ठायां तत् संनिधी वैर त्याग", इस योगसूत्र का जीवित उदाहरण बन गया । महावीर की विशिष्टता शास्त्रों में निम्न उपायों से बतायी गई है : (१) कांस्य पात्र की तरह निर्लेप । (२) शंख की तरह निरंजन राग-रहित । (३) जीव की तरह अप्रतिहत गति । ( ४ ) गगन की तरह आलम्बन रहित (५) वायु की तरह अप्रतिबद्ध ( ६ ) शरद ऋतु के जल की तरह निर्मल (७) सागर के समान गम्भीर (८) कमलपत्र के समान निलॅप । ( ९ ) कच्छप के समान जितेन्द्रिय । (१०) गैंडे के समान राग-द्वेष से रहित, एकाकी । ( ११ ) पक्षी की तरह अनियत बिहारी । ( १२ ) आरंड की तरह अप्रमत्त । (१३) गजेन्द्र के समान शूर (१४) सिंह के समान दुईर्ष । ( १५ ) वज्र के समान अडिग (१६) सूर्य के समान तेजस्वी, आदि । महावीर ने कहा है कि सुक्कभूले जहा स्वले, एवं कम्मा व रोहंति Jain Education International सिचपाने ण रोहति । मोहणिजे वयं गए || जिस तरह मूल सूख जाने से सींचने पर भी वृक्ष लहलहाता, हरा-भरा नहीं होता है, इसी तरह से मोहकर्म के क्षय हो जाने पर पुनः कर्म उत्पन्न नहीं होते । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
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