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________________ - महावीर की भाषा-क्रान्ति - -डा० नेमीचन्द जैन विगत शताब्दियों में जो भी क्रान्तियां घटित हुई हैं, उनमें भाषा की अर्थात माध्यम की क्रान्तियां अधिक महत्व की हैं। भाषा का संदर्भ बड़ा सुकुमार और संवेदनशील संदर्भ है। भाषा संपूर्ण मानव समाज के लिए एक विकट अपरिहार्यता है। जीवन का हरेक क्षण भाषा के बहुविध संदर्भो में सांस लेता है । भाषा जहाँ एक ओर सुविधा है, वहीं दूसरी ओर उसने अपने प्रयोक्ता से ही इतनी शक्ति अजित कर ली है कि वह एक खतरनाक औजार भी है। उसमें सजन, सुविधा और संहार तीनों स्थितियां स्पंदित हैं। बहुधा यही होता है कि भाषा के दो पक्ष, वक्ता और श्रोता, पूरी तरह कभी जुड़ नहीं पाते, सप्रेषण की प्रक्रिया में । सारी सावधानी के बावजूद भी कुछ रह जाता है, जिस पर वक्ता श्रोता दोनों को पछताना होता है। वह पास लाकर भी सारी दूरियों का समाधान नहीं कर पाती। भगवान महावीर ने भाषा को इस असमर्थता को गहराई में समझा था। उन्होंने अनुभव किया था कि एक ही भाषा के बोलने वालों के बीच ही भाषा ने दूरियां पैदा कर ली हैं। उन्होंने देखा पंडित बोल रहा है, आम आदमी उसके आतंक में फसा हुआ है। उसकी समझ में कुछ भी नहीं है, किन्तु पंडित वर्ग उस पर थोपे जाता है स्वय को। दोनों एक ही जमाने में अलग-अलग जी रहे हैं। महावीर को यह असंगति कचोट गई। उन्होंने आम आदमी की पीड़ा को पकड़ा, और उसी की भाषा को अपने जीवन की भाषा बनाया; क्योंकि उनके यूग तक धर्म का, दर्शन का जो विकास हो चका था वह भाषा की क्लिष्टता और परिभाषाओं के बियाबान में भटक गया था। आम आदमी इच्छा होते हुये भी अध्यात्म की गहराई में भाषा की खाई के कारण उतर नहीं पाता था। महावीर ने आम आदमी की इस कठिनाई को माना, समझा और अध्यात्म के लिये उसी के औजार को अंगीकार किया। उन्होंने पंडितों की भाषा को अस्वीकार किया, और सामान्य व्यक्ति की भाषा को स्वीकारा । यह क्रान्ति थी महान युग प्रवर्तक । उन्होंने भाषा के माध्यम से वह सब ठकरा दिया जो विशिष्टों का था। वे मुट्ठी भर लोगों के साथ कभी नहीं रहे, उन्होंने सदैव जन समुदाय को अपनाया। भगवान ने उन सारे संदर्भो को द्वितीय कर दिया जो अलगाव का अलख जगा रहे थे; जो उनकी समकालीन चेतना को क्रमहीन और खण्डित कर रहे थे। इसलिये उन्होंने साफ-सुथरी परिभाषा-मुक्त भाषा में लोगों से आमने-सामने बात की और जीवन के संदर्भो को, जो जटिल और पेचीदा दिखाई देते थे, खोलकर रख दिया। भाषा में कितनी अपार ऊर्जा धड़कती है इसे महावीर जानते थे । अर्द्धमागधी में वह उर्जस्विता थी. जिसकी खोज में भगवान थे। जो भाषा एक जगह आकर ठहर गयी थी. महावीर ने उसमें बोलने से इन्कार कर दिया। शास्त्र की पराजय ही महावीर की जय है; जहाँ शास्त्र ठहरता गया, महावीर वहां से आगे बढ़े हैं। महावीर की भाषा को 'दिव्य ध्वनि' कहा गया। यह कोई रहस्यवादी शब्द नहीं है। 'दिव्य ध्वनि' वह जो सबके पल्ले पड़े, और अदिव्य वह जो कुछेक की हो और शेष जिससे वंचित रह जाते हों। महावीर की दिन ध्वनि अपने युग के प्रति पूरी तरह ईमानदार है, वह सुबोध है, और अपने युग के तमाम संदर्भो से जुड़ी हुई है। महावीर की भाषा-क्रान्ति को समझने के लिये दो शब्दों को समझने की जरूरत है; 'ज्ञान' और 'समझ' या सभ्यकज्ञान । 'जानना' समझना' नहीं है; ज्ञान में हम जानते हैं, समझते नहीं हैं; सभ्यकज्ञान में हम जानते भी हैं और समझते भी हैं। जनभाषा अर्धमागधी के माध्यम से सभ्यग्ज्ञान का प्रसार करना महावीर की महान काति. कारी देन है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
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