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________________ १६ ] साध्वियों का समान रूप से आदर करती थी। नौंवी-दसवीं शती में ही सर्वप्रथम दिगम्बरों और श्वेताम्बरों के मंदिर पृथक-पृथक बनना प्रारम्भ हुए, और प्रतिमाओं में भिन्नता तो और भी बहुत बाद में आई। दूसरे, यद्यपि तत्कालीन तान्त्रिक मतों एवं वाममार्गों के प्रभावों से जैनधर्म ने स्वयं को सावधानीपूर्वक बचाये रक्खा, उसमें यक्ष-यक्षियों (शासनदेवियों), क्षेत्रपाल आदि की पूजा और उनके आश्रय से मन्त्र-तन्त्रों का प्रचार, अहिंसा एवं सदाचार की सीमा में रहते हुए, बढ़ा । तत्कालीन नाथपंथ के प्रभाव में कतिपय जैनसाधुओं ने आदिनाथी, नेमिनाथी, पारसनाथी जैसे योग प्रधान पंथ भी चलाये जो जोगी पन्थों में अन्तर्भूत हो गये लगते हैं। जोइन्दु, रामसिंह, देनसेन प्रभृति कई ने अपने सरल अपभ्रंश दोहों के माध्यम से जैन धर्म का वह आध्यात्मिक रूप प्रस्तुत किया जो प्रारंभिक रख, कबीर, नानक, दाद आदि निर्गण धारा के रहस्यवाद का आधार बना लगता है। तीसरे, पूर्णमध्यकाल का जैनधर्म तत्कालीन पौराणिक ब्राह्मणधर्म, विशेषकर भागवत तथा उससे उद्भूत नैष्णव धर्म से भी पर्याप्त प्रभावित हुआ । विशेषकर गृहस्थ के षोडश संस्कारों, पूजा-अनुष्ठान आदि के आडम्बर और वर्ण एवं जाति प्रथा के क्षेत्रों में जैनधर्म की मौलिक जातिभेद विरोधी नीति के विपरीत जैनसमाज में भी जातिवाद आने लगा और जातियाँ रूढ़ होने लगी। मध्ययुग मध्ययग के प्रारंभ में ऊपरी दृष्टि से देखने वाले किसी विदेशी को एक स्थान में साथ-साथ रहने वाले, बहधा एक जातीय, समान भाषा, नामादि, वेशभूषा, खान-पान, रहन-सहन एवं रीति-रिवाजों वाले जैनों और वैष्णवादि हिन्दुओं के मध्य कोई भेद न दिखाई पड़ना या न किया जाना स्वाभाविक था। बहुधा एक ही परिवार के विभिन्न स्त्री-पुरुष सदस्य जैन, वैष्णव, शैव, नाथपंथी आदि होते थे। उनके विभिन्न धार्मिक विश्वासों का उनके पारिवारिक सम्बन्धों एवं पारिवारिक एकसूत्रता पर भी प्राय: विशेष प्रभाव नहीं पड़ता था। यहां तक होने लगा कि एक जैन अपने सजातीय वैष्णव के साथ तो रोटी-बेटी व्यवहार निस्संकोच कर लेता था, किन्तु भिन्न-जातीय जैन के साथ वैसा करने में झिझकता था-यथा एक अग्रवाल जैन स्वयं को खंडेलवाल जैनों की अपेक्षा अग्रवाल वैष्णवों के अधिक निकट समझता था-कम से कम जातीय एवं सामाजिक दृष्टि से । यही बात अन्य जैन जातियों के विषय में थी। मध्यकाल में विदेशी शासन से उत्पन्न विषम परिस्थितियों के कारण परदा प्रथा, बाल विवाह, अनमेल विवाह, विधवा विवाह पर प्रतिबन्ध, सतीप्रथा, जातिप्रथा की रूढ़ता, आदि उदय में आईं और उत्तरोत्तर बढ़ती गयीं। साथ ही गृहस्थों के धर्म-कर्म पर साधुओं, यातियों, भट्टारकों, श्रीपूज्यों आदि महंतशाही धर्मगुरुओं और ब्राह्मण पुरोहितों का प्रभाव एवं नियन्त्रण भी उत्तरोत्तर बढ़ता गया । संख्या, शक्ति और प्रभाव में भी हानि होती गयी। जातीय एवं धार्मिक जीवन के ह्रास का ही वह युग था। १२वीं शती के अन्त से लेकर १८वीं शती के अन्त पर्यन्त, लगभग ६०० वर्ष के इस मध्यकाल की सबसे बड़ी ऐतिहासिक विशेषता इस देश में मध्य एशियाई मुसलमानों के आक्रमण और स्वदेशी राजसत्ताओं को धीरे-धीरे समाप्त करके अथवा पराधीनता की बेड़ियों में जकड़ कर अपने राज्यों की स्थापना है। भारतीय राजनीति, अर्थ व्यवस्था, सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन में एक नवीन, अपरिचित, प्रबल एवं विरोधी या प्रतिकूल तत्व का प्रवेश हआ, जिसने विविध प्रकार की उथल-पुथल, क्रान्तियों और आन्दोलनों को जन्म दिया, और देश का स्वरूप बहुत कुछ बदल डाला। उत्तर प्रदेश की जनता को मुसलमानों का प्रथम साक्षात् परिचय ११वीं शती ई० के प्रथम पाद में मंदिरमूर्ति-भंजक महमूद ग़ज़नवी के लुटेरे आक्रमणों के माध्यम से हुआ था। महमूद ने १०१८ई० में बरन (बुलन्दशहर) के राजा के हरदत्त पर आक्रमण करके उसे पराधीन किया, महावन और मथुरा को लूटा, वहाँ स्थित विशाल एवं कलापूर्ण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012057
Book TitleBhagavana Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherMahavir Nirvan Samiti Lakhnou
Publication Year1975
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size16 MB
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